Sunday, July 24, 2011
सलवा जुडूम बंद होने के मायने
नीरज नैयर
सलवा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन आदिवासियों के भविष्य पर सवाल खड़ा हो गया है जो सालों तक बंदूक उठाए नक्सलियों का सामना करते रहे। अब न तो उनके पास बंदूकें रहेंगी और न ही राज्य सरकार की तरफ से मिलने वाली मदद। मदद के नाम पर वैसे तो उन्हें कुछ खास नहीं मिलता था, लेकिन जो थोड़ा बहुत मिल रहा था अब उसका रास्ता भी बंद हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आप आदिवासियों को भर्ती कर सकते हैं, लेकिन उन्हें हथियार नहीं दे सकते। सर्वाच्च न्यायालय और कुछ गैर सरकारी संगठनों को लगता है कि सलवा जुडूम की आड़ में मासूम आदिवासियों का शोषण हो रहा है। उन्हें जबरन बंदूक थमाकर नक्सलियों के आगे फेंका जाता है। सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं पर बलात्कार जैसे कई संगीन आरोप भी लगे हैं। यह आंदोलन मूलत: आम आदिवासियों द्वारा माओवादियों के जुल्मो-सितम से आजिज आने के बाद शुरू किया गया। लेकिन बाद में राज्य सरकार की तरफ से इसे मदद मिलने लगी। सलवा जुडूम में शामिल लड़ाके स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर अपने दुश्मनों से मोर्चा लेने लगे। इन लड़ाकों ने कई मोर्चों पर नक्सलियों को मात भी दी। मगर लगातार लग रहे आरोपों ने इस अभियान की धार को कुंद कर दिया। सलवा जुडूम और इस पर हुए बवाल को विस्तार से समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। सलवा जुडूम बस्तर की गोंडी बोली से उपजा शब्द है।
इसमें सलवा का अर्थ शांति और जुडूम का अर्थ एकत्र होना है। यानी इसका शाब्दिक अर्थ हुआ शांति अभियान। इस आंदोलन की असल शुरूआत छत्तीसगढ़ के बीजापुर से 2005 में हुई। महज थोड़े से वक्त में यह आंदोलन जंगल में आग की तरह फैल गया, नक्सलियों के सताए आम आदिवासी बड़ी तादाद में इससे जुड़ते चले गए। पेशे से शिक्षक मधुकर राव को इस आंदोलन का जनक माना जाता है। मधुकर इस बात को अच्छे से जानते थे कि नक्सली आदिवासियों के हितैषी नहीं। इसलिए उन्होंने लोगों को संगठित करके नक्सलियों से मुकाबले के लिए आदिवासियों की फौज खड़ी की। शुरूआत के दौर में सलवा जुडूम को मिली सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुलकर इसकी मुखालफत करने वाले भी बाद में आंदोलन से जुड़ते गए। न केवल आदिवासी बल्कि राजनीतिज्ञों ने भी इस में भागीदारी निभाई। कांग्रेस नेता और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा सहित दोनों प्रमुख पार्टियों के कई नेताओं ने माओवादियों से मुकाबला करने वालों का समर्थन किया। सलवा जुडूम को इतने व्यापक जनसमर्थन के चलते स्थानीय पुलिस-प्रशासन ने इसमें शामिल लोगों की सुरक्षा का जिम्मा खुद उठाना शुरू कर दिया। आदिवासियों के लिए कैंप तैयार किए गए, ताकि नक्सलियों के प्रतिशोध से उन्हें बचाया जा सके। इन कैंपों में एक रुपय की दर से प्रत्येक व्यक्ति को अनाज उपलब्ध कराया जाने लगा। नक्सलियों से सीधे मोर्चा लेने वालों को एसपीओ नाम दिया गया, मतलब स्पेशल पुलिस ऑफिसर। इन्हें 2100 रुपए की आर्थिक सहायता भी दी जाने लगी, जिसे बाद में बढ़ाकर 3000 कर दिया। इस आंदोलन पर भले ही कितनी भी उंगलियां उठी हों लेकिन इसके अमल में आने के बाद नक्सलियों का संघर्ष ज्यादा बढ़ा और पुलिस के हाथ भी मजबूत हुए। इस आंदोलन की बदौलत ही छत्तीसगढ़ में पुलिस की पहुंच बढ़ी है। पहले 157 ग्राम पंचायतों में से केवल 70 में ही पुलिस का वजूद था, मगर आज यह संख्या बढ़कर 100 हो गई