नीरज नैयर
सचिन तेंदुलकर एक ऐसा नाम है जिसके साथ तारीफों से यादा आलोचनाएं जुड़ती रहीं। सचिन जैसे-जैसे सफलता के शिखर पर चढ़ते गए आलोचना करने वालों के मुंह और चौड़े होते गए। अभी हाल ही में जब इस लिटिल मास्टर ने टेस्ट मैचों में शतकों का पचासा पूरा किया तब भी आलोचना करने वालों के मुंह बंद नहीं हुए। इस बार भी तर्क वहीं पुराना था, सचिन महज रिकॉर्ड के लिए खेलते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि टीम इंडिया को दक्षिण अफ्रीका से पहले टेस्ट में पारी और 25 रनों से हार का सामना करना पड़ा। हालांकि टीम में 10 खिलाड़ी और भी थे, लेकिन उनके चलने न चलने पर किसी ने सवाल नहीं उठाया। वैसे सचिन पर सवाल उठाना उनकी विश्वसनीयता को और पुख्ता करता है। जिससे सबसे यादा उम्मीदें होती हैं, उसी से करिश्मे अपेक्षाएं की जाती हैं। मगर इसका ये मतलब नहीं होना चाहिए कि अपेक्षाओं के पूरा न होने की स्थिति में क्षमताओं पर ही संदेह प्रकट किया जाए। सचिन तेंदुलकर के हजारों-करोड़ों प्रशंसकों के साथ ऐसे लोगों की जमात भी कम नहीं है जो हर पल सवाल उठाते हैं कि सचिन अहम मौकों पर क्यों असफल हो जाते हैं। दरअसल सचिन आम इंसान न रहकर लोगों के लिए रन बनाने की मशीन बन गए हैं, और जब इस मशीन के बल्ले से रन नहीं निकलते तो आलोचनाओं का दौर शुरू हो जाता है। हालांकि आलोचना करने वालों के पास अपनी बातों को सही साबित करने का कोई ठोस आधार नहीं है।
चंद मौकों को छोड़ दिया जाए तो क्रिकेट की दुनिया ये भगवान हर मोड़ पर अपनी श्रेष्ठता सिध्द करता आया है। जो लोग ये बोलते हैं कि सचिन अहम मुकाबलों में कोई कमाल नहीं कर पाते, वो शायद इतिहास से अंजान है या फिर जानबूझ कर अंजान बने बैठे हैं। 1990-91 का एशिया कप, 1994-95 की विल्स वर्ल्ड सीरिज, 1997-1998 का कोका कोला कप, सिंगर-अकाई कप, इंडिपेंडस कप, 1998-99 की चैम्पियन्स ट्रॉफी, 2007-08 में खेली गई सीबी ट्राई सीरिज, कॉम्पैक कप और टाइटन कप के फाइनल में सचिन के शानदार प्रदर्शन को कैसे भूला जा सकता है। कोका कोला कप में तेंदुलकर ने 131 गेंदों में 134 रनों की पारी खेली थी, ऐसे ही अकाई कप में 128, चैम्पियंस ट्रॉफी में 121, सीबी ट्राई सीरिज में 117, कॉम्पैक कप में 138, इंडिपेंडस कप में 95, टाइटप कप में 67, विल्स सीरिज में 66 रन और एशिया कप के फाइनल में 70 गेंदों में 53 रन बनाए थे। कुछ ऐसे ही 1998 में खेले गए मिनी वर्ल्ड कप के क्वार्टर फाइनल में सचिन ने ऑस्ट्रेलिया के विरुध्द 141 रन और पांच विकेट लेकर टीम को जीत दिलाई थी। क्रिकेट देखने वाले हर शख्स को धूल भरी आंधी के बीच शारजहां कप का वो मैच जरूर याद होगा जिसमें तेंदुलकर ने 131 गेंदों में 141 रनों की तूफानी पारी खेलकर अपने बूते भारत को फाइनल में पहुंचाया।
इस मैच का सबसे अफसोसजनक हिस्सा था सचिन का आऊट होना, अफसोसजनक इसलिए क्योंकि लिटिल मास्टर के पवेलियन लौटने के बाद टीम के बाकी खिलाड़ी जीत के लिए चंद रन भी नहीं जुटा सके। इस मैच में सचिन को गिलक्रिस्ट ने विकेटों के पीछे लपका, लेकिन उन्होंने खुद ने इसकी अपील नहीं की और न ही अंपायर ने उन्हें आऊट दिया फिर भी खेल भावना का परिचय देते हुए सचिन स्वयं चले गए। यहां गौर करने वाली बात ये है कि अगर वो महज रिकॉर्ड के लिए खेलते तो क्या ऐसा कर पाते, जबकि वो 150 से महज 9 कदम दूर थे। 1999 में पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट मैच में सचिन ने कमर पर बर्फ का बैग लागाकर और दवाईयां खाकर मोर्चा संभाला, लेकिन जब वो आऊट हुए तो उनकी जमकर आलोचना की गई। क्योंकि हमारे दूसरे खिलाड़ी बचे हुए 16 रन भी नहीं बना सके। इसी तरह 2007 में वेस्टइंडीज के साथ मैच में 85 पर होने के बाद भी सचिन धोनी को स्ट्राइक देते रहे और आखिरी गेंद पर अपना शतक पूरा किया। क्या इतने सब के बाद भी कहा जा सकता है कि सचिन अहम मौकों पर असफल रहे या वो टीम के बजाए महज अपने रिकॉर्ड बनाने के लिए खेले। किसी गलती पर आलोचना करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हर बात पर आलोचना एक तरह की बीमारी है। और भारत जहां क्रिकेट को धर्म के रूप में देखा जाता है, इस बीमारी से पीड़ितों की कोई कमी नहीं है। सचिन को अगर क्रिकेट का भगवान कहा जाता है तो इसके पीछे सिर्फ उनके रिकॉर्ड ही नहीं मैदान के अंदर और बाहर सौम्य, विनम्र एवं मृदुभाषी व्यक्ति की छवि भी है।
एक बात जो हर इंसान को उनसे सीखने की जरूरत है वो ये कि सचिन चुनौती और आलोचनाओं का जवाब मुंह से नहीं बल्कि अपने बल्ले से देना पसंद करते है। उनके प्रदर्शन के आगे कोई भी आलोचना यादा देर तक नहीं टिक सकती। बीच में एक वक्त ऐसा भी आया जब अलोचकों ने उन्हें क्रिकेट से सन्यास लेने तक का मशवरा दे डाला, लेकिन सचिन ने बिना बोले इन सबका का जवाब बेहतरीन अंजाद में दिया। सचिन में एक अजीब सी जीवटता है जो उन्हें दूसरों के अलग बनाती है, और शायद उनकी सफलता की वजह है। सचिन आज भी जब क्रीज पर उतरते हैं तो उनके लिए व्यक्तिगत रिकॉर्ड से यादा तिरंगे की शान बनाए रखना यादा मायने रखता है। वो सचिन तेंदुलकर ही थे जिन्होंने अपने व्यक्तिगत दर्द को दरकिनार करते हुए पिछले विश्व कप में भारत की झोली में कई जीतें डाली। अगर सचिन महज अपने लिए खेलते तो पितृशोक की खबर सुनने के बाद विश्व कप छोड़कर भारत लौट आते। मुझे और मेरे जैसे बहुत से लोगों को सचिन और उनका खेल पसंद है, लेकिन इसे अंधभक्ति नहीं कहा जा सकता। सचिन आज जिस मुकाम पर हैं वो उन्होंने खुद ही हासिल किया है, उन्हें यदि क्रिकेट का भगवान कहा जाता है तो वो जगह उन्होंने कई साल मैदान पर पसीना बहाकर कमाई है। क्रिकेट की दुनिया में भारत ने जो ऊंचाईयां छुई हैं उनमें सचिन का योगदान सबसे यादा है। सचिन रमेश तेंदुलकर की आलोचना करने वाले आखिर कैसे इन तथ्यों को नजरअंदाज कर सकते हैं, कैसे।
Sunday, December 26, 2010
Tuesday, December 14, 2010
जांच क्या कि हंगामा हो गया
नीजर नैयर
अमेरिकी हवाई अड्डे पर भारतीय राजदूत मीरा शंकर की तलाशी क्या हुई दिल्ली में बैठे राजनीतिक दलों को हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया। भाजपा ने तो लगे हाथ रैली भी निकाल डाली। सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर भी सरकार को घेर रही हैं, जैसे सरकार ने खुद अमेरिकी अधिकारियों से कहा हो कि मीरा की तलाशी ली जाए। हां, वो इस बात पर जरूर सरकार को घेर सकती हैं कि केंद्र सरकार अमेरिका से किस लहजे में नाराजगी व्यक्त करती है। वैसे प्रकरण के सामने आने के तुरंत बाद विदेशमंत्रालय ने थोड़ी बहुत गर्जना जरूर की, और इसका त्वरित असर भी देखने को मिला। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वयं खेद व्यक्त करते हुए भरोसा दिलाया कि इस घटना की पुर्नवृत्ति नहीं होगी। हालांकि, अमेरिका ने ये भी साफ किया कि जो कुछ भी हुआ वो कानून के मुताबिक हुआ। अमेरिका के ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी असोसिएशन (टीएसए)के तहत राजनयिकों को तलाशी में छूट नहीं दी जाती। दरअसल मीरा शंकर ने भारतीय पारंपरिक परिधान यानी साड़ी पहनी हुई थी, और टीएसए के मुताबिक तलाशी के कारणों में ढेर सारे कपड़े पहनना भी शामिल है। अब ऐसे देखा जाए तो साड़ी और बुर्के में फर्क केवल इतना ही है कि एक में चेहरा दिखता है और दूसरे में नहीं। मीरा शंकर के साथ जो गलत हुआ वो ये कि राजनयिक जैसे ओदे पर होने के बाद भी पारदर्शी बाक्स में ले जाकर उनकी हाथों से तलाशी ली गई। जबकि एयरपोर्ट अधिकारियों को दिए दिशा-निर्देशों में यह साफ किया गया है कि यदि कोई यात्री सबके सामने तलाशी नहीं देना चाहता तो उसकी जांच गोपनीय तौर पर होनी चाहिए। मीरा कुमार के साथ दूसरे कुछ अधिकारी भी, लेकिन उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं, जब अमेरिका में उच्च दर्जा प्राप्त भारतीयों को इस तरह की जांच से गुजरना पड़ा हो। पिछले साल बॉलिवुड स्टार शाहरुख खान को न्यूयार्क के लिबर्टी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सिर्फ इसलिए रोककर पूछताछ की गई, क्योंकि उनके नाम के आगे खान जुड़ा था। इसी साल नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल से शिकागो के ओ हेयर अड्डे पर पूछताछ की गई।
इस पूछताछ की वजह इतनी थी उनका नाम और जन्मतिथि उस शख्स से मेल खा रही थी, जो अमेरिका की वॉच लिस्ट में था। इससे पीछे चलें तो राजग सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडीस को भी अमेरिकी एयरपोर्ट पर तलाशी से गुजरना पड़ा था, और जैसा मुझे याद है उनके तो कपड़े उतरवाकर तलाशी ली गई थी। वो घटना निश्चित तौर पर अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी, एक रक्षामंत्री के साथ इस तरह का व्यावहार करना कहीं से उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके बाद की जो घटनाएं हैं, उन पर इतना हो-हल्ला मचाना बिल्कुल ही जायज नहीं लगता। शाहरुख खान को बेशक भारत में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाता हो, उन्हेंसुरक्षा जांच जैसे झंझटों से मुक्त रखा जाता हो मगर दूसरे मुल्कों से तो ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो भी वैसे ट्रीटमेंट दें। बॉलीवुड स्टार के लिए अमेरिका अपने सुरक्षा नियमों में तो बदलाव नहीं कर सकता। 911 के बाद अमेरिकी बहुत यादा सतर्क हो गए हैं, इसमें कोई दोराय नहीं कि इस सतर्कता से अमेरिकी आवाम को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उस एक आतंकी हमले के बाद दहशतगर्द अमेरिका की तरफ आंख उठाने तक ही हिमाकत नहीं कर पाए हैं। अमेरिका पर हमला करने वाले अल कायदा के आतंकवादी थे, जो मूलरूप से मुसलमान थे। इसलिए अगर किसी नाम के आगे खान जुड़ा देखकर वो अति सतर्क हो जाते हैं तो इस पर बवाल मचाने वाली क्या बात है। शाहरुख खान यदि इस घटना को सामान्य तौर पर लेते तो इतना हंगामा मचता ही नहीं। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल की बात करें तो, वो गलतफहमी का शिकार हुए। अगर उनका नाम और जन्मतिथी किसी वांछित अपराधी से मेल खाता है और जांच अधिकारियों ने उनसे कुछ सवालात पूछ लिए तो मुझे नहीं लगता कि इसमें अपमान जैसी कोई बात है। उल्टा हमें इससे सीख लेना चाहिए कि अमेरिकी अधिकारी सुरक्षा के मुद्दे पर रुतबे के दबाव में नहीं आते। अब सवाल करने वाले पूछ सकते हैं कि क्या अमेरिकी नेताओं के साथ भी होता होगा, इसका जवाब काफी हद तक हां में है। अमेरिका में जिन लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली है उनकी फेहरिस्त हमारी तरह इतनी लंबी नहीं है। हमारे यहां तो एक अदना सा नेता भी रुबाब झाड़ने से पीछे नहीं हटता।
दूसरी बात अपने देश के नेताओं को सब पहचानते हैं, अगर अमेरिकी अधिकारी अपने अफसरान को कुछ रियायत देते भी हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कायदे में होना यही चाहिए कि जब आम आदमी को सुरक्षा के झंझावत से गुजरना पड़ता है तो वीवीआई भी इंसान ही हैं। और वैसे भी सुरक्षा नियम सबको सुरक्षित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। भारतीयों में समस्या ये है कि ऊंचे पद पर पहुंचने के साथ ही उनका अहम ऊंचा उठने लगता है। भारत में उन्हें सुविधाएं मिलती हैं उनके वो आदी हो जाते हैं और जब उनसे आम इंसान की तरह व्यवहार किया जाता है तो उनके अहम को चोट लग जाती है। बड़क्पपन जैसी कोई चीज हमारे अंदर बची ही नहीं है, हमारे नेताओं को अभिनेताओं को कम से कम इस मामले में तो अमेरिकियों का कायल होना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे पहले है। इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का कोई जवाब नहीं, गत साल इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अमेरिका की काँटिनेंटल एयरलाइंस के अधिकारियों ने कलाम साहब को जहाज में सवार होने से पहले पूरी सुरक्षा जांच से गुजारा। जबकि प्रोटोकाल के तहत भारत में उन्हें इस तरह की जांच से छूट मिली हुई है। इसके पीछे एयरलाइंस का तर्क था कि उन्हें आदेश हैं कि किसी को भी बिना तलाशी के सवार न होने दिया जाए।
इस तलाशी को लेकर एयरपोर्ट से संसद तक बहुत बवाल मचा, कई सांसदों ने तो उस एयरलाइंस का लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर डाली। लेकिन कलाम साहब ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया। यह घटना 24 अप्रैल की थी, जबकि इसका खुलासा जुलाई में हुआ और वो किसी तीसरे ने इस पर प्रकाश डाला कलाम साहब ने नहीं। अफसोस की बात है कि हमारे नेता पूर्व राष्ट्रपति तक से प्रेरण नहीं ले सके। मीरा शंकर की जगह अगर अब्दुल कलाम होते तो गुस्से में ये नहीं बोलते कि अब यहां नहीं आएंगे। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन किसी दूसरे के अच्छे गुणों को तो ग्रहण किया ही जा सकता है। मीरा शंकर के मामले में जो गलत है केवल उसी पर विरोध जताया जाना चाहिए। सुरक्षा जांच से गुजरने में कोई बडा व्यक्ति छोटा नहीं हो जाता। सच कहा जाए तो हम भारतीयों को हर छोटी बात को खींचकर बड़ा करने की बीमारी है, फिर चाहे वही उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हो या आम आदमी। जब तक हम जरूरी और गैर जरूरी में फर्क करना नहीं सीख लेते इस तरह की घटनाओं पर हो-हल्ला करते रहेंगे।
ण ण
अमेरिकी हवाई अड्डे पर भारतीय राजदूत मीरा शंकर की तलाशी क्या हुई दिल्ली में बैठे राजनीतिक दलों को हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया। भाजपा ने तो लगे हाथ रैली भी निकाल डाली। सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर भी सरकार को घेर रही हैं, जैसे सरकार ने खुद अमेरिकी अधिकारियों से कहा हो कि मीरा की तलाशी ली जाए। हां, वो इस बात पर जरूर सरकार को घेर सकती हैं कि केंद्र सरकार अमेरिका से किस लहजे में नाराजगी व्यक्त करती है। वैसे प्रकरण के सामने आने के तुरंत बाद विदेशमंत्रालय ने थोड़ी बहुत गर्जना जरूर की, और इसका त्वरित असर भी देखने को मिला। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वयं खेद व्यक्त करते हुए भरोसा दिलाया कि इस घटना की पुर्नवृत्ति नहीं होगी। हालांकि, अमेरिका ने ये भी साफ किया कि जो कुछ भी हुआ वो कानून के मुताबिक हुआ। अमेरिका के ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी असोसिएशन (टीएसए)के तहत राजनयिकों को तलाशी में छूट नहीं दी जाती। दरअसल मीरा शंकर ने भारतीय पारंपरिक परिधान यानी साड़ी पहनी हुई थी, और टीएसए के मुताबिक तलाशी के कारणों में ढेर सारे कपड़े पहनना भी शामिल है। अब ऐसे देखा जाए तो साड़ी और बुर्के में फर्क केवल इतना ही है कि एक में चेहरा दिखता है और दूसरे में नहीं। मीरा शंकर के साथ जो गलत हुआ वो ये कि राजनयिक जैसे ओदे पर होने के बाद भी पारदर्शी बाक्स में ले जाकर उनकी हाथों से तलाशी ली गई। जबकि एयरपोर्ट अधिकारियों को दिए दिशा-निर्देशों में यह साफ किया गया है कि यदि कोई यात्री सबके सामने तलाशी नहीं देना चाहता तो उसकी जांच गोपनीय तौर पर होनी चाहिए। मीरा कुमार के साथ दूसरे कुछ अधिकारी भी, लेकिन उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं, जब अमेरिका में उच्च दर्जा प्राप्त भारतीयों को इस तरह की जांच से गुजरना पड़ा हो। पिछले साल बॉलिवुड स्टार शाहरुख खान को न्यूयार्क के लिबर्टी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सिर्फ इसलिए रोककर पूछताछ की गई, क्योंकि उनके नाम के आगे खान जुड़ा था। इसी साल नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल से शिकागो के ओ हेयर अड्डे पर पूछताछ की गई।
इस पूछताछ की वजह इतनी थी उनका नाम और जन्मतिथि उस शख्स से मेल खा रही थी, जो अमेरिका की वॉच लिस्ट में था। इससे पीछे चलें तो राजग सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडीस को भी अमेरिकी एयरपोर्ट पर तलाशी से गुजरना पड़ा था, और जैसा मुझे याद है उनके तो कपड़े उतरवाकर तलाशी ली गई थी। वो घटना निश्चित तौर पर अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी, एक रक्षामंत्री के साथ इस तरह का व्यावहार करना कहीं से उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके बाद की जो घटनाएं हैं, उन पर इतना हो-हल्ला मचाना बिल्कुल ही जायज नहीं लगता। शाहरुख खान को बेशक भारत में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाता हो, उन्हेंसुरक्षा जांच जैसे झंझटों से मुक्त रखा जाता हो मगर दूसरे मुल्कों से तो ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो भी वैसे ट्रीटमेंट दें। बॉलीवुड स्टार के लिए अमेरिका अपने सुरक्षा नियमों में तो बदलाव नहीं कर सकता। 911 के बाद अमेरिकी बहुत यादा सतर्क हो गए हैं, इसमें कोई दोराय नहीं कि इस सतर्कता से अमेरिकी आवाम को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उस एक आतंकी हमले के बाद दहशतगर्द अमेरिका की तरफ आंख उठाने तक ही हिमाकत नहीं कर पाए हैं। अमेरिका पर हमला करने वाले अल कायदा के आतंकवादी थे, जो मूलरूप से मुसलमान थे। इसलिए अगर किसी नाम के आगे खान जुड़ा देखकर वो अति सतर्क हो जाते हैं तो इस पर बवाल मचाने वाली क्या बात है। शाहरुख खान यदि इस घटना को सामान्य तौर पर लेते तो इतना हंगामा मचता ही नहीं। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल की बात करें तो, वो गलतफहमी का शिकार हुए। अगर उनका नाम और जन्मतिथी किसी वांछित अपराधी से मेल खाता है और जांच अधिकारियों ने उनसे कुछ सवालात पूछ लिए तो मुझे नहीं लगता कि इसमें अपमान जैसी कोई बात है। उल्टा हमें इससे सीख लेना चाहिए कि अमेरिकी अधिकारी सुरक्षा के मुद्दे पर रुतबे के दबाव में नहीं आते। अब सवाल करने वाले पूछ सकते हैं कि क्या अमेरिकी नेताओं के साथ भी होता होगा, इसका जवाब काफी हद तक हां में है। अमेरिका में जिन लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली है उनकी फेहरिस्त हमारी तरह इतनी लंबी नहीं है। हमारे यहां तो एक अदना सा नेता भी रुबाब झाड़ने से पीछे नहीं हटता।
दूसरी बात अपने देश के नेताओं को सब पहचानते हैं, अगर अमेरिकी अधिकारी अपने अफसरान को कुछ रियायत देते भी हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कायदे में होना यही चाहिए कि जब आम आदमी को सुरक्षा के झंझावत से गुजरना पड़ता है तो वीवीआई भी इंसान ही हैं। और वैसे भी सुरक्षा नियम सबको सुरक्षित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। भारतीयों में समस्या ये है कि ऊंचे पद पर पहुंचने के साथ ही उनका अहम ऊंचा उठने लगता है। भारत में उन्हें सुविधाएं मिलती हैं उनके वो आदी हो जाते हैं और जब उनसे आम इंसान की तरह व्यवहार किया जाता है तो उनके अहम को चोट लग जाती है। बड़क्पपन जैसी कोई चीज हमारे अंदर बची ही नहीं है, हमारे नेताओं को अभिनेताओं को कम से कम इस मामले में तो अमेरिकियों का कायल होना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे पहले है। इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का कोई जवाब नहीं, गत साल इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अमेरिका की काँटिनेंटल एयरलाइंस के अधिकारियों ने कलाम साहब को जहाज में सवार होने से पहले पूरी सुरक्षा जांच से गुजारा। जबकि प्रोटोकाल के तहत भारत में उन्हें इस तरह की जांच से छूट मिली हुई है। इसके पीछे एयरलाइंस का तर्क था कि उन्हें आदेश हैं कि किसी को भी बिना तलाशी के सवार न होने दिया जाए।
इस तलाशी को लेकर एयरपोर्ट से संसद तक बहुत बवाल मचा, कई सांसदों ने तो उस एयरलाइंस का लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर डाली। लेकिन कलाम साहब ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया। यह घटना 24 अप्रैल की थी, जबकि इसका खुलासा जुलाई में हुआ और वो किसी तीसरे ने इस पर प्रकाश डाला कलाम साहब ने नहीं। अफसोस की बात है कि हमारे नेता पूर्व राष्ट्रपति तक से प्रेरण नहीं ले सके। मीरा शंकर की जगह अगर अब्दुल कलाम होते तो गुस्से में ये नहीं बोलते कि अब यहां नहीं आएंगे। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन किसी दूसरे के अच्छे गुणों को तो ग्रहण किया ही जा सकता है। मीरा शंकर के मामले में जो गलत है केवल उसी पर विरोध जताया जाना चाहिए। सुरक्षा जांच से गुजरने में कोई बडा व्यक्ति छोटा नहीं हो जाता। सच कहा जाए तो हम भारतीयों को हर छोटी बात को खींचकर बड़ा करने की बीमारी है, फिर चाहे वही उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हो या आम आदमी। जब तक हम जरूरी और गैर जरूरी में फर्क करना नहीं सीख लेते इस तरह की घटनाओं पर हो-हल्ला करते रहेंगे।
ण ण
जांच क्या कि हंगामा हो गया
नीजर नैयर
अमेरिकी हवाई अड्डे पर भारतीय राजदूत मीरा शंकर की तलाशी क्या हुई दिल्ली में बैठे राजनीतिक दलों को हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया। भाजपा ने तो लगे हाथ रैली भी निकाल डाली। सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर भी सरकार को घेर रही हैं, जैसे सरकार ने खुद अमेरिकी अधिकारियों से कहा हो कि मीरा की तलाशी ली जाए। हां, वो इस बात पर जरूर सरकार को घेर सकती हैं कि केंद्र सरकार अमेरिका से किस लहजे में नाराजगी व्यक्त करती है। वैसे प्रकरण के सामने आने के तुरंत बाद विदेशमंत्रालय ने थोड़ी बहुत गर्जना जरूर की, और इसका त्वरित असर भी देखने को मिला। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वयं खेद व्यक्त करते हुए भरोसा दिलाया कि इस घटना की पुर्नवृत्ति नहीं होगी। हालांकि, अमेरिका ने ये भी साफ किया कि जो कुछ भी हुआ वो कानून के मुताबिक हुआ। अमेरिका के ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी असोसिएशन (टीएसए)के तहत राजनयिकों को तलाशी में छूट नहीं दी जाती। दरअसल मीरा शंकर ने भारतीय पारंपरिक परिधान यानी साड़ी पहनी हुई थी, और टीएसए के मुताबिक तलाशी के कारणों में ढेर सारे कपड़े पहनना भी शामिल है। अब ऐसे देखा जाए तो साड़ी और बुर्के में फर्क केवल इतना ही है कि एक में चेहरा दिखता है और दूसरे में नहीं। मीरा शंकर के साथ जो गलत हुआ वो ये कि राजनयिक जैसे ओदे पर होने के बाद भी पारदर्शी बाक्स में ले जाकर उनकी हाथों से तलाशी ली गई। जबकि एयरपोर्ट अधिकारियों को दिए दिशा-निर्देशों में यह साफ किया गया है कि यदि कोई यात्री सबके सामने तलाशी नहीं देना चाहता तो उसकी जांच गोपनीय तौर पर होनी चाहिए। मीरा कुमार के साथ दूसरे कुछ अधिकारी भी, लेकिन उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं, जब अमेरिका में उच्च दर्जा प्राप्त भारतीयों को इस तरह की जांच से गुजरना पड़ा हो। पिछले साल बॉलिवुड स्टार शाहरुख खान को न्यूयार्क के लिबर्टी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सिर्फ इसलिए रोककर पूछताछ की गई, क्योंकि उनके नाम के आगे खान जुड़ा था। इसी साल नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल से शिकागो के ओ हेयर अड्डे पर पूछताछ की गई।
इस पूछताछ की वजह इतनी थी उनका नाम और जन्मतिथि उस शख्स से मेल खा रही थी, जो अमेरिका की वॉच लिस्ट में था। इससे पीछे चलें तो राजग सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडीस को भी अमेरिकी एयरपोर्ट पर तलाशी से गुजरना पड़ा था, और जैसा मुझे याद है उनके तो कपड़े उतरवाकर तलाशी ली गई थी। वो घटना निश्चित तौर पर अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी, एक रक्षामंत्री के साथ इस तरह का व्यावहार करना कहीं से उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके बाद की जो घटनाएं हैं, उन पर इतना हो-हल्ला मचाना बिल्कुल ही जायज नहीं लगता। शाहरुख खान को बेशक भारत में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाता हो, उन्हेंसुरक्षा जांच जैसे झंझटों से मुक्त रखा जाता हो मगर दूसरे मुल्कों से तो ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो भी वैसे ट्रीटमेंट दें। बॉलीवुड स्टार के लिए अमेरिका अपने सुरक्षा नियमों में तो बदलाव नहीं कर सकता। 911 के बाद अमेरिकी बहुत यादा सतर्क हो गए हैं, इसमें कोई दोराय नहीं कि इस सतर्कता से अमेरिकी आवाम को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उस एक आतंकी हमले के बाद दहशतगर्द अमेरिका की तरफ आंख उठाने तक ही हिमाकत नहीं कर पाए हैं। अमेरिका पर हमला करने वाले अल कायदा के आतंकवादी थे, जो मूलरूप से मुसलमान थे। इसलिए अगर किसी नाम के आगे खान जुड़ा देखकर वो अति सतर्क हो जाते हैं तो इस पर बवाल मचाने वाली क्या बात है। शाहरुख खान यदि इस घटना को सामान्य तौर पर लेते तो इतना हंगामा मचता ही नहीं। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल की बात करें तो, वो गलतफहमी का शिकार हुए। अगर उनका नाम और जन्मतिथी किसी वांछित अपराधी से मेल खाता है और जांच अधिकारियों ने उनसे कुछ सवालात पूछ लिए तो मुझे नहीं लगता कि इसमें अपमान जैसी कोई बात है। उल्टा हमें इससे सीख लेना चाहिए कि अमेरिकी अधिकारी सुरक्षा के मुद्दे पर रुतबे के दबाव में नहीं आते। अब सवाल करने वाले पूछ सकते हैं कि क्या अमेरिकी नेताओं के साथ भी होता होगा, इसका जवाब काफी हद तक हां में है। अमेरिका में जिन लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली है उनकी फेहरिस्त हमारी तरह इतनी लंबी नहीं है। हमारे यहां तो एक अदना सा नेता भी रुबाब झाड़ने से पीछे नहीं हटता।
दूसरी बात अपने देश के नेताओं को सब पहचानते हैं, अगर अमेरिकी अधिकारी अपने अफसरान को कुछ रियायत देते भी हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कायदे में होना यही चाहिए कि जब आम आदमी को सुरक्षा के झंझावत से गुजरना पड़ता है तो वीवीआई भी इंसान ही हैं। और वैसे भी सुरक्षा नियम सबको सुरक्षित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। भारतीयों में समस्या ये है कि ऊंचे पद पर पहुंचने के साथ ही उनका अहम ऊंचा उठने लगता है। भारत में उन्हें सुविधाएं मिलती हैं उनके वो आदी हो जाते हैं और जब उनसे आम इंसान की तरह व्यवहार किया जाता है तो उनके अहम को चोट लग जाती है। बड़क्पपन जैसी कोई चीज हमारे अंदर बची ही नहीं है, हमारे नेताओं को अभिनेताओं को कम से कम इस मामले में तो अमेरिकियों का कायल होना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे पहले है। इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का कोई जवाब नहीं, गत साल इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अमेरिका की काँटिनेंटल एयरलाइंस के अधिकारियों ने कलाम साहब को जहाज में सवार होने से पहले पूरी सुरक्षा जांच से गुजारा। जबकि प्रोटोकाल के तहत भारत में उन्हें इस तरह की जांच से छूट मिली हुई है। इसके पीछे एयरलाइंस का तर्क था कि उन्हें आदेश हैं कि किसी को भी बिना तलाशी के सवार न होने दिया जाए।
इस तलाशी को लेकर एयरपोर्ट से संसद तक बहुत बवाल मचा, कई सांसदों ने तो उस एयरलाइंस का लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर डाली। लेकिन कलाम साहब ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया। यह घटना 24 अप्रैल की थी, जबकि इसका खुलासा जुलाई में हुआ और वो किसी तीसरे ने इस पर प्रकाश डाला कलाम साहब ने नहीं। अफसोस की बात है कि हमारे नेता पूर्व राष्ट्रपति तक से प्रेरण नहीं ले सके। मीरा शंकर की जगह अगर अब्दुल कलाम होते तो गुस्से में ये नहीं बोलते कि अब यहां नहीं आएंगे। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन किसी दूसरे के अच्छे गुणों को तो ग्रहण किया ही जा सकता है। मीरा शंकर के मामले में जो गलत है केवल उसी पर विरोध जताया जाना चाहिए। सुरक्षा जांच से गुजरने में कोई बडा व्यक्ति छोटा नहीं हो जाता। सच कहा जाए तो हम भारतीयों को हर छोटी बात को खींचकर बड़ा करने की बीमारी है, फिर चाहे वही उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हो या आम आदमी। जब तक हम जरूरी और गैर जरूरी में फर्क करना नहीं सीख लेते इस तरह की घटनाओं पर हो-हल्ला करते रहेंगे।
ण ण
अमेरिकी हवाई अड्डे पर भारतीय राजदूत मीरा शंकर की तलाशी क्या हुई दिल्ली में बैठे राजनीतिक दलों को हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया। भाजपा ने तो लगे हाथ रैली भी निकाल डाली। सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर भी सरकार को घेर रही हैं, जैसे सरकार ने खुद अमेरिकी अधिकारियों से कहा हो कि मीरा की तलाशी ली जाए। हां, वो इस बात पर जरूर सरकार को घेर सकती हैं कि केंद्र सरकार अमेरिका से किस लहजे में नाराजगी व्यक्त करती है। वैसे प्रकरण के सामने आने के तुरंत बाद विदेशमंत्रालय ने थोड़ी बहुत गर्जना जरूर की, और इसका त्वरित असर भी देखने को मिला। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वयं खेद व्यक्त करते हुए भरोसा दिलाया कि इस घटना की पुर्नवृत्ति नहीं होगी। हालांकि, अमेरिका ने ये भी साफ किया कि जो कुछ भी हुआ वो कानून के मुताबिक हुआ। अमेरिका के ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी असोसिएशन (टीएसए)के तहत राजनयिकों को तलाशी में छूट नहीं दी जाती। दरअसल मीरा शंकर ने भारतीय पारंपरिक परिधान यानी साड़ी पहनी हुई थी, और टीएसए के मुताबिक तलाशी के कारणों में ढेर सारे कपड़े पहनना भी शामिल है। अब ऐसे देखा जाए तो साड़ी और बुर्के में फर्क केवल इतना ही है कि एक में चेहरा दिखता है और दूसरे में नहीं। मीरा शंकर के साथ जो गलत हुआ वो ये कि राजनयिक जैसे ओदे पर होने के बाद भी पारदर्शी बाक्स में ले जाकर उनकी हाथों से तलाशी ली गई। जबकि एयरपोर्ट अधिकारियों को दिए दिशा-निर्देशों में यह साफ किया गया है कि यदि कोई यात्री सबके सामने तलाशी नहीं देना चाहता तो उसकी जांच गोपनीय तौर पर होनी चाहिए। मीरा कुमार के साथ दूसरे कुछ अधिकारी भी, लेकिन उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं, जब अमेरिका में उच्च दर्जा प्राप्त भारतीयों को इस तरह की जांच से गुजरना पड़ा हो। पिछले साल बॉलिवुड स्टार शाहरुख खान को न्यूयार्क के लिबर्टी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सिर्फ इसलिए रोककर पूछताछ की गई, क्योंकि उनके नाम के आगे खान जुड़ा था। इसी साल नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल से शिकागो के ओ हेयर अड्डे पर पूछताछ की गई।
