नीरज नैयर
संविधान सभा के चुनाव के बाद नेपाल में जो राजनीतिक परिदृश्य उभरकर सामने आया है उससे हर कोई अचंभित है. किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि माओवादी इतने शक्तिशाली रूप में सामने आएंगे. हालांकि फिर भी ऐसे लोगों की जमात कहीं ज्यादा है जो पड़ोस में लोकतंत्र को अच्छा संकेत मान रहे हैं जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. दरअसल जो लोग माओवादियों के आने पर प्रसन्नता जाहिर कर रहे हैं, या तो उन्हें नेपाल के हालात की अंदरूनी समझ नहीं है या फिर वो मुगालते में ही रहना पसंद करते हैं. नेपाल के साथ हमारे रिश्ते सैंकड़ों साल पुराने हैं. दोनों देशों की सीमाएं एक-दूसरे के लिए हमेशा से खुली रही हैं. असम से होते हुए धुलावड़ी के रास्ते नेपाल में प्रवेश करते वक्त कभी भी इस बात का एहसास नहीं होता कि हम दूसरे मुल्क की सरहद में दाखिल हो रहे हैं, पर नेपाल की राजनीति में मौजूदा बदलाव के बाद शायद रिश्तों की डोर अब उतनी लचीली नहीं रहने वाली. 575 में से 220 सीटें जीत कर आए माओवादी नेता प्रचंड भारत के साथ 1950 में की गई मैत्री संधि को खत्म कर नये सिरे से निर्धारण की बात करके अपने इरादे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं. हालांकि उन्होंने भारत और चीन से समांतर दूरी बनाकर चलने की बात कही है मगर माओवादियों का चीनी प्रेम जगजाहिर है. सब जानते हैं कि नेपाल में सत्ता संघर्ष के वक्त माओवादियों को पिछले दरवाजे से आर्थिक मदद चीन मुहैया करवा रहा था. दरअसल चीन भारत पर घेरा कसने में लगा हुआ है!
श्रीलंका, म्यामांर और पाकिस्तान आदि देशों में पहुंच बढ़ाकर वह पहले ही हम पर दबाव बना चुका है और अब नेपाल के रास्ते सीधे तौर पर चुनौती देने की कोशिश में है. चीन इस बात को भलि-भांती जानता था कि नेपाल में माओवादियों की सरकार बनवाए बिना वो अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकता, इसलिए उसने पर्दे के पीछे से ठीक वैसा ही खेल खेला जैसा एक निर्देशक अपने फिल्म को हिट करवाने के लिए खेलता है. चीन ने तिब्बत के रास्ते नेपाल तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान कर दिया है, उसने यह कहकर भारतीय नीति-निर्माताओं के होश उड़ा दिए हैं कि नेपाल ने इसके लिए हरी झंड़ी दिखा दी है. चीन के बारे में मशहूर है कि वो जिस क्षेत्र को कब्जा लेता है उसे कभी हाथ से जाने नहीं देता. चीन के इस ऐलान को अगर 1950 के परिदृश्य में रखकर देखें तो उसकी मंशा स्पष्ट हो जाती है. वह नेपाल के साथ भी वैसा ही कुछ करने की जुगत में लगता है जैसा उसने तिब्बत के साथ किया था. वह रेल लाइन के माध्यम से नेपाल पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहता है. हालांकि विश्व अब 1950 वाले दौर से बहुत आगे निकल आया है और ड्रैगन का नेपाल सरीखे देश को निगलना उतना आसान नहीं होगा, मगर फिर भी वो नेपाल को अपने अड्डे के रूप में विकसित करके भारत विरोधी गतिविधियों का संचालन अब बड़ी आसानी से कर सकेगा.
