Saturday, June 21, 2008

पाकिस्तान के हालात पर आंसू क्यों बहाएं

नीरज नैयर
पाकिस्तान इस वक्त राजनीतिक अस्थिरता और उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है. जम्हूरियत की एक आखिरी उम्मीद भी बेनजीर की सांसें थमने के साथ ही खत्म हो गई है. पूरब की बेटी के गम में पाकिस्तान मातम में डूबा है तो भारत सदमे में है. भुट्टो को मिल रहे चौतरफा समर्थन से उनका प्रधानमंत्री बनना तय माना जा रहा था. लिहाजा भारत को आस थी कि बेनजीर के रूप में नई सरकार के साथ दोनों देशों के रिश्तों को मजबूत करने की दिशा में कोई सार्थक पहल हो सकती थी. हालांकि पाकिस्तान की विदेश नीति तो उसकी सेना और राष्ट्रपति मुशर्रफ द्वारा ही संचालित होती लेकि न एक जनतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद पाक के साथ चलने वाली शांति प्रक्रिया को विश्वनीयता जरूर मिलती. भारत सरकार का सोचना था कि अकेले बेनजीर ही भारत-पाक विवाद को निपटाने का माद्दा रखती थीं. खैर सरकार का काम सोचने का है, वह कुछ भी सोच सकती है. पर हकीकत यह है कि बेनजीर भुट्टो के सत्तारुढ होने के बाद भी भारत के लिए अनुकूल माहौल शायद ही बनता और अगर बनता भी तो दोनों देशों के विवाद तुरंत हल होने लगते इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी.
सत्ता में लौटने को बेकरार बेनजीर ने वतन वापसी के वक्त भारत के साथ मधुर संबंधों की जो बड़ी-बड़ी बातें कहीं थी, सत्ता में आने के बाद वह उन्हें भुला भी देतीं तो कोई आश्चर्य नहीं होता. यह तो भुट्टो परिवार की फितरत में रहा है. पाकिस्तान टूटने के बाद जब बेनजीर के अब्बा जान जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथ में सत्ता आई तो उनकी पहली प्राथमिकता थी, करीब एक लाख युद्धबंदियों की पाक वापसी और लगभग 10 हजार वर्ग किलोमीटर पाकिस्तानी भूमि की भारत के कब्जे से मुक्ति. याहया खान से सत्त संभालने के बाद भुट्टो ने पाकिस्तानी रेडियो से करीब एक घंटे का राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसमें उन्होंने कहा, इंशा अल्लाह, हम भारत से बदला लेंगे, हम एशिया की सबसे बेहतरीन फौज खड़ी करेंगे. हम बदला लेकर ही रहेंगे. हमने एक मोर्चा हारा है पूरी जंग नहीं. जुल्फी जब विदेशमंत्री थे तब भी वह अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के चलते भारत को ललकारने और उससे तकरार बढ़ाने की रणनीति पर काम करते रहे. इससे उन्हें भारत के शत्रु चीन के साथ पाकिस्तान के संबंध सुधारने में भी सफलता मिली. अपने दुस्साहस के चलते 1971 में मुंह की खाने के बाद भुट्टो जब अपनी बेटी बेनजीर के साथ शिमला पहुंचे तो शुरूआती दो दिन बात नहीं बन पाई. जुल्फी खाली हाथ ही लौट रहे थे कि इंदिरा गांधी से मुलाकात तय हो गई. तब भुट्टो ने भर्राये गले से कहा था इंदिराजी प्लीज सेव मी. बस यहीं से शिमला समझौते की शुरूआत हुई. युद्धबंदियों और अधिकृत जमीन की वापसी इस शर्त पर हुई कि भुट्टो कश्मीर में नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय रेखा बनाने के लिए काम करेंगे. मगर पाकिस्तान पहुंचते ही जुल्फी अपना वादा भूल गये और एटम बम बनाने में जुट गये. भुट्टो ने तब अपना रंग दिखाते हुए कहा था कि हम घास खाकर रहेंगे लेकिन बम जरूर बनाएंगे. भारत और भुट्टो परिवार के रिश्तों में यह बात भी उल्लेखनीय है कि जनरल जिया ने मार्च 1979 में जब जुल्फिकार को फांसी की सजा दी, उस वक्त प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे. देसाई या वाजपेयी ने जनरल जिया से भुट्टो को माफी देने की अपील नहीं की. शायद कहीं न कहीं वह भुट्टो को करनी की सजा मिलते देख खुश थे.