इस पूछताछ की वजह इतनी थी उनका नाम और जन्मतिथि उस शख्स से मेल खा रही थी, जो अमेरिका की वॉच लिस्ट में था। इससे पीछे चलें तो राजग सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडीस को भी अमेरिकी एयरपोर्ट पर तलाशी से गुजरना पड़ा था, और जैसा मुझे याद है उनके तो कपड़े उतरवाकर तलाशी ली गई थी। वो घटना निश्चित तौर पर अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी, एक रक्षामंत्री के साथ इस तरह का व्यावहार करना कहीं से उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके बाद की जो घटनाएं हैं, उन पर इतना हो-हल्ला मचाना बिल्कुल ही जायज नहीं लगता। शाहरुख खान को बेशक भारत में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाता हो, उन्हेंसुरक्षा जांच जैसे झंझटों से मुक्त रखा जाता हो मगर दूसरे मुल्कों से तो ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो भी वैसे ट्रीटमेंट दें। बॉलीवुड स्टार के लिए अमेरिका अपने सुरक्षा नियमों में तो बदलाव नहीं कर सकता। 911 के बाद अमेरिकी बहुत यादा सतर्क हो गए हैं, इसमें कोई दोराय नहीं कि इस सतर्कता से अमेरिकी आवाम को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उस एक आतंकी हमले के बाद दहशतगर्द अमेरिका की तरफ आंख उठाने तक ही हिमाकत नहीं कर पाए हैं। अमेरिका पर हमला करने वाले अल कायदा के आतंकवादी थे, जो मूलरूप से मुसलमान थे। इसलिए अगर किसी नाम के आगे खान जुड़ा देखकर वो अति सतर्क हो जाते हैं तो इस पर बवाल मचाने वाली क्या बात है। शाहरुख खान यदि इस घटना को सामान्य तौर पर लेते तो इतना हंगामा मचता ही नहीं। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल की बात करें तो, वो गलतफहमी का शिकार हुए। अगर उनका नाम और जन्मतिथी किसी वांछित अपराधी से मेल खाता है और जांच अधिकारियों ने उनसे कुछ सवालात पूछ लिए तो मुझे नहीं लगता कि इसमें अपमान जैसी कोई बात है। उल्टा हमें इससे सीख लेना चाहिए कि अमेरिकी अधिकारी सुरक्षा के मुद्दे पर रुतबे के दबाव में नहीं आते। अब सवाल करने वाले पूछ सकते हैं कि क्या अमेरिकी नेताओं के साथ भी होता होगा, इसका जवाब काफी हद तक हां में है। अमेरिका में जिन लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली है उनकी फेहरिस्त हमारी तरह इतनी लंबी नहीं है। हमारे यहां तो एक अदना सा नेता भी रुबाब झाड़ने से पीछे नहीं हटता।
दूसरी बात अपने देश के नेताओं को सब पहचानते हैं, अगर अमेरिकी अधिकारी अपने अफसरान को कुछ रियायत देते भी हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कायदे में होना यही चाहिए कि जब आम आदमी को सुरक्षा के झंझावत से गुजरना पड़ता है तो वीवीआई भी इंसान ही हैं। और वैसे भी सुरक्षा नियम सबको सुरक्षित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। भारतीयों में समस्या ये है कि ऊंचे पद पर पहुंचने के साथ ही उनका अहम ऊंचा उठने लगता है। भारत में उन्हें सुविधाएं मिलती हैं उनके वो आदी हो जाते हैं और जब उनसे आम इंसान की तरह व्यवहार किया जाता है तो उनके अहम को चोट लग जाती है। बड़क्पपन जैसी कोई चीज हमारे अंदर बची ही नहीं है, हमारे नेताओं को अभिनेताओं को कम से कम इस मामले में तो अमेरिकियों का कायल होना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे पहले है। इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का कोई जवाब नहीं, गत साल इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अमेरिका की काँटिनेंटल एयरलाइंस के अधिकारियों ने कलाम साहब को जहाज में सवार होने से पहले पूरी सुरक्षा जांच से गुजारा। जबकि प्रोटोकाल के तहत भारत में उन्हें इस तरह की जांच से छूट मिली हुई है। इसके पीछे एयरलाइंस का तर्क था कि उन्हें आदेश हैं कि किसी को भी बिना तलाशी के सवार न होने दिया जाए।
इस तलाशी को लेकर एयरपोर्ट से संसद तक बहुत बवाल मचा, कई सांसदों ने तो उस एयरलाइंस का लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर डाली। लेकिन कलाम साहब ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया। यह घटना 24 अप्रैल की थी, जबकि इसका खुलासा जुलाई में हुआ और वो किसी तीसरे ने इस पर प्रकाश डाला कलाम साहब ने नहीं। अफसोस की बात है कि हमारे नेता पूर्व राष्ट्रपति तक से प्रेरण नहीं ले सके। मीरा शंकर की जगह अगर अब्दुल कलाम होते तो गुस्से में ये नहीं बोलते कि अब यहां नहीं आएंगे। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन किसी दूसरे के अच्छे गुणों को तो ग्रहण किया ही जा सकता है। मीरा शंकर के मामले में जो गलत है केवल उसी पर विरोध जताया जाना चाहिए। सुरक्षा जांच से गुजरने में कोई बडा व्यक्ति छोटा नहीं हो जाता। सच कहा जाए तो हम भारतीयों को हर छोटी बात को खींचकर बड़ा करने की बीमारी है, फिर चाहे वही उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हो या आम आदमी। जब तक हम जरूरी और गैर जरूरी में फर्क करना नहीं सीख लेते इस तरह की घटनाओं पर हो-हल्ला करते रहेंगे।
ण ण
Wednesday, December 8, 2010
जेपीसी पर हंगामे का औचित्य
नीरज नैयर
आधुनिकता की सियासत ने राजनीति के मूल्य ही बदलकर रख दिए हैं। कभी गंभीर बहस और लोकहित के फैसलों के लिए पहचाने जाने वाले लोकतंत्र के मंदिर आज अखाड़े में तब्दील हो चुके हैं। बात चाहे संसद की हो या विधानसभाओं की सियासी पार्टियों को एक दूसरे को नीचा दिखाने की इससे मुफीद ागह कोई नहीं लगती। संसद का शीतकालीन सत्र सरकार और विपक्ष की नोंकझोंक की भेंट चढ़ा जा रहा है। जब तक ये लेख प्रकाशित होगा और कुछ दिन हंगामे पर कुर्बान हो चुके होंगे। शीतकालीन सत्र 9 नवंबर से शुरू हुआ था, लोकसभा में पहले दिन जरूर कुछ काम हुआ मगर रायसभा तो पहले दिन से ही नहीं चल पाई। मौजूदा स्थिति ये है कि सत्र समाप्त होने में चंद दिन ही बचे हैं और हंगामा चरम पर है। दरअसल विपक्ष स्पेक्ट्रम और दूसरे तमाम घोटालों की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से कराने पर अड़ा है, लेकिन सरकार इसके सख्त खिलाफ है। सरकार का तर्क है कि जब जांच सीबीआई कर रही है तो फिर जेपीसी गठन का सवाल ही नहीं बनता। जेपीसी गठन का सवाल है या नहीं, सवाल ये नहीं है असल सवाल ये है कि आखिर इसको लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है। विपक्ष क्यों इतना उतारू है और सरकार क्यों इससे इतना बच रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी जेपीसी का गठन किया ही नहीं गया। संसदीय इतिहास में अब तक चार बार जेपीसी जांच हो चुकी है।
सबसे पहले बोफोर्स कांड को लेकर विपक्ष के लगभग 45 दिनों तक संसद में हंगामे के परिणाम स्वरूप संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया था। इसके बाद हर्षद मेहता कांड की जांच जेपीसी से कराई गई, इस मामले में जेपीसी गठन के लिए 17 दिनों तक संसद में गतिरोध बरकरार रहा। केतन मेहता मामले में भी तकरीबन 14 दिनों के हंगामें के बाद जेपीसी जांच को मंजूरी मिल सकी। चौथी जेपीसी शीतलपेय पेप्सी-कोला में कीटनाशकों की रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने गठित की। जेपीसी गठन दो तरह से किया जाता है, या तो एक सदन इसका प्रस्ताव रखे और दूसरा उस पर सहमति जताए। या फिर दोनों सदनों के अध्यक्ष आपस में मिलकर इसका फैसला लें। जेपीसी में कितने सदस्य होंगे इसके लिए कोई संख्या निर्धारित नहीं की गई है। हां, इतना जरूर है कि इस समिति में लोकसभा सदस्यों की संख्या रायसभा सदस्यों से दोगुनी होती है। यानी अगर रायसभा के 5 सदस्य समिति का हिस्सा हैं तो लोकसभा सदस्यों की संख्या 10 होगी। जेपीसी के पास जांच के पूरे अधिकार होते हैं, वो मामले की रिपोर्ट तलब कर सकती है। इस संबंध में पूछताछ के लिए सम्मन जारी कर सकती है, सम्मान की तामील न होने पर संबंधित व्यक्ति पर सदन की अवेहलना के तहत कार्रवाई कर सकती है। जेपीसी जांच में एक अच्छी बात सब यही है कि उसे अपनी कार्रवाई के लिए किसी अनुमति का इंतजार नहीं करना पड़ता। इसके अलावा शायद ही कोई फायदा होता हो, क्योंकि अगर होता तो एक न एक मामले में तो दोषियों को सजा मिल गई होती। बोफोर्स कांड में जेपीसी ने 26 अप्रैल 1986 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, लेकिन विपक्ष ने इसके विरोध में बायकॉट किया। कुल मिलाकर नतीजा रहा, सिफर। ऐसे ही हर्षद मेहता कांड में न तो जेपीसी की सारी सिफारिशों को ही माना गया और न ही सरकार ने उन्हें कार्यान्वित किया। कुछ इसी तरह केतन मेहता मामले में भी हुआ, 2002 में सौंपी गई जेपीसी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। कोला-पेप्सी कांड की जांच के लिए शरद पवार की अध्यक्षता में बनाई गई संयुक्त जांच समिति ने चार फरवरी 2004 को सदन में रखी अपनी रिपोर्ट में शीतलपेय में कीटनाशकों की पुष्टि की मगर उसे सरकार ने कितनी गंभीरता से लिया सब जानते हैं। जेपीसी की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसकी जांच सार्वजनिक नहीं होती, जबकि कई मुल्कों में इसमें पारदर्शिता बरती जाती है।
विपक्ष में बैठे दल को जांच के लिए जेपीसी सबसे भरोसेमंद लगती है और सरकार हमेशा से इससे बचना चाहती है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि क्या जेपीसी इतनी सक्षम होती है कि बड़े से बड़े घोटालों की पेचीदगी को समझ सके। जेपीसी में महज अलग-अलग दल के राजनीतिक लोगों का जमावड़ा होता है, और हमारी नेताओं की काबलियत जगजाहिर है। जो काम सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसी के वो अधिकारी कर सकते हैं जिनका काम ही बड़े से बड़े घोटालों में सिर खपाना, क्या वो हमारे नेता कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इसके यादातर जवाब नहीं में मिलेंगे। दरअसल जेपीसी के माध्यम से खुद को पाकसाफ बताने वाले दलों को आरोपों में घिरी पार्टी के अंदरूनी हालात का काफी अच्छे से जायजा लेने का मौका मिल जाता है। और ऐसे में आर्थिक और राजनीतिक हितों के सधने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जेपीसी का अब तक का इतिहास बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा है तो फिर विपक्ष का इसके लिए अड़ियल रुख अख्तियार करना समझ से बाहर है, ऐसे ही सरकार का अपने फैसले पर अडिग हो जाना भी आश्चर्यचिकत करने वाला है। सरकार जेपीसी की कीमत पर संसद का कीमती वक्त बर्बाद करे जा रही है। सदन की कार्यवाही पर खर्च होने वाला एक-एक पैसा जनता की जेब से आता है, लेकिन सदन में हंगामा करने वालों को इससे कोई सरोकार नहीं। अच्छा होता अगर सरकार संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की विपक्ष की मांग को मानकर जनता के सामने अच्छा उदाहरण पेश करती। मौजूदा वक्त में सदन की कार्यवाही बाधित करने के लिए जनता की नजरों में जितना दोषी विपक्ष है उतना ही सत्तापक्ष भी है। ऐसा लगता है जैसे विपक्ष और सरकार मिलकर अरबों के घोटालों का टैक्स जनता के वसूलने का मन बना चुके हैं। स्पेक्ट्रम आदि घोटालों में जितनी रकम जानी थी वो जा चुकी और सब जानते हैं कि दोषियों का बाल भी बांका होने वाला नहीं है, ऐसे जेपीसी को लेकर संसद में जारी गतिरोध जनता के लिए कोड़ में खाज के समान है।
आधुनिकता की सियासत ने राजनीति के मूल्य ही बदलकर रख दिए हैं। कभी गंभीर बहस और लोकहित के फैसलों के लिए पहचाने जाने वाले लोकतंत्र के मंदिर आज अखाड़े में तब्दील हो चुके हैं। बात चाहे संसद की हो या विधानसभाओं की सियासी पार्टियों को एक दूसरे को नीचा दिखाने की इससे मुफीद ागह कोई नहीं लगती। संसद का शीतकालीन सत्र सरकार और विपक्ष की नोंकझोंक की भेंट चढ़ा जा रहा है। जब तक ये लेख प्रकाशित होगा और कुछ दिन हंगामे पर कुर्बान हो चुके होंगे। शीतकालीन सत्र 9 नवंबर से शुरू हुआ था, लोकसभा में पहले दिन जरूर कुछ काम हुआ मगर रायसभा तो पहले दिन से ही नहीं चल पाई। मौजूदा स्थिति ये है कि सत्र समाप्त होने में चंद दिन ही बचे हैं और हंगामा चरम पर है। दरअसल विपक्ष स्पेक्ट्रम और दूसरे तमाम घोटालों की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से कराने पर अड़ा है, लेकिन सरकार इसके सख्त खिलाफ है। सरकार का तर्क है कि जब जांच सीबीआई कर रही है तो फिर जेपीसी गठन का सवाल ही नहीं बनता। जेपीसी गठन का सवाल है या नहीं, सवाल ये नहीं है असल सवाल ये है कि आखिर इसको लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है। विपक्ष क्यों इतना उतारू है और सरकार क्यों इससे इतना बच रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी जेपीसी का गठन किया ही नहीं गया। संसदीय इतिहास में अब तक चार बार जेपीसी जांच हो चुकी है।
सबसे पहले बोफोर्स कांड को लेकर विपक्ष के लगभग 45 दिनों तक संसद में हंगामे के परिणाम स्वरूप संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया था। इसके बाद हर्षद मेहता कांड की जांच जेपीसी से कराई गई, इस मामले में जेपीसी गठन के लिए 17 दिनों तक संसद में गतिरोध बरकरार रहा। केतन मेहता मामले में भी तकरीबन 14 दिनों के हंगामें के बाद जेपीसी जांच को मंजूरी मिल सकी। चौथी जेपीसी शीतलपेय पेप्सी-कोला में कीटनाशकों की रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने गठित की। जेपीसी गठन दो तरह से किया जाता है, या तो एक सदन इसका प्रस्ताव रखे और दूसरा उस पर सहमति जताए। या फिर दोनों सदनों के अध्यक्ष आपस में मिलकर इसका फैसला लें। जेपीसी में कितने सदस्य होंगे इसके लिए कोई संख्या निर्धारित नहीं की गई है। हां, इतना जरूर है कि इस समिति में लोकसभा सदस्यों की संख्या रायसभा सदस्यों से दोगुनी होती है। यानी अगर रायसभा के 5 सदस्य समिति का हिस्सा हैं तो लोकसभा सदस्यों की संख्या 10 होगी। जेपीसी के पास जांच के पूरे अधिकार होते हैं, वो मामले की रिपोर्ट तलब कर सकती है। इस संबंध में पूछताछ के लिए सम्मन जारी कर सकती है, सम्मान की तामील न होने पर संबंधित व्यक्ति पर सदन की अवेहलना के तहत कार्रवाई कर सकती है। जेपीसी जांच में एक अच्छी बात सब यही है कि उसे अपनी कार्रवाई के लिए किसी अनुमति का इंतजार नहीं करना पड़ता। इसके अलावा शायद ही कोई फायदा होता हो, क्योंकि अगर होता तो एक न एक मामले में तो दोषियों को सजा मिल गई होती। बोफोर्स कांड में जेपीसी ने 26 अप्रैल 1986 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, लेकिन विपक्ष ने इसके विरोध में बायकॉट किया। कुल मिलाकर नतीजा रहा, सिफर। ऐसे ही हर्षद मेहता कांड में न तो जेपीसी की सारी सिफारिशों को ही माना गया और न ही सरकार ने उन्हें कार्यान्वित किया। कुछ इसी तरह केतन मेहता मामले में भी हुआ, 2002 में सौंपी गई जेपीसी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। कोला-पेप्सी कांड की जांच के लिए शरद पवार की अध्यक्षता में बनाई गई संयुक्त जांच समिति ने चार फरवरी 2004 को सदन में रखी अपनी रिपोर्ट में शीतलपेय में कीटनाशकों की पुष्टि की मगर उसे सरकार ने कितनी गंभीरता से लिया सब जानते हैं। जेपीसी की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसकी जांच सार्वजनिक नहीं होती, जबकि कई मुल्कों में इसमें पारदर्शिता बरती जाती है।
विपक्ष में बैठे दल को जांच के लिए जेपीसी सबसे भरोसेमंद लगती है और सरकार हमेशा से इससे बचना चाहती है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि क्या जेपीसी इतनी सक्षम होती है कि बड़े से बड़े घोटालों की पेचीदगी को समझ सके। जेपीसी में महज अलग-अलग दल के राजनीतिक लोगों का जमावड़ा होता है, और हमारी नेताओं की काबलियत जगजाहिर है। जो काम सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसी के वो अधिकारी कर सकते हैं जिनका काम ही बड़े से बड़े घोटालों में सिर खपाना, क्या वो हमारे नेता कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इसके यादातर जवाब नहीं में मिलेंगे। दरअसल जेपीसी के माध्यम से खुद को पाकसाफ बताने वाले दलों को आरोपों में घिरी पार्टी के अंदरूनी हालात का काफी अच्छे से जायजा लेने का मौका मिल जाता है। और ऐसे में आर्थिक और राजनीतिक हितों के सधने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जेपीसी का अब तक का इतिहास बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा है तो फिर विपक्ष का इसके लिए अड़ियल रुख अख्तियार करना समझ से बाहर है, ऐसे ही सरकार का अपने फैसले पर अडिग हो जाना भी आश्चर्यचिकत करने वाला है। सरकार जेपीसी की कीमत पर संसद का कीमती वक्त बर्बाद करे जा रही है। सदन की कार्यवाही पर खर्च होने वाला एक-एक पैसा जनता की जेब से आता है, लेकिन सदन में हंगामा करने वालों को इससे कोई सरोकार नहीं। अच्छा होता अगर सरकार संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की विपक्ष की मांग को मानकर जनता के सामने अच्छा उदाहरण पेश करती। मौजूदा वक्त में सदन की कार्यवाही बाधित करने के लिए जनता की नजरों में जितना दोषी विपक्ष है उतना ही सत्तापक्ष भी है। ऐसा लगता है जैसे विपक्ष और सरकार मिलकर अरबों के घोटालों का टैक्स जनता के वसूलने का मन बना चुके हैं। स्पेक्ट्रम आदि घोटालों में जितनी रकम जानी थी वो जा चुकी और सब जानते हैं कि दोषियों का बाल भी बांका होने वाला नहीं है, ऐसे जेपीसी को लेकर संसद में जारी गतिरोध जनता के लिए कोड़ में खाज के समान है।
Tuesday, November 30, 2010
बाघ बचाने के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत
नीरज नैयर
बाघों की घटती संख्या के बीच बाघ सरंक्षण की कोशिशें भी परवान चढ़ रही हैं। ऐसी कोशिशें सुखद अहसास तो कराती ही हैं साथ ही उम्मीद भी जगाती हैं कि शायद वाली पीढ़ी जंगल में विचरण करते बाघ का दीदार कर सकेगी। दुनिया भर में बाघ जितनी तेजी से गायब हुए हैं उतनी तेजी से तो शायद कुछ और गायब हो ही नहीं सकता। मौजूदा वक्त में खुले जंगल में रहने वाले बाघों की तादाद महज 3000 है, पिछले एक दशक में बाघों की संख्या में 40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। सबसे यादा बाघ भारत में है, ताजा गणना के मुताबिक हमारे यहां 1400 के आसपास बाघ हैं। हालांकि चीन में बाघों की तादाद को दुनिया भर में सर्वाधिक कहा जा सकता है, लेकिन ये बाघ जंगलों के बजाए पिंजरों में कैद हैं। चीन में बाघ के अंगों की जबरदस्त मांग है, इसी मांग को पूरा करने के लिए फार्मिंग के उद्देश्य से बाघों को दबड़ों में भेज दिया गया। वैसे चीनी सरकार ने बाघों के अंगों से बने उत्पाद पर प्रतिबंध लगा रखा है, जिस वजह से फार्मिंग का धंधा लगभग बंद सा पड़ा हुआ है। लेकिन इस लॉबी के दबरदस्त दबाव के चलते सरकार प्रतिबंध हटाने पर गंभीरता से विचार कर रही है। अगर प्रतिबंध हटता है तो जंगलों में बचे-कुचे बाघ भी दुनिया छोड़ जाएंगे। भारत में हो रहे इस खूबसूरत प्राणी के सफाए में चीन की मांग का बहुत बड़ा हाथ है। दूसरी जगहों की अपेक्षा भारत में शिकारी यादा आसानी से अपने काम को अंजाम दे सकते हैं। शिथिल कानून, कमजोर तंत्र और गैरजिम्मेदाराना सरकारी रवैये की वजह से भारत शिकारियों के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है।
स्वयं प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं, कुछ बदला है तो बस फाइलें रखने वाली अलमारियों का आकार। प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर हर साल करोड़ों-अरबों फूंके जा रहे हैं, लेकिन सरंक्षण जैसी बात कहीं नजर नहीं आती। दूसरे मुल्कों में जहां बाघ बचे हैं वहां भी कमोबश यही स्थिति है, इसी स्थिति से निपटने के लिए रूस के शहर सेंट पीटर्सबर्ग में बीते दिनों एक बैठक आयोजित की गई। 13 देशों के प्रतिनिधियों ने इस बैठक में हिस्सा लिया, बैठक में मुख्य तौर पर बाघ के प्राकृतिक आवास को बचाने, शिकार को रोकने और बचाव अभियान को आर्थिक मदद मुहैया करवाने जैसे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि विश्व के तमाम नेता एक प्रजाति को बचाने के लिए साथ आए। बाघ बचाने को लेकर इतनी सक्रीयता अच्छी बात है, लेकिन इस सक्रीयता के सार्थक परिणाम भी तो निकलने चाहिए। अमूमन बड़ी-बड़ी बैठकों में बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं पर वो धरातल पर नहीं उतर पाते। इस बैठक में चीन ने भी शिरकत की, चीन पर बाघ बचाओ अभियान में जुटे लोगों के लिए किसी खलनायक की तरह है। चीनी सरकार दावा करती है कि देश में बाघ अंगों और खाल के गैरकानूनी व्यापार पर लगी पाबंदी का पूरी तरह से पालन हो रहा है। लेकिन इस दावे की हकीकत कई बार सामने आ चुकी है। चीन में बाघ की खाल और अंग हासिल करना उतना ही आसान है, जितना भारत में ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थ। चीन इस गैरकानूनी टे्रड का हब है, और ये सबकुछ सरकार के सरंक्षण में ही फल-फूल रहा है। चीनी आर्मी खुद बाघों की खाल और अंगों से बने उत्पाद की सबसे बड़ी उपभोक्ता है। कुछ साल पहले दलाई लामा के आव्हान के बाद जरूर तिब्बत में बाघों की खाल की उसी तरह होली जलाई गई थी जैसे स्वदेशी अपनाओ नारे के बाद भारत में विदेशी कपड़ों की।
णतिब्बतियों ने अपने धर्म गुरू की भावनाओं का आदर करते हुए बाघ से जुड़े उत्पादों का उपयोग पूर्णत: बंद कर दिया था, लेकिन अब सबकुछ पहले की माफिक हो गया है। तिब्बत में सालाना होने वाले पारंपरिक आयोजन में चीनी सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में तिब्बती बाघों की खालों को तन पर लपेटे देखने को मिल सकते हैं। चीन में बाघ की एक पूर्ण खाल की कीमत तकरीबन 20 हजार डॉलर है। इस ट्रेड से जुड़े व्यापारी, ग्राहकों को उनकी मनमुताबिक जगहों पर डिलेवरी तक ही सुविधा उपलब्ध कराते हैं। चीन में बाघ की खाल को शानौ-शौकत का प्रतीक माना जाता है, इसके साथ ही धार्मिक लिहाज से भी चीनी और तिब्बती इनका उपयोग करते हैं। सबसे यादा फार्मेसी क्षेत्र में बाघ के अंगों का इस्तेमाल होता है, कामोत्तेजक दवाई के लिए बाघ की हड्डियां प्रयोग में लाई जाती हैं और चीन में इसका बहुत बड़ा बाजार है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरफ से चीनी सरकार को कई बार आईना दिखाया गया मगर उसने हालात बदलने के लिए कुछ नहीं किया। दरअसल बीजिंग के लिए भी बाघों का गैरकानूनी व्यापार कमाई का बहुत बड़ा जरिया है, इसलिए वो इस पर प्रतिबंध का दिखावा तो कर सकता है पर पूर्णत: रोक नहीं लगा सकता। जहां तक बात भारत सरकार की है तो उसके पास इच्छाशक्ति का अभाव है। हमारे यहां नए-नए प्रोजेक्टों को फाइलों से हकीकत में आने बरसों लग जाते हैं। सरिस्का में बाघों के सफाए के बाद से अब तक कई योजनाएं बनाई गईं उनमें से कुछ परवान भी चढ़ी मगर बाघों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा सका। बाघ सरंक्षण हमारे देश में एक तरह से पार्ट टाइम नौकरी के माफिक हो गया है, सरकार अपने आप को संवेदनशील साबित करने के लिए यह काम किए जा रही है और अधिकारीगण महज अपनी नौकरी बचाने के लिए। यही वजह है कि तमाम तामझाम के बाद भी बाघ बचने के बजाए तेजी से शिकारियों के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं। और जो रही सही कसर है वो जंगल में बढ़ती मानवीय गतिविधियों की वजह से पूरी हो रही है।
णमानव बाघ संघर्ष के किस्से अब आम हो चले हैं। जंगलों का सिकुड़ना लगातार जारी है, भोजन-पानी की कम उपलब्धता के चलते बाघ आदि जंगली जानवरी बाहर की ओर रुख करते हैं और मनुष्य के हाथों मारे जाते हैं। बाघ सरंक्षण के लिए सरकार कागज पर लकीरें खींचने के अलावा कुछ नहीं कर पाई है। अगर कागजी कार्रवाई के अलावा कुछ भी किया गया होता तो परिणाम अब तक नजर आने लगते। कुल मिलाकर कहा जाए तो बाघों को बचाने के लिए बड़ी-बड़ी बैठकें करने के बजाए इच्छाशक्ति विकसित करने की जरूरत है। क्या भारत या दूसरे देश इतने भी सक्षम नहीं कि एक प्राणी की जान बचा सकें, बिल्कुल हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव के चलते सक्षमता भी नगण्य हो चली है।
बाघों की घटती संख्या के बीच बाघ सरंक्षण की कोशिशें भी परवान चढ़ रही हैं। ऐसी कोशिशें सुखद अहसास तो कराती ही हैं साथ ही उम्मीद भी जगाती हैं कि शायद वाली पीढ़ी जंगल में विचरण करते बाघ का दीदार कर सकेगी। दुनिया भर में बाघ जितनी तेजी से गायब हुए हैं उतनी तेजी से तो शायद कुछ और गायब हो ही नहीं सकता। मौजूदा वक्त में खुले जंगल में रहने वाले बाघों की तादाद महज 3000 है, पिछले एक दशक में बाघों की संख्या में 40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। सबसे यादा बाघ भारत में है, ताजा गणना के मुताबिक हमारे यहां 1400 के आसपास बाघ हैं। हालांकि चीन में बाघों की तादाद को दुनिया भर में सर्वाधिक कहा जा सकता है, लेकिन ये बाघ जंगलों के बजाए पिंजरों में कैद हैं। चीन में बाघ के अंगों की जबरदस्त मांग है, इसी मांग को पूरा करने के लिए फार्मिंग के उद्देश्य से बाघों को दबड़ों में भेज दिया गया। वैसे चीनी सरकार ने बाघों के अंगों से बने उत्पाद पर प्रतिबंध लगा रखा है, जिस वजह से फार्मिंग का धंधा लगभग बंद सा पड़ा हुआ है। लेकिन इस लॉबी के दबरदस्त दबाव के चलते सरकार प्रतिबंध हटाने पर गंभीरता से विचार कर रही है। अगर प्रतिबंध हटता है तो जंगलों में बचे-कुचे बाघ भी दुनिया छोड़ जाएंगे। भारत में हो रहे इस खूबसूरत प्राणी के सफाए में चीन की मांग का बहुत बड़ा हाथ है। दूसरी जगहों की अपेक्षा भारत में शिकारी यादा आसानी से अपने काम को अंजाम दे सकते हैं। शिथिल कानून, कमजोर तंत्र और गैरजिम्मेदाराना सरकारी रवैये की वजह से भारत शिकारियों के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है।
स्वयं प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं, कुछ बदला है तो बस फाइलें रखने वाली अलमारियों का आकार। प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर हर साल करोड़ों-अरबों फूंके जा रहे हैं, लेकिन सरंक्षण जैसी बात कहीं नजर नहीं आती। दूसरे मुल्कों में जहां बाघ बचे हैं वहां भी कमोबश यही स्थिति है, इसी स्थिति से निपटने के लिए रूस के शहर सेंट पीटर्सबर्ग में बीते दिनों एक बैठक आयोजित की गई। 13 देशों के प्रतिनिधियों ने इस बैठक में हिस्सा लिया, बैठक में मुख्य तौर पर बाघ के प्राकृतिक आवास को बचाने, शिकार को रोकने और बचाव अभियान को आर्थिक मदद मुहैया करवाने जैसे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि विश्व के तमाम नेता एक प्रजाति को बचाने के लिए साथ आए। बाघ बचाने को लेकर इतनी सक्रीयता अच्छी बात है, लेकिन इस सक्रीयता के सार्थक परिणाम भी तो निकलने चाहिए। अमूमन बड़ी-बड़ी बैठकों में बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं पर वो धरातल पर नहीं उतर पाते। इस बैठक में चीन ने भी शिरकत की, चीन पर बाघ बचाओ अभियान में जुटे लोगों के लिए किसी खलनायक की तरह है। चीनी सरकार दावा करती है कि देश में बाघ अंगों और खाल के गैरकानूनी व्यापार पर लगी पाबंदी का पूरी तरह से पालन हो रहा है। लेकिन इस दावे की हकीकत कई बार सामने आ चुकी है। चीन में बाघ की खाल और अंग हासिल करना उतना ही आसान है, जितना भारत में ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थ। चीन इस गैरकानूनी टे्रड का हब है, और ये सबकुछ सरकार के सरंक्षण में ही फल-फूल रहा है। चीनी आर्मी खुद बाघों की खाल और अंगों से बने उत्पाद की सबसे बड़ी उपभोक्ता है। कुछ साल पहले दलाई लामा के आव्हान के बाद जरूर तिब्बत में बाघों की खाल की उसी तरह होली जलाई गई थी जैसे स्वदेशी अपनाओ नारे के बाद भारत में विदेशी कपड़ों की।
णतिब्बतियों ने अपने धर्म गुरू की भावनाओं का आदर करते हुए बाघ से जुड़े उत्पादों का उपयोग पूर्णत: बंद कर दिया था, लेकिन अब सबकुछ पहले की माफिक हो गया है। तिब्बत में सालाना होने वाले पारंपरिक आयोजन में चीनी सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में तिब्बती बाघों की खालों को तन पर लपेटे देखने को मिल सकते हैं। चीन में बाघ की एक पूर्ण खाल की कीमत तकरीबन 20 हजार डॉलर है। इस ट्रेड से जुड़े व्यापारी, ग्राहकों को उनकी मनमुताबिक जगहों पर डिलेवरी तक ही सुविधा उपलब्ध कराते हैं। चीन में बाघ की खाल को शानौ-शौकत का प्रतीक माना जाता है, इसके साथ ही धार्मिक लिहाज से भी चीनी और तिब्बती इनका उपयोग करते हैं। सबसे यादा फार्मेसी क्षेत्र में बाघ के अंगों का इस्तेमाल होता है, कामोत्तेजक दवाई के लिए बाघ की हड्डियां प्रयोग में लाई जाती हैं और चीन में इसका बहुत बड़ा बाजार है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरफ से चीनी सरकार को कई बार आईना दिखाया गया मगर उसने हालात बदलने के लिए कुछ नहीं किया। दरअसल बीजिंग के लिए भी बाघों का गैरकानूनी व्यापार कमाई का बहुत बड़ा जरिया है, इसलिए वो इस पर प्रतिबंध का दिखावा तो कर सकता है पर पूर्णत: रोक नहीं लगा सकता। जहां तक बात भारत सरकार की है तो उसके पास इच्छाशक्ति का अभाव है। हमारे यहां नए-नए प्रोजेक्टों को फाइलों से हकीकत में आने बरसों लग जाते हैं। सरिस्का में बाघों के सफाए के बाद से अब तक कई योजनाएं बनाई गईं उनमें से कुछ परवान भी चढ़ी मगर बाघों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा सका। बाघ सरंक्षण हमारे देश में एक तरह से पार्ट टाइम नौकरी के माफिक हो गया है, सरकार अपने आप को संवेदनशील साबित करने के लिए यह काम किए जा रही है और अधिकारीगण महज अपनी नौकरी बचाने के लिए। यही वजह है कि तमाम तामझाम के बाद भी बाघ बचने के बजाए तेजी से शिकारियों के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं। और जो रही सही कसर है वो जंगल में बढ़ती मानवीय गतिविधियों की वजह से पूरी हो रही है।
णमानव बाघ संघर्ष के किस्से अब आम हो चले हैं। जंगलों का सिकुड़ना लगातार जारी है, भोजन-पानी की कम उपलब्धता के चलते बाघ आदि जंगली जानवरी बाहर की ओर रुख करते हैं और मनुष्य के हाथों मारे जाते हैं। बाघ सरंक्षण के लिए सरकार कागज पर लकीरें खींचने के अलावा कुछ नहीं कर पाई है। अगर कागजी कार्रवाई के अलावा कुछ भी किया गया होता तो परिणाम अब तक नजर आने लगते। कुल मिलाकर कहा जाए तो बाघों को बचाने के लिए बड़ी-बड़ी बैठकें करने के बजाए इच्छाशक्ति विकसित करने की जरूरत है। क्या भारत या दूसरे देश इतने भी सक्षम नहीं कि एक प्राणी की जान बचा सकें, बिल्कुल हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव के चलते सक्षमता भी नगण्य हो चली है।
Saturday, November 27, 2010
ओबामा के दौरे से हमें क्या मिला?
