Saturday, June 21, 2008

पाकिस्तान के हालात पर आंसू क्यों बहाएं

नीरज नैयर
पाकिस्तान इस वक्त राजनीतिक अस्थिरता और उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है. जम्हूरियत की एक आखिरी उम्मीद भी बेनजीर की सांसें थमने के साथ ही खत्म हो गई है. पूरब की बेटी के गम में पाकिस्तान मातम में डूबा है तो भारत सदमे में है. भुट्टो को मिल रहे चौतरफा समर्थन से उनका प्रधानमंत्री बनना तय माना जा रहा था. लिहाजा भारत को आस थी कि बेनजीर के रूप में नई सरकार के साथ दोनों देशों के रिश्तों को मजबूत करने की दिशा में कोई सार्थक पहल हो सकती थी. हालांकि पाकिस्तान की विदेश नीति तो उसकी सेना और राष्ट्रपति मुशर्रफ द्वारा ही संचालित होती लेकि न एक जनतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद पाक के साथ चलने वाली शांति प्रक्रिया को विश्वनीयता जरूर मिलती. भारत सरकार का सोचना था कि अकेले बेनजीर ही भारत-पाक विवाद को निपटाने का माद्दा रखती थीं. खैर सरकार का काम सोचने का है, वह कुछ भी सोच सकती है. पर हकीकत यह है कि बेनजीर भुट्टो के सत्तारुढ होने के बाद भी भारत के लिए अनुकूल माहौल शायद ही बनता और अगर बनता भी तो दोनों देशों के विवाद तुरंत हल होने लगते इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी.
सत्ता में लौटने को बेकरार बेनजीर ने वतन वापसी के वक्त भारत के साथ मधुर संबंधों की जो बड़ी-बड़ी बातें कहीं थी, सत्ता में आने के बाद वह उन्हें भुला भी देतीं तो कोई आश्चर्य नहीं होता. यह तो भुट्टो परिवार की फितरत में रहा है. पाकिस्तान टूटने के बाद जब बेनजीर के अब्बा जान जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथ में सत्ता आई तो उनकी पहली प्राथमिकता थी, करीब एक लाख युद्धबंदियों की पाक वापसी और लगभग 10 हजार वर्ग किलोमीटर पाकिस्तानी भूमि की भारत के कब्जे से मुक्ति. याहया खान से सत्त संभालने के बाद भुट्टो ने पाकिस्तानी रेडियो से करीब एक घंटे का राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसमें उन्होंने कहा, इंशा अल्लाह, हम भारत से बदला लेंगे, हम एशिया की सबसे बेहतरीन फौज खड़ी करेंगे. हम बदला लेकर ही रहेंगे. हमने एक मोर्चा हारा है पूरी जंग नहीं. जुल्फी जब विदेशमंत्री थे तब भी वह अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के चलते भारत को ललकारने और उससे तकरार बढ़ाने की रणनीति पर काम करते रहे. इससे उन्हें भारत के शत्रु चीन के साथ पाकिस्तान के संबंध सुधारने में भी सफलता मिली. अपने दुस्साहस के चलते 1971 में मुंह की खाने के बाद भुट्टो जब अपनी बेटी बेनजीर के साथ शिमला पहुंचे तो शुरूआती दो दिन बात नहीं बन पाई. जुल्फी खाली हाथ ही लौट रहे थे कि इंदिरा गांधी से मुलाकात तय हो गई. तब भुट्टो ने भर्राये गले से कहा था इंदिराजी प्लीज सेव मी. बस यहीं से शिमला समझौते की शुरूआत हुई. युद्धबंदियों और अधिकृत जमीन की वापसी इस शर्त पर हुई कि भुट्टो कश्मीर में नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय रेखा बनाने के लिए काम करेंगे. मगर पाकिस्तान पहुंचते ही जुल्फी अपना वादा भूल गये और एटम बम बनाने में जुट गये. भुट्टो ने तब अपना रंग दिखाते हुए कहा था कि हम घास खाकर रहेंगे लेकिन बम जरूर बनाएंगे. भारत और भुट्टो परिवार के रिश्तों में यह बात भी उल्लेखनीय है कि जनरल जिया ने मार्च 1979 में जब जुल्फिकार को फांसी की सजा दी, उस वक्त प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे. देसाई या वाजपेयी ने जनरल जिया से भुट्टो को माफी देने की अपील नहीं की. शायद कहीं न कहीं वह भुट्टो को करनी की सजा मिलते देख खुश थे.
