Wednesday, December 9, 2009
बढ़ती महंगाई के दोषी हम खुद हैं
कुछ दिन पहले एक हिंदी अखबार में मनमोहन सिंह को लेकर एक कार्टन छपा था, उस कार्टून में दिखाया गया था कि जनता महंगाई से त्रस्त होकर मनमोहन सिंह के पीछे भाग रही है और श्री सिंह उनसे बचने के लिए कोपनहेगन जाने वाले जहाज की तरफ सरपट दौड़े जा रहे हैं। हकीकत भी काफी हद तक ऐसी ही है, महंगाई का बोझ जनता पर हर दिन बढ़ता जा रहा है और सरकार पूरी तरह से सरेंडर किए हुए है। पिछले दो हफ्ते में ही मुद्रास्फीति की दर ने जबरदस्त छलांग लगाई, अब तक आंकडे भी गवाही देने लगे हैं कि दाम बेलगाम घोड़े की मानिंद भागे जा रहे हैं। कल तक सरकार के पास कहने को था कि उनके प्रयासों की बदौलत महंगाई दर नीचे आ रही है, मगर अब ऐसा कुछ नहीं है। बावजूद इसके सरकारी मशीनरी आवश्यक वस्तुओं के आसमान छूते दामों को नीचे उतारने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रही। चंद रोज पूर्व संसद में महंगाई के मुद्दे पर जिस तरह से विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी झुझलाहट भरे जवाब दे रहे थे उससे साफ हो गया था कि सरकार को बढ़ते दामों को थामने का कोई ख्याल नहीं। पूरी तरह से नाकाम साबित हुए कृषिमंत्री तो अब भी यही कह रहे हैं कि सबकुछ ठीक हो रहा है,
उन्होंने संसद में अपने घंटा भर लंबे जवाब में बस इतना भर कहा कि कुछ चीजों की आपूर्ति सुधर रही है और राय सरकारों जमाखोरी के खिलाफ सख्ती बरतें, तो हालात धीरे-धीरे सुधरने लगेंगे। केंद्र सरकार का यह बहुत पुराना जुमला है, जब कभी महंगाई बढ़ती है तो केंद्र रायों पर जमाखोरी का आरोप लगाकर अपना पल्ला झाड लेता है। मगर सच्चाई केवल इतनी नहीं है, जमाखोरी हर जगह है। पर असल समस्या महंगाई थामने के लिए आवश्यक कदम उठाने की है, यदि ये ही काम ठंग से नहीं किया गया तो फिर स्थिति सुधरने की आस कैसे पाली जा सकती है। दरअसल मनमोहन सरकार में अर्थशास्त्रियों की लंबी-चौड़ी टीम महज विकास दर पर नजरें गड़ाए हुए है,
उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि आम आदमी को दो वक्त की रोटी नसीब हो रही है या नहीं, उसका काम महज इतनाभर है कि जीडीपी सात का आंकड़ा कैसे छूए। जीडीपी में मजबूती की खबरों पर सरकार के वाशिंदे बकायदा जश् मनाते हैं, लेकिन आम आदमी के घर में चल रहा मातम उन्हें दिखलाई नहीं देता, स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी नहीं। राजग सरकार के कार्यकाल के वक्त जब सिर्फ प्याज के मूल्यों में बेतहाशा वृध्दि हुई थी तब कांग्रेस ने उसे मुद्दा बनाकर राजनीति रोटियां सेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन आज जब उसके कार्यकाल में ही महंगाई बेकाबू हुए जा रही है तो उसने जुबान पर ताला लगा रखा है। महंगाई को लेकर सरकार का जिस तरह का रुख है उसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम खुद हैं, यूपीए अपने पहले टर्म में इस मुद्दे पर नाकाम साबित हुई थी,
बावजूद इसके जनता ने उसे न केवल जिताया बल्कि पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचा दिया। इसके पीछे भले ही उसके जो भी सोच रही हो मगर आज उसी सोच का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। जिस तरह से महंगाई का चक्का घूम रहा था, जिस तेजी से देश में धमाके हो रहे थे और जिस तरह के विरोधी स्वर लोगों के मुंह से फूट रहे थे उससे तो यही प्रतीत हो रहा था कि इस बार जनता बदलाव चाहती है. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि हमारे देश की जनता को बदलाव पसंद नहीं। जब हर छोटी अवधि के बाद पेट्रो पदार्थों के मूल्यों में आग लगाई जा रही थी तो 2004 में हाथ का साथ देने वाले भी अपनी गलती पर पछता रहे थे बावजूद इसके कांग्रेस को जनादेश मिल गया. अब इसे क्या कहें, जनता की लाचारी, मजबूरी या बेवकूफी.
लाचारी या मजबूरी तो इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके पास विकल्प मौजूद था. उसके पास कांग्रेस या बसपा में से किसी एक को चुनने की मजबूरी नहीं थी. भाजपा एक मजबूत विकल्प के रूप में मैदान में थी, भाजपा देश के लिए कोई नई नहीं है, 14वीं लोकसभा में उसने जो शासन चलाया था उसे कांग्रेस के शासन से हर मायने में बेहतर कहा जा सकता है. यूपीए सरकार ने जिन उपलब्धियों को अपना बताकर जनता से वोट मांगे उनकी नीव अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही रखी गई थी. फिर चाहे वह परमाणु करार, सेतु समुद्रम योजना हो या फिर राष्ट्रीय राजमार्ग योजना. लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा ने जिन मुद्दों को सामने रखा वो हर लिहाज से कांग्रेस की अपेक्षा मजबूत थे. विदेशों में काले धन की बात पहले भाजपा ने उठाई और जब मामला रंग पकड़ता गया तो कांग्रेस भी इसके प्रति प्रतिबध्दता जताने लगी. ये बात सही है कि भाजपा ने कुछ ऐसे मुद्दे भी छेड़े जिनको पचाना मुमकिन नहीं थे जैसे राम मंदिर मुद्दा. इसके साथ ही कंधमाल और मंगलूरु में जो कुछ हुआ उससे भी भाजपा की छवि खासी प्रभावित हुई. अगर भाजपा चुनाव से पूर्व पुनऱ् राम मंदिर निर्माण की बात नहीं करती और कंधमाल, मंगलूरु जैसी घटनाएं नहीं होती तो शायद उसके लिए स्थिति इतनी बुरी नहीं होती. मगर फिर भी बीते कुछ सालों में जिस तरह से आम आदमी के मुंह से निवाला छिना है उसके आगे ऐसी घटनाएं कहीं नहीं ठहरती. भले ही कांग्रेस ने चुनाव से पहले महंगाई की रफ्तार को आंकड़ों के जाल में उलझाकर गिराने में कामयाबी हासिल की लेकिन हकीकत यही थी कि आवश्यक वस्तुओं के दाम तब भी आसमान छू रहे हैं, और अब भी, उनके नीचे उतरने की कोई संभावना दिखलाई नहीं देती.
कांग्रेस खुद को आम आदमी के हितैषी के रूप में पेश करती आयी है मगर उसकी नीतियां हमेशा से आम आदमी विरोधी रहीं. आंतरिक सुरक्षा को ही लें तो कांग्रेस नीत सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही, 2004 में उसके सत्ता संभालने के बाद से 2009 में लोकसभा चुनाव तक करीब 3000 आतंकवादी घटनाएं हुई जिनमें तकरीबन 4000 निदोर्षों को जान गंवानी पड़ी. मुंबई हमले के बाद तो यह साफ हो गया था कि सुरक्षा के मानदंडों को लेकर सरकार की नीतियां कितनी लचर हैं. भाजपा से कुछ लोग इसलिए नाता नहीं जोड़ना चाहते कि वो सेकुलर नहीं है, पर कांग्रेस ने जिस तरह के फैसले लिए क्या उसे सेकुलर सोच का परिणाम कहा जा सकता है. कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक की खातिर मदरसों को सीबीएसई बोर्ड के बराबर खड़ा करने का दांव चला, मतलब मदरसे में पढ़ने वाले उसी जमात में खड़े हो सकेंगे जिसमें उच्च तालीम हासिल करने वाले खड़े होते हैं. उन्हें नौकरी पाने के लिए किसी दूसरी डिग्री की जरूरत नहीं पड़ेगी. कांग्रेस सरकार ने धर्म विशेष के छात्रों को करीब 25 लाख की छात्रवृत्ति प्रदान की, क्या इसे सेकुलरवाद कहा जा सकता है, क्या दूसरे धर्मो के गरीब बच्चों को इसकी जरूरत नहीं होती.
और वो भी तब जब गरीबी रेख से नीचे जीवन यापन करने वालों की तादाद में कांग्रेस के कार्यकाल में 20 प्रतिशत की वृध्दि हुई हो. कांग्रेस नीत यूपीए के सत्ता में आने से पूर्व यानी 2004-2005 में यह आंकड़ा 270 मिलियन था लेकिन अब 55 मिलियन के आस-पास है. पिछले पांच सालों के दरम्यां आंध्र प्रदेश के 36000 हिंदू मंदिरों में से 28000 को बंद कराया जा चुका है, क्या ये सेकुलरवार है. जब दूसरे धर्मो के लोगों को धर्म प्रचार की पूरी आजादी दी जाती है तो फिर हिंदुओं के साथ ऐसा बर्ताव क्यों, शायद इसलिए कि कांग्रेस उसे भाजपा का वोट बैंक समझती है. यहां बात सिर्फ हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई की नहीं है. यहां बात है इक्विलिटी यानी समानता की. सभी धर्मों के लोगों को समान नजरीए से क्यों नहीं देखा जाता. शायद इन सब सवालातों और सोच को घर रखकर जनता ने इस बार वोट दिया और इसका पछतावा भी उन्हें जल्द ही महसूस होगा, क्योंकि जो पार्टी समानता के सिध्दातों के विपरीत अपनों को लाभान्वित करने की नीतियों पर अमल करती है उसके साथ सफर करना हमेशा ही कष्टदायी रहता है, इसका मुजायरा अब तक हो ही चुका है. महंगाई कम करने को लेकर सरकार की प्रतिबध्दता अब तो उसकी बातों में भी नजर नहीं आती। इसी वजह से उसके वरिष्ठ मंत्री बचकाने बयानबाजी करते हैं, कभी शरद पवार कहते हैं कि दाम नीचे आ रहे हैं तो कभी ्रणव मुखर्जी मूल्यवृध्दि को मौसमी तेजी का परिणाम बताते हैं, वो यहां तक कहते हैं कि यह कोई खास बात नहीं। सच यही है कि सरकार के पास महंगाई को नीचे लाने के बारे में सोचने का भी वक्त नहीं है, वह सिर्फ बयानबाजी करके अपनीे नाकामयाबी को छिपाने के प्रयास में लगी है। लेकिन इसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दोषी हम खुद हैं।
Sunday, November 22, 2009
कश्मीर पर यह नासमझी क्यों
अमेरिकी नेतृत्व की पाक पसंदगी का पैमाना इस कदर भर गया है कि उसके राजनेता-अधिकारी अब हमारे पड़ोसी मुल्क के नुमाइंदों की तरह यादा पेश आने लगे हैं, अमेरिकी विदेश उप मंत्री विलियम बर्न्स और हिलेरी क्लिंटन के भारत यात्रा के वक्त दिए गये बयानों से तो यही प्रतीत होता है. बर्न्स ने अपनी भारत यात्रा के दौरानबहुत कुछ ऐसा कहा था जिसकी उम्मीद नई दिल्ली ने भी नहीं की होगी. अमेरिकी मंत्री ने भारत को पाक के साथ बिना शर्त बातचीत की समझाइश तो दी ही साथ ही कश्मीर पर यह कहते हुए नया शिगूफा छोड़ दिया कि समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों की इच्छा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. ऐसे ही हिलेरी ने भी कश्मीर मुद्दे को सुलझाने पर जोर दिया था.
कश्मीर भले ही भारत-पाक का आपसी मसला हो मगर उसमें अमेरिका की दखलंदाजी हमेशा से ही रही है, इसका एक कारणदोनों देशों का बार-बार अमेरिका पर निर्भरता जाहिर करना भी है. पाकिस्तान शुरू से अमेरिका के सहारे कश्मीर फतेह की नापाक कोशिशों को अंजाम देता रहा है और भारत महज जुबानजमाखर्ची के वाशिंगटन को अब तक कोई सख्त संदेश देने में नाकाम रहा है. बर्न्स और हिलेरी के बयान पर भी भारतीय नेतृत्व ने कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दी जिससे अमेरिका को भविष्य के लिए सबक मिल सके. बराक हुसैन ओबामा के सत्ता संभालने से पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि कश्मीर पर उनका रुख पाक के पक्ष में ही जाएगा, ओबामा ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कश्मीर के समाधान के लिए एक विशेष दूत नियुक्त करने की बात कही थी और वो अब इसी दिशा में बढ़ते दिखाई दे रहे हैं.
कश्मीर को लेकर पाक की पैंतरेबाजी को ऐसे कथित बुध्दिजीवियों के कथनों से भी बल मिला है जो घाटी को आजाद रूप में देखने की हसरत रखते हैं. प्रख्यात लेखिका अरुन्धति राय भी ऐसे ही बुध्दिजीवियों की जमात में शामिल हैं. कुछ वक्त पूर्व जब कश्मीर में आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहे थे उस वक्त आउटलुक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कश्मीर को स्वतंत्र करने पर बल दिया था. उनका मानना था कि घाटी में जो आक्रोश व्याप्त है वो केवल अलगाववादियों की ही देन नहीं बल्कि आम कश्मीरियों का वो गुस्सा है जो कई वर्षों से भारतीय प्रशासन के खिलाफ पनप रहा है. उनके मुताबिक कश्मीरियों में अब यह धारणा घर कर चुकी है कि उनका हित भारत से अलग होने में ही है. अरुन्धति राय ने महज बुजुर्गों-नौजवानों और महिलाओं की भीड़ से निकलकर आ रहे भारत विरोधी नारों से यह अंदाजा लगा लिया कि घाटी का आवाम 1947 की तरह ही स्वतंत्रता के लिए आंदोलित है. पर वो शायद भूल गईं कि भीड़ में शामिल होने वाले हर शख्स का उद्देश्य उसकी अगुवाई करने वाले से मेल खाए ऐसा जरूरी नहीं होता. राम मंदिर आंदोलन के वक्त सैंकड़ों लोग भीड़ का हिस्सा बने पर क्या सभी मस्जिद तोड़ना चाहते थे, अगर ऐसा होता तो शायद एक भी मस्जिद आज सुरक्षित नहीं बचती. राजनेताओं की रैलियों में हजारों लोग बढ़-चढ़कर सम्मलित होते हैं तो यह मान लिया जाए कि सब एक ही विचारधारा से हैं, अगर ऐसा होता तो भीड़ ही जीत का आधार मानी जाती. भीड़ का हिस्सा बनना महज क्षणिक भर का जोश मात्र भी हो सकता है, जिसका नशा पलभर में ही काफुर हो जाता है.
णलिहाजा प्रदर्शन करने वालों की तादाद देखकर यह समझ लेना कि पूरी की पूरी जमात ही इसमें शामिल है, सरासर ग़लत है. लालचौक से लेकर सोनमर्ग-गुलमर्ग तक पत्रकार और आम पर्यटक की तरह जब मैने लोगों के दिलों को टटोलने की कोशिश की तो मुझे कहीं से भी उनके भीतर दबे हुए उस गुस्से का अहसास नहीं हुआ जिसका जिक्र अरुन्धति राय ने किया था. जहां तक बात रही थोड़ी बहुत शिकन की तो वह मुल्क के हर नागरिक के चेहरे पर किसी न किसी बात को लेकर दिखाई पड़ ही जाती है. कश्मीर को विशेष राय का दर्जा मिला हुआ है, केंद्र में आने वाली हर सरकार के एजेंडे में कश्मीर सबसे ऊपर होता है. हर साल एक मोटी रकम घाटी के विकास के लिए स्वीकृत की जाती है. इतने सब के बाद भी अलग होने की भावना कैसे जागृत हो सकती है, दरअसल पाक की जुबान बोलने वाले हुर्रियत जैसे संगठन कश्मीरियों को लंबे वक्त से बरगलाने में लगे हैं, वह उन्हें सुनहरे सपने दिखाकर अपनी तरफ करने की कोशिश करते हैं, मगर आम कश्मीरियों को शायद इस बात का इल्म है कि अगर भारत से अलग हुए तो उनका हाल भी पाक अधिकृत कश्मीर में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं की माफिक हो जाएगा. यही वजह है कि आजादी की मांग वाले प्रदर्शन यदा-कदा ही होते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो घाटी हर रोज शोर में डूबी रहती. इस लिहाज से देखा जाए तो न तो अमेरिका और न ही कथित बुध्दजीवियों के लिए यह तर्कसंगत है कि वो कश्मीर पर भारत के रुख को कमजोर करने की कोशिश करें, खासकर अमेरिका के लिए तो बिल्कुल नहीं. ओबामा खुद को बड़ा साबित करने की चाह में उसी स्टैंड पर कायम हैं जिसपर पूर्ववर्ती अमेरिकी शासक चलते रहे हैं.
1947-48 में भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू कश्मीर मुद्दे पर पहला युध्द हुआ था जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में युध्दविराम समझौता हुआ. इसके तहत एक युध्दविराम सीमा रेखा तय हुई, जिसके मुताबिक जम्मू कश्मीर का लगभग एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास रहा जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहते हैं. और लगभग दो तिहाई हिस्सा भारत के पास है जिसमें जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख शामिल हैं. 1972 के युध्द के बाद हुए शिमला समझौते के तहत युध्दविराम रेखा को नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया. हालाकि भारत पूरे जम्मू कश्मीर को अपना हिस्सा बताता है, लेकिन कुछ पर्यवेक्षक यह भी कहते हैं कि वह कुछ बदलावों के साथ नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में है. अमेरिका और ब्रिटेन भी नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के हिमायती रहे. पर पाकिस्तान इसका विरोध करता है क्योंकि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने से मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी भी भारत के ही पास रह जाएगी. अमेरिका ने कश्मीर में पूर्णरूप से 1950 के दौरान ही दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था, और 1990 तक आते-आते उसमें पाक की हिमायती का पक्ष साफ-साफ दिखाई देने लगा. अमेरिका कहीं न कहीं ये चाहता है कि कश्मीर को स्वतंत्र घोषित कर दिया जाए ताकि वो अफगानिस्तान और इराक की तरह अपनी सेना को वहां बैठाकर एशिया में मौजूदगी दर्ज करवा सके, शायद इसी लिए उसके दिल में कश्मीरियों के प्रति दर्द उमड़ रहा है. अमेरिका के इस तरह के हिमायत भरे कदम पाकिस्तान और कश्मीर में बैठे उसके खिदमतगारों के लिए पावर बूस्टर का काम करते हैं. इसलिए भारत सरकार को अमेरिकी दबाव में आकर नासमझ व्यवहार करने की बजाए बर्न्स के बयानों की गंभीरता को भांपते हुए माकूल जवाब देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए.