नीरज नैयर
धन्यवाद और जयहिंद जैसे भारी-भरकम शब्द बोलकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपने भारत दौरे को आशाओं के अनुरूप बनाने में सफल रहे। उनकी यात्रा का उद्देश्य मुख्यरूप से मंदी की मार झेल रहे अमेरिका के लिए संजीवीनी लाना था और अरबों के करार के रूप में उन्हें वो हासिल भी हो गया। ओबामा की यात्रा के पहले दिन ही भारतीय और अमेरिकी कंपनियों के बीच करीब 10 अरब डॉलर के बीस समझौते हुए। इन समझौतों के आकार लेने के बाद अमेरिका में 54 हजार नई नौकरियों के रास्ते खुलेंगे। ओबामा से भारत को जो मिला उसमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के समर्थन और प्रतिबंधित तकनीकों के निर्यात पर लगी पाबंदी से मुक्ति का आश्वासन इसके अलावा पाकिस्तान को थोड़ी बहुत फटकार। कुल मिलाकर कहा जाए तो भारत की झोली में केवल आवश्वासन ही आए, जहां तक बात पाकिस्तान को कोसने की है तो उसमें भी ओबामा ने कंजूसी से काम लिया। उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर पाक के खिलाफ महज उतना ही बोला जितना इस्लामाबाद आसानी से हजम कर सके। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो स्थिर और प्रगतिशील पाकिस्तान को भारत के हित में बता डाला। बकौल ओबामा पाक की स्थिरता सुनिश्चित करने में सबसे यादा दिलचस्पी किसी देश की हो सकती है तो वह भारत है। यदि पाकिस्तान अस्थिर है तो इसका सबसे अधिक नुकसान भारत को ही झेलना होता है। हालांकि संसद को संबोधित करते वक्त उन्होंने जरूर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ एक बातें कहीं लेकिन उनमें कड़े शब्दों के इस्तेमाल जैसी कोई बात नजर नहीं आई।
सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी और तकनीकों के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने जैसे मुद्दों पर अमल की कोई समय सीमा नहीं है। वैसे भी सुरक्षा परिषद का विस्तार हाल-फिलहाल तो होने वाला नहीं है, ओबामा खुद भी जानते हैं कि यह रास्ता बहुत टेढ़ा है। शायद इसलिए ही उन्होंने खुलेतौर पर भारत के समर्थन की बात कही। ओबामा ने एक तरह से बुरे दौर से उभरने के लिए भारत का इस्तेमाल किया। तेजी से आगे बढ़ता भारत दुनिया के नक्शे पर एक बिजनेस हब के रूप में उभरा है, चीन से लेकर अमेरिका तक सबकी रुचि नई दिल्ली के साथ यादा से यादा व्यापार बढ़ाने की है। ओबामा भी इसी एजेंडे के साथ भारत आए, उन्होंने अपने एक बयान में कहा भी कि जब मैं वापस जाऊं तो अपने लोगों को बता सकूं की मैं उनके लिए क्या लेकर आया हूं। अपने इस दौरे में ओबामा ने जो एक अच्छी बात करी वो ये कि उन्होंने कश्मीर पर कोई बेफिजुल की बयानबाजी नहीं की, लेकिन सिर्फ इसलिए ओबामा के भारत दौरे को एतिहासिक बता देना नासमझी से यादा कुछ नहीं। ओबामा ने दोनों हाथों से भारत से बटोरा और बदले में आश्वासन थमा गए, बावजूद इसके उनकी यात्रा को भारत के लिए अहम बताने वालों की कमी नहीं है। सरकार का ऐसा करना तो समझ में आता है, मगर मीडिया का ओबामा के प्रति दीवानापन समझ से परे है। अमेरिकी राष्ट्रपति के आने से लेकर जाने तक मीडिया ने उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया, देश भर के अखबारात ऐतिहासिक दौरे की खोखली उपलब्धियों से भरे रहे। मसलन, एक प्रमुख हिंदी दैनिक की सुर्खी थी- ओबामा ने किया निहाल। अखबार ने लिखा कि ओबामा ने सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट और पाकिस्तान से आतंकवादी ठिकाने खत्म करने की पैरवी कर खुश किया।
संसद में अपने प्रभावशाली संबोधन से ओबामा ने भारतीयों का दिल जीता। ऐसे ही एक दूसरे अखबार ने जय हिंद, भारत को ओबामा का सलाम नामक शीर्षक से लिखा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने रिश्तों को नई ऊंचाई की राह खोल दी है। एक अंग्रेजी दैनिक ने ओबामा की तारीफों के पुल बांधते हुए लिखा कि ओबामा ने भारत की स्थाई सदस्या की मांग का समर्थन करके सबको अचंभित कर दिया। ऐसा लग रहा था कि ओबामा की उंगलियों पर अंबेडकर और चांदनी चौक जैसी जगहें थीं। भारतीय मीडिया की यही सबसे बड़ी कमजोरी और लाचारी है कि वो भी अमेरिकी मेहमानों के सत्कार में सरकार की तरह पूरी तरह बिछ जाती है, उसे मुद्दों की गहराई में उतरने तक का ख्याल नहीं आता। शायद ही कोई ऐसा अखबार या टीवी चैनल रहा हो जिसने सरकार से ये पूछने की कोशिश की हो कि आखिर ओबामा के दौरे से भारत को सिवाए आश्वासनों के क्या मिला। पाकिस्तान और आतंकवाद पर ओबामा की अधखुली जुबान से साफ है कि ओबामा की नजर में नई दिल्ली से दोस्ती इस्लामाबाद की कीमत पर नहीं हो सकती। मुंबई हमलों के गुनाहगारों को सजा देने की बात करने वाले ओबामा अच्छे से जानते हैं कि पूरी साजिश पाकिस्तान में तैयार की गई। इसके बाद भी वो पाक पर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का दबाव नहीं बना सके। अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहने के लिए पाक का साथ चाहिए, मौजूदा वक्त में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार है। जहां तक भारत का सवाल है तो अमेरिका की नजर में वो केवल आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का एक जरिया मात्र है। ओबामा भारत से 54 हजार नौकरियों की जुगाड़ तो कर गए लेकिन उन्होंने आउटसोर्सिंग जैसे मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला और न ही हमने उनसे बोलने के लिए कहा। मीडिया ने भी ओबामा की खुमारी में इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। जबकि कुछ वक्त पहले तक यही मीडिया इस खबर को बढ़ाचढाकर दिखा रहा था। ओबामा की आउटसोर्सिंग विरोधी मुहिम के चलते भारतीय आईटी सेक्टर को काफी नुकसान झेलना पड़ा है। इसके अलावा पाकिस्तान को बदस्तूर जारी अमेरिकी मदद के मुद्दे पर भी भारतीय नेतृत्व कड़ी नाराजगी जाहिर करने में लगभग नाकाम रहा।
ओबामा भारत आने से ठीक पहले ही पाकिस्तान की जेब भरके आए थे। दरअसल भारत की हालत काफी हद तक उन बादलों की तरह है जो गरजते बहुत हैं मगर बरसते नहीं। भारत कई मौकों पर पाक को अमेरिकी रसद पर एतराज जता चुका है, लेकिन जब ओबामा के सामने बैठकर उन्हें सही-गलत का अहसास कराने का मौका आया तो हम महज मेहमाननवाजी में ही उलझे रहे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी कई बार भारतीय नेतृत्व और मीडिया अमेरिका से आने वाले अतिथियों के सम्मान में मूल मुद्दाें को दरकिनार कर चुके हैं। अमेरिकी आते हैं, सम्मान करवाते हैं, भारतीयों को अच्छी लगने वाली कुछ बातें बोलते हैं और अपने के लिए मुनाफे के समझौते कर चलते बनते हैं। बराक हुसैन ओबामा का भारत दौरा अगर किसी के लिए ऐतिहासिक कहा जा सकता है तो सिर्फ और सिर्फ अमेरिका के लिए। भारत की झोली पहले भी खाली थी और अब भी खाली है। ओबामा की यात्रा को भारत के लिए ऐतिहासिक बताने वालों को दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालकर जरा सोचने की जरूरत है कि आखिर ओबामा भारत का आश्वासनों के सिवाए क्या देके गए।
धन्यवाद और जयहिंद जैसे भारी-भरकम शब्द बोलकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपने भारत दौरे को आशाओं के अनुरूप बनाने में सफल रहे। उनकी यात्रा का उद्देश्य मुख्यरूप से मंदी की मार झेल रहे अमेरिका के लिए संजीवीनी लाना था और अरबों के करार के रूप में उन्हें वो हासिल भी हो गया। ओबामा की यात्रा के पहले दिन ही भारतीय और अमेरिकी कंपनियों के बीच करीब 10 अरब डॉलर के बीस समझौते हुए। इन समझौतों के आकार लेने के बाद अमेरिका में 54 हजार नई नौकरियों के रास्ते खुलेंगे। ओबामा से भारत को जो मिला उसमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के समर्थन और प्रतिबंधित तकनीकों के निर्यात पर लगी पाबंदी से मुक्ति का आश्वासन इसके अलावा पाकिस्तान को थोड़ी बहुत फटकार। कुल मिलाकर कहा जाए तो भारत की झोली में केवल आवश्वासन ही आए, जहां तक बात पाकिस्तान को कोसने की है तो उसमें भी ओबामा ने कंजूसी से काम लिया। उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर पाक के खिलाफ महज उतना ही बोला जितना इस्लामाबाद आसानी से हजम कर सके। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो स्थिर और प्रगतिशील पाकिस्तान को भारत के हित में बता डाला। बकौल ओबामा पाक की स्थिरता सुनिश्चित करने में सबसे यादा दिलचस्पी किसी देश की हो सकती है तो वह भारत है। यदि पाकिस्तान अस्थिर है तो इसका सबसे अधिक नुकसान भारत को ही झेलना होता है। हालांकि संसद को संबोधित करते वक्त उन्होंने जरूर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ एक बातें कहीं लेकिन उनमें कड़े शब्दों के इस्तेमाल जैसी कोई बात नजर नहीं आई।
सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी और तकनीकों के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने जैसे मुद्दों पर अमल की कोई समय सीमा नहीं है। वैसे भी सुरक्षा परिषद का विस्तार हाल-फिलहाल तो होने वाला नहीं है, ओबामा खुद भी जानते हैं कि यह रास्ता बहुत टेढ़ा है। शायद इसलिए ही उन्होंने खुलेतौर पर भारत के समर्थन की बात कही। ओबामा ने एक तरह से बुरे दौर से उभरने के लिए भारत का इस्तेमाल किया। तेजी से आगे बढ़ता भारत दुनिया के नक्शे पर एक बिजनेस हब के रूप में उभरा है, चीन से लेकर अमेरिका तक सबकी रुचि नई दिल्ली के साथ यादा से यादा व्यापार बढ़ाने की है। ओबामा भी इसी एजेंडे के साथ भारत आए, उन्होंने अपने एक बयान में कहा भी कि जब मैं वापस जाऊं तो अपने लोगों को बता सकूं की मैं उनके लिए क्या लेकर आया हूं। अपने इस दौरे में ओबामा ने जो एक अच्छी बात करी वो ये कि उन्होंने कश्मीर पर कोई बेफिजुल की बयानबाजी नहीं की, लेकिन सिर्फ इसलिए ओबामा के भारत दौरे को एतिहासिक बता देना नासमझी से यादा कुछ नहीं। ओबामा ने दोनों हाथों से भारत से बटोरा और बदले में आश्वासन थमा गए, बावजूद इसके उनकी यात्रा को भारत के लिए अहम बताने वालों की कमी नहीं है। सरकार का ऐसा करना तो समझ में आता है, मगर मीडिया का ओबामा के प्रति दीवानापन समझ से परे है। अमेरिकी राष्ट्रपति के आने से लेकर जाने तक मीडिया ने उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया, देश भर के अखबारात ऐतिहासिक दौरे की खोखली उपलब्धियों से भरे रहे। मसलन, एक प्रमुख हिंदी दैनिक की सुर्खी थी- ओबामा ने किया निहाल। अखबार ने लिखा कि ओबामा ने सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट और पाकिस्तान से आतंकवादी ठिकाने खत्म करने की पैरवी कर खुश किया।
संसद में अपने प्रभावशाली संबोधन से ओबामा ने भारतीयों का दिल जीता। ऐसे ही एक दूसरे अखबार ने जय हिंद, भारत को ओबामा का सलाम नामक शीर्षक से लिखा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने रिश्तों को नई ऊंचाई की राह खोल दी है। एक अंग्रेजी दैनिक ने ओबामा की तारीफों के पुल बांधते हुए लिखा कि ओबामा ने भारत की स्थाई सदस्या की मांग का समर्थन करके सबको अचंभित कर दिया। ऐसा लग रहा था कि ओबामा की उंगलियों पर अंबेडकर और चांदनी चौक जैसी जगहें थीं। भारतीय मीडिया की यही सबसे बड़ी कमजोरी और लाचारी है कि वो भी अमेरिकी मेहमानों के सत्कार में सरकार की तरह पूरी तरह बिछ जाती है, उसे मुद्दों की गहराई में उतरने तक का ख्याल नहीं आता। शायद ही कोई ऐसा अखबार या टीवी चैनल रहा हो जिसने सरकार से ये पूछने की कोशिश की हो कि आखिर ओबामा के दौरे से भारत को सिवाए आश्वासनों के क्या मिला। पाकिस्तान और आतंकवाद पर ओबामा की अधखुली जुबान से साफ है कि ओबामा की नजर में नई दिल्ली से दोस्ती इस्लामाबाद की कीमत पर नहीं हो सकती। मुंबई हमलों के गुनाहगारों को सजा देने की बात करने वाले ओबामा अच्छे से जानते हैं कि पूरी साजिश पाकिस्तान में तैयार की गई। इसके बाद भी वो पाक पर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का दबाव नहीं बना सके। अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहने के लिए पाक का साथ चाहिए, मौजूदा वक्त में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार है। जहां तक भारत का सवाल है तो अमेरिका की नजर में वो केवल आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का एक जरिया मात्र है। ओबामा भारत से 54 हजार नौकरियों की जुगाड़ तो कर गए लेकिन उन्होंने आउटसोर्सिंग जैसे मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला और न ही हमने उनसे बोलने के लिए कहा। मीडिया ने भी ओबामा की खुमारी में इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। जबकि कुछ वक्त पहले तक यही मीडिया इस खबर को बढ़ाचढाकर दिखा रहा था। ओबामा की आउटसोर्सिंग विरोधी मुहिम के चलते भारतीय आईटी सेक्टर को काफी नुकसान झेलना पड़ा है। इसके अलावा पाकिस्तान को बदस्तूर जारी अमेरिकी मदद के मुद्दे पर भी भारतीय नेतृत्व कड़ी नाराजगी जाहिर करने में लगभग नाकाम रहा।
ओबामा भारत आने से ठीक पहले ही पाकिस्तान की जेब भरके आए थे। दरअसल भारत की हालत काफी हद तक उन बादलों की तरह है जो गरजते बहुत हैं मगर बरसते नहीं। भारत कई मौकों पर पाक को अमेरिकी रसद पर एतराज जता चुका है, लेकिन जब ओबामा के सामने बैठकर उन्हें सही-गलत का अहसास कराने का मौका आया तो हम महज मेहमाननवाजी में ही उलझे रहे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी कई बार भारतीय नेतृत्व और मीडिया अमेरिका से आने वाले अतिथियों के सम्मान में मूल मुद्दाें को दरकिनार कर चुके हैं। अमेरिकी आते हैं, सम्मान करवाते हैं, भारतीयों को अच्छी लगने वाली कुछ बातें बोलते हैं और अपने के लिए मुनाफे के समझौते कर चलते बनते हैं। बराक हुसैन ओबामा का भारत दौरा अगर किसी के लिए ऐतिहासिक कहा जा सकता है तो सिर्फ और सिर्फ अमेरिका के लिए। भारत की झोली पहले भी खाली थी और अब भी खाली है। ओबामा की यात्रा को भारत के लिए ऐतिहासिक बताने वालों को दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालकर जरा सोचने की जरूरत है कि आखिर ओबामा भारत का आश्वासनों के सिवाए क्या देके गए।
Monday, November 1, 2010
ओबामा की यात्रा पर विशेष----हम भारतीय बहुत संतोषी हैं
नीरज नैयर
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के भारत आने में बस कुछ ही दिन बचे हैं। उनके स्वागत से लेकर लगभग सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं, और जो कुछ-एक बची भी हैं वो उनके आने से पहले पूरी हो जाएंगी। ओबामा मुंबई के उसी होटल ताज में रुकेंगे जो पाकिस्तानी आतंकवादियों का निशाना बना था। शायद ये उनकी आतंकवाद के आगे न झुकने वाली सोच को प्रदर्शित करने का एक तरीका है। ओबामा की यात्रा के लिए मुंबई को खासतौर पर सजाया जा रहा है, ताज की खूबसूरती तो पहले से ही कमाल की है, फिर भी ओबामा को कहीं कोई कमी न दिख जाए इसका होटल प्रबंधन ने पूरा ख्याल रखा है। इसके साथ ही कभी न चमकने वाली सड़कों का सूरत-ए-हाल भी बदला जा रहा है। डिवाइडरों को गहरे पीले रंग से रंगा गया है, कि कहीं ओबामा हल्के कलर को देखकर मुंबईवासियों को हल्का न समझ बैठें।
ओबामा के स्वागत से लेकर सुरक्षा तैयारियों में सरकार ने पानी की तरह पैसा बहाया है। उनकी दिल्ली यात्रा के दौरान सुरक्षा के लिए दुनिया की सबसे अत्याधुनिक प्रणाली सी4आई तैनात की जाएगी। इसे लगभग 150 करोड क़ी लागत से इजरायल से मंगाया गया है। संभवत ये पहला मौका है जब भारत में किसी विदेशी अतिथि की सुरक्षा के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर अमेरिकी राष्ट्रपति की इस यात्रा को यादगार बनाने के लिए सबकुछ किया गया है। सरकार के साथ-साथ मीडिया भी इस दौरे को लेकर उत्साहित है, वैसे उसका उत्साहित होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि इसी मीडिया ने ओबामा की ताजपोशी को जंग जीतने जैसा पेश किया था। देखा जाए तो बराक ओबामा की भारत यात्रा नई दिल्ली के लिए दो मायनों में अहम है, पहली तो यही कि ओबामा अपने पहले कार्यकाल में भारत आ रहे हैं। जबकि बुश और बिल क्लिंटन सेकेंड टर्म में आए थे। दूसरी, ओबामा पहले ऐसे राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं जो भारत दौरे के साथ पाकिस्तान नहीं जाएंगे। इससे पहले जितने भी अमेरिकी प्रेसिडेंटों ने नई दिल्ली का रुख किया वो या तो वाया इस्लामाबाद किया या फिर बाद में पाकिस्तान गए। ओबामा के साथ मुलाकात में जिन मुद्दों पर चर्चा होगी उनमें परमाणु करार, द्विपक्षीय व्यापार, चीन, पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता शामिल है। इनमें अमेरिकी पसंद के केवल दो ही मुद्दे हैं, परमाणु करार और व्यापार, बाकी भारत की चिंताओं और अपेक्षाओं से जुड़े हैं।
जार्ज डब्लू बुश के कार्यकाल में भारत-अमेरिका के बीच हुईएटमी डील के पूरी तरह अमल में आने का तत्कालीक तौर पर सबसे बड़ा फायदा अगर किसी को होगा तो अमेरिका को। करार के रास्ते अमेरिकी कंपनियां भारत में करोड़ों-अरबों का व्यापार कर मोटा मुनाफा वसूल सकेंगी। ऐसी भी चर्चाएं हैं कि ओबामा कश्मीर पर कुछ फॉर्मूले सुझा सकते हैं, हालांकि अमेरिकी प्रशासन ने इससे इंकार किया है। वैसे कश्मीर पर ओबामा कुछ कहें इसकी संभावना इसलिए भी कम है क्योंकि उनका यह दौरा पूरी तरह से अमेरिकी फायदे पर केंद्रित है यानी करार से होने वाले मुनाफे पर। अमेरिकी प्रतिनिधियों की वैसे भी ये फितरत रही है कि भारत आने के बाद वो भारत को पसंद आने वाली बातें ही करते हैं। कुछ वक्त पहले अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने नई दिल्ली में खडे होकर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया, और बदले में करोड़ों के एंड यूजर समझौते को सील करवां गईं। ओबामा अपनी यात्रा में निश्चित तौर पर पाकिस्तान को लेकर भारत की चिंताओं पर गंभीरता दिखाएंगे, और ये भी हो सकता है कि वो भारतीय नेतृत्व के चेहरे खिलाने वाला कोई ऐसा बयान दे डालें।
भारतीय बहुत ही संतोषी होते हैं, ओबामा के इतना भर करने से ही खुश हो जाएंगे और भूल जाएंगे कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक हमारा क्या-क्या बुरा किया। ओबामा ने भारत को सबसे यादा चोट आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर पहुंचाई। अमेरिकी कंपनियों से भारत को मिलने वाले काम के बीच में ओबामा दीवार बनकरखड़े हो गए, उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि जो ेकंपनी गैर अमेरिकियों को नौकरी देगी उसे सालाना मिलने वाली टैक्स छूट से हाथ धोना पड़ेगा। अमेरिका के इस फैसले से भारतीय आईटी उद्योग को काफी नुकसान उठाना पड़ा, अमेरिका की आईटी इंडस्ट्री का आधे से यादा काम भारत या भारतीय प्रोफेशनलों के रास्ते ही होता आया है। ओबामा ने परमाणु करार के रास्ते में रुकावट टालने की भी कुछ कम कोशिश नहीं की, दरअसल ओबामा बगैर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए भारत को छूट दिए जाने के सख्त खिलाफ रहे हैं। हालांकि ये बात अलग है कि वो चाहकर भी करार पर विराम नहीं लगा पाए, क्योंकि ऐसा करने पर उद्योग लॉबी उनके खिलाफ मोर्चो खोल सकती थी। इसके अलावा कश्मीर पर भी वो रह-रहकर भारत की भावनाओं के खिलाफ खिलवाड़ करते रहे, हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर अपने मुंह से कभी कुछ नहीं कहा मगर उनके सहयोगी उनकी जुबान बनते रहे। इसके अलावा पाकिस्तान को लेकर ओबामा ने नई दिल्ली के रुख को कभी महत्व नहीं दिया, भारत आने से पहले भी वो दिल खोलकर पाकिस्तान की झोली भरकर आ रहे हैं। जबकि कई रिपोर्टो में खुलासा हो चुका है कि इस्लामाबाद अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ मोर्चा पर लगता है। अमेरिका भले ही जुबानी तौर पर बड़ी-बड़ी बातें करके भारतीय नेतृत्व को विश्वास दिलाने की कोशिश करे कि उसकी नजर में नई दिल्ली का दर्जा पाकिस्तान से ऊपर है, मगर हकीकत इससे पूरी तरह अलग है। दरअसल इराक छोड़ने के बाद अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान में मौजूद हैं, और निकट भविष्य में उनके वहां से हटने की संभावना भी नग्णय है।
इस करके अमेरिका को पाक की जरूरत लंबे समय तक पड़ती रहेगी, तो फिर उसके लिए भारत पाक से यादा महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि इतना सीधा लॉजिक भी भारतीय नेतृत्व को समझ नहीं आता। अमेरिका उल्लू बनाता है और हम बनते रहते हैं। ओबामा के इस दौरे को लेकर भी भारत हद से यादा उत्साहित है। हमारी सरकार किसी बड़े समझौते की उम्मीद लगाए बैठी है, उसे ये भी उम्मीद है कि ओबामा के आने से अशांति फैलाने वाले पड़ोसियों की आवाज थोडी नरम पड़ेगी। मगर ये सारे ख्वाब बराक ओबामा के दिल्ली छोड़ने से पहले ही चकनाचूर हो जाएंगे। पता नहीं क्यों, अमेरिका से आने वाला हर शख्स (सरकार से जुडा हुआ) हमारे लिए आम इंसान से बड़ा हो जाता है। अमेरिकियों से हमारी अपेक्षांए दूसरों से कई गुना यादा रहती हैं, फिर भले ही बार-बार चोट क्यों न पड़ती रहे। ओबामा पहली बार भारत आ रहे हैं, उनका स्वागत जोरदार होना चाहिए, लेकिन इनसब में उम्मीदों और अपेक्षाओं के पहाड़ खड़े करना नादानी के सिवा कुछ नहीं होगा। ण
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के भारत आने में बस कुछ ही दिन बचे हैं। उनके स्वागत से लेकर लगभग सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं, और जो कुछ-एक बची भी हैं वो उनके आने से पहले पूरी हो जाएंगी। ओबामा मुंबई के उसी होटल ताज में रुकेंगे जो पाकिस्तानी आतंकवादियों का निशाना बना था। शायद ये उनकी आतंकवाद के आगे न झुकने वाली सोच को प्रदर्शित करने का एक तरीका है। ओबामा की यात्रा के लिए मुंबई को खासतौर पर सजाया जा रहा है, ताज की खूबसूरती तो पहले से ही कमाल की है, फिर भी ओबामा को कहीं कोई कमी न दिख जाए इसका होटल प्रबंधन ने पूरा ख्याल रखा है। इसके साथ ही कभी न चमकने वाली सड़कों का सूरत-ए-हाल भी बदला जा रहा है। डिवाइडरों को गहरे पीले रंग से रंगा गया है, कि कहीं ओबामा हल्के कलर को देखकर मुंबईवासियों को हल्का न समझ बैठें।
ओबामा के स्वागत से लेकर सुरक्षा तैयारियों में सरकार ने पानी की तरह पैसा बहाया है। उनकी दिल्ली यात्रा के दौरान सुरक्षा के लिए दुनिया की सबसे अत्याधुनिक प्रणाली सी4आई तैनात की जाएगी। इसे लगभग 150 करोड क़ी लागत से इजरायल से मंगाया गया है। संभवत ये पहला मौका है जब भारत में किसी विदेशी अतिथि की सुरक्षा के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर अमेरिकी राष्ट्रपति की इस यात्रा को यादगार बनाने के लिए सबकुछ किया गया है। सरकार के साथ-साथ मीडिया भी इस दौरे को लेकर उत्साहित है, वैसे उसका उत्साहित होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि इसी मीडिया ने ओबामा की ताजपोशी को जंग जीतने जैसा पेश किया था। देखा जाए तो बराक ओबामा की भारत यात्रा नई दिल्ली के लिए दो मायनों में अहम है, पहली तो यही कि ओबामा अपने पहले कार्यकाल में भारत आ रहे हैं। जबकि बुश और बिल क्लिंटन सेकेंड टर्म में आए थे। दूसरी, ओबामा पहले ऐसे राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं जो भारत दौरे के साथ पाकिस्तान नहीं जाएंगे। इससे पहले जितने भी अमेरिकी प्रेसिडेंटों ने नई दिल्ली का रुख किया वो या तो वाया इस्लामाबाद किया या फिर बाद में पाकिस्तान गए। ओबामा के साथ मुलाकात में जिन मुद्दों पर चर्चा होगी उनमें परमाणु करार, द्विपक्षीय व्यापार, चीन, पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता शामिल है। इनमें अमेरिकी पसंद के केवल दो ही मुद्दे हैं, परमाणु करार और व्यापार, बाकी भारत की चिंताओं और अपेक्षाओं से जुड़े हैं।
जार्ज डब्लू बुश के कार्यकाल में भारत-अमेरिका के बीच हुईएटमी डील के पूरी तरह अमल में आने का तत्कालीक तौर पर सबसे बड़ा फायदा अगर किसी को होगा तो अमेरिका को। करार के रास्ते अमेरिकी कंपनियां भारत में करोड़ों-अरबों का व्यापार कर मोटा मुनाफा वसूल सकेंगी। ऐसी भी चर्चाएं हैं कि ओबामा कश्मीर पर कुछ फॉर्मूले सुझा सकते हैं, हालांकि अमेरिकी प्रशासन ने इससे इंकार किया है। वैसे कश्मीर पर ओबामा कुछ कहें इसकी संभावना इसलिए भी कम है क्योंकि उनका यह दौरा पूरी तरह से अमेरिकी फायदे पर केंद्रित है यानी करार से होने वाले मुनाफे पर। अमेरिकी प्रतिनिधियों की वैसे भी ये फितरत रही है कि भारत आने के बाद वो भारत को पसंद आने वाली बातें ही करते हैं। कुछ वक्त पहले अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने नई दिल्ली में खडे होकर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया, और बदले में करोड़ों के एंड यूजर समझौते को सील करवां गईं। ओबामा अपनी यात्रा में निश्चित तौर पर पाकिस्तान को लेकर भारत की चिंताओं पर गंभीरता दिखाएंगे, और ये भी हो सकता है कि वो भारतीय नेतृत्व के चेहरे खिलाने वाला कोई ऐसा बयान दे डालें।
भारतीय बहुत ही संतोषी होते हैं, ओबामा के इतना भर करने से ही खुश हो जाएंगे और भूल जाएंगे कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक हमारा क्या-क्या बुरा किया। ओबामा ने भारत को सबसे यादा चोट आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर पहुंचाई। अमेरिकी कंपनियों से भारत को मिलने वाले काम के बीच में ओबामा दीवार बनकरखड़े हो गए, उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि जो ेकंपनी गैर अमेरिकियों को नौकरी देगी उसे सालाना मिलने वाली टैक्स छूट से हाथ धोना पड़ेगा। अमेरिका के इस फैसले से भारतीय आईटी उद्योग को काफी नुकसान उठाना पड़ा, अमेरिका की आईटी इंडस्ट्री का आधे से यादा काम भारत या भारतीय प्रोफेशनलों के रास्ते ही होता आया है। ओबामा ने परमाणु करार के रास्ते में रुकावट टालने की भी कुछ कम कोशिश नहीं की, दरअसल ओबामा बगैर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए भारत को छूट दिए जाने के सख्त खिलाफ रहे हैं। हालांकि ये बात अलग है कि वो चाहकर भी करार पर विराम नहीं लगा पाए, क्योंकि ऐसा करने पर उद्योग लॉबी उनके खिलाफ मोर्चो खोल सकती थी। इसके अलावा कश्मीर पर भी वो रह-रहकर भारत की भावनाओं के खिलाफ खिलवाड़ करते रहे, हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर अपने मुंह से कभी कुछ नहीं कहा मगर उनके सहयोगी उनकी जुबान बनते रहे। इसके अलावा पाकिस्तान को लेकर ओबामा ने नई दिल्ली के रुख को कभी महत्व नहीं दिया, भारत आने से पहले भी वो दिल खोलकर पाकिस्तान की झोली भरकर आ रहे हैं। जबकि कई रिपोर्टो में खुलासा हो चुका है कि इस्लामाबाद अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ मोर्चा पर लगता है। अमेरिका भले ही जुबानी तौर पर बड़ी-बड़ी बातें करके भारतीय नेतृत्व को विश्वास दिलाने की कोशिश करे कि उसकी नजर में नई दिल्ली का दर्जा पाकिस्तान से ऊपर है, मगर हकीकत इससे पूरी तरह अलग है। दरअसल इराक छोड़ने के बाद अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान में मौजूद हैं, और निकट भविष्य में उनके वहां से हटने की संभावना भी नग्णय है।
इस करके अमेरिका को पाक की जरूरत लंबे समय तक पड़ती रहेगी, तो फिर उसके लिए भारत पाक से यादा महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि इतना सीधा लॉजिक भी भारतीय नेतृत्व को समझ नहीं आता। अमेरिका उल्लू बनाता है और हम बनते रहते हैं। ओबामा के इस दौरे को लेकर भी भारत हद से यादा उत्साहित है। हमारी सरकार किसी बड़े समझौते की उम्मीद लगाए बैठी है, उसे ये भी उम्मीद है कि ओबामा के आने से अशांति फैलाने वाले पड़ोसियों की आवाज थोडी नरम पड़ेगी। मगर ये सारे ख्वाब बराक ओबामा के दिल्ली छोड़ने से पहले ही चकनाचूर हो जाएंगे। पता नहीं क्यों, अमेरिका से आने वाला हर शख्स (सरकार से जुडा हुआ) हमारे लिए आम इंसान से बड़ा हो जाता है। अमेरिकियों से हमारी अपेक्षांए दूसरों से कई गुना यादा रहती हैं, फिर भले ही बार-बार चोट क्यों न पड़ती रहे। ओबामा पहली बार भारत आ रहे हैं, उनका स्वागत जोरदार होना चाहिए, लेकिन इनसब में उम्मीदों और अपेक्षाओं के पहाड़ खड़े करना नादानी के सिवा कुछ नहीं होगा। ण
Thursday, October 28, 2010
शिरडी: एयरपोर्ट से यादा लोकल ट्रांसर्पोटेशन सुधारने की जरूरत
तीर्थस्थलों में शिरडी का अपना एक अलग ही महत्व है, और ये महत्व पिछले थोड़े से वक्त में ही काफी बढ़ गया है। हर रोज तकरीबन 40 से 50 हजार श्रध्दालु सांईबाबा के दर्शन को आते हैं। मुख्य मंदिर के अंदर और बाहर काफी अच्छी व्यवस्थाएं की गई हैं, श्रध्दालुओं के ठहरने के लिए भी बेहतर इंतजाम है। बाबा के दर्शन के साथ-साथ शिरडी में देखने वाला कुछ है तो वो है बोर्ड द्वारा तैयार किया गया नवीन प्रसादालय(डाइनिंग हॉल)। एशिया के इस सबसे बड़े डायनिंग हॉल में एक बार में 5500 लोग बैठकर खाना खा सकते हैं। एक दिन में यहां 100,000 लोगों को भोजन कराने की व्यवस्था है। 7.5 एकड़ में फैले प्रसादालय को 240 मिलियन रुपए की लागत से तैयार किया गया है। शिरडी बोर्ड सालाना तकरीबन 190 मिलियन खाने पर ही खर्च करता है। प्रसादालय में खाने के दो तरह के कूपन मिलते हैं पहला, साधारण जिसके लिए महज 10 रुपए चुकाने होते हैं और दूसरा, वीआईपी जो बस थोड़ा सा महंगा है। डायनिंग हॉल की एक और जो सबसे बड़ी खासियत है वो है साफ-सफाई। सफाई का आलम यहां ये है कि आपको एक मक्खी तक नजर नहीं आएगी। सेवाकार्य में लगे कर्मचारी भी साफ-सुथरे कपड़ों के साथ हाथों में दस्ताने पहनकर प्रसाद वितरित करते हैं। प्रसादालय तक जाने के लिए बोर्ड की तरफ से बस भी चलाई जाती है, लेकिन रास्ता इतनी लंबा भी नहीं है कि बस की जरूरत पड़े। श्रध्दालु अगर चाहें तो पैदल भी जा सकते हैं। थोड़ी बहुत लूट-खसोट जो दूसरे तीर्थस्थलों पर होती है वो यहां भी है, मगर यहां दूसरी जगहों की अपेक्षा व्यवस्थाएं काफी बेहतर हैं सिवाए मंदिर तक पहुंचने के। कोपरगांव स्टेशन से शिरडी तक पहुंचना अपने आप में टेढ़ी खीर है, और ये खीर और भी टेढ़ी हो जाती है अगर आप समूह में नहीं हैं। स्टेशन से शिरडी जाने के लिए मैजिक (बड़े टैम्पो) चलते हैं, जिसका किराया प्रति व्यक्ति 30 रुपए है।
कुछ वक्त पहले तक ये 20 रुपए था। इसके साथ ही प्राइवेट टैक्सियां और ऑटो भी हैं, जो वक्त और सवारी देखकर अपने किराए का मीटर भगाते रहते हैं। शिरडी आने वाले यादातर लोग मैजिक से जाना ही पसंद करते हैं, जायज है एक तो ये सस्ता पड़ता है और दूसरा हर कोई बमुश्किल 30 मिनट के रास्ते के 300-400 रुपए नहीं खर्च नहीं कर सकता। मगर इस सस्ते सफर की सबसे बड़े परेशानी ये है कि एक अकेले व्यक्ति को इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। मतलब अगर आप एक या दो हैं तो मैजिक वाले आपको कोई घास नहीं डालेंगे आपको ही उनके पीछे-पीछे भागना होगा। हो सकता है कि आपको बैठाने के बाद नीचे उतार दिया जाए। मसलन, यदि मैजिक वाले को दो सवारी की जरूरत है और उसे तीन इकट्ठी मिल गईं तो अकेले व्यक्ति को उतरना ही होगा। टांसर्पोटेशन के काम में लगे यादातर लोग मराठी हैं। और इस मराठी लॉबी में काफी एकता है, इसलिए बहसबाजी या बात बढ़ाने से अच्छा उतरना ही होता है। वैसे अकेले सवारी ढूंढने में वक्त बर्बाद करने से भला होगा कि कुछ दूसरे लोगों को जो अकेले हों साथ लेकर चार-पांच सदस्यों का एक ग्रुप बनाया जाए, इसके बाद शायद आपको उतना परेशान न होना पड़े। अहम सवाल बस यहीं से शुरू होता है। शिरडी बोर्ड कमाई के मामले में तिरुपति बालाजी की राह पर है। बोर्ड की सालाना कमाई तकरीबन 200 करोड़ के आसपास है। बीते दिनों बोर्ड ने एयरपोर्ट निर्माण के लिए राय सरकार को 100 करोड़ रुपए की मदद की। बोर्ड के इस फैसले का चौतरफा विरोध भी हुआ, बोर्ड के ट्रस्टी और रायपरिवहन मंत्री के इस कदम पर खुद उनके पिता और भूतपूर्व सांसद बालासाहब ने एतराज जताया। श्रध्दलुओं के एक तबके ने भी इसकी आलोचना की, उनका कहना था कि एयरपोर्ट के लिए 100 करोड़ देने के बजाए बोर्ड इस रकम को गरीबों के उत्थान के लिए खर्च करे। हालांकि बोर्ड का तर्क है कि एयरपोर्ट बनने से शिरडी तक का आवागमन काफी आसान हो जाएगा। ये बात बिल्कुल सही भी है, लेकिन इसका सबसे यादा फायदा किसे मिलेगा इस पर भी गौर करने की जरूरत है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हवाई जहाज से चलने की हैसीयत नहीं रखता, और शिरड़ी पहुंचाने वाले यादातर लोग इसी हिस्से से ताल्लुकात रखते हैं।
एयरपोर्ट बनने से केवल एलीट क्लास को सहूलियत होगी, बोर्ड को अगर आवागमन सुगम बनाना ही था तो पहले उसे कोपरगांव से शिरड़ी तक के लोकल ट्रांसर्पोटेशन को दुरुस्त करने के लिए कुछ कदम उठाने चाहिए थे। इसके लिए जैन समुदाय के तीर्थस्थल महावीरजी का उदाहरण लिया जा सकता है। स्टेशन से मुख्यमंदिर तक के लिए बोर्ड ने बसें संचालित कर रखी हैं। इसके लिए श्रध्दलुओं से कोई किराया भी नहीं लिया जाता, श्रध्दा स्वरूप अगर कोई कुछ दान देना चाहे तो बात अलग है। वैश्ो देवी की ही बात करें तो वहां हेलीकॉप्टर सेवा शुरू होने से पहले दूसरे जरूरी इंतजामों पर ध्यान दिया गया। ये बात अलग है कि आज वहां व्यवसायिककरण कुछ यादा ही हो गया है। 100 करोड एयरपोर्ट के लिए देने के बजाए अगर बोर्ड कुछ बसें चलवा देता तो शायद उसे आलोचनाओं के बजाए तारीफें मिल रही होतीं। शिरडी बोर्ड को सबसे पहले आम श्रध्दलुओं के बारे में सोचना चाहिए था, वो अगर चाहता तो कुछ किराया भी निर्धारित कर सकता था। इससे बसों के संचालन में उसे थोड़ी बहुत मदद भी मिल जाती, इसके बाद यदि हवाई अड्डे के लिए आर्थिक मदद दी जाती तो शायद इतना हल्ला भी नहीं होता। वैसे भी एयरपोर्ट बनवाने का काम राय सरकार है और वो काम कर भी रही थी, बोर्ड यदि 100 करोड नहीं देता तो भी हवाई अड्डा बनता ही।
कुछ वक्त पहले तक ये 20 रुपए था। इसके साथ ही प्राइवेट टैक्सियां और ऑटो भी हैं, जो वक्त और सवारी देखकर अपने किराए का मीटर भगाते रहते हैं। शिरडी आने वाले यादातर लोग मैजिक से जाना ही पसंद करते हैं, जायज है एक तो ये सस्ता पड़ता है और दूसरा हर कोई बमुश्किल 30 मिनट के रास्ते के 300-400 रुपए नहीं खर्च नहीं कर सकता। मगर इस सस्ते सफर की सबसे बड़े परेशानी ये है कि एक अकेले व्यक्ति को इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। मतलब अगर आप एक या दो हैं तो मैजिक वाले आपको कोई घास नहीं डालेंगे आपको ही उनके पीछे-पीछे भागना होगा। हो सकता है कि आपको बैठाने के बाद नीचे उतार दिया जाए। मसलन, यदि मैजिक वाले को दो सवारी की जरूरत है और उसे तीन इकट्ठी मिल गईं तो अकेले व्यक्ति को उतरना ही होगा। टांसर्पोटेशन के काम में लगे यादातर लोग मराठी हैं। और इस मराठी लॉबी में काफी एकता है, इसलिए बहसबाजी या बात बढ़ाने से अच्छा उतरना ही होता है। वैसे अकेले सवारी ढूंढने में वक्त बर्बाद करने से भला होगा कि कुछ दूसरे लोगों को जो अकेले हों साथ लेकर चार-पांच सदस्यों का एक ग्रुप बनाया जाए, इसके बाद शायद आपको उतना परेशान न होना पड़े। अहम सवाल बस यहीं से शुरू होता है। शिरडी बोर्ड कमाई के मामले में तिरुपति बालाजी की राह पर है। बोर्ड की सालाना कमाई तकरीबन 200 करोड़ के आसपास है। बीते दिनों बोर्ड ने एयरपोर्ट निर्माण के लिए राय सरकार को 100 करोड़ रुपए की मदद की। बोर्ड के इस फैसले का चौतरफा विरोध भी हुआ, बोर्ड के ट्रस्टी और रायपरिवहन मंत्री के इस कदम पर खुद उनके पिता और भूतपूर्व सांसद बालासाहब ने एतराज जताया। श्रध्दलुओं के एक तबके ने भी इसकी आलोचना की, उनका कहना था कि एयरपोर्ट के लिए 100 करोड़ देने के बजाए बोर्ड इस रकम को गरीबों के उत्थान के लिए खर्च करे। हालांकि बोर्ड का तर्क है कि एयरपोर्ट बनने से शिरडी तक का आवागमन काफी आसान हो जाएगा। ये बात बिल्कुल सही भी है, लेकिन इसका सबसे यादा फायदा किसे मिलेगा इस पर भी गौर करने की जरूरत है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हवाई जहाज से चलने की हैसीयत नहीं रखता, और शिरड़ी पहुंचाने वाले यादातर लोग इसी हिस्से से ताल्लुकात रखते हैं।
एयरपोर्ट बनने से केवल एलीट क्लास को सहूलियत होगी, बोर्ड को अगर आवागमन सुगम बनाना ही था तो पहले उसे कोपरगांव से शिरड़ी तक के लोकल ट्रांसर्पोटेशन को दुरुस्त करने के लिए कुछ कदम उठाने चाहिए थे। इसके लिए जैन समुदाय के तीर्थस्थल महावीरजी का उदाहरण लिया जा सकता है। स्टेशन से मुख्यमंदिर तक के लिए बोर्ड ने बसें संचालित कर रखी हैं। इसके लिए श्रध्दलुओं से कोई किराया भी नहीं लिया जाता, श्रध्दा स्वरूप अगर कोई कुछ दान देना चाहे तो बात अलग है। वैश्ो देवी की ही बात करें तो वहां हेलीकॉप्टर सेवा शुरू होने से पहले दूसरे जरूरी इंतजामों पर ध्यान दिया गया। ये बात अलग है कि आज वहां व्यवसायिककरण कुछ यादा ही हो गया है। 100 करोड एयरपोर्ट के लिए देने के बजाए अगर बोर्ड कुछ बसें चलवा देता तो शायद उसे आलोचनाओं के बजाए तारीफें मिल रही होतीं। शिरडी बोर्ड को सबसे पहले आम श्रध्दलुओं के बारे में सोचना चाहिए था, वो अगर चाहता तो कुछ किराया भी निर्धारित कर सकता था। इससे बसों के संचालन में उसे थोड़ी बहुत मदद भी मिल जाती, इसके बाद यदि हवाई अड्डे के लिए आर्थिक मदद दी जाती तो शायद इतना हल्ला भी नहीं होता। वैसे भी एयरपोर्ट बनवाने का काम राय सरकार है और वो काम कर भी रही थी, बोर्ड यदि 100 करोड नहीं देता तो भी हवाई अड्डा बनता ही।
Friday, September 10, 2010
क्या हो आधुनिकता का पैमाना?
