Sunday, June 26, 2011
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
सरकार चाहती तो टाल सकती थी मूल्यवृद्धि
नीरज नैयर
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उनके पास। मौजूदा वक्त में आम जनता पर बाबा नागार्जुन का ये कटाक्ष बिल्कुल सटीक बैठता है। दिन ब दिन बढ़ती महंगाई ने चूल्हे की आंच को तो हल्का किया ही है साथ ही आटा-दाल पीसने वाली चक्की की रफ्तार भी मंद पड़़ गई है। आलम ये है कि जब तक लोग चढ़ती कीमतों के साथ खुद को ढाल पाते हैं तब तक महंगाई एक और पायदान ऊपर चढ़ जाती है। अभी कुछ वक्त पहले ही पेट्रोल के दाम में एकमुश्त पांच रुपए की बढ़ोतरी की गई थी, इस इजाफे से गडबड़ाए बजट को आम आदमी संभाल पाता इससे पहले सरकार ने उसके मुंह से निवाला छीनने का बंदोबस्त कर डाला। डीजल में 3, रसोई गैस में 50 और केरोसिन में 2 रुपए की बढ़ोतरी की गई है। पेट्रोल के दाम बढऩे का असर कहीं न कहीं सीमित होता है, लेकिन ये बढ़ोतरी आम जनता के लिए कोढ़ में खाज साबित होगी। रसोई गैस के दाम में सीधे 50 रुपए बढऩे का मतलब है मासिक बजट में 100 से 200 रुपए का इजाफा, बात अगर यहां तक ही रहती तो भी एक बार काम चल सकता था मगर डीजल की कीमत में वृद्धि से पूरे के पूरे बजट का खाका ही दोबारा तैयार करना होगा। सरकार के इस कदम के तुरंत बाद ट्रक ऑपरेटरों ने मालभाड़े में 8 से 9 फीसदी इजाफे का ऐलान कर दिया है, यानी आने वाले चंद दिनों में ही खाने-पीने की हर वस्तुओं के दाम अंतरिक्ष में होंगे, आसमान पर तो पहले से ही हैं। डीजल के दाम में बढ़ोतरी से महंगाई में पांच गुना तक इजाफा होता है, हमारे देश में ईंधन की जितनी खपत होती है उसमें 40 फीसदी हिस्सा डीजल का है। पेट्रोल की हिस्सेदारी तो महज 10 प्रतिशत है। सरकार ने इससे पहले 25 जून 2010 को डीजल के दाम 2, गैस के 35 और केरोसिन कीमत में 3 रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी, इस लिहाज से देखा जाए तो सरकार ने पूरे एक साल बाद जनता का बोझ बढ़ाने वाला कदम उठाया। लेकिन इस एक साल में उसकी गलत नीतियां हर रोज जनता के गले पर आरी चलाती रहीं।
10-12 रुपए किलो में बिकने वाली सब्जियां 80-90 रुपए किलो के भाव तक पहुंच गईं, दाल ने तो ऐसा रंग दिखाया कि आम आदमी उसका असल रंग तक भूल गया। इसलिए मूल्यवृद्धि पर वक्त के अंतराल के सरकारी तर्कों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। सामान्य तौर पर यदि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं चल रही हो तो इंसान अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करता है ताकि उसकी जरूरतों की गाड़ी चलती रही, लेकिन सरकार इससे बिल्कुल उलट ट्रैक पर चल रही है। अपनी सुख-सुविधाओं और ठाठ-बाट में कमी करने के बजाए वो जनता की मूलभूत जरूरतों में भी कटौती करने पर उतारू है। अगर मूल्यवृद्धि इतनी ही जरूरी थी तो सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले करों को बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए था। ये अच्छी बात है कि उसने एक्साइज और कस्टम ड्यूटी कम की है, लेकिन ये कमी मूल्यवृद्धि से पैदा हुई खाई को पाटने में कारगर नहीं है। हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर पहले केंद्र सरकार तरह-तरह के टैक्स लगाती है और इसके बाद राज्य सरकारें करों के फेर में आम जनता का तेल निकाल देती हैं। अनुमान के तौर पर एक लीटर पेट्रोल पर सरकार 14.35 रु पए एक्साइट ड्यूटी, 2.65 रुपए कस्टम (कमी से पहले तक), 7.05 रुपए वैट, 1 रुपए एजुकेशन सेस और करीब 3.08 रुपए अन्य कर लगाती है, इस तरह एक लीटर पेट्रोल पर तकरीबन 28.13 रुपए टैक्स के होते हैं। इसमें राज्यों के करों का आंकड़ा शामिल नहीं है। आमतौर पर सरकार हर बार दाम बढ़ाने के बाद राज्यों से अपने खजाने में