Saturday, June 11, 2011

हुसैन के समर्थन से पहले जरा सोचें



नीरज नैयर
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन 9 जून को दुनिया से विदा हो गए। उनकी मौत की खबर ने संपूर्ण कला जगत को स्तब्ध कर दिया। मकबूल साहब बेशक 2006 में भारत से नाता तोड़कर कतर के हो गए थे, लेकिन उनके कद्रदानों की सूची यहां दिन ब दिन लंबी होती गई। कला और संगीत ऐसे हैं जिन्हें सीमाओं के बंधन में नहीं बांधा जा सकता। मकबूल जब कतर में बैठे-बैठे कूचीं चलाते तो रंगों की सुगंध भारत तक महसूस होती। बहुत थोड़े से वक्त में हुसैन साहब एक बहुत बड़ी शख्सियत बन गए। भारत में रहते वक्त भी उनकी कला की विदेशों तक चर्चा होती। एक चित्रकार के तौर पर उनका कोई सानी नहीं था, इसीलिए उन्हें हिंदुस्तान का पिकासो कहा जाता है। कहने वाले कहते हैं कि हुसैन साहब की खींची हुईं रेखाएं बेजान कलाकृति में भी जान डाल देती थीं। उनके जाने के बाद अब उनकी चित्रकारी और उनसे जुड़े विवादों को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। अक्सर किसी के जाने के बाद ही उसके जीवन को फिर से रेखांकित करने की कवायद शुरू होती है। अगर गुजरने वाला कोई बड़ी शख्सियत हो तो तमाम लेखक-पत्रकार उनसे जुड़ी बातों को शब्दों में पिरोने में जुट जाते हैं। जो नहीं जानते थे, वो भी अच्छाइयां-बुराईयां गिनाने लगते हैं। ऐसे ही एक प्रतिष्ठित अखबार में किसी लेखक का लेख पढऩे को मिला। लेख में हुसैन साहब की कला की जितनी तारीफ की गई, उससे ज्यादा उन लोगों को कोसा गया जो उनकी चित्रकारी को अश£ीलता की नजरों से देखा करते हैं।

मकबूल फिदा हुसैन के माधुरी प्रेम के साथ-साथ उनकी चर्चा हिंदू अराध्यों की नगन तस्वीरें बनाने के लिए भी होती रही। लेकिन इन लेखक साहिब को इसमें कुछ भी अश£ील और असभ्य नहीं लगा। इस नहीं लगने के पीछे उन्होंने कई तर्क भी दिए। मसलन, जब मां काली की प्रतिमा को अश£ील नहीं माना जाता, शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने वालों के मन में उसे लेकर कोई गलत विचार नहीं पनपता तो हुसैन की रेखाओं को नगनता कैसे कहा जा सकता है। इसका मैं एक बहुत सीधा सा जवाब देना चाहूंगा, श्रीकृष्ण का चरित्र और उनकी चंचलता से सब वाकिफ हैं। श्रीकृष्ण जिस राधा से प्रेम करते थे उसके अलावा उनकी कई अन्य गोपियां भी थीं। जिनके साथ उनकी अल्पविकसित या कह सकते हैं संक्षिप्त प्रेम लीलाएं चलीं, जिसे आज के जमाने में फल्र्ट कहा जाता है। वो साक्षात भगवान थे, इसलिए उन्होंने जो कुछ किया वो स्वीकार्य हो गया, लेकिन मौजूदा वक्त में यदि कोई उनका अनुसरण करे तो क्या अच्छी निगाहों से देखा जाएगा? क्या समाज में उसकी वही प्रतिष्ठा होगी जो राम की होती है? शायद नहीं, क्योंकि लोग भगवान को उस रूप में स्वीकार सकते हैं लेकिन आम इंसान को नहीं। इसी तरह से शिवलिंग या काली की मूर्तिके पीछे जो कहानी है उसे चित्रों में उतारना भी स्वीकार योगय नहीं।

