Wednesday, July 2, 2008
जबरदस्ती नहीं जग सकता जज्बा
नैयर
दुश्मनों को हर मोर्चे पर मात देने वाली भारतीय सेना आजकल खुद एक नये मोर्चे पर जूझ रही है. अफसरों की कमी और सशस्त्र सेनाओं की तरफ युवाओं के घटते रुझान ने उसके समक्ष कई सवाल खड़े कर दिए हैं. गौरवशाली इतिहास की गाथाएं समेटे भारतीय सेना अपने भविष्य को लेकर चिंतित है. समस्या कितनी गंभीर है इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि मौजूदा वक्त में भारतीय सेना में करीब 120,000 अधिकारियों की कमी है. पिछले डेढ साल में मेजर और कर्नल रैंक के कोई तीन हजार अधिकारी अपनी मर्जी से सेना को अलविदा कह चुके हैं और करीब 4000 इस कतार में खड़े हैं. दूसरी तरफ सेना में भर्ती की स्थिति भी कतई अच्छी नहीं है. सेना में सबसे ज्यादा कैडेट्स इंडियन मिलिट्री अकादमी के रास्ते आते हैं. अकादमी अपने 250 कैडेट्स भर्ती कर सकती है लेकिन आलम यह है कि यहां मात्र 86 प्रशिक्षु ही हैं. एनडीए का हाल भी कुछ ऐसा ही है. हर पाठयक्रम में यहां 300 कैडेट्स की जगह होती है लेकिन केवल 92 ही भर्ती हुए हैं. और इससे भी ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि बहुतों ने चयन के बाद भी सेना से किनारा कर लिया है. ऐसे में थलसेनाध्यक्ष दीपक कपूर के उस बयान पर गौर किया जा सकता है जिसमें उन्होंने सैन्य सेवा को अनिवार्य करने की बात कही थी. मगर सवाल यह उठता है कि क्या देश सेवा का जज्बा जबरदस्ती जगाया जा सकता है? क्या मातरे वतन पर जान लुटाने वालों की फौज जबरदस्ती तैयार की जा सकती है?
इस बात में कोई दो राय नहीं कि समस्या बहुत विकराल है और अगर जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो आने वाले वक्त में सेना को जवानों के लिए तरसना पड़ सकता है. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उन कंधों पर भी जबरन जिम्मेदारी डाली जाए जो इसे उठाने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है. यह जरूरी नहीं कि आईएएस और आईपीएस भी फौज के लिए फिट हो सके. सेना केवल एक नौकरी नहीं अनुशासन की शपथ और देश सेवा का संकल्प भी है. सेना की अपनी पूरी एक संस्कृति है और इसमें ढलना हर किसी के बस की बात नहीं. यहां यह कहना गलत होगा कि लोग सेना में भर्ती नहीं होना चाहते. वॉलेंटियर्स की अब भी देश में कमी नहीं है. संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से जब सैन्य अधिकारियों का विज्ञापन निकलता है तो बढ़ चढ़ कर आवेदन किए जाते हैं. लेकिन चयन प्रक्रिया से गुजारने के बाद जब आईएमए में पाठयक्रम के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाता है, तो नवयुवक आवेदन पत्र लेते ही सेना में आने से बचने लगते हैं. वे निजी संस्थानों में नौकरी के लिए चले जाते हैं. निजी क्षेत्र भी इन्हें वरीयता देता है, क्योंकि सेना के मानदंडों पर ये नौजवान खरे उतरे होते हैं. इसलिए इस बात की गारंटी होती है कि गुणवत्ता, आचरण, व्यवहार और मनोदशा के मामले में यह उत्तम है. यह प्रचलन तेजी से बढ़ा है. यही वजह है कि आएमए आदि में सीटें रिक्त रह जा रही हैं. इसलिए यह मान लेना कि सेना में जाने वाले लोगों की कमी है, ऐसी बात नहीं है. वैसे भारत अकेला नहीं है जो फौज की नौकरी के प्रति बेरुखी से दो चार हो रहा है. कई बड़े देशों को इस समस्या से जूझना पड़ा है.