बलात्कार के मामलों में पिछले कुछ वक्त में गजब की तेजी देखने को मिली है। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जैसे-जैसे हम विकास की दौड़ में आगे बढ़ते जा रहे हैं, नैतिक मूल्यों का उतनी ही तेजी से पतन होता जा रहा है। पहले कभी-कभी ऐसे किस्से सुनने में आया करते थे मगर अब चोरी-चपाटी जैसे आम खबरों की माफिक हर रोज बलात्कार की घटनाएं खबरों का हिस्सा बनी रहती हैं। कुछ लोग महिलाओं के खिलाफ बढ़ते इस तरह के अपराधों के लिए उनकी अति आधुनिक बनने की होड़ और जरूरत से यादा भडक़ाऊ वस्त्रों को कुसूरवार मानते हैं जबकि कुछ की नजर में इसके लिए पुरुष ही गुनाहगार हैं। ये एक निहायत ही लंबी बहस का मुद्दा है, ऐसी बहस जिसका शायद कभी अंत नहीं हो। उत्तरप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक ने कुछ साल पहले एक टीवी चैनल पर कहा था कि बुर्के में चलने वाली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाएं कम होती हैं, उनका इशारा शायद यही था कि महिलाओं को अपने पहनावे में बदलाव की जरूरत है। उनके इस बयान की महिलावादी संगठन और तमाम बुध्दिजीवियों ने तीखे शब्दों में आलोचना की थी। वैसे भी ये हमारे यहां का दस्तूर बन चुका है कि जो बात कानों को सुनने में अच्छी न लगे उसकी आलोचना शुरू कर दो, फिर भले ही उसके पीछे की हकीकत कुछ और क्यों न बयां कर रही हो। 70-80 के दशक में बॉलीवुड से निकलने वाली फिल्मों में खूबसूरती को सादगी में बयां किया जाता था, लेकिन अब उत्तेजक परिधान और अंतरंग दृश्यों के बिना कोई भी फिल्म तैयार नहीं होती।
फिल्मों में नायिका के परिधानों की लंबाई जितनी कम होती है उसे उतनी ही आकर्षक माना जाता है, दुर्भाग्य की बात तो ये है कि यही मानसिकता और चलन फिल्मी दुनिया के बाहर भी चल निकला है। फैशनेबल और फूहड़ता के मिश्रण से जो पोशाकें तैयार की जा रही हैं, वो बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हैं। छोटे और कटे-फटे कपड़ों की बाजार में मांग भी है और इन्हें महंगे से महंगे दाम में खरीदने वालों की फौज भी। बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों से लेकर स्कूल-कॉलेज तक फैशन की मंडी बन गए हैं। दिल्ली यूनीवसिर्टी इसका सबसे जीवंत उदाहरण हैं, यहां पहुंचने पर स्वयं को यह अहसास दिलाने में काफी वक्त लगता है कि यहां लोग पढ़ने आते हैं। तमाम अखबारात आकर्षक पोशाकों वाली युवतियों के फोटो प्रकाशित कर नए और पुराने ट्रेंड में फर्क समझाने की कोशिश करते हैं। केवल पुरुष ही नहीं कई जानी-मानी महिलाएं भी आजकल के फैशन ट्रेंड को सही नहीं मानतीं, उनकी नजर में फैशनेबल और आधुनिकता केवल कम कपड़े पहनना ही नहीं। बात सही भी है, फैशन का पैमाना आजकल लोवेस्ट जींस और जींस एवं टीशर्ट के बीच कम से कम चार-पांच उंगल के फासलें को माना जाता है। हमारे यहां महिलाएं लंबे वक्त से समानता के अधिकार की बात करती आ रही हैं, आज इतना सब होने के बाद भी उन्हें लगता है कि वो काफी पिछड़ी हैं। पहनावे को लेकर अधिकतर महिलाओं का तर्क होता है, कि जब पुरुषों को अपने हिसाब से कपड़े पहनने की आजादी है तो फिर हम पर रोक-टोक क्यों?यादा वक्त नहीं हुआ जब कुछ विदेशी बालाओं ने टॉपलेस होकर प्रदर्शन किया था, उनका तर्क था कि अगर पुरुष अर्ध्दनग् अवस्था में घूम सकते हैं तो फिर कम क्यों नहीं। सवाल यहां रोकने-टोकने या फिर घूमने-फिरने का नहीं है, सवाल है मर्यादाओं का। महिलाएं यदि टॉपलेस होकर घूमती भी हैं तो उसका खामियाजा कौन भुगतेगा, इस बारे में भी सोचने की जरूरत है। विकृत मानसिकता और अपराधिक प्रवृति वालों की सोच नहीं बदली जा सकती। कानून को कितना भी कठोर क्यों न बना दिया जाए, वो अपराधी को अपराध करने से पूरी तरह नहीं रोक सकता।
इस्लामिक मुल्कों में आंख के बदले आंख, टांग के बदले टांग जैसे कानून हैं, छोटे से अपराध पर वहां सरेआम सजा दी जाती है। बावजूद इसके क्राइम वहां पर भी है। सड़क पर चलते वक्त अपना ध्यान खुद ही रखना पड़ता है, कड़े नियम- कानून सामने से आने वाले ट्रक को किसी राहगीर को रौंदने से नहीं रोक सकते। ठीक इसी तरह से यदि फैशनेबल के पैमाने में थोड़ा सा फेरबदल किया जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है। जींस और टीशर्ट के बीच के फासले को खत्म करने पर भी आधुनिकता बरकरार रहेगी, बस इतना ही समझने की जरूरत है। वैसे मानसिकता को विकृत बनाने के पीछे हार्मोंस का भी अहम योगदान होता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाले हार्मोंस इनसब में मुख्य भूमिका निभाते हैं। हमें कब क्या करना है यह हमसे यादा हमारे शरीर द्वारा स्त्रावित हार्मोंस को पता होता है। क्योंकि हमारी हर गतिविधि पर इनका नियंत्रण होता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाला सेरोटेनिन वह हारमोन है जो सेक्स के मामले में इंसान को अंधा या शर्मिला बना देता है। शरीर में इस हारमोन का स्तर ऊंचा रहना ही उचित होता है क्योंकि नीचा स्तर सुलगते अंगारों को हवा देता देने का काम करता है। सेरेटोनिन का ऊंचा स्तर शांति, प्रसन्नता और संतोष को बढ़ावा देता है। सामान्यतौर पर जब शरीर में सेरेटोनिन का स्तर नीचे गिरने लगता है तो सेक्स करने की इच्छा में तीव्र वृध्दि होने लगती है। हमारे दिमाग पर हमारा संतुलन डगमगाने लगता है। सेक्स इच्छा में अंधे और हिंसक बनकर व्यक्ति किसी भी नीचता तक उतर सकता है। कभी-कभी तो यह हैवानियत बलात्कार जैसे अपराध पर जाकर शांत होती है। जब व्यक्ति में इस हार्मोंस का स्तर नीचे चला जाता है तो उसे सही गलत का अहसास नहीं रहता। ऐसे में अति उत्तेजक परिधान और फिल्मों मे परोसी जा रही अशीलता उसके अंदर के हैवान को और जागृत कर देती है। दूसरे शब्दों में अगर कहें तो बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए काफी हद तक इस हार्मोंस का नीचा स्तर भी कुसूरवार है। हार्मोंस की हमारी जिंदगी में और भी कई बदलाव के लिए जिम्मेदार होते हैं। उदाहरण के तौर पर टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन।
इस हार्मोन के चलते पुरुष रिश्तों में शारीरिक संबंधों को यादा तरजीह देते हैं जबकि महिलाओं में भावनात्मक जुड़ाव अधिक होता है। पुरुषों में महिलाओं की अपेक्षा टेस्टोस्टेरॉन का स्तर यादा पाया जाता है और ये हार्मोन शारीरिक संतुष्टि को अधिक महत्व देता है इसी के चलते पुरुष शारीरिक संबंधों में निर्भर रहते हैं। टेस्टोस्टेरॉन अपेक्षाकृत गर्म मौसम में यादा प्रभावी होता है। हालांकि हार्मोंस तो एक अलग मसला है, असल मुद्दा तो है कि आधुनिकता और फैशनेबल बनने का पैमाना क्या होना चाहिए। निश्चित तौर पर कथित बुध्दिजीवियों और महिलावादी संगठनों को ये विचार दकियानूसी और पुरुषवादी मानसिकता से प्रेरित लगेंगे, लेकिन मैं फिर यही कहूंगा इनके पीछे की हकीकत और गहराई को समझने की जरूरत है।
फिल्मों में नायिका के परिधानों की लंबाई जितनी कम होती है उसे उतनी ही आकर्षक माना जाता है, दुर्भाग्य की बात तो ये है कि यही मानसिकता और चलन फिल्मी दुनिया के बाहर भी चल निकला है। फैशनेबल और फूहड़ता के मिश्रण से जो पोशाकें तैयार की जा रही हैं, वो बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हैं। छोटे और कटे-फटे कपड़ों की बाजार में मांग भी है और इन्हें महंगे से महंगे दाम में खरीदने वालों की फौज भी। बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों से लेकर स्कूल-कॉलेज तक फैशन की मंडी बन गए हैं। दिल्ली यूनीवसिर्टी इसका सबसे जीवंत उदाहरण हैं, यहां पहुंचने पर स्वयं को यह अहसास दिलाने में काफी वक्त लगता है कि यहां लोग पढ़ने आते हैं। तमाम अखबारात आकर्षक पोशाकों वाली युवतियों के फोटो प्रकाशित कर नए और पुराने ट्रेंड में फर्क समझाने की कोशिश करते हैं। केवल पुरुष ही नहीं कई जानी-मानी महिलाएं भी आजकल के फैशन ट्रेंड को सही नहीं मानतीं, उनकी नजर में फैशनेबल और आधुनिकता केवल कम कपड़े पहनना ही नहीं। बात सही भी है, फैशन का पैमाना आजकल लोवेस्ट जींस और जींस एवं टीशर्ट के बीच कम से कम चार-पांच उंगल के फासलें को माना जाता है। हमारे यहां महिलाएं लंबे वक्त से समानता के अधिकार की बात करती आ रही हैं, आज इतना सब होने के बाद भी उन्हें लगता है कि वो काफी पिछड़ी हैं। पहनावे को लेकर अधिकतर महिलाओं का तर्क होता है, कि जब पुरुषों को अपने हिसाब से कपड़े पहनने की आजादी है तो फिर हम पर रोक-टोक क्यों?यादा वक्त नहीं हुआ जब कुछ विदेशी बालाओं ने टॉपलेस होकर प्रदर्शन किया था, उनका तर्क था कि अगर पुरुष अर्ध्दनग् अवस्था में घूम सकते हैं तो फिर कम क्यों नहीं। सवाल यहां रोकने-टोकने या फिर घूमने-फिरने का नहीं है, सवाल है मर्यादाओं का। महिलाएं यदि टॉपलेस होकर घूमती भी हैं तो उसका खामियाजा कौन भुगतेगा, इस बारे में भी सोचने की जरूरत है। विकृत मानसिकता और अपराधिक प्रवृति वालों की सोच नहीं बदली जा सकती। कानून को कितना भी कठोर क्यों न बना दिया जाए, वो अपराधी को अपराध करने से पूरी तरह नहीं रोक सकता।
इस्लामिक मुल्कों में आंख के बदले आंख, टांग के बदले टांग जैसे कानून हैं, छोटे से अपराध पर वहां सरेआम सजा दी जाती है। बावजूद इसके क्राइम वहां पर भी है। सड़क पर चलते वक्त अपना ध्यान खुद ही रखना पड़ता है, कड़े नियम- कानून सामने से आने वाले ट्रक को किसी राहगीर को रौंदने से नहीं रोक सकते। ठीक इसी तरह से यदि फैशनेबल के पैमाने में थोड़ा सा फेरबदल किया जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है। जींस और टीशर्ट के बीच के फासले को खत्म करने पर भी आधुनिकता बरकरार रहेगी, बस इतना ही समझने की जरूरत है। वैसे मानसिकता को विकृत बनाने के पीछे हार्मोंस का भी अहम योगदान होता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाले हार्मोंस इनसब में मुख्य भूमिका निभाते हैं। हमें कब क्या करना है यह हमसे यादा हमारे शरीर द्वारा स्त्रावित हार्मोंस को पता होता है। क्योंकि हमारी हर गतिविधि पर इनका नियंत्रण होता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाला सेरोटेनिन वह हारमोन है जो सेक्स के मामले में इंसान को अंधा या शर्मिला बना देता है। शरीर में इस हारमोन का स्तर ऊंचा रहना ही उचित होता है क्योंकि नीचा स्तर सुलगते अंगारों को हवा देता देने का काम करता है। सेरेटोनिन का ऊंचा स्तर शांति, प्रसन्नता और संतोष को बढ़ावा देता है। सामान्यतौर पर जब शरीर में सेरेटोनिन का स्तर नीचे गिरने लगता है तो सेक्स करने की इच्छा में तीव्र वृध्दि होने लगती है। हमारे दिमाग पर हमारा संतुलन डगमगाने लगता है। सेक्स इच्छा में अंधे और हिंसक बनकर व्यक्ति किसी भी नीचता तक उतर सकता है। कभी-कभी तो यह हैवानियत बलात्कार जैसे अपराध पर जाकर शांत होती है। जब व्यक्ति में इस हार्मोंस का स्तर नीचे चला जाता है तो उसे सही गलत का अहसास नहीं रहता। ऐसे में अति उत्तेजक परिधान और फिल्मों मे परोसी जा रही अशीलता उसके अंदर के हैवान को और जागृत कर देती है। दूसरे शब्दों में अगर कहें तो बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए काफी हद तक इस हार्मोंस का नीचा स्तर भी कुसूरवार है। हार्मोंस की हमारी जिंदगी में और भी कई बदलाव के लिए जिम्मेदार होते हैं। उदाहरण के तौर पर टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन।
इस हार्मोन के चलते पुरुष रिश्तों में शारीरिक संबंधों को यादा तरजीह देते हैं जबकि महिलाओं में भावनात्मक जुड़ाव अधिक होता है। पुरुषों में महिलाओं की अपेक्षा टेस्टोस्टेरॉन का स्तर यादा पाया जाता है और ये हार्मोन शारीरिक संतुष्टि को अधिक महत्व देता है इसी के चलते पुरुष शारीरिक संबंधों में निर्भर रहते हैं। टेस्टोस्टेरॉन अपेक्षाकृत गर्म मौसम में यादा प्रभावी होता है। हालांकि हार्मोंस तो एक अलग मसला है, असल मुद्दा तो है कि आधुनिकता और फैशनेबल बनने का पैमाना क्या होना चाहिए। निश्चित तौर पर कथित बुध्दिजीवियों और महिलावादी संगठनों को ये विचार दकियानूसी और पुरुषवादी मानसिकता से प्रेरित लगेंगे, लेकिन मैं फिर यही कहूंगा इनके पीछे की हकीकत और गहराई को समझने की जरूरत है।
Tuesday, August 24, 2010
आपदा प्रबंधन का कमजोर तंत्र
नीरज नैयर
मुंबई बंदरगाह के पास दो विदेशी जहाजों की टक्कर और उसके बाद पैदा हुई स्थिति ने कई सवालों को जन्म दिया है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर बंदरगाह के इतने नजदीक जहाज कैसे टकरा गए। खुले समुद्र में बीचों-बीच टक्कर की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन एक व्यस्त पोर्ट के करीब भिड़त का होना लापरवाही और व्यवस्था की नाकामी को उजागर करता है। एयर टै्रफिक कंट्रोल की तरह समुद्री यातायात के भी नियम-कायदे होते हैं, पर लगता है मुंबई बंदरगाह पर उनका पालन नहीं किया जाता। इन जहाजों की टक्कर से कंपनियों को हुए नुकसान की भरपाई तो बीमा कंपनियां कर देंगी, मगर पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा है उसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा। जो एमएससी चित्रा नामक जहाज डूबने के कगार पर पहुंचा उससे भारी मात्रा में तेल रिसकर समुद्र में बह गया। इसके अलावा कई कीटनाशकों से भरे कंटेनर में पानी में मिल गए। एक मोटे अनुमान के मुताबिक जहाज पर तकरीबन 1219 कंटेनर लदे थे, जिनमें 2262 टन तेल था। और करीब 300 कंटेनर लहरों के साथ बह निकले। इस हादसे के चंद रोज बाद ही समुद्र का पानी और आस-पास के तटों पर तेल का प्रभाव देखने को मिला। कोलाबा के तट पर काफी तादाद में मछलियां मरी पाई गईं। लेकिन इसे महज शुरूआती प्रभाव ही कहा जा सकता है, पर्यावरणविद इसके दूरगामी दुष्परिणामों की तरफ इशारा कर चुके हैं। ये रिसाव समुद्री जीवों के ब्रीडिंग साइकिल को भी प्रभावित करेगा, इसलिए मुंबईवासियों को मछलियों का सेवन न करने की हिदायत दी गई है।
यह घटना सात अगस्त को हुई और यातायात बहाल करने में छह दिन का वक्त लगा। एक जहाज को खाली करने में इतना वक्त और वो भी तब उसमें लदा सामान जानहानी का सबब बन सकता है, बताता है कि हम इस तरह की चुनौतियाें से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। टक्कर के बाद शुरूआती तिकड़म एमएससी चित्रा को सीधा करने के लिए लगाई गई, जबकि उस वक्त पहली प्राथमिकता उसमें लदे खतरनाक कंटेनरों को बाहर निकालने की होनी चाहिए थी। इस राहत कार्य की रणनीति ही सही तरीके से तैयार नहीं की गई, अगर हादसा बंदरगाह से बहुत दूर होता तो देरी की बात स्वीकारी जा सकती थी। मगर बंदरगाह से दुर्घटनास्थल की दूरी मुश्किल से 10 किलोमीटर थी। क्या दूसरे बड़े जहाजों को तुरंत मौके पर नहीं पहुंचाया जाना चाहिए था, ये बात सही है कि मार्ग बाधित होने से काम आसान नहीं था मगर फिर भी कुछ न कुछ व्यवस्था तो की ही जा सकती थी। ऐसे मौकों पर अक्सर हेलीकॉप्टर का प्रयोग या तो किया ही नहीं जाता या फिर बहुत देर से उनकी याद आती है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। अगर समुद्री मार्ग बाधित था तो हवाई मार्ग के सहारे दुर्घटनास्थल पर पहुंचकर राहत कार्य को विद्युतगति देनी चाहिए थी। 1200 कंटेनरों को चित्रा से उठाकर तट तक पहुंचाने में 8-10 हेलाकॉप्टरों को यादा वक्त नहीं लगता, यदि लगता भी तो स्थिति इतनी बुरी नहीं होती जितनी आज है। रिसाव रोकने के लिए भी नीदरलैंड और सिंगापुर से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ा। समुद्र के रास्ते भारत का व्यापार लगातार बढ़ रहा है बावजूद इसके इतनी लचर व्यवस्था आपदा प्रबंधन के इंतजामों की पोल खोलती है। हालात ये हैं कि हमें बचाव कार्य के लिए भी दूसरों का मुंह ताकना पड़ रहा है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है, आमतौर पर भीषण अगि्कांड जैसे मौकों पर भी हमारी मजबूरी सामने आती है। कुछ वक्त पहले कोलकाता के एक व्यस्तम बाजार में लगी आग को बुझाने में फायर फाइटरों को काफी मशक्कतों का सामना करना पड़ा।
तंग रास्ते और पुरानी बसावट के चलते आग ने चंद मिनटों में ही विकराल रूप अख्तियार कर लिया था। जब आग कई मंजिला ऊंची इमारत पर लगी हो तो फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियों का पानी भी कम पड़ जाता है। ऐसे वक्त में कोई दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की जाती। अधिकतर बड़े देशों में ऐसी स्थिति से निपटने के लिए फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ-साथ हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल भी किया जाता है। हेलीकॉप्टर से एक बार में ही काफी मात्रा में पानी निकल सकता है जो दहकती आग को शांत करने में यादा कारगर होता है। निश्चित तौर पर राहत और बचाव कार्य का ये तरीका यादा खर्चीला है मगर ये यादा कारगर भी है। शायद खर्चे के चलते ही इस बारे में अब तक कोई विचार नहीं किया गया। दो-तीन साल पहले राजस्थान में नदी के तेज बहाव में फंसे लोग पर्याप्त मदद के अभाव में एक-एक करके मौत के आगोश में समा गए थे। मीडिया ने इस घटना की लाइव फुटेज घंटों चलाई मगर सरकारी मदद वक्त पर नहीं पहुंची। प्रशासन के लिए एक हेलिकॉप्टर का इंतजाम करना कितना बड़ा काम है ये इस घटना के बाद मालूम चला। अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल में र्हुई दो ट्रेन दुर्घटनाओं में राहत और बचाव कार्य हादसे के काफी देर के बाद शुरू हो सका। यदि सही वक्त पर लोगों को बचाने का काम शुरू कर दिया जाता तो बहुत सी जिंगदियों को बचाया जा सकता था। ट्रेन या सड़क हादसों के वक्त यादातर बचाव दल देर से ही पहुंच पाता है, इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन कारणों को दूर करने के बारे में हम आखिर कब सोचना शुरू करेंगे? शुक्र है हमारे यहां मैक्सिको की खाड़ी जैसा कुछ नहीं हुआ, अगर बीपी की तरह कोई भारतीय कंपनी ऐसा कुछ कर देती तो शायद रिसाव कभी बंद ही नहीं हो पाता। भले ही अब चित्रा और खलीसिया की टक्कर के लिए उनके कप्तानों को दोषी ठहराने की कवायदों को परवान चढ़ाया जा रहा हो मगर केवल ऐसा करने से ही भविष्य की घटनाओं पर विराम नहीं लगाया जा सकता। दोषियों को दंड मिले ये जरूरी भी है लेकिन मौजूदा व्यवस्था की खामियों को दुरुस्त करना भी उतना ही जरूरी है।
आज डिजास्टर मैनेजमेंट की डिक्शनरी में कुछ नए शब्द जोड़ने की जरूरत है। भले ही देश की अर्थव्यवस्था मजबूती के नए-नए आयाम स्थापित कर रही हो मगर जब तक इन बुनियादी मुद्दों पर हमारी पकड़ मजबूत नहीं होती तब तक सबकुछ बेकार है। जरा सोचके देखिए अगर कल सूनामी जैसी आपदा से हमारा सामना हो जाए तो क्या हम इतने सक्षम हैं कि अपने आप को खड़ा रख सकेंगे, निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में ही होगा। सरकार को आपदा प्रबंधन जैसे गंभीर मुद्दे पर गंभीरता के साथ रणनीति बनाने की जरूरत है और संसाधनों के अभाव को दूर करने की भी ताकि कुछ सौ कंटेनरों को निकालने या आग बुझाने में हमें उतना वक्त ना लगे जितना बर्बादी के लिए काफी होता है।
मुंबई बंदरगाह के पास दो विदेशी जहाजों की टक्कर और उसके बाद पैदा हुई स्थिति ने कई सवालों को जन्म दिया है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर बंदरगाह के इतने नजदीक जहाज कैसे टकरा गए। खुले समुद्र में बीचों-बीच टक्कर की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन एक व्यस्त पोर्ट के करीब भिड़त का होना लापरवाही और व्यवस्था की नाकामी को उजागर करता है। एयर टै्रफिक कंट्रोल की तरह समुद्री यातायात के भी नियम-कायदे होते हैं, पर लगता है मुंबई बंदरगाह पर उनका पालन नहीं किया जाता। इन जहाजों की टक्कर से कंपनियों को हुए नुकसान की भरपाई तो बीमा कंपनियां कर देंगी, मगर पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा है उसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा। जो एमएससी चित्रा नामक जहाज डूबने के कगार पर पहुंचा उससे भारी मात्रा में तेल रिसकर समुद्र में बह गया। इसके अलावा कई कीटनाशकों से भरे कंटेनर में पानी में मिल गए। एक मोटे अनुमान के मुताबिक जहाज पर तकरीबन 1219 कंटेनर लदे थे, जिनमें 2262 टन तेल था। और करीब 300 कंटेनर लहरों के साथ बह निकले। इस हादसे के चंद रोज बाद ही समुद्र का पानी और आस-पास के तटों पर तेल का प्रभाव देखने को मिला। कोलाबा के तट पर काफी तादाद में मछलियां मरी पाई गईं। लेकिन इसे महज शुरूआती प्रभाव ही कहा जा सकता है, पर्यावरणविद इसके दूरगामी दुष्परिणामों की तरफ इशारा कर चुके हैं। ये रिसाव समुद्री जीवों के ब्रीडिंग साइकिल को भी प्रभावित करेगा, इसलिए मुंबईवासियों को मछलियों का सेवन न करने की हिदायत दी गई है।
यह घटना सात अगस्त को हुई और यातायात बहाल करने में छह दिन का वक्त लगा। एक जहाज को खाली करने में इतना वक्त और वो भी तब उसमें लदा सामान जानहानी का सबब बन सकता है, बताता है कि हम इस तरह की चुनौतियाें से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। टक्कर के बाद शुरूआती तिकड़म एमएससी चित्रा को सीधा करने के लिए लगाई गई, जबकि उस वक्त पहली प्राथमिकता उसमें लदे खतरनाक कंटेनरों को बाहर निकालने की होनी चाहिए थी। इस राहत कार्य की रणनीति ही सही तरीके से तैयार नहीं की गई, अगर हादसा बंदरगाह से बहुत दूर होता तो देरी की बात स्वीकारी जा सकती थी। मगर बंदरगाह से दुर्घटनास्थल की दूरी मुश्किल से 10 किलोमीटर थी। क्या दूसरे बड़े जहाजों को तुरंत मौके पर नहीं पहुंचाया जाना चाहिए था, ये बात सही है कि मार्ग बाधित होने से काम आसान नहीं था मगर फिर भी कुछ न कुछ व्यवस्था तो की ही जा सकती थी। ऐसे मौकों पर अक्सर हेलीकॉप्टर का प्रयोग या तो किया ही नहीं जाता या फिर बहुत देर से उनकी याद आती है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। अगर समुद्री मार्ग बाधित था तो हवाई मार्ग के सहारे दुर्घटनास्थल पर पहुंचकर राहत कार्य को विद्युतगति देनी चाहिए थी। 1200 कंटेनरों को चित्रा से उठाकर तट तक पहुंचाने में 8-10 हेलाकॉप्टरों को यादा वक्त नहीं लगता, यदि लगता भी तो स्थिति इतनी बुरी नहीं होती जितनी आज है। रिसाव रोकने के लिए भी नीदरलैंड और सिंगापुर से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ा। समुद्र के रास्ते भारत का व्यापार लगातार बढ़ रहा है बावजूद इसके इतनी लचर व्यवस्था आपदा प्रबंधन के इंतजामों की पोल खोलती है। हालात ये हैं कि हमें बचाव कार्य के लिए भी दूसरों का मुंह ताकना पड़ रहा है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है, आमतौर पर भीषण अगि्कांड जैसे मौकों पर भी हमारी मजबूरी सामने आती है। कुछ वक्त पहले कोलकाता के एक व्यस्तम बाजार में लगी आग को बुझाने में फायर फाइटरों को काफी मशक्कतों का सामना करना पड़ा।
तंग रास्ते और पुरानी बसावट के चलते आग ने चंद मिनटों में ही विकराल रूप अख्तियार कर लिया था। जब आग कई मंजिला ऊंची इमारत पर लगी हो तो फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियों का पानी भी कम पड़ जाता है। ऐसे वक्त में कोई दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की जाती। अधिकतर बड़े देशों में ऐसी स्थिति से निपटने के लिए फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ-साथ हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल भी किया जाता है। हेलीकॉप्टर से एक बार में ही काफी मात्रा में पानी निकल सकता है जो दहकती आग को शांत करने में यादा कारगर होता है। निश्चित तौर पर राहत और बचाव कार्य का ये तरीका यादा खर्चीला है मगर ये यादा कारगर भी है। शायद खर्चे के चलते ही इस बारे में अब तक कोई विचार नहीं किया गया। दो-तीन साल पहले राजस्थान में नदी के तेज बहाव में फंसे लोग पर्याप्त मदद के अभाव में एक-एक करके मौत के आगोश में समा गए थे। मीडिया ने इस घटना की लाइव फुटेज घंटों चलाई मगर सरकारी मदद वक्त पर नहीं पहुंची। प्रशासन के लिए एक हेलिकॉप्टर का इंतजाम करना कितना बड़ा काम है ये इस घटना के बाद मालूम चला। अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल में र्हुई दो ट्रेन दुर्घटनाओं में राहत और बचाव कार्य हादसे के काफी देर के बाद शुरू हो सका। यदि सही वक्त पर लोगों को बचाने का काम शुरू कर दिया जाता तो बहुत सी जिंगदियों को बचाया जा सकता था। ट्रेन या सड़क हादसों के वक्त यादातर बचाव दल देर से ही पहुंच पाता है, इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन कारणों को दूर करने के बारे में हम आखिर कब सोचना शुरू करेंगे? शुक्र है हमारे यहां मैक्सिको की खाड़ी जैसा कुछ नहीं हुआ, अगर बीपी की तरह कोई भारतीय कंपनी ऐसा कुछ कर देती तो शायद रिसाव कभी बंद ही नहीं हो पाता। भले ही अब चित्रा और खलीसिया की टक्कर के लिए उनके कप्तानों को दोषी ठहराने की कवायदों को परवान चढ़ाया जा रहा हो मगर केवल ऐसा करने से ही भविष्य की घटनाओं पर विराम नहीं लगाया जा सकता। दोषियों को दंड मिले ये जरूरी भी है लेकिन मौजूदा व्यवस्था की खामियों को दुरुस्त करना भी उतना ही जरूरी है।
आज डिजास्टर मैनेजमेंट की डिक्शनरी में कुछ नए शब्द जोड़ने की जरूरत है। भले ही देश की अर्थव्यवस्था मजबूती के नए-नए आयाम स्थापित कर रही हो मगर जब तक इन बुनियादी मुद्दों पर हमारी पकड़ मजबूत नहीं होती तब तक सबकुछ बेकार है। जरा सोचके देखिए अगर कल सूनामी जैसी आपदा से हमारा सामना हो जाए तो क्या हम इतने सक्षम हैं कि अपने आप को खड़ा रख सकेंगे, निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में ही होगा। सरकार को आपदा प्रबंधन जैसे गंभीर मुद्दे पर गंभीरता के साथ रणनीति बनाने की जरूरत है और संसाधनों के अभाव को दूर करने की भी ताकि कुछ सौ कंटेनरों को निकालने या आग बुझाने में हमें उतना वक्त ना लगे जितना बर्बादी के लिए काफी होता है।
Thursday, July 29, 2010
हजरत ने तो नहीं कहा, मुझे कुर्बानी चाहिएU
नीरज नैयर
बीते दिनों ऐसे ही सड़क से गुजरते हुए कुछ लोग दिखाई दिए, उन्होंने अपनी बाइक के पिछले हिस्से में एक डंडा फंसाया हुआ था। जिसके दोनों तरफ मुर्गियों को बेतरतीबी से लटकाया गया था। मुर्गियां फड़फड़ा रही थीं, लटके-लटके उनकी आवाज ने भी शायद उनका साथ छोड़ दिया था। चंद पलों के लिए उनकी तड़पन दिखाई देती और फिर ऐसे खामोश हो जातीं जैसे कभी जान थी ही नहीं। थोड़ी ही देर में वो बाइक आंखों से ओझल हो गई, और एक आत्मग्लानी मन में लिए करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह मैं भी आगे बढ़ निकला। ऐसी दुर्दशा तो उस आलू-भिंडी-टमाटर की भी नहीं होती होगी जिसमें कोई जान नहीं होती। पर शायद मांस का व्यापार करने और खाने वालों की नजर में ये जीवित प्राणी निर्जीव वस्तु से भी गया गुजरा स्थान रखते हैं।
क्रूरता के कई मायने हैं और वो कई रूप में हमारे सामने आती है, लेकिन इस क्रूरता को क्या नाम दिया जाए। ये मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं। इस वाकये ने कुछ साल पहले एक अखबार में छपी उन तस्वीरों की याद ताजा कर दी है, जिसकी भयावहता आज भी मेरे बदन में सिरहन पैदा कर देती है। वो तस्वीरें ईद के बाद प्रकाशित हुईं थीं। हाथों में धारधार हथियार लिए मुस्लिम समुदाय के लोग एक ऊंट पर प्रहार कर रहे थे, ऊंट के गले से खून की धारा बह रही थी और उसकी आंखों में दर्द का सैलाब उमड़ आया था। वो चीख रहा था मगर उसकी कद्रन कर देने वाली चीख उल्लास के शोर में दब गई थी। उन तस्वीरों को देखकर मेरे मुंह से सबसे पहले बस यही निकला था, आखिर ये कैसा त्योहार। कुर्बानी और बलि के नाम पर बेजुबानों को बेमौत मारा जाता है। मारने
वालों के पास अपने बचाव की तमाम दलीलें है, कोई इसे परवरदिगार का पैगाम कहता है तो कोई देवी का संदेश। लेकिन क्या इन दलीलों की प्रमाणिकता सिध्द की जा सकती है? जो मुस्लिम समुदाय कुर्बानी की बातें करता है वो हजरत मुहम्मद के जीवन से कुछ सीख क्यों नहीं लेता। हजरत साहब ने तो कभी किसी पशु-पक्षी को कष्ट पहुंचाने तक के बारे में भी नहीं सोचा।
बात करीब पंद्रह सौ साल पहले की है, अरब के रेगिस्तान से एक काफिला गुजर रहा था। कुछ दूर चलने के बाद काफिले के सरदार ने उचित स्थान का चुनाव कर रात में पड़ाव डालने का फैसला लिया। काफिले वालों ने ऊंटों पर लदा अपना-अपना सामान उतारा। कुछ देर के आराम के बाद उन्होंने नमाज अता की और खाना पकाने के लिए चूल्हे जलाना शुरू कर दिए। काफिले के सरदार एक चूल्हे के पास पड़े पत्थर पर बैठकर जलती हुई आग को निहारने लगे। अचानक ही उनकी निगाह चूल्हे के नजदीक बने चीटियों के बिल पर गई, जो आग की तपिश से व्याकुल होकर यहां यहां-वहां भागने के लिए रास्ता तलाश रहीं थीं। चीटियों की इस व्याकुलता ने सरदार को भी व्याकुल कर दिया। वो अपनी जगह से उठे और चीखकर बोले, आग बुझाओ, आग बुझाओ। उनके साथियों ने बिना कोई सवाल-जवाब किए तुरंत आग बुझा दी। सरदार ने पानी का छिड़काव कर चूल्हे को ठंडा किया ताकि चीटिंयों को राहत मिल सके। काफिले वालों ने अपना सामान उठाया और दूसरे स्थान की ओर चल निकले। उन चीटिंयों के लिए जिन्हें शायद हमनें कभी जीवित की श्रेणी में रखा ही नहीं होगा, चूल्हे बुझवाने वाले सरदार थे हजरत मुहम्मद। हजरत साहब ने हमेशा प्रेम और शांति का पाठ पढ़ाया। उन्होंने स्वयं कहा कि तुम समस्त जीव-जंतुओं पर दया करो, परमात्मा तुम पर दया करेगा।
सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्ला को हजरत मोहम्मद का साथी माना जाता है। उन्होंने कहा है, एक बार हजरत साहब के पास से एक गधा गुजरा, जिसके चेहरे को बुरी तरह दागा गया था और उसके नथुनों से बह रहा खून उसके साथ हुई क्रूरता की कहानी बयां कर रहा था। गधे का दर्द देखकर हजरत साहब दुख और क्रोध में डूब गए, उन्होंने कहा, जिसने भी मूक जानवर को इस अवस्था में पहुंचाया है उसपर धिक्कार है। इस घटना के बाद हजरत मोहम्मद ने घोषणा की कि न तो पशुओं के चेहरे को दागा जाए और न ही उन्हें मारा जाए। याहया इब्ने ने भी हजरत मोहम्मद की करुणा और प्रेमभाव का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि एक दिन मैं मोहम्मद साहब के पास बैठा था, तभी एक ऊंट दौड़ता हुआ आया और साहब के सामने आकर बैठ गया। उसकी आंखों से अशु्रधारा बह रही थी। मोहम्मद साहब ने तुरंत मुझसे कहा, जाओ देखो ये किसका ऊंट है और इसके साथ क्या हुआ है। मैं किसी तरह ऊंट के मालिक को को खोजकर ले आया, मोहम्मद साहब ने उससे पूछा, क्या ये ऊंट तुम्हारा है? उसने इसपर अनभिग्ता जताई। उसने कहा, हम पहले इसे पानी ढोने के काम में इस्तेमाल किया करता था, पर अब ये बूढा हो चुका है और काम करने लायक नहीं है। इसलिए हमसब ने मिलकर फैसला लिया है कि इसे काटकर गोश्त बांट लेंगे।
हजरत साहब ने कहा, इसे मत काटो या तो इसे बेच दो या मुझे ऐसे ही दे दो। इसपर उस व्यक्ति ने कहा, जनाब आप इसे बगैर कीमत के ही रख लीजिए। मोहम्मद साहब ने उस ऊंट पर सरकारी निशान लगाया और उसे सरकारी जानवरों में शामिल कर लिया। हजरत ने उस व्यक्ति के लिए धिक्कार कहा है जो किसी जीव को निशाना बनाए। उन्होंने फरमाया है कि अगर कोई व्यक्ति गौंरेया को बेकार मारेगा तो कयामत के दिन वह अल्लाह को फरियाद करेगी कि इसने मुझे कत्ल किया था। हजरत मोहम्मद ने जानवरों से उनकी शक्ति से अधिक काम लेने को भी गलत बताया है। एक बार की बात है हजरत साहब ने देखा कि एक काफिला जाने की तैयारी कर रहा है। काफिले में शामिल एक ऊंट पर इतना बोझ लादा गया कि वो भार के बोझ तले दबा जा रहा था। हजरत साहब ने तुरंत उसका बोझ कम करने को कहा।
इस्लाम में एक चींटी की अकारण हत्या को भी पाप बताया गया है, बावजूद इसके कुर्बानी के नाम पर बेजुबानों को निर्दयीता से मौत के घाट उतार दिया जाता है। हजरत साहब ने कहा था, जिसके मन में दयाभाव नहीं, वह अच्छा मनुष्य नहीं हो सकता। इसलिए दया और सहानुभूति एक सच्चे मुसलमान के लिए जरूरी है। बात सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक ही सीमित नहीं है, हिंदू धर्म में भी अंधी आस्था के नाम पर देवी-देवताओं को बलि चढ़ाई जाती है। आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत बड़ा फासला होता है, लेकिन अफसोस की लोग इसे समझना नहीं चाहते। आखिर खून का बोग लगाकर उसे कैसे प्रसन्न किया जा सकता है जो खुद दूसरों को जीवन देता है। जब तक ये बात लोगों को समझ में नही आती, खौफनाक वाकये यूं ही आखों के सामने से गुजरते रहेंगे और हम यूं ही आत्मग्लानी मन में लिए आगे बढ़ते चले जाएंगे।
(प्रदीप शर्मा के aर्तिक्ले के लिए सज्ञान के मुताबिक )
बीते दिनों ऐसे ही सड़क से गुजरते हुए कुछ लोग दिखाई दिए, उन्होंने अपनी बाइक के पिछले हिस्से में एक डंडा फंसाया हुआ था। जिसके दोनों तरफ मुर्गियों को बेतरतीबी से लटकाया गया था। मुर्गियां फड़फड़ा रही थीं, लटके-लटके उनकी आवाज ने भी शायद उनका साथ छोड़ दिया था। चंद पलों के लिए उनकी तड़पन दिखाई देती और फिर ऐसे खामोश हो जातीं जैसे कभी जान थी ही नहीं। थोड़ी ही देर में वो बाइक आंखों से ओझल हो गई, और एक आत्मग्लानी मन में लिए करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह मैं भी आगे बढ़ निकला। ऐसी दुर्दशा तो उस आलू-भिंडी-टमाटर की भी नहीं होती होगी जिसमें कोई जान नहीं होती। पर शायद मांस का व्यापार करने और खाने वालों की नजर में ये जीवित प्राणी निर्जीव वस्तु से भी गया गुजरा स्थान रखते हैं।
क्रूरता के कई मायने हैं और वो कई रूप में हमारे सामने आती है, लेकिन इस क्रूरता को क्या नाम दिया जाए। ये मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं। इस वाकये ने कुछ साल पहले एक अखबार में छपी उन तस्वीरों की याद ताजा कर दी है, जिसकी भयावहता आज भी मेरे बदन में सिरहन पैदा कर देती है। वो तस्वीरें ईद के बाद प्रकाशित हुईं थीं। हाथों में धारधार हथियार लिए मुस्लिम समुदाय के लोग एक ऊंट पर प्रहार कर रहे थे, ऊंट के गले से खून की धारा बह रही थी और उसकी आंखों में दर्द का सैलाब उमड़ आया था। वो चीख रहा था मगर उसकी कद्रन कर देने वाली चीख उल्लास के शोर में दब गई थी। उन तस्वीरों को देखकर मेरे मुंह से सबसे पहले बस यही निकला था, आखिर ये कैसा त्योहार। कुर्बानी और बलि के नाम पर बेजुबानों को बेमौत मारा जाता है। मारने
वालों के पास अपने बचाव की तमाम दलीलें है, कोई इसे परवरदिगार का पैगाम कहता है तो कोई देवी का संदेश। लेकिन क्या इन दलीलों की प्रमाणिकता सिध्द की जा सकती है? जो मुस्लिम समुदाय कुर्बानी की बातें करता है वो हजरत मुहम्मद के जीवन से कुछ सीख क्यों नहीं लेता। हजरत साहब ने तो कभी किसी पशु-पक्षी को कष्ट पहुंचाने तक के बारे में भी नहीं सोचा।
बात करीब पंद्रह सौ साल पहले की है, अरब के रेगिस्तान से एक काफिला गुजर रहा था। कुछ दूर चलने के बाद काफिले के सरदार ने उचित स्थान का चुनाव कर रात में पड़ाव डालने का फैसला लिया। काफिले वालों ने ऊंटों पर लदा अपना-अपना सामान उतारा। कुछ देर के आराम के बाद उन्होंने नमाज अता की और खाना पकाने के लिए चूल्हे जलाना शुरू कर दिए। काफिले के सरदार एक चूल्हे के पास पड़े पत्थर पर बैठकर जलती हुई आग को निहारने लगे। अचानक ही उनकी निगाह चूल्हे के नजदीक बने चीटियों के बिल पर गई, जो आग की तपिश से व्याकुल होकर यहां यहां-वहां भागने के लिए रास्ता तलाश रहीं थीं। चीटियों की इस व्याकुलता ने सरदार को भी व्याकुल कर दिया। वो अपनी जगह से उठे और चीखकर बोले, आग बुझाओ, आग बुझाओ। उनके साथियों ने बिना कोई सवाल-जवाब किए तुरंत आग बुझा दी। सरदार ने पानी का छिड़काव कर चूल्हे को ठंडा किया ताकि चीटिंयों को राहत मिल सके। काफिले वालों ने अपना सामान उठाया और दूसरे स्थान की ओर चल निकले। उन चीटिंयों के लिए जिन्हें शायद हमनें कभी जीवित की श्रेणी में रखा ही नहीं होगा, चूल्हे बुझवाने वाले सरदार थे हजरत मुहम्मद। हजरत साहब ने हमेशा प्रेम और शांति का पाठ पढ़ाया। उन्होंने स्वयं कहा कि तुम समस्त जीव-जंतुओं पर दया करो, परमात्मा तुम पर दया करेगा।
सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्ला को हजरत मोहम्मद का साथी माना जाता है। उन्होंने कहा है, एक बार हजरत साहब के पास से एक गधा गुजरा, जिसके चेहरे को बुरी तरह दागा गया था और उसके नथुनों से बह रहा खून उसके साथ हुई क्रूरता की कहानी बयां कर रहा था। गधे का दर्द देखकर हजरत साहब दुख और क्रोध में डूब गए, उन्होंने कहा, जिसने भी मूक जानवर को इस अवस्था में पहुंचाया है उसपर धिक्कार है। इस घटना के बाद हजरत मोहम्मद ने घोषणा की कि न तो पशुओं के चेहरे को दागा जाए और न ही उन्हें मारा जाए। याहया इब्ने ने भी हजरत मोहम्मद की करुणा और प्रेमभाव का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि एक दिन मैं मोहम्मद साहब के पास बैठा था, तभी एक ऊंट दौड़ता हुआ आया और साहब के सामने आकर बैठ गया। उसकी आंखों से अशु्रधारा बह रही थी। मोहम्मद साहब ने तुरंत मुझसे कहा, जाओ देखो ये किसका ऊंट है और इसके साथ क्या हुआ है। मैं किसी तरह ऊंट के मालिक को को खोजकर ले आया, मोहम्मद साहब ने उससे पूछा, क्या ये ऊंट तुम्हारा है? उसने इसपर अनभिग्ता जताई। उसने कहा, हम पहले इसे पानी ढोने के काम में इस्तेमाल किया करता था, पर अब ये बूढा हो चुका है और काम करने लायक नहीं है। इसलिए हमसब ने मिलकर फैसला लिया है कि इसे काटकर गोश्त बांट लेंगे।
हजरत साहब ने कहा, इसे मत काटो या तो इसे बेच दो या मुझे ऐसे ही दे दो। इसपर उस व्यक्ति ने कहा, जनाब आप इसे बगैर कीमत के ही रख लीजिए। मोहम्मद साहब ने उस ऊंट पर सरकारी निशान लगाया और उसे सरकारी जानवरों में शामिल कर लिया। हजरत ने उस व्यक्ति के लिए धिक्कार कहा है जो किसी जीव को निशाना बनाए। उन्होंने फरमाया है कि अगर कोई व्यक्ति गौंरेया को बेकार मारेगा तो कयामत के दिन वह अल्लाह को फरियाद करेगी कि इसने मुझे कत्ल किया था। हजरत मोहम्मद ने जानवरों से उनकी शक्ति से अधिक काम लेने को भी गलत बताया है। एक बार की बात है हजरत साहब ने देखा कि एक काफिला जाने की तैयारी कर रहा है। काफिले में शामिल एक ऊंट पर इतना बोझ लादा गया कि वो भार के बोझ तले दबा जा रहा था। हजरत साहब ने तुरंत उसका बोझ कम करने को कहा।
इस्लाम में एक चींटी की अकारण हत्या को भी पाप बताया गया है, बावजूद इसके कुर्बानी के नाम पर बेजुबानों को निर्दयीता से मौत के घाट उतार दिया जाता है। हजरत साहब ने कहा था, जिसके मन में दयाभाव नहीं, वह अच्छा मनुष्य नहीं हो सकता। इसलिए दया और सहानुभूति एक सच्चे मुसलमान के लिए जरूरी है। बात सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक ही सीमित नहीं है, हिंदू धर्म में भी अंधी आस्था के नाम पर देवी-देवताओं को बलि चढ़ाई जाती है। आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत बड़ा फासला होता है, लेकिन अफसोस की लोग इसे समझना नहीं चाहते। आखिर खून का बोग लगाकर उसे कैसे प्रसन्न किया जा सकता है जो खुद दूसरों को जीवन देता है। जब तक ये बात लोगों को समझ में नही आती, खौफनाक वाकये यूं ही आखों के सामने से गुजरते रहेंगे और हम यूं ही आत्मग्लानी मन में लिए आगे बढ़ते चले जाएंगे।
(प्रदीप शर्मा के aर्तिक्ले के लिए सज्ञान के मुताबिक )
Wednesday, July 21, 2010
पवार की सियासी गुगली
नीरज नैयर
क्रिकेट की रियासत के सबसे ऊंचे सिहांसन पर बैठने के बाद शरद पवार को कृषि मंत्रालय भारी महसूस होने लगा है। उन्हें लगता है कि दो इतनी बड़ी जिम्मेदारियां वो एक साथ नहीं उठा पाएंगे। ये वो ही पवार हैं जो आईसीसी अध्यक्ष बनने से पहले कामकाज के प्रभावित होने की बातों को सिरे से खारिज कर रहे थे। लेकिन कुर्सी संभालते ही अचानक उन्हें आभास हो रहा है कि वो गलत थे। ये बात बिल्कुल सही है कि दो नावों पर सवार होकर नहीं चला जा सकता, मगर ऐसे वक्त में जब देश महंगाई की आग में जल रहा है पवार का क्रिकेट को तवाो देना क्या ये नहीं दर्शाता कि उनके लिए कृषि मंत्रालय पार्ट टाइम जॉब जैसा है। पवार का काम का भार कम करने का आग्रह करना ऐसा लगता जैसे एक कर्मचारी बॉस से अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऑफिस टाइम में रियायत की मांग कर रहा हो।
पवार कृषि मंत्रालय में रहते हैं या नहीं, इससे आम जनता को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन यूपीए सरकार की छवि को इससे बट्टा जरूर लग गया है। बतौर कृषिमंत्री पवार की नाकामयाबियों को लेकर जो बातें सालों से उठती आ रही हैं, उनपर इस पूरे मामले ने एक तरह से मुहर लगाई है। वैसे पवार के इस क्रिकेट प्रेम के हिलोरे मारने के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। वो अच्छे से जानते हैं कि सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद महंगाई नीचे आने वाली नहीं है। डीजल के दामों में बढ़ोतरी ने सिंचाई का खर्च बढ़ा दिया है और खाद पर सब्सिडी घटाने का असर पहले से ही मौजूद है। साथ ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफे के बाद से ट्रांपोटर्ेशन चार्ज भी 10 प्रतिशत बढ़ चुका है, ऐसे में कोई महान आशावादी ही होगा जो महंगाई कम होने की आस लगा सकता है। शरद पवार सियासत की दुनिया के मंझे हुए खिलाड़ी हैं।
जिस तरह अपने भार तले दूसरों को कुचलकर वो आईसीसी अध्यक्ष के पद तक जा पहुंचे, वैसे ही महंगाई के जाल में वो किसी दूसरे को उलझाकर दूर से तमाशा देखना चाहते हैं। अब तक महंगाई को लेकर उठने वाली हर उंगली उन्हीं की तरफ होती थी, मगर अब के बाद लोग उन्हें सीधे तौर पर निशाना नहीं बनाएंगे। और इस तरह धीरे-धीरे वो महंगाई के कलंक को भी धो सकेंगे। पवार के कृषि मंत्रालय संभालने के बाद से ही महंगाई अनियंत्रित भागी जा रही है, पिछले कुछ वक्त में ही मुद्रास्फीति की दर ने नए-नए आयाम स्थापित किए हैं। बीते दिनों विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए भारत बंद की सफलता इस बात को दर्शाती है कि आम जनता में सरकार और उसके मंत्रियों के प्रति खासा गुस्सा है। और इस फेहरिस्त में कहीं न कहीं शरद पवार का नाम सबसे पहले है। बतौर कृषिमंत्री आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को थामने के उपाए करना पवार साहब की जिम्मेदारी बनती थी लेकिन उस दौर में वो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई में अपने विरोधियों को निपटाने में व्यस्त रहे। आम जनता के साथ दिखने के बजाए वो स्टेडियमों में यादा देखे गए। उन्होंने महंगाई की मुश्किलों को जानते हुए भी बांगलादेश दौरे पर भेजी जाने वाली दोयम दर्जे की टीम का चुनाव किया। उनकी जुबान पर आटा-दाल, चावल के भाव से अधिक ललित मोदी जैसों के नाम अधिक रहे। णक्रिकेट से जुड़ा होने के बावजूद उन्होंने महंगाई के मुद्दे पर जनता के साथ जमकर फुटबॉल खेला। वो एक के बाद एक गोल दागते रहे और जनता असहायों की तरह खड़ी खामोशी से सबकुछ देखती रही। पवार को कृषि का एनसाइलोपीडिया कहा जाता है, उनके बारे में प्रसिध्द है कि वो आंखमूंदकर भी बीजों की पहचान बता सकते हैं।
उनकी खुद भी कई शुगर मिल्स हैं। इसलिए ये तो नहीं कहा जा सकता कि समझ के अभाव में वो गलतियों पर गलतियां करते गए। जब शरद पवार को देश के करोड़ों लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी सौंपी गई तब मानसून को लेकर स्थिति इतनी भी खराब नहीं थी कि खाद्य पदार्थों के दामों में आग लग जाए। उन्होंने यदि क्रिकेट के मुकाबले थोड़ा सा ध्यान यहां भी लगाया होता तो महंगाई के बेकाबू होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अब जब एक गेंद में 20 रन वाली स्थिति पैदा हो गई है तो वो मैदान छोड़कर भागने की फिराक में हैं। बतौर आईसीसी अध्यक्ष उन्हें शोहरत भी मिलेगी और दौलत भी, मगर कृषि मंत्रालय में केवल महजमारी और ताने ही सुनने को मिलेंगे। बकौल शरद पवार वो पिछले कई महीनों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भार कम करने का आग्रह कर रहे हैं। यानी उन्होंने प्लेटफार्म बनाने का काम बहुत पहले से ही आरंभ कर दिया था। उन्हें इसका इल्म था कि आईसीसी की कमान उनके अलावा किसी और को नहीं मिलने वाली, इसलिए वो सोच-समझकर पत्ते चलते गए और आज अपने हिसाब से वो खेल को आखिरी पड़ाव तक ले आए हैं।
उनकी गुगली ने मनमोहन सिंह को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक-दो बार सार्वजनिक मंचों से वो महंगाई के लिए शरद पवार को कुसूरवार ठहरा चुके हैं। मगर अब उनके पास अपना दामन बचाने का कोई मोहरा नहीं होगा। हां, ये हो सकता है कि वो शरद पवार की गुगली को खुद खेलने के बाद रामविलास पासवान को आगे कर दें। ऐसी स्थिति में पवार के माथे से धुला महंगाई का कलंक उनके ऊपर आने के बजाए लोकजनशक्ति पार्टी के खाते में चला जाएगा। मराठा नेता पवार ने महंगाई को अनियंत्रित स्थिति में छोड़कर भले ही जिम्मेदारी से मुहं छिपाकर भागने वाला काम किया है, लेकिन उनका ये फैसला उनके व्यक्तिगत हितों के लिए पूरी तरह अनुकूल है।
क्रिकेट की रियासत के सबसे ऊंचे सिहांसन पर बैठने के बाद शरद पवार को कृषि मंत्रालय भारी महसूस होने लगा है। उन्हें लगता है कि दो इतनी बड़ी जिम्मेदारियां वो एक साथ नहीं उठा पाएंगे। ये वो ही पवार हैं जो आईसीसी अध्यक्ष बनने से पहले कामकाज के प्रभावित होने की बातों को सिरे से खारिज कर रहे थे। लेकिन कुर्सी संभालते ही अचानक उन्हें आभास हो रहा है कि वो गलत थे। ये बात बिल्कुल सही है कि दो नावों पर सवार होकर नहीं चला जा सकता, मगर ऐसे वक्त में जब देश महंगाई की आग में जल रहा है पवार का क्रिकेट को तवाो देना क्या ये नहीं दर्शाता कि उनके लिए कृषि मंत्रालय पार्ट टाइम जॉब जैसा है। पवार का काम का भार कम करने का आग्रह करना ऐसा लगता जैसे एक कर्मचारी बॉस से अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऑफिस टाइम में रियायत की मांग कर रहा हो।
पवार कृषि मंत्रालय में रहते हैं या नहीं, इससे आम जनता को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन यूपीए सरकार की छवि को इससे बट्टा जरूर लग गया है। बतौर कृषिमंत्री पवार की नाकामयाबियों को लेकर जो बातें सालों से उठती आ रही हैं, उनपर इस पूरे मामले ने एक तरह से मुहर लगाई है। वैसे पवार के इस क्रिकेट प्रेम के हिलोरे मारने के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। वो अच्छे से जानते हैं कि सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद महंगाई नीचे आने वाली नहीं है। डीजल के दामों में बढ़ोतरी ने सिंचाई का खर्च बढ़ा दिया है और खाद पर सब्सिडी घटाने का असर पहले से ही मौजूद है। साथ ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफे के बाद से ट्रांपोटर्ेशन चार्ज भी 10 प्रतिशत बढ़ चुका है, ऐसे में कोई महान आशावादी ही होगा जो महंगाई कम होने की आस लगा सकता है। शरद पवार सियासत की दुनिया के मंझे हुए खिलाड़ी हैं।
जिस तरह अपने भार तले दूसरों को कुचलकर वो आईसीसी अध्यक्ष के पद तक जा पहुंचे, वैसे ही महंगाई के जाल में वो किसी दूसरे को उलझाकर दूर से तमाशा देखना चाहते हैं। अब तक महंगाई को लेकर उठने वाली हर उंगली उन्हीं की तरफ होती थी, मगर अब के बाद लोग उन्हें सीधे तौर पर निशाना नहीं बनाएंगे। और इस तरह धीरे-धीरे वो महंगाई के कलंक को भी धो सकेंगे। पवार के कृषि मंत्रालय संभालने के बाद से ही महंगाई अनियंत्रित भागी जा रही है, पिछले कुछ वक्त में ही मुद्रास्फीति की दर ने नए-नए आयाम स्थापित किए हैं। बीते दिनों विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए भारत बंद की सफलता इस बात को दर्शाती है कि आम जनता में सरकार और उसके मंत्रियों के प्रति खासा गुस्सा है। और इस फेहरिस्त में कहीं न कहीं शरद पवार का नाम सबसे पहले है। बतौर कृषिमंत्री आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को थामने के उपाए करना पवार साहब की जिम्मेदारी बनती थी लेकिन उस दौर में वो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई में अपने विरोधियों को निपटाने में व्यस्त रहे। आम जनता के साथ दिखने के बजाए वो स्टेडियमों में यादा देखे गए। उन्होंने महंगाई की मुश्किलों को जानते हुए भी बांगलादेश दौरे पर भेजी जाने वाली दोयम दर्जे की टीम का चुनाव किया। उनकी जुबान पर आटा-दाल, चावल के भाव से अधिक ललित मोदी जैसों के नाम अधिक रहे। णक्रिकेट से जुड़ा होने के बावजूद उन्होंने महंगाई के मुद्दे पर जनता के साथ जमकर फुटबॉल खेला। वो एक के बाद एक गोल दागते रहे और जनता असहायों की तरह खड़ी खामोशी से सबकुछ देखती रही। पवार को कृषि का एनसाइलोपीडिया कहा जाता है, उनके बारे में प्रसिध्द है कि वो आंखमूंदकर भी बीजों की पहचान बता सकते हैं।
उनकी खुद भी कई शुगर मिल्स हैं। इसलिए ये तो नहीं कहा जा सकता कि समझ के अभाव में वो गलतियों पर गलतियां करते गए। जब शरद पवार को देश के करोड़ों लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी सौंपी गई तब मानसून को लेकर स्थिति इतनी भी खराब नहीं थी कि खाद्य पदार्थों के दामों में आग लग जाए। उन्होंने यदि क्रिकेट के मुकाबले थोड़ा सा ध्यान यहां भी लगाया होता तो महंगाई के बेकाबू होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अब जब एक गेंद में 20 रन वाली स्थिति पैदा हो गई है तो वो मैदान छोड़कर भागने की फिराक में हैं। बतौर आईसीसी अध्यक्ष उन्हें शोहरत भी मिलेगी और दौलत भी, मगर कृषि मंत्रालय में केवल महजमारी और ताने ही सुनने को मिलेंगे। बकौल शरद पवार वो पिछले कई महीनों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भार कम करने का आग्रह कर रहे हैं। यानी उन्होंने प्लेटफार्म बनाने का काम बहुत पहले से ही आरंभ कर दिया था। उन्हें इसका इल्म था कि आईसीसी की कमान उनके अलावा किसी और को नहीं मिलने वाली, इसलिए वो सोच-समझकर पत्ते चलते गए और आज अपने हिसाब से वो खेल को आखिरी पड़ाव तक ले आए हैं।
उनकी गुगली ने मनमोहन सिंह को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक-दो बार सार्वजनिक मंचों से वो महंगाई के लिए शरद पवार को कुसूरवार ठहरा चुके हैं। मगर अब उनके पास अपना दामन बचाने का कोई मोहरा नहीं होगा। हां, ये हो सकता है कि वो शरद पवार की गुगली को खुद खेलने के बाद रामविलास पासवान को आगे कर दें। ऐसी स्थिति में पवार के माथे से धुला महंगाई का कलंक उनके ऊपर आने के बजाए लोकजनशक्ति पार्टी के खाते में चला जाएगा। मराठा नेता पवार ने महंगाई को अनियंत्रित स्थिति में छोड़कर भले ही जिम्मेदारी से मुहं छिपाकर भागने वाला काम किया है, लेकिन उनका ये फैसला उनके व्यक्तिगत हितों के लिए पूरी तरह अनुकूल है।
Tuesday, July 13, 2010
बाघ तभी बचेंगे, जब सरकार बचाना चाहेगी
नीरज नैयर
कहते हैं कोई मुद्दा अगर मीडिया में आ जाए तो उसे अंजाम तक पहुंचते देर नहीं लगती। लेकिन बाघ सरंक्षण का मुद्दा सुर्खियां बटोरने के बाद भी वहीं का वहीं है। अब तो इस बारे में कोई खबर भी सुनने को नहीं मिलती। सरकार के पास कश्मीर, महंगाई जैसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर विचार करना शायद उसे बाघ बचाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। बाघों का क्या है, बचे तो ठीक नहीं तो एकाध बाघ स्मारक बनाकर काम चला लिया जाएगा। राजस्थान के सरिस्का से बाघों के गायब होने की खबर के बाद से अब तक एक कदम भी ऐसा नहीं बढ़ाया गया जिसके सार्थक परिणाम निकलते दिखाई दे रहे हों। सरकारी मशीनरी की चाल-ढाल देखकर तो यही कहा जा सकता है कि शायद उसने महंगाई की तरह बाघों को बचाने का जिम्मा भी भगवान पर छोड़ दिया है। गनीमत बस इतनी भर है कि जयराम रमेश कृषिमंत्री की तरह बयान नहीं दे रहे हैं।
शरद पवार ने तो महंगाई के लिए सीधे तौर पर मानसून को दोषी ठहराया था, यदि जयराम भी ऐसा कुछ कह देते तो तूफान में टिमटिमाते दीए माफिक जो उम्मीद बची है वो भी खत्म हो गई होती। बाघ सरंक्षण पर सरकार को अपनी कार्ययोजना पर फिर से विचार करना होगा, मौजूदा हालात में बर्षों पुरानी सोच के आधार पर कोई कारगर तरीका नहीं खोजा जा सकता। सरकार और इस मुद्दे से जुड़ी तमाम संस्थाएं इस बात पर जोर देती रही हैं कि टाइगर रिजर्व के आसपास स्थित गांववालों को इस मुहिम में शामिल किया जाए। उन्हें लगता है कि स्थानीय लोगों के समर्थन के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है। जबकि हकीकत शायद उतनी हसीन नहीं है, बाघ और मानव के बीच की दूरी जितनी कम होगी खतरा उतना ही अधिक रहेगा। बाघ या दूसरे वन्यजीवों के शिकार में सबसे बड़ा खेल पैसे का है, शिकारी एक शिकार से हजारों कमाते हैं और उनके ऊपर की एजेंसियां लाखों। एक अनुमान के मुताबिक चीन में बाघ की खाल की कीमत तकरीबन 12500 डॉलर है। भारतीय मुद्रा के हिसाब से संख्या पांच लाख से ज्यादा रुपए बैठती है। ऐसे में शिकारी बाघ तक पहुंच को आसान बनाने के लिए कुछ रुपए थमाकर क्या उन गांव वालों का साथ नहीं खरीद सकते जिन्हें सेव टाइगर मिशन से जोड़ा जा रहा है। अब तक ऐसा ही होता आया है, शिकारी स्थानीय निवासियों या वन्य विभाग के मुलाजिमों से बाघ की खोज खबर लेते हैं और उसके ऐवज उनकी जेब भारी की जाती है। सरिस्का के वक्त भी ये बात सामने आई थी कि बाघों के सफाए में उन लोगों का भी योगदान था जिन्हें इस खूबसूरत प्राणी की हिफाजत के लिए तैनात किया गया था। सबसे ज्यादा जरूरी बात ये जानना है कि अभ्यारणयों या जंगलों के आस-पास रहने वाले कितने लोग बाघ या दूसरे वन्यजीवों को बचाने के प्रति संजीदा हैं। ऐसे लोगों के लिए वन्यप्राणी मतलब खतरा होता है, और उनके लिए सबसे ज्यादा चिंता का विषय उनके पालतू जानवर होते हैं। यदि कोई जंगली जानवर उनके पालतू पशुओं को नुकसान पहुंचाता है तो क्या वो उसके सरंक्षण के विचार पैदा कर सकेंगे। बाघों को बचाने के लिए सबसे पहला कदम सरंक्षित क्षेत्रों से आबादी का विस्थापन होना चाहिए। इसके अलावा वन विभाग के अमले को भी चुस्त-दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है। इस विभाग में आधे से ज्यादा लोग महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं।
जंगलों में घूमने वालों से लेकर एसी केबिनों में बैठने वालों तक पूरा ढंाचा बदले जाने की जरूरत है। ये कोशिश की जानी चाहिए कि वन्यजीवों की सुरक्षा का जिम्मा युवा हाथों में दिया, इसके लिए सालों से रिक्त पड़े फॉरेस्ट गार्ड और रेंजरों के पदों को भरना होगा। इस मामले में सरकार बहुत सुस्त चाल से आगे चल रही है, जबकि ये सबसे बड़ी जरूरत है। इसके अतिरिक्त निचले स्तर पर तनख्वाह बढ़ाने पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। रणनीति बनाने वालों के साथ-साथ मोर्चा लेने वालों को भी तवज्जो दिया जाना चाहिए। जंगलों की खाक छानने वाले एक गार्ड को जितना वेतन मिलता है, उतने में आज के समय में घर चलाना बिल्कुल भी आसान नहीं। किसी भी इंसान का ईमान उसकी आर्थिक स्थिति और जरूरतों के बीच के फासले को देखकर ही ढोलता है। अगर इस फासले को कम किया जा सके तो शायद ईमान को कायम रखने में मदद मिल सकती है। फॉरेस्ट गार्ड-रेंजरों और दूसरे स्टाफ को उचित तनख्वाह मिले, उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण के साथ अत्याधुनिक तकनीकि मुहैया करवाई जाए तो बद से बदतर होती स्थिति को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन इतने सबके लिए सबसे पहले सरकार को बाघ सरंक्षण को पार्ट टाइम जॉब के रूप में लेना छोडऩा होगा।
दूसरे मुद्दों की तरह इस मुद्दे को भी प्राथमिताओं की सूची में शुमार किए बगैर बाघों के साथ न्याय नहीं हो सकता। कुछ वक्त पहले भारत सरकार ने 13 चिन्हित बाघ संरक्षित क्षेत्रों में विशेष बाघ सुरक्षा बल (एसटीपीएफ) तैनात करने का फैसला लिया था। लेकिन उनकी तैनाती कोई खास असर डाल पाएगी कहना मुश्किल है, क्योंकि साल 2008 के बजट भाषण में एसटीपीएफ के लिए 50 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की गई थी मगर अब तक इस बारे में सिर्फ बातें ही हो रही हैं। चंद महीनों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बाघों के संबंध में राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की इच्छा जाहिर की थी, पर शायद उस इच्छा को भी अमल में नहीं उतारा गया। कुछ एक मीडिया समूह इस मुद्दे को जरूर लगातार उठाए हुए हैं, लेकिन इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ छिपे हैं। जनता के बीच खुद को संवेदनशील और सामाजिक सरोकार से मतलब रखने वाले की छवि बनाने के लिए सेव टाइगर जैसे कैंपेन चलाए जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक प्रतिष्ठित चैनल ने तो आमजन से बाघ बचाने के सुझाव सुझाने की अपील कर रहा है, लेकिन उसकी संजीदगी का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मेरे द्वारा उनकी वेबसाइट/ब्लॉग पर तमाम संदेश छोडऩे के बाद भी आज तक उनका कोई जवाब नहीं आया। जबकि दूसरे मुद्दों पर वहीं हर रोज गर्मागर्म बहस चलती है। ये सच है कि इस तरह के कैंपेन थोड़ी बहुत जागरुकता फैलाने में मददगार साबित हो सकते हैं, मगर इन तरीकों से बाघों को नहीं बचाया जा सकता। बाघ केवल तब ही बचेंगे जब सरकार बचाना चाहेगी। और इसके लिए मनमोहन सिंह जैसे नेताओं का जागना बेहद जरूरी है।
कहते हैं कोई मुद्दा अगर मीडिया में आ जाए तो उसे अंजाम तक पहुंचते देर नहीं लगती। लेकिन बाघ सरंक्षण का मुद्दा सुर्खियां बटोरने के बाद भी वहीं का वहीं है। अब तो इस बारे में कोई खबर भी सुनने को नहीं मिलती। सरकार के पास कश्मीर, महंगाई जैसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर विचार करना शायद उसे बाघ बचाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। बाघों का क्या है, बचे तो ठीक नहीं तो एकाध बाघ स्मारक बनाकर काम चला लिया जाएगा। राजस्थान के सरिस्का से बाघों के गायब होने की खबर के बाद से अब तक एक कदम भी ऐसा नहीं बढ़ाया गया जिसके सार्थक परिणाम निकलते दिखाई दे रहे हों। सरकारी मशीनरी की चाल-ढाल देखकर तो यही कहा जा सकता है कि शायद उसने महंगाई की तरह बाघों को बचाने का जिम्मा भी भगवान पर छोड़ दिया है। गनीमत बस इतनी भर है कि जयराम रमेश कृषिमंत्री की तरह बयान नहीं दे रहे हैं।
शरद पवार ने तो महंगाई के लिए सीधे तौर पर मानसून को दोषी ठहराया था, यदि जयराम भी ऐसा कुछ कह देते तो तूफान में टिमटिमाते दीए माफिक जो उम्मीद बची है वो भी खत्म हो गई होती। बाघ सरंक्षण पर सरकार को अपनी कार्ययोजना पर फिर से विचार करना होगा, मौजूदा हालात में बर्षों पुरानी सोच के आधार पर कोई कारगर तरीका नहीं खोजा जा सकता। सरकार और इस मुद्दे से जुड़ी तमाम संस्थाएं इस बात पर जोर देती रही हैं कि टाइगर रिजर्व के आसपास स्थित गांववालों को इस मुहिम में शामिल किया जाए। उन्हें लगता है कि स्थानीय लोगों के समर्थन के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है। जबकि हकीकत शायद उतनी हसीन नहीं है, बाघ और मानव के बीच की दूरी जितनी कम होगी खतरा उतना ही अधिक रहेगा। बाघ या दूसरे वन्यजीवों के शिकार में सबसे बड़ा खेल पैसे का है, शिकारी एक शिकार से हजारों कमाते हैं और उनके ऊपर की एजेंसियां लाखों। एक अनुमान के मुताबिक चीन में बाघ की खाल की कीमत तकरीबन 12500 डॉलर है। भारतीय मुद्रा के हिसाब से संख्या पांच लाख से ज्यादा रुपए बैठती है। ऐसे में शिकारी बाघ तक पहुंच को आसान बनाने के लिए कुछ रुपए थमाकर क्या उन गांव वालों का साथ नहीं खरीद सकते जिन्हें सेव टाइगर मिशन से जोड़ा जा रहा है। अब तक ऐसा ही होता आया है, शिकारी स्थानीय निवासियों या वन्य विभाग के मुलाजिमों से बाघ की खोज खबर लेते हैं और उसके ऐवज उनकी जेब भारी की जाती है। सरिस्का के वक्त भी ये बात सामने आई थी कि बाघों के सफाए में उन लोगों का भी योगदान था जिन्हें इस खूबसूरत प्राणी की हिफाजत के लिए तैनात किया गया था। सबसे ज्यादा जरूरी बात ये जानना है कि अभ्यारणयों या जंगलों के आस-पास रहने वाले कितने लोग बाघ या दूसरे वन्यजीवों को बचाने के प्रति संजीदा हैं। ऐसे लोगों के लिए वन्यप्राणी मतलब खतरा होता है, और उनके लिए सबसे ज्यादा चिंता का विषय उनके पालतू जानवर होते हैं। यदि कोई जंगली जानवर उनके पालतू पशुओं को नुकसान पहुंचाता है तो क्या वो उसके सरंक्षण के विचार पैदा कर सकेंगे। बाघों को बचाने के लिए सबसे पहला कदम सरंक्षित क्षेत्रों से आबादी का विस्थापन होना चाहिए। इसके अलावा वन विभाग के अमले को भी चुस्त-दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है। इस विभाग में आधे से ज्यादा लोग महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं।
