Friday, April 8, 2011

बाघ गणना महज अंकों का खेल

नीरज नैयर
बाघों को लेकर काफी दिनों बाद एक अच्छी खबर सुनने को मिली। ताजा गणना के मुताबिक देश में बाघों का कुनबा बढ़ा है। ऐसे वक्त में जब शिकारियों के हौसले बुलंद है, ये खबर बाघ सरंक्षण से जुड़े लोगों और वन्यप्रेमियों के लिए किसी सौगात से कम नहीं। इस खबर ने बाघ बचाने को लेकर अपनाए जा रहे तौर-तरीकों पर उठ रहे सवालों को भी काफी हद तक गलत करार दिया है। हालांकि टाइगर स्टेट के नाम से मशहूर मध्यप्रदेश के लिए यह गणना निराशाजनक साबित हुई है। यहां होशंगाबाद, बैतूल, नर्मदा नदी के उत्तरी घाट और कान्हा किसली में बाघ घटे हैं। वैसे ये तब ही साफ हो गया था जब पन्ना के बाघ विहीन होने की खबर सामने आई थी। विशेषज्ञ इस बात का अंदेशा पहले ही जत चुके थे, लेकिन राय सरकार गौर करने के बजाए इसे लगातार झुठलाती रही और बाद में जब हकीकत सामने आई तो उसने होंठ सिल लिए। बाघों की ताजा गणना में पारंपरिक तरीकों के बजाए आधुनिक तकनीक को अपनाया गया। इसे विश्व की सबसे आधुनिक बाघ गणना भी कहा जा रहा है। इसके तहत अहम स्थानों पर कैमरे लगाए गए, रेडियो कॉलर, पैरों के निशान, डीएनए और मैपिंग प्रणाली का इस्तेमाल किया गया। गणना के लिए 45 हजार वर्ग किमी वन क्षेत्र में चार लाख 70 हजार अधिकारियों को करीब 6,25,000 किलोमीटर पैदल चलना पड़ा।

पिछली गणना में बाघों की संख्या 1411 थी, जो इस बार बढ़कर 1700 तक पहुंच गई है। लेकिन ये आंकड़े खुशी के साथ-साथ थोड़े चौंकाने वाले भी हैं। ये बात हजम करना मुश्किल है कि बाघ सरंक्षण को लेकर जो काम कई सालों तक नहीं हुआ, उनमें महज चार साल में इतना सुधार आ गया कि बाघों की संख्या 289 बढ़ गई। 2006 से लेकर 2010 तक जिन चार सालों में बाघ बढ़ने की बातें कही गई हैं, उन चार सालों में ही उनका अंधाधुन शिकार हुआ। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया के मुताबिक 2006 में 37, 2007 में 27, 2008 में 29, 2009 में 32 और 2010 में 30 बाघ मारे गए। इसमें उन मौतों को शामिल नहीं किया है जिनके शिकार के संबंध में पुख्ता सुबूत नहीं मिल सके। इसके अलावा एक और बात जो बाघों की ताजा संख्या पर संदेह पैदा करती है वो ये कि पिछली गणना में 16 टाइगर स्टेट को शामिल किया गया, जबकि इसबार 19 रायों में गणना को अंजाम दिया गया है। 2006 की गणना में पश्चिम बंगाल के सुंदरवन और झारखंड में गिनती नहीं हुई थी, पर 2010 में सुंदरवन में 70 बाघ होने की बात कही गई है। इस लिहाज से देखा जाए तो ताजा गणना महज आंकड़ों का उलटफेर यादा नजर आती है। एक बारगी मान भी लिया जाए कि बाघ बढ़े हैं तो भी आंकड़ा इतना बडा कतई नहीं होगा जितना दर्शाया जा रहा है। 1700 में से यदि सुंरदवन के 70 बाघ ही घटा दिए जाएं तो संख्या 1630 रह जाती है और अगर मारे गए बाघों को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 1400 के आसपास रह जाएगा। वैसे भी मौजूदा वक्त में जिस तरह से आए दिन शिकार की खबरें आ रही हैं, उनमें ये सहज ही स्वीकार करना मुश्किल है कि इस खूबरसूरत प्राणी की संख्या में इजाफा हुआ होगा। खैर आंकड़ों का सच-झूठ अलग बात है, सबसे अहम है बाघों की सुरक्षा और इस दिशा में अब तक जो कदम उठाए गए हैं उससे शायद संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। बाघ संरक्षण के प्रति सरकार की गंभीरता का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी फॉरेस्ट गार्ड के हजारों पद खाली पड़े हैं। सच तो यह है कि वन एंव पर्यावरण मंत्रालय इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं।

कर्मचारियों को न तो पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है और न ही पर्याप्त सुविधाएं। हालात ये हो चले हैं कि अधिकतर अधिकारी महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं। उनमें न तो वन्यजीवों के प्रति कोई संवेदना है और न ही काम के प्रति कोई लगाव। यही कारण है कि रोक के बावजूद बाघों का शिकार बदस्तूर जारी है। संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खालों की तस्करी में लगे हुए हैं। इसके लिए वह जंगलों में रहने वाले चरवाहों और कहीं-कहीं वन विभाग के लोगों से मदद लेते हैं, क्योंकि इन्हें जानवरों के बारे में काफी जानकारी होती है। बाघों को जाल बिछाकर फंसाया जाता है, सिर्फ आधे घंटे में ही खाल निकालकर अपराधी फरार हो जाते हैं। 1994 से लेकर 2010 के बीच तकरीबन 1000 बाघों का शिकार किया जा चुका है। 2005 में राजस्थान के सरिस्का के बाघ विहीन होने के बाद बाघों के सरंक्षण को लेकर बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाई गईं, रणनीति तैयार की गईं मगर हालात सुधरने के बजाए बद से बदतर होते चले गए। 2005 से 2010 के मध्य ही 201 बाघों को शिकारियों ने अपना निशाना बनाया। वैसे बाघों की घटती संख्या के लिए राय सरकारें भी कम कसूरवार नहीं हैं, कुछ साल पहले रायों से बाघों की सुरक्षा के लिए निगरानी समिति बनाने का कहा गया था मगर अब तक अधिकतर रायों ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। 2006 में संशोधित वन्यजीव सुरक्षा कानून 1972 के तहत निगरानी समिति का गठन जरूरी है, रायों को इस बाबत कई बार स्मरण पत्र भी भेजे जा चुके हैं मगर कोई भी अपनी जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं। बाघ सरंक्षण के लिए आज से करीब चार दशक पहले प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया था, उस दौर में बाघ सरंक्षण के इसे लिए दुनिया भर में सबसे महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट माना गया।

इसके तहत कई सराहनीय काम भी किए गए, शायद इसी वजह से जंगली बाघ आज भी हमारे जंगलों में मौजूद हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदलते परिदृश्य ने इस महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट महज नाम तक ही सीमित करके रख दिया है। वन्यप्रणियों के खिलाफ बढ़ते अपराध और शिकारियों के बुलंद हौसलों को पस्त करने के लिए कुछ खास नहीं किया गया। सरकार सिर्फ कागजों पर लकीरें खींचती रही और जंगल से बाघों का सफाया होता रहा। वैसे अभी भी इतनी देर नहीं हुई है कि आंकड़ेबाजी को हकीकत में न बदला जाए, अगर सही दिशा में दिल से आगे बढ़ा जाए तो आने वाले सालों में बाघों की संख्या हमारी उम्मीद से भी यादा हो सकती है। बहरहाल, खुद को खुश रखने के लिए 2010 की गणना के आंकड़े अच्छे हैं।