भारत उन चंद देशों में से एक था जो चुप्पी साधे बैठा रहा. इसके बाद बेनजीर ने जब सत्ता संभाली उस वक्त भारत की डोर भी राजीव गांधी के युवा हाथों में थी. दोनों को युवा आर्दशवादी कहा गया, कहा गया कि दोनों के बीच पर्सनल केमिस्ट्री अच्छी है. यह भी चर्चा हुई कि सिख आतंकवाद के पाकिस्तान से कनेक्शन काटने या कमजोर करने में बेनजीर ने अहम् भूमिका निभाई जबकि सर्वविदित सच यह है कि बेनजीर के शासन में ही तालिबानीक शुरू हुआ. बेनजीर ने भी सियासी दलदल में खुद को जमाने के लिए उन्हीं कंधों का सहारा लिया जिनका मुशर्रफ ले रहे हैं. अफसोस की बेनजीर की सांसें उन्होंने ही रोकी जिन्हे खुद बेनजीर ने ही जन्म दिया था. पिछले दशक के दौरान अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बनाने के इरादे से तालिबान को पैदा करने, इसे पनपने देने और पांव जमाने की रणनीति बेनजीर ने ही तैयार की थी. नब्बे के दशक के शुरू में भुट्टो ने अफगानिस्तान पर तालिबानी शासन स्थापित करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.जब तालिबान अस्तित्व में आया तो दूसरे शासकों ने इसको जीवित रखने की पूरी कोशिश की और अमेरिका समझता रहा कि तालिबान उसके लिए कभी खतरा नहीं हो सकता. लेकिन जब पाकिस्तान द्वारा बोया गया, अमेरिका द्वारा सींचा गया तालिबान अमेरिका के लिए खतरा बना तो उसकी आंखें खुलीं. जिस तालिबान के सफाए के लिए अमेरिका ने पाक को 5 अरब डॉलर की सैन्य सहायता दी पाक ने उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ अपनी ताकत मजबूत करने में लगाया. 1988 में जब पहली बार बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं तभी से आईएसआई की इस नीति को समर्थन प्रदान किया गया कि अफगानिस्तान में पाक समर्थक तालिबानियों को सत्ता में बिठाया जाए. अमेरिका की भी उस वक्त यही चाहत थी. बेनजीर भुट्टो की मौत पर दुख जाहिर करते हुए विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था, बेनजीर का भारत-पाक रिश्ते बेहतर बनाने में अहम् योगदान था, वह इस उपमहद्वीप की सर्वश्रेष्ठ महिला नेता थीं. मुखर्जी किस महत्वपूर्ण योगदान की बात कर रहे हैं यह बात तो सिर्फ और सिर्फ वही बता सकते हैं. लेकिन जो लोग भुट्टो परिवार की रग-रग से वाकिफ हैं वह इस बात को भली-भांति जानते हैं कि उनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है. सच तो यह है कि पाक में सिंहासन पर चाहे कोई भी बैठे भारत के प्रति उसका रवैया एक जैसा ही रहता है. फिर चाहे बात जिया उल हक की हो या जुल्फिकार अली की या फिर बेनजीर भुट्टो की सबकी प्राथमिकता एक ही रही है, भारत को कमजोर बनाना.
जहां तक दोनों देशों के संबंधों का सवाल है, वे बहुत आशाजनक नहीं हैं. दोनों के बीच समस्याएं केवल बची ही नहीं हैं, उनकी फेहरिस्त और लंबी होती जा रही है. पाकिस्तान कश्मीर का विवाद अपनी इच्छानुसार अंतरराष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में उठाता रहा है. भारत में आतंकवादी गतिविधियों को संचालित करने से भी वह अब तक बाज नहीं आया है. पाकिस्तान आज जिस दोराहे पर खड़ा है वह रास्ता खुद उसी का बनाया हुआ है, लिहाजा उसके हाल पर बेवजाह आंसू बहाकर वक्त बर्बाद करने से बेहतर होगा कि हम अपना घर दुरुस्त करने में लगें.
