Thursday, July 28, 2011

महंगाई के नाम पर फिर ब्याज का बोझ



नीरज नैयर
महंगाई अब ऐसा विषय हो गई है जिसपर बहस का कोई मतलब नहीं निकलता। जिस तरह एक मूक-बाघिर इंसान के सामने लाख चीखो-चिल्लाओ उस पर कोई असर नहीं होता ठीक वैसे ही सरकार के सिर पर भी जूं रेंगना बंद हो गया है। शायद यही वजह है कि विपक्षी दल भी थोड़े-बहुत हल्ले के बाद खामोश हो जाते हैं। उन्हें भी लगने लगा है कि गले पर जोर डालने का कोई फायदा नहीं। महंगाई के मोर्चे पर किसी भी सरकार की इतनी बुरी स्थिति पहले कभी देखने को नहीं मिली। पूर्ववर्ती राजग सरकार के कार्यकाल में भी कई दफा आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान पर पहुंचे, लेकिन थोड़े वक्त में नीचे आने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। लेकिन मौजूदा वक्त में तो दाम आसमान से अंतरिक्ष में जा पहुंचे हैं। ऐसा लगता है, जैसे सरकार के पास चढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए कोई नीति ही नहीं है, सिवाए रिजर्व बैंक के। पिछले 11 महीनों में रिजर्व बैंक 16 बार ब्याज दरों में इजाफा कर चुका है। अभी हाल ही में उसने सीधे आधा प्रतिशत की बढ़ोतरी की है, ये बढ़ोतरी कुछ हद तक पेट्रोल के दामों में एकमुश्त की गई पांच रुपए की वृद्धि के समान है। ये तो सब जानते थे कि रिजर्व बैंक एक बार फिर महंगाई के नाम पर आम जनता की जेब ढीली करेगा, मगर एक साथ आधा फीसदी बढ़ोतरी के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। इस आधे प्रतिशत का बोझ क्या होता है, ये सिर्फ उसे वहन करने वाला ही बता सकता है। सरकार और केंद्रीय बैंक के लिए तो ये महज एक छोटा सा आंकड़ा है। तमाम अर्थशास्त्री रिजर्व बैंक के रास्ते महंगाई पर नियंत्रण की रणनीति पर विश्वास रखते हैं, खासकर सरकार में शामिल आंकड़ेबाजों के लिए तो यह रणनीति घर में लगे पेड़ की तरह हो गई जिसके फल तोडऩे से पहले तनिक भी सोचना नहीं पड़ता।

ब्याज दर में वृद्धि से बैंकों को रिजर्व बैंक से मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है और वो इसका बोझ अपने ग्राहकों पर डालने में जरा सी भी देर नहीं करते। रेपो या रिवर्स रेपा दर बढ़ाने के पीछे गणित ये लगाया जाता है कि कर्ज महंगा होने से लोगों की परचेजिंग पावर घटेगी, जिससे बाजार में मांग कम होगी और मांग और उपलब्धता के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। नतीजतन चढ़ते दामों पर ब्रेक लगेगा। किसी भी वस्तु की कीमतों में इजाफा उसकी उपलब्धता या उत्पादकता पर निर्भर होता है, यदि बाजार में मांग ज्यादा है और स्टाक कम तो निश्चित तौर पर उसके दाम बढ़ेंगे। वैसे भी आजकल लोन सुविधा ने आम आदमी को भी बड़े-बड़े सपने देखना सिखा दिया है। लोन धीमे जहर की तरह है जो किश्तों में अपन असर दिखाता है, इससे हर कोई वाखिफ है मगर फिर भी लोग इसे चखना चाहते हैं क्योंकि उनके पास एकमुश्त रकम नहीं होती। मौजूदा वक्त में टीवी से लेकर घर तक सबकुछ किश्तों पर उपलब्ध है, इन किश्तों की बदौलत आम आदमी भी काफी हद तक संपन्न नजर आने लगा है। अर्थशास्त्रियों को आम आदमी की बस यही संपन्नता चुभ रही है, उन्हें लगता है कि कर्ज महंगा करने से आम इंसान बड़े-बड़े सपने साकार करने की कोशिश नहीं करेगा और संपन्नता को अमीरों के लिए ही छोड़ देगा। कागजी तौर पर मांग और उपलब्धता की खाई पाटकर महंगाई की लगाम कसने की यह रणनीति बहुत असरकारक प्रतीत होती है, लेकिन हकीकत शायद इससे कोसों दूर है। अगर ऐसा न होता तो रिजर्व बैंक को हर थोड़े अंतराल में जनता की जेब काटने की जरूरत ही न पड़ती। ये बात सही है कि इस तरह की नीतियों के परिणाम तात्कालिक तौर पर सामने नहीं आते, लेकिन ब्याज दरों में वृद्धि की ये प्रक्रिया भी काफी लंबे वक्त से चल रही है। रिजर्व बैंक पिछले 11 महीनों से कर्ज महंगा किए जा रहा है, और 11 महीने कोई छोटी अवधि नहीं होती। इस फैसले का वास्तव में यदि महंगाई पर कोई असर दिखाई देता तो कम से कम आम आदमी को एक मोर्चे पर तो कुछ राहत मिलती।