पश्चिमी देशों में तो लोग सेना की नौकरी के लिए आवेदन ही नहीं करते. अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन, रूस जैसे देशों में सेना की नौकरी के लिए प्रोत्साहित करने पर हजार डॉलर की प्रोत्साहन राशि तक दी जाती है. गनीमत है कि हमारे देश में अभी यह स्थिति नहीं है. हमारी सेना में जूनियर लेवल यानि लेफ्टिनेंट, कर्नल आदि पदों पर अधिकारियों की सबसे ज्यादा कमी है, जबकि ब्रिगेडियर, फुल कर्नल लेवल पर कोई खास कमी नहीं है. एक अनुमान के मुताबिक, जूनियर लेवल पर 30 फीसदी अधिकारी कम हैं. जबकि, सेना की सबसे ज्यादा जरूरत जूनियर लेवल पर ही है, क्योंकि यही अधिकारी मेन कार्य से जुड़े होते हैं. साथ ही, पेट्रोलिंग और बॉर्डर पर पोस्टिंग इन्हीं अधिकारियों की होती है. नई पीढ़ी में सेना के प्रति बेरुखी की कई वजहें हैं. कम तनख्वाह, कठिन कार्यशैली और अनिश्चित भविष्य. आज का मध्यवर्गीय युवा मोटी तनख्वाह वाली ऐसी नौकरी चाहता है, जिसमें उसे शहर और परिवार से ज्यादा दूर न जाना पड़े. जंगलों, पर्वतों और रेगिस्तानों में जाकर नौकरी करने के बारे में तो कम ही लोग सोचते हैं. युवाओं के सामने आज कई विकल्प और अवसर मौजूद हैं, जो सुरक्षित तो हैं ही, ज्यादा आकर्षक भी हैं. इन नौकरियों में शुरुआती दौर में ही तनख्वाह पांच अंकों में मिलती है. ऐसी नौकरियों में ग्लैमर भी है, लेकिन सेना में न तो ग्लैमर है और न खास तनख्वाह. जबकि इसमें जान जोखिम में बनी रहती है. अधिकारियों की पोस्टिंग शुरुआत में जम्मू-कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट में होती है, जहां हर पल जान का खतरा बना रहता है. यही नहीं, फौज में टैलेंट के बावजूद स्लो प्रमोशन की हकीकत तेज रफ्तार युवा पीढ़ी के माफिक नहीं बैठती. ऊपर से लंबे समय तक परिवार से दूरियां भी युवाओं को इस पेशे में आने से रोक रही हैं.
इसके साथ-साथ बीते कुछ समय में खुदकुशी के बढ़ते मामलों ने भी सेना की छवि को खराब किया है. समय अब बदल रहा है, जब युवाओं को आसान नौकरी और ज्यादा धन मिल रहा है, तो उनकी प्राथामिकता भी बदल रही हैं. अनिवार्य सैन्य सेवा समस्या का महज एक विकल्प हो सकता है. लेकिन जरूरत इस बात की है कि सैनिकों को पूरा सम्मान दिलाया जाए. उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत किया जाए, ताकि वे अपने परिवार के बारे में चिंता छोड़ दें. आज एक सैन्य अधिकारी अपने साथ पढ़ने वाले सहयोगी को दूसरी नौकरी में कई तरक्कियां कर धनवान होते हुआ देखता है, तो वह अपने बच्चों को सेना में जाने के लिए भला क्यों प्रेरित करेगा? समाज सैनिक को सम्मान नहीं देता. प्रशासन उनकी गैर मौजूदगी में परिवार की देखभाल नहीं करता. सैनिक सीमा पर लड़ाई करता है, तो गांव में उसकी जमीन पर कोई और कब्जा कर लेता है. ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि लोग एशोआराम से लबरेज जिंदगी त्याग कर सेना की कठिन नौकरी में जाना पसंद करेंगे. इसलिए सेना में अनिवार्य सेवा के बजाय रचनात्मक उपायों की तरफ सोचना ज्यादा बेहतर होगा. टफ कार्यशैली के बीच वो चार्म बनाना होगा जिससे युवा अपने आप खिंचे चले आएं. अमूमन शॉट टर्म में जाने वाले युवा अपने भविष्य को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं होते, उन्हें पता नहीं होता कि सेना छोड़ने के बाद उनकों कौन सी नौकरी मिलेगी. इस बारे में भी योजना होनी चाहिए कि पांच साल बाद नौकरी छोड़ने पर अधिकारी को कौन-सी सुविधाएं दी जाएंगी. उन्हें पेंशन दिए जाने चाहिए. चाइनीज वॉर के बाद कई क्षेत्रों में रिजर्वेशन की व्यवस्था थी. लेकिन अब ऐसा नहीं है.
सैन्य अधिकारियों के समक्ष उनके भविष्य का एक स्पष्ट खाका होना चाहिए. अनिवार्यता किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती. जबरदस्ती काम तो कराया जा सकता है मगर देश सेवा का भाव नहीं जगाया जा सकता. लिहाजा मौजूदा समस्या से निपटने के लिए अनिवार्यता की नहीं जरूरत है रास्ते की बाधाओं को निकाल फेंकने की
नीरज नैयर
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