नीरज नैयर

गिरावट से सबक सीखने का वक्त

नीरज
सेंसेक्स एक बार फिर सुर्खियों में है, लेकिन इस बार अपनी ऊंचाइयों को लेकर नहीं बल्कि बीते दिनों आई जबरदस्त गिरावट को लेकर। 21 व 22 जनवरी को सेंसेक्स की सूनामी में करोड़ों बहने से पूर्व जो निवेशक टाटा की लखटकिया में सुहाने सफर के सपने संजो रहे थे, वो अब दुपहिया खरीदने तक की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. कारण साफ है, जेब खाली है, और बैंक पहले ही खाली कर चुके हैं. जिन निवेशक ने थोड़े ही वक्त में ज्यादा कमाने के इरादे से सेंसेक्स की सीड़ी पर पैर जमाने का प्रयास किया था उनके पास अब आंसू बहाकर पांव सहलाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है. दरअसल सेंसेक्स की रफ्तार जितनी तेजी से ऊपर जा रही थी उससे कहीं न कहीं यह दशा (अंदेशा) तो था कि यह लुढक सकता है, मगर इतनी तेजी से लुढकेगा यह किसी ने नहीं सोचा था. इस गिरावट ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि सेंसेक्स हमेशा ऊपर की तरफ ही नहीं जाता, बाजार में नीचे गिरने का रास्ता भी मौजूद होता है. वैसे भी शेयर बाजार में तीव्र तेजी का दौर ज्यादा लंबे समय तक नहीं टिक सकता. बाजार में छाई मंदी और उसके कारणों की गहराई में उतरने से पहले यह समझना बेहतर होगा कि शेयर और शेयर बाजार आखिर होता क्या है.
शेयर बाजार वास्तव में वह जगह या बाजार होता है जहां प्रतिभूतियों के खरीददार एजेंटो के माध्यम से शेयर का लेन-देन करते हैं. शेयर धारक को कंपनी के स्वामित्व में उसके द्वारा खरीदे गये शेयरों के अनुपात में भागीदारी प्राप्त होती है. किसी भी बाजार में गिरावट का सीधा सा एक ही कारण होता है, खरीददारों की कमी और बेचने वालों की अधिकता. 21 व 22 को भी कुछ ऐसा ही हुआ. भारतीय बाजारों में विदेशी निवेश बड़ी मात्रा में है. सेंसेक्स की 30 महत्वपूर्ण कंपनियों में तो विदेशी संस्थागत निवेशकों की भागीदारी जबरदस्त है. ऐसे में अमेरिकी अर्थव्यवस्था चरमराने से घबराए विदेशी निवेशक चौतरफा बिकवाली कर रहे हैं, जिसकी वजह से सेंसेक्स का यह हाल हो रहा है. अमेरिका में यह हालात ऐसे समय पैदा हुए हैं जब सालों से अच्छा कर रही अर्थव्यवस्था को देखते हुए अमेरिकी बैंकों ने ऐसे लोगों को भी मकान खरीदने के लिए कर्ज दे डाले जो लौटाने की हैसियत नहीं रखते थे. कुछ वक्त बाद जब बैंकों को इस बात का इल्म हुआ कि उनके भंडार में उतना पैसा नहीं जितना वो सोच कर चल रहे थे तो घबराए बैंकों ने कर्ज देना बंद कर दिया. यहां तक कि सहायक बैंकों तक को पैसा देने से इंकार कर दिया और बाजार में पैसे की किल्लत हो गई. जिसके चलते पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था डगमगा गई और यूरोप से लेकर एशिया तक के शेयर बाजार औंधे मुंह गिर पड़े. बाद में जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने राहत पैकेज की घोषणा की तब कहीं जाकर बाजार ने सांसे लेना शुरू किया. यह सांसे अब कब तक चलेंगी यह कहना अभी जरा मुश्किल हैं. वैसे शेयर बाजार में गिरावट का यह सिर्फ एक पहलू है, इसकी दूसरी वजह है बाजार में तेजी से पैर फैलाते शॉट टर्म सट्टेबाज. एक समय था जब शेयर कारोबार में गिने -चुने लोग ही उतरा करते थे. मगर अब तो जैसे बाढ़ सी आ गई है. हर दूसरा व्यक्ति शेयर के खेल में अपनी किस्मत आजमाने में लगा हुआ है. यहां तक कि लोग उधार उठा-उठाकर बाजार में पैसा फंसाए