नीरज नैयर
अभी हाल ही में खबर सुनने में आई थी कि चीन ने दो भारतीय चौकियों को ध्वस्त कर दिया. चीनी सैनिको ने जो चौकियां धवस्त की वो तोरशानाला के पास ट्राइजक्क्षन क्षेत्र में थीं. जहां भारत-भूटान और चीन की सीमाएं जुड़ती हैं. चीन इसे अपना बताता रहता है और भारत-भूटान अपना. भूटान और भारत की सहमति से इस क्षेत्र की निगरानी भारतीय सेना करती रही है. इसकी वजह यह है कि यह इलाका पूर्वी भारत में प्रवेश के मुहाने पर है. इसलिए भारत के लिए सामरिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है. हालांकि हमारे रक्षामंत्री कह रहे हैं कि सीमा पर शांति है. शायद वह चीन से किसी बड़े धमाके की उम्मीद पाले हुए हैं. जबकि हकीकत यह है कि चीन धीरे-धीरे अपनी चाल चलने में लगा है. हम भले ही चीन से संबंध सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें करें पर सच्चाई यह है कि अब भी ऐसे अनेक मसले हैं जिन पर चीन सीधे मुंह बात तक करने का तैयार नहीं है. चीन के साथ युद्ध को भले ही 45 साल गुजर चुके हैं पर शायद भारत हार को अब तक नहीं भूला पाया है. तभी तो चीन के बंकरण ध्वस्त करने की खबर पर कदम उठाने के बजाय सरकार पर्दा डालने पर तुली है. दुनिया में केवल चीन ही एक मात्र ऐसा देश है जो सीमा विस्तार के जरिए कई देशों की सिहरन बढ़ा रहा है. भूटान के एक बड़े भाग पर कब्जा कर चुके चीन ने दो सालों के दरम्यान लगभग 300 बार भारतीय क्षेत्र पर कब्जे का प्रयास किया है. अरुणाचल प्रदेश में तो चीनी घुसपैठ की खबर आम हो चली है, अब सिक्किम की राजधानी गंगटोक से भी ऐसी खबरें आ रही हैं. चीन अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किलोमीटर और भारत-चीन सीमा के 200 वर्ग किमी क्षेत्र पर अपना दावा बताता रहा है. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर के 38 हजार वर्ग किमी क्षेत्र पर उसका कब्जा है. पाकिस्तान ने भी 5180 वर्ग किमी पाक अधिकृत क्षेत्र के भारतीय हिस्सों को चीन को सौंप दिया है. वैसे 1962 के बाद चीन ने सीधे तौर पर तो हमें कभी आंख नहीं दिखाई मगर कभी चैन से बैठने भी नहीं दिया. पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों को संसाधन उपलब्ध कराकर वह हमेशा हमारी आंख में किरकिरी बना रहा है. चीन बढ़ी तेजी से घेरा कसने में लगा है. ल्हासा तथा अन्य क्षेत्रों में चार एयरपोर्ट, सड़कों का जाल तथा रेल नेटवर्क विकसित कर चुका है. जबकि भारतीय सेना को एक पहाड़ी चौकी से दूसरी चौकी पर जाने के लिए अब भी 60 से 80 किमी तक दूरी तय करनी पड़ती है. इतना ही नहीं सिक्किम से लगी सीमा के अंतिम छोर तक पहुंचने के लिह हमारे केवल पास एक ही राजमार्ग है. चीन न सिर्फ जमीनी तौर पर हमारे लिए खतरा है बल्कि समुद्र के रास्ते भी हमें घेरने की कोशिश में लगा है. पाकिस्तान के लिए ग्वाहर में सी पोर्ट विकसित कर दिया है. वहीं सिंगापुर के सेतुवे, श्रीलंका के हंबन टोटा, बांग्लादेश के चटगांव में ऐसा करने की योजना पर काम कर रहा है. उसके पास परमाणु ईंधन से चलने वाली पंडुब्बियां हैं, जो समुद्र में न सिर्फ लंबे समय तक बल्कि गहराई तक जा सकती हैं. भारतीय नौसेना का बड़ा हिस्सा पाक के मुकाबले के लिए मोर्च पर है. ऐसे में चीन का तेजी से अपनी ताकत में इजाफा करना निश्चित ही चिंता का विषय है. चीन महज रक्षा समीकरण के लिहाज से ही नहीं बल्कि भौगोलिक दृष्टि में भी हमेशा कई गुना ज्यादा फायदे में है. वह तिब्बत से हम पर हमला कर सकता है, वैसे स्थिति में केवल 500 मीटर की दूरी होगी और बीजिंग दिल्ली के दरवाजे खटखटा रहा होगा. वह 1000 किमी. रेंज वाली अपनी मिसाइल से उत्तर भारत के किसी भी बड़े शहर को निशाना बना सकता है. जबकि भारत के को ऐसा भौगोलिक लाभ नहीं मिल सकता. कुटनीति के जानकार भी मानते हैं कि चीन की कोशिश हमेशा भारत को दबाने की रही है. और इसके लिए वह पाकिस्तान का सहारा लेता रहा है. खुफिया एजेंसी रॉ के शीर्ष अधिकारी भी स्वीकारते रहे हैं कि चीन का पाकिस्तान को आंख मूदकर सामरिक साझीदार बनाने का कदम चौंकाने वाला है. उसे उद्धपोत, मिसाइल, हथियार और जियान-10 जैसे एयरक्राफ्ट देना उसकी मंशा पर शक करने के लिए काफी है. वैसे चीन का यह रुख कोई नया नहीं है. वह शुरू से ही भारत विरोधी मुहिम की अगुवाई करता रहा है. उसने भारत के परमाणु परिक्षण की दिल खोलकर आलोचना की मगर चुपके से पाकिस्तान को यह तकनीक उपलब्ध करा दी. उसने सुरक्षा परिषद में हमारी दावेदारी का भी पुरजोर विरोध किया और अब भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर नाक-मुहं सिकोड़ रहा है. हालांकि एशिया में भारत के तेजी से बड़ते कद और अमेरिका से गहरी होती दोस्ती ने उसे कुछ हद तक चुप रहने को मजबूर जरूर कर दिया है. लेकिन फिर भी अंदर ही अंदर वो हमारी जड़े खोदने में लगा हुआ है. हालांकि वह 1962 जैसा व्यवहार दोहराने की हिमाकत कतई नहीं करेगा मगर फिर भी उसकी छोटी-छोटी चालों को नजरअंदाज करके यूं खामोश बैठना समझदारी नहीं.तिब्बत-भारत और चीन चीन के कब्जे से पहले तिब्बत स्वतंत्र था. 25 लाख वर्ग किलोमीटर वाला यह देश चीन तथा भारत के मध्य बसा एशिया के बीचों-बीच स्थित है. तिब्बत और भारत संबंध बड़े धनिष्ट रहे थे. विशेषकर 7 वीं शताब्दी से जब भारत से बौद्ध धर्म का तिब्बत में आगमन हुआ था. जब तिब्बत स्वतंत्र था तो तिब्बती सीमाओं पर भारत के केवल 1500 सैनिक रहते थे और अब अनुमान है कि भारत उन्हीं सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रतिदिन 55 से 65 करोड़ रुपए खर्च कर रहा है. 1950 के दौरान चीन ने तिब्बत के आंतरिक मामलों में दखल देना शुरू किया. चीन से लाखों की संख्या में चीनी तिब्बत में लाकर बसाए गये. जिससे तिब्बती अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएं और आगे जाकर तिब्बत चीन का अभिन्न अंग बन जाए. 1959 में जब तिब्बती जनता ने चीनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया तो चीन ने उसे पूरी शक्ति से कुचल दिया. दलाईलामा को प्राणरक्षा के लिए भारत आना पड़ा. इसके बाद तिब्बत की सरकार भंग कर दी गई और वहां सीधे चीन का शासन लागू कर दिया गया.
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