Wednesday, March 25, 2009

इसलिए मिला ऑस्कर

नीरज नैयर
फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर चल रहे तर्क-कुर्तक से इतर यह वक्त जश् मनाने का है, क्योंकि भारत की झोली तीन ऑस्कर अवॉर्डों से गुलजार हुई है. जबकि फिल्म को आठ अवॉर्ड मिले हैं. भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म के इतनी ऊंचाईयों पर पहुंचने के बाद अब यह चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर एक साधारण सी स्टोरी को इतनी सफलता कैसे मिल गई, आखिर कैसे धारावी की झुग्गी-झोपड़ी और यहां के बच्चों का जीवन संघर्ष ऑस्कर की जूरी को इतना भाया कि फिल्म को पुरस्कारों से लाद दिया गया. शायद फिल्म का निर्देशन और प्रेजेंटेशन इतनी जबरदस्त रही कि उसने नीरस सी दिखने वाली पटकथा को भी सुपर-डुपर हिट बना डाला. निश्चित ही इस बात में कोई दो राय नहीं कि एक ऐसा विषय जिस पर न जाने कितनी बॉलीवुड फिल्में बनती रही हैं और बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ती रहीं को उठाकर भेड़-चाल से अलग दिखाना और उसमें ऐसी जान फूंकना कि वो खुद ब खुद चलने लगे कोई आसान काम नहीं था लेकिन बॉयल से उसे बखूबी कर दिया. भारतीय पृष्ठभूमि और यहां के लोगों को ध्यान में रखते हुए फिल्म के हर मोड़ को उसी अंदाज में फिल्माया गया जैसे आम हिंदी फिल्मों में होता है. फिल्म में गाने थे, एक्शन था, रोमांस था और कॉमेडी भी यानी बॉलीवुड टाइप मूवी मगर इसे फुल टू बॉलीवुड मूवी नहीं कहा जा सकता क्योंकिअगर यह फिल्म बॉलीवुड से निकलकर आई होती तो इतना दुख-दर्ददिखा दिया जाता कि टिकट खरीदकर टाइम पास करने आने वालों को बेवजह आंसू बहाने पड़ते. कुल मिलाकर फिल्म के हर एंगल में हकीकत से रू ब रू कराया गया. भारत की मुफलिसी, लाचारी का जो बखान किया गया है वो गलत नहीं है. लेकिन फिर भी फिल्म और इससे जुड़े कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर जो प्रसिद्धि मिली है वो थोड़ी अचरज करने वाली है. खासकर ऑस्कर में. ऑस्कर समारोह में नामी-गिरामी हॉलीवुड फिल्मों को पछाड़ कर आठ अवॉर्ड हथिया लेना मामूली बात नहीं. स्लमडॉग मिलेनियर के गोल्डन ग्लोब से लेकर ऑस्कर तक के शानदार सफर के पीछे दो प्रमुख कारण नजर आते हैं. एक तो यह कि भारत कि जो तस्वीर पेश की गई है वैसी तस्वीर इतने पास से विश्व मंच पर शायद पहली बार पहुंची है और दूसरा, फिल्मभारतीय होते हुए भी ब्रिटेन से ताल्लुक रखती है. फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ब्रितानी हैं. ऑस्कर में स्लमडॉग ब्रितानी फिल्म के रूप में ही नामांकित हुई थी. भारत में रहमान और पोकुट्टी से पहले जो एक मात्र ऑस्कर आया था वो फिल्म गांधी की कास्टयूम डिजाइनिंग के लिए भानू अथैया को मिला था लेकिन उसका निर्देशन भी एक विदेशी यानी हॉलीवुड के रिचर्ड एटनबरो ने किया था. 1992 में सत्यजीत रॉय को भी ऑस्कर मिला था पर लाइफ टाइम अचीवमेंट की श्रेणी में न कि किसी फिल्म के लिए. ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड फिल्मों में इतना दम नहीं होता कि ऑस्कर की दौड़ में खुद को टिकाए रख सकें. लगान, तारे जमीं पर, वॉटर आदि बहुत सी फिल्में थीं जो ऑस्कर में नामांकित तो हुईं मगर हॉलीवुड की चमक-धमकके आगे पिछड़ती चली गईं. लगान को न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी खूब प्रशंसा मिली मगर नहीं मिला तो ऑस्कर. भारतीय फिल्में अंतरराष्ट्रीय मंच पर छाप छोड़ने में हमेशा से ही सफल रही हैं. मगर उन्हें महज कोरी वाह-वाही से संतोष करना पड़ा है. ऑस्कर में बैठी जूरी भारतीय फिल्मों के मार्मिक चित्रण और पटकथा को आज तक नहीं समझ पाई है. दरअसल यह कुछ और नहीं बल्कि मेड इन इंडिया का वो लेवल है जिसे देखकर ही समझ लिया जाता है कि यहां कुछ भी उस स्तर का नहीं हो सकता जिस स्तर का हॉलीवुड वाले बनाते हैं. इसलिए जब भी कोई फिल्म बॉलीवुड से ऑस्कर में जाती है उसे पहली दौड़ में ही बाहर कर दिया जाता है. चाहे फिर वो हॉलीवुड की नासमझी वाली फिल्मों से बेहतर ही क्यों न हों. आजादी के समय में भारतीयों को जिस दोयम दर्जे की नजर से देखा जाता था वही नजरीया आज भी कायम है. हमारी काबलियत का लोहा हर कोई मान चुका है, पूरे देश में भारतीय प्रतिभा का झंडा गाड़ रहे हैं. लेकिन ऑस्कर में भेदभाव का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. स्लमडॉग निश्चित ही बेहतरीन फिल्म है पर अगर उस पर मेड इन इंडिया का लेवल लगा होता तो शायद वो इतनी कामयाबी हासिल नहीं कर पाती. अल्ला रख्खा रहमान का संगीत इस फिल्म में कमाल का रहा है लेकिन इससे कई गुना अच्छा वो भारतीय फिल्मों में दे चुके हैं. रोजा, ताल जैसी बहुत सी फिल्में हैं जिनमें रहमान ने लोगों को न चाहते हुए भी थिरकने पर मजबूर कर दिया. लेकिन उन्हें ऑस्कर स्लमडॉग ही दिलवा सकी वो भी एक नहीं दो-दो क्योंकि वो ब्रिटिश फिल्म के रूप में नामांकित हुई थी. मशहूर हॉलीवुड स्टार ब्रैड पिट की जिस फिल्म को सर्वाधिक 13 नामंकन मिले थे उसे रेस में सबसे आगे माना जा रहा था. मगर ऑस्कर का फैसला करने वालों को एक विदेशी के हाथों उकेरी गई गरीब भारत की तस्वीर ज्यादा पसंद आई. फिल्म को हर क्षेत्र के लिए पुरस्कार से नवाजा गया. संगीत, पटकथा, निर्देशन, सांउड मिक्सिग आदि..आदि. हॉलीवुड अदाकारा केट विंसलेट को उनकी फिल्म द रीडर के लिए सर्वश्रेष्ट अभिनेत्री का जो खिताब दिया गया वो महज इसलिए कि स्लमडॉग में हीरोइन के करने के लिए कुछ खास नहीं था, या कह सकते हैं कि वो कोई विदेशी नहीं थी. अगर ऐसा होता तो शायद बेस्ट एक्ट्रस का सम्मान भी स्लमडॉग की झोली में आकर गिरता. फिल्म और उससे जुड़े कलाकारों के लेकर बॉलीवुड में जो जंग छिड़ी है वो शायद प्रतिस्पर्धा के दौर में दूसरे को आगे निकलता देख मन में उठने वाली ईष्या हो सकती है, फिल्म को लेकर हुए प्रदर्शन भी महज सुर्खियां बटोरने का हिस्सा हो सकते हैं लेकिन फिल्म ने सफलता के जो आयाम छूए है उसके पीछे इसके विदेशी होने की सच्चाई कोई फसाना नहीं हकीकत है इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