बैठे हैं. इस उम्मीद में कि दुगना रिटर्न मिलेगा. हालिया गिरावट को अगर छोड़ दिया जाए तो बाजार ने पिछले कुछ वक्त में ऊंचाई का जो मुकाम हासिल किया है. उससे लोगों को यह लगने लगा है कि यहां निवेश करके एक ही रात में लखपति बना जा सकता है. जबकि तारीख़ गवाह है कि जिसने भी बाजार में लंबा टिकने का साहस दिखाया है, मुनाफा भी उसी ने कमाया है. अक्सर छोटे निवेशक मंदी के दौर में डूबने के डर से बाजार से निकलने की जल्दबाजी में धड़ाधड़ बिकवाली करके बाजार का बैंड बजा देते हैं. बाजार में मौजूदा उथल-पुथल का जो दौर चल रहा है उसके लिए हर कोई अमेरिका को कठघरे में खड़ा कर रहा है, मगर जब बाजार बेलगाम घोड़े की तरह ऊपर की तरफ भागा जा रहा था, क्या तब किसी ने सोचा था कि इसका क्रेडिट किसे दिया जाए?. सरकार अपनी पीठ थपथपाए नहीं थक रही थी कि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है. वित्तमंत्री तो अब भी यही दिलासा दिलाए जा रहे हैं कि घबराने की कोई जरूरत नहीं है. पर क्या अपनी गाढ़ी कमाई को डूबते देख भला कोई मुस्कुरा सकता है? सच तो यह है कि बाजार अभी कितने गोते और लगाएगा, इस बात का अंदाजा तो खुद वित्तमंत्री को भी नहीं होगा. असल बात तो यह है कि विदेशी पूंजी का शेयर बाजार में जब तक प्रवाह बना रहा, सेंसेक्स आसमान छूता रहा और जैसे ही यह प्रवाह रुका आसमान से जमीन पर आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. यह गिरावट एक तरह से सरकार के लिए सबक है, क्योंकि भारतीय बाजार में विदेशी निवेश को लेकर हमारे यहां कोई गाइडलाइन निर्धारित नहीं है. विदेशी निवेशक अपनी मनमर्जी के मालिक होते हैं. उनका जब दिल चाहेगा, जितना चाहेगा लगाएंगे और जब मुनाफा नहीं दिखेगा हाथ खड़े करके निकल जाएंगे. समय-समय पर कई वित्तीय संस्थान और प्रख्यात उद्योगपति राहुल बजाज भी विदेशी निवेश पर नियंत्रण की बात कहते रहे हैं.
लिहाजा इस दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है. इसके साथ ही मौजूदा हालात से इतर शेयर बाजार में निवेश को लेकर जो अंदेशे रह-रहकर जताए जाते रहे हैं, उन पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है. आतंकवादियों द्वारा निवेश के लेकर खुद वित्तमंत्री भी चिंता जाहिर कर चुके हैं. ऐसे में, सेबी और दूसरी नियामक संस्थाओं को अधिक से अधिक जिम्मेदार बनाने के रास्ते ढूंढे जाने का सही समय आ गया है. यह ठीक है कि उदारीकरण के लाभ के साथ ही हम उसके जोखिम से बच नहीं सकते. लेकिन जिस रफ्तार से शेयर बाजार ऊपर बढ़ रहा था, उसकी परिणति का ठीक-ठीक आकलन अगर हुआ होता, तो लगातार दूसरे दिन कारोबार को एक घंटे के लिए बंद करने की नौबत नहीं आती. शेयर बाजार से आम आदमी का भले ही सीधा संबंध नहीं हो, लेकिन कहीं न कहीं उसके हितों पर असर तो पड़ता ही है. आखिर देश के कई सरकारी-अर्ध्द सरकारी वित्तीय संस्थान पूंजी बाजार में निवेश करते हैं. यदि इस गिरावट का उनकी आर्थिक सेहत पर असर पड़ता है, तो स्वाभाविक रूप से उनके ग्राहक और उपभोक्ता भी प्रभावित होंगे. शेयर का खेल हमेशा से ही जोखिम भरा रहा है. मगर जितना जोखिम आज हो गया है इतना पहले कभी न था. कारण साफ है, मुनाफा कमाने की जितनी संभावनाएं बढ़ेंगी, जोखिम का स्तर भी उतना ही बढ़ेगा. पहले बाजार में ऊछाल कछुआ गति से होता था मगर अब एक-दो सालों में ही दो गुने-तीन गुने तक पहुंच रहा है. ऐसे में खतरा बढ़ना लाजमी है.