Friday, November 20, 2009
गौरेया नहीं बनाती मर्द
मनुष्य हमेशा से ही अपने फायदे के लिए दूसरों को कुर्बान करता रहा है. यहां तक कि अपने सगे-संबंधियों को भी. प्रकृति को संतुलित करने वाले मूक जानवर-पक्षी हमेशा से उसका शिकार बनते आए हैं. यह मनुष्य की लालसा का ही नतीजा है कि कभी भारत में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले बाघ अब विलुप्ती के कगार पर पहुंच गये हैं. ताजा गणनाके अनुसार देश में मात्र 1411 बाघ ही बचे हैं जबकि 2001 में करीब 3500 बाघ होने का दावा किया जा रहा था. हालांकि पश्चिम बंगाल के सुंदरवन और झारखंड में बाघों की गिनती को अंजाम नहीं दिया जा सका था.
सुंदरवन में कुछ समय पहले तक 250 बाघ थे लेकिन अब वहां केवल 60-70 ही बचे हैं. इसी तरह झारखंड में बाघों की संख्या 60-70 से घटकर 1-2 होने का अनुमान है. ऐसे में अगर इन दोनों क्षेत्रों के अनुमानित आंकड़ों को मिला भी लिया जाए तो बाघों की कुल संख्या 1500 से कम ही रहने वाली है. बीते चंद दिनों में ही जिस तरह से शिकार की घटनाएं सामने आई हैं उसके बाद 1400 का आंकड़ा छूना भी मुश्किल ही नजर आ रहा है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खालों की तस्करी में लगे हुए हैं. इसके साथ ही बाघों के सफाए का एक सबसे बड़ा कारण अंधविश्वास भी है. यह भावना प्रचुर मात्रा में जनमानस के मस्तिष्क में बैठ ही दी गई है कि बाघ के अंग विशेष से निर्मित दवाईयां यौन शक्ति बढ़ाने में कारगर हैं. बाघ, मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉल ब्लेडर के साथ-साथ अब एक नया नाम इस कड़ी में और जुड़ गया है वो है गौरेया. पेड़ों पर चहकती मिल जाने वाली गौरेया भी अब ओझल होती जा रही है. उन्हें पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जा रहा है. देशभर में पशु-पक्षियों का अवैध व्यापार बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है, मुंबई का क्रॉफर्ड बाजार इसका सबसे बड़ा केंद्र है. सबकुछ जानते हुए भी पुलिस इन मामले में कोई कार्रवाई नहीं करती क्योंकि उसे ऐसी जगहों से खामोश बैठने के लिए पर्याप्त रकम मिल जाया करती है. मुंबई का कोई भी पशु कल्याण संगठन उस बाजार में छापा मारने का साहस नहीं करता.
क्रॉफर्ड बाजार में हर दिन औसतन करीब 50,000 पक्षी खरीदे-बेचे जाते हैं. कामोत्तेजना बढ़ाने की दवा का व्यापार करने वालों के लिए गौरेया सबसे सरल टारगेट रही है. गौरेया को पकड़ने के लिए उन्हें जंगलों में डेरे नहीं डालने पड़ते, शहरों में घूम-घूमकर आसानी से उन्हें पकड़ा जाता है. जानकारों के अनुसार, इस पक्षी की मांग में हाल में काफी वृध्दि हुई है. दरअसल, कुछ हकीम समय-समय पर यह दावा करते रहते हैं कि उन्होंने गौरेया के मांस से एक ऐसी दवा तैयार की है, जो कामोत्तेजक का काम करती है, इसलिए इसकी मांग अप्रत्याशित तौर से बढ़ी है. ऐसा नहीं है कि नीम-हकीमों के इस अंधविश्चास का केवल अनपढ़ लोग ही हिस्सा बनते हैं काफी तादाद में अमीर उद्योगपति तथा फिल्मी सितारे भी ऐसी दवाओं के इस्तेमाल में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. इन पक्षियों को नाइलॉन के जाल के जरिये पकड़ा जाता है. चूंकि गौरैया छोटी होती है, इसलिए कामोत्तेजक दवा की एक खुराक बनाने के लिए कई गौरैयाओं की कुर्बानी दी जाती है. अन्य पशु-पक्षियों की तरह गेंडे और हाथियों को भी उसके सींगों के लिए लगातार मारा जा रहा है, गेंड़ों की तदाद तो पहले से ही कम थी अब हाथियों की संख्या में भी तेजी से कमी आ रही है. अभी सरकारी अमले से लेकर हर किसी का ध्यान इस वक्त बाघों पर केंद्रित है इसलिए हाथियों की संख्या के बारे में सोच-विचार नहीं किया जा रहा है. लेकिन हकीकत ये है कि अगर जल्द ही इस दिशा में नहीं सोचा गया तो इनकी हालत भी बाघ जैसी हो जाएगी.
कुछ वक्त पहले पूर्व केंद्रियमंत्री एवं जानी-मानी पशुप्रेमिका मेनका गांधी का एक लेख प्रकाशित हुआ था उसमें उन्होंने इन भ्रांतियों पर से पर्दा उठाने की सार्थक कोशिश की थी. उसमें कहा गया था कि कोई भी पशु किसी को मर्द नहीं बना सकता. वह केवल कैल्शियम अथवा प्रोटीन देता है, जिन्हें आप पौष्टिक भोजन में कहीं ज्यादा मात्रा में पा सकते हैं. वियाग्रा क्या करती है? यह केवल नाइट्रिक ऑक्साइड छोड़ती है, जो रक्त वेसल्स को खोल देता है और अधिक रक्त का प्रवाह होने लगता है. रक्त के संचालन से कोई भी छेड़छाड़ डिस्फंक्शन में परिणत होती है. जाहिर है, यदि आप अपनी उंगली में रक्त-प्रवाह रोक लें, तो वह भी हिल नहीं पाएगी. शरीर रक्त द्वारा चलाई जाने वाली एक मशीन है. अधिक कार्बोहाइड्रेट तथा गलत प्रकार के वसा वाले भोजन आर्टरियों को अवरुध्द कर देते हैं. यदि रक्त वेसल्स उचित रूप से रक्तऑक्सीजन को नहीं ले जा पाती, क्योंकि वे संकरी तथा वसा से भरी हुई है, तो शरीर टूटने लगता है. और जिस प्रकार हृदय को ले जाने वाली आर्टरियों में ब्लॉकेज होने से हृदयाघात हो सकता है और मस्तिष्क में जाने वाली आर्टरियों में रक्त के रुकने से दौरा पड़ सकता है, उसी प्रकार जब जननांगों को जाने वाली आर्टरिया बंद होती हैं, तो स्वाभाविक रूप से शरीर का वह भाग भी काम करना बंद कर देगा.
इसलिए यदि आप मर्द बनना चाहते हैं, तो गौरैया या कोई और पशु-पक्षी आपको मर्द नहीं बना पाएगा. ऐसा भोजन तथा जीवन-शैली में परिवर्तन से हो सकता है. कम वसा वाला शाकाहारी भोजन, हलका व्यायाम, तनाव को रोना और धूम्रपान न करने का संयोजन आपकी आर्टरियों को खुद-ब-खुद साफ कर देगा. लिहाजा महज अंधविश्वास या अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति तंत्र को नुकसान पहुंचाने से अब हमें बाज आना चाहिए, अन्यथा हमें इसके दूरगामी परिणाम भुगतने होंगे.
Wednesday, November 18, 2009
गैरी क्रिस्टन के सुझाव में बुराई क्या है भाई
ुकुछ वक्त पहले भारतीय क्रिकेट टीम के कोच गेरी क्रिस्टन ने एक सुझाव दिया था जिसे लेकर देश में काफी बवाल मचा, कुछ भूतपूर्व खिलाड़ियों ने तो उनके निष्कासन तक की मांग कर डाली. चारों तरफ से प्रखर हो रहे विरोध के स्वर को देखते हुए गैरी को अंतत: वही रास्ता अपनाना पड़ा जो हमारे नेता वर्षों से अपनाते आए हैं, यानी मेरी बातों का गलत अर्थ निकाला गया. तब कहीं जाकर मामला रफा-दफा हो सका. गैरी क्रिस्टन मूलत दक्षिण अफ्रीका से हैं, इसलिए उनके ख्यालात और भारतीयों के ख्यालात एक जैसे नहीं हो सकते. लेकिन उनके सुझाव एक कोच के तौर पर थे और वैसे देखा जाए तो उसमें कुछ गलत भी नहीं था. गैरी के सुझावों की बारिकियों और उनमें छिपे वैज्ञानिक तथ्यों को जाने-समझे बिना ही इतना बड़ा बवंडर खड़ा कर दिया गया. भारतीय कोच ने सेक्स को जीत का मंत्र बताते हुए खिलाड़ियों को इसकी सलाह दी थी.
उनका तर्क था कि यौन संबंध से टेस्टोस्टेरोन नामक हार्मोन का स्तर बढ़ता है, जिससे अक्रामकता, और प्रतिस्पध्र्दा की भावना जार्गत होती है. मैदान पर खिलाड़ियों का प्रदर्शन सुधारने के लिए बेहद जरूरी है कि वो लंबे समय तक सेक्स से दूर हरगिज न रहें, ऐसी स्थिति में आक्रामकता के स्तर में गिरावट आने की संभावना यादा रहती है. गैरी ने यहां तक कहा था कि अगर खिलाड़ियों के पास संभोग के लिए साथी नहीं है तो वो उसका स्मरण करके हस्तमैथुन का सहारा ले सकते हैं.
भारतीय परिवेश में रहकर सोचा जाए तो खुलेआम सेक्स की सलाह देना अटपटा लग सकता है लेकिन तमाम रिसर्च गैरी के सुझावों पर मुहर लगाते हैं. हाल ही में लंदन की क्वीन्स यूनिवर्सिटी द्वारा किए गये एक शोध के नतीजे कुछ ऐसी ही सलाह देते हैं, शोध के मुताबिक हफ्ते में तीन बार सुबह के वक्त किया गया संभोग सेहत के लिए बेहद लाभकारी है. इससे रक्त संचार तो बेहतर होता ही है, हार्ट अटैक और उच्च रक्तचाप का खतरा भी कम हो जाता है. साथ ही जोड़ों का दर्द, माइग्रेन और डायबिटीज जैसी बीमारियों से भी छुटकारा पाया जा सकता है. सुबह-सुबह के सेक्स से शरीर में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का निर्माण काफी तेजी से होता है, यह हार्मोन हड्डियों एवं मांसपेशियों को मजबूत बनाने में सहायक की भूमिका निभाता है.
इसी तरह स्कॉटलैंड में किए गये एक शोध के अनुसार नियमित संभोग से तनाव में कमी आती है और चित्त शांत बना रहता है. कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि सेक्स से इम्यूनोग्लॉबिन नामक प्रतिरक्षी में बढाेतरी होती है, जो सर्दी-जुकाम जैसे इन्फेक्शन को रोकने में मददगार है. नियमित संभोग का एक और सबसे बड़ा फायदा है कि यह बदन की चर्बी को घटाने का भी काम करता है, जिसकी जरूरत टीम इंडिया के कुछ खिलाड़ियों को है. लगभग आधे घंटे के सेक्स से 85 के आसपास कैलोरी जलाई जा सकता है. भले ही 85 का आंकड़ा कम दिखाई दे रहा हो मगर असल में इतना करने में ही पेच ढीले हो जाते हैं. सेक्स को एक तरह से ऐसी कसरत कहा जा सकता है जो सेहत के साथ-साथ सुख भी प्रदान करती है.
ब्रिटिश जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक सेक्स से पुरुषों में प्रॉस्टेट कैंसर का खतरा कम होता है. साथ ही इससे आत्मसम्मान में वृध्दि होती है. संभोग के बाद अलग सी खुशी महसूस होती है इसलिए काफी लोग अच्छा महसूस करने के लिए भी सेक्स संबंध बनाते हैं. सेक्स का खूबसूरती से भी गहरा नाता है, इससे एस्ट्रोजन नाम का फीमेल हार्मोन अधिक मात्रा में बनता है जिसकी वजह से बाल और चेहरे पर चमक आती है. कुछ जानकार तो हैप्पी मैरिड लाइफ के लिए हफ्ते में 3 से चार पर हमबिस्तर होने की सलाह देते हैं, उनके मुताबिक सेक्स से ऑक्सटॉसिन हार्मोंस स्तर बढ़ता है, जिससे आपसी संबंधों में मजबूती आती है और एक दूसरे के प्रति उदारता की भावना बढ़ती है. अब इतने सारे फायदे सेक्स के अलावा और कहां मिल सकते हैं, इसलिए गैरी क्रिस्टन ने काफी सोच-समझकर यह सुझाव दिया होगा. लेकिन उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि भारत में इसका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है.
दरअसल पूर्व भारतीय खिलाड़ियों का एक तबका विदेशी कोच की परंपरा के हमेशा से ही खिलाफ रहा है. ग्रेग चैपल प्रकरण के बाद माना जा रहा था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई देशी कोच को ही तवाो देगा मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं. ऐसे में इसकी खीज गैरी के बयान जमकर निकली, गैरी क्रिस्टन को जब कोच बनाने की बात चल रही थी तब कहा जा रहा था कि एक ऐसा खिलाड़ी जो भारत के नाम से भी नफरत करता है, वह टीम को भला क्या संभालेगा. लेकिन क्रिस्टन धीरे-धीरे ही सही मगर इसका जवाब दे रहे हैं. वैसे भी हमारे देश में बिना कुछ जाने-ताने हर चीज के विरोध की एक परंपरा सी बन गई है. कुछ वक्त पहले अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर काफी विरोध प्रदर्शन हुए थे. लेकिन विरोध करने वालों में से आधा से यादा को विरोध के कारण का अता-पता नहीं था. कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति यदि सुझाव देता है तो पहले उसकी गहराई में जाकर पड़ताल करना जरूरी है.
टीम इंडिया के खिलाड़ियों में आक्रामकता, एकाग्रता और प्रतिस्पर्धा की कमी हमेशा से ही रही है, अक्सर देखा जाता है कि निर्णायक वक्त में हमारे खिलाडी धैर्य हो देते हैं. जबकि ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका आदि टीमें इस मामले में कहीं आगे हैं. मैच जीतने के लिए जिस आक्रामता की जरूरत होती है वह पूरी तरह से अब भी खिलाड़ियों में विकसित नहीं हो पाई हॅै. कुल मिलाकर कहा जाए तो टीम इंडिया में ढेरों खामिया हैं, जिसे दूर करने की जिम्मेदारी गैरी के कंधों पर है और वो बखूबी जानते हैं कि उसे कैसे निभाना है.
गैरी के सुझावों में नयापन कुछ भी नहीं है, ये बात सब जानते हैं, विरोध करने वाले भी. बस फर्क केवल इतना है कि पहली बार किसी ने खुलेतौर पर इसे सामने रखा. मोरल ऑफ द स्टोरी यही है कि सेक्स से जब वो सबकुछ मिल सकता है जो घंटों जिम में पसीना बहाने के बाद भी आसानी से हासिल नहीं किया जा सकता तो फिर इस सुझाव में बुराई क्या है.
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Tuesday, November 3, 2009
स्त्री-पुरुष और घरेलू हिंसा
हिंसा की कोई शक्ल नहीं होती, लेकिन हिंसा करने वाले की सूरत को कागज पर जरूर उकेरा जा सकता है. आदिकाल में जब मनुष्य भोजन की तलाश में जंगलों की खाक छाना करता था हिंसा तब भी मौजूद थी. उन निरीह जानवरों के लिए जो किसी का पेट भरने की खातिर मारे जाते थे मनुष्य हिंसा फैलाने वाले दानव की तरह था. वो दानव जो करुण पुकार और दया के भाव से कोसों दूर था. इतना लंबा समय गुजरने के बाद भी करुणा और दया जैसे शब्द मनुष्य के शब्दकोष में ढूंढे से आज भी नहीं मिलते, हिंसा का अस्तित्व अब भी कायम है. फर्क केवल इतना है कि उसका स्वरूप वृह्द हो चला है. मनुष्य जो शुरू से ही क्रूर था आज क्रूरतम बन गया है. पहले उसकी क्रूरता केवल स्वयं और अपनों को बचाने तक ही सीमित थी मगर आज वह उन्हीं अपनों के साथ क्रूरता से पेश आता है. रिश्तेनाते उसके लिए कोई मायने नहीं रखते.
मनुष्य का प्रत्येक रूप फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष हिंसा बोध से ग्रस्त है. पुरुष को इस मामले में थोड़ा आगे रखा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. हिंसा के मायने उसके लिए बिल्कुल अलग हैं.घर की चारदीवारी के भीतर स्त्री पर उठने वाले हाथ को वह हिंसा नहीं मानता, उसके लिए तो यह मर्दानगी का सुबूत है. पुरुष की इस मर्दानगी के किस्से आए दिन खबरों के माध्यम से सुनने में आते रहते हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरों के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ अपराध के सालाना 1.5 लाख मामले दर्ज किए जाते हैं, जिनमें से लगभग 50 हजार घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं. मौटे तौर पर कहा जाए तो लगभग पांच मिलियन महिलाएं घर के भीतर हिंसा का शिकार होती हैं, लेकिन महज 0.1 फीसदी ही इसके खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस जुटा पाती हैं. दरअसल हमारे देश में शुरूआत से लड़कियों को यह बात सिखाई जाती है कि उन्हें हरहाल में अपने पति के साथ रहना है. ऐसे में रिश्तों में कड़वाहट की दशा में भी वो ससुराल की दहलीज से बाहर पैर निकलाने का फैसला लेने से कतराती हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका यह फैसला परिवार के लिए बदनामी का कारण बन सकता है.
