Saturday, May 28, 2011

सरकारी तंत्र की लापरवाही का खामियाजा जनता क्यों भुगते

बीते दिनों मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में अब तक की सबसे बड़ी अतिक्रमण हटाओ मुहिम चलाई गई। इसे सबसे बड़ी इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि ये कार्रवाई रसूखदार लोगों के खिलाफ की गई। सीएम हाउस से इस अभियान की रूपरेखा तैयार की गई और सीएम के शहर से जाते ही उसे अंजाम दे दिया गया। यह पूरी कवायद इतनी गुपचुप रही कि सुबह जब लोगों ने पुलिस फोर्स और बुल्डोजर देखे तो उन्हें माजरा समझ ही नहीं आया, लेकिन सूरज चढ़ते-चढ़ते स्थिति पूरी तरह साफ हो गई। एक रिहाइशी कालोनी में करोड़ों की लागत से बने मॉल को डायनामाइट के सहारे जमींदोज किया गया। दुकानदारों को सामान बटोरने के लिए महज आधे धंटे का वक्त मिला, सालों की मेहनत से तिनका-तिनका जोड़कर उन्होंने जो सपने संजोए थे वो पलक झपकते ही धूल में मिल गए। ये खबर राष्ट्रीय स्तर पर छाई रही, हर खबरीया चैनल ने इसे प्रमुखता से दिखाया। मॉल तोड़ने के अलावा कुछ मकानों को भी अवैध करार दिया गया, हालांकि उन्हें तोड़ने के बजाए प्रशासन ने बीच का रास्ता अपनाया। लेकिन इस बीच के रास्ते से भी लोगों के दिलों की धड़कनें और आशियाना बिखरने का खौफ खत्म नहीं हुआ है। कार्रवाई के पीछे प्रशासन का तर्क है कि मॉल और उसके आसपास का कुछ हिस्सा सरकारी जमीन पर है, इसलिए इसे ध्वस्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं। निश्चित तौर पर प्रशासन का तर्क दस्तावेजों पर आधारित होगा, इतनी बड़ी कार्रवाई बिना पर्याप्त आधार के नहीं हो सकती, लेकिन इन पर्याप्त आधारों का अहसास उसे 10 साल बाद क्यों हुआ ये अपने आप में सोचने वाली बात है।

जिस जगह कार्रवाई की गई, वो कोई नई बसावट नहीं है, सालों से लोग वहां रह रहे हैं। इस कॉलोनी को आईएसओ प्रमाण पत्र भी मिला है, तमाम बैंकों के एटीएम भी मौजूद हैं। मॉल के जिस हिस्से को तोड़ा गया वहां भी कुछ एटीएम लगे थे। इसके अलावा सबसे बड़ी बात जिन लोगों के घरों को अवैध करार दिया गया उनमें से कई ने लोन लेकर इसे खरीदा था। आमतौर पर बैंक लोन देने से पहले गहरी जांच पड़ताल करती हैं, तो फिर उसने ऐसे मकानों के लिए कर्ज कैसे दे दिया जो सरकारी जमीन कब्जा कर बने थे। बैंक की बातों को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो सबसे बड़ा सवाल सरकारी उदासीनता और लापरवाही का है। आखिर कैसे प्रशासन सालों तक अवैध निर्माण होते देखता रहा। थोड़े-मोटे अतिक्रमण का मामला होता तो फिर भी समझा जा सकता था,

लेकिन यह 140 एकड़ भूमि का मामला है। अगर सरकारी दावे सही हैं तो इस मामले में जितना बिल्डर दोषी है उससे कहीं यादा प्रशासन। अमूमन ऐसे मामलों में गलती चाहे किसी की भी हो उसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। जिन लोगों के रोजी-रोटी का साधन मॉल के अवैध हिस्से के साथ जमींदोज हो गया, उनका इसमें क्या कसूर था। कहने को ये बात जरूर कही जा सकती है कि संपत्ति क्रय-विक्रय से पहले पूरी पड़ताल कर लेनी चाहिए, लेकिन जहां बैंक कर्ज देने को तैयार हों वहां शंकी की गुंजाइश ही क्या रह जाती है। हैरानी की बात है कि अदालतें भी ऐसे मामलों में तोड़फोड़ की कार्रवाई पर यकीन रखती हैं। जबकि तोड़फोड़ से सबसे यादा नुकसान उसी आम आदमी का होना है जो इस पूरे मामले से अंजान था। अदालतों को सबसे पहले संबंधित सरकारी तंत्र से सवाल करना चाहिए कि इतने सालों तक वो क्यों सोता रहा। तोड़फोड़ की कार्रवाई तो काफी हद तक वैसी है जैसे पहले खून होते देखा जाए और जब खून हो जाए तो आरोपी को जाकर पकड़ लिया जाए। वैस ये व्यथा अकेले भोपाल की नहीं है, देशभर में ऐसा ही होता है। आदर्श का उदाहरण हमारे सामने है। दोनों ही मामलों में पहले आंखें मूंद ली गईं और जब विवाद बढ़ा तो कार्रवाई की याद आई। आदर्श को ढहाने तक का फरमान सुनाया गया है,

