Thursday, September 3, 2009

यहां से कितना आगे जाएगी फुटबॉल

नीरज नैयर
हमारी फुटबॉल टीम ने अपने से कहीं गुना ताकतवर सीरिया को हराकर लगातार दूसरी बार नेहरू कप अपने नाम कर लिया, यह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है लेकिन इससे भी यादा महत्वपूर्ण है इस मैच को देखने उमड़ी भीड़. गौर करने वाली बात ये है कि लोगों का हुजूम पश्चिम बंगाल के किसी स्टेडियम में नहीं बल्कि दिल्ली के
आंबेडकर स्टेडियम में देखने को मिला. बंगाल में तो फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी जगजाहिर है, मगर दिल्ली में ऐसा नजारा देखना थोड़ा आर्श्च्रयजनक प्रतीत होता है.


स्टेडियम के भीतर-बाहर जमा भीड़ के कारण लोगों को अव्यवस्था की शिकायत करने का मौका भी मिला, अमूमन इस तरह की शिकायतें किसी क्रिकेट मैच के दौरान ही सुनने में आती हैं. पूरे मैच के दौरान दर्शक जिस तरह से भारतीय टीम की हौसला अफजाई कर रहे थे उसे देखकर कतई नहीं लग रहा था कि हमारे देश में फुटबॉल को दोयम दर्जे का खेल समझा जाता है. दोयम दर्जे का इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इतने सालों बाद भी यह खेल घर की चारदीवारी से निकलकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पूरी तरह अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाया है. फुटबॉल के हमारे देश में यूं अलग-थलग पड़े रहने के कई कारण हैं, जिनपर न तो कभी गौर किया गया और न ही कभी गौर करने की जरूरत समझी गई. यूं तो मौजूदा वक्त में कई क्लब मौजूद हैं जो फुटबॉल को जिंदा रखे हुए हैं लेकिन शायद ही लोगों ने जेसीटी फगवाड़ा और मोहन बगान के अलावा किसी तीसरे क्लब का नाम सुना हो.

कम ही लोग इस बात का जानते होंगे कि भारतीय टीम 1950 के वर्ल्ड कप के फाइनल में जगह बनाने में कामयाब हुई थी, 1951 एवं 1961 के एशियन खेलों में उसे गोल्ड मैडिल हासिल हुआ था, 1956 के मेलर्बोन ओलंपिक में वह चौथे स्थान पर रही, और 2007 में नेहरु कप पर कब्जे के बाद 2008 में उसने तजाकिस्तान को 4-1 से हराकर एफसी चैलेंज कप अपने नाम किया. पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए तो बमुश्किल एक-दो लोग ही ऐसे होंगे जो फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों से परिचित हों. अकेले भाई चुंग भूटिया ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें यादातर लोग जानते हैं. पिछले दिनों एक टीवी कार्यक्रम में शिरकत करने से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ जरूर थोड़ा बहुत बड़ा होगा. लेकिन इसको लेकर उन्हें क्लब के पदाधिकारियों की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा. ये बात अलग है कि भाईचुंग ने दबने के बजाए खुलकर अपनी बात रखी और वह उल्टा दबाव बनाने में कामयाब भी रहे, मगर यह घटनाक्रम क्रिकेट और फुटबॉल के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. क्रिकेटर प्रेक्टिस सेशन बीच में छोड़कर विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त रहते हैं तो भी उनके खिलाफ कुछ नहीं किया जाता, शायद बोर्ड खुद भी खाओ और हमें भी खाने दो की पॉलिसी पर यकीन करता है. कायदे में तो किसी एक खेल की दूसरे के साथ तुलना कतई उचित नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए लेकिन जिस तरह से क्रिकेट के बरगद तले बाकी खेलों की आहूति दी जा रही है उससे तुलनात्मक विश्लेषण की परंपरा का जन्म हुआ है.


क्रिकेट को लेकर हमारे देश में यह तर्क दिया जाता है कि ये खेल लोगों को सर्वाधिक पसंद है और वो इसके अलावा कुछ और देखना ही नहीं चाहते, अगर इस तर्क में तनिक भी सच्चाई होती तो अंबेडकर मैदान पर लोगों की हुजूम न उमड़ता. हकीकत ये है कि काफी हद तक लोग क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों का भी आनंद उठाना चाहते हैं लेकिन प्रोत्साहन की कमी से उन्हें क्रिकेट तक ही सीमित रहना पड़ता है. क्रिकेट के स्वरूप को बदलने और उसे अत्याधिक रोमांचित बनाने के लिए नित नए प्रयोग किए जाते हैं. इंडियान प्रीमियर लीग यानी आईपीएल बीसीसीआई का सफलतम प्रयोग है, हालांकि जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा को इसका जन्मदाता कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. सबसे पहले सुभाष चंद्रा ने ही भारत के कैरीपैकर बनते हुए आईसीएल का ऐलान किया था लेकिन बीसीसीआई के पैंतरों के आगे उनकी यह पहल सफल नहीं हो पाई और ललित मोदी ने आईसीएल की तर्ज पर आईपीएल खड़ा कर डाला जो आज कॉर्पोरेट घरानों और खुद बोर्ड के लिए कमाई का सबसे बड़ा जरिया बन गया है. खिलाड़ी भी इसमें करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे कर रहे हैं.

बीसीसीआई के कहने पर ही दूसरे देशों के क्रिकेट बोर्ड ने आईसीएल को मान्यता नहीं दी और वह खडे होनेसे पहले ही लड़खड़ा गया. लेकिन इस तरह का प्रोत्साहन और प्रतिद्वंद्वता का नजारा फुटबॉल में राष्ट्रीय स्तर पर कभी देखने को नहीं मिला. क्रिकेटर जहां अलग-अलग रायों में विभाजित होने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर एक टीम की तरह दिखाई पड़ते हैं, ऐसा फुटबॉल टीम को देखकर कतई प्रतीत नहीं होता. मौजूदा दौर में तो ऐसा लगता है जैसे फुटबॉल महज अलग-अलग क्लब का ही खेल बनकर रह गया है. जिसके प्रोत्साहन और सुधार का जिम्मा सिर्फ उन क्लबों पर ही है. अगर फुटबॉल फेडरेशन या खेल मंत्रालय इस खेल को राष्ट्रीय स्तरीय खेल की तरह लेते तो शायद इसको ऊपर उठाने के लिए कुछ न कुछ प्रयास जरूर किए जाते.

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