जंगलों में घूमने वालों से लेकर एसी केबिनों में बैठने वालों तक पूरा ढंाचा बदले जाने की जरूरत है। ये कोशिश की जानी चाहिए कि वन्यजीवों की सुरक्षा का जिम्मा युवा हाथों में दिया, इसके लिए सालों से रिक्त पड़े फॉरेस्ट गार्ड और रेंजरों के पदों को भरना होगा। इस मामले में सरकार बहुत सुस्त चाल से आगे चल रही है, जबकि ये सबसे बड़ी जरूरत है। इसके अतिरिक्त निचले स्तर पर तनख्वाह बढ़ाने पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। रणनीति बनाने वालों के साथ-साथ मोर्चा लेने वालों को भी तवज्जो दिया जाना चाहिए। जंगलों की खाक छानने वाले एक गार्ड को जितना वेतन मिलता है, उतने में आज के समय में घर चलाना बिल्कुल भी आसान नहीं। किसी भी इंसान का ईमान उसकी आर्थिक स्थिति और जरूरतों के बीच के फासले को देखकर ही ढोलता है। अगर इस फासले को कम किया जा सके तो शायद ईमान को कायम रखने में मदद मिल सकती है। फॉरेस्ट गार्ड-रेंजरों और दूसरे स्टाफ को उचित तनख्वाह मिले, उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण के साथ अत्याधुनिक तकनीकि मुहैया करवाई जाए तो बद से बदतर होती स्थिति को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन इतने सबके लिए सबसे पहले सरकार को बाघ सरंक्षण को पार्ट टाइम जॉब के रूप में लेना छोडऩा होगा।
दूसरे मुद्दों की तरह इस मुद्दे को भी प्राथमिताओं की सूची में शुमार किए बगैर बाघों के साथ न्याय नहीं हो सकता। कुछ वक्त पहले भारत सरकार ने 13 चिन्हित बाघ संरक्षित क्षेत्रों में विशेष बाघ सुरक्षा बल (एसटीपीएफ) तैनात करने का फैसला लिया था। लेकिन उनकी तैनाती कोई खास असर डाल पाएगी कहना मुश्किल है, क्योंकि साल 2008 के बजट भाषण में एसटीपीएफ के लिए 50 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की गई थी मगर अब तक इस बारे में सिर्फ बातें ही हो रही हैं। चंद महीनों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बाघों के संबंध में राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की इच्छा जाहिर की थी, पर शायद उस इच्छा को भी अमल में नहीं उतारा गया। कुछ एक मीडिया समूह इस मुद्दे को जरूर लगातार उठाए हुए हैं, लेकिन इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ छिपे हैं। जनता के बीच खुद को संवेदनशील और सामाजिक सरोकार से मतलब रखने वाले की छवि बनाने के लिए सेव टाइगर जैसे कैंपेन चलाए जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक प्रतिष्ठित चैनल ने तो आमजन से बाघ बचाने के सुझाव सुझाने की अपील कर रहा है, लेकिन उसकी संजीदगी का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मेरे द्वारा उनकी वेबसाइट/ब्लॉग पर तमाम संदेश छोडऩे के बाद भी आज तक उनका कोई जवाब नहीं आया। जबकि दूसरे मुद्दों पर वहीं हर रोज गर्मागर्म बहस चलती है। ये सच है कि इस तरह के कैंपेन थोड़ी बहुत जागरुकता फैलाने में मददगार साबित हो सकते हैं, मगर इन तरीकों से बाघों को नहीं बचाया जा सकता। बाघ केवल तब ही बचेंगे जब सरकार बचाना चाहेगी। और इसके लिए मनमोहन सिंह जैसे नेताओं का जागना बेहद जरूरी है।
Friday, July 2, 2010
कश्मीर विवाद:जवानों को नहीं आवाम को संयम बरतना होगा
नीरज नैयर
कल्पना कीजिए की कुछ लोग आपको मार रहे हैं और अपने बचाव में यदि आप उनपर हाथ उठाते हैं तो आपकी भर्त्सना की जाती है, आपको दंडित किया जाता है। कश्मीर में तैनात केंद्रीय अर्ध सैनिक बल आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहे हैं। सीआरपीएफ पर 11 नागरिकों को मारने का आरोप है, घाटी में फोर्स के खिलाफ जबरदस्त माहौल है। हर रोज प्रदर्शन हो रहे हैं, लाठी-डंड़ों से लैस प्रदर्शनकारी हालात काबू करने में लगे जवानों पर हमला बोल रहे हैं। सोपोर, बारामूला, श्रीनगर और अनंतनाग जैसे कुछ इलाकों की सड़कें ईंट-पत्थरों से पटी पड़ी हैं, कहीं टायर जल रहे हैं तो कहीं गाड़ियां। ये सारा फसाद कुछ दिनों पहले सीआरपीएफ की फायरिंग में एक युवक की मौत से शुरू हुआ। इस तरह के हालात घाटी में पहले भी बनते रहे हैं, लेकिन एक लंबी खामोशी के बाद अचानक इतना सब हो जाना किसी बड़ी साजिश की तरफ इशारा कर रहा है। बिल्कुल ऐसी ही स्थिति दो साल पहले इसी मौसम में बनी थी, जब अमरनाथ यात्रियों के लिए अस्थाई टैंट के नाम पर 25 एकड ज़मीन आवंटित की गई थी। इस बार भी अमरनाथ यात्रा के वक्त घाटी सुलग रही है।
दरअसल अलगाववादियों को अमरनाथ यात्रा के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने और पाकिस्तान के पक्ष में माहौल बनाने का सुनहरा मौका मिल जाता है। पाकिस्तान सेना भी इस मौके की तलाश में रहती है ताकि दहशत फैलाने वालों को सीमा पार करवाई जा सके। पिछले साल अगर अमरनाथ यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से हो गई तो इसके पीछे मुंबई हमला है। मुंबई हमले के बाद दोनों देशों के बीच पैदा हुए तनाव ने पाक हुक्मरानों को कश्मीर के बारे में सोचने का मौका ही नहीं दिया। अलगाववादी ताकतें भी समर्थन के अभाव में खामोश बैठी रहीं। लेकिन अब मुंबई हमले का मामला पूरी तरह से ठंडे बस्ते में जा चुका है। पाक पर अब न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का दबाव है और न ही भारत सरकार उसके प्रति कड़े रुख पर अडिग है। दोनों मुल्कों के बीच विश्वास बहाली के नाम पर लंबे समय से रुकी बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हो चुका है। ऐसे में सीमा पार से कश्मीर में बैठे अलगाववादियों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने में पाकिस्तान को कोई नुकसान नहीं। पाक इस बात को अच्छे से समझता है कि कश्मीर जितना सुर्खियों में रहेगा, उतना ही भारत पर दबाव पड़ेगा। पिछले बीस-पच्चीस दिनों से जारी हिंसा की खबरें भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ विदेशी मीडिया में भी प्रमुखता से आ रही हैं। सरकार सेना की सहायता लेने पर विचार कर रही है और संभव है कि एक-दो दिनों पर इस पर अमल भी कर दिया जाए। कश्मीर जैसी घाटी में जहां अशांति आग की तरह फैलती है, सेना दूसरे केंद्रीय बलों और राय पुलिस की अपेक्षा स्थिति से बेहतर तरीके से निपट सकती है। इसलिए यहां ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने घाटी से सेना को हटाकर अशांति के प्रवेश के लिए खुद ही दरवाजे खोले थे। राय के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला यूपीए सरकार के सहयोगी हैं और राय में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। संभवत: इस करके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सेना हटाने के उमर के प्रस्तावों पर सहमत होते गए। मौजूदा वक्त में भी उमर अबदुल्ला के सीआरपीएफ को बेकाबू बल कहने का केंद्र सरकार समर्थन कर रही है।
यदि उमर के इस कथन को मान भी लिया जाए तो फोर्स के बेकाबू होने का जिम्मेदार कोई और नहीं कश्मीर का आवाम है। कर्फ्यू तोड़कर कानून का उल्लंघन करने वाले, सुरक्षाबलों पर पथराव करने वाले क्या निर्दोषों की श्रेणी में आ सकते हैं। 25 जून से 30 जून तक सीआरपीएफ के दर्जनों जवान घायल हुए, क्या इसे जनता का बेकाबूपन नहीं कहा जाएगा। एक रोज पहले एक एजेंसी द्वारा जारी की गई तस्वीर में साफ नजर आ रहा था कि हिंसक और बेकाबू कौन हैं। कुछ लोग मिलकर लाठी-डंड़ों से एक जवान को पीटते हैं, अखबारों में प्रमुखता से उस दर्शय को प्रकाशित किया जाता है लेकिन राय के मुख्यमंत्री को कुछ नजर नहीं आता। उमर अबदुल्ला महज वोट बैंक को बचाने की खातिर आंख पर पट्टी बांधे बैठें और वो ही बोल रहे हैं जो अलगवावादी उनसे बुलवाना चाहते हैं। पीडीपी इस मुद्दे को उमर सरकार की असफलता के तौर पर भुनाने की कोशिश में लगी है और उमर इस प्रयास से भटकने वाले वोटों को सुरक्षाबलों के खिलाफ बयान देकर पुन: अपने करीब लाने की सोच रहे हैं। जो लोग गोलीबारी में मारे गए हैं उनमें छह साल का एक बच्चा भी शामिल है। अलगाववादी इस बात को भी मुद्दा बना रहे हैं कि सुरक्षा बल बच्चों तक को नहीं छोड़ रहे। मौत चाहे बच्चे की हो या बड़े की किसी का भी जाना मातम और रोष लेकर आता है। लेकिन सवाल यहां ये है कि आखिर एक छह साल का बच्चे को उस भीड़ का हिस्सा किसने बनने दिया। बच्चे के मां-बाप को भी इस बात का इल्म होगा कि कर्फ्यू तोड़कर आगे बढ़ने वाली भीड़ का सुरक्षाबल फूलों से स्वागत नहीं करेंगे बावजूद इसके जाने दिया गया। कहा जाता है कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती, तो फिर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसे नियंत्रित करने वाले चेहरा और उम्र देख-देखकर कार्रवाई करेंगे। अलगाववादी और आतंकवादी अपने हितों की पूर्ति के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं और अगर उनके मां-बाप इसको जायज मानते हैं तो फिर विलाप किस बात का। केंद्र सरकार को सीआरपीएफ को संयम बरतने के निर्देश देने से पहले जरा हालातों पर बारीकी से गौर करना चाहिए। हजारों की संख्या में मरने-मारने पर उतारू लोगों को महज लाठी के बल पर काबू में नहीं लाया जा सकता। अपने ऊपर हमला होने के बाद भी सामने वाले को जिंदा जाने देने से बड़ा संयम और क्या हो सकता है। यदि जवानों ने संयम नहीं बरता होता तो मरने वालो ंकी तादाद कई गुना यादा पहुंच गई होती। संयम बरतने की जरूरत सीआरपीएफ को नहीं बल्कि उन कश्मीरियों को है जो अलगाववाद की धारा में बेफिजूल बहे जा रहे हैं।
कल्पना कीजिए की कुछ लोग आपको मार रहे हैं और अपने बचाव में यदि आप उनपर हाथ उठाते हैं तो आपकी भर्त्सना की जाती है, आपको दंडित किया जाता है। कश्मीर में तैनात केंद्रीय अर्ध सैनिक बल आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहे हैं। सीआरपीएफ पर 11 नागरिकों को मारने का आरोप है, घाटी में फोर्स के खिलाफ जबरदस्त माहौल है। हर रोज प्रदर्शन हो रहे हैं, लाठी-डंड़ों से लैस प्रदर्शनकारी हालात काबू करने में लगे जवानों पर हमला बोल रहे हैं। सोपोर, बारामूला, श्रीनगर और अनंतनाग जैसे कुछ इलाकों की सड़कें ईंट-पत्थरों से पटी पड़ी हैं, कहीं टायर जल रहे हैं तो कहीं गाड़ियां। ये सारा फसाद कुछ दिनों पहले सीआरपीएफ की फायरिंग में एक युवक की मौत से शुरू हुआ। इस तरह के हालात घाटी में पहले भी बनते रहे हैं, लेकिन एक लंबी खामोशी के बाद अचानक इतना सब हो जाना किसी बड़ी साजिश की तरफ इशारा कर रहा है। बिल्कुल ऐसी ही स्थिति दो साल पहले इसी मौसम में बनी थी, जब अमरनाथ यात्रियों के लिए अस्थाई टैंट के नाम पर 25 एकड ज़मीन आवंटित की गई थी। इस बार भी अमरनाथ यात्रा के वक्त घाटी सुलग रही है।
दरअसल अलगाववादियों को अमरनाथ यात्रा के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने और पाकिस्तान के पक्ष में माहौल बनाने का सुनहरा मौका मिल जाता है। पाकिस्तान सेना भी इस मौके की तलाश में रहती है ताकि दहशत फैलाने वालों को सीमा पार करवाई जा सके। पिछले साल अगर अमरनाथ यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से हो गई तो इसके पीछे मुंबई हमला है। मुंबई हमले के बाद दोनों देशों के बीच पैदा हुए तनाव ने पाक हुक्मरानों को कश्मीर के बारे में सोचने का मौका ही नहीं दिया। अलगाववादी ताकतें भी समर्थन के अभाव में खामोश बैठी रहीं। लेकिन अब मुंबई हमले का मामला पूरी तरह से ठंडे बस्ते में जा चुका है। पाक पर अब न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का दबाव है और न ही भारत सरकार उसके प्रति कड़े रुख पर अडिग है। दोनों मुल्कों के बीच विश्वास बहाली के नाम पर लंबे समय से रुकी बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हो चुका है। ऐसे में सीमा पार से कश्मीर में बैठे अलगाववादियों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने में पाकिस्तान को कोई नुकसान नहीं। पाक इस बात को अच्छे से समझता है कि कश्मीर जितना सुर्खियों में रहेगा, उतना ही भारत पर दबाव पड़ेगा। पिछले बीस-पच्चीस दिनों से जारी हिंसा की खबरें भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ विदेशी मीडिया में भी प्रमुखता से आ रही हैं। सरकार सेना की सहायता लेने पर विचार कर रही है और संभव है कि एक-दो दिनों पर इस पर अमल भी कर दिया जाए। कश्मीर जैसी घाटी में जहां अशांति आग की तरह फैलती है, सेना दूसरे केंद्रीय बलों और राय पुलिस की अपेक्षा स्थिति से बेहतर तरीके से निपट सकती है। इसलिए यहां ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने घाटी से सेना को हटाकर अशांति के प्रवेश के लिए खुद ही दरवाजे खोले थे। राय के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला यूपीए सरकार के सहयोगी हैं और राय में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। संभवत: इस करके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सेना हटाने के उमर के प्रस्तावों पर सहमत होते गए। मौजूदा वक्त में भी उमर अबदुल्ला के सीआरपीएफ को बेकाबू बल कहने का केंद्र सरकार समर्थन कर रही है।
यदि उमर के इस कथन को मान भी लिया जाए तो फोर्स के बेकाबू होने का जिम्मेदार कोई और नहीं कश्मीर का आवाम है। कर्फ्यू तोड़कर कानून का उल्लंघन करने वाले, सुरक्षाबलों पर पथराव करने वाले क्या निर्दोषों की श्रेणी में आ सकते हैं। 25 जून से 30 जून तक सीआरपीएफ के दर्जनों जवान घायल हुए, क्या इसे जनता का बेकाबूपन नहीं कहा जाएगा। एक रोज पहले एक एजेंसी द्वारा जारी की गई तस्वीर में साफ नजर आ रहा था कि हिंसक और बेकाबू कौन हैं। कुछ लोग मिलकर लाठी-डंड़ों से एक जवान को पीटते हैं, अखबारों में प्रमुखता से उस दर्शय को प्रकाशित किया जाता है लेकिन राय के मुख्यमंत्री को कुछ नजर नहीं आता। उमर अबदुल्ला महज वोट बैंक को बचाने की खातिर आंख पर पट्टी बांधे बैठें और वो ही बोल रहे हैं जो अलगवावादी उनसे बुलवाना चाहते हैं। पीडीपी इस मुद्दे को उमर सरकार की असफलता के तौर पर भुनाने की कोशिश में लगी है और उमर इस प्रयास से भटकने वाले वोटों को सुरक्षाबलों के खिलाफ बयान देकर पुन: अपने करीब लाने की सोच रहे हैं। जो लोग गोलीबारी में मारे गए हैं उनमें छह साल का एक बच्चा भी शामिल है। अलगाववादी इस बात को भी मुद्दा बना रहे हैं कि सुरक्षा बल बच्चों तक को नहीं छोड़ रहे। मौत चाहे बच्चे की हो या बड़े की किसी का भी जाना मातम और रोष लेकर आता है। लेकिन सवाल यहां ये है कि आखिर एक छह साल का बच्चे को उस भीड़ का हिस्सा किसने बनने दिया। बच्चे के मां-बाप को भी इस बात का इल्म होगा कि कर्फ्यू तोड़कर आगे बढ़ने वाली भीड़ का सुरक्षाबल फूलों से स्वागत नहीं करेंगे बावजूद इसके जाने दिया गया। कहा जाता है कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती, तो फिर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसे नियंत्रित करने वाले चेहरा और उम्र देख-देखकर कार्रवाई करेंगे। अलगाववादी और आतंकवादी अपने हितों की पूर्ति के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं और अगर उनके मां-बाप इसको जायज मानते हैं तो फिर विलाप किस बात का। केंद्र सरकार को सीआरपीएफ को संयम बरतने के निर्देश देने से पहले जरा हालातों पर बारीकी से गौर करना चाहिए। हजारों की संख्या में मरने-मारने पर उतारू लोगों को महज लाठी के बल पर काबू में नहीं लाया जा सकता। अपने ऊपर हमला होने के बाद भी सामने वाले को जिंदा जाने देने से बड़ा संयम और क्या हो सकता है। यदि जवानों ने संयम नहीं बरता होता तो मरने वालो ंकी तादाद कई गुना यादा पहुंच गई होती। संयम बरतने की जरूरत सीआरपीएफ को नहीं बल्कि उन कश्मीरियों को है जो अलगाववाद की धारा में बेफिजूल बहे जा रहे हैं।
Thursday, June 24, 2010
काश मैं गैस पीड़ित होता
नीरज नैयर
कुछ दिनों के शोर के बाद भोपाल में खामोशी है। गैस त्रासदी पर अदालत के फैसले से उठा तूफान मुआवजे के मरहम के बाद अब थम गया है। मंत्री समूह (जीओएम) ने पीड़ितों के लिए 1332 करोड़ रुपए राहत की सिफारिश की है। इनमें मृतकों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाकर दस लाख की गई है, इसका भुगतान पूर्व में दिए जा चुके दो लाख साठ हजार रुपए काट कर किया जाएगा। साथ ही स्थाई रूप से विकलांगों के लिए पांच लाख, आंशिक विकलांगों के लिए एक लाख और कैंसर आदि गंभीर बीमारियों से पीड़ितों के लिए दो लाख मुआवजे का प्रस्ताव रखा गया है।
जीओएम द्वारा प्रधानमंत्री को सौंपी गई रिपोर्ट में कुछ और भी सिफारिशें की गई हैं लेकिन हर किसी का ध्यान केवल मुआवजे पर है। इंसाफ की लड़ाई का दंभ करने वाले मुआवजे को ही इंसाफ मानकर चल रहे हैं। स्थानीय अखबारात धन्यवाद संदेश प्रकाशित कर इसे अपनी जीत बताने में लगे हैं। हर कोई खुश है, 25 साल पहले मिले जख्मों की शिकन तक किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं देती। कोई घर खरीदने के सपने बुन रहा है तो कोई चमचमाती गाड़ी का शौक पाले हुए है। महंगाई के इस दौर में मुआवजे की घोषणा उन लोगों के लिए संजीवनी साबित हुई है जिनका नाम हताहतों की सूची में शामिल है। लेकिन जो लोग छूट गए हैं उनके चेहरे पर मायूसी साफ देखी जा सकती है। उन्हें इस बात का मलाल है कि वो गैस पीड़ित क्यों नहीं हैं।
2-3 दिसंबर 1984 की रात जो कुछ भी हुआ उसका हिस्सा कोई नहीं बनना चाहेगा, ये बात बिल्कुल सही है मगर उसके नाम पर जो कुछ लोगों को मिला है वो दूसरों के लिए मलाल की वजह जरूर बन रहा है। पीड़ितों की आड़ में उन लोगों की भी जेबें भरी गईं जिनका गैस त्रासदी से दूर-दूर का नाता नही रहा। क्या नेता, क्या अफसर और क्या आंदोलनकारी हर किसी ने विश्व की इस भीषणम घटना से पैसा बनाया। शहर के लोग भी इस बात को मानते हैं कि राहत की खुराक से उन लोगों तक के पेट भरे गए जो कभी प्रभावित हुए ही नहीं। उस दौर के एक वकील जो अब पेशे से पत्रकार हैं, बताते हैं कि 3-3 हजार में एफीडेविट बनवाकर फर्जी लोगों को पीड़ित बनवाने का गोरखधंधा खूब फला-फूला। वकीलों ने भी दोनों हाथों से बटोरा और नेताओं एवं अफसरों ने भी। वो कहते हैं कि मेरे पास भी कई ऐसे लोग आए जो खुद को पीड़ितों की सूची में शामिल करवाने के ऐवज में मुआवजे की आधी रकम तक देने को तैयार थे। नए भोपाल में नाई का काम करने वाले शकील भी बखूबी बयां करते हैं कि कैसे उनके आस-पड़ोसियों ने खुद को गैस पीड़ित बनाया। ऐसे तमाम मामले होंगे जिनमें शर्तों के आधार पर मुआवजे की बंदरबांट हुई हो। सही मायनों में देखा जाए तो इस पूरे मामले में लड़ाई केवल मुआवजे को लेकर ही चली आ रही है। पीड़ितों के हितैषी मानेजाने वाले संगठन सालों से मुआवजे का रोना रोते रहे हैं।
गैस त्रासदी की बरसी पर हर साल दिल्ली में होने वाले प्रदर्शन सरकार को ये याद दिलाने के लिए किए जाते रहे कि यूनियन कार्बाइड द्वारा तय किए गए मुआवजे की रकम अभी बाकी है। अगर सच में गुनाहगारों को सजा देना यादा अहम होता तो महज मुआवजे की राशि बढ़ाए जाने पर यूं खुशी भरी खामोशी नहीं छाई होती। 25 साल कोई छोटी अवधि नहीं होती, इतने लंबे वक्त में यादे तक धुंधली पड़ जाती हैं लेकिन गैस पीड़ितों के जख्म अब तक नहीं भरे हैं और शायद कभी भरने वाले भी नहीं हैं। इस मुआवजे की रकम के खत्म होते ही इंसाफ की लड़ाई के नारे फिर बुलंद हो जाएंगे। ये लड़ाई कुछ लोगों के लिए कमाई का जरिया बन गई है, इसलिए वो कभी इसे खत्म नहीं होने देंगे। सबको पता है कि न एंडरसन कभी भारत आ पाएगा और न ही दोषियों को सजा सुनाई जा सकेगी।
अगर अदालत भारतीय आरोपियों को 2-2 की जगह 10-10 साल की सजा भी सुनाती तो भी आंदोलन होना तय था। 1996 में ही ये बात साफ हो गई थी कि जिन धाराओं में आरोप तय किए गए हैं उनके मुताबिक मामूली सजा ही होगी। तो फिर इतना हो-हल्ला क्याें मचाया गया। दरअसल इस फैसले ने मुआवजे की चाह रखने वालों के लिए आंदोलन की एक नई जमीन तैयार की, सहानभूति की ऐसी लहर चली कि देशभर में पीड़ितों के हक में आवाजें उठने लगीं। कहीं कैंडल मार्च हुए तो कहीं हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। मीडिया ने भी प्रदर्शनकारियों का पूरा साथ दिया। घंटों-घंटों तक स्पेशल एपीसोड दिखाए गए, पुरानी कतरनों को फिर से प्रकाशित किया गया। और अंत में सबकुछ मुआवजे पर जाकर खत्म हो गया। लेकिन किसी ने भी तस्वीर का दूसरा पहलू प्रस्तुत करने की जहमत नहीं उठाई। अगर भोपालवासियों का दिल ही टटोला जाता तो बंदरबांट के कई किस्से सामने आ गए होते।
ये हकीकत है कि जो वास्तव में गैस का शिकार बने वो सरकारी निकम्मेपन के चलते तिल-तिलकर मरते रहे, न तो उन्हें आर्थिक सहायता मिली और न ही उचित इलाज। जिस भोपाल मैमोरियल अस्पताल को गैस पीड़ितों के लिए खड़ा किया गया वहां उन्हें चूहे-बिल्लियों की तरह इस्तेमाल किया गया। तत्कालीन राय और केंद्र सरकारें अमेरिकी रुतबे के आगे एंडरसन के गुनाह को कम करती रहीं। जिसे जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए थे, उसे इात के साथ सरकारी उड़न खटोले में देश से विदा किया गया। लेकिन इतने सालों के बाद गड़े मुर्दे उखाड़कर इंसाफ-इंसाफ चिल्लाने को क्या सही कहा जा सकता है। जो राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और मीडिया आज पीड़ितों की आवाज बनने का दावा कर रहे हैं वो कल तक चुपचाप सबकुछ क्यों देखते रहे। जायज सी बात उनके लिए स्वयं के हित यादा मायने रखते हैं, कल तक ये मुद्दा निर्जीव था मगर आज सबको इसमें फायदा ही फायदा नजर आ रहा है।
इसलिए हर कोई पीड़ितों को इंसाफ दिलाना चाहता है। मैं निजी तौर पर पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने के विरोध में बिल्कुल नहीं हू, जिन लोगों ने उस भयानक त्रासदी को करीब से देखा है, उसकी भयावहता को महसूस किया है उन्हें सहायता मिलनी ही चाहिए। लेकिन केवल उन्हीं को जो वास्तव में इसके हकदार हैं। ऐसी त्रासदी को कुछ लोगों के लिए धन उगाही का माध्यम बनने देना उस वक्त बरती गईं लापरवाहियों जितना बड़ा ही अपराध है। मौजूदा वक्त में जरूरत है एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की जहां भोपाल गैस कांड की पुनर्रावृत्ति रोकने के तमाम उपाए मौजूद हों, अगर ऐसा हो सका तो शायद फिर किसी को इस बात का मलाल नहीं होगा कि वो पीड़ित क्यों नहीं है। है।
कुछ दिनों के शोर के बाद भोपाल में खामोशी है। गैस त्रासदी पर अदालत के फैसले से उठा तूफान मुआवजे के मरहम के बाद अब थम गया है। मंत्री समूह (जीओएम) ने पीड़ितों के लिए 1332 करोड़ रुपए राहत की सिफारिश की है। इनमें मृतकों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाकर दस लाख की गई है, इसका भुगतान पूर्व में दिए जा चुके दो लाख साठ हजार रुपए काट कर किया जाएगा। साथ ही स्थाई रूप से विकलांगों के लिए पांच लाख, आंशिक विकलांगों के लिए एक लाख और कैंसर आदि गंभीर बीमारियों से पीड़ितों के लिए दो लाख मुआवजे का प्रस्ताव रखा गया है।
जीओएम द्वारा प्रधानमंत्री को सौंपी गई रिपोर्ट में कुछ और भी सिफारिशें की गई हैं लेकिन हर किसी का ध्यान केवल मुआवजे पर है। इंसाफ की लड़ाई का दंभ करने वाले मुआवजे को ही इंसाफ मानकर चल रहे हैं। स्थानीय अखबारात धन्यवाद संदेश प्रकाशित कर इसे अपनी जीत बताने में लगे हैं। हर कोई खुश है, 25 साल पहले मिले जख्मों की शिकन तक किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं देती। कोई घर खरीदने के सपने बुन रहा है तो कोई चमचमाती गाड़ी का शौक पाले हुए है। महंगाई के इस दौर में मुआवजे की घोषणा उन लोगों के लिए संजीवनी साबित हुई है जिनका नाम हताहतों की सूची में शामिल है। लेकिन जो लोग छूट गए हैं उनके चेहरे पर मायूसी साफ देखी जा सकती है। उन्हें इस बात का मलाल है कि वो गैस पीड़ित क्यों नहीं हैं।
2-3 दिसंबर 1984 की रात जो कुछ भी हुआ उसका हिस्सा कोई नहीं बनना चाहेगा, ये बात बिल्कुल सही है मगर उसके नाम पर जो कुछ लोगों को मिला है वो दूसरों के लिए मलाल की वजह जरूर बन रहा है। पीड़ितों की आड़ में उन लोगों की भी जेबें भरी गईं जिनका गैस त्रासदी से दूर-दूर का नाता नही रहा। क्या नेता, क्या अफसर और क्या आंदोलनकारी हर किसी ने विश्व की इस भीषणम घटना से पैसा बनाया। शहर के लोग भी इस बात को मानते हैं कि राहत की खुराक से उन लोगों तक के पेट भरे गए जो कभी प्रभावित हुए ही नहीं। उस दौर के एक वकील जो अब पेशे से पत्रकार हैं, बताते हैं कि 3-3 हजार में एफीडेविट बनवाकर फर्जी लोगों को पीड़ित बनवाने का गोरखधंधा खूब फला-फूला। वकीलों ने भी दोनों हाथों से बटोरा और नेताओं एवं अफसरों ने भी। वो कहते हैं कि मेरे पास भी कई ऐसे लोग आए जो खुद को पीड़ितों की सूची में शामिल करवाने के ऐवज में मुआवजे की आधी रकम तक देने को तैयार थे। नए भोपाल में नाई का काम करने वाले शकील भी बखूबी बयां करते हैं कि कैसे उनके आस-पड़ोसियों ने खुद को गैस पीड़ित बनाया। ऐसे तमाम मामले होंगे जिनमें शर्तों के आधार पर मुआवजे की बंदरबांट हुई हो। सही मायनों में देखा जाए तो इस पूरे मामले में लड़ाई केवल मुआवजे को लेकर ही चली आ रही है। पीड़ितों के हितैषी मानेजाने वाले संगठन सालों से मुआवजे का रोना रोते रहे हैं।
गैस त्रासदी की बरसी पर हर साल दिल्ली में होने वाले प्रदर्शन सरकार को ये याद दिलाने के लिए किए जाते रहे कि यूनियन कार्बाइड द्वारा तय किए गए मुआवजे की रकम अभी बाकी है। अगर सच में गुनाहगारों को सजा देना यादा अहम होता तो महज मुआवजे की राशि बढ़ाए जाने पर यूं खुशी भरी खामोशी नहीं छाई होती। 25 साल कोई छोटी अवधि नहीं होती, इतने लंबे वक्त में यादे तक धुंधली पड़ जाती हैं लेकिन गैस पीड़ितों के जख्म अब तक नहीं भरे हैं और शायद कभी भरने वाले भी नहीं हैं। इस मुआवजे की रकम के खत्म होते ही इंसाफ की लड़ाई के नारे फिर बुलंद हो जाएंगे। ये लड़ाई कुछ लोगों के लिए कमाई का जरिया बन गई है, इसलिए वो कभी इसे खत्म नहीं होने देंगे। सबको पता है कि न एंडरसन कभी भारत आ पाएगा और न ही दोषियों को सजा सुनाई जा सकेगी।
अगर अदालत भारतीय आरोपियों को 2-2 की जगह 10-10 साल की सजा भी सुनाती तो भी आंदोलन होना तय था। 1996 में ही ये बात साफ हो गई थी कि जिन धाराओं में आरोप तय किए गए हैं उनके मुताबिक मामूली सजा ही होगी। तो फिर इतना हो-हल्ला क्याें मचाया गया। दरअसल इस फैसले ने मुआवजे की चाह रखने वालों के लिए आंदोलन की एक नई जमीन तैयार की, सहानभूति की ऐसी लहर चली कि देशभर में पीड़ितों के हक में आवाजें उठने लगीं। कहीं कैंडल मार्च हुए तो कहीं हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। मीडिया ने भी प्रदर्शनकारियों का पूरा साथ दिया। घंटों-घंटों तक स्पेशल एपीसोड दिखाए गए, पुरानी कतरनों को फिर से प्रकाशित किया गया। और अंत में सबकुछ मुआवजे पर जाकर खत्म हो गया। लेकिन किसी ने भी तस्वीर का दूसरा पहलू प्रस्तुत करने की जहमत नहीं उठाई। अगर भोपालवासियों का दिल ही टटोला जाता तो बंदरबांट के कई किस्से सामने आ गए होते।
ये हकीकत है कि जो वास्तव में गैस का शिकार बने वो सरकारी निकम्मेपन के चलते तिल-तिलकर मरते रहे, न तो उन्हें आर्थिक सहायता मिली और न ही उचित इलाज। जिस भोपाल मैमोरियल अस्पताल को गैस पीड़ितों के लिए खड़ा किया गया वहां उन्हें चूहे-बिल्लियों की तरह इस्तेमाल किया गया। तत्कालीन राय और केंद्र सरकारें अमेरिकी रुतबे के आगे एंडरसन के गुनाह को कम करती रहीं। जिसे जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए थे, उसे इात के साथ सरकारी उड़न खटोले में देश से विदा किया गया। लेकिन इतने सालों के बाद गड़े मुर्दे उखाड़कर इंसाफ-इंसाफ चिल्लाने को क्या सही कहा जा सकता है। जो राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और मीडिया आज पीड़ितों की आवाज बनने का दावा कर रहे हैं वो कल तक चुपचाप सबकुछ क्यों देखते रहे। जायज सी बात उनके लिए स्वयं के हित यादा मायने रखते हैं, कल तक ये मुद्दा निर्जीव था मगर आज सबको इसमें फायदा ही फायदा नजर आ रहा है।
इसलिए हर कोई पीड़ितों को इंसाफ दिलाना चाहता है। मैं निजी तौर पर पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने के विरोध में बिल्कुल नहीं हू, जिन लोगों ने उस भयानक त्रासदी को करीब से देखा है, उसकी भयावहता को महसूस किया है उन्हें सहायता मिलनी ही चाहिए। लेकिन केवल उन्हीं को जो वास्तव में इसके हकदार हैं। ऐसी त्रासदी को कुछ लोगों के लिए धन उगाही का माध्यम बनने देना उस वक्त बरती गईं लापरवाहियों जितना बड़ा ही अपराध है। मौजूदा वक्त में जरूरत है एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की जहां भोपाल गैस कांड की पुनर्रावृत्ति रोकने के तमाम उपाए मौजूद हों, अगर ऐसा हो सका तो शायद फिर किसी को इस बात का मलाल नहीं होगा कि वो पीड़ित क्यों नहीं है। है।
