Sunday, September 4, 2011

टीम अन्ना पर कार्रवाई के मायने



चीन के बारे में कहा जाता है कि वो दुश्मन को कमजोर करने के लिए कभी सीधे तौर पर हमला नहीं करता, वो ऐसे रास्तों से वार करता है जहां से चोट भी पहुंचे और उसे नुकसान भी न हो। यही वजह है कि चीन की पहचान एक कुटिल मुल्क के रूप में बन गई है। 1963 में भारत-चीन की लड़ाई के बाद उसने तमाम मतभेदों के बावजूद कभी इतिहास दोहराने का प्रयास नहीं किया। लेकिन खामोशी से शनै: शनै: अपने भारत विरोधी अभियान को आगे बढ़ाता रहा। कुछ यही तरीका आजकल सरकार अपना रही है। अपने विरोधियों पर सीधे हमला करने के बजाए सरकार दूसरे रास्तों से उनपर घेरा कसने में लगी है। बाबा रामदेव ने कालेधन को लेकर सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तो बदले में उन्हें जांच एजेंसियों के फेर में उलझा दिया गया। उनके सहयोगी बालकृष्ण की नागरिकता पर सवाल उठाए गए। उनके पासपोर्ट को फर्जी बताया गया और बाद में उनके प्रमाणपत्रों को अवैध बताकर उन्हें पुलिस थाने के दर्जनों चक्कर लगवाए गए। अन्ना के आंदोलन के माध्यम से बाबा ने जब फिर आवाज बुलंद करने की कोशिश की तो उन्हें प्रवर्तन निदेशालय का डर दिखाया गया। विदेशों के लेन-देन के नाम पर उनके खिलाफ मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा ये भी बताया गया कि निदेशालय बाबा की विदेशों में संचित संपत्ति की खोज-खबर में जुट गया है। अब इसी तरीके से अन्ना के सदस्यों से निपटा जा रहा है। पहले किरण बेदी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस भेजा गया, फिर प्रशांत भूषण और इसके बाद अरविंद केजरीवाल को।

केजरीवाल को इस नोटिस के अलावा आयकर विभाग से भी नोटिस थमाए गए। सबसे अजीब रहा कुमार विश्वास को नाटिस भेजना। विश्वास से एडवांस में टैक्स डिक्लियर करने को कहा गया है। इससे पहले कभी उन्हें इस तरह का नोटिस नहीं मिला। जो इंसान समय पर टैक्स का भुगतान करता हो, अचानक से उसे एडवांस में टैक्स डिक्लियर करने को कहना क्या सामान्य प्रक्रिया कही जा सकती है? एकबारगी टीम अन्ना के प्रमुख सदस्यों की बात छोड़ दें तो भी विश्वास को नोटिस गले उतरने वाली बात नहीं है। इससे साफ होता है कि सरकार हर उस शख्स को सबक सिखाना चाहती है, जिसने अन्ना का साथ देने का साहस दिखाया। जाहिर है, ऐसे में अभी कई और लोग निशाना बन सकते हैं। अन्ना के अनशन को जितना जनसमर्थन मिला, उसकी उम्मीद सरकार ने नहीं की थी। सरकार और उसके रणनीतिकार मान बैठे थे कि थोड़ी बहुत सख्ती से आंदोलन को कुचल दिया जाएगा। पहले सरकार अन्ना के सदस्यों को अनशन की इजाजत के लिए यहां-वहां दौड़ाती रही, और जब इजाजत दी तो तमाम शर्तें लगा दी गईं। जब इससे भी बात नहीं बनी तो अनशन वाले दिन अन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी और इसके बाद रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ उससे सरकार का खीजना लाजमी था। सिंहासन पर बैठने वाले को कभी वो चेहरे नहीं सुहाते जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर उसके उपहास में शामिल हों। अन्ना के मंच से स्वयं अन्ना और उनके सहयोगियों ने सरकार पर कई बार हमले बोले, शब्दबाणों के इन हमलों में कई शब्द तीखे भी थे। लेकिन इनके तीखे होने की वजह खुद सरकार ने पैदा की थी। वैसे शब्दों के तीखेपन का अहसास संसद में बैठने वालों को बिल्कुल भी नहीं होता अगर ये हजारों लोगों की मौजूदगी में नहीं बोले गए होते।