है। बासगुड़ा और लिंगागिरि आदि कई ऐसे गांव हैं जहां नक्सलियों की मजबूत पकड़ ढीली हुई है। एसपीओ ने माओवादियों को हर कदम पर चुनौती पेश की, यही कारण रहा कि उन्हें बड़े हमलों का भी शिकर होना पड़ा। सलवा जुडूम शुरू होने के तकरीबन एक साल बाद नक्सलियों ने 2006 में कोंटा से लौट रहे लगभग 33 सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया। इसके एक महीने बाद फिर नक्सलियों ने हमला किया जिसमें 13 कार्यकर्ता मारे गए। इसके बाद तो जैसे हमलों की झड़ी लग गई।
अगर नक्सली सलवा जुडूम को अपने लिए खतरे के तौर पर नहीं देखते तो क्या ऐसे हमले संभव थे? जाहिर तौर पर नहीं। भले ही इस आंदोलन में शामिल कुछ लोगों ने नक्सलियों के पद-चिन्हों पर चलने का प्रयास किया। लेकिन इसके लिए पूरे के पूरे आंदोलन पर उंगली नहीं उठाई जानी चाहिए थी। सलवा जुडूम को बदनाम करने के पीछे माओवादियों का भी बहुत बड़ा हाथ हो सकता है, माओवादी अच्छे से जानते हैं कि अपने विरोधियों को रास्ते से कैसे हटाया जाता है। अब वो जमाना नहीं रहा, जब नक्सली आम आदिवासियों के संरक्षक की भूमिका निभाते थे। नक्सल आंदोलन अब महज अपने स्वार्थों की पूर्ति तक सिमट कर रह गया है, इस बात की संभावना बेहद ज्यादा है कि नक्सलियों ने खुद आदिवासियों पर जुल्म ढाय हों और बाद में इल्जाम एसपीओ पर मढ़ दिया गया। ये बात सही है कि इस आंदोलन में बिना प्रशिक्षण के आदिवासियों को नक्सलियों से मुकाबले को तैयार किया जा रहा था, इस तरह उनकी जान हरपल जोखिम में थी। लेकिन बिना हथियार उठाए भी क्या वो सुरक्षित महसूस कर सकते हैं, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए था। जलवा जुडूम से जुडऩे के बाद आदिवासियों को केवल नक्सलियों के प्रतिशोध का सामना करना पड़ता था, मगर इससे दूर रहने की स्थिति उनके लिए ज्यादा खतरनाक थी। पुलिस नक्सलियों के शक में उनका उत्पीडऩ करती थी और नक्सली मुखबिर के शक में । सलवा जुडुम को बंद करने के बजाए उसके अंदर की खामियों को दूर करने के बारे में सोचा जाने की जरूरत थी। आम आदिवासी जो अपनों पर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए हथियार उठाना चाहते, उन्हें बकायदा प्रशिक्षण के साथ पुलिस के सहयोग के लिए शामिल किया जा सकता था। सलवा जुडूम अगर वास्तव में शोषण का एक जरिया होता तो दूसरे राज्य इसका अनुसरण नहीं करते। पश्चिम बंगाल और उडीसा में आदिवासी सलवा जुडूम की तर्ज पर आंदोलन कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में तो उन्हें कुछ राजनीतिक व्यक्तियों का भी समर्थन प्राप्त है। सलवा जुडूम के बंद होने से नक्सलियों के हौसले और बुलंद होंगे, जो आदिवासी सुरक्षाबलों के सहयोग की भावना रखते थे वो भी इस भावना को जाहिर करने में कतराएंगे। सबसे बड़ी समस्या तो उन लोगों के सामने खड़ी है जो कल तक बंदूक और सरकारी सहयोग के बल पर नक्सलियों को ललकारते रहे। उनकी सुरक्षा अब कौन करेगा? हथियार छिनने के बाद अब वो स्वयं की सुरक्षा की स्थिति में बिल्कुल नहीं हैं। कुल मिलाकर सलवा जुडूम के अंत से उन आम आदिवासियों को ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा जिनके नाम पर इसे बंद किया गया।
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1 comment:
नक्सल प्रभावित इलाकों में जाकर देखेंगे तो पायेंगे कि सारे आन्दोलन खबरिया चैनलों पर ही दिखाई देते हैं और उनकी खामियां भी..वहाँ रहने वाला तो आज भी सरकार के इस कठपुतली वाले खेल का शिकार हो रहा है..
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