दरअसल पहले विदेशी संस्थागत निवेशकों की बाजार में भूमिका इतनी बढ़ी नहीं थी जितनी आज है. विदेशी निवेशक मुनाफा कमाने के इरादे से धड़ाधड़ पैसा लगाते हैं तो बाजार बल्ले-बल्ले करता है. और जब वही धड़ाधड़ बिकवाली करते हैं तो मातम छा जाता है. शेयर बाजार में गिरावट के लिए कुछ हद तक रिलायंस पावर को भी दोषी करार दिया जा सकता है. कुछ दिन पहले ही रिलायंस पावर लिमिटेड के आइपीओ की रिकॉर्ड बिक्री हुई थी. उस बिक्री का एक दिलचस्प पहलू यह था कि शेयर होल्डरों ने अपने शेयर बेचकर आरपीएल के शेयरों की खरीद की. बाद में विदेशी संस्थागत निवेशक भी इस शुरूआत का हिस्सा बने जिसके चलते बाजार डगमगा गया. बाजार के स्वभाव के बारे में वैसे तो कुछ भी कठिन है मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि जिस तरह ऊंचाई की उड़ान लंबे समय तक नहीं रही, उसी तरह मंदी का अंधियारा भी ज्यादा देर तक नहीं टिक सकता. लेकिन फिर भी जानकारों का मानना है कि शेयर बाजार अभी एक और गोता लगा सकता है. लिहाजा निवेशकों को काफी सोच समझकर इस खेल में अपने हाथ आजमाना चाहिए. ऐसे मूल्य वाले शेयरों के मामले में खासी सतर्कता बरतने की जरूरत है जिनके दाम में अचानक तेजी आई है. फिलहाल अच्छे शेयरों को होल्ड कर सुधार की स्थिति तक इंतजार करना बेहतर होगा.
नीरज नैयर

भारत के लिए सिरदर्द बनेगा नेपाल

नीरज नैयर
संविधान सभा के चुनाव के बाद नेपाल में जो राजनीतिक परिदृश्य उभरकर सामने आया है उससे हर कोई अचंभित है. किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि माओवादी इतने शक्तिशाली रूप में सामने आएंगे. हालांकि फिर भी ऐसे लोगों की जमात कहीं ज्यादा है जो पड़ोस में लोकतंत्र को अच्छा संकेत मान रहे हैं जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. दरअसल जो लोग माओवादियों के आने पर प्रसन्नता जाहिर कर रहे हैं, या तो उन्हें नेपाल के हालात की अंदरूनी समझ नहीं है या फिर वो मुगालते में ही रहना पसंद करते हैं. नेपाल के साथ हमारे रिश्ते सैंकड़ों साल पुराने हैं. दोनों देशों की सीमाएं एक-दूसरे के लिए हमेशा से खुली रही हैं. असम से होते हुए धुलावड़ी के रास्ते नेपाल में प्रवेश करते वक्त कभी भी इस बात का एहसास नहीं होता कि हम दूसरे मुल्क की सरहद में दाखिल हो रहे हैं, पर नेपाल की राजनीति में मौजूदा बदलाव के बाद शायद रिश्तों की डोर अब उतनी लचीली नहीं रहने वाली. 575 में से 220 सीटें जीत कर आए माओवादी नेता प्रचंड भारत के साथ 1950 में की गई मैत्री संधि को खत्म कर नये सिरे से निर्धारण की बात करके अपने इरादे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं. हालांकि उन्होंने भारत और चीन से समांतर दूरी बनाकर चलने की बात कही है मगर माओवादियों का चीनी प्रेम जगजाहिर है. सब जानते हैं कि नेपाल में सत्ता संघर्ष के वक्त माओवादियों को पिछले दरवाजे से आर्थिक मदद चीन मुहैया करवा रहा था. दरअसल चीन भारत पर घेरा कसने में लगा हुआ है!
श्रीलंका, म्यामांर और पाकिस्तान आदि देशों में पहुंच बढ़ाकर वह पहले ही हम पर दबाव बना चुका है और अब नेपाल के रास्ते सीधे तौर पर चुनौती देने की कोशिश में है. चीन इस बात को भलि-भांती जानता था कि नेपाल में माओवादियों की सरकार बनवाए बिना वो अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकता, इसलिए उसने पर्दे के पीछे से ठीक वैसा ही खेल खेला जैसा एक निर्देशक अपने फिल्म को हिट करवाने के लिए खेलता है. चीन ने तिब्बत के रास्ते नेपाल तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान कर दिया है, उसने यह कहकर भारतीय नीति-निर्माताओं के होश उड़ा दिए हैं कि नेपाल ने इसके लिए हरी झंड़ी दिखा दी है. चीन के बारे में मशहूर है कि वो जिस क्षेत्र को कब्जा लेता है उसे कभी हाथ से जाने नहीं देता. चीन के इस ऐलान को अगर 1950 के परिदृश्य में रखकर देखें तो उसकी मंशा स्पष्ट हो जाती है. वह नेपाल के साथ भी वैसा ही कुछ करने की जुगत में लगता है जैसा उसने तिब्बत के साथ किया था. वह रेल लाइन के माध्यम से नेपाल पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहता है. हालांकि विश्व अब 1950 वाले दौर से बहुत आगे निकल आया है और ड्रैगन का नेपाल सरीखे देश को निगलना उतना आसान नहीं होगा, मगर फिर भी वो नेपाल को अपने अड्डे के रूप में विकसित करके भारत विरोधी गतिविधियों का संचालन अब बड़ी आसानी से कर सकेगा.