एनसीआरबी की 2007-08 की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि तमाम दलीलों और प्रयासों के बावजूद महिलाओं के प्रति क्रूरता में कोई कमी नहीं आई है. रिपोर्ट में आधी आबादी पर अत्याचार के मामले में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बाद आंध्र प्रदेश को दूसरे स्थान पर रहा गया, राय में घरेलू हिंसा के 11,335, दहेज हत्या के 613, बलात्कार के 1079, और अपहरण के 1564 मामले दर्ज किए गये. ऐसे ही उत्तर प्रदेश में दहेज हत्या के 2066, बलात्कार के 1532 और अपहरण के 3819 केस सामने आए. ऐसा तब है जब राय में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक महिला विराजमान है. दिल्ली से सटे हरियाणा में तो स्थिति और भी यादा खराब है, भले ही दूसरे रायों की तुलना में यहां कम मामले दर्ज किए गये हों मगर महिलाओं से क्रूरता की खौफनाक तस्वीर यहां आय दिन देखने को मिलती रहती है. बिहार की बात करें तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी महिलाओं की दशा में कोई सुधार देखने को नहीं मिला. 2007-08 के दौरान यहां करीब 59 प्रतिशत विवाहिताएं घरेलू हिंसा की भेंट चढ़ी, जबकि दहेज हत्या के 1172 और बलात्कार के 1555 मामले दर्ज किए गये. इसी तरह मध्यप्रदेश, कर्नाटका और केरल आदि रायों में भी हिंसा का ग्राफ बाकी रायों की तरह ही रहा.
सबसे यादा अफसोस की बात तो ये है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले केवल निचले तबके तक ही सीमित नहीं हैं. पढ़े-लिखे और संपन्न माने जाने वाले परिवारों में भी ऐसा धड़ल्ले से होता है. 26 अक्टूबर 2006 को देश में घरेलू हिंसा रोकने के लिए नया कानून लागू किया गया, जिसके तहत पत्नी या फिर बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण या अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल की परिस्थिति में अपने साथी के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है. कानून का उल्लंघन होने की स्थिति में जेल के साथ -साथ जुर्माने का भी प्रावधान रखा गया. कानून लागू होने के महज दो दिन बाद यानी 28 अक्टूबर 2006 को इसके अंतर्गत तमिलनाडु से पहली गिरफ्तारी हुई. 47 वर्षीय जोसेफ को अपनी पत्नी से मारपीट के आरोप में हिरासत में लिया गया, इस पहली गिरफ्तारी के बाद एक आस बंधी की शायद महिलाओं के प्रति बरसों से चली आ रही सोच में परिवर्तन देखने को मिलेगा, हालांकि कुछ परिवर्तन जरूर सामने आया लेकिन उसका प्रतिशत हिंसा के मुकाबले काफी कम रहा. कुल मिलाकर कहा जाए तो बदलते जमाने के साथ साथ पुरुष ने अपने आप में अनगिनत बदलाव किए मगर स्त्री को लेकर चली आ रही घिसी-पिटी मानसिकता बदलने की कोशिश नहीं की. पुरुष का यह बहुत ही क्रूरतम चेहरा है मगर इसका मतलब ये भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि दर्शाए गये प्रत्येक चेहरे की क्रूरता में उतनी ही सच्चाई हो. महिलाएं बुरे दौर से गुजर रही हैं इसमें कोई दोराय नहीं लेकिन कहीं-कहीं पुरुषों की स्थिति उनसे यादा दयनीय है. घरेलू हिंसा का शिकार उन्हें भी होना पड़ रहा है, इसका कारण है महिलाओं की सुरक्षा को बनाए गये कठोर कानून.
यहां एक शोध का जिक्र करना बेहद जरूरी है, हालांकि उसका मौजूदा विषय से खास ताल्लुक नहीं लेकिन मासूम चेहरे के पीछे छिपी क्रूरता को कुछ हद तक उजागर करने के लिए आवश्यक है. कुछ वक्त पूर्व हुए इसशोध में यह बात सामने आई कि देश की राजधानी दिल्ली में पिछले पांच सालों में दर्ज किए गए बलात्कार के मामलों तकरीबन 20 फीसदी के आसपास फर्जी थे. अधिकतर मामलों को बदला लेने के उद्देश्य के चलते बलात्कार से जोड़ा गया. शोध में उन तमाम मामलों का भी उल्लेख किया गया जिनमें रेप की आड़ में हित साधने की कोशिश की गई. मसलन पूर्वी दिल्ली में रहने वाली एक 16 साल की लड़की ने अपने पिता पर बलात्कार का आरोप लगाया लेकिन जब सच सामने आया तो पता चला कि यह करतूत किसी और की थी और भाई के कहने पर उसने ऐसा किया. ऐसे ही द्वारका की रहने वाली 13 साल की लड़की ने जिन लड़कों पर बलात्कार का आरोप लगाया पुलिस जांच में वो फर्जी पाया गया. बाद में मालूम हुआ कि लड़की के परिवार के कुछ लोगों ने ही उसके साथ रेप किया था लेकिन पारिवारिक दबाव में आकर उसे झूठ बोलना पडा. ऐसे ही तकरीबन 10 साल तक खिंचने वाले एक मामले में अदालत ने अपने दामाद पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिला का सच उजागर किया.विकासपुरी में रहने वाली इस महिला ने दामाद पर डरा-धमकार लंबे समय से यौन शोषण करने कर आरोप लगाया लेकिन कोर्ट में वह अपने झूठ को यादा देर तक कायम नहीं रख पाई. इसी तरह एक शादीशुदा महिला ने अपने अपहरण और बलात्कार का झूठा ड्रामा रचा, उसने पुलिस को बताया कि अज्ञात लोगों ने उसे अगवा कर उसके साथ मुंह काला किया. मगर जांच में मालूम हुआ कि महिला ने अपने प्रेमी के साथ मर्जी से संबंध बनाया और खुद को बचाने के लिए यह कहानी गढ़ी. इस सब के बाद इतना तो कहा ही जा सकता है कि क्रूरता के मामलों में जितना सच्चाई नजर आती है दरअसल उतनी होती नहीं. महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं, ये सही है. लेकिन ये भी सही है कि पुरुष भी इससे अछूते नहीं. क्योंकि दोनों ही हिंसाबोध से ग्रस्त हैं.
Thursday, October 29, 2009
आखिर इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं हम
काफी वक्त पहले मैंना ऐसा ही एक लेख लिखा था और आज भी कुछ ऐसी ही जरूरत महसूस हो रही है. इसका कारण है कुछ लोगों की मानसिकता, हालांकि मैं जानता हूं कि ऐसे हजारों लेख भी उनकी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं लाने वाले. पर फिर भी प्रयास करते रहना हमारा दायित्व है. मुझे अक्सर सुबह जल्दी उठने से परहेज रहा है, इसकी वजह मीडिया से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं. लेकिन कल जब ऐसे ही आंख खुली तो फिर सोने का मन नहीं हुआ. इसलिए मैं यूं ही घूमने निकल गया, घर के थोड़ी सी दूरी पर एक पार्क है, जहां अमूमन बचपन के दिनों में मैं दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने आया करता था.
कुछ देर टहलने के बाद मैं पास ही लगी एक बैंच पर बैठ गया, वहां पहले से ही कुछ लोग विराजे हुए थे. वो लोग शायद किसी चर्चा में व्यस्त थे, धीरे-धीरे उनकी बातें मेरे कानों तक भी पहुंचने लगी. जिसे सुनकर मुझे दुख भी हुआ और अफसोस भी. एक जनाब जो काफी तैश में बोल रहे थे उनके अल्फाज मैं हू ब हू आपके सामने रखना चाहूंगा. 'यार ये सड़क के कुत्तों ने नाक में दम कर रखा है, रात बेराते गला फाड़ना शुरू कर देते हैं, जैसे इनकी मां मर गई हो. मेरा तो मन करता है कि पीट-पीटकर इनकी जान निकाल डालूं. सड़क पर इन्हें देखकर मुझे घिन आती है. यार तुम्हारी तो नगर निगम में अच्छी खासी जान पहचान है, इन्हें यहां से उठाकर किसी नाले-वाले में क्यों नहीं फिकवा देते'.
ऐसे लोगों के लिए मैंने अपना जवाब कुछ इस तरह तैयार किया है:
गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सिर्पुद-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया. कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं. दलीलें तो यहां तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है. अतऱ् उन्हें सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए. पर ऐसी सजा की दरयाफ्त करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है. भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं. पास आओ तो भाग खड़े होते हैं.
वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं. फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे. जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है. कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं. वो बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अंजान बना रहता है. बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखट पर हैं जहां उन्हें कभी आसरा मिला था. मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर क्रूर और निर्दयी बन बैठा हो मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं. प्यार के बदले प्यार कैसे किया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझा सकता है. मनुष्य हमेशा से ही अपनी जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है. जिन उंगलियों के सहारे वह चलना सीखता है वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता. जिन कंधों पर बैठकर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता. मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है.
बचपन में सच्चा बनने का और जवानी में अच्छा बनने का, लेकिन बेजुबान, वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है. उन्हें आता है तो बस प्यार करना. लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे जैसा हमेशा करते रहे हैं. रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी. यह काम तो मनुष्य का है. कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं. गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आंखों में खटकने लगे हैं. अभी कुछ वक्त पहले भोपाल, बेंगलुरु और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है. गले में रस्सी बांधकर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वो कोई कूड़े की गठरी हों. बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई. इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे. मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे ये हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं. सृष्टि की रचना के वक्त ईश्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूं, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए.
वो खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे. बदि्कस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है मगर कुत्तों के लिए बचाता बिल्कुल नहीं. खाने की हर दुकान के सामने बेचारे टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं. टिन के पिचके हुए डब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आंखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं. कुछ रुखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जबे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते. ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद सुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?
Wednesday, October 28, 2009
एक्स के ऐड के पीछे न जाना
लेकिन अक्सर दिखाने और होने में जमीन आसमान का अंतर होता है. प्रोडेक्ट को जिस तरह से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है, उपयोग के वक्त वो इतना असरकारी साबित नहीं होता. इस बारे में अगर एक सर्वे कराया जाए तो अधिकतर लोगों की राय भी यही होगी. आजकल एक्स इफेक्ट केविज्ञापन टीवी पर बहुत छाए हुए हैं, खासकर युवा वर्ग में इसका काफी क्रेज है. द एक्स इफेक्ट प्रोडेक्ट की प्रमोशन पॉलिसी भी केवल युवावर्ग को आकर्षिक करने की है. इसलिए विज्ञापन के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि इस प्रोडेक्ट के इस्तेमाल से लड़कियां खुद ब खुद आपके पास खिचीं आएंगी, यानी एक्स इफेक्ट के उत्पाद लगाओ और प्लेबॉय बन जाओ. न जाने कितने युवाओं ने इस विज्ञापन से प्रेरित होकर प्रोडेक्ट खरीदा होगा. ऐसा ही एक और विज्ञापन पिछले कुछ दिनों से आना शुरू हुआ है, जिसमें छत पर कपड़े उठाने आई एक युवती सिर्फ इसलिए मदहोश हो जाती है क्योंकि पास की छत पर बैठे युवक ने मनमोहक खुशबू वाला डियोडरेंट लगाया था. इस तरह के विज्ञापनों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है, कारण इनसे जुड़े उत्पादों की आपार सफलता.
लोग अति महंगे होने के बावजूद इस तरह के प्रोडेक्ट खरीदना पसंद करते हैं जो पल में दुनिया बदलने के ख्वाब दिखाते हैं. विज्ञापन कपंनिया इसके लिए फिल्म स्टार को हायर करती हैं, क्योंकि अपने पसंदीदा और चहेते स्टार की रिकमनडेशन को लोग नकार नहीं पाते. उन्हें लगता है कि अगर जॉन इब्राहिम या ऐशवर्या राय किसी फेयरनेस क्रीम का ऐड कर रहे हैं तो उसमें कुछ न कुछ तो सच्चाई होगी. मगर हकीकत ये है कि विज्ञापनों में आने वाले स्टार निजी जिंदगी में शायद ही कभी उन प्रोडेक्ट को प्रयोग में लाते हों. अभी हाल ही में जिस तरह से एक युवक ने एक प्रतिष्ठित कंपनी की एडवरटाइजिंग पॉलिसी को कोर्ट में चुनौती दी उसके बाद ऐड सेंसरशिप कड़ाई से लागू करने की जरूरत महसूस होने लगी है. दिल्ली के रहने वाले 26 वर्षीय वैभव बेदी पिछले काफी समय से एक्स के प्रोडेक्ट इस्तेमाल कर रहे थे, मगर वो किसी भी लड़की को प्रभावित करने में असफल रहे, बकौल वैभव मैं कॉलेज के वक्त से इसे प्रयोग कर रहा हूं, करीब सात साल तक एक्स प्रोडेक्ट के इस्तेमाल के बाद भी मुझे वैसे परिणाम देखने को नहीं मिले जैसे इसके विज्ञापनों में दिखाए जाते हैं. वैभव ने अब तक इस्तेमाल में लाए सारे एक्स प्रोडेक्ट के खाली डिब्बों को कोर्ट के समक्ष पेश करके उनकी लेबौरट्री जांच की मांग की है. वह इस तरह की एडवरटाइजिंग पॉलिसी को अपने मानसिक उत्पीड़न का कारण मानते हैं. एक्स के विज्ञापन की हू ब हू नकल करने के लिए वैभव बेदी एक्स डियोडरेंट लगाकर अपनी मेड के आगे निवस्त्र तक हो गये लेकिन बदले में उन्हें मार खानी पड़ी. कहने वाले इसे वैभव का पागलपन कह सकते हैं लेकिन इस पागलपन ने उस सच से अवगत कराया है जिस पर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता.
लोग उत्पाद के संतोषजनक न होने की दशा में भी शांत रहना ही मुनासिब समझते हैं, संभवत: इससे उत्पाद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाली विज्ञापन एजेंसियों के हौसले और बढ़ जाते हैं. क्या इस बात पर गौर करने की जरूरत नहीं है कि जो कुछ ऐड में दिखाया जा रहा है वैसा वास्तव में होता भी है या नहीं. अगर विज्ञापन में एक्स इफेक्ट लगाने के बाद लड़कियां अपने आप खिंची आती हैं तो रियल लाइफ में भी ऐसा होना चाहिए. कायदे में इस तरह के विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए जो जादुई करिश्मे की बात करते हैं. मौजूदा वक्त में तो ऐसा लगता है जैसा टीवी पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों को लेकर कोई दिशा-निर्देश हैं ही नहीं. अधिकतर विज्ञापनों में अशीलता का पुट इतना यादा है कि परिवार के साथ बैठकर देखना भी मुश्किल हो जाता है. सरकार इस मामले पर अब तक खामोशी अख्तियार किए ही बैठी है, कुछ वक्त पुरुष अंडरगारमेंट के एक निहायत ही भद्दे विज्ञापन पर णरोक जरूर लगाई गई थी लेकिन वो भी अब नए रूप में सामने आ गया है.
जिस तरह से फिल्मों में अशीलता रोकने के लिए सेंसरबोर्ड है और वो अपनी कैंची चलाने में बिल्कुल नरमी नहीं बरतता उसी तरह विज्ञापनों को लेकर भी कुछ कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है. खासकर इस बात पर यादा जोर दिए जाने की आवश्यकता है कोई भी कंपनी अपने उत्पाद के प्रोमोशन के लिए इस तरह के हथकंडे न अपनाए जिन पर खरा उतरना उसके खुद के लिए मुमकिन न हो. एडवरटाइजिंग एजेंसियों के लिए लक्ष्मण रेखा खींची जाना बेहद जरूरी है ताकि वैभव बेदी जैसे मामले सामने आने की नौबत ही न आए. वैभव ने एक तरह से जागरुकता का परिचय दिया है. अगर बाकी लोग भी केवल मनमकोस कर रहने की आदत से बाहर निकलकर आवाज बुलंद करें तो शायद झूठे विज्ञापनों के सहारे मुनाफा कमाने की आस कंपनियों को खासी भारी पड़े. वैभव के मामले में संबंधित कंपनी को नोटिस भी जारी किया गया है, और कंपनी फिलहाल चुप्पी साधे हुए है. हवा का रुख पूरी तरह से कंपनी के विपरीत है, हो सकता है वो ऊल-जुलूल तर्क देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश भी करे. मगर उसकी दलीलों का कोर्ट पर कितना असर पड़ता है, यह देखने वाली बात होगी. समझदारी इसी में है कि महज विज्ञापनों को देखकर उत्पाद की गुणवत्ता और उसके प्रभाव के बारे में राय कायम नहीं करनी चाहिए.
Saturday, September 19, 2009
अफ्रीकी चीतों को क्या सुरक्षित रख पाएंगे हम
अफ्रीकी चीतों के भारत में पुर्नवास की कवायदें तेज हो गई हैं, विशेषज्ञों ने उन स्थानों का चुनाव कर लिया है जहां इन्हें रखा जाना है. फिलहाल चीतों की सुरक्षा को लेकर मंथन का काम चल रहा है जो संभवत: जल्द ही पूरा हो जाएगा. करीब 40 अफ्रीकी चीते भारत लाने की योजना है, जिन्हें राजस्थान के नेशनल डेजर्ट पार्क जैसलमेर एवं बीकानेर के गजनेर, गुजरात के भाल, बनी-कच्छ तथा नारायण सरोवर, मध्य प्रदेश के कुनो-पालपुर, नरुनदेही और छत्तीसगढ़ के संजय-डिबरू नेशनल पार्क में रखा जाएगा. चीते को रहने के लिए कम से कम एक हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र जरूरी होता है, इस हिसाब से बनी और कच्छ वन्यजीव अभयारण्य को प्राथमिकता दी जा सकती है क्योंकि इनका क्षेत्रफल बाकियों के मुकाबले यादा है. यह निहायत ही अच्छी बात है कि नये मेहमान को लाने से पहले उसकी हिफाजत और सहूलियत के लिए कसरत की जा रही है, सरकारी मशीनरी को ऐसी कसरत करते देखना सुखद है लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि क्या इस सारी कवायद से पुर्नवास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है.
