Wednesday, July 21, 2010

पवार की सियासी गुगली

नीरज नैयर
क्रिकेट की रियासत के सबसे ऊंचे सिहांसन पर बैठने के बाद शरद पवार को कृषि मंत्रालय भारी महसूस होने लगा है। उन्हें लगता है कि दो इतनी बड़ी जिम्मेदारियां वो एक साथ नहीं उठा पाएंगे। ये वो ही पवार हैं जो आईसीसी अध्यक्ष बनने से पहले कामकाज के प्रभावित होने की बातों को सिरे से खारिज कर रहे थे। लेकिन कुर्सी संभालते ही अचानक उन्हें आभास हो रहा है कि वो गलत थे। ये बात बिल्कुल सही है कि दो नावों पर सवार होकर नहीं चला जा सकता, मगर ऐसे वक्त में जब देश महंगाई की आग में जल रहा है पवार का क्रिकेट को तवाो देना क्या ये नहीं दर्शाता कि उनके लिए कृषि मंत्रालय पार्ट टाइम जॉब जैसा है। पवार का काम का भार कम करने का आग्रह करना ऐसा लगता जैसे एक कर्मचारी बॉस से अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऑफिस टाइम में रियायत की मांग कर रहा हो।

पवार कृषि मंत्रालय में रहते हैं या नहीं, इससे आम जनता को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन यूपीए सरकार की छवि को इससे बट्टा जरूर लग गया है। बतौर कृषिमंत्री पवार की नाकामयाबियों को लेकर जो बातें सालों से उठती आ रही हैं, उनपर इस पूरे मामले ने एक तरह से मुहर लगाई है। वैसे पवार के इस क्रिकेट प्रेम के हिलोरे मारने के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। वो अच्छे से जानते हैं कि सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद महंगाई नीचे आने वाली नहीं है। डीजल के दामों में बढ़ोतरी ने सिंचाई का खर्च बढ़ा दिया है और खाद पर सब्सिडी घटाने का असर पहले से ही मौजूद है। साथ ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफे के बाद से ट्रांपोटर्ेशन चार्ज भी 10 प्रतिशत बढ़ चुका है, ऐसे में कोई महान आशावादी ही होगा जो महंगाई कम होने की आस लगा सकता है। शरद पवार सियासत की दुनिया के मंझे हुए खिलाड़ी हैं।

जिस तरह अपने भार तले दूसरों को कुचलकर वो आईसीसी अध्यक्ष के पद तक जा पहुंचे, वैसे ही महंगाई के जाल में वो किसी दूसरे को उलझाकर दूर से तमाशा देखना चाहते हैं। अब तक महंगाई को लेकर उठने वाली हर उंगली उन्हीं की तरफ होती थी, मगर अब के बाद लोग उन्हें सीधे तौर पर निशाना नहीं बनाएंगे। और इस तरह धीरे-धीरे वो महंगाई के कलंक को भी धो सकेंगे। पवार के कृषि मंत्रालय संभालने के बाद से ही महंगाई अनियंत्रित भागी जा रही है, पिछले कुछ वक्त में ही मुद्रास्फीति की दर ने नए-नए आयाम स्थापित किए हैं। बीते दिनों विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए भारत बंद की सफलता इस बात को दर्शाती है कि आम जनता में सरकार और उसके मंत्रियों के प्रति खासा गुस्सा है। और इस फेहरिस्त में कहीं न कहीं शरद पवार का नाम सबसे पहले है। बतौर कृषिमंत्री आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को थामने के उपाए करना पवार साहब की जिम्मेदारी बनती थी लेकिन उस दौर में वो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई में अपने विरोधियों को निपटाने में व्यस्त रहे। आम जनता के साथ दिखने के बजाए वो स्टेडियमों में यादा देखे गए। उन्होंने महंगाई की मुश्किलों को जानते हुए भी बांगलादेश दौरे पर भेजी जाने वाली दोयम दर्जे की टीम का चुनाव किया। उनकी जुबान पर आटा-दाल, चावल के भाव से अधिक ललित मोदी जैसों के नाम अधिक रहे। णक्रिकेट से जुड़ा होने के बावजूद उन्होंने महंगाई के मुद्दे पर जनता के साथ जमकर फुटबॉल खेला। वो एक के बाद एक गोल दागते रहे और जनता असहायों की तरह खड़ी खामोशी से सबकुछ देखती रही। पवार को कृषि का एनसाइलोपीडिया कहा जाता है, उनके बारे में प्रसिध्द है कि वो आंखमूंदकर भी बीजों की पहचान बता सकते हैं।

उनकी खुद भी कई शुगर मिल्स हैं। इसलिए ये तो नहीं कहा जा सकता कि समझ के अभाव में वो गलतियों पर गलतियां करते गए। जब शरद पवार को देश के करोड़ों लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी सौंपी गई तब मानसून को लेकर स्थिति इतनी भी खराब नहीं थी कि खाद्य पदार्थों के दामों में आग लग जाए। उन्होंने यदि क्रिकेट के मुकाबले थोड़ा सा ध्यान यहां भी लगाया होता तो महंगाई के बेकाबू होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अब जब एक गेंद में 20 रन वाली स्थिति पैदा हो गई है तो वो मैदान छोड़कर भागने की फिराक में हैं। बतौर आईसीसी अध्यक्ष उन्हें शोहरत भी मिलेगी और दौलत भी, मगर कृषि मंत्रालय में केवल महजमारी और ताने ही सुनने को मिलेंगे। बकौल शरद पवार वो पिछले कई महीनों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भार कम करने का आग्रह कर रहे हैं। यानी उन्होंने प्लेटफार्म बनाने का काम बहुत पहले से ही आरंभ कर दिया था। उन्हें इसका इल्म था कि आईसीसी की कमान उनके अलावा किसी और को नहीं मिलने वाली, इसलिए वो सोच-समझकर पत्ते चलते गए और आज अपने हिसाब से वो खेल को आखिरी पड़ाव तक ले आए हैं।

उनकी गुगली ने मनमोहन सिंह को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक-दो बार सार्वजनिक मंचों से वो महंगाई के लिए शरद पवार को कुसूरवार ठहरा चुके हैं। मगर अब उनके पास अपना दामन बचाने का कोई मोहरा नहीं होगा। हां, ये हो सकता है कि वो शरद पवार की गुगली को खुद खेलने के बाद रामविलास पासवान को आगे कर दें। ऐसी स्थिति में पवार के माथे से धुला महंगाई का कलंक उनके ऊपर आने के बजाए लोकजनशक्ति पार्टी के खाते में चला जाएगा। मराठा नेता पवार ने महंगाई को अनियंत्रित स्थिति में छोड़कर भले ही जिम्मेदारी से मुहं छिपाकर भागने वाला काम किया है, लेकिन उनका ये फैसला उनके व्यक्तिगत हितों के लिए पूरी तरह अनुकूल है।