माओवादियों के नेपाल की सत्ता पर काबिज होने से भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर नई चुनौतियां खड़ी होने वाली हैं. भारत में सक्रिय नक्सलवादियों की नेपाल माओवादियों से सांठ-गांठ किसी से छिपी नहीं है. नक्सलवादी न सिर्फ वहां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं बल्कि वहां से चीन के रास्ते आने वाले अत्याधुनिक हथियारों को भी भारत के खिलाफ प्रयोग कर रहे हैं. वैसे भी नक्सलवाद भारत में सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर चुका है, खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस पर कई बार चिंता जता चुके हैं. ऐसे में पड़ोस में लाल सलाम का नारा बुलंद होने से नक्सलवादियों के हौसले बुलंद होना लाजमी है. नक्सलवादियों को अब लगने लगेगा कि उनका संघर्ष भी एक दिन उन्हें माओवादियों की तरह सत्ता के रास्ते तक ले जा सकता है. खुफिया सूत्रों की अगर मानें तो नक्सलवादी नेपाल के राजनीतिक माहौल को लेकर खासे उत्साहित हैं. प्रचंड की जीत भले ही नेपाल में हुई है मगर उसका जश्न छत्तीसगढ़ के नक्सलवादी बहुल इलाकों में मन रहा है. अगर इन बातों में सच्चाई है तो यह निश्चित ही भारत के लिए खतरें के संकेत हैं. वैसे ये कहना गलत नहीं होगा कि नेपाल पर हमारी विदेश नीति पूरी तरह से असफल रही. पड़ोस में जब उथल-पुथल मची थी उस वक्त सरकार यही मानकर चल रही थी कि वहां अधिकतर प्रतिनिधि नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यानी एमाले के ही होंगे क्योंकि नेपाली जनता माओवादियों के खूनी खेल से तंग आ चुकी है!
लेकिन चुनाव के नतीजों ने ऐसी सभी आशाओं को हवा में उड़ा दिया. यहां तक की जिन मधेसी नेताओं पर भारतीय दूतावास और खुफिया एजेंसी रॉ का हाथ था वो भी मैदान में चारों-खाने चित्त हो गये. ऐसा नहीं है कि नेपाल में माओवादियों की सत्ता को लेकर सिर्फ भारत ही चिंतित है अमेरिका भी पूरे मसले पर गहरी नजर रखे हुए है. वह भी असमंजस में है कि नेपाल की सत्ता में शामिल माओवादियों को कैसे पचाया जाए. चूंकि अमेरिका ने माओवादियों को आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया हुआ है लिहाजा वो इस मामले पर गहन मंथन में लगा है. बहरहाल भारत सरकार भी इस मसले पर चुप्पी साधे हुए है और संभावित खतरों का आकलन करने में जुटी है. जबकि कम्युनिस्ट नेता देश पर आने वाली विपदाओं से किनारा करके नेपाल में प्रचंड को ऐसे बधाई दिए जा रहे हैं जैसे उन्होंने नेपाल के नहीं भारत के चुनाव में जीत हासिल की है!क्या करे भारत
वैसे तो नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने से भारत का नेपाल पर बचा-कुचा प्रभुत्व भी समाप्त होने वाला है मगर भारत प्रचंड को उन्हीं के लहजे में जवाब देकर उनकी हेकड़ी को कुछ कम जरूर कर सकता है. प्रचंड चाहते हैं कि 1950 में की गई भारत-नेपाल मैत्री संधि का पुन: निर्धारण किया जाए. मतलब पुरानी संधि को खत्म करके मौजूदा हालात के मद्देनजर नई संधि बने. भारत को चाहिए कि वो नेपाल को यह स्पष्ट करे कि ऐसी स्थिति में उस दौर की व्यापार आदि सारी संधियों का पुन: निर्धारण किया जाएगा. प्रचंड समानता की बात करते हैं जबकि सच ये है कि नेपाल पूरी तरह से भारत पर निर्भर है अगर भारत ने पूर्व में अपने हाथ खींच लिए होते तो नेपाल का क्या होता प्रचंड अच्छी तरह जानते हैं, ऐसे में वो ये कतई नहीं चाहेंगे कि नेपाल को भारत से मिलने वाली सहायता में कोई कटौती आए!