मौजूदा स्थिति को देखकर तो हां में जवाब देना बहुत मुश्किल है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदरा गांधी ने जिम कार्बेट से बाघ संरक्षण परियोजना की शुरूआत की थी तब से आज तक बाघों के संरक्षण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं, सरिस्का के बाघ वीहिन होने की खबर ने पूरे देश में प्रोजेक्ट टाइगर सवालिया निशान लगा दिया था, आनन-फानन में कमेटियां बनाई गईं, बाघ सरंक्षण को प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा गया, बाघ फंड की राशि बढ़ा दी गई मगर हालात में सुधार नहीं लाया जा सका. न तो शिकारियों पर लगाम लग पाई और न ही संबंधित सरकारी विभागों को इतना मुस्तैद किया जा सका कि बाघों को बचाने में तत्परता दिखा सकें. सरकार की तरफ से बाघ सरंक्षण को भले ही कागजी तौर पर बड़ी-बड़ी रणनीतियां बनाई गईं हों मगर जिस तरह के परिणाम अब तक देखने को मिले हैं उससे तो यह प्रतीत होता है कि बाघों को खत्म होने से बचाना उसके लिए एक पार्ट टाइम काम जैसा बनकर रह गया है , जिसके पूरा होने न होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता. इसका सबसे बड़ा कारण मंत्रालयों से लेकर विभागों तक ऐसे मौका परस्त लोगों की मौजूदगी है जिनके लिए बाघ और उनका सरंक्षण महज पैसा बटोरने का जरिया है. उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि बाघ बचें या विलुप्त हो जाएं.
जिन रायों में चीतों को रखने की बात हो रही है उनका खुद का पिछला रिकॉर्ड दागदार रहा है, खासकर राजस्थान और मध्यप्रदेश तो वन्यजीवों के सरंक्षण को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं रहे. देश में बाघों के सफाए की सबसे पहली खबर राजस्थान से ही आई थी. राजस्थान की तरह ही मध्यप्रदेश में भी सरकारी उदासीनता के चलते एक-एक करके बाघ खत्म होते गये. अभी हाल ही में बाघ सरंक्षण के नाम पर चल रहे नाटक का एक और सच सामने आया था, जिसमें मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ न होने का खुलासा किया गया था, यहां करीब पांच साल यहां 34 बाघ थे. पन्ना में बाघों की कमी की बातें काफी वक्त से उठ रहीं थी लेकिन सरकारी मशीनरी के नकारेपन ने उन पर गौर करना तक मुनासिब नहीं समझा. सरकार की तरफ से हर बार यही झूठ कहा जाता रहा कि बाघ यहां पूरी तरह सुरक्षित हैं, ताकि बाघ सरंक्षण के नाम पर मिलने वाली मोटी रकम को पचाया जा सके. पन्ना की तरह कान्हा का भी कुछ ऐसा ही हाल है, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी यादा बाघ नहीं बचे हैं. बाघ संरक्षण के प्रति सराकर की उदासीनता का आलम ये रहा है कि यहां लंबे समय से खाली पड़े फारेस्ट रेंजर्स के 50 फीसदी पदाें को भरने का प्रयास ही नहीं किया गया. इस बात पर भी ध्यान देने की कोशिश नहीं की गई कि मौजूदा व्यवस्था कितनी चौकस है.
इन दोनों रायों के अलावा गुजरात और छत्तीसगढ़ में भी चीतों को सुरक्षित आशियाना नसीब हो पाएगा इस बात की संभावना काफी क्षीण हैं. नक्सल प्रभावित राय होने के चलते छत्तीसगढ़ के अभयारण्यों में चीतों के पुर्नवास की बात सोचना भी बेमानी होगा, करीब 34000 वर्ग किलोमीटर में फैले यहां के इंद्रावती टाइगर रिजर्व को कभी बाघों के संरक्षण के लिए उपयुक्त माना जाता था मगर अब यहां नक्सलवादियों का कब्जा है. हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि यहां शायद ही कोई बाघा बचा हो, जबकि 2001 की गणना के अनुसार यहां करीब 29 बाघ थे. नक्सलवादी यहां बड़ी आसानी से बाघों का शिकार कर रहे हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं, ऐसा नहीं है कि सबकुछ गुपचुप हो रहा है. वन अधिकारी इस बात को भली भांति जानते हैं मगर नक्सलवादियों का खौफ इस कदर है कि वो जंगल में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. यह नक्सलवादियों के ही खौफ का असर था कि बाघों की ताजा गणना में राय के अभ्यारण्यों को शामिल नहीं किया गया था. अन्य नक्सल प्रभावित रायों की बात करें तों वहां भी ऐसे ही हालात हैं, उडीसा के सिमिलीपाल और बिहार-नेपाल सीमा से लगे वाल्मीकि टाइगर रिजर्वो का हाल बद से बदतर होता जा रहा है. सिमिलीपाल में 2001 में 99 बाघों की गणना कि गई थी पर अब केवल 20 बाघों के होने का ही अनुमान है. ऐसे ही वाल्मीकि में 2001 में 53 के मुकाबले अब सिर्फ 10 बाघ ही बचे हैं. नक्सली गतिविधियों के चलते इन रिजर्वो में संरक्षण अब नामुमकिन सा हो गया है. 1488 वर्ग किलोमीटर में फैले झारखंड की पलामू में 2001 की गणना के मुताबिक 32 बाघ पाए गये थे लेकिन अब इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. गुजरात के रिजर्वों से भी जब तक बाघों के शिकार की खबरें आती रहती हैं. इसके साथ ही बाघों के सफाए का एक और प्रमुख कारण है अंधविश्वास. यह भावना प्रचुर मात्रा में जनमानस के मस्तिष्क में बैठा दी गई है कि बाघ के अंग विशेष से निर्मित दवाईयां यौन शक्ति बढ़ाने में कारगर हैं. बाघ, मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉल ब्लेडर के साथ-साथ अब गौरेया का नाम इस कड़ी में जुड़ गया है. पेड़ों पर चहकती मिल जाने वाली गौरेया को पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जा रहा है. जिसकी वजह से इनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा है.
बाघों के अलावा शिकारियों ने अब तेंदुओं को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया है, 2008 में करीब 141 तेंदुओं का शिकार गया था जबकि 2007 में यह तादाद 124 थी. एक अनुमान के मुताबिक हर साल करीब 150-200 तेंदुए की खाली देश के विभिन्न हिस्सों से बरामद की जाती हैं. दरअसल बाघों की लगतार घटती संख्या से अब तेंदुए की हड्डियों को बाघों की हड्डियों के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. तेंदुए के अंगों का इस्तेमाल भी दवाओं के लिए किया जाता है जिनकी कीमत बहुत यादा होती है. साथ ही इनकी खोपडी अौर पंजों की भी मांग काफी है. चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देश इनके अवैध व्यापार के बडे क़ेंद्र हैं. तेंदुओं को वन्य जीव जंतु संरक्षण कानून 1972 में भी शामिल किया गया है जो उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है लेकिन महज कागजों पर. वन्य जीव विशेषज्ञों की मानें तो तेंदुओं की हत्या की दर वर्तमान में बाघों से कहीं यादा है.अन्य पशु-पक्षियों की तरह गेंडे और हाथियों को भी उसके सींगों के लिए लगातार मारा जाता रहा है, गेंड़ों की तदाद तो पहले से ही कम थी अब हाथियों की संख्या में भी तेजी से कमी आ रही है. कुछ वक्त पहले अंग्र्रेजी समाचार पत्र ने इस संबंध में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी, जिसमें बताया गया था कि हाथियों के बारे में भले ही बाघों जैसा ख्याल न आए लेकिन सच ये है कि इनकी संख्या भी घट रही है. कुल मिलाकर कहा जाए तो सरकार की गंभीरता जो उसके विचारों में झलकती है अगर उसका एक प्रतिशत भी काम में झलकता तो शायद चीतों को दूसरे मुल्कों से लाने के बारे में सोचना नहीं पड़ता. लिहाजा मौजूदा वक्त में ये बेहतर होगा कि सरकार चीतों को वहां सुकून से रहने दे और अपने घर में जितने बचे-कुचे वन्यप्राणी हैं उनकी सुरक्षा में मुस्तैदी दिखाए क्योंकि जैसे हालात है वैसे ही चलते रहे तो हमें आने वाले वक्त में न जाने और कितने जीवों को बाहर से लाना पड़ेगा.
Sunday, September 13, 2009
सोच-समझके करें निवेश
नीरज नैयर
शेयर बाजार में पूंजी लगाने वालाें के लिए मौजूदा वक्त खुशनुमा कहा जा सकता है, सेंसेक्स और निफ्टी दोनों धीरे-धीरे ही सही पर ऊपर की तरफ बढ़ रहे हैं. मंगलवार यानी आठ सितंबर को बाजार खुलते ही सेंसेक्स और निफ्टी इस साल के अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गए, निफ्टी 38.40 अंकों की तेजी के साथ 4800 अंक पार कर गया, जबकि सेंसेक्स 122 की बढ़त लेता हुआ 16139.27 तक जा पहुंचा. बाजार में हर थोड़े अंतराल के बाद इस तरह की बढ़ोतरी निवेशकों का भरोसा कायम रखने के लिए जरूरी है. बाजार ने बीते कुछ समय में बहुत बुरा दौर देखा है, 21-22 हजार के आंकड़े को छूने के बाद जिस तरह से सेंसेक्स ने गोता लगाया था उससे काफी तादाद में निवेशक छिटककर बाजार से दूर चले गये लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता वह फिर लौटने लगे हैं. अब तक अपना हाथ रोककर बैठे नवागान्तुक भी शेयर बाजार के रुख से सहमत होकर निवेश करने लगे हैं, इसी का नतीजा है कि पिछले साल के मुकाबले बाजार इस बार यादा संभला नजर आ रहा है.
2008 में दिवाली के आस-पास बाजार में संन्नाटा पसरा था, लेकिन अब तक जो संकेत मिल रहे हैं उससे कहा जा सकता है कि इस बार की दिवाली अंधकारमय नहीं होगी. शेयर बाजार आज जिस 16 हजार की ऊंचाई पर है, इसका अधारा सही मायनों में देखा जाए तो 18 मई की बढ़त रही, भारतीय शेयर बाजारों के इतिहास में संभवत: पहला मौका था जब बार एक दिन में तीन बार सर्किट लगाए गये. शेयर बाजार में दस प्रतिशत से अधिक की वृध्दि आने पर सर्किट लगाया जाता है. बाजार खुलते ही अप्रत्याशित बढ़त के चलते कारोबार दो घंटे के लिए रोकना पड़ा था इसके बाद 11:55 पर दोबारा शुरू होते ही दोनों प्रमुख सूचकांकों में फिर जबरदस्त तेजी आई. दिन भर में बमुश्किल 10 मिनट की ट्रेडिंग के बाद कुल 17 प्रतिशत बढ़त के साथ कारोबार वहीं रोक देना पड़ा. सेंसेक्स 17.34 प्रतिशत अर्थात 2110.79 अंक उछलते हुए 14254.21 अंकों के स्तर पर जा पहुंचा. निफ्टी ने भी 17.64 फीसदी की बढ़त लेते हुए 4323.15 के स्तर तक दौड़ लगाई. सेंसेक्स में आई ऐतिहासिक तेजी ने निवेशकों को मात्र एक मिनट में 6.5 लाख करोड़ रुपए का फायदा पहुंचाया. हालांकि बाजार को 14000 से 16000 तक पहुंचने में करीब तीन माह का समय लगा जो एक-दो साल पूर्व की रफ्तार के मुकाबले काफी कम है, पर फिर भी यह बढ़त लंबे समय तक छाई खामोशी के गम को कुछ वक्त के लिए दूर करने के लिए काफी है. अगर हम अप्रत्याशित वृध्दि के दौर से पहले की बात करें तो बाजार कछुआ गति से ही बढ़ता था, न कभी उसमें इतना यादा उछाल आता था और न कभी इतनी गिरावट. मगर जब से शार्ट टर्म सट्टेबाजों ने बाजार में दिल खोलकर पैसा लगाना शुरू किया है बाजार में अस्थिरता का संकट अधिक मंडराने लगा है, अक्सर छोटे निवेशक मंदी के दौर में डूबने के डर से बाजार से निकलने की जल्दबाजी में धड़ाधड़ बिकवाली करके बाजार का बैंड बजा देते हैं.
शेयर बाजार का इतिहास रहा है कि जिसने भी बाजार में लंबा टिकने का साहस दिखाया है, मुनाफा भी उसी ने कमाया है. शर्ट टर्म सट्टेबाजों के अलावा बाजार में आने वाले अप्रत्याशित बदलाव का एक और प्रमुख कारण है विदेशी संस्थागत निवेश, विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार में मुनाफा कमाने के इरादे से दिलखोलकर निवेश करते हैं, और जब उन्हें घाटे की आशंका दिखलाई देती है तो फटाफट अपना बोरिया बिस्तर समेटकर बाजार को चौपट कर निकल जाते हैं. दरअसल भारतीय बाजार में विदेशी निवेश को लेकर हमारे यहां कोई गाइडलाइन निर्धारित नहीं है. समय-समय पर कई वित्तीय संस्थान और प्रख्यात उद्योगपति राहुल बजाज भी विदेशी निवेश पर नियंत्रण की बात कहते रहे हैं. कुछ वक्त पहले जब बाजार घड़ाम से गिरा था तब इस दिशा में कठोर कदम उठाने की बातें कही गई थी मगर इतना लंबा समय गुजरने के बाद भी ऐसी कोई खबर सुनने को नहीं मिली है.
सरकार इस बात पर खुश भले ही हो सकती है कि बाजार फिलहाल पल में तोला पल में माशा वाली स्थिति में नहीं है, लेकिन आर्थिक मंदी के दौर में जब दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था यानी अमेरिकी दिवालियापन के हालात से गुजर रहा है, ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती. असल तस्वीर तो तब नजर आएगी जब मंदी का भूत पूरी तरह से पीछा छोड़ देगा. अभी विदेशी निवेशक खुद घाटे में डूबे हुए हैं, और जब वो खुद को इससे उबरने के हालात में पाएंगे तभी भारत की तरफ रुख करने का साहस दिखा पाएंगे. वैसे देखा जाए तो हाल-फिलहाल का वक्त बाजार में पैसा इनवेस्ट करने के लिए सबसे माकूल है, पर फिर भी अंधाधुन हाथ आजमाने की आदत से अभी बचना चाहिए. बिना सोचे समझे और दूसरों की बातों में आकर पैसा फंसाने का निर्णय लेना जोखिम भरा साबित हो सकता है.
बाजार में यदि सही रणनीति एवं पर्याप्त अध्ययन के साथ उतरा जाए तो नुकसान की संभावना काफी कम रहती है. आजकल कुछ ऐसी वेबसाइट भी मौजूद हैं जो इस दिशा में सही मार्गदर्शन करती हैं, कुछ एक तो अपने गुणा-भाग के आधार पर निवेशकों को यह तक बता रही हैें कि किन शेयरों में निवेश करना फायदेमंद हो सकता है. बिजनेसदुनिया डॉट कॉम के आंकलन इस मामले में काफी सटीक जा रहे हैं. सोच-विचारकर निवेश करने वालों के लिए यह वेबसाइट सहायक सिध्द हो सकती है. फिर भी अंत में यह कहना उचित रहेगा कि किसी भी निर्णय तक पहुंचने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल जरूर करें.
Thursday, September 3, 2009
यहां से कितना आगे जाएगी फुटबॉल
हमारी फुटबॉल टीम ने अपने से कहीं गुना ताकतवर सीरिया को हराकर लगातार दूसरी बार नेहरू कप अपने नाम कर लिया, यह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है लेकिन इससे भी यादा महत्वपूर्ण है इस मैच को देखने उमड़ी भीड़. गौर करने वाली बात ये है कि लोगों का हुजूम पश्चिम बंगाल के किसी स्टेडियम में नहीं बल्कि दिल्ली के
आंबेडकर स्टेडियम में देखने को मिला. बंगाल में तो फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी जगजाहिर है, मगर दिल्ली में ऐसा नजारा देखना थोड़ा आर्श्च्रयजनक प्रतीत होता है.
स्टेडियम के भीतर-बाहर जमा भीड़ के कारण लोगों को अव्यवस्था की शिकायत करने का मौका भी मिला, अमूमन इस तरह की शिकायतें किसी क्रिकेट मैच के दौरान ही सुनने में आती हैं. पूरे मैच के दौरान दर्शक जिस तरह से भारतीय टीम की हौसला अफजाई कर रहे थे उसे देखकर कतई नहीं लग रहा था कि हमारे देश में फुटबॉल को दोयम दर्जे का खेल समझा जाता है. दोयम दर्जे का इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इतने सालों बाद भी यह खेल घर की चारदीवारी से निकलकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पूरी तरह अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाया है. फुटबॉल के हमारे देश में यूं अलग-थलग पड़े रहने के कई कारण हैं, जिनपर न तो कभी गौर किया गया और न ही कभी गौर करने की जरूरत समझी गई. यूं तो मौजूदा वक्त में कई क्लब मौजूद हैं जो फुटबॉल को जिंदा रखे हुए हैं लेकिन शायद ही लोगों ने जेसीटी फगवाड़ा और मोहन बगान के अलावा किसी तीसरे क्लब का नाम सुना हो.
