Saturday, September 19, 2009

अफ्रीकी चीतों को क्या सुरक्षित रख पाएंगे हम

नीरज नैयर
अफ्रीकी चीतों के भारत में पुर्नवास की कवायदें तेज हो गई हैं, विशेषज्ञों ने उन स्थानों का चुनाव कर लिया है जहां इन्हें रखा जाना है. फिलहाल चीतों की सुरक्षा को लेकर मंथन का काम चल रहा है जो संभवत: जल्द ही पूरा हो जाएगा. करीब 40 अफ्रीकी चीते भारत लाने की योजना है, जिन्हें राजस्थान के नेशनल डेजर्ट पार्क जैसलमेर एवं बीकानेर के गजनेर, गुजरात के भाल, बनी-कच्छ तथा नारायण सरोवर, मध्य प्रदेश के कुनो-पालपुर, नरुनदेही और छत्तीसगढ़ के संजय-डिबरू नेशनल पार्क में रखा जाएगा. चीते को रहने के लिए कम से कम एक हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र जरूरी होता है, इस हिसाब से बनी और कच्छ वन्यजीव अभयारण्य को प्राथमिकता दी जा सकती है क्योंकि इनका क्षेत्रफल बाकियों के मुकाबले यादा है. यह निहायत ही अच्छी बात है कि नये मेहमान को लाने से पहले उसकी हिफाजत और सहूलियत के लिए कसरत की जा रही है, सरकारी मशीनरी को ऐसी कसरत करते देखना सुखद है लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि क्या इस सारी कवायद से पुर्नवास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है.


मौजूदा स्थिति को देखकर तो हां में जवाब देना बहुत मुश्किल है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदरा गांधी ने जिम कार्बेट से बाघ संरक्षण परियोजना की शुरूआत की थी तब से आज तक बाघों के संरक्षण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं, सरिस्का के बाघ वीहिन होने की खबर ने पूरे देश में प्रोजेक्ट टाइगर सवालिया निशान लगा दिया था, आनन-फानन में कमेटियां बनाई गईं, बाघ सरंक्षण को प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा गया, बाघ फंड की राशि बढ़ा दी गई मगर हालात में सुधार नहीं लाया जा सका. न तो शिकारियों पर लगाम लग पाई और न ही संबंधित सरकारी विभागों को इतना मुस्तैद किया जा सका कि बाघों को बचाने में तत्परता दिखा सकें. सरकार की तरफ से बाघ सरंक्षण को भले ही कागजी तौर पर बड़ी-बड़ी रणनीतियां बनाई गईं हों मगर जिस तरह के परिणाम अब तक देखने को मिले हैं उससे तो यह प्रतीत होता है कि बाघों को खत्म होने से बचाना उसके लिए एक पार्ट टाइम काम जैसा बनकर रह गया है , जिसके पूरा होने न होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता. इसका सबसे बड़ा कारण मंत्रालयों से लेकर विभागों तक ऐसे मौका परस्त लोगों की मौजूदगी है जिनके लिए बाघ और उनका सरंक्षण महज पैसा बटोरने का जरिया है. उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि बाघ बचें या विलुप्त हो जाएं.

जिन रायों में चीतों को रखने की बात हो रही है उनका खुद का पिछला रिकॉर्ड दागदार रहा है, खासकर राजस्थान और मध्यप्रदेश तो वन्यजीवों के सरंक्षण को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं रहे. देश में बाघों के सफाए की सबसे पहली खबर राजस्थान से ही आई थी. राजस्थान की तरह ही मध्यप्रदेश में भी सरकारी उदासीनता के चलते एक-एक करके बाघ खत्म होते गये. अभी हाल ही में बाघ सरंक्षण के नाम पर चल रहे नाटक का एक और सच सामने आया था, जिसमें मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ न होने का खुलासा किया गया था, यहां करीब पांच साल यहां 34 बाघ थे. पन्ना में बाघों की कमी की बातें काफी वक्त से उठ रहीं थी लेकिन सरकारी मशीनरी के नकारेपन ने उन पर गौर करना तक मुनासिब नहीं समझा. सरकार की तरफ से हर बार यही झूठ कहा जाता रहा कि बाघ यहां पूरी तरह सुरक्षित हैं, ताकि बाघ सरंक्षण के नाम पर मिलने वाली मोटी रकम को पचाया जा सके. पन्ना की तरह कान्हा का भी कुछ ऐसा ही हाल है, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी यादा बाघ नहीं बचे हैं. बाघ संरक्षण के प्रति सराकर की उदासीनता का आलम ये रहा है कि यहां लंबे समय से खाली पड़े फारेस्ट रेंजर्स के 50 फीसदी पदाें को भरने का प्रयास ही नहीं किया गया. इस बात पर भी ध्यान देने की कोशिश नहीं की गई कि मौजूदा व्यवस्था कितनी चौकस है.


