Thursday, September 8, 2011
यूं ही मरते रहेंगे हम
नीरज नैयर
दिल्ली में आतंकी हमले के बाद फिर वही पुराने सवाल सामने आ गए हैं। ये सवाल हर हमले के बाद उठते हैं, शोर मचाते हैं और थोड़े वक्त बाद फिर गुमनामी में चले जाते हैं। विपक्ष को नया मुद्दा मिल जाता है, सरकार नाकामी छिपाने का नया बहाना ढूंढ लेती है और जनता दो जून की रोटी की जुगाड़ में लग जाती है। ये हमला भी चंद आंसू बहाने के बाद कुछ रोज में भुला दिया जाएगा। भुला दिया जाएगा कि कुछ घरों के चिराग बुझ गए, कुछ महिलाओं के माथे का सिंदूर उजड़ गया, कुछ बच्चे हमेशा के लिए अनाथ हो गए। सड़क पर चलते वक्त गिरने का खतरा हमेशा रहता है, लेकिन जब हम बार-बार गिरने लगे तो हमें अपनी कमजोरियों का आभास हो जाना चाहिए। अफसोस कि हमारी सरकार अब तक अपनी कमजोरी को पहचान नहीं पाई है, या कह सकते हैं कि पहचानना ही नहीं चाहती। मुंबई हमले के बाद जरूरत व्यवस्था बदलने की थी मगर चेहरे बदले गए, शिवराज पाटिल को गृहमंत्री की कुर्सी से हटाकर चिदंबरम को बैठाया गया। साबित करने की कोशिश की गई कि सफेदी की चमकार में डूबे रहने वाले पाटिल से धोती पहनने वाले चिदंबरम ज्यादा सख्त होंगे। लेकिन ये सख्ती आतंकियों के दिल में खौफ पैदा करने में नाकम रही। गंभीर चेहरे देखाकर खून की होली खेलने वालों को अगर रोका जा सकता तो आतंक का ये दौर कब का खत्म हो गया होता। पाटिल के कार्यकाल में अगर आतंकी बेखौफ थे तो चिदंबरम के कार्यकाल में उनके हौसले और भी ज्यादा बुलंद हो गए हैं। इस बुलंदी की जिम्मेदार कोई और नहीं सरकार है, मुंबई के दहलने के बाद यदि सख्त कदम उठाए गए होते तो दिल्ली के दहलने की नौबत ही नहीं आती। ऐसा लगता है जैसे ये देश बहुत सहनशील हो गया है, और इसकी सरकार की सहनशीलता कर्ण को भी मात देने लगी है। कर्ण ने तो फिर भी बिच्छु के डंक की पीड़ा को एक बार सहन किया था, लेकिन सरकार बार-बार मिलने वाले जख्मों को अपनी नियती मान बैठी है।
दुस्साहस की ताकत प्रतिक्रियाओं के अभाव में पनपती है। आतंकी भी इस बात को जान गए हैं कि भारत की सहनशीलता बहुत गहरी है। चाहे देश के दिल को दहलाओ या उसकी आर्थिक नब्ज दबाओ कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, गर होगी भी तो महज बयान मात्र की। बीते दिनों मुंबई में सीरीयल धमाकों के बाद गृहमंत्रालय लेकर प्रधानमंत्री तक ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा था कि अब ऐसी घटनाएं नहीं होंगी, वो अब फिर इसी दृढ़ता के साथ कह रहे हैं कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। पीएम कहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई एक युद्ध है और हम इसमें जरूर जीतेंगे। लेकिन कब जीतेंगे ये शायद वो खुद नहीं जानते। 12 मार्च 1993 को मुंबई में 13 श्रृखलांबद्ध धमाके हुए थे, उस वक्त को 18 साल गुजर चुके हैं, 18 साल में एक बच्चा बालिग हो जाता है। अपना बुरा-भला, दोस्त दुश्मन की पहचान करने लगता है। इतना ताकतवर भी हो जाता है कि दुश्मन का मुकाबला कर सके। लेकिन इन 18 सालों में हमारा देश कहां है, ये बताने की जरूरत नहीं। उस वक्त हम जिस स्थिति में आज भी वहीं हैं, फर्क बस इतना है कि तब जख्मों पर आंसू बहाने वाले हम अकेले थे और अब अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क का हमें कंधा मिल गया है। लेकिन इससे ज्यादा नाकारापन और क्या हो सकता है कि अमेरिका के कंधे पर टिकने के बाद भी हम उससे दृढ़ता और इच्छाशक्ति का पाठ नहीं सीख पाए हैं। अमेरिका में आखिरी आतंकवादी हमला 2009 में हुआ था, इसके बाद आतंकी उसकी तरफ नजर उठाकर देखने का साहस भी नहीं जुटा पाए। अमेरिका छोटे-छोटे राज्यों का देश है, बावजूद इसके वहां आतंकवाद के मुद्दों पर राजनीति नहीं होती। वहां, सद्दाम या लादेन को बचाने के लिए विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित नहीं होते। लादेन तो फिर भी एक मिशन में मारा गया, लेकिन सद्दाम को बाकायदा फांसी पर चढ़ाया गया था। 