माओवादियों के नेपाल की सत्ता पर काबिज होने से भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर नई चुनौतियां खड़ी होने वाली हैं. भारत में सक्रिय नक्सलवादियों की नेपाल माओवादियों से सांठ-गांठ किसी से छिपी नहीं है. नक्सलवादी न सिर्फ वहां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं बल्कि वहां से चीन के रास्ते आने वाले अत्याधुनिक हथियारों को भी भारत के खिलाफ प्रयोग कर रहे हैं. वैसे भी नक्सलवाद भारत में सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर चुका है, खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस पर कई बार चिंता जता चुके हैं. ऐसे में पड़ोस में लाल सलाम का नारा बुलंद होने से नक्सलवादियों के हौसले बुलंद होना लाजमी है. नक्सलवादियों को अब लगने लगेगा कि उनका संघर्ष भी एक दिन उन्हें माओवादियों की तरह सत्ता के रास्ते तक ले जा सकता है. खुफिया सूत्रों की अगर मानें तो नक्सलवादी नेपाल के राजनीतिक माहौल को लेकर खासे उत्साहित हैं. प्रचंड की जीत भले ही नेपाल में हुई है मगर उसका जश्न छत्तीसगढ़ के नक्सलवादी बहुल इलाकों में मन रहा है. अगर इन बातों में सच्चाई है तो यह निश्चित ही भारत के लिए खतरें के संकेत हैं. वैसे ये कहना गलत नहीं होगा कि नेपाल पर हमारी विदेश नीति पूरी तरह से असफल रही. पड़ोस में जब उथल-पुथल मची थी उस वक्त सरकार यही मानकर चल रही थी कि वहां अधिकतर प्रतिनिधि नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यानी एमाले के ही होंगे क्योंकि नेपाली जनता माओवादियों के खूनी खेल से तंग आ चुकी है!
लेकिन चुनाव के नतीजों ने ऐसी सभी आशाओं को हवा में उड़ा दिया. यहां तक की जिन मधेसी नेताओं पर भारतीय दूतावास और खुफिया एजेंसी रॉ का हाथ था वो भी मैदान में चारों-खाने चित्त हो गये. ऐसा नहीं है कि नेपाल में माओवादियों की सत्ता को लेकर सिर्फ भारत ही चिंतित है अमेरिका भी पूरे मसले पर गहरी नजर रखे हुए है. वह भी असमंजस में है कि नेपाल की सत्ता में शामिल माओवादियों को कैसे पचाया जाए. चूंकि अमेरिका ने माओवादियों को आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया हुआ है लिहाजा वो इस मामले पर गहन मंथन में लगा है. बहरहाल भारत सरकार भी इस मसले पर चुप्पी साधे हुए है और संभावित खतरों का आकलन करने में जुटी है. जबकि कम्युनिस्ट नेता देश पर आने वाली विपदाओं से किनारा करके नेपाल में प्रचंड को ऐसे बधाई दिए जा रहे हैं जैसे उन्होंने नेपाल के नहीं भारत के चुनाव में जीत हासिल की है!क्या करे भारत
वैसे तो नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने से भारत का नेपाल पर बचा-कुचा प्रभुत्व भी समाप्त होने वाला है मगर भारत प्रचंड को उन्हीं के लहजे में जवाब देकर उनकी हेकड़ी को कुछ कम जरूर कर सकता है. प्रचंड चाहते हैं कि 1950 में की गई भारत-नेपाल मैत्री संधि का पुन: निर्धारण किया जाए. मतलब पुरानी संधि को खत्म करके मौजूदा हालात के मद्देनजर नई संधि बने. भारत को चाहिए कि वो नेपाल को यह स्पष्ट करे कि ऐसी स्थिति में उस दौर की व्यापार आदि सारी संधियों का पुन: निर्धारण किया जाएगा. प्रचंड समानता की बात करते हैं जबकि सच ये है कि नेपाल पूरी तरह से भारत पर निर्भर है अगर भारत ने पूर्व में अपने हाथ खींच लिए होते तो नेपाल का क्या होता प्रचंड अच्छी तरह जानते हैं, ऐसे में वो ये कतई नहीं चाहेंगे कि नेपाल को भारत से मिलने वाली सहायता में कोई कटौती आए!
कौन हैं मधेशी नेपाल की कुल आबादी का करीब 40 प्रतिशत तराई क्षेत्र है. इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मधेशी कहा जाता है. जिसका मतलब है मध्यक्षेत्र में रहने वाले लोग. ये मधेशी मुख्यत: भारतीय मूल के हैं, जो सैंकड़ों साल पहले रोजीरोटी की तलाश में यहां आकर बस गये. नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने से इनके ऊपर सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है. क्योंकि माओवादी मधेशियों को नेपाल से भगाना चाहते हैं!
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