जार्ज डब्लू बुश के उत्तराधिकारी के रूप में बराक हुसैन ओबामा की ताजपोशी के बाद अब अमेरिका से भावी संबंधों को लेकर आकलन शुरू हो गया है. पिछले कुछ सालों में भारत-अमेरिका एक दूसरे के काफी करीब आए हैं. खासकर परमाणु करार ने दोनों देशों के बीच की दूरी पाटने में अहम किरदार निभाया है जिस तरह से बुश प्रसाान ने पाकिस्तान को एकतरफा मदद देने की आदत को छोड़कर भारत से द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का प्रयास किया ठीक वैसी ही आशा ओबामा से की जा रही है. महात्मा गांधी के प्रशंसक और हनुमान भक्त की अपनी छवि के चलते ओबामा न केवल भारतीय अमेरिकी बल्कि भारत में रहने वाले लोगों के दिल में भी रच-बस गये हैं. भारतीय मीडिया ने भी उन्हें सिर-आंखों पर बैठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें हमेशा मैक्केन के मुकाबले तवाो दी गई. उनके कथनों को प्रमुखता से प्रकशित किया गया. कुछ वक्त के लिए तो ऐसा लगा जैसे या तो हम अमेरिकी हो गये हैं या फिा ओबामा भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं. डेमोक्रेट से उम्मीदवारी तय होने से लेकर व्हाइट हाउस के सफर तक उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया गया. लिहाजा अब उनसे अपेक्षाएं भी बड़ी-बड़ी की जा रही हैं.
भारतीय यह मानकर चल रहे हैं कि संबंधों में मधुरता की दिशा में जो थोड़ी बहुत कसर बुश के कार्यकाल में रह गई थी उसे ओबामा पूरा कर देंगे. लेकिन अंकल सैम की विदाई को लेकर दिल्ली में जो मायूसी दिखाई दे रही है उससे साफ है कि ओबामा के साथ बेहतर भविष्य को लेकर भारतीय नेतृत्व भी कहीं न कहीं आशंकित है. भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर जिस तरह का रुख ओबामा ने अपनाया था उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ओबामा ने खुलकर भारत को छूट देने की मुखालफत की थी. इसलिए अब यह देखने वाली बात होगी कि वो करार पर नये सिरे से क्या रुख अख्तियार करते हैं. वैसे ऐसी भी आशंका जताई जा रही है कि ओबामा भारत को न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीट्री पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर सकते हैं. उस स्थिति में करार पर प्रश्चिन्ह लग जाएगा और भारत को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा. इसके साथ ही कश्मीर पर ओबामा ने पूर्व में जो संकेत दिए थे अगर वो उस पर कायम रहते हैं तो निश्चित ही भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. बराक ओबामा ने मतदान से कुछ दिन पूर्व कहा था कि हमें कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में कोशिश करनी चाहिए, इससे पाकिस्तान की चिंता भारत की तरफ से हट जाएगी और वह आतंकवादियों पर ध्यान केंद्रित कर सकेगा. जुलाई 2007 में विदेश नीति पर लिखे अपने लेख में ओबामा ने कहा था कि हम कश्मीर इश्यू को सुलझाने में भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता को प्रोत्साहित करेंगे. ओबामा ने यह भी कहा था कि वो पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को कश्मीर विवाद के निपटारे के लिए विशेष दूत बनाकर भेजेंगे. भारत शुरू से ही कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा बताता रहा है. उसे न तो किसी का दखलंदाजी वाला रवैया पसंद है और न ही वो पसंद करने वाला है. बुश के कार्यकाल में भी जब जनमत संग्रह जैसी बातें उठी थी तो भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. लिहाजा दोनों देशों के रिश्तों में काफी कुछ इसबात पर निर्भर करेगा कि ओबामा कश्मीर को कितनी तवाो देते हैं.
वैसे ओबामा के एजेंडे में इस वक्त ईरान, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मुख्य रूप से शामिल हैं. ओबामा ईरान से चल रही तनातनी को जल्द खत्म करना चाहेंगे. बुश के साथ ईरान के संबंध किस कदर बिगड़ गये थे यह किसी से छिपा नहीं है. बात युद्ध तक पहुंच गई थी और अगर गर्माहट थोड़ी भी बढ़ जाती तो ईरान को भी इराक बनते देर नहीं लगती. ओबामा इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों की दशा पर पहले ही चिंता जता चुके हैं. ऐसे में उनकी कोशिश होगी कि इराक को वहां के हुक्मरानों के हवाले करके सेना को उस नरकीय जिंदगी से बाहर निकाला जाए. इसके बाद ओबामा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से रिश्ते दुरुस्त करने की तरफ आगे बढ़ेंगे. पाकिस्तान से भी अमेरिका के रिश्ते पिछले कुछ वक्त से ठीक नहीं चल रहे हैं. आतंकवादियों पर पाक सीमा में घुसकर हमले संबंधी खुलासे के बाद जिस लहजे में पाक प्रधानमंत्री गिलानी ने बयानबाजी की थी उससे दोनों के रिश्तों में और तल्खी आ गई थी. भारत से परमाणु करार से पहले तक पाकिस्तान अमेरिका का विश्वस्त मित्र और सैनिक साजो-सामान का बहुत बड़ा खरीददार रहा है. पाकिस्तानी सेना की करीब 90 प्रतिशत खुराक अमेरिका की पूरी करता रहा है. ऐसे में ओबामा पाक पर पहले जैसी मेहरबानी दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. हालांकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा ने यह कहकर कि पाक आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता है, यह संकेत दिए थे कि वो पाक के साथ बेवजह नरमी नहीं बरतने वाले लेकिन इसे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर वोट खींचने की कवायद के रूप में देखना गलत नहीं होगा. ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन के साथ उम्मीदवारी पाने के द्वंद्व में यह भी कहा था कि वो आउटसोर्सिंग को अमेरिकी कामगारों के खिलाफ हिंसा मानते हैं क्योंकि इसके जरिए इन लोगों के रोजगार दूसरे देशों को भेजे जा रहे हैं.
गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आउटसोर्सिंग के चलते कई कंपनियां यहां फली फूलीं. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध हुए हैं. इनमें इफॉम्रमेशन टैक्नोलाजी का सबसे बड़ा हिस्सा है. अब चूंकि ओबामा व्हाइट हाउस की गद्दी पर काबिज हो गये हैं इसलिए हो सकता है कि वो इस बारे में भी कुछ ऐसे कदम उठाएं जो भारत के लिहाज से अच्छे न हों. ओबामा का चुना जाना निश्चित ही अमेरिका के इतिहास में बहुत ही ऐतिहासिक क्षण हैं लेकिन भारत के लिए यह बदलाव खुशियों की बयार लेके आएगा ऐसी उम्मीदें पालना भी बेमानी होगा.
नीरज नैयर
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