9/11 के बाद लादेन की तलाश में इराक से पाकिस्तान तक सैन्य कार्रवाई के बुश के फैसले जैसा अगर कुछ भारत में होता पूरे देश को सिर पर उठा लिया गया होता।
राजनीति का इससे विकृत रूप कहीं और देखने को नहीं मिल सकता, अफजल गुरु ने देश की संसद पर हमला किया लेकिन वो आज भी जिंदा है। पूर्व प्रधानमंत्री को मारने वाले जेल में आराम फरमा रहे हैं, कांग्रेस नेता पर हमला करने वाला भुल्लर दया की आस पाले बैठा है। अफजल मुस्लिम है, उसे फांसी मिली तो अल्पसंख्यक वोट बिदक जाएंगे, राजीव के हत्यारे तमिल हैं, उन्हें सजा हुई तो तमिल भड़क जाएंगे, भुल्लर पंजाबी है उसकी मौत से सिख समुदाय आहत होगा, आतंकवादियों को इस रूप में केवल भारत में ही देखा जा सकता है। कसाब का गुनाह हजारों लोगों ने देखा, इसके बाद भी उसके खिलाफ सुबूत जुटाए, अदालत में दोषी को दोषी साबित करने की प्रक्रिया अपनाई गई। आज भी ये साफ नहीं है कि वो कभी फांसी के फंदे पर लटकेगा भी या नहीं, हो सकता है कल कसाब पर भी सियासत शुरू हो जाए। मुस्लिम वोट बैंक बताकर उसे अफजल की तरह जिंदा रखा जाए। वोट बैंक के नाम पर आतंकवादियों से सहानभूति रखने वाले सियासतदा शायद ये भूल जाते हैं कि बंदूक से निकली गोली और बारूद से निकले शोले जाति-धर्म देखकर तबाही नहीं मचाते। आतंकी हमलों में हिंदू भी मरते हैं और मुस्लिम भी, सिख भी मरते हैं और ईसाई भी तो क्या इन लोगों के दिल में अपनों के हत्यारों के प्रति कोई लगाव हो सकता है? ये कुछ और नहीं सिर्फ डर है, जब आपको अपनी काबलियत पर भरोसा न हो तो आप हर चीज से डरने लगते हैं। पांच साल तक जनता के पैसों पर रोटिया तोडऩे वाले, सिर्फ और सिर्फ अपना भले सोचने वाले नेताओं के दिल में यही खौफ घर कर गया है। इसलिए उन्हें आतंकियों में भी मजहबी वोट बैंक नजर आने लगता है। जो नेता और सरकार महंगाई की रफ्तार को नियंत्रित नहीं पाए हों उनसे भला आतंकवादियों पर काबू पाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आतंकवादियों के पास विनाश के हथियार होते हैं, लेकिन महंगाई निहत्थे। बावजूद इसके महंगाई सरकार को परास्त करे हुई है।
देश में होने वाली हर छोटी-बड़ी आतंकवादी घटनाओं के लिए पाकिस्तान को कुसूरवार ठहराया जाता है, ढेरों सुबूत जुटाए जाते हैं, और अंत में उसी पाकिस्तान के साथ रिश्तों की मजबूती का हवाला देकर सारे जख्म भुला दिए जाते हैं। अगर पाकिस्तान कुसूरवार है तो फिर उससे रिश्ते कैसे? देश की जनता आज तक ये समझ नहीं पाई है कि आखिर आतंकवाद के जनक पाकिस्तान के आगे भारत सरकार इतनी बेबस क्यों हो जाती है। एक अदना का जानवर भी अपनों की जान बचाने के लिए जान की बाजी लगा देता है, वो ये नहीं देखता उसका दुश्मन कितना ताकतवर है, मगर इस देश की सरकार अपने दुश्मन से कई गुना ज्यादा ताकतवर होने के बाद भी खामोशी ओढ़े बैठी है, ये कायरपन नहीं तो और क्या है? जब तक इस कायरपन से बाहर आने के प्रयास नहीं होते हम भारतीय हूं ही मरते रहेंगे, यूं ही सुबोध कांत जैसे लोग हमारे दर्द पर अट्टहास लगाते रहेंगे और यूं ही सरकार आश्वासन देती रहेगी। अगले धमाके के बाद यही सब सवाल एक बार फिर सामने आ जाएंगे।
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