Monday, June 21, 2010
भोपाल गैस त्रासदी: इंसाफ पर भारी राजनीति
नीरज नैयर
25 बरस के बाद भोपाल गैस त्रासदी फिर सुर्खियों में है। यूं तो हर बर्सी पर न्याय और इंसाफ के नारे सुनने में आ जाया करते थे लेकिन इस बार की गूंज ने पूरे मुल्क को हिलाकर रख दिया है। गुनाहगारों को सजा की रस्म अदायगी के बाद सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या हमारे देश में मानव जिंदगियों का कोई मोल नहीं। 20,000 मौतों और लाखों जिंदगियों में ताउम्र के लिए अंधेरा करने वाले आज भी खुली हवा में सांस लेने के लिए स्वतंत्र हैं। राजनीति पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगाकर महज अपने हितों को साधने में लगी हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर ये पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि असल कातिल वॉरेन एंडरसन के प्रति हमदर्दी दिखाने वाला चेहरा कौन सा था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की संलिप्त्तता को पर्दे की ओढ़ से छिपाने की जद्दोजहद में खुद कांग्रेस वाले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के अक्स को एंडरसन की तस्वीर से मिलाने में लगे हैं। और अर्जुन सिंह महाभारत के अर्जुन के इतर खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं।
उम्र के इस पड़ाव में अपनों की घेरेबंदी की चुभन शायद इससे पहले उन्होंने कभी महसूस नहीं की होगी। राजनीति में हमेशा से मोहरों की अपेक्षा चाल को तवाो दी जाती है, इसलिए कांग्रेस णणभी पीड़ितों के गुस्से के सैलाब में अर्जुन को बहाकर दो दशकों से दहक रहे अंगारों को शांत करना चाहती है। मुख्यमंत्री होने के नाते एंडरसन की रिहाई से लेकर भोपाल से विदाई के लिए के लिए अर्जुन सिंह को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इससे उस वक्त की राजीव गांधी सरकार को नहीं बचाया जा सकता। आखिर यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरेन एंडसरन को बा इात अमेरिका भेजने की व्यवस्था को केंद्रीय स्तर पर की गई थी। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल ये नहीं है कि एंडरसन को किसने भगाया, बल्कि सवाल ये है कि इतने लंबे वक्त तक इस मुद्दे पर खामोशी क्यों छाई रही। जो लोग आज हो-हल्ला मचा रहे हैं क्या उन्हें ये नहीं पता था कि एंडरसन कैसे भागा। क्या वो नहीं जानते थे कि जिन गुनाहगारों पर मुकदमा चल रहा है उन्हें किसी भी सूरत में सड़क हादसे में मिलने वाली सजा से यादा सजा नहीं मिल सकती। इस केस को कमजोर करने की शुरूआत तो त्रासदी के बाद से ही शुरू हो गई थी और इसके लिए केंद्र एवं राय सरकार दोनों सीधे तौर पर दोषी हैं। लेकिन 1996 में जब सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड से जुड़े लोगों पर 304 की जगह 304 ए की धाराई लगाई तभी साफ हो गया था कि यह मामला दम तोड़ चुका है।
304 गैरइदाइतन हत्या और 304ए लापरवाही के लिए लगाई जाती हैं। ये बेहद तााुब की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत को सबसे बड़ी गैस त्रासदी में महज लापरवाही दिखाई दी। जिस वक्त धाराओं का ये खेल हुआ उस वक्त केंद्र में एचडी देवगौड़ा की सरकार थी लेकिन उन्होंने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। और न ही गैर राजनीतिक दलों से लेकर उन नेताओं ने जो आज अदालत के फैसले को न्याय की हत्या करार देने में लगे हैं। इस फैसले के खिलाफ महज दो याचिकाएं दायर हुईं थी, जिन्हें बाद में खारिज कर दिया गया। क्यों भोपाल गैस कांड पर रोटियां संकेने वालों ने इस मुद्दे को उतनी बुलंदी से नहीं उठाया जितनी बुलंदी से वो मुआवजे की मांग करते हैं। ये हकीकत है कि इस गैस कांड ने मुफलिसी में दिन गुजार रहे बहुतों की जिंदगी गुलजार की है। मुआवजे के नाम पर मिलने वाली रकम ने उन्हें वो सबकुछ दिया है जिसके शायद वो हकदार नहीं थे। पीड़ितों की फेहरिस्त में एक-दो नहीं बल्कि हजारों ऐसे नाम होंगे जो सिर्फ आर्थिक फायदे के लिए इस फेहरिस्त में शामिल हुए। इसलिए उनके लिए न्याय-अन्याय जैसे शब्द कोई अहमीयत नहीं रखते। यदि 1996 में मुआवजे से जुड़ा कोई फैसला आया होता तो निश्चित तौर पर पूरा देश सिर पर उठा लिया गया होता।
हजारों-लाखों जिंदगियों को दर्द की आग में झोंकने वाली यह त्रासदी कुछ लोगों के लिए फायदा का सौदा साबित होती रही है। और आज भी इसकी आड़ में फायदे खोजे जा रहे हैं। जो वास्तव में दो-तीन दिसंबर की दरमियान यूनियन कार्बाइड से रिसी विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनट का शिकार बने थे उनके लिए इंसाफ सफेद हाथी जैसा बनकर रह गया है, मगर इंसाफ दिलाने का जिम्मा उठाने वालों के घर की रौनक बढ़ती जा रही है। गैस पीड़ित महिला मोर्चा अब पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएच अहमदी को भोपाल मेमोरियल अस्पताल के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर रहा है, उस दौर में पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी को मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधयक्ष पद से पहले ही हटा चुकी है। अहमदी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अध्यक्ष थे जिसने आरोपियों को सस्ते में छूटने का मौका दिया था। हो सकता है कि पुरी की तरह अहमदी को भी दरकिनार कर दिया जाए। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वास्तव में इस सबसे पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा के सिध्दांत को पूरा किया जा सकता है। स्वराज पुरी पर आरोप है कि उन्होंने तत्कालीन डीएम मोती सिंह के साथ एंडरसन को एयरपोर्ट छोड़ा था। एक पुलिस अधीक्षक के तौर पर पुरी चाहते भी तो एंडरसन को हिरासत में नहीं रख सकते थे, उस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया उसे आदेशों का पालन करना कहा जा सकता है।
राय सरकार ने केंद्र सरकार के आदेशों का पालन किया और स्थानीय प्रशासन ने राय सरकार के। इसलिए किसी एक को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। इतने सालों बाद गुनाहगार की पहचान करने से अच्छा होता अगर उन हालातों को बदलने की कोशिश की जाती जिसमें इस त्रासदी ने जन्म लिया। क्या एंडरसन अमेरिका या दूसरे किसी पश्चिमी मुल्क में हजारों लोगों की मौत की जवाबदेही से महज कुछ हजार डॉलर देकर बच सकते थे। क्या इंसाफ की आस में 25 बरस इंतजार के बाद भी दोषियों को छूटते देखने का दर्द अमेरकिी महसूस कर सकते हैं, निश्चित तौर पर नहीं। दुर्घटनाएं किसी से पूछकर नहीं होती, इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल में कोई दूसरा शहर भोपाल नहीं बनेगा। जो गलतियां 1984 और उसके बाद से होती आ रही हैं उनको सुधारना इस वक्त बलि के बकरा खोजने से यादा जरूरी होना चाहिए। पर अफसोस की किसी को इस बात का ख्याल नहीं।
25 बरस के बाद भोपाल गैस त्रासदी फिर सुर्खियों में है। यूं तो हर बर्सी पर न्याय और इंसाफ के नारे सुनने में आ जाया करते थे लेकिन इस बार की गूंज ने पूरे मुल्क को हिलाकर रख दिया है। गुनाहगारों को सजा की रस्म अदायगी के बाद सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या हमारे देश में मानव जिंदगियों का कोई मोल नहीं। 20,000 मौतों और लाखों जिंदगियों में ताउम्र के लिए अंधेरा करने वाले आज भी खुली हवा में सांस लेने के लिए स्वतंत्र हैं। राजनीति पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगाकर महज अपने हितों को साधने में लगी हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर ये पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि असल कातिल वॉरेन एंडरसन के प्रति हमदर्दी दिखाने वाला चेहरा कौन सा था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की संलिप्त्तता को पर्दे की ओढ़ से छिपाने की जद्दोजहद में खुद कांग्रेस वाले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के अक्स को एंडरसन की तस्वीर से मिलाने में लगे हैं। और अर्जुन सिंह महाभारत के अर्जुन के इतर खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं।
उम्र के इस पड़ाव में अपनों की घेरेबंदी की चुभन शायद इससे पहले उन्होंने कभी महसूस नहीं की होगी। राजनीति में हमेशा से मोहरों की अपेक्षा चाल को तवाो दी जाती है, इसलिए कांग्रेस णणभी पीड़ितों के गुस्से के सैलाब में अर्जुन को बहाकर दो दशकों से दहक रहे अंगारों को शांत करना चाहती है। मुख्यमंत्री होने के नाते एंडरसन की रिहाई से लेकर भोपाल से विदाई के लिए के लिए अर्जुन सिंह को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इससे उस वक्त की राजीव गांधी सरकार को नहीं बचाया जा सकता। आखिर यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरेन एंडसरन को बा इात अमेरिका भेजने की व्यवस्था को केंद्रीय स्तर पर की गई थी। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल ये नहीं है कि एंडरसन को किसने भगाया, बल्कि सवाल ये है कि इतने लंबे वक्त तक इस मुद्दे पर खामोशी क्यों छाई रही। जो लोग आज हो-हल्ला मचा रहे हैं क्या उन्हें ये नहीं पता था कि एंडरसन कैसे भागा। क्या वो नहीं जानते थे कि जिन गुनाहगारों पर मुकदमा चल रहा है उन्हें किसी भी सूरत में सड़क हादसे में मिलने वाली सजा से यादा सजा नहीं मिल सकती। इस केस को कमजोर करने की शुरूआत तो त्रासदी के बाद से ही शुरू हो गई थी और इसके लिए केंद्र एवं राय सरकार दोनों सीधे तौर पर दोषी हैं। लेकिन 1996 में जब सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड से जुड़े लोगों पर 304 की जगह 304 ए की धाराई लगाई तभी साफ हो गया था कि यह मामला दम तोड़ चुका है।
304 गैरइदाइतन हत्या और 304ए लापरवाही के लिए लगाई जाती हैं। ये बेहद तााुब की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत को सबसे बड़ी गैस त्रासदी में महज लापरवाही दिखाई दी। जिस वक्त धाराओं का ये खेल हुआ उस वक्त केंद्र में एचडी देवगौड़ा की सरकार थी लेकिन उन्होंने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। और न ही गैर राजनीतिक दलों से लेकर उन नेताओं ने जो आज अदालत के फैसले को न्याय की हत्या करार देने में लगे हैं। इस फैसले के खिलाफ महज दो याचिकाएं दायर हुईं थी, जिन्हें बाद में खारिज कर दिया गया। क्यों भोपाल गैस कांड पर रोटियां संकेने वालों ने इस मुद्दे को उतनी बुलंदी से नहीं उठाया जितनी बुलंदी से वो मुआवजे की मांग करते हैं। ये हकीकत है कि इस गैस कांड ने मुफलिसी में दिन गुजार रहे बहुतों की जिंदगी गुलजार की है। मुआवजे के नाम पर मिलने वाली रकम ने उन्हें वो सबकुछ दिया है जिसके शायद वो हकदार नहीं थे। पीड़ितों की फेहरिस्त में एक-दो नहीं बल्कि हजारों ऐसे नाम होंगे जो सिर्फ आर्थिक फायदे के लिए इस फेहरिस्त में शामिल हुए। इसलिए उनके लिए न्याय-अन्याय जैसे शब्द कोई अहमीयत नहीं रखते। यदि 1996 में मुआवजे से जुड़ा कोई फैसला आया होता तो निश्चित तौर पर पूरा देश सिर पर उठा लिया गया होता।
हजारों-लाखों जिंदगियों को दर्द की आग में झोंकने वाली यह त्रासदी कुछ लोगों के लिए फायदा का सौदा साबित होती रही है। और आज भी इसकी आड़ में फायदे खोजे जा रहे हैं। जो वास्तव में दो-तीन दिसंबर की दरमियान यूनियन कार्बाइड से रिसी विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनट का शिकार बने थे उनके लिए इंसाफ सफेद हाथी जैसा बनकर रह गया है, मगर इंसाफ दिलाने का जिम्मा उठाने वालों के घर की रौनक बढ़ती जा रही है। गैस पीड़ित महिला मोर्चा अब पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएच अहमदी को भोपाल मेमोरियल अस्पताल के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर रहा है, उस दौर में पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी को मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधयक्ष पद से पहले ही हटा चुकी है। अहमदी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अध्यक्ष थे जिसने आरोपियों को सस्ते में छूटने का मौका दिया था। हो सकता है कि पुरी की तरह अहमदी को भी दरकिनार कर दिया जाए। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वास्तव में इस सबसे पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा के सिध्दांत को पूरा किया जा सकता है। स्वराज पुरी पर आरोप है कि उन्होंने तत्कालीन डीएम मोती सिंह के साथ एंडरसन को एयरपोर्ट छोड़ा था। एक पुलिस अधीक्षक के तौर पर पुरी चाहते भी तो एंडरसन को हिरासत में नहीं रख सकते थे, उस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया उसे आदेशों का पालन करना कहा जा सकता है।
राय सरकार ने केंद्र सरकार के आदेशों का पालन किया और स्थानीय प्रशासन ने राय सरकार के। इसलिए किसी एक को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। इतने सालों बाद गुनाहगार की पहचान करने से अच्छा होता अगर उन हालातों को बदलने की कोशिश की जाती जिसमें इस त्रासदी ने जन्म लिया। क्या एंडरसन अमेरिका या दूसरे किसी पश्चिमी मुल्क में हजारों लोगों की मौत की जवाबदेही से महज कुछ हजार डॉलर देकर बच सकते थे। क्या इंसाफ की आस में 25 बरस इंतजार के बाद भी दोषियों को छूटते देखने का दर्द अमेरकिी महसूस कर सकते हैं, निश्चित तौर पर नहीं। दुर्घटनाएं किसी से पूछकर नहीं होती, इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल में कोई दूसरा शहर भोपाल नहीं बनेगा। जो गलतियां 1984 और उसके बाद से होती आ रही हैं उनको सुधारना इस वक्त बलि के बकरा खोजने से यादा जरूरी होना चाहिए। पर अफसोस की किसी को इस बात का ख्याल नहीं।
Thursday, June 17, 2010
क्यों न निजी कंपनियों को सौंपी जाए जंगल की सुरक्षा
नीरज नैयर
एक लंबी खामोशी के बाद आखिरकार केंद्रीय नेतृत्व को अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बाघो के बारे में सोचने का वक्त मिल ही गया। राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में प्रधानमंत्री ने बाघ बचाओ मुहिम में रायों की कमजोर भागीदारी पर चिंता जाहिर की, उन्होंने इस संबंध में राय सरकारों को पत्र लिखने की भी बात कही। बैठक में अभयारण्योंके आस-पास बसे लोगों के पुर्नवास के लिए अधिक धन उपलब्ध कराने का फैसला लिया गया। पर्यावरण मंत्री की मानें तो पुर्नवास के लिए अगले सात सालों में 77 हजार परिवारों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ की जरूरत पड़ेगी। सोचने वाली बात ये है कि क्या अगले सात सालों तक बाघ बचे रहे पाएंगे। जिस रफ्तार से उनकी संख्या घटती जा रही है, उससे तो इस बात की संभावना कम ही दिखाई देती है।
बैठक में वन्य जीव सरंक्षण के प्रयासों को नए सिरे से संगठित करने के लिए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय में वन और वन्यजीव मामलों के लिए अलग विभाग बनाने पर मुहर लगी। यानी इतने लंबे अंतराल और दर्जनों बाघों की मौत के बाद अब जाकर सरकार को लग रहा है कि मंत्रालय को बांटने से बाघों की मौत पर अंकुश लगाया जा सकता है। यदि बाघों को बचाने का यही एक तरीका है, जैसा की सरकार सोच रही है तो इस पर पहले काम क्यों नहीं किया गया। वर्तमान में देश में बाघों की संख्या 1000-1100 से यादा नहीं होगी, साल की शुरूआत के तीन महीनों में ही करीब 13 बाघ की मौत के मामले सामने आ चुके हैं। वन्यजीवों को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा तो बोर्ड की बैठक के डेढ़ साल बाद होने से लगाया जा सकता है। बाघों की सुरक्षा का मुद्दा, अन्य मामलों की तरह अगर प्राथमिकताओं की सूची में रखा गया होता तो डेढ़ साल में कई बैठकें हो चुकी होती और कई कदम उठाए जा चुके होते। इस राष्ट्रीय प्राणी को बचाने के लिए सरकार महज जब जागो, तब सवेरा वाली कहावत पर अमल करने की कोशिश करती आई है। उसकी इसी कोशिश में बाघों की संख्या आधे से भी कम होकर रह गई है। कुंभकरणी नींद से बीच में उठकर कुछ कदम बढ़ाने और वापस फिर सो जाने से स्थितियां नहीं बदला करतीं, लेकिन सरकार मुंगेरीलाल की तरह सपने पर सपने देखे जा रही है।
बाघों के सरंक्षण को केंद्र और रायों के बीच की फुटबॉल न बनाकर एक ऐसी नीति बनाए जाने की जरूरत है जो सीमाओं के बंधन से अछूती रहे। अब तक होता यही आ रहा है कि केंद्र फंड जारी करता है और राय सरकारें उसका उपयोग। मगर यह उपयोग उन मदो पर नहीं होता जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है। राय सरकारें फंड की चाहत में कागजों पर सबकुछ ठीक बताती रहती हैं, और अंत में सरिस्का और पन्ना जैसे खुलासे स्तब्ध कर देते हैं। पन्ना पूरी तरह बाघ विहीन हो चुका है। मध्यप्रदेश का एक और अभयारण्य पेंच भी पन्ना के पदचिन्हों पर है। पेंच में पिछले छह माह में तकरीबन छह बाघ दम तोड़ चके हैं। राजस्थान के सरिस्का से पूरी तरह बाघों के सफाए की खबर के बाद भी यदि सार्थक परिणामों के लिए काम किया जाता तो बाघों की संख्या में गिरावट का क्रम बरकरार नहीं रहता। सही मायने में देखा जाए तो इस मुद्दे पर अब तक सिर्फ प्रयोग ही किए जा रहे हैं। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय का बंटवारा भी प्रयोग का ही हिस्सा है।
अगर प्रयोग करना ही है तो फिर बड़े स्तर पर क्यों न किए जाएं, उसमें समाधान की संभावना भी कम से कम बड़ी तो रहेगी। पूर्व में लिखे अपने लेखों में मैं जंगलों की हिफाजत को निजी हाथों में सौंपे जाने की वकालत करता रहा हूं। इस संबंध में मुझे ढेरों प्रतिक्रियां भी मिलीं, जिनमें से अधिकतर आलोचना स्वरूप की गईं थी, मगर कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने इसके पीछे के तर्कों को गहराई से समझा। मध्यप्रदेश के एक आईएफएस अधिकारी ने ऐसे ही मेरे लेख पर चर्चा करते हुए बाघ सरंक्षण में प्रदेश के योगदान की बड़ी-बड़ी बातें कहीं, उन्होंने ये समझाने का प्रयास किया कि पूरे मुल्क में मध्यप्रदेश जैसा काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, जिस विभाग से वो जुड़े हैं उसकी बुराई वो नहीं सुन सकते, लेकिन यदि वास्तव में मध्यप्रदेश ने इतना कुछ किया होता तो यहां के अभयारण्य बाघ वहीन नहीं हो रहे होते।
बाघों को बचाने के मुद्दे पर हम पूरी तरह से बैकफुट पर हैं। या कह सकते हैं कि हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं। जितनी तेजी से बाघों का सफाया हो रहा है, उससे यह तय है कि जल्द ही बाघ किस्से-कहानियों की बात बनकर रह जाएंगे। यानी जो करना है, अभी करना है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर सरकारी अमला स्थिति को नियंत्रित करने में सफल होता तो करोड़ों-अरबों बहाए जाने के बाद बाघ यूं एक-एक करके दम नहीं तोड़ रहे होते। कोई स्वीकार करे या न करे, मगर हकीकत यही है कि बाघ सरंक्षण में लगे 90 प्रतिशत सरकारी मुलाजिम सिर्फ और सिर्फ नौकरी बचाने के लिए काम करते हैं। उच्च पदों पर बैठे अफसर सच पर पर्दा डालने और शेखी बखारने में व्यस्त रहते हैं और निचले तबके के कर्मचारी आराम तलबी में। ये सही है कि बाघों की सुरक्षा में लगे अफसर-कर्मचारी अत्याधुनिक सुविधाओं से वंचित हैं मगर ये भी सही है कि जिन अफसरों और कर्मचारियों पर वन्यप्राणियाें के सरंक्षण का जिम्मा है वो ही उनके संहार की वजह बन रहे हैं। सरिस्का कांड की जांच में यह बात सामने आई थी कि वन विभाग के मुलाजिम भी बाघों की हत्या में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी निभा रहे थे। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मंत्रालय का विभाजन करने, कमेटियां गठित करने और दर्जनों बैठकें आयोजित करने के बाद बाघों का कत्ल नहीं होगा। बाघों का कत्ल जरूर होगा क्योंकि सुधार की जरूरत नीचे से लेकर ऊपर तक है और इतने शॉर्ट नोटिस पर इसे सुधार पाना लगभग नामुमकिन है।
इसलिए किसी ऐसे विकल्प पर गौर किया जाना चाहिए जिससे वक्त और पैसे दोनों का सदुपयोग किया जा सके। मेरी समझ से जंगलों की हिफाजत का जिम्मा निजी हाथों में सौंपना बेहतर विकल्प हो सकता है। निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र की अपेक्षा यादा रिजल्ट ओरियंटिड है, इस बात पर शायद ही किसी को शक-शुबहा हो। हम निजी बैंकों का उदाहरण ले सकते हैं, काम जल्दी होने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों में बात करने का जो सलीखा है वो सरकारी बैंकों के मुलाजिमों में नहीं। है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि जंगलों की हिफाजत का जो काम वन विभाग नहीं कर पा रहा है उसे निजी सुरक्षा कंपनियां यादा कारगर तरीके से अंजाम दे पाएंगी। सरकार को इसके लिए निविदाओं के माध्यम से संगठन का चुनाव करना चाहिए। विदेशियों के लिए भी इस प्रक्रिया में शामिल होने के रास्ते खुले रखे जाएं तो बेहतर होगा। विदेशों में ऐसे बहुत से संगठन हैं जो इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं।
इस मामले को केंद्र और राय सरकारों की दखलंदाजी से पूर्णता मुक्त रखा जाए, जिस कपंनी को ठेका दिया जाए उसे अपने तरीके से काम करने की आजादी भी मिले। सरकार यदि चाहे तो इसे शुरूआत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर किसी एक टाइगर रिजर्व में शुरू किया जा सकता है। कांट्रेक्ट में कुछ सख्त शर्ते जोड़ी जानी चाहिए जिसके पूरा न होने की दशा में सुरक्षा एजेंसी को आर्थिक नुकसान का सामना तो करना ही पड़े, उसपर काम से बेदखल होने का खतरा भी मंडराता रहे। बेशक इस तरह के प्रस्ताव और उसपर अमल का रास्ता भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए देश के लिए शर्मिंदगी करार देगा और अन्य विरोधी पार्टियां हर गली-चौराहे पर सियापा करती नजर आएंगी। लेकिन जब सरकार परमाणु करार, महिला आरक्षण जैसे मुद्दे पर किसी की परवाह किए बगैर आगे बढ़ सकती है तो फिर बाघ सरंक्षण के लिए भी कड़ा फैसला लिया जा सकता है। जरूरत है तो बस सही समझ और दृढ संकल्प की। उन सभी पाठकों से जो मेरे इस विचार पर सहमति जताते हैं, विनम्र निवेदन है कि इस आश्य का एक पोस्टकार्ड प्रधानमंत्री को जरूर लिखें। आप जरूर सोचेंगे कि उससे कुछ नहीं होना, मैं भी ये अच्छी तरह जानता हूं मगर फिर भी पहल तो हम में से किसी एक को करनी ही पड़ेगी अगर हम अपनी आने वाली पीढियों को बाघ तस्वीरों के बजाए हकीकत में दिखाना चाहते हैं तो।
एक लंबी खामोशी के बाद आखिरकार केंद्रीय नेतृत्व को अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बाघो के बारे में सोचने का वक्त मिल ही गया। राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में प्रधानमंत्री ने बाघ बचाओ मुहिम में रायों की कमजोर भागीदारी पर चिंता जाहिर की, उन्होंने इस संबंध में राय सरकारों को पत्र लिखने की भी बात कही। बैठक में अभयारण्योंके आस-पास बसे लोगों के पुर्नवास के लिए अधिक धन उपलब्ध कराने का फैसला लिया गया। पर्यावरण मंत्री की मानें तो पुर्नवास के लिए अगले सात सालों में 77 हजार परिवारों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ की जरूरत पड़ेगी। सोचने वाली बात ये है कि क्या अगले सात सालों तक बाघ बचे रहे पाएंगे। जिस रफ्तार से उनकी संख्या घटती जा रही है, उससे तो इस बात की संभावना कम ही दिखाई देती है।
बैठक में वन्य जीव सरंक्षण के प्रयासों को नए सिरे से संगठित करने के लिए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय में वन और वन्यजीव मामलों के लिए अलग विभाग बनाने पर मुहर लगी। यानी इतने लंबे अंतराल और दर्जनों बाघों की मौत के बाद अब जाकर सरकार को लग रहा है कि मंत्रालय को बांटने से बाघों की मौत पर अंकुश लगाया जा सकता है। यदि बाघों को बचाने का यही एक तरीका है, जैसा की सरकार सोच रही है तो इस पर पहले काम क्यों नहीं किया गया। वर्तमान में देश में बाघों की संख्या 1000-1100 से यादा नहीं होगी, साल की शुरूआत के तीन महीनों में ही करीब 13 बाघ की मौत के मामले सामने आ चुके हैं। वन्यजीवों को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा तो बोर्ड की बैठक के डेढ़ साल बाद होने से लगाया जा सकता है। बाघों की सुरक्षा का मुद्दा, अन्य मामलों की तरह अगर प्राथमिकताओं की सूची में रखा गया होता तो डेढ़ साल में कई बैठकें हो चुकी होती और कई कदम उठाए जा चुके होते। इस राष्ट्रीय प्राणी को बचाने के लिए सरकार महज जब जागो, तब सवेरा वाली कहावत पर अमल करने की कोशिश करती आई है। उसकी इसी कोशिश में बाघों की संख्या आधे से भी कम होकर रह गई है। कुंभकरणी नींद से बीच में उठकर कुछ कदम बढ़ाने और वापस फिर सो जाने से स्थितियां नहीं बदला करतीं, लेकिन सरकार मुंगेरीलाल की तरह सपने पर सपने देखे जा रही है।
बाघों के सरंक्षण को केंद्र और रायों के बीच की फुटबॉल न बनाकर एक ऐसी नीति बनाए जाने की जरूरत है जो सीमाओं के बंधन से अछूती रहे। अब तक होता यही आ रहा है कि केंद्र फंड जारी करता है और राय सरकारें उसका उपयोग। मगर यह उपयोग उन मदो पर नहीं होता जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है। राय सरकारें फंड की चाहत में कागजों पर सबकुछ ठीक बताती रहती हैं, और अंत में सरिस्का और पन्ना जैसे खुलासे स्तब्ध कर देते हैं। पन्ना पूरी तरह बाघ विहीन हो चुका है। मध्यप्रदेश का एक और अभयारण्य पेंच भी पन्ना के पदचिन्हों पर है। पेंच में पिछले छह माह में तकरीबन छह बाघ दम तोड़ चके हैं। राजस्थान के सरिस्का से पूरी तरह बाघों के सफाए की खबर के बाद भी यदि सार्थक परिणामों के लिए काम किया जाता तो बाघों की संख्या में गिरावट का क्रम बरकरार नहीं रहता। सही मायने में देखा जाए तो इस मुद्दे पर अब तक सिर्फ प्रयोग ही किए जा रहे हैं। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय का बंटवारा भी प्रयोग का ही हिस्सा है।
अगर प्रयोग करना ही है तो फिर बड़े स्तर पर क्यों न किए जाएं, उसमें समाधान की संभावना भी कम से कम बड़ी तो रहेगी। पूर्व में लिखे अपने लेखों में मैं जंगलों की हिफाजत को निजी हाथों में सौंपे जाने की वकालत करता रहा हूं। इस संबंध में मुझे ढेरों प्रतिक्रियां भी मिलीं, जिनमें से अधिकतर आलोचना स्वरूप की गईं थी, मगर कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने इसके पीछे के तर्कों को गहराई से समझा। मध्यप्रदेश के एक आईएफएस अधिकारी ने ऐसे ही मेरे लेख पर चर्चा करते हुए बाघ सरंक्षण में प्रदेश के योगदान की बड़ी-बड़ी बातें कहीं, उन्होंने ये समझाने का प्रयास किया कि पूरे मुल्क में मध्यप्रदेश जैसा काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, जिस विभाग से वो जुड़े हैं उसकी बुराई वो नहीं सुन सकते, लेकिन यदि वास्तव में मध्यप्रदेश ने इतना कुछ किया होता तो यहां के अभयारण्य बाघ वहीन नहीं हो रहे होते।
बाघों को बचाने के मुद्दे पर हम पूरी तरह से बैकफुट पर हैं। या कह सकते हैं कि हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं। जितनी तेजी से बाघों का सफाया हो रहा है, उससे यह तय है कि जल्द ही बाघ किस्से-कहानियों की बात बनकर रह जाएंगे। यानी जो करना है, अभी करना है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर सरकारी अमला स्थिति को नियंत्रित करने में सफल होता तो करोड़ों-अरबों बहाए जाने के बाद बाघ यूं एक-एक करके दम नहीं तोड़ रहे होते। कोई स्वीकार करे या न करे, मगर हकीकत यही है कि बाघ सरंक्षण में लगे 90 प्रतिशत सरकारी मुलाजिम सिर्फ और सिर्फ नौकरी बचाने के लिए काम करते हैं। उच्च पदों पर बैठे अफसर सच पर पर्दा डालने और शेखी बखारने में व्यस्त रहते हैं और निचले तबके के कर्मचारी आराम तलबी में। ये सही है कि बाघों की सुरक्षा में लगे अफसर-कर्मचारी अत्याधुनिक सुविधाओं से वंचित हैं मगर ये भी सही है कि जिन अफसरों और कर्मचारियों पर वन्यप्राणियाें के सरंक्षण का जिम्मा है वो ही उनके संहार की वजह बन रहे हैं। सरिस्का कांड की जांच में यह बात सामने आई थी कि वन विभाग के मुलाजिम भी बाघों की हत्या में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी निभा रहे थे। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मंत्रालय का विभाजन करने, कमेटियां गठित करने और दर्जनों बैठकें आयोजित करने के बाद बाघों का कत्ल नहीं होगा। बाघों का कत्ल जरूर होगा क्योंकि सुधार की जरूरत नीचे से लेकर ऊपर तक है और इतने शॉर्ट नोटिस पर इसे सुधार पाना लगभग नामुमकिन है।
इसलिए किसी ऐसे विकल्प पर गौर किया जाना चाहिए जिससे वक्त और पैसे दोनों का सदुपयोग किया जा सके। मेरी समझ से जंगलों की हिफाजत का जिम्मा निजी हाथों में सौंपना बेहतर विकल्प हो सकता है। निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र की अपेक्षा यादा रिजल्ट ओरियंटिड है, इस बात पर शायद ही किसी को शक-शुबहा हो। हम निजी बैंकों का उदाहरण ले सकते हैं, काम जल्दी होने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों में बात करने का जो सलीखा है वो सरकारी बैंकों के मुलाजिमों में नहीं। है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि जंगलों की हिफाजत का जो काम वन विभाग नहीं कर पा रहा है उसे निजी सुरक्षा कंपनियां यादा कारगर तरीके से अंजाम दे पाएंगी। सरकार को इसके लिए निविदाओं के माध्यम से संगठन का चुनाव करना चाहिए। विदेशियों के लिए भी इस प्रक्रिया में शामिल होने के रास्ते खुले रखे जाएं तो बेहतर होगा। विदेशों में ऐसे बहुत से संगठन हैं जो इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं।