कम ही लोग इस बात का जानते होंगे कि भारतीय टीम 1950 के वर्ल्ड कप के फाइनल में जगह बनाने में कामयाब हुई थी, 1951 एवं 1961 के एशियन खेलों में उसे गोल्ड मैडिल हासिल हुआ था, 1956 के मेलर्बोन ओलंपिक में वह चौथे स्थान पर रही, और 2007 में नेहरु कप पर कब्जे के बाद 2008 में उसने तजाकिस्तान को 4-1 से हराकर एफसी चैलेंज कप अपने नाम किया. पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए तो बमुश्किल एक-दो लोग ही ऐसे होंगे जो फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों से परिचित हों. अकेले भाई चुंग भूटिया ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें यादातर लोग जानते हैं. पिछले दिनों एक टीवी कार्यक्रम में शिरकत करने से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ जरूर थोड़ा बहुत बड़ा होगा. लेकिन इसको लेकर उन्हें क्लब के पदाधिकारियों की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा. ये बात अलग है कि भाईचुंग ने दबने के बजाए खुलकर अपनी बात रखी और वह उल्टा दबाव बनाने में कामयाब भी रहे, मगर यह घटनाक्रम क्रिकेट और फुटबॉल के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. क्रिकेटर प्रेक्टिस सेशन बीच में छोड़कर विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त रहते हैं तो भी उनके खिलाफ कुछ नहीं किया जाता, शायद बोर्ड खुद भी खाओ और हमें भी खाने दो की पॉलिसी पर यकीन करता है. कायदे में तो किसी एक खेल की दूसरे के साथ तुलना कतई उचित नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए लेकिन जिस तरह से क्रिकेट के बरगद तले बाकी खेलों की आहूति दी जा रही है उससे तुलनात्मक विश्लेषण की परंपरा का जन्म हुआ है.
क्रिकेट को लेकर हमारे देश में यह तर्क दिया जाता है कि ये खेल लोगों को सर्वाधिक पसंद है और वो इसके अलावा कुछ और देखना ही नहीं चाहते, अगर इस तर्क में तनिक भी सच्चाई होती तो अंबेडकर मैदान पर लोगों की हुजूम न उमड़ता. हकीकत ये है कि काफी हद तक लोग क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों का भी आनंद उठाना चाहते हैं लेकिन प्रोत्साहन की कमी से उन्हें क्रिकेट तक ही सीमित रहना पड़ता है. क्रिकेट के स्वरूप को बदलने और उसे अत्याधिक रोमांचित बनाने के लिए नित नए प्रयोग किए जाते हैं. इंडियान प्रीमियर लीग यानी आईपीएल बीसीसीआई का सफलतम प्रयोग है, हालांकि जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा को इसका जन्मदाता कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. सबसे पहले सुभाष चंद्रा ने ही भारत के कैरीपैकर बनते हुए आईसीएल का ऐलान किया था लेकिन बीसीसीआई के पैंतरों के आगे उनकी यह पहल सफल नहीं हो पाई और ललित मोदी ने आईसीएल की तर्ज पर आईपीएल खड़ा कर डाला जो आज कॉर्पोरेट घरानों और खुद बोर्ड के लिए कमाई का सबसे बड़ा जरिया बन गया है. खिलाड़ी भी इसमें करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे कर रहे हैं.
बीसीसीआई के कहने पर ही दूसरे देशों के क्रिकेट बोर्ड ने आईसीएल को मान्यता नहीं दी और वह खडे होनेसे पहले ही लड़खड़ा गया. लेकिन इस तरह का प्रोत्साहन और प्रतिद्वंद्वता का नजारा फुटबॉल में राष्ट्रीय स्तर पर कभी देखने को नहीं मिला. क्रिकेटर जहां अलग-अलग रायों में विभाजित होने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर एक टीम की तरह दिखाई पड़ते हैं, ऐसा फुटबॉल टीम को देखकर कतई प्रतीत नहीं होता. मौजूदा दौर में तो ऐसा लगता है जैसे फुटबॉल महज अलग-अलग क्लब का ही खेल बनकर रह गया है. जिसके प्रोत्साहन और सुधार का जिम्मा सिर्फ उन क्लबों पर ही है. अगर फुटबॉल फेडरेशन या खेल मंत्रालय इस खेल को राष्ट्रीय स्तरीय खेल की तरह लेते तो शायद इसको ऊपर उठाने के लिए कुछ न कुछ प्रयास जरूर किए जाते.
Thursday, August 13, 2009
महात्मा गांधी, हिंदी और हॉकी में समानता
महात्मा गांधी, हिंदी और हॉकी में एक समानता है, वो ये कि तीनों को ही राष्ट्रीयता से जोड़ा गया है, जैसे महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा दिया गया है, हिंदी को राष्ट्रभाषा और हॉकी को राष्ट्रीय खेल का. पर गौर करने वाली बात ये है कि बावजूद इसके तीनों को वो सम्मान अब तक नहीं मिल पाया है जिसके वो हकदार हैं.
महात्मा गांधी ने मुल्क को आजादी दिलाने के लिए क्या कुछ नहीं किया, दोहराने की शायद जरूरत नहीं. उन्हें एक ऐसे योध्दा के रूप में जाना जाता है जिसने शस्त्र उठाए बिना ही दुश्मन को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया. उनके अहिंसक प्रयासों को भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व में सराहा जाता है. हालांकि ये बात सही है कि उनके विचारों और सिध्दाताें से कुछ लोग हमेशा असहमत रहे मगर बापू के समर्थन में खड़े होने वाली हजारों की भीड़ ने कभी उन्हें तवाो नहीं दी. पर आज उनके लिए मन में श्रध्दा का भाव रखने वालों को उंगलियों पर गिना जा सकता है. सरकार को भी उनकी याद महज दो अक्टूबर को ही आती है. इसी दिन पार्कों, चौराहों पर धूंल फांक रहीं बापू की प्रतिमाओं को नहलाया-धुलाया जाता है, माल्यार्पण किया जाता है और फिर साल भर के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाता है. देश के राजनीतिज्ञ महात्मा गांधी को नाटकबाज कहकर संबोधित करते हैं. क्या यह आचरण किसी महापुरुष को दिए गये सम्मान का परिचायक है. यदि महात्मा गांधी के नाम के आगे राष्ट्रपिता नहीं जुडा होता तो ऐसे वक्तव्य और उदासीनता फिर भी एकबारगी ना चाहते हुए भी हजम की जा सकती थी. क्योंकि हमारे देश में महापुरुषों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाता है. मगर जहां राष्ट्रीयता की बात आती है वहां वाजिब सम्मान तो दिया ही जाना चाहिए.
ऐसा ही हाल हिंदी का भी है, उसे हमारी राष्ट्रभाषा कहा जाता है. कहा जाता है इसलिए कह सकते हैं क्योंकि राष्ट्रीय दर्जे जैसी कोई बात यहां दिखाई नहीं देती. ऐसे मुल्क में जहां हिंदी भाषियों की तादाद सबसे यादा है, वहां अंग्रेजी को सर्वोच्च स्थान पर बैठाया जाता है. आम बोलचाल में भी हिंदी अब पिछड़ती जा रही है. सबसे ताुब की बात को ये है कि जिस सरकार पर हिंदी को मजबूत करने का जिम्मा है वो ही इसे कमजोर बनाने में जुटी है. सरकारी स्तर पर हिंदी को प्रोत्साहित किए जाने वाले कागजी प्रयास भी अब बंद से हो गये हैं. सरकारी कार्यालयों में हिंदी में हर कार्य संभव, हर संभव कार्य हिंदी में जैसी तख्तियां लगाकर फर्ज की इतिश्री कर ली गई है. आलम ये हो चला है कि देश की संसद में भी हिंदी की पूछपरख नहीं है. बहुसंख्य हिंदी आबादी का प्रतिनिधित्वकरने वाले प्रतिनिधि भी राष्ट्रभाषा के इस्तेमाल को तौहीन समझते हैं. अभी कुछ ही रोज पहले जब सदन में चर्चा के दौरान केंद्रीय पर्यावरणमंत्री जयराम रमेश को समाजवादी प्रमुख मुलायम सिंह ने यह याद दिलाया कि वो लंदन की नहीं भारत की संसद में बोल रहे हैं तो उन्होंने अंग्रेजी के बजाए हिंदी में बोलना बेहतर समझा मगर जब बात मेनका गांधी पर आई तो उन्होंने दो टूक शब्दों में हिंदी में बोलने से इंकार कर दिया. अंग्रेजी मौजूदा दौर की जरूरत है इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता, पर जहां इसके बिना भी काम चल सकता है वहां तो कम से कम राष्ट्रभाषा के प्रयोग में शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए. कुछ एक रायों को छोड़कर बाकी सब जगह के लोग हिंदी समझ-बोल लेते हैं उसके बाद भी संसद में पहुंचने वाले हमारे अधिकतर सांसद अंग्रेजी का मोह नहीं त्याग पाते. इसी वजह से हिंदी भाषी सांसदों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें तो हिंदी की बीमारी है. अगर हिंदी को देश में बीमारी के रूप में देखा जाता है तो फिर इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का क्या मतलब, इससे अच्छा तो यही होता कि हिंदी को भी क्षेत्रीय भाषाओं की श्रेणी में रखा जाता. तब शायद इसके तिरस्कार पर यूं मन भारी नहीं होता.
राष्ट्रीयता की तीसरी कड़ी यानी राष्ट्रीयखेल हॉकी भी कुछ अच्छी स्थिति में नहीं है. इसे भी राष्ट्र से जुड़ने की कीमत चुकानी पड़ रही है. इस खेल और इससे जुड़े खिलाड़ियों के साथ हमेशा से ही भेदभाव किया जाता है. उन्हें ना तो राष्ट्रखेल से जुड़ा होने जैसा सम्मान मिल पाता है और ना ही उतनी शौहरत जितनी क्रिकेट में शुरूआती स्तर पर ही मिल जाती है. हॉकी का आज कोई माई-बाप नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी बच्चा-बच्चा बखूबी जानता है मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार जैसे नाम अनसुने-अंजाने बनकर रह गए हैं. सही मायनों में देखा जाए तो हॉकी आज गली-मोहल्लों तक ही सीमित रह गई है. चंद रोज पहले पुणे हवाई अड्डे पर हॉकी टीम के खिलाड़ियों के साथ जो बर्ताव हुआ और कुछ वक्त पहले ऑस्ट्रेलिया में उन्हें जो जलालत झेलनी पड़ी, क्या उसके बाद भी हॉकी को राष्ट्र खेल कहा जाना चाहिए. ये बात सही है कि देश में क्रिकेट के चाहने वाले आधिक हैं, हॉकी देखना कम ही लोगों को रास आता है पर इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है. हॉकी अपने आप ही तो रसातल में नहीं चली गई, जाहिर है राष्ट्रीयखेल को प्रोत्साहित करने की जिम्मेदारी उठाने वालों ने हाथ पर हाथ धरे रहने के सिवा कुछ नहीं किया. यदि हॉकी को यूं मरने के लिए नहीं छोड़ा गया होता तो संभवत: आज यह इतनी दयनीय स्थिति में नहीं होती. राष्ट्रपिता, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयखेल के साथ हमारे देश में जो कुछ हो रहा है उसे देखकर तो यही लगता है कि अगर इनके आगे राष्ट्रीय नहीं लगा होता तो शायद ये यादा सम्मान पा रहे होते.
Sunday, August 2, 2009
हाशमी साहब मकान के लिए मुस्लिम कार्ड क्यों खेला
बॉलीवुड स्टार इमरान हाशमी आजकल सुर्खियों में हैं, वैसे तो अपनी सीरियल किसर की छवि के चलते वो हमेशा ही छाए रहते हैं लेकिन इस बार मामला थोड़ा पेचीदा है. जनाब आशियाना ढूंढ रहे हैं और जिस घर पर उनका दिल अटक गया है वो उन्हें मिल नहीं रहा. ऐसा तो अक्सर आम लोगों के साथ भी होता रहता पर इमरान का आरोप है कि चूंकि वो मुस्लिम हैं, इसलिए उन्हें वो घर नहीं दिया जा रहा है. हाशमी साहब राय के अल्पसंख्यक आयोग में भी शिकायत कर चुके हैं और उन्होंने सोसाइटी के पदाधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है.
हालांकि उनका ये आरोप शायद ही किसी के गले उतरे, इतना बड़ा स्टार, जिसे लाखों लोग पहचानते हों, उसके साथ फोटो खिंचवाना चाहते हों, हाथ मिलाना चाहते हों वो अगर किसी सोसाइटी में रहने की इच्छा जताता है तो ये मुश्किल ही है कोई इस पर आपत्ति करे. और गर कोई आपत्ति करता भी है तो इसके पीछे घर लेने वाले की व्यक्तिगत छवि उसका चालचलन आदि जैसी सामान्य वजह हो सकती हैं. अमूमन अच्छी सोसाइटी में किसी को घर देने से पहले ये सब देखा जाता है. और वैसे भी घर देना न देना सोसाइटी का अपना निजी फैसला है, अगर उन्हें नहीं लगता कि किसी बड़े स्टार का यहां रहना उनके लिए सुविधाजनक होगा तो उन्हें मना करने का पूरा अधिकार है. जिस तरह की भाषा इमरान हाशमी बोल रहे हैं वह अल्पसंख्यक समुदाय के आम लोगों के मुंह से अक्सर सुनते रहते हैं लेकिन बॉलीवुड अभिनेता के मुंह ये सब सुनना थोड़ा अजीब लगता है.
इमरान की तरह कुछ और स्टार भी हैं जो इस तरह के आरोप लगाते रहे हैं, सैफ अली खान ने भी कुछ वक्त पहले कहा था कि मुस्लिम होने की वजह से घर नहीं मिलता, इसीलिए किसी दिक्कत से बचने के लिए मैं सीधा एक मुस्लिम बिल्डर के पास चला गया. सैफ ये भी मानते हैं कि मुंबई में सांप्रदायिक अलगाव एक हकीकत है, और यह समस्या सिर्फ बिल्डिंग सोसायटीज तक ही सीमित नहीं है बल्कि यहां के पूरे समाज में है. यह सभी को पता है कि मुंबई के जुहू और बांद्रा के इलाकों में जमीन और मकान मुसलमानों को नहीं बेचे जाते. मुझे देखकर आश्चर्य होता है कि कुछ लोगों के लिए धर्म कितना मायने रखता है और धर्म को लेकर लोग कितने कट्टर हैं. सच्चाई यह है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है और यही बात इस्लाम पर लागू होती है. सिने अदाकारा एवं समाज सेविका शबाना आजमी ने भी ऐसे ही आरोप लगाए थे, इसके अलावा कई अन्य स्टार भी हैं जो खुद को मुस्लिम होने की वजह से प्रताड़ित महसूस करते हैं. ये बात सही है कि मुंबई के अंधेरी और बांद्रा इलाकों में मुस्लिम कलाकारों को घर खरीदने में हमेशा से दिक्कतें आती रही हैं, कहा जाता है कि सोफी चौधरी को तो मकान खोजने में दो साल लग गए थे, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ था कि डील तकरीबन फाइनल हो चुकी थी लेकिन डीलर को जैसे ही पता चला कि सोफी मुस्लिम हैं डील कैंसल हो गई. अरबाज अली खान को बांद्रा के पेरी क्रॉस रोड पर मकान देने से मना कर दिया गया था, इसी तरह से जीनत अमान को जुहू में मकान खरीदने के लिए तकरीबन तीन महीने तक जूझना पड़ा. लेकिन ये भी सही है कि शाहरुख, सलमान जैसे अल्पसंख्य समुदाय से जुड़े कई स्टार बड़े आराम से बिना किसी दिक्कत के साथ मुंबई में रह रहे हैं.
बात थोड़ी चुबने वाली जरूर है पर सच है कि मुस्लिम समुदाय खुद को अपने से अलग समझने की मानसिकता से ग्रस्त है. अगर उनके साथ कुछ गलत होता भी है तो उन्हें यही लगता है कि जाति-धर्म के आधार पर उनके साथ ऐसा हो रहा है, जबकि ऐसा नहीं है. जहां तक घर देने या न देने की बात है तो इस परेशानी से सबको एक न एक दिन दो चार होना पड़ता है, मैं यहां अपनी ही आपबीती का जिक्र करना चाहता हूं, भोपाल जब मैं नौकरी के सिलसिले में गया तो एक अदद कमरा ढूंढने में ही दिन में तारे नजर आ गए. अकेले लड़के को घर देने से यादातर ने साफ मना कर दिया. एक-दो जगह बात बनी भी तो मेरा प्रोफेशन आड़े आ गया. पत्रकारिता से ताल्लुक होने के चलते सबकुछ तय होने के बाद भी गोल-मटोल जवाब देकर चलता कर दिया गया. एक महाश्य से जब मैने फोन पर उनके फ्लैट के संबंध में बात की तो उन्होंने किराया वगैराह सब बता दिया पर जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूं तो घर की कटी बिजली, टूट-फूट की दुहाई देकर कुछ महीने बाद के लिए मामला लटका दिया. बहरहाल किसी न किसी तरह बाद में घर मिल ही गया, पर सोचने वाली बात है कि मैं मुसलमान तो नहीं था फिर मेरे साथ भी ऐसा क्यों हुआ. जायज सी बात है ये एक आम समस्या है, सबकुछ मकान मालिक पर निर्भर करता है, यदि उसे लगता है कि फिल्म स्टार, पत्रकार आदि के साथ वो तालमेल बिठा लेगा तो कोई दिक्कत नहीं, यहां मुस्लिम होने या ना होने की बात कहां से आ गई. हाशमी साहब और उनके जैसे कलाकारों से मेरा यही निवेदन है कि हर इक बात को जाति-धर्म के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. और भी लोग हैं, जिन्हें परेशानी होती है पर वो तो कभी इस आधार पर रोना नहीं रोया करते.