इस फरामन का आधार कई कारणों को बनाया गया, मसलन, आदर्श सोसाइटी ने महाराष्ट्र सरकार से सीजारजेड अधिसूचना के तहत जरूरी मंजूरी हासिल नहीं की। इमारत के लिए मूल रूप से छह मंजिलों का निर्माण होना था, लेकिन बगैर मंजूरी 31 मंजिलें बना दी गईं। अगर सरकार कह रही है तो हो सकता है इस इमारत को खड़ा करने में कानून को ताक पर रखा गया हो, लेकिन बात फिर वही आ जाती है कि आखिर पर्यावरण मंत्रालय की नींद इतनी देर बाद क्यों खुली। मुंबई कोई गांव तो है नहीं कि इतनी बड़ी इमारत के बनने की खबर शहर से बाहर तक नहीं निकल पाई। 31 मंजिलों का पर्यावरण क्लीयरेंस के बगैर खड़ा होना पर्यावरण मंत्रालय की भूमिका पर भी सवालात खड़े करता है। पर्यावरण मंत्रालय के साथ-साथ रक्षा मंत्रालय की भूमिका भी शक के घेरे में होनी चाहिए। इमारत के तैयार होने के बाद अब उसे अहसास हो रहा है कि यह महत्वपूर्ण रक्षा ठिकाने की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है। इस अवैध इमारत के निर्माण में उन लोगों को सजा क्यों दी जाए जिन्होंने वैध तरीके से अपना आशियाना बनाने का ख्वाब पाला। यदि इमारत ढहाई जाती है तो क्या यह ऐसे लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं कहलाएगी। यह वेदांता मामले का उल्लेख करना भी जरूरी है, हालांकि वो तोड़फोड़ से संबंधित नहीं है लेकिन देर से जागने की आदत को बखूबी बयां करता है। वेदांता मामले में भी तब कदम उठाया गया जब काम काफी आगे बढ़ गया था। पूर्व में वेदांता को नियामगिरी से बॉक्साइट निकालने की इजाजत देने के बाद अचानक पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण को नुकसान का आभास हुआ। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने भी परियोजना की गहरी छानबीन के बाद वेदांता को आगे बढ़ने की अनुमति दी थी। इसके बाद कंपनी ने अरबों रुपए का निवेश कर डाला। वेदांता की भारतीय सहायक वेदांता एल्युमीनियम लिमिटेड ने तो लांजीगंज में करीब एक अरब डॉलर की पूंजी लगाकर एक बड़ा एल्युमीनियम शोधन संयंत्र तक खड़ा कर डाला, यह स्थान नियामगिरी की तराई में करीब छह वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में स्थित है। यदि वेदांता का प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए वास्तव में घातक था तो शुरूआत में ही उसपर रोक क्यों नहीं लगा दी गई। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वेदांता ने क्लीयरेंस मिलने के बाद प्रोजेक्ट में ऐसे बड़े बदलाव कर दिए जिससे पर्यावरण को सौ गुना खतरा बढ़ गया। ऐसे मामले जहां सरकारी तंत्र के नाकारेपन का खामियाजा दूसराें को उठाना पड़ता हैं, वहां अदालतों को यादा सक्रीय होने की जरूरत है। खासकर सालों पुरानी बसावटों पर बुल्डोजर चलाने जैसी कार्रवाई की इजाजत तो मिलनी ही नही चाहिए। अगर अदालत एक-दो मामलों में ऐसी नजीर पेश कर दे तो शायद कुंभकरणी नींद में सोने वाले सरकारी तंत्र को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो सके।

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