कौन हैं मधेशी नेपाल की कुल आबादी का करीब 40 प्रतिशत तराई क्षेत्र है. इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मधेशी कहा जाता है. जिसका मतलब है मध्यक्षेत्र में रहने वाले लोग. ये मधेशी मुख्यत: भारतीय मूल के हैं, जो सैंकड़ों साल पहले रोजीरोटी की तलाश में यहां आकर बस गये. नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने से इनके ऊपर सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है. क्योंकि माओवादी मधेशियों को नेपाल से भगाना चाहते हैं!

चाल चलने में लगा चीन

नीरज नैयर
अभी हाल ही में खबर सुनने में आई थी कि चीन ने दो भारतीय चौकियों को ध्वस्त कर दिया. चीनी सैनिको ने जो चौकियां धवस्त की वो तोरशानाला के पास ट्राइजक्क्षन क्षेत्र में थीं. जहां भारत-भूटान और चीन की सीमाएं जुड़ती हैं. चीन इसे अपना बताता रहता है और भारत-भूटान अपना. भूटान और भारत की सहमति से इस क्षेत्र की निगरानी भारतीय सेना करती रही है. इसकी वजह यह है कि यह इलाका पूर्वी भारत में प्रवेश के मुहाने पर है. इसलिए भारत के लिए सामरिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है. हालांकि हमारे रक्षामंत्री कह रहे हैं कि सीमा पर शांति है. शायद वह चीन से किसी बड़े धमाके की उम्मीद पाले हुए हैं. जबकि हकीकत यह है कि चीन धीरे-धीरे अपनी चाल चलने में लगा है. हम भले ही चीन से संबंध सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें करें पर सच्चाई यह है कि अब भी ऐसे अनेक मसले हैं जिन पर चीन सीधे मुंह बात तक करने का तैयार नहीं है. चीन के साथ युद्ध को भले ही 45 साल गुजर चुके हैं पर शायद भारत हार को अब तक नहीं भूला पाया है. तभी तो चीन के बंकरण ध्वस्त करने की खबर पर कदम उठाने के बजाय सरकार पर्दा डालने पर तुली है. दुनिया में केवल चीन ही एक मात्र ऐसा देश है जो सीमा विस्तार के जरिए कई देशों की सिहरन बढ़ा रहा है. भूटान के एक बड़े भाग पर कब्जा कर चुके चीन ने दो सालों के दरम्यान लगभग 300 बार भारतीय क्षेत्र पर कब्जे का प्रयास किया है. अरुणाचल प्रदेश में तो चीनी घुसपैठ की खबर आम हो चली है, अब सिक्किम की राजधानी गंगटोक से भी ऐसी खबरें आ रही हैं. चीन अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किलोमीटर और भारत-चीन सीमा के 200 वर्ग किमी क्षेत्र पर अपना दावा बताता रहा है. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर के 38 हजार वर्ग किमी क्षेत्र पर उसका कब्जा है. पाकिस्तान ने भी 5180 वर्ग किमी पाक अधिकृत क्षेत्र के भारतीय हिस्सों को चीन को सौंप दिया है. वैसे 1962 के बाद चीन ने सीधे तौर पर तो हमें कभी आंख नहीं दिखाई मगर कभी चैन से बैठने भी नहीं दिया. पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों को संसाधन उपलब्ध कराकर वह हमेशा हमारी आंख में किरकिरी बना रहा है. चीन बढ़ी तेजी से घेरा कसने में लगा है. ल्हासा तथा अन्य क्षेत्रों में चार एयरपोर्ट, सड़कों का जाल तथा रेल नेटवर्क विकसित कर चुका है. जबकि भारतीय सेना को एक पहाड़ी चौकी से दूसरी चौकी पर जाने के लिए अब भी 60 से 80 किमी तक दूरी तय करनी पड़ती है. इतना ही नहीं सिक्किम से लगी सीमा के अंतिम छोर तक पहुंचने के लिह हमारे केवल पास एक ही राजमार्ग है. चीन न सिर्फ जमीनी तौर पर हमारे लिए खतरा है बल्कि समुद्र के रास्ते भी