इस मामले को केंद्र और राय सरकारों की दखलंदाजी से पूर्णता मुक्त रखा जाए, जिस कपंनी को ठेका दिया जाए उसे अपने तरीके से काम करने की आजादी भी मिले। सरकार यदि चाहे तो इसे शुरूआत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर किसी एक टाइगर रिजर्व में शुरू किया जा सकता है। कांट्रेक्ट में कुछ सख्त शर्ते जोड़ी जानी चाहिए जिसके पूरा न होने की दशा में सुरक्षा एजेंसी को आर्थिक नुकसान का सामना तो करना ही पड़े, उसपर काम से बेदखल होने का खतरा भी मंडराता रहे। बेशक इस तरह के प्रस्ताव और उसपर अमल का रास्ता भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए देश के लिए शर्मिंदगी करार देगा और अन्य विरोधी पार्टियां हर गली-चौराहे पर सियापा करती नजर आएंगी। लेकिन जब सरकार परमाणु करार, महिला आरक्षण जैसे मुद्दे पर किसी की परवाह किए बगैर आगे बढ़ सकती है तो फिर बाघ सरंक्षण के लिए भी कड़ा फैसला लिया जा सकता है। जरूरत है तो बस सही समझ और दृढ संकल्प की। उन सभी पाठकों से जो मेरे इस विचार पर सहमति जताते हैं, विनम्र निवेदन है कि इस आश्य का एक पोस्टकार्ड प्रधानमंत्री को जरूर लिखें। आप जरूर सोचेंगे कि उससे कुछ नहीं होना, मैं भी ये अच्छी तरह जानता हूं मगर फिर भी पहल तो हम में से किसी एक को करनी ही पड़ेगी अगर हम अपनी आने वाली पीढियों को बाघ तस्वीरों के बजाए हकीकत में दिखाना चाहते हैं तो।
Saturday, June 12, 2010
बीसीसीआई के लिए देश से बड़ा पैसा
नीरज नैयर
ओलंपिक खेलों में भारत का लचर प्रदर्शन और पदक तालिका में सबसे नीचे रहने का दुख हर भारतवासी को होगा। अभिनव बिंद्रा, विजेंद्र और सुशील कुमार ने जो पदक जीते हैं वो सालों से सूखी जमीन पर पानी की चंद बूंदों की माफिक हैं। जो जमीन को कुछ देर के लिए गीला तो कर सकती हैं मगर उसकी प्यास नहीं बुझा सकतीं। ओलंपिक में भारत आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से अपने से कई गुना छोटे देशों से भी बहुत पीछे है। घरेलू मैदान पर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले हमारे खिलाड़ी विदेशजमीं पर क्यों सहम जाते हैं, इसका जवाब हमें आजतक नहीं मिल सका है। जिन खिलाड़ियों से सबसे यादा उम्मीदें होती हैं, वही कुछ दूर चलने के बाद हाफंते नजर आते हैं। शायद यही वजह है कि इस तरह के खेलों को न तो मीडिया खास तवाो देता है और न ही लोग उनके परिणाम जानने के लिए उत्साहित दिखाई देते हैं। चंद रोज पहले अजलान शाह कप की संयुक्त विजेता बनकर लौटी भारतीय हॉकी टीम के स्वागत के लिए खुद हॉकी से जुड़े अधिकारियों का न पहुंचना इस बात का सुबूत है कि भारत में ऐसे खेल प्राथमिकता सूची में किस पायदान पर आते हैं।
णहॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, बावजूद इसके वो बदहाली के दौर से गुजर रहा है तो इसका एक बड़ा कारण खिलाड़ियों का अच्छा परफार्म न कर पाना भी है। हॉकी का विश्व कप इस बार भारत में हुआ, स्टेडियम में भीड़ जुटाने के तमाम प्रयास किए गए जो काफी हद तक कारगर भी हुए लेकिन उसका नतीजा क्या निकला। भारतीय टीम सेमी फाइनल तक में नहीं पहुंच पाई। हॉकी को फिर दिल देने के लिए हॉकी के स्तर में सुधार की जरूरत है। और जब तक ये नहीं होता, हालात बदलने वाले नहीं हैं। हॉकी के अलावा दूसरे खेलों में बेडमिंटन और टेनिस में भारत की स्थिति थोड़ी बहुत ठीक है, लेकिन इतनी भी नहीं कि ओलंपिक में मैडल दिलवा सके। इसलिए लंबे समय से ओलंपिक जैसे आयोजनों में क्रिकेट की कमी खलती आई है। लोग मानते हैं कि बुरे दौर में भी टीम इंडिया गोल्ड मैडल जीतने का माद्दा रखती है। 2020 में होने वाले ओलंपिक खेलों में यदि क्रिकेट खेला गया तो सबसे यादा भारतीय अन्य खेलों की अपेक्षा क्रिकेट पर दांव लगाना पसंद करेंगे। वैसे अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक सीमति (आईओसी) ने आईसीसी को मान्यता देकर ओलंपिक में क्रिकेट का रास्ता साफ कर दिया है। लेकिन आईसीसी के अलावा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का भी ओलंपिक में टीम भेजने के लिए राजी होना जरूरी है। जिस तरह का अड़ियल रुख बोर्ड ने एशियन गेम्स को लेकर अपना रखा है अगर वैसा ही उसने ओलंपिक के वक्त अपनाया तो क्रिकेटरों को ओलंपिक में खेलते देखने का सपना सपना बनकर ही रह जाएगा। 12 से 27 नवंबर तक चीन में होने वाले एशियाई खेलों के लिए टीम भेजने से बीसीसीआई ने दो टूक इंकार कर दिया है। इसके पीछे उसने इंटरनेशनल कमिटमेंट का हवाला दिया है। उसका तर्क है कि जिस वक्त में एशियन गेम्स होने हैं, उसी वक्त न्यूजीलैंड को भारत आना है। बोर्ड ने महिला टीम को भी नहीं भेजने का फैसला लिया है।
वैसे ये कोई पहला मौका नहीं है जब बीसीसीआई ने देश से यादा अपने व्यक्तिगत हितों को महत्व दिया हो, इससे पहले 1998 क्वालालंपुर गेम्स में भी बोर्ड ने दूसरे दर्ज की टीम भेजी थी जबकि मुख्य टीम को टोरंटों में सीरीज खेलने भेज दिया था। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजक भी ट्वेंटी-20 क्रिकेट को शामिल करना चाहते थे लेकिन बीसीसीआई ने ऐसा होने नहीं दिया। यह बेहद दुरर््भाग्यपूण हैं कि बोर्ड के लिए देश के मान-सम्मान से यादा आर्थिक सरोकार मायने रखते हैं। न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलने से यादा जरूरी था कि क्रिकेटर एशियाई खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करते। जो बीसीसीआई अति व्यस्त कार्यक्रम के बीच में भी आईपीएल का आयोजन कर सकता है, उसके लिए एशियन गेम्स के लिए महज 15 दिन जुटाना कोई बड़ी बात नहीं थी। पिछली दो बार से आईपीएल ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप से ठीक पहले हो रहा है, और इसबीच टीम इंडिया कई अन्य टूर्नामेंट भी खेल लेती है। लेकिन बोर्ड को इसमें कभी कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन टूर्नामेंटों से उसकी आर्थिक सेहत अच्छी होती है। आईपीएल से उसे करोड़ों-अरबों का मुनाफा होता है, जबकि एशियन गेम्स जैसे आयोजनों में टीम भेजकर उसे सम्मान के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। बोर्ड भले ही इंटरनेशल कमिटमेंट का बहाना बनाए मगर सच सही है कि उसे न्यूजीलैंड सीरिज से होने वाली आय नजर आ रही है। उसे पता है कि टेलीकास्ट राइट्स और प्रायोजकों के जरिए जितनी कमाई उसे न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलकर हो सकती है, उतनी एशियाई खेलों में टीम भेजकर नहीं।
णये बात सही है कि आर्थिक हितों का ध्यान हर कोई रखता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन जब बात देश की हो तो मुनाफा मायने नहीं रखना चाहिए। वैसे भी बोर्ड आजतक चैरिटेबल संस्था की आड़ में अरबों का मुनाफा कमाता आया है। दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का सामाजिक दायित्व से भी दूर-दूर का नाता नहीं है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, महज टीवी करार से ही उसने करोड़ों-अरबों की कमाई कर लेता है। अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा। मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो। सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के। अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां कुछ वक्त पहले आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया। क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं। बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे। देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी बोर्ड कुछ करने को तैयार दिखाई नहीं देता। इतना बड़ा कारोबार और चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है।
आईपीएल के अलावा बोर्ड पिछले दिनों इंरट कॉर्पोरेट टूर्नामेंट भी शुरू करने का फैसला कर चुका है, भारी इनामी राशि वाला यह टूर्नामेंट 50-50 और 20-20 दोनों फॉर्मेट में खेला जाएगा। विजेता टीम को एक करोड़, उपविजेता को 50 लाख और सेमीफाइनल में हारने वाली टीमों को 25-25 लाख रुपए इनाम स्वरूप दिए जाएंगे। इन सबके लिए बोर्ड के पास भरपूर वक्त है, लेकिन एशियन गेम्स में टीम भेजने के लिए नहीं। आईओए के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी अगर बीसीसीआई को पैसे के पीछे भागने वाला कह रहे हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं। बीसीसीआई आज पूरी तरह से कॉमर्शियल हो चुका है, और उसे जहां मुनाफा नजर आएगा वो वहीं टीम भेजेगा। यदि एशियाई खेलों से उसे मोटी कमाई हो रही होती तो इंटरनेशल कमिटमेंट के बहाने बनते ही नहीं। बोर्ड की इस बहानेबाजी से ओलंपिक में टीम इंडिया के खेलने के सपनों पर बादल मंडराने लगे हैं और उनके छटने की संभावना बहुत क्षीण नजर आ रही है।
ओलंपिक खेलों में भारत का लचर प्रदर्शन और पदक तालिका में सबसे नीचे रहने का दुख हर भारतवासी को होगा। अभिनव बिंद्रा, विजेंद्र और सुशील कुमार ने जो पदक जीते हैं वो सालों से सूखी जमीन पर पानी की चंद बूंदों की माफिक हैं। जो जमीन को कुछ देर के लिए गीला तो कर सकती हैं मगर उसकी प्यास नहीं बुझा सकतीं। ओलंपिक में भारत आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से अपने से कई गुना छोटे देशों से भी बहुत पीछे है। घरेलू मैदान पर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले हमारे खिलाड़ी विदेशजमीं पर क्यों सहम जाते हैं, इसका जवाब हमें आजतक नहीं मिल सका है। जिन खिलाड़ियों से सबसे यादा उम्मीदें होती हैं, वही कुछ दूर चलने के बाद हाफंते नजर आते हैं। शायद यही वजह है कि इस तरह के खेलों को न तो मीडिया खास तवाो देता है और न ही लोग उनके परिणाम जानने के लिए उत्साहित दिखाई देते हैं। चंद रोज पहले अजलान शाह कप की संयुक्त विजेता बनकर लौटी भारतीय हॉकी टीम के स्वागत के लिए खुद हॉकी से जुड़े अधिकारियों का न पहुंचना इस बात का सुबूत है कि भारत में ऐसे खेल प्राथमिकता सूची में किस पायदान पर आते हैं।
णहॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, बावजूद इसके वो बदहाली के दौर से गुजर रहा है तो इसका एक बड़ा कारण खिलाड़ियों का अच्छा परफार्म न कर पाना भी है। हॉकी का विश्व कप इस बार भारत में हुआ, स्टेडियम में भीड़ जुटाने के तमाम प्रयास किए गए जो काफी हद तक कारगर भी हुए लेकिन उसका नतीजा क्या निकला। भारतीय टीम सेमी फाइनल तक में नहीं पहुंच पाई। हॉकी को फिर दिल देने के लिए हॉकी के स्तर में सुधार की जरूरत है। और जब तक ये नहीं होता, हालात बदलने वाले नहीं हैं। हॉकी के अलावा दूसरे खेलों में बेडमिंटन और टेनिस में भारत की स्थिति थोड़ी बहुत ठीक है, लेकिन इतनी भी नहीं कि ओलंपिक में मैडल दिलवा सके। इसलिए लंबे समय से ओलंपिक जैसे आयोजनों में क्रिकेट की कमी खलती आई है। लोग मानते हैं कि बुरे दौर में भी टीम इंडिया गोल्ड मैडल जीतने का माद्दा रखती है। 2020 में होने वाले ओलंपिक खेलों में यदि क्रिकेट खेला गया तो सबसे यादा भारतीय अन्य खेलों की अपेक्षा क्रिकेट पर दांव लगाना पसंद करेंगे। वैसे अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक सीमति (आईओसी) ने आईसीसी को मान्यता देकर ओलंपिक में क्रिकेट का रास्ता साफ कर दिया है। लेकिन आईसीसी के अलावा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का भी ओलंपिक में टीम भेजने के लिए राजी होना जरूरी है। जिस तरह का अड़ियल रुख बोर्ड ने एशियन गेम्स को लेकर अपना रखा है अगर वैसा ही उसने ओलंपिक के वक्त अपनाया तो क्रिकेटरों को ओलंपिक में खेलते देखने का सपना सपना बनकर ही रह जाएगा। 12 से 27 नवंबर तक चीन में होने वाले एशियाई खेलों के लिए टीम भेजने से बीसीसीआई ने दो टूक इंकार कर दिया है। इसके पीछे उसने इंटरनेशनल कमिटमेंट का हवाला दिया है। उसका तर्क है कि जिस वक्त में एशियन गेम्स होने हैं, उसी वक्त न्यूजीलैंड को भारत आना है। बोर्ड ने महिला टीम को भी नहीं भेजने का फैसला लिया है।
वैसे ये कोई पहला मौका नहीं है जब बीसीसीआई ने देश से यादा अपने व्यक्तिगत हितों को महत्व दिया हो, इससे पहले 1998 क्वालालंपुर गेम्स में भी बोर्ड ने दूसरे दर्ज की टीम भेजी थी जबकि मुख्य टीम को टोरंटों में सीरीज खेलने भेज दिया था। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजक भी ट्वेंटी-20 क्रिकेट को शामिल करना चाहते थे लेकिन बीसीसीआई ने ऐसा होने नहीं दिया। यह बेहद दुरर््भाग्यपूण हैं कि बोर्ड के लिए देश के मान-सम्मान से यादा आर्थिक सरोकार मायने रखते हैं। न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलने से यादा जरूरी था कि क्रिकेटर एशियाई खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करते। जो बीसीसीआई अति व्यस्त कार्यक्रम के बीच में भी आईपीएल का आयोजन कर सकता है, उसके लिए एशियन गेम्स के लिए महज 15 दिन जुटाना कोई बड़ी बात नहीं थी। पिछली दो बार से आईपीएल ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप से ठीक पहले हो रहा है, और इसबीच टीम इंडिया कई अन्य टूर्नामेंट भी खेल लेती है। लेकिन बोर्ड को इसमें कभी कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन टूर्नामेंटों से उसकी आर्थिक सेहत अच्छी होती है। आईपीएल से उसे करोड़ों-अरबों का मुनाफा होता है, जबकि एशियन गेम्स जैसे आयोजनों में टीम भेजकर उसे सम्मान के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। बोर्ड भले ही इंटरनेशल कमिटमेंट का बहाना बनाए मगर सच सही है कि उसे न्यूजीलैंड सीरिज से होने वाली आय नजर आ रही है। उसे पता है कि टेलीकास्ट राइट्स और प्रायोजकों के जरिए जितनी कमाई उसे न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलकर हो सकती है, उतनी एशियाई खेलों में टीम भेजकर नहीं।
णये बात सही है कि आर्थिक हितों का ध्यान हर कोई रखता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन जब बात देश की हो तो मुनाफा मायने नहीं रखना चाहिए। वैसे भी बोर्ड आजतक चैरिटेबल संस्था की आड़ में अरबों का मुनाफा कमाता आया है। दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का सामाजिक दायित्व से भी दूर-दूर का नाता नहीं है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, महज टीवी करार से ही उसने करोड़ों-अरबों की कमाई कर लेता है। अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा। मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो। सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के। अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां कुछ वक्त पहले आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया। क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं। बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे। देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी बोर्ड कुछ करने को तैयार दिखाई नहीं देता। इतना बड़ा कारोबार और चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है।
आईपीएल के अलावा बोर्ड पिछले दिनों इंरट कॉर्पोरेट टूर्नामेंट भी शुरू करने का फैसला कर चुका है, भारी इनामी राशि वाला यह टूर्नामेंट 50-50 और 20-20 दोनों फॉर्मेट में खेला जाएगा। विजेता टीम को एक करोड़, उपविजेता को 50 लाख और सेमीफाइनल में हारने वाली टीमों को 25-25 लाख रुपए इनाम स्वरूप दिए जाएंगे। इन सबके लिए बोर्ड के पास भरपूर वक्त है, लेकिन एशियन गेम्स में टीम भेजने के लिए नहीं। आईओए के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी अगर बीसीसीआई को पैसे के पीछे भागने वाला कह रहे हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं। बीसीसीआई आज पूरी तरह से कॉमर्शियल हो चुका है, और उसे जहां मुनाफा नजर आएगा वो वहीं टीम भेजेगा। यदि एशियाई खेलों से उसे मोटी कमाई हो रही होती तो इंटरनेशल कमिटमेंट के बहाने बनते ही नहीं। बोर्ड की इस बहानेबाजी से ओलंपिक में टीम इंडिया के खेलने के सपनों पर बादल मंडराने लगे हैं और उनके छटने की संभावना बहुत क्षीण नजर आ रही है।
Monday, May 24, 2010
तांगे-रिक्शे पर बैन लगाकर क्या होगाU
नीरज नैयर
आर्थिक प्रगति की दौड़ में भागे जा रही दिल्ली में अब तांगे दिखाई नहीं देंगे। नई दिल्ली के बाद पुरानी दिल्ली में भी घोड़ा गाडियों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वैसे तांगे वालों के पुर्नवास के लिए कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं लेकिन वो कितने कारगर साबित होंगे इसका इल्म सरकार को भी बखूबी होगा। तांगे शायद सरकार को संपन्नता की चादर में पैबंद की माफिक लग रहे होंगे, घोड़े के टापों की अवाज उसके लिए सिरदर्द बन रही होगी, इसलिए शीला सरकार को प्रतिबंध के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझा। घोड़ा गाड़ी पर बैन लगाने से महज तांगा चलाने वाले ही प्रभावित नहीं होंगे बल्कि घोड़े के पैरों में नाल लगाने वाले, चाबुक बनाने वाले, गाड़ी बनाने वाले जैसे लोगों को भी रोजगार के दूसरे विकल्प तलाशने होंगे। इसका सीधा सा मतलब है कि बेराजगारों की फेहरिस्त में कुछ लोग और शामिल हो जाएंगे। आधुनिक जमाने में जहां मेट्रो ट्रेन और ट्रांसपोर्ट के कई अन्य अत्याधुनिक साधन मौजूद हैं, तांगों को पुराना जरूर कहा जा सकता है मगर इनकी उपयोगिता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। ये बेहद चिंतनीय विषय है कि एक तरफ तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीरता बरतने की बात करते हैं और दूसरी तरफ इको फ्रेंडली ट्रांसपोर्टेशन को हतोत्साहित करने में लगे हैं।
हो सकता है कि तंग गलियों में घोड़े गाड़ियों की आवाजाही से परेशानियां बढ़ जाती हों लेकिन इसका हल प्रतिबंध लगाकर तो नहीं निकाला जा सकता। तांगे या रिक्शे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई योगदान नहीं देते बावजूद इसके भी हम महज आधुनिक दिखने की धुन में प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। अत्याधुनिक तकनीक अपनाकर दुनिया के साथ कदम साथ कदम मिलना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन पारंगत साधनों को प्रोत्साहित करना जो हमारे भविष्य को प्रभावित करते हैं। दिल्ली की तरह ही कुछ वक्त पहले कोलकाता की शान कहे जाने वाले रिक्शों पर प्रतिबंध लगया गया था, वो रिक्शे जो हजारों लोगों की जीविका का एकमात्र साधन थे। इस तरह के फैसले न केवल समाज के निचले तबके के प्रति सरकारों की गैरजिम्मेदाराना सोच को उजागर करते हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के हमारे दावों की हकीकत भी सामने लाते हैं। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 13 वर्ष की अवधि में करीब तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। रिपोर्ट में पर्यावरण के लिए घातक कही जाने वाली गैसों के उत्सर्जन में 1994 की तुलना में 2007 तक आए परिवर्तन का आंकलन है। हालांकि ये रफ्तार अमेरिका और चीन के मुकाबले काफी कम है। अमेरिका 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। 2005 में दुनिया का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 4.22 टन था जबकि भारत का औसत 1.2 टन है। पर फिर भी तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी को कहीं न कहीं रणनीति पर पुनर्विचार के संकेत के रूप में देखा ही जाना चाहिए। ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प मौजूद रहते है। ये गैसें खतरनाक स्तर से वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि ओजोन परत के छेद का दायरा लगातार फैल रहा है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह काम करती है। इस कवच के कमजोर पड़ने का मतलब है, पृथ्वी का सूरज की तरह तप जाना। मौजूदा वक्त में ही हम काफी हद तक उस स्थिति को महसूस कर रहे हैं।
इस साल गर्मी ने अप्रैल-मई में ही सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। अब जरा सोचिए कि अगर तापमान बढ़ने की रफ्तार कुछ यही रही तो आने वाले कुछ सालों में क्या दिन में घर से बाहर निकलना मुमकिन हो पाएगा। हो सकता है कि दिन में लगने वाले बाजार रात में लगे, लोग रात को शॉपिंग पर जाएं, दफ्तरों में काम रात में हो। यानी दिन रात बन जाए और रात दिन। ये बातें अभी सुनने में जरूर अजीब लग रही होंगी, लेकिन जितनी तेजी से मौसम में परिवर्तन हो रहा है, उसमे कुछ भी मुमकिन है। इसलिए विश्व के हर मुल्क को अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करने जैसे कदम उठाने होंगे। छोटे-छोटे प्रयासों से ही बड़ी-बड़ी योजनाओं को मूर्तरूप दिया जा सकता है। अगर अब भी हम विकसित और विकासशील के झगड़े में उलझकर एक-दूसरे पर उंगली उठाते रहेंगे तो हमारा आने वाला कल निश्चित ही अंधकार मे होगा। जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने का सबसे कारगर तरीका यही हो सकता है कि प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम किया जाए, और उसके लिए यातायात के परंपरागत साधनों को अपनाने में शर्म हरगिज महसूस नहीं होनी चाहिए। फिलीपिंस की राजधानी मनीला ने इस दिशा में एक अच्छी पहल की है, जिसपर विचार किया जा सकता है। मनीला प्रशासन ने बैटरी चलित बसों को पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन के काम में लगाया है और इसमें यात्रा बिल्कुल मुफ्त रखी गई है। ऐसा निजी वाहनों के प्रयोग में कमी लाने के उद्देश्य से किया गया है। सारा खर्चा प्रशासन खुद वहन कर रहा है। इस योजना के शुरू होने के बाद से काफी तादाद में लोगों ने दफ्तर आदि जाने के लिए निजी वाहनों का प्रयोग बंद कर दिया है। जरा अंदाजा लगाइए कि प्रतिदिन यदि 100 वाहन भी सड़क पर नहीं दौड़े तो पर्यावरण को कितना फायदा पहुंचा होगा।
भारत में तांगे-रिक्शे के रूप में अच्छे-खासे विकल्प मौजूद हैं मगर स्थानीय प्रशासन और राय सरकार दोनों ही आधुनिकता का चोला ओढ़ने पर आमादा हैं। यूएन की एक स्टडी रिपोर्ट में कुछ समय पूर्व ये खुलासा किया गया था कि आने वाले 20 से 30 साल में भारत जलवायु परिवर्तन से सबसे यादा प्रभावित होने वाले देशों में शुमार होगा। यहां, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसारएशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉर्मिंग से सबसे यादा प्रभावित होंगे। ऐसे ही सांइस पत्रिका की प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और यादा गिरावट आएगी। इस लिहाज से देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के खतरे को भारत सरकार जितना कम आंकती आई है, हालात उससे यादा खराब होने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी सरकार जितनी ढुलमुल है उतनी ही सुस्त यहां की जनता भी है।
अगर सरकार की तरफ से कोई पहल की भी जाती है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोग उसका खुलेदिल से स्वागत करेंगे। अर्थ ऑवर इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। देश की आबादी का एक बड़ा तबका इसे महज चोचलेबाजी करार देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है, जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों से वो खुद भी अच्छी तरह वाकिफ है। इसलिए पर्यावरण मंत्रालय को अब अपनी आराम तलबी की आदत से बाहर निकालकर कुछ कदम उठाने चाहिए, उसे महज अर्थ ऑवर जैसी अपील करने के बजाए दिशा निर्देश तय करने होंगे जिसका पालन करने के लिए हर कोई बाध्य हो। कुछ प्रमुख ऐतिहासिक स्थल जैसे ताजमहल आदि के आस-पास एक निर्धारित परिधि में वाहनों की आवाजाही पर प्रतिबंध है, केवल बैटरी चलित वाहन ही वहां जा सकते हैं। इस व्यवस्था का शुरूआत में जमकर विरोध हुआ लेकिन आज सब इसके आदि हो चुके हैं। इसी तरह वो प्रमुख शहर जो प्रदूषण फैलाने में सबसे आगे हैं, के कुछ इलाके चिन्हित करके वहां ऐसी व्यवस्था लागू करने पर विचार-विमर्श किए जाने की जरूरत है। णहम यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर तो लगाम लगा ही सकते हैं। सड़कों पर जितने यादा तांगे-रिक्शे और बैटरी चलित वाहन दौड़ेंगे हमारे भविष्य की संभावनाएं उतनी ही अल्हादित करने वाली होंगी। अगर पारंपरिक साधनों को अपनाकर हम अपना कल खुशहाल कर सकते हैं तो फिर आधुनिकता को एक दायरे में सीमित रखने में बुराई क्या है। कम से कम इससे कुछ घरों के चूल्हे तो जलते रहेंगे।
आर्थिक प्रगति की दौड़ में भागे जा रही दिल्ली में अब तांगे दिखाई नहीं देंगे। नई दिल्ली के बाद पुरानी दिल्ली में भी घोड़ा गाडियों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वैसे तांगे वालों के पुर्नवास के लिए कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं लेकिन वो कितने कारगर साबित होंगे इसका इल्म सरकार को भी बखूबी होगा। तांगे शायद सरकार को संपन्नता की चादर में पैबंद की माफिक लग रहे होंगे, घोड़े के टापों की अवाज उसके लिए सिरदर्द बन रही होगी, इसलिए शीला सरकार को प्रतिबंध के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझा। घोड़ा गाड़ी पर बैन लगाने से महज तांगा चलाने वाले ही प्रभावित नहीं होंगे बल्कि घोड़े के पैरों में नाल लगाने वाले, चाबुक बनाने वाले, गाड़ी बनाने वाले जैसे लोगों को भी रोजगार के दूसरे विकल्प तलाशने होंगे। इसका सीधा सा मतलब है कि बेराजगारों की फेहरिस्त में कुछ लोग और शामिल हो जाएंगे। आधुनिक जमाने में जहां मेट्रो ट्रेन और ट्रांसपोर्ट के कई अन्य अत्याधुनिक साधन मौजूद हैं, तांगों को पुराना जरूर कहा जा सकता है मगर इनकी उपयोगिता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। ये बेहद चिंतनीय विषय है कि एक तरफ तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीरता बरतने की बात करते हैं और दूसरी तरफ इको फ्रेंडली ट्रांसपोर्टेशन को हतोत्साहित करने में लगे हैं।
हो सकता है कि तंग गलियों में घोड़े गाड़ियों की आवाजाही से परेशानियां बढ़ जाती हों लेकिन इसका हल प्रतिबंध लगाकर तो नहीं निकाला जा सकता। तांगे या रिक्शे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई योगदान नहीं देते बावजूद इसके भी हम महज आधुनिक दिखने की धुन में प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। अत्याधुनिक तकनीक अपनाकर दुनिया के साथ कदम साथ कदम मिलना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन पारंगत साधनों को प्रोत्साहित करना जो हमारे भविष्य को प्रभावित करते हैं। दिल्ली की तरह ही कुछ वक्त पहले कोलकाता की शान कहे जाने वाले रिक्शों पर प्रतिबंध लगया गया था, वो रिक्शे जो हजारों लोगों की जीविका का एकमात्र साधन थे। इस तरह के फैसले न केवल समाज के निचले तबके के प्रति सरकारों की गैरजिम्मेदाराना सोच को उजागर करते हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के हमारे दावों की हकीकत भी सामने लाते हैं। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 13 वर्ष की अवधि में करीब तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। रिपोर्ट में पर्यावरण के लिए घातक कही जाने वाली गैसों के उत्सर्जन में 1994 की तुलना में 2007 तक आए परिवर्तन का आंकलन है। हालांकि ये रफ्तार अमेरिका और चीन के मुकाबले काफी कम है। अमेरिका 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। 2005 में दुनिया का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 4.22 टन था जबकि भारत का औसत 1.2 टन है। पर फिर भी तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी को कहीं न कहीं रणनीति पर पुनर्विचार के संकेत के रूप में देखा ही जाना चाहिए। ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प मौजूद रहते है। ये गैसें खतरनाक स्तर से वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि ओजोन परत के छेद का दायरा लगातार फैल रहा है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह काम करती है। इस कवच के कमजोर पड़ने का मतलब है, पृथ्वी का सूरज की तरह तप जाना। मौजूदा वक्त में ही हम काफी हद तक उस स्थिति को महसूस कर रहे हैं।
इस साल गर्मी ने अप्रैल-मई में ही सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। अब जरा सोचिए कि अगर तापमान बढ़ने की रफ्तार कुछ यही रही तो आने वाले कुछ सालों में क्या दिन में घर से बाहर निकलना मुमकिन हो पाएगा। हो सकता है कि दिन में लगने वाले बाजार रात में लगे, लोग रात को शॉपिंग पर जाएं, दफ्तरों में काम रात में हो। यानी दिन रात बन जाए और रात दिन। ये बातें अभी सुनने में जरूर अजीब लग रही होंगी, लेकिन जितनी तेजी से मौसम में परिवर्तन हो रहा है, उसमे कुछ भी मुमकिन है। इसलिए विश्व के हर मुल्क को अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करने जैसे कदम उठाने होंगे। छोटे-छोटे प्रयासों से ही बड़ी-बड़ी योजनाओं को मूर्तरूप दिया जा सकता है। अगर अब भी हम विकसित और विकासशील के झगड़े में उलझकर एक-दूसरे पर उंगली उठाते रहेंगे तो हमारा आने वाला कल निश्चित ही अंधकार मे होगा। जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने का सबसे कारगर तरीका यही हो सकता है कि प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम किया जाए, और उसके लिए यातायात के परंपरागत साधनों को अपनाने में शर्म हरगिज महसूस नहीं होनी चाहिए। फिलीपिंस की राजधानी मनीला ने इस दिशा में एक अच्छी पहल की है, जिसपर विचार किया जा सकता है। मनीला प्रशासन ने बैटरी चलित बसों को पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन के काम में लगाया है और इसमें यात्रा बिल्कुल मुफ्त रखी गई है। ऐसा निजी वाहनों के प्रयोग में कमी लाने के उद्देश्य से किया गया है। सारा खर्चा प्रशासन खुद वहन कर रहा है। इस योजना के शुरू होने के बाद से काफी तादाद में लोगों ने दफ्तर आदि जाने के लिए निजी वाहनों का प्रयोग बंद कर दिया है। जरा अंदाजा लगाइए कि प्रतिदिन यदि 100 वाहन भी सड़क पर नहीं दौड़े तो पर्यावरण को कितना फायदा पहुंचा होगा।
भारत