Monday, March 2, 2009

आखिर बाघ बचें तो कैसे

बाघों को बचाने के लिए कागजी और जुबानी तौर पर जितना काम किया जाता रहा है. अगर उसका एक प्रतिशत भी हकीकत में किया जाता तो शायद बाघों की घटती संख्या पर अंकुश लगाया जा सकता था.
अब तक हमें सुकून था कि सरिस्का जैसे हालात कहीं और नहीं हैं. कम से कम मध्यप्रदेश में तो बिल्कुल नहीं लेकिन हाल ही में आई कुछ खबरों के बाद यह साफ हो गया है कि बाघों के लिए मशहूर मध्यप्रदेश का पन्ना टाइगर रिजर्व भी सरिस्का में तब्दील हो चुका है. यहां काफी समय से एक बाघ ही दिखाई दे रहा है. जबकि 2006 में की गई गणना में 24 बाघ होने की बात कही गई थी. 452 वर्ग किलोमीटर में फैले पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की घटती संख्या को लेकर कई बार आवाजें उठती रहीं लेकिन किसी ने उनपर गौर करना मुनासिब नहीं समझा. संबंधित अधिकारी सच को छुपाने में लगे रहे और धीरे-धीरे बाघों का सफाया होता गया. इसे सरकारी अमले की संवेदनशून्यता ही कहा जाएगा कि उसने एक बार भी ऐसी खबरों पर सर्तक होने की जहमत नहीं उठाई और अब बैठकें हो रही हैं, फटकार लगाई जा रही है, बांधवगढ़ से दो बाघिनों को लाकर बाघ बचाने की मुहिम के प्रति प्रतिबध्यता दशाई जा रही है लेकिन अब भी इस बात पर गौर नहीं किया जा रहा है कि आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों. यह केवल मध्यप्रदेश की बात नहीं है कामोबश पूरे देश का ऐसा ही हाल है. देश में हर साल टाइगर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं बावजूद इसके बाघों की संख्या खतरनाक तरीके से घटती जा रहा है. पिछले चार सालों के दरमां एक अरब 96 करोड़ का पैकेज बाघ संरक्षण के लिए जारी किया जा चुका है. लेकिन हकीकत हमारे सामने है. वर्ष 2001-2002 में हुई गणना में देश में 3652 बाघ होने के दावे किए गये. ताजा गणना में 60 प्रतिशत से अधिक की कमी के साथ इनकी संख्या 1500 के आस-पास बताई गई मगर मौजूदा हालातों को देखते हुए यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि देश में इतने बाघ भी बचे होंगे. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उडीसा, झारखंड में कुल 601 बाघ बचे हैं जिनमें से 300 सिर्फ मध्यप्रदेश में ही हैं. 2004 के दौरान मध्यप्रदेश में इनकी संख्या 700 के करीब हुआ करती थी. पर अब यहां के टाइगर रिजर्वों की हालत भी कुछ खास ठीक नहीं चल रही. पन्ना का सच सामने आ चुका है, कान्हा में भी स्थिति बिगड़ती जा रही है. बीते कुछ दिनों में यहां दो बाघों की रहस्यमय तरीके से मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी ज्यादा बाघ नहीं बचे हैं. हाल ही में शिकार की कुछ घटनाओं से बाघ संरक्षण के नाम पर किए जा रहे राज्य स्तरीय बड़े-बड़े दावों की असलीयत सामने आ चुकी है. बाघ सरंक्षण के प्रति सरकार की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फॉरेस्ट गार्ड के बहुत से पद अब भी खाली पड़े हैं. सच तो यह है कि वन एवं पर्यावरण विभाग इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. कर्मचारियोंको न तो पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है और न ही उनके पास पर्याप्त सुविधाएं हैं. शिकारी अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग कर रहे हैं जबकि वन्य प्राणियों की हिफाजत का तमगा लगाने वालों के पास वो ही पुराने हथियार हैं. हालात ये हो चले हैं कि अधिकतर अधिकारी महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं. उनमें न तो वन्यजीवों के प्रति कोई संवेदना है और न ही काम के प्रति कोई लगाव. यही कारण है कि रोक के बावजूद बाघों का शिकार बड़े पैमाने पर जारी है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खाल की तस्करी में लगे हुए हैं. थोड़े से पैसे के लिए कहीं-कहीं वन विभाग के लोग भी इनकी मदद में शरीक हो जाते हैं. बाघों को बचाने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं पहल कर चुके हैं. कई समीतियां बनाई गईं हैं, कई प्रोजेक्ट चलाए गये हैं मगर इस दुर्लभ प्राणी के अस्तित्व की टूटती डोर को थामने वाले सार्थक नतीजे अब तक सामने नहीं आ पाए हैं. जंगलों का सिमटना और उसमें मानवीय दखलंदाजी बदस्तूर जारी है. नतीजतन बाघों की रिहाइश वाले इलाकों में ही बाघों की संख्या घटती जा रही है. जंगल में पर्याप्त भोजन का आभाव हो चला है जिसके चलते बाघ गांवों का रुख कर रहे हैं और क्रूर इंसान के हाथों मारे जा रहे हैं. महज चंद दिनों में ही इसके बहुत से मामले सामने आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में दो बाघों को मारने की कोशिश चल रही है क्योंकि भूख की तड़पन में उनसे मानव का शिकार हो गया, वन विभाग खुद मोर्चा संभाला हुआ है. जंगल के राजा को जंगल में घेरकर मारने की कवायद से जंगल के बाशिंदे सहमे हुए हैं. कुछ समय पहले कुछ चीतों को भी मानव के हाथों मौत मिली थी, उनका कसूर भी इतना था कि वो भूख बर्दाश्त नहीं कर पाए और बस्तियों की तरफ रुख कर बैठे. बाघ जंगल से बाहर आते हैं तो लोगों द्वारा मार दिए जाते हैं. जंगल में रहते हैं तो शिकारियों का शिकार बन जाते हैं. संरक्षण ग्रहों में संरक्षण के नाम पर उनकी जिंदगी से जुआ खेला जा रहा है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर यह प्राणी बचे तो कैसे. सरकार भले ही इस बात को स्वीकार न करे मगर सच यही है कि जितनी तेजी से बाघों के घर सुरक्षित करने की योजनाएं परवान चढ़ी, जंगलों को टाइगर रिजर्व घाषित किया गया. उतनी ही तेजी से बाघ तस्करों के लालच और सरकार की सुस्ती का शिकार होते गये. जितनी तेजी से देश में बाघों की संख्या घट रही है उससे वो दिन दूर नहीं जब हमें राष्ट्रीय पशु के लिए किसी और जानवर को चुनना होगा. एक संस्था ने हाल ही में ऐसा कैंपेन चलाकर बाघों के मिटते अस्तित्व की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की है लेकिन उसकी यह कवायद कोई खास असर छोड़ पाएगी इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ती है. क्योंकि एक आम आदमी से लेकर देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि बाघ विलुप्ती के कगार पर हैं. लेकिन फिर भी बाघ सरंक्षण के नाम पर जुबान जमा खर्ची के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा. इस दिशा में ठोस और गंभीर कदम उठाने की दरकार अब भी कायम है.