कमी की उम्मीद करती है, इस बार भी उसने राज्यों से करों में कमी करने को कहा है। कायदे में तो महंगाई पर हो-हल्ला करने वाले राज्यों को भी जनता के प्रति संवेदनशील बनते हुए उसका बोझ कम करने के लिए आगे आना चाहिए, लेकिन वो इसे पूरी तरह केंद्र की जिम्मेदारी समझते हैं। वैसे काफी हद तक ये गलत भी नहीं है, क्योकि हमेशा बड़ों से ही बलिदान की अपेक्षा की जाती है। पर फिर भी कहीं न कहीं उन्हें ममता बनर्जी से सीख लेने की जरूरत है, ममता ने पश्चिम बंगाल की जनता का बोझ हल्का करने के लिए रसोई गैस पर लगने वाले सैस को कम किया है।
इससे राज्य की जनता को मौजूदा मूल्यवृद्धि में 16 रुपए की राहत मिली है। पेट्रोल पर सबसे ज्यादा कर आंध्र प्रदेश में लगता है, इसकी दर यहां 33 प्रतिशत है। इसके बाद दूसरा नंबर तमिलनाडु का है, यहां सरकार नागरिकों पर 30 फीसदी अतिरिक्त बोझ डालती है। ऐसे ही केरल में 29.1 और पश्चिम बंगाल में 25 फीसदी टैक्स पेट्रोल पर वसूला जाता है। मध्यप्रदेश सरकार पेट्रोल पर 28.75 और डीजल पर 23 फीसदी टैक्स लगाती है। इस मामले में पांडेचरी सबसे नीचे है, यहां पट्रोल पर केवल 15 प्रतिशत कर है, जबकि हरियाण और पंजाब डीजल पर कर लगाने के मामले में सबसे पीछे हैं। हरियाणा सरकार ने अब टैक्स का बोझ थोड़ा और कम कर दिया है। वैसे सरकार अगर चाहती तो डीजल की कीमत में इजाफे को टाल सकती थी, क्योंकि जिस कच्चे तेल की कीमत को आधार बनाकर दाम बढ़ाए गए उसमें नरमी का रुख था और नरमी का प्रतिशत और बढऩे की पूरी संभावना थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम मूल्यवृद्धि से 48 घंटे पहले नीचे आए थे। सरकार ने वैसे भी टैक्सों में कमी करके तेल कंपनियों के फायदे का रास्ता साफ किया ही था, ऐसे में वो कपंनियों को साफ तौर पर कह सकती थी कि महंगाई के दौर में दाम बढ़ाने के लिए उन्हें थोड़ा इंतजार करना होगा। मगर, उसने जनता से ज्यादा तेल कंपनियों के कथित नुकसान को तरजीह दी,कथित इसलिए क्योंकि बैलेंसशीट में हर साल बढ़-चढ़कर मुनाफा दर्शाया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2008-09 में एचपीसीएल का मुनाफा 574.5 करोड़ पहुंचा था। कुछ इसी तरह इंडियन ऑयल ने 2009-10 में 5556.77 करोड़ और भारत पेट्रोलियम ने 5015.5 मुनाफा कमाया। इसके बाद भी कंपनियों की तरफ से घाटे का रोना रोया जाता रहता है। दरअसल इसे नुकसान नहीं बल्कि अंडररिकवरी कहा जा सकता है। यानी मुनाफे के एक अनुमानित आंकड़े से कम की प्राप्ति। तेल कंपनियां जितने मुनाफे का गणित लगा रही हैं, उन्हें उससे कम मिल रहा है। जिसे नुकसान के तौर पर प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। सरकार भी खुद आगे बढ़कर कह रही है कि कंपनियों के नुकसान की भरपाई के लिए दाम बढ़ाना मजबूरी थी।
मजबूरी जैसा शब्द आम आदमी के मुंह से तो अच्छा लगता है, लेकिन सरकार जब मजबूरी की बात करने लगे तो उसकी क्षमताओं पर उंगली उठना लाजमी है। बात केवल दाम बढ़ाने की नहीं है, सरकार की नीतियों की भी है। सरकार ने ऐसी नीतियां बना रखी हैं, जिसमें आम जनता के हित के लिए कुछ नहीं। कच्चे तेल के बढ़ते दामों का हवाला देकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफा तो किया जाता है, लेकिन उसमें नरमी आने का फायदा जनता को नहीं मिलता। जबकि चीन जैसे दूसरे देशों में दोनों बातों का ख्याल रखा जाता है। कम से कम मौजूदा वक्त में तो सरकार को इस वृद्धि से बचना चाहिए था, अगर दाम बढ़ाने ही थे तो पहले महंगाई को कुछ कम करने के बारे में सोचना चाहिए था। एक तरफ सरकार महंगाई पर चिंता के आंसू बहाती है और दूसरी तरफ उसे भड़काने का इंतजाम करती है, इससे तो यही लगता है कि वो आम जनता के प्रति पूरी तरह से संवेदनशून्य हो चुकी है।
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