बार-बार ब्याज बढ़ोतरी से तो उसके लिए जिंदगी और भी ज्यादा मुश्किल हो गई है। एक तरफ वो पेट भरने की जुगत करे तो दूसरी ओर किश्त चुकाने की। इन दोनों के बीच में तालमेल बिठाते-बिठाते ही बेचारे का दम निकला जा रहा है। महंगाई थामने के दूसरे भी उपाए हैं, लेकिन सरकार उनको अपनाने के बजाए रिजर्व बैंक के रास्ते आर्थिक मजबूती के अपने एजेंडे को पूरा करने में लगी है। लोगों ने अगर किश्तों के सहारे बड़े-बड़े सपने देखना सीखा है तो उसके गुनाहगार वो खुद नहीं सरकार और स्वयं रिजर्व बैंक हैं। पहले तो लोन को इतना सरल बनाया गया कि आम इंसान को यह बोझ भी हलका लगने लगा और जब इस हल्के बोझ के सहारे उसने सपनों को पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो ब्याज दरें बढ़ाकर उसके पैरों में जंजीरें लगा दी गईं। ब्याज दरों में इजाफा करके रिजर्व बैंक सस्ते लोन का रास्ता संकरा करना चाहता है, लेकिन उसकी इस चाहत में वो लोग भी मारे जाते हैं जो पहले से ही इस रास्ते पर निकल चुके हैं। मसलन, 20 हजार मासिक की तनख्वाह वाले व्यक्ति ने हिसाब-किताब लगाकर घर का सपना पूरा करने के लिए जिस वक्त होम लोन लिया। उस वक्त उसे 5000 प्रति माह की किश्त भरनी पड़ी। इस पांच हजार के लिए उसने अपनी जरूरतों में कटौती करना शुरू कर दिया, लेकिन बार-बार बढ़ती ब्याज दरों से पांच हजार का आंकड़ा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता गया। नतीजतन उसकी जरूरतों का दायरा और सिमट गया। लेकिन इस दायरे को इंसान एक हद तक ही सिमटा सकता है, इसके बाद उसके लिए लोन बंद करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होगा। मगर लोन बीच में बंद करने का मतलब है, अब तक अपना पेट काट-काटकर जितना भी उसने बैंक को दिया वो सब पानी में चला गया।

सरकार ब्याज बढ़ाकर लोन को काफी हद तक साहूकारों से मिलने वाला कर्ज बना रही है, जिसका ब्याज हर दिन बढ़ता रहता है और अंत में उसे चुका पाने में असमर्थ व्यक्ति को मौत की छुटकारा नजर आती है। लोन प्रक्रिया अगर कड़ी करनी ही है तो ऐसे प्रावधान किए जाएं कि पुराने ग्राहकों पर इसका बोझ न पड़े और अगर पड़ता भी है तो उसका प्रतिशत काफी कम हो। नए ग्राहकों को अगर लोन की किश्तें ज्यादा लगेंगी तो वो खुद इससे पूरी बना लेगा, लेकिन जो पहले ही लोन ले चुका है उसके पास ऐसा कोई विकल्पनहीं है। रिजर्व बैंक को धड़ाधड़ ब्याज दरें बढ़ाने से पहले इस दिशा में भी सोचने की जरूरत है। साहूकार की जिस प्रथा से देश ने बाहर निकलना सीखा है, सरकार और रिजर्व बैंक की नीतियां उसे वहीं वापस लिए जा रही हैं। बेहतर होगा कि सरकार महंगाई के नाम पर आम आदमी की परेशानियों में इजाफा करने के बजाए कोई दूसरा रास्ता निकाले।

1 comment:

rohitashwa said...

कीमतें और ब्याज कितना भी बढ़ जाए...इंसान न तो सपना देखना छोड़ेंगे और ना ही घर खरीदना.. उन्हें इससे तो रोका नहीं जा सकता है.. आपकी आखिरी लाइन से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ कि अब सरकार और रिजर्व बैंक असल में ६० साल पुराने साहूकारों की भूमिका निभा रहे हैं..
रोना इस बात का है कि आज हर कोई रिक्शेवाला, पानवाला और अनपढ़ भी मोबाइल से बात करता है
पर वोट देने के नाम पर उसकी अक्ल बंद पड़ जाती है और वो फिर अपने सपनों के लिए साहूकारों के पास ही पहुँच जाता है