बाबा रामदेव के खिलाफ कार्रवाई को लेकर अब ये सवाल उठने लगे हैं कि क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोगों को अपनी बात कहने का भी हक नहीं है। बाबा अपनी मांगों के साथ शांतिपूर्ण तरीके से अनशन कर रहे थे, उनके मंच से न भड़काऊ भाषण दिए गए और न ही सरकार के खिलाफ किसी युध्द का शंखनाद किया गया। फिर भी उनके समर्थकों पर लाठियां बरसाईं गईं, ऐसा बर्ताव किया गया जैसे वो देश के दुश्मन हों। दिल्ली के रामलीला मैदान पर शनिवार की रात जो कुछ भी हुआ, वैसा अक्सर चीन या म्यांमार जैसे मुल्कों में देखने को मिलता है, जहां लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं। इस कार्रवाई के बाद अब तमाम तर्क दिए जा रहे हैं, पुलिस बाबा की जान को खतरा बताते हुए अपनी बर्बरता को जायज ठहरा रही है और कल तक बाबा के सामने शीर्षासन करने वाले मंत्री ये बताने में लगे हैं कि अनुमति योग शिविर की ली गई थी अनशन की नहीं। इन तर्कों को स्वीकार भी लिया जाए तो भी जो किया गया क्या वो जायज है? सरकार के इस दमनकारी कदम ने उसकी दोहरी मानसिकता को भी उजागर किया है।
कुछ वक्त पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने दिल्ली में खड़े होकर देश के खिलाफ आग उगली, उनके साथ अरुंधति राय भी मौजूद थी। लेकिन सरकार ने उन पर कोई कार्रवाई नहीं की। अगर बाबा को बगैर अनुमति के अनशन करने पर लाठियां मिल सकती हैं तो गिलानी-अरुंधति पर विषवैमन करने के लिए देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चल सकता। जिस कानून का हवाला देकर बाबा के आंदोलन का दमन किया गया, उसी में भड़काऊ भाषणों की सजा का भी उल्लेख है। यदि कानून सबके लिए बराबर है तो ऐसा होते दिखना भी चाहिए। सरकार अब बाबा में खामियां ढू्रढने में लगी है, उनसे आय के स्रोत पूछे जा रहे हैं, आयकर का हिसाब मांगा जा रहा है। ये साबित किया जा रहा है कि बाबा जैसे दिखते हैं, वैसे हैं नहीं। संभव है कि आने वाले दिनों में रामदेव पर कई मामलों में जांच कराई जाए, उन्हें अदालतों के चक्कर लगाने पड़े। लेकिन फिर भी सरकार ये सिद्द नहीं कर पाएगी कि उसने रात के अंधेरे में जो किया सही किया। बाबा की मांगे जायज-नाजायज हो सकती हैं, मगर उनके अनशन पर बैठने को नाजायज कैसे ठहराया जा सकता है। बाबा ने कालेधन के अलावा जो मांगे सरकार के सामने रखीं, उनमें से यादातर शायद आम जनता के भी गले नहीं उतर रही हों पर फिर भी वो ऐसी किसी कार्रवाई का समर्थन हरगिज नहीं करेगी। सबसे पहले तो लोग यही नहीं समझ पा रहे हैं कि सरकार पहले बाबा के कदमों में क्यों बिछ गई, और बिछ गई तो फिर एकाएक ऐसा क्या हुआ की बाबा उसे दुश्मन लगने लगे। सरकार का कहना है कि बाबा रामदेव ने समझौते के तहत अनशन समाप्ति की घोषणा नहीं की, इसलिए उसे कार्रवाई करनी पड़ी। अगर ऐसा था तब भी सरकार को लोगों को भरोसे में लेकर कार्रवाई को अंजाम देना चाहिए था।