वैसे भी जिस काली की प्रतिमा का जिक्र लेखक महोदय ने किया है, शायद वो उससे इतने ज्यादा परिचित नहीं, या लिखने से उन्होंने पहले प्रतिमा पर गौर करने की जरूरत ही नहीं समझी। मंदिरों में लगी मां काली की प्रतिमा में ऐसा कुछ है ही नहीं जिसे अश£ीलता की श्रेणी में रखा जा सके, जबकि हुसैन की तस्वीरें रेखाओं में ही नगनता का चित्रण करती हैं। देवी-देवताओं के साथ-साथ हुसैन साहब ने भारत माता का भी बेहद अश£ील चित्रण किया। अगर यह महज कला थी तो उनके मन मेेंं कभी इस्लाम या दूसरे धर्मों की भावानाओं से खेलने का ख्याल क्यों नहीं आया। एक कलाकार धर्म-जात के बंधन से मुक्त होता है, और उसकी सोच भी मुक्त होनी चाहिए। लेकिन हुसैन के साथ ऐसा नहीं था, इसलिए उनकी कूंची सिर्फ हिंदू आस्था के साथ खिलवाड़ करती रही। इस प्रसिद्ध चित्रकार ने सीता और बजरंग बली को जिस रूप में प्रदर्शित किया, वैसा शायद हम-आप सोच भी नहीं सकते। मशाल थामे बजरंग बली पहाड़ लांघे जा रहे हैं और सीता नगन अवस्था में उनकी पूंछ से लिपटी हुई हैं। हिंदुओं के प्रति हुसैन की अश£ीलता महज भगवानों के चित्रण तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने आम इंसानों की छवि को भी उसी रूप में उकेरा। मकबूल साहब की एक पेंटिंग में चोटी धारी पंडित को पूरी तरह निवस्त्र दिखाया गया जबकि पास खड़ा पठान या मौलवी पूरे कपड़ों में हैं। क्या एक समुदाय से जुड़े लोगों और अराध्यों को बिन कपड़ों के कैनवस पर उकेरना ही चित्रकारी है? लेखक महोदय कहते हैं कि हुसैन की तस्वीरों पर बवाल की सबसे बड़ी वजह उनका मुस्लिम होना रहा, दूसरे कलाकारों ने भी ऐसा ही चित्रण किया मगर उनके खिलाफ कभी गुस्सा नहीं पनपा। वैसे लेखक की इस बात में नया कुछ भी नहीं है, हमारे देश में हर बात पर धर्म-समाज की दुहाई देने की परंपरा बन गई है। बॉलिवुड के नामी सितारेां को अगर मकान नहीं मिलता तो उसके लिए मुस्लिम होने का रोना रोते हैं, आजमगढ़ से जब कोई पकड़ा जाता है तो अल्पसंख्कों के प्रति अत्याचार की बाते कहीं जाती है। मैं यहां बस कहना चाहूंगा कि गलत, गलत होता है फिर चाहे वो हिदू करे या मुस्लिम।