Tuesday, July 28, 2009
सिर्फ मुस्लिमों के साथ ही नहीं होती zयादती
बटला हाउस मुठभेड़ का सच सामने आने के बाद भी इस पर उंगली उठाने वालों की आवाज मंद नहीं पड़ी है, उन्हें लगता है कि सरकार और उसका सिस्टम हकीकत पर पर्दा डालने की कोशिश में लगा है. पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं और शायद आगे भी उठते रहेंगे क्योंकि उत्तराखंड फर्जी एनकाउंटर जैसी वारदातें उसकी व्यवस्था का अंग बन गई हैं. ऐसे मामलों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है जिसमें पुलिसवालों ने पदोन्नती या आर्थिक स्वार्थों की पूर्ती के लिए बेगुनाह लोगों को अपराधी बताकर मौत की नींद सुला दिया. मगर इसका मतलब ये कतई नहीं निकाला जाना चाहिए उसकी हर कार्रवाई झूठ पर आधारित होती है. हमारे देश में खासकर मुस्लिम समुदाय को हमेशा से ही शिकायत रही है कि पुलिस उनका उत्पीड़न कर रही है, उसके लोगों को बेवजह आतंकवादी साबित करने में लगी है.
बटला हाउस मुठभेड़ पर हुए बवाल का कारण भी सिर्फ यही है कि वहां मारे गये आतंकी समुदाय विशेष से जुड़े थे, अगर मुठभेड़ में कोई किशोर, घनश्याम या सुधीर नाम वाले लोग मारे जाते तो शायद जांच के बाद भी जांच की मांग नहीं होती. भले ही देश में हिंदुओं की तादाद यादा है मगर मुस्लिम भी कम नहीं. राजनीति से लेकर हर बड़े तबके में उनक प्रतिनिधित्व करने वाले भरे पड़े हैं. इस देश का राष्ट्रपति एक मुस्लिम रह चुका है, उपराष्ट्रपति भी एक मुस्लिम ही हैं. फिर न जाने क्यों ये समुदाय वक्त दर वक्त नाइंसाफी और भेदभाव जैसे शब्द उछालता रहता है, अगर मुस्लिमों के साथ हिंदुस्तान में सौतेला व्यवहार किया जाता तो क्या मुल्क के सर्वोच्च पद पर किसी मुस्लिम का पहुंचना संभव था. भेदभाव-नाइंसाफी और बेफिजुल प्रताडित करने जैसे आरोप सरासर गलत हैं सच तो ये है कि इस समुदाय ने अपने आप को दूसरों के अलग रखने की मानसिकता धारण कर रखी है और वह उससे बाहर निकलना नहीं चाहता. इसलिए उसे अपने कौम वाले के देश विरोधी गतिविधियों में संलिप्त होने के पीछे भी षड़यंत्र दिखाई पड़ता है, उसे लगता है कि उन्हेंबदनाम करने के लिए साजिश रची जा रही है. उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में रहने वाले मुस्लिम तो अपने को सर्वाधिक प्रताड़ित बताते हैं, उन्हें लगता है कि अल्पसंख्यक होने की वजह से ही पुलिस की आतंकवाद से जुड़ी हर कार्रवाई यहीं से शुरू होती है. पर वो भूल जाते हैं कि आजमगढ़ का आतंकवादियों से रिश्ता नया नहीं है, यहां का सरायमीर हमेशा चर्चा में रहा हैं. हाजी मस्तान ने अपनी दो बेटियों की शादी यहां की. दाऊद इब्राहीम के भाई की ससुराल यहीं है और मुबंई के जेल में बंद अबू सलेम का पैतृक गांव भी सरायमीर है. प्रतिबंधित इस्लामी छात्र संगठन सिमी के संस्थापक अध्यक्ष शाहिद बद्र इसी आजमगढ़ जिले के रहने वाले हैं. जामियानगर में पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए दोनों संदिग्ध मुस्लिम चरमपंथी सरायमीर के पास ही संजरपुर गांव के रहने वाले थे.
इस मुठभेड़ के बाद पकड़े गए कई और संदिग्ध चरमपंथी भी यहीं आसपास से ताल्लुक रहते हैं. अहमदाबाद और जयपुर बम धमाकों के मास्टर माइंड होने के आरोप में पिछले साल गिरफ्तार मुफ्ती अबुल बशर सरायमीर के करीब बीनापार का रहने वाला है. आजमगढ़ की कुल आबादी 32 लाख के करीब है जिसमें मुसलमानों की हिस्सेदारी सबसे यादा है. आजमगढ़ और इसके आस-पास के इलाके सिमी की कार्यस्थली और शरणस्थली रहे हैं, इस प्रतिबंधित संगठन के कार्यकर्ताओं को पनाह देने वालों की आज भी यहां कोई कमी नहीं है. आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी माना जाने लगा है, ऐसे में अगर पुलिस का शक और कार्रवाई यहीं पर केंद्रित होती है तो उसमें गलत क्या है. आमतौर पर भी हम उसी को शक के घेरे में लेकर आते हैं जिसका पिछला रिकॉर्ड सही नहीं रहा, मसलन अगर कोई बच्चा दो बार हमारे घर का शीशा तोड़ चुका है तो तीसरी बार भी हमारा शक उसी पर जाएगा फिर चाहे वह निर्दोष ही क्यों न हो. बटला हाउस मुठभेड़ की जांच में मानवाधिकार आयोग ने यह साफ कर दिया है कि फायरिंग की शुरूआत कमरे के भीतर से हुई और पुलिस दल को आत्मरक्षा में गोलियां चलानी पड़ीं. बटला हाउस के उस कमरे में आतंकी थे या नहीं, और मारे गए लोगों का दिल्ली में हुए बम विस्फोटों में कोई हाथ था या नहीं, इन सवालों पर आयोग ने कोई टिप्पणी नहीं की, उसने अपनी जांच का दायरा सिर्फ यहीं तक सीमित रखा कि पुलिस ने सीधे दरवाजा खुलवाकर बेकसूर लोगों को मार डाला या दोनों तरफ की गोलीबारी में दो युवक मारे गए. इस मुठभेड में दिल्ली पुलिस के इंस्पैक्टर शर्मा भी शहीद हुए थे. जिन लोगों को आयोग की जांच और उसकी विश्वसनीयता पर संदेह हैं उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि वो मानवाधिकार आयोग ही था जिसने गुजरात दंगों की रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों के साथ हुई यादतियों को सामने रखा था.
अगर तब उन्हें आयोग, उसकी जांच सही लग रहे थे तो अब वो आयोग पर उंगली कैसे उठा सकते हैं. इसका मतलब तो यही हुआ कि यदि जांच उनकी सोच से इतर है तो उन्हें उसमें खामिया हीं नजर आएंगी. उत्पीड़न जैसे शब्द पुलिस के शब्दकोष में जरूर हैं मगर उनका इस्तेमाल किसी जाति-धर्म विशेष के आधार पर नहीं किया जाता, अमूमन हर समुदाय के लोग कभी न कभी पुलिस की यादतियों से दो-चार होते रहते हैं, देहरादून में फर्जी में मुठभेड़ में मारा गया युवक रणवीर शायद इसका जीता-जागता सुबूत है.
Sunday, July 26, 2009
जांच पर हंगामा कितना उचित
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को सुरक्षा जांच से क्या गुजरना पड़ा पूरे मुल्क में बवाल हो गया, धड़ाधड प्रतिक्रियाएं आनें लगी, अमेरिकी एयरलाइंस को दोषी करार दिया जाने लगा. संसद में तो तो कुछ माननीय सांसदों ने एयरलाइंस का लाइंसेंस रद्द करने और तलाशी लेने वाले अमेरिकी को देश से निकालने तक की मांग कर डाली. जबकि जिसकी तलाशी ली गई यानी कलाम साहब की वो पूरी तरह खामोश हैं, उन्होंने न तो जांच के वक्त वीवीआई होने का कोई रुबाव झाड़ा और न ही अब कुछ बोल रहे हैं. वो इस बात से सहमत हैं कि सुरक्षा से समझैता नहीं किया जाना चाहिए.कांटिनेंटल एयरलाइंस को अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी डिमार्टमेंट के ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन यानी टीएस की तरफ से स्पष्ट निर्देश दिए गये हैं कि विमान में सवार होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जांच की जाए. उन्होंने अति विशिष्ट, विशिष्ट लोगों के लिए के लिए अलग से कोई दिशा निर्देश नहीं बनाए हैं. ऐसे में जांच करने वाले अधिकारी महज अपनी नौकरी कर रहे थे, उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कलाम साहब किस श्रेणी में आते हैं. रुतबे-रुबाब के आगे नियम-कायदे ताक पर रखने की परंपरा सिर्फ हमारे देश में है, दुबई जैसी खाड़ी मुल्क में भी अति विशिष्ट, विशिष्ट माननीयों को हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ता है, बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि उन्हें आम लोगों की तरह लाइन में नहीं लगना होता.
उनके लिए अलग से व्यवस्था की जाती है. यह बात सही है कि पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते अब्दुल कलाम को जांच से छूट मिली है और उनकी जांच नागरिक उड्डयन ब्यूरों के सर्कुलर का सरासर उल्लघंन है. लेकिन कांटिनेंटल एयरलाइंस जिस मुल्क से ताल्लुक रखती है उसके भी अपने कुछ नियम हैं, कहने वाले बिल्कुल ये कह सकते हैं कि भारत में आने के बाद वह यहां के नियम-कानून मानने के लिए बाध्य है. पर जनाब गौर करने वाली बात ये है कि एयरलाइंस सुरक्षा के अपने मानकों के ऊपर किसी भी देश के नियमों को हावी नहीं होने देती. इतना सब हो जाने के बाद भी कांटिनेंटल की तरफ से हेद जताया गया है, उसने ये कतई नहीं कहा कि फिर ऐसा नहीं होगा, मतलब सुरक्षा सर्वोपरि है. 11 सितंबर 2001 के बाद अमेरिका ने सुरक्षा संबंधि बहुत से कदम उठाए हैं और इसतरह की जांच उसी का एक हिस्सा मात्र हैं, लिहाजा इस पर बेफिजुल का हो-हल्ला करना तर्कहीन ही लगता है. हमारे देश में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रायपाल, पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व उपराष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस, लोकसभा अध्यक्ष समेत 32 श्रेणियों में आने वाले अतिविशिष्ट लोगों को एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच में छूट मिली हुई है. छूट के दायरे में लोकसभा के स्पीकर, केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, रायों के मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, लोकसभा व रायसभा में विपक्ष के नेता, भारत रत्न से सम्मानित हस्तियां, सुप्रीम कोर्ट के जज, मुख्य निर्वाचन आयुक्चत और धर्मगुरु दलाई लामा भी आते हैं. कुछ वक्त पहले तीनों सेनाओं के प्रमुखों को भी इस श्रेणी में शामिल किया गया था, यानी उन्हें भी सुरक्षा जांच के लिए नहीं रोका जा सकता, सरकार ने ये फैसला उस वक्त लिया था जब प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वॉड्रा थलसेना अध्यक्ष के ऊपर रखने पर हंगामा मचा था. रॉबर्ट किसी संवैधानिक पद पर न होते हुए भी अति विशिष्टजनों को मिलने वाली छूट का लाभ इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि वो कांग्रेसाध्यक्ष के दामाद हैं.
वीवीआईपी, वीआईपी तो दूर की बात हैं, हमारे देश में तो थोड़ी सी ऊंचाई पाने वाला हर व्यक्ति अपने आप को राजा समझने लगता है, मसलन प्रेस का तमगा लगने के बाद पत्रकार पुलिस वालों को कुछ नहीं समझते. सामान्य चेकिंग के दौरान अपने आप को रोका जाना उनकी शान में गुस्ताखी करने जैसा होता है. वो अपने आप को आमजन से ऊपर समझते हैं और चाहते हैं कि उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए. जो लोग वैश्ो देवी अक्सर जाते रहते हैं उन्होंने गौर किया होगा कि वहां आने वाले आर्मी के जवान सुरक्षा जांच चौकियों पर तैनात पुलिसकर्मियों से अमूमन उलझते रहते हैं, उन्हें यह गंवारा नहीं होता कि कोई पुलिसवाला उनकी तलाशी ले. पुलिसवाले खुद नियम-कायदों की धाियां उड़ाने से पीछे नहीं रहते, उन्हें लगता है कि उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है. महज कुछ लोग नहीं बल्कि पूरे मुल्क की मानसिकता ही ऐसी हो गई है कि हम हमेशा अपने आप को निर्धारित नियमों से ऊपर रखना चाहते हैं. अब्दुल कलाम ने जांच में सहयोग करके और बेवजह मामले को तूल न देकर एक उदाहरण पेश किया है, उन्होंने इस संबंध में कोई शिकायत तक नहीं की. वह विदेश यात्रा के दौरान सुरक्षा घेरों का हमेशा पालन करते हैं, दरअसल इस मामले को इतना ऊछालने वाले इस बात को लेकर आशंकित हैं कि कहीं कल उनके साथ ऐसा कुछ हो गया तो सारा रुबाब घरा का घरा रह जाएगा, इसलिए वो चाहते हैं कि अमेरिकी एयरलाइंस को सुरक्षा से समझौता न करने का सबक सिखाए जाए. एयरलाइंस के खिलाफ जांच के आदेश दे दिए गये हैउसे ये सिखाने की पूरी कोशिश की जाएगी कि भारत में वीवीआईपी देश उसकी सुरक्षा और हर लिहाज से सबसे ऊपर होते हैं, इसलिए अगर उसे भारत में काम करना है तो अपनी प्राथमिकताओं की सूची में सुरक्षा को दूसरा स्थान देना होगा क्योंकि पहले स्थान पर सिर्फ और सिर्फ वीवीआईपी ही आ सकते हैं.
Wednesday, July 22, 2009
हिलेरी के दौरे से हमें क्या मिला
भारत की छवि विश्व में किस तरह की है यह ओबामा प्रशासन को बताने की जरूरत नहीं, अनाधिकृत और अनुचित जैसे शब्दों का प्रयोग करते वक्त हिलेरी शायद भूल गई कि वो इस्लामाबाद में नहीं नई दिल्ली में खड़ी हैं. हिलेरी क्लिंटन ने इस मुद्दे पर भारत की सलाह मांगकर उसे और उलझाने की कोशिश की है, विदेशमंत्री एमएम कृष्णा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एनपीटी व सीटीबीटी पर राजी न होने पर हिलेरी ने यह पत्ता फेंका. उन्हें पता है कि भारत की तरफ से दी जाने वाली कोई भी सलाह अमेरिकी प्रशासन के दिमाग में चढ़ने वाली नहीं है, और ये बात भारत भी बखूबी जानता है. अमेरिकी विदेश मंत्री के ताजा बयान से यह तय है कि आने वाले दिनों में अमेरिका इस बाबत दबाव बनाएगा कि या तो भारत परमाणु ऊर्जा के दुरुपयोग को रोकने के बारे में कोई सार्थक उपाए सुझाए या फिर उसके कहे रास्ते पर आगे बढ़े. हाल ही में जी-8 देशों के गैरएनपीटी मुल्कों को संवेदनशील तकनीक ईएनआर मुहैया नहीं करवाने के फैसले के पीछे अमेरिका का बहुत बड़ा हाथ है. ओबामा ये कतई नहीं चाहते कि भारत इन संधियों पर हस्ताक्षर किए बिना मिलने वाली छूट कालाभ उठाए. हिलेरी की भारत यात्रा में जिन समझौतों पर बात बनी उसमें रक्षा,परमाणु सहयोग और अंतरिक्ष कार्यक्रम शामिल हैं. एंड यूजर समझौते पर सहमति बनने के बाद अब अमेरिकी कंपनियां संवेदनशील सैन्य साजो सामान और तकनीक भारत को बेच सकेंगी, इस एग्रीमेंट में पहले जो पेंच फंसा था वो इस बात को लेकर था कि अमेरिकी खेमा सालाना निरीक्षण की जिद पर अड़ा था और भारत इसका विरोध कर रहा था. इस समझौत के अमल में आने के बाद अमेरिकी प्रतिरक्षा कंपनियों के लिए करोड़ों के कारोबार के दरवाजे खुल गए हैं. जाहिर है जिस काम में अमेरिका को दोनों हाथों से पैसे बटोरने का मौका मिला उसकी राह में आने वाली बाधाएं वो सबसे पहले हटाएगा. क्या इन चंद समझौतों को कामयाबी या ऐतिहासिक करार दिया जाता है.
जिस परमाणु समझौते की बात की जा रही है उसपर अमेरिका उस पर अमेरिका की तिरछी नजरें हमेशा कायम रहेंगी. परमाणु ऊर्जा सहयोग संधि के दुरुपयोग की बात करके वो कभी अपने हाथ खींच सकता है. रक्षा समझौता उसके फायदे के लिए है, अगर हिलेरी न भी आतीं तो भी उसपर सहमति बन ही जाती. आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ ठोस रुख अख्तियार करने के बजाए हिलेरी ने गोल-मोल बयान देकर महज हमसे हमदर्दी जताने का ही प्रयास किया. भारत आने से पहले ही वो पाक को आश्वस्त कर आई थीं कि उसे चिंतित होने की जरूरत नहीं है. अमेरिका मौजूदा दौर में भारत के लिए अपने महत्वत्ता को भली-भांति समझता है, उसे पता है कि अगर भारत पर थोड़ा सा दबाव बनाए जाए तो वो उसके बताए मार्ग पर ही चलेगा. पाकिस्तान से वार्ता शुरू करने के मसले को इसके परिणाम के रूप में देखा जा सकता है. रूस में मनमोहन जरदारी मुलाकात भी अमेरिका के कहने पर ही हुई थी और शर्म अल शेख में मनमोहन सिंह और गिलानी का संयुक्त वक्तव्य भी वाशिंगटन की दखल का नतीजा था. जिसे प्रधानमंत्री को देश में बवाल मचने के बाद सुधारना पड़ा. अब भी भारत की तरफ से रह-रहकर पाकिस्तान से दोस्ती जैसे बयानात आते रहते हैं. बराक हुसैन ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन को जिस उद्देश्य से भेजा था उसमें वो पूरी तरह सफल हुई हैं, भारत पर दबाव बनाने की दिशा में उन्होंने महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया है जिसे साल के अंत तक मनमोहन सिंह के अमेरिकी दौरे में अंतिम चरण में पहुंचा दिया जाएगा. लिहाजा हिलेरी की यात्रा और अमेरिका के साथ हुए समझौतों पर मुस्कुराने के बजाए बेहतर ये होगा कि इस बात आकलन किया जाए कि इस दौरे से हमें क्या हासिल हुआ.