इन दोनों रायों के अलावा गुजरात और छत्तीसगढ़ में भी चीतों को सुरक्षित आशियाना नसीब हो पाएगा इस बात की संभावना काफी क्षीण हैं. नक्सल प्रभावित राय होने के चलते छत्तीसगढ़ के अभयारण्यों में चीतों के पुर्नवास की बात सोचना भी बेमानी होगा, करीब 34000 वर्ग किलोमीटर में फैले यहां के इंद्रावती टाइगर रिजर्व को कभी बाघों के संरक्षण के लिए उपयुक्त माना जाता था मगर अब यहां नक्सलवादियों का कब्जा है. हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि यहां शायद ही कोई बाघा बचा हो, जबकि 2001 की गणना के अनुसार यहां करीब 29 बाघ थे. नक्सलवादी यहां बड़ी आसानी से बाघों का शिकार कर रहे हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं, ऐसा नहीं है कि सबकुछ गुपचुप हो रहा है. वन अधिकारी इस बात को भली भांति जानते हैं मगर नक्सलवादियों का खौफ इस कदर है कि वो जंगल में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. यह नक्सलवादियों के ही खौफ का असर था कि बाघों की ताजा गणना में राय के अभ्यारण्यों को शामिल नहीं किया गया था. अन्य नक्सल प्रभावित रायों की बात करें तों वहां भी ऐसे ही हालात हैं, उडीसा के सिमिलीपाल और बिहार-नेपाल सीमा से लगे वाल्मीकि टाइगर रिजर्वो का हाल बद से बदतर होता जा रहा है. सिमिलीपाल में 2001 में 99 बाघों की गणना कि गई थी पर अब केवल 20 बाघों के होने का ही अनुमान है. ऐसे ही वाल्मीकि में 2001 में 53 के मुकाबले अब सिर्फ 10 बाघ ही बचे हैं. नक्सली गतिविधियों के चलते इन रिजर्वो में संरक्षण अब नामुमकिन सा हो गया है. 1488 वर्ग किलोमीटर में फैले झारखंड की पलामू में 2001 की गणना के मुताबिक 32 बाघ पाए गये थे लेकिन अब इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. गुजरात के रिजर्वों से भी जब तक बाघों के शिकार की खबरें आती रहती हैं. इसके साथ ही बाघों के सफाए का एक और प्रमुख कारण है अंधविश्वास. यह भावना प्रचुर मात्रा में जनमानस के मस्तिष्क में बैठा दी गई है कि बाघ के अंग विशेष से निर्मित दवाईयां यौन शक्ति बढ़ाने में कारगर हैं. बाघ, मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉल ब्लेडर के साथ-साथ अब गौरेया का नाम इस कड़ी में जुड़ गया है. पेड़ों पर चहकती मिल जाने वाली गौरेया को पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जा रहा है. जिसकी वजह से इनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा है.

बाघों के अलावा शिकारियों ने अब तेंदुओं को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया है, 2008 में करीब 141 तेंदुओं का शिकार गया था जबकि 2007 में यह तादाद 124 थी. एक अनुमान के मुताबिक हर साल करीब 150-200 तेंदुए की खाली देश के विभिन्न हिस्सों से बरामद की जाती हैं. दरअसल बाघों की लगतार घटती संख्या से अब तेंदुए की हड्डियों को बाघों की हड्डियों के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. तेंदुए के अंगों का इस्तेमाल भी दवाओं के लिए किया जाता है जिनकी कीमत बहुत यादा होती है. साथ ही इनकी खोपडी अौर पंजों की भी मांग काफी है. चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देश इनके अवैध व्यापार के बडे क़ेंद्र हैं. तेंदुओं को वन्य जीव जंतु संरक्षण कानून 1972 में भी शामिल किया गया है जो उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है लेकिन महज कागजों पर. वन्य जीव विशेषज्ञों की मानें तो तेंदुओं की हत्या की दर वर्तमान में बाघों से कहीं यादा है.अन्य पशु-पक्षियों की तरह गेंडे और हाथियों को भी उसके सींगों के लिए लगातार मारा जाता रहा है, गेंड़ों की तदाद तो पहले से ही कम थी अब हाथियों की संख्या में भी तेजी से कमी आ रही है. कुछ वक्त पहले अंग्र्रेजी समाचार पत्र ने इस संबंध में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी, जिसमें बताया गया था कि हाथियों के बारे में भले ही बाघों जैसा ख्याल न आए लेकिन सच ये है कि इनकी संख्या भी घट रही है. कुल मिलाकर कहा जाए तो सरकार की गंभीरता जो उसके विचारों में झलकती है अगर उसका एक प्रतिशत भी काम में झलकता तो शायद चीतों को दूसरे मुल्कों से लाने के बारे में सोचना नहीं पड़ता. लिहाजा मौजूदा वक्त में ये बेहतर होगा कि सरकार चीतों को वहां सुकून से रहने दे और अपने घर में जितने बचे-कुचे वन्यप्राणी हैं उनकी सुरक्षा में मुस्तैदी दिखाए क्योंकि जैसे हालात है वैसे ही चलते रहे तो हमें आने वाले वक्त में न जाने और कितने जीवों को बाहर से लाना पड़ेगा.

1 comment:

Arvind Mishra said...

हाँ खतरे तो हैं मगर फिर भी चीतों को लाया जाना चाहिए ! कुछ विशेषग्य आज भी मानते हैं की भारत में स्वतंत्रता से पहले जो चीते थे भी वे देशज नही थे उन्हें आयात ही किया गया था कभी !