जहां तक बात अश£ली चित्रण करने वाले कलाकारों के खिलाफ आक्रोश की है तो शायद लेखक महोदय कुछ वक्त पहले पणजी में हुए हंगामे को भूल चुके हैं। जेवियर रिसर्च इंस्ट्टीयूट में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था, जिसमें हिंदू देवताओं की कुछ आपत्तिजनक पेंटिंगस भी प्रदर्शन के लिए रखी गई। हिंदूवादी संगठनों ने इस बात पर इतना बवाल मचाया कि उन कलाकृतियों को प्रदर्शनी से हटाना पड़ा। अपनी बात को सही साबित करने के लिए लेखक महोदय एक और तर्क देते हैं, उनका कहना है कि मकबूल फिदा हुसैन ने पैगंबर साहब या किसी दूसरे मुस्लिम धर्मावलंबी का चित्रण इसलिए नहीं किया क्योंकि इस्लाम में चित्र या मूर्ति बनाने की मनाही है, लेकिन हिंदू धर्म में ऐसी कोई मनाही नहीं। इस तर्क का तो यही मतलब निकलता है कि अगर हिंदू मूर्ति उपासक हैं तो उनके खिलाफ किसी भी हद तक जाने की इजाजत है। पैगंबर साहब या अल्लाह की बात तो छोडि़ए हुसैन ने जब कभी मुस्लिम महिलाओं का चित्रण किया, इस बात का ख्याल रखा कि वो बुर्के में हों। हुसैन की चित्रकारी का अगर विरोध होता है तो उसके वाजिब कारण भी हैं, यदि उनकी कूंची सभी के लिए बराबर भाव रखती तो शायद उन्हें देश छोड़कर जाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें कोई दो राय नहीं कि वो एक बेहतरीन कलाकार थे, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने लोगों की धार्मिक भावनाओं को बार-बार आहत किया। 1990 में पहली बार धार्मिक भवनााओं को भड़काने वाले उनके चित्र आम जनता के सामने आए, इसके बाद 6 जनवरी 2006 को एक पत्रिका में भारत माता को लेकर उनकी अभद्र पेंटिंग प्रकाशित हुई। हुसैन ने बवाल के बाद माफी मांगी और चित्र वापस लेने का वादा भी किया, मगर वादा निभाया नहीं। थोड़े वक्त बाद ही उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर यह तस्वीर चस्पा कर दी गई। क्या इससे ये पता नहीं चलता कि उनका इरादा जानबूझकर समुदाय विशेष को आहत करने का था। लेखक महोदय मेरा आपसे बस यही निवेदन है कि हुसैन की नगनता के समर्थन में तर्क देने से पहले जरा तथ्यों पर भी गौर फरमा लेना चाहिए।

4 comments:

sanjay said...

बहुत ही साफ सुथरे और अच्छे विचार हैं आपके दरअसल हमारे यहाँ समस्या ये है कि मुद्दे को गौण रखते हुए अपने को साबित करने की कोशिश की जाती है . हुसैन साहब जिस बिरादरी से ताल्लुक रखते थे उस के तो सात खून माफ हैं. - संजय कुमार शुक्ला

Asha Joglekar said...

छोड़िए न हुसैन साहब तो संसार से विदा हो गए । हमारे देवी देवता किसी आदमी के काम से दूषित नही होते वे बहुत बहुत ऊंचे हैं ।

rohitashwa said...

मकबूल की कूची को किसी ख़ास चश्मे से देखने के बाद.. कुछ कसरत और कीजिये.. हुसैन की जिन्दगी की किताब बहुत स्पष्ट और तटस्थ है.. जिसमे उन्होंने माधुरी जैसी सुन्दरी को माँ के रूप में देखा है. मैं नहीं जानता की हुसैन ने जो किया वो दुनिया की आधी आबादी के लिए अच्छा है या फिर बुरा. लेकिन, आपनी माँ की सूरत तक न देख पाने वाला कलाकार ९६ साल तक क्या तलाशता रहा... इस बारे में मानसिकता विकसित करने से पहले तात्कालिक घटनाओं के बहुत पीछे जाने की जरुरत है..

rohitashwa said...

मकबूल की कूची को किसी ख़ास चश्मे से देखने के बाद.. कुछ कसरत और कीजिये.. हुसैन की जिन्दगी की किताब बहुत स्पष्ट और तटस्थ है.. जिसमे उन्होंने माधुरी जैसी सुन्दरी को माँ के रूप में देखा है. मैं नहीं जानता की हुसैन ने जो किया वो दुनिया की आधी आबादी के लिए अच्छा है या फिर बुरा. लेकिन, आपनी माँ की सूरत तक न देख पाने वाला कलाकार ९६ साल तक क्या तलाशता रहा... इस बारे में मानसिकता विकसित करने से पहले तात्कालिक घटनाओं के बहुत पीछे जाने की जरुरत है..