भारत उन चंद देशों में से एक था जो चुप्पी साधे बैठा रहा. इसके बाद बेनजीर ने जब सत्ता संभाली उस वक्त भारत की डोर भी राजीव गांधी के युवा हाथों में थी. दोनों को युवा आर्दशवादी कहा गया, कहा गया कि दोनों के बीच पर्सनल केमिस्ट्री अच्छी है. यह भी चर्चा हुई कि सिख आतंकवाद के पाकिस्तान से कनेक्शन काटने या कमजोर करने में बेनजीर ने अहम् भूमिका निभाई जबकि सर्वविदित सच यह है कि बेनजीर के शासन में ही तालिबानीक शुरू हुआ. बेनजीर ने भी सियासी दलदल में खुद को जमाने के लिए उन्हीं कंधों का सहारा लिया जिनका मुशर्रफ ले रहे हैं. अफसोस की बेनजीर की सांसें उन्होंने ही रोकी जिन्हे खुद बेनजीर ने ही जन्म दिया था. पिछले दशक के दौरान अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बनाने के इरादे से तालिबान को पैदा करने, इसे पनपने देने और पांव जमाने की रणनीति बेनजीर ने ही तैयार की थी. नब्बे के दशक के शुरू में भुट्टो ने अफगानिस्तान पर तालिबानी शासन स्थापित करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.जब तालिबान अस्तित्व में आया तो दूसरे शासकों ने इसको जीवित रखने की पूरी कोशिश की और अमेरिका समझता रहा कि तालिबान उसके लिए कभी खतरा नहीं हो सकता. लेकिन जब पाकिस्तान द्वारा बोया गया, अमेरिका द्वारा सींचा गया तालिबान अमेरिका के लिए खतरा बना तो उसकी आंखें खुलीं. जिस तालिबान के सफाए के लिए अमेरिका ने पाक को 5 अरब डॉलर की सैन्य सहायता दी पाक ने उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ अपनी ताकत मजबूत करने में लगाया. 1988 में जब पहली बार बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं तभी से आईएसआई की इस नीति को समर्थन प्रदान किया गया कि अफगानिस्तान में पाक समर्थक तालिबानियों को सत्ता में बिठाया जाए. अमेरिका की भी उस वक्त यही चाहत थी. बेनजीर भुट्टो की मौत पर दुख जाहिर करते हुए विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था, बेनजीर का भारत-पाक रिश्ते बेहतर बनाने में अहम् योगदान था, वह इस उपमहद्वीप की सर्वश्रेष्ठ महिला नेता थीं. मुखर्जी किस महत्वपूर्ण योगदान की बात कर रहे हैं यह बात तो सिर्फ और सिर्फ वही बता सकते हैं. लेकिन जो लोग भुट्टो परिवार की रग-रग से वाकिफ हैं वह इस बात को भली-भांति जानते हैं कि उनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है. सच तो यह है कि पाक में सिंहासन पर चाहे कोई भी बैठे भारत के प्रति उसका रवैया एक जैसा ही रहता है. फिर चाहे बात जिया उल हक की हो या जुल्फिकार अली की या फिर बेनजीर भुट्टो की सबकी प्राथमिकता एक ही रही है, भारत को कमजोर बनाना.
जहां तक दोनों देशों के संबंधों का सवाल है, वे बहुत आशाजनक नहीं हैं. दोनों के बीच समस्याएं केवल बची ही नहीं हैं, उनकी फेहरिस्त और लंबी होती जा रही है. पाकिस्तान कश्मीर का विवाद अपनी इच्छानुसार अंतरराष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में उठाता रहा है. भारत में आतंकवादी गतिविधियों को संचालित करने से भी वह अब तक बाज नहीं आया है. पाकिस्तान आज जिस दोराहे पर खड़ा है वह रास्ता खुद उसी का बनाया हुआ है, लिहाजा उसके हाल पर बेवजाह आंसू बहाकर वक्त बर्बाद करने से बेहतर होगा कि हम अपना घर दुरुस्त करने में लगें.
नीरज नैयर

5 comments:

श्रद्धा जैन said...

sawagat hai aapka blog ki duniya main
aapke dawara likha hua lekh padha aapki kalam ki taqat ko jana
truth ki power hai ye baat sabit hoti hai

Amit K Sagar said...

bahut achchaa lekh. nice thought. likhte rahiye. shubhkamnayen.
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ulta teer

Admin said...

आपकी कलम में दम है. लेकिन एक ही दिन में इतना दम मत दिखाइए, नियमित लिखते रहिये.. हाँ, अपने ब्लॉग का शीर्षक देवनागरी में लिखें शुभकामनायें

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

kishore Kumar said...

well done boy, did a great job. keep it up