हमें घेरने की कोशिश में लगा है. पाकिस्तान के लिए ग्वाहर में सी पोर्ट विकसित कर दिया है. वहीं सिंगापुर के सेतुवे, श्रीलंका के हंबन टोटा, बांग्लादेश के चटगांव में ऐसा करने की योजना पर काम कर रहा है. उसके पास परमाणु ईंधन से चलने वाली पंडुब्बियां हैं, जो समुद्र में न सिर्फ लंबे समय तक बल्कि गहराई तक जा सकती हैं. भारतीय नौसेना का बड़ा हिस्सा पाक के मुकाबले के लिए मोर्च पर है. ऐसे में चीन का तेजी से अपनी ताकत में इजाफा करना निश्चित ही चिंता का विषय है. चीन महज रक्षा समीकरण के लिहाज से ही नहीं बल्कि भौगोलिक दृष्टि में भी हमेशा कई गुना ज्यादा फायदे में है. वह तिब्बत से हम पर हमला कर सकता है, वैसे स्थिति में केवल 500 मीटर की दूरी होगी और बीजिंग दिल्ली के दरवाजे खटखटा रहा होगा. वह 1000 किमी. रेंज वाली अपनी मिसाइल से उत्तर भारत के किसी भी बड़े शहर को निशाना बना सकता है. जबकि भारत के को ऐसा भौगोलिक लाभ नहीं मिल सकता. कुटनीति के जानकार भी मानते हैं कि चीन की कोशिश हमेशा भारत को दबाने की रही है. और इसके लिए वह पाकिस्तान का सहारा लेता रहा है. खुफिया एजेंसी रॉ के शीर्ष अधिकारी भी स्वीकारते रहे हैं कि चीन का पाकिस्तान को आंख मूदकर सामरिक साझीदार बनाने का कदम चौंकाने वाला है. उसे उद्धपोत, मिसाइल, हथियार और जियान-10 जैसे एयरक्राफ्ट देना उसकी मंशा पर शक करने के लिए काफी है. वैसे चीन का यह रुख कोई नया नहीं है. वह शुरू से ही भारत विरोधी मुहिम की अगुवाई करता रहा है. उसने भारत के परमाणु परिक्षण की दिल खोलकर आलोचना की मगर चुपके से पाकिस्तान को यह तकनीक उपलब्ध करा दी. उसने सुरक्षा परिषद में हमारी दावेदारी का भी पुरजोर विरोध किया और अब भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर नाक-मुहं सिकोड़ रहा है. हालांकि एशिया में भारत के तेजी से बड़ते कद और अमेरिका से गहरी होती दोस्ती ने उसे कुछ हद तक चुप रहने को मजबूर जरूर कर दिया है. लेकिन फिर भी अंदर ही अंदर वो हमारी जड़े खोदने में लगा हुआ है. हालांकि वह 1962 जैसा व्यवहार दोहराने की हिमाकत कतई नहीं करेगा मगर फिर भी उसकी छोटी-छोटी चालों को नजरअंदाज करके यूं खामोश बैठना समझदारी नहीं.तिब्बत-भारत और चीन चीन के कब्जे से पहले तिब्बत स्वतंत्र था. 25 लाख वर्ग किलोमीटर वाला यह देश चीन तथा भारत के मध्य बसा एशिया के बीचों-बीच स्थित है. तिब्बत और भारत संबंध बड़े धनिष्ट रहे थे. विशेषकर 7 वीं शताब्दी से जब भारत से बौद्ध धर्म का तिब्बत में आगमन हुआ था. जब तिब्बत स्वतंत्र था तो तिब्बती सीमाओं पर भारत के केवल 1500 सैनिक रहते थे और अब अनुमान है कि भारत उन्हीं सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रतिदिन 55 से 65 करोड़ रुपए खर्च कर रहा है. 1950 के दौरान चीन ने तिब्बत के आंतरिक मामलों में दखल देना शुरू किया. चीन से लाखों की संख्या में चीनी तिब्बत में लाकर बसाए गये. जिससे तिब्बती अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएं और आगे जाकर तिब्बत चीन का अभिन्न अंग बन जाए. 1959 में जब तिब्बती जनता ने चीनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया तो चीन ने उसे पूरी शक्ति से कुचल दिया. दलाईलामा को प्राणरक्षा के लिए भारत आना पड़ा. इसके बाद तिब्बत की सरकार भंग कर दी गई और वहां सीधे चीन का शासन लागू कर दिया गया.