अरविंद, किरन, प्रशांत और ओमपुरी को भेजे गए विशेषाधिकार हनन के नोटिस के बाद ये बात भी विचारणीय हो गई है कि क्या विशेषाधिकार सिर्फ माननीयों के होते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता और सांसद मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उसे क्या कहा जाए। हाल ही में जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के बारे में जो कुछ कहा, क्या उसे लेकर उन्हें नोटिस नहीं भेजा जाना चाहिए। इसका मतलब तो ये हुआ कि माननीय एक दूसरे पर चाहे जितनी कीचड़ ऊछालें, जितने चाहे अपशब्द कहें, किसी को कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन अगर सांसदों-नेताओं के आचरण से त्रस्त जनता कुछ बोल दे तो वो उनकी शान के खिलाफ हो जाता है। टीम अन्ना ने नेताओं के खिलाफ जो कुछ भी कहा, आम जनता को उससे कोई ऐतराज नहीं होगा, ऐसा इसलिए नहीं कि लोगों को माननीयों का उपहास उड़ाने की आदत है बल्कि इसलिए कि उनका आचरण उपहास उड़ाने लायक बन गया है। सरकार अब भले ही कितनी भी सफाई दे मगर टीम अन्ना और बाबा के खिलाफ उठाए गए कमद बदले की कार्रवाई ही माने जाएंगे। इन दोनों मामलों में ये बात काबिले गौर है कि जिन बातों को कार्रवाई का आधार बनाया गया, उसके तहत पहले भी कार्रवाई की जा सकती थी। मसलन, बाबा पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि उनकी कंपनियों में वित्तीय अनियमित्तांए, हैं, उन्होंने गुपचुप तरीके से विदेशों में संपत्ति जुटा रखी है आदि. आदि। बाबा रामदेव सालों से देश को योग का पाठ पढ़ा रहे हैं, देश के बाहर भी उनके अनुयायियों की लंबी-चौड़ी तादाद है। बाबा की कई कंपनियां आयुर्वेद उत्पादों को लोगों को बीच पहुंचा रही हैं। यानी सरकारी जुबान में अगर बाबा कुछ गलत कर रहे हैं तो ये सिलसिला काफी पहले से चल रहा होगा।

ऐसा तो हो नहीं सकता कि कालेधन पर सत्याग्रह पर बैठने के तुरंत बाद उनकी कंपनियां गोरखधंधों में लिप्त हो गईं। इसी तरह अरविंद केजरीवाल को नौकरी का हवाला जिस मामले में उलझाया जा रहा है, वो भी काफी पुराना है। अरविंद ने 2006 में ज्वाइंट इनकम टैक्स कमिश्रर का पद छोड़ा था। लेकिन सरकार को अब याद आ रहा है कि उन्होंने सेवा शर्तों का उल्लंघन किया। उनपर 9 लाख की देनदारी भी निकाली जा रही है। यदि सरकार की मंशा बदले की नहीं होती तो इन कार्रवाईयों को गलती सामने आने के बाद ही अंजाम दिया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इसका क्या मतलब निकाला जाए। निश्चित तौर पर यही कि सरकार अपने खिलाफ उठती आवाजों को बर्दाश्त नहीं कर पाई। बेहतर होता अगर सरकार इन आवाजों के साथ गूंज रहे जनता के स्वरों को भी पहचान लेती। पिछले कुछ दिनों में सरकार की छवि पर जितना बट्टा लगा है, उसमें इन कार्रवाईयों ने थोड़ा और इजाफा करने का काम किया है। गनीमत है कि हाल-फिलहाल चुनाव नहीं हैं, अन्यथा अहंकार चूर होते देर नहीं लगती। वैसे भी अहंकार का पेड़ कितना भी ऊंचा क्यों न हो जाए ज्यादा देर मजबूती के साथ खड़ा नहीं रह सकता। एक न एक दिन उसे जमीन पर आना ही पड़ता है। सरकार ये अहंकार कितने दिनों तक टिकता ये देखने वाली बात होगी।