Sunday, July 19, 2009
उन सवालों के जवाब आज भी मिलना बाकी हैं
ऐसे ही अखबार पढ़ते-पढ़ते एक बहुत पुराना किस्सा याद आ गया. जो दर्दनाक तो था ही, अपने पीछे कुछ ऐसे सवालातक भी छोड़ गया था जिनके जवाब मिलना अभी बाकी हैं. बात सर्दियों के दिनों की है, हाड़कंपा देने वाली ठंड में जब कोहरे की चादर शाम से ही छाने लगती थी तो लोग जल्द ही अपने घरों में कैद हो जाया करते थे, उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ, हमारे घर से तीन-चार घर छोड़कर एक परिवार रहा करता था, जिसमें तीन बच्चे भी थे, वो बच्चे कभी-कभीर हमारे साथ क्रिकेट खेलने आ जाया करते थे. हमारे देश में क्रिकेट और शराब दो ही ऐसी चीज हैं जो अंजानों को भी दोस्त बना देती हैं. इस संबंध में तो हरिवंश राय बच्चन ने लिखा भी है कि मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला.
कुछ दिनों से वो बच्चे न तो हमारे साथ खेलने आए और न ही दिखाई दिए, हमने सोचा कि शायद कहीं बाहर गये होंगे. उनके घर वालों से इतनी अच्छी जान पहचान थी नहीं सो जाकर पता करना मुनासिब नहीं समझा. इन दिनों कई बार उनके घर कुछ हट्टे-कट्टे लोगों को आते और उनके पिताजी को गिड़गिड़ाते देखा, एक-आद बार तो उनके आस-पड़ोसी भी बीच-बचाव करते दिखाई दिए. मामला पूरी तरह तो समझ में नहीं आया लेकिन इतना जरूर पता चल गया कि कुछ गड़बड़ तो जरूर है. कुछ दिन ऐसे ही निकल गये, पढ़ाई को लेकर घरवालों की डांट के चक्कर में क्रिकेट से भी थोड़े दिनों तक नाता तोड़ना पड़ा, उस वक्त हमें लगता था कि ऐसा हमारे साथ ही क्यों होता है, बाद में पता चला कि अमूमन हर बच्चे की यही कहानी है. पढ़ने-लिखने में शुरू से ही कुछ खास मन नहीं लगता था, हां इतना अवश्य पढ़ लिया करते थे कि फेल होने की नौबत न आए. फर्स्ट क्लास या टॉप मारने के सपने हमारे घर वालों ने भले ही देखें हो मगर हमने कभी उस ओर गौर भी नहीं किया. क्रिकेट खेलते-खेलते सुबह जल्दी उठने की आदत लग चुकी थी इसलिए घरवालों ने वो समय पढ़ाई के लिए निर्धारित कर दिया. उनका मानना था कि सुबह-सुबह का याद किया दिमाग से नहीं निकला. कुछ हद तक शायद वो सही भी थे, सुबह-सुबह जितना क्रिकेट खेला वो दिमाग में इस कदर रच-बस गया था कि पढ़ते-पढ़ते भी स्ट्रोक खेलने की प्रैक्टिस कर लिया करते थे. शाम को दोस्तों की चौपाल हुआ करती थी जिसमें सभी अपना-अपना दुखड़ा रोया करते थे, दरअसल सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने का जो मजा था वो किसी और वक्त नहीं मिल सकता था, घूप खिलने के बाद रजाईयों में दुबके बैठे लोग पार्क में धूप सेंकने को आ जाया करते थे, जिनमें अधिकतर बुजुर्ग होते थे और उन्हें समझाना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात होती है.
गेंद अगर पास से निकल भी जाए तो हंगामा खड़ा कर दिया करते हैं. और घर के बाहर यानी सड़क पर अंटियों का जमघट, स्वेटर बुनते-बुनते दूसरों की बुराई करना और हमें धमकाते रहना कि गेंद इधर आई तो खैर नहीं. इन सब के बीच क्रिकेट खेला भी जाता तो कैसे, हमारे ठीक पड़ोस में एक अम्मी जी रहा करती थीं जिनकी आदतों से उनके घर के बच्चे भी आजिज आ चुके थे, शायद इसीलिए बच्चा पार्टी ने उनका नाम छिपकली रखा था. उन्हें हमारा अपने ही घर में खेलना भी पसंद नहीं था, उनके विरोध को दरकिनार करके अगर हम खेलने की कोशिश भी करते तो उनकी रनिंग कमेंट्री शुरू हो जाया करती थी. हमारी बॉल के दिवार फंलागने का उन्हें बेसर्बी से इंतजार रहता था ताकिबॉल रखकर वो हमारा खेल बंद करवां सकतीं. उन दिनों जैसे-तैसे पैसे मिलाकर बॉल खरीदकर लाया करते थे और अम्मीजी थी उन्हें दबाकर हमें आर्थिक रूप से कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. इतने सालों बाद आज भी वो बिल्कुल वैसी ही तंदरुस्त रखी हैं, उनकी जुबान की धार अब भी कायम है, हां ये बात अलग है कि अब उन्हें इतना चीखने और बॉल हथियाने का मौका नहीं मिलता क्योंकि बच्चे आजकल टीवी या इंटरनेट से ही चिपके रहते हैं. खैर हमारी चौपाल में यह फैसला हुआ कि सब अपने-अपने घरवालों को पढ़ाई का समय थोड़ा खिसकाने को कहेंगे और अगर बात नहीं बनी तो, अपने गुस्से का थोड़ा-थोड़ा इजहार करेंगे. अब पता नहीं हमारे फैसले की खबर घरवालों तक पहुंच गई या उन्हें हमारे हाल पर तरस आ गया कि उन्होंने हमें सुबह क्रिकेट खेलने की इजाजत दे दी. जिन एक-दो दोस्तों के घरवाले नहीं माने थे उन्हें हमने हाथ-पैर जोड़कर मना ही लिया.
हम अपने बच्चों को यूं दर-दर की ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते इसलिए उन्हें भी साथ ले जा रहे हैं. उस वक्त हमें लगा कि अगर हम कल थोड़ी हिम्मत दिखा देते तो शायद ये नौबत ही नहीं आती. उस दिन के बाद कुछ दिनों तक हमने क्रिकेट नहीं खेला, शायद हम सदमे में थे. फिर पता चला कि उन बच्चों के पिताजी जो जिंदा बच गये थे को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. उन पर मुकदमा चलाया जाएगा और हो सकता है कि उन्हें जेल भी जाना पड़ा. सुनकर बहुत ही अजीत लगा, जो व्यक्ति पहले से ही इतना दुखी हो उसको और दुख देना कहां का कानून है. उन्होंने जिस स्थिति में वो कदम उठाया वो सब जानते हैं, उन्होंने खुद भी जहर खाया था पर वो बच गये, उन्हें अपने आप में कैसे महसूस हो रहा होगा ये शायद कोई और नहीं समझ सकता.
मन में कई तरह के सवाल और गुस्सा लिए हम घर के सामने ही रहने वाले एक अंकल के पास गये, वो पहले पुलिस में ही थे. उन्होंने हमारे गुस्से को शांत करने की बहुत कोशिश की. उन्होंने बताया कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान है. कानून में ऐसा करने वाले व्यक्ति को गुनाहगार माना जाता है, उसे अधिकतम एक साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है और जुर्माना भी हो सकता है. हम उनके जवाबों से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे या कहें कि हम जानते-बूझते भी संतुष्ट होना नहीं चाहते थे क्योंकि हम ये स्वीकार नहीं पा रहे थे कि आखिर मौत की दहलीज पर जाकर लौटने वाले को हमारे देश का कानून सबकुछ जानते हुए भी कैसे सजा सुना सकता है. वो सवाल तो बचपन में उठे थे वो आज भी वैसे ही सामने खड़े हैं. आत्महत्या जैसा फैसला कोई भी इंसान अपनी खुशी से नहीं उठता, वो इस स्थिति तक तब पहुंचता है जब बाकी सारे दरवाजे उसके लिए बंद हो चुके होते हैं. वो इतना टूट चुका होता है कि जिंदा रहना उसके लिए मौत से भी बदतर बन जाता है. जीवन से पराजित ऐसे अभागे व्यक्ति को सहानुभूति सलाह मशविरे और उचित उपचार की जरूरत है या जेल की. कम से कम अब तो इस सवाल का जवाब खोजा जाना चाहिए. जो व्यक्ति आत्महत्या का प्रयासकरने के कारण पीड़ा और अपमान झेल चुका है उसे कानून के जरिए दंड़ित करना क्रूरता से यादा कुछ नहीं.
Monday, July 13, 2009
ऐसा गलत क्या कहा जयराम ने
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध के खिलाफ बयान देकर मधुमक्खी के छत्थे में हाथ डाल दिया है, उनके खिलाफ पर्यावरणविदों ने तो मोर्चा खोला ही है दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी आवाज बुलंद कर दी है. जयराम रमेश की दलील है कि अगर निर्धारित मानदंडों और तरीकों से प्लास्टिक की रीसाइक्लिंग की जाए तो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचेगा. लेकिन अगर उसकी जगह कागज की थैलियों के प्रचलन ने जोर पकड़ा तो इसके लिए बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाएंगे जो पर्यावरण के लिए कहीं यादा घातक होगा, उनका यह भी तर्क है कि पूरी दुनिया में केवल भारत और बांग्लादेश में ही इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा हुआ है. जबकि उनका विरोध करने वालों की अपनी दलीलें हैं, उनका कहना है कि प्लास्टिक में मौजूद पीवीसी भारी नुकसानदेह होता है, देश में ऐसी उन्नत प्रणाली भी नहीं है जो बेकार प्लास्टिक थैलियों को नियंत्रित कर सके. बेकार थैलियों ने शहरी जीवन को कई स्तरों पर प्रभावित किया है. यही नहीं, इसी के कारण यमुना का बुरा हाल हो गया है. रीसाइक्लिंग के लिए भी जरूरी संसाधन की कमी है एवं पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारी भी नहीं हैं, आदि, आदि.
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि प्लास्टिक के दुष्प्रभाव गंभीर रूप में सामने आ रहे हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं, गंगा-यमुना की हालात हमारे सामने है, यमुना ने तो तकरीबन दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं. हर साल न जाने कितने जानवर पॉलिथिन खाने से मारे जाते हैं. लेकिन सवाल से उठता है कि क्या हर समस्या का समाधान महज प्रतिबंध लगाना ही है. गौर करने वाली बात ये है कि अगर तमाम कोशिशों के बाद भी इस पर पूर्ण रूप से रोक नहीं लगाई जा सकी है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि इसका संबंध लोगों की सुविधा से है और शायद वो अपनी सुविधाओं मे कटौती नहीं करना चाहते. बिना सोचे-विचारे किसी समस्या को यह कहकर की उसे खत्म नहीं किया जा सकता उसके कारक को ही खत्म कर देना कहां की बुध्दिमानी है. प्लास्टिक के अगर दुष्प्रभाव हैं तो उसके फायदे भी हैं, जिनको इसकी मुखालफत करने वाले भी झुठला नहीं सकते. सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. अगर पर्यावरणमंत्री का तर्क लोगों को समझ नहीं आ रहा है तो यह तर्क कहां से समझने लायक है कि संसाधनों की कमी है इसलिए प्रतिबंध लगा दो. अगर संसाधन की कमी है तो उसे दूर करने के प्रयासों के बारे में आवाज बुलंद करने की जरूरत है ना कि प्लास्टिक पर रोक की.
कुछ साल पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सके. मतलब समिति का भी यही मत था कि रीसाइक्लिंग पर जोर दिया जाए. रीसाइक्लिंग से समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है इसमें कोई दोराए नहीं. प्लास्टिक का विरोध भले ही चरम पर क्यों न पहुंच गया हो मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिज् पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिज् पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिकका ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं. प्लास्टिक के फायदों को नजरअंदाज कर इसके दुष्प्रभावों को सामने रखने वालों के लिए यहां इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध का उल्लेख करना बेहद जरूरी है, बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलोें के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिकपर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिकके बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिकका महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिकके बोरों के उपयोग से 12000 करोड़ रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता पर आंखें मूंदकर यह कहना कि यह कहना की यह जीवन के लिए घातक है तो, समझदारी नहीं नासमझी ही कहा जाएगा.
वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है, पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं केलिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रीसाइक्लिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एकरिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाइकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रीसाइक्लिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिकको अगर अधिक से अधिक रीसाइक्लिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. लिहाजा जयराम रमेश ने जो कहा है उस पर हो-हल्ला करने के बजाए उसकी गहराई को समझने का प्रयास करना चाहिए.
Wednesday, July 8, 2009
फ्लॉप शो साबित हुआ आम बजट
इस आम बजट को आमजन की अपेक्षाओं के अनुरूप तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सरकार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के इसमे सारे गुण मौजूद हैं. वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भविष्य में राजनीतिक लाभ से संबंधित योजनाओं को अत्याधिक प्रमुखता दी है. बजट में टैक्सों की हेराफेरी और थोड़ी बहुत छूट प्रदान करके लोकलुभावन बनाने की कोशिश की है लेकिन वो भी कारगर होती नजर नहीं आती. बजट में आयकर छूट सीमा जो पहले 1,50,000 तक थी उसे अब 1,60,000 कर दिया गया है, ऐसे ही महिलाओं के लिए इसे 1,80,000 से बढ़ाकर 1,90,000 किया गया है, हालांकि वरिष्ठ नागरिक इस मामले कुछ यादा फायदे में रहे हैं उनके लिए छूट सीमा पहले के 2,25,000 से बढ़ाकर 2,40,000 कर दी गई है. यानी वरिष्ठ नागरिकों को छोडक़र अधिकतम रियायत दी गई महज 10,000. बजट में जीवन रक्षक दवाएं, बड़ी कारें, एलसीडी, मोबाइल फोन, सीएफएल,वाटर प्यूरीफायर, खेल का सामान आदि सस्ता किया गया है. जबकि डॉक्टर-वकील की सलाह, सोना-चांदी, कपड़े आदि के लिए अब यादा दाम चुकाने होंगे.
नफे -नुकसान के गुणा-भाग में उतरने से पहले बजट के बाकी हिस्सा पर भी प्रकाश डालाना बेहतर रहेगा, प्रणव मुखर्जी ने किसानों का खास ख्याल रखने की बात कही है, उन्हें अब सस्ते दर से कर्ज दिया जाएगा. खाद सब्सिडी अब उनके हाथ तक पहुंचाई जाएगी. 2014-15 तक गरीबी उन्नमूलन की दिशा में उल्लेखनीय काम करने का प्रावधान बजट में है, इसके अलावा अल्पसंख्यकों पर दरियादिली की बरसात की गई है, एससी-एसटी और ओबीसी में आने वाले बच्चों की शिक्षा पर अत्याधिक ध्यान केंद्रित किया गया है. अब बात शुरू करते हैं आयकर छूट से जिसको सरकार की तरफ से बहुत बड़ा कदम बताया जा रहा है, अगर दो हफ्ते पहले ये बजट आता और ये प्रावधान किया गया होता तो कुछ हद तक इसे बड़ा कदम करार दिया जा सकता था लेकिन मौजूदा वक्त में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं. बजट से ठीक पहले सरकार पेट्रोल पर चार और डीजल पर दो रुपए बढ़ा चुकी, उस लिहाज से इस छूट को ऊंट के मुंह में जीरा समान कहा जा सकता है. छूट की सच्चाई को विस्तार से समझने के लिए हम इसको ऐसे देख सकते हैं, अगर आपकी सालाना कमाई 500,000 से 9,90,000 के आसपास है तो आपकी सालाना बचत हुई करीब 1030, अगर 10,00,000 है तो 21530, 20,00,000 पर 51530, और 50,00,000 पर तकरीबन 1,41,530 के आसपास. पहले वाली श्रेणी यानी 500,000 से 9,90,000 को लेकर आगे चलते हैं, इतनी कमाई पर बचत का आंकड़ा सालाना हजार रुपए से थोड़ा सा यादा है और महीने की बात की जाए तो यह पहुंचता है करीब 85.83 के इर्द-गिर्द. अब जरा सोचें की मेट्रो सीटी में रहने वाला एक व्यक्ति जो प्रति माह 100 लीटर के आस-पास पेट्रोल खर्च करता है, उसे तेल की कीमत में मौजूदा वृध्दि के बाद चार रुपए यादा चुकाने होंगे यानी पहले अगर वो 42 रुपए देता था तो अब उसे 46 देने पड़ेंगे. इस हिसाब से 100 गुणा चार मतलब कुल भार बढ़ा 400 और बचत हुई महज 85.83. यानी अगर सही मायनों में देखा जाए तो सरकार ने जितना दिया नहीं उससे यादा वसूल कर लिया. छूट के रूप में सरकार ने केवल एक झुनझुना पकड़ाया है जिसे देखकर बच्चा तो मुस्कुरा सकता है लेकिन पेशेवर व्यक्ति नहीं. अब यह तो केवल प्रणव मुखर्जी और मनमोहन सिंह की आर्थिक विशेषज्ञों की टीम ही बता सकती है कि इस बजट में उदारता जैसे शब्द कहां हैं. बजट में राष्ट्रीय ग्रामीण जैसी योजनाओं पर पैसे की बरसात की गई है जबकि यह कई बार उजागर हो चुका है कि यह योजना भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है.