सरकार के इस कदम का सीधा सा यही मतलब निकलता है कि वो अपने खिलाफ आवाज उठने वाली हर आवाज को कुचलना जानती है। कुछ ऐसा ही 1976 में संपूर्ण क्रांति के वक्त हुआ था, जब जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से घबराई इंदिरा गांधी सरकार ने आंदोलन कुचलने के लिए बर्बर तरीका अपनाया था। उस वक्त शायद इंदिरा गांधी ने नहीं सोचा होगा कि इसकी कीमत उन्हें सत्ता खोकर चुकानी होगी, लेकिन ऐसा हुआ। आपातकाल की मार ने इंदिरा गांधी को घर बैठने को मजबूर कर दिया। ये बात बिल्कुल सही है कि बाबा के आंदोलन की तुलना जेपी आंदोलन से नहीं की जा सकती, मगर बर्बरता की सजा देना जनता के हाथ में है और वो कब इतिहास दोहरा दे नहीं कहा जा सकता। अनशन से पहले केंद्र सरकार और बाबा के रिश्तों में मधुरता का दौर भी था। बाबा को आश्रम के लिए जमीन उपलब्ध कराने में सरकार की अहम भूमिका रही, लेकिन जब बाबा कालेधन जैसे मुद्दों पर प्रखर हुए तो वो सरकार की आंखों में चुभने लगे। सरकार को अब याद आ रहा है कि स्वामी रामदेव कितनी कंपनियों के मालिक हैं, उनकी अथाह संपत्ति का राज क्या है। उनकी दवाओं पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई आदि.. आदि..। राजनीतिज्ञों को जनता जितनी भोली लगती है, वो उतनी है नहीं। लोगों अच्छे से जानते हैं कि सरकार जो कुछ भी कर रही है वो बदले की भावना से कर रही है। ऐसे में अगर बाबा पर लगे आरोपों में रत्ती भर भी हकीकत सामने आती है तो भी सहानभूति की लहर बाबा के पक्ष में ही होगी। ये बात वास्तव में सोचने वाली है कि आखिर छोटी सी अवधि में रामदेव ने इतना बडा साम्राय कैसे खड़ा कर लिया। मौजूदा वक्त में बाबा 34 कंपनियों के मालिक हैं, वो चाटर्ड प्लेन से नीचे कदम नहीं रखते। अपनी स्वाभिमान यात्रा के बाद मध्यप्रदेश से दिल्ली की यात्रा उन्होंने अपने विशेष विमान से ही की थी। विदेशों में बाबा की संपत्ति है, उनका कारोबार अरबों में हैं। जिस मुकाम पर पहुंचने में लोगों की पूरी जिंदगी निकल जाती है, बाबा वहां तक पलक-झपकते ही पहुंच गए। लेकिन ये सबकुछ जितना चौंकाने वाला लगता है, उससे काफी यादा चौंकाने वाला है सरकार का रवैया।
सीबीआई, आयकर विभाग या प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां ऐसे मामलों पर बारीकि से नजर रखती हैं तो फिर उन्हें बाबा की शौहरत-दौलत के बढ़ते ग्राफ पर कभी संशय क्यों नहीं हुआ। इसका सीधा सा जवाब है कि सरकार को उस वक्त बाबा खतरे के रूप में नहीं दिखते होंगे। मगर अब अन्ना हजारे द्वारा जलाई गई भ्रष्टाचार की अलख से बाबा भी प्रभावित हो चुके हैं। लिहाजा उनके विरोधी तेवर सत्ता की चूलें हिलाने का आभास दिलाने लगे हैं। इसलिए अब सरकार को वो दुश्मन नजर आते हैं। मुमकिन है थोड़े वक्त के बाद देश को हिलाने वाला ये मुद्दा ठंडा पड़ जाए, ये भी मुमकिन है कानूनी कार्रवाई के भय से बाबा समझौते की राह पर लौट आएं, लेकिन सरकार के इस दोहरे चरित्र का खामियाजा उसे नहीं उठाना पड़ेगा इसे विश्वास के साथ मुमकिन है नहीं कहा जा सकता।
अगर सरकार बाबा की चिट्टी सार्वजनिक करने के बाद चुपचाप बैठकर तमाशा देखती तो बिना कुछ किए ही उसका काम हो जाता। चिट्ठी सामने आने के बाद लोगों को लगने लगा था कि अनशन महज दिखावा है, ये खुद बाबा की छवि के लिए ही नुकसानदायक होता, लेकिन पुलिसिया अत्याचार का हुक्म देकर सरकार ने एक तरह से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। और इस बर्बर कृत्य के लिए उसे कभी माफ नहीं किया जा सकता।
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