कहीं-कहीं तो काम करने के बाद भी मजदूरों को उनका मेहनताना नहीं मिलता. ऐसे में यादा जरूरत इस तरह की योजनाओं के व्यापक क्रियान्वयन की थी ताकि जिनके लिए योजनाएं बनाई गई हैं उन तक लाभ पहुंच सके. जहां तक बात अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों को लुभाने की है तो ये पूरा वोट बैंक को रिझाने वाला स्टंट है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत का इजाफा किया गया है. इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, बैंक आदि की व्यवस्था पर भी सरकार ने नजरें इनायत की हैं. यह धनराशि खास तौर से नौ योजनाओं पर खर्च की जाएगी. यादा ध्यान 20 प्रतिशत से अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों में मल्टी सेक्टोरल योजना के कार्यों पर दिया जाएगा. अल्पसंख्यक छात्रों की तालीम के मद्देनजर पूर्व मैट्रिक छात्रवृत्ति, मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति के साथ ही उच्च स्तर पर व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों के लिए योग्यता सह-युक्ति छात्रवृत्ति को भी प्राथमिकता में शामिल किया गया है. इसके साथ ही पश्चिम बंगाल व केरल में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैंपस खोले जाने के लिए 25-25 करोड़ की योजना अलग से है. बजट में अनुसूचित जाति के छात्रों को मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति के मद में ही करीब 750 करोड़ खर्च करने का एलान किया गया है, इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति एवं पिछड़े वर्ग को विशेष केंद्रिय सहायता में 450 करोड़ अगल रखें गये हैं. पिछड़े वर्ग के छात्रों की मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति योजना के लिए 135 करोड़ा का प्रावधान है, जबकि इस
समुदाय के मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति के लिए 30 करोड़ और रखे गये हैं. सरकार का मानना है कि इससे करीब 11 लाख पिछड़े विधार्थियों का भला होगा. ठीक ही है, इतनी रकम से किसी का भी भला हो सकता है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि सामान्य वर्ग की झोली में क्या डाला गया. क्या सामान्य जाति के बच्चों को छात्रवृत्ति की खास जरूरत नहीं पड़ती, क्या गंदगी और अव्यवस्थाओं का आलम केवल अल्पसंख्यक बहुल जिलों में ही होता है.
बजट में सामान्य वर्ग की जरूरतों पर कोई ध्यान केंद्रित नहीं किया गया. माना जा रहा था कि सरकार बजट में महंगाई से राहत दिलाने के लिए कुछ कदम उठा सकती है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा तेल मूल्यों के लिए एक टास्क फोर्स यानी स्टडी ग्रुप बनाने की बात कही गई है. पिछले एक साल में देश में 65 फीसदी परिवारों का जीवन स्तर पहले के मुकाबले खराब हुआ है. इसकी वजह खाद्य और अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ना है. हालांकि यह बात अलग है कि मुद्रास्फीति की दर दिसंबर 2008 से ही 3 फीसदी से नीचे बनी हुई है. कुल मिलाकर कहा जाए तो यह आम बजट पूरी तरह फ्लॉप शो साबित हुआ है और इससे ये संकेत मिलते हैं कि आने वाले दिनों में आयकर में दी गई नाममात्र छूट के एवज में सरकार और कुछ और भार बढ़ा सकती है.
Tuesday, July 7, 2009
बेनजीर के कातिल कहीं जरदारी तो नहीं
बेनजीर भुट्टो की हत्या से जुड़े कुछ सवालात आज भी अनसुलझे हैं. जैसे उनकी हत्या की साजिश के पीछे कौन था, क्या उन्हें गोली मारी गई थी, क्या उनकी सुरक्षा में जानबूझकर लापरवाही बरती गई, आदि, आदि. इतना लंबा अर्सा गुजर जाने के बाद भी पाक सरकार इन सवालातों के उत्तर नहीं खोज पाई है जबकि भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी मुल्क की सर्वोच्च कुर्सी पर विराजमान है. सरकार बैत्तुल्लाह महसूद को कातिल करार दे चुकी है, पर महसूद इससे इंकार करता रहा है. इन सब के बीच संयुक्त राष्ट्र से भी जांच कराने की बातें कही जाती रहीं लेकिन दिसंबर 2007 से अब जाकर यूएन काम शुरू करने जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र में चिली के राजदूत हेराल्डो मुनोज के नेतृत्व में इंडोनेशिया के एक पूर्व एटॉर्नी जनरल और आयरलैंड के एक पूर्व पुलिस अधिकारी को जांच का जिम्मा सौंपा गया है. यह जांच छह महीने चलेगी और ये पता लगाने की कोशिश की जाएगी की भुट्टो की हत्या के मामले में तथ्य क्या है और किन परिस्थितियों में उनकी हत्या हुई. यहां ये काबिले गौर है कि अगर तालिबानी लीडर बैतुल्ला महसूद बेनजीर की हत्या में शामिल था, जैसा की सरकार कहती रही है तो फिर उसे पकड़ने की वाजिब कोशिशें क्यों नहीं की गईं. जरदारी साहब अगर चाहते तो सबकुछ मुमकिन था, वह बेनजीर के पति और राष्ट्रपति होने के नाते उनके कातिलों को बेनकाब करने के लिए कई उच्च स्तरीय जांच कमेटियां गठित कर सकते थे, हालांकि उन्होंने यूएन से 30 मिलियन डॉलर की
महंगी जांच कराने का फैसला ारूर लिया मगर इन सब में इतना वक्त निकल गया कि अब शायद अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसी भी कुछ खास हासिल न कर पाए. जरदारी साहब भुट्टो के सुरक्षा प्रमुख और एकमात्र चश्मदीद गवाह खालिद को भी नहीं बचा सके, कुछ अज्ञात हमलावरों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर डाली.
खालिद को संयुक्त राष्ट्र की जांच टीम के सामने भी गवाही देने थी, जिसे काफी अहम माना जा रहा था. मुंबई हमले के बाद चौतरफा दबाव के बीच जिस तरह से पाक सरकार ने चंद हफ्तो में ही व्यापक कार्रवाई को अंजाम दिया उसे लेकर मुल्क में यह बातें कही जाने लगी कि जब इस मामले में गजब की तत्परता बरती जा सकती है तो बेनजीर हत्या कांड में सुस्त रवैया क्यों अपनाया जा रहा है. मतलब पाक का आवाम भी यह स्वीकार करता है कि सरकार भुट्टो प्रकरण में ईमानदारी नहीं बरत रही है. अब यह सवाल उठना जायज है कि आखिर ऐसा क्यों, अगर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) सत्ता से बेदखल होती या जरदारी दरकिनार कर दिए होते तो ऐसी स्थिति स्वीकारयोग्य हो सकती थी मगर पीपीपी के सत्ता में और जरदारी के राष्ट्रपति होने के बावजूद भुट्टो हत्या कांड को गंभीरता से न लेना उनकी मंशा पर शक जाहिर करता है. बेनजीर की हत्या के बाद पहले उनकी वसीयत को लेकर और बाद में उनके खासमखास से तकरार को लेकर भी जरदारी की भूमिका को संदेह घेरे में आ चुकी है. हस्तलिखित वसीयत में भुट्टो ने कहा था, मैं चाहूंगी कि मेरे पति आसिफ अली जरदारी तब तक अंतरिम तौर पर आपका नेतृत्व करें जब तक कि आप और वे तय नहीं कर लेते कि पार्टी के लिए सबसे अच्छा क्या है. मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि वे एक साहसी और आदरणीय आदमी हैं. उन्होंने साढ़े ग्यारह साल जेल में बिताए लेकिन तमाम यातनाओं के बावजूद झुके नहीं. उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा है कि वे पार्टी को एकजुट रख सकें. एक पन्ने की इस वसीयत पर 16 अक्टूबर की तारीख दर्ज थी. बेनजीर उसके दो दिन बाद ही आठ साल के निर्वासन के बाद पाकिस्तान लौटी थीं. यानी उनके पाक जाने से पहले ही ये साफ हो गया था कि अगर उन्हें कुछ होता है सारी विरासत कौन संभालेगा. भुट्टो की मौत को लेकर पीपीपी ने उस वक्त राष्ट्रपति रहे मुशर्रफ को भी दोषी ठहराया, इसका आधार उन पत्रों को बनाया गया जिसमें भुट्टो ने पर्याप्त सुरक्षा न मिलने की बातें कहीं. दरअसल मुशर्रफ को बेनजीर से शिकस्त का खौफ था इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन ऐसे वक्त में जब सब उनके खिलाफ जा रहा हो वो भुट्टो को मरवाकर सहानभूति की लहर पीपीपी के पक्ष में मोड़ने की भूल शायद नहीं करते.
बेनजीर की हत्या से उन्हें सिर्फ और सिर्फ नुकसान की उठाना पड़ा और उन्होंने उठाया भी. जहां तक बात रही अलकायदा या तालिबान की तो वो किसी महिला पर इस तरह के हमले से इंकार करते हैं और उनका रिकॉर्ड भी इसकी गवाही देता है. यानी कोई ऐसा शक्स जिसे भुट्टो के जाने का सबसे यादा फायदा होता वो इस हत्याकांड को अंजाम देने के बारे में सोच सकता था, यहां से अगर सोचें तो जरदारी के अलावा ऐसा कोई दूर-दूर तक नजर नहीं आता. जरदारी का जिस तरह का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है उस पर गौर फरमाया जाए तो इस बात से इंकार करना थोड़ा और मुश्किल हो जाएगा. जरदारी साहब रईस घराने से रहे हैं, शादी से पहले उनकी अख्याशियों के किस्से किसी से छिपे नहीं है. बेनजीर के साथ उनकी शादी घरवालों की रजामंदी से हुई थी, शादी के बाद उनके आशियाना शौक में भले ही थोड़ी कमी आई हो मगर अपराधिक प्रवृत्ति की रफ्तार तेजी होती चली
गई. उन पर एक ब्रिटिश डेवलेपर की हत्या की कोशिश का इल्जाम लगा, जिसे जरदारी और उनके साथियों ने मौत की दहलीज तक पहुंचा दिया था, उन पर भुट्टो के भाई की हत्या का भी आरोप लगा, हालांकि वो इससे इंकार करते रहे. जब बेनजीर भुट्टो सत्ता में आई तो उनके लिए नए पद का सजृन किया गया, उन्हें इनवेस्टमेंट मिनिस्टर बनाया गया. जरदारी साहब ने इस पद पर रहते हुए खूब धन बटोरा, उन्हें पाकिस्तान में मिस्टर 10 पसर्ेंट के नाम से जाना जाने लगा.
वे कई बार गबन, भ्रष्टाचार के मामलों में अंदर-बाहर होते रहे. मुल्क के साथ-साथ पार्टी में भी उनकी पहचान महज बेनजीर के पति तक ही सीमित हो गई. जरदारी को इस बात का निश्चित ही इल्म होगा कि अगर लंबे अर्से के बाद पाक लौट रहीं बेनजीर को कुछ हो जाता है तो उसका सीधा फायदा उन्हें ही मिलेगा, सहानभूति की लहर उनकी पुरानी पहचान मिटा देगी और उन्हें महज बेनजीर के पति ही हैसीयत से आगे निकलने का मौका मिल जाएगा. इस बात से खुद जरदारी भी इंकार नहीं कर सकते कि अगर बेनजीर जिंदा रहती तो उन्हें कभी इतने ऊपर आने का मौका नहीं मिलता क्योंकि पार्टी में ही उन्हें नापसंद करने वालों की अच्छी खासी तादाद है. सत्ता में आने से पहले तक भुट्टो हत्याकांड की जांच को जोर-शोर से उठाने वाले जरदारी की सत्ता पर काबिज होने के बाद खामोशी उनके खिलाफ पैदा धारणा को और बलवती बनाती है.
Sunday, July 5, 2009
पोर्नोग्राफी का फैलता कारोबार
इंटरनेट पर अशीलता परोसने वाली सैंकड़ों वेबसाइटों मौजूद हैं और इन वेबसाइट्स का ट्रैफिक दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है. सरकार ने सविताभाभी नामक वेबसाइट को बैन करके इस चेन में से एक कड़ी को कम करने की कोशिश की है. मार्च 2008 में लांच की गई इस वेबसाइट को ढेरों शिकायतें मिलने के बाद साइबर कानून के तहत बैन किया गया है सविता भाभी दरअसल अपनी सेक्स लाइफ से हताश एक महिला का कार्टून कैरक्टर है. साइट पर इसे कॉमिक के तौर पर अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं में परोसा जा रहा था. महज आठ महीनों में इस साइट पर 30 हजार से अधिक लोग रजिस्टर कर चुके हैं. एलेक्सा.कॉम के मुताबिक यह वेबसाइट दुनिया की 82वीं सबसे यादा देखी जानेवाली वेवसाइट बन गई है. हालांकि यह कवायद समुंदर के पानी से एक बूंद चुराने जैसी है लेकिन फिर भी इस तरह के कदम सामाजिक वातावरण की स्वच्छता बनाए रखने के लिए नितांत जरूरी हैं.
बीते कुछ वर्षों में ही इस तरह की वेबसाइटों में खासी बढ़ोत्तरी हुई है, एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 4.2 मिलियन साइट पोनोग्राफी को बढ़ावा दे रही हैं. प्रति सेकेंड करीब 28,258 लोग ऐसी वेबाइट्स को देखकर अपनी काम जिज्ञासाओं को शांत करने की कोशिश करते हैं, हर सेकेंड 3,075.64 अमेरिकी डॉलर पार्न साइटों पर खर्च किए जाते हैं. प्रति सेकेंड इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों में से 372 यूजर्स मौजूद विभिन्न सर्च इंजन्स में अडल्ट सर्च करते हैं, और हर दिन करीब 68 मिलियन यानी कुल सर्चिंग का 25 प्रतिशत.अमेरिका में 39 मिनट में एक नया वीडियो क्लिप बनकर तैयार हो जाता है. अशीलता के कारोबार में हमेशा से बहुत पैसा रहा है चाहे फिर कैसेट, सीडी क़े माध्यम से हो या फिर किसी और से. लेकिन इंटरनेट के चलन में तेजी आने के बाद ऑनलाइन सेक्स कारोबार ने सबको पछाड़ दिया है. आलम ये है कि आज पोर्नोग्राफी उद्योग को होने वाली आय के सामने गूगल, माइक्रोसाफ्ट, याहू, ईबे, एप्पल, एमाजोन जैसी नामी-गिरामी कंपनियों की सालाना आय कहीं नहीं ठहरती. इंटरनेट पर इस तरह की वेबसाइट तक पहुंचने के ढ़ेरों तरीके मौजूद हैं, गूगल जैसे सर्च इंजन के आने से ये काम और भी आसान हो गया है. बस संबंधित शब्द लिखकर सर्च करने भर से पोर्नवेबसाइट्स का पूरी दुनिया चंद सेकेंड़ में मॉनीटर स्क्रीन पर आ जाती है. कुछ वेबसाइट इसके लिए बाकायदा फीस वसूलती हैं जबकि कुछ फ्री में पोर्न साहित्य और तस्वीरे उपलब्ध कराती हैं. भारत, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, इजिप्ट, ईरान,वियतनाम, तुक्री आदि देशों में इस तरह की साइट ढूंढने वाले यादातर सेक्स शब्द का प्रयोग करते हैं. जबकि दक्षिण अफ्रीका, आइरलैंड, न्यूजीलैंड, यूनाइटिड़ किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, नॉरवे और कनाड़ा आदि में पोर्न. पोर्नोग्राफी का सबसे अधिक कारोबार अमेरिका, ब्राजील, नीदरलैंड, स्पेन, रूस, जापान, जर्मनी, यूके, कनाड़ा, ऑस्ट्रेलिया में है. अमेरिकी प्रत्रिका प्लेबॉय तो विश्वभर में जाना पहचाना नाम है, अमेरिका के लॉस एंजिल्स, लॉस वेगास, मियामी, पोटलैंड, शिकागो, सेनफ्रांसिस्को आदि शहर इस तरह के कामों के लिए काफी प्रचलित है.
इंटरनेट पर अमेरिका के करीब 244,661,990, जर्मनी के 10,030,200, यूके के करीब 8,506,800, ऑस्ट्रेलिया के 5,655,800, जापान के 2,700,800, रूस के 1,080,600, पोलैंड के 1,049,600 और स्पेन के तकरीबन 852,800 पन्ने पोर्नोग्राफी परोस रहे हैं. अमेरिका की कुल आय में इस उद्योग की हिस्सेदारी लगातार बढ़ती जा रही है, इसकी बिक्री 1992 में 1.60 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2006 में 3.62 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है. भारत में भी यह बाजार चोरी-छिपे पैर पसारता जा रहा है, इस तरह की वेबसाइटों के माध्यम से वेश्यावृत्ति को भी बढ़ावा दिया जाता है. बहुत सी वेबसाइट्स पर डेटिंग के नाम पर बाकायदा मेटिंग करवाई जाती है. सविता भाभी जैसी वेबसाइट को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत ये आती है कि ऐसी साइटों का कोई असल माई-बाप सामने नहीं आता, वो पर्दे के पीछे से बैठकर सारा खेल खेलता रहता है. इसलिए उन तक पहुंच पाना असंभव हो जाता है. सविता भाभी को देशमुख के छद्म नाम से चलाया जा रहा है और इसकी मालिक इंडियन पॉर्न स्टार एम्पायर नाम की कंपनी है. इस वेबसाइट का प्रभाव किस कदर बढ़ गया था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बेंगलुरु में पांचवीं में पढ़ने वाले एक बच्चे ने तो इस पात्र को देखकर अपनी टीचर का अश्लील एमएमएस तक कर डाला. बच्चे की उम्र महज 11 साल होने के कारण पुलिस उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकी.
इस तरह की साइट न केवल विकृत मानसिकता को बढ़ावा देती हैं बल्कि बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए काफी घातक सिध्द होती हैं. यूटियूब जैसी बहुचिर्चित वेबसाइट पर भी कुछ वक्त पहते तक ऐसी सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थी पर अब शायद उसे थोड़ा बहुत नियंत्रित किया गया है, मगर मेटाकैफे अब उसकी जगह भरने के लिए मौजूद है. कहने का मतलब है कि एक के बाद एक साइट अस्तित्व में आती जा रही हैं और इंटरनेट पर अपने को स्थापित करने के लिए वो सब उपलब्ध करा रही हैं जो शायद आज यादातर लोग देखना चाहते हैं. अगर इस कड़ी में नवभारत डॉट कॉम को भी जोड़ा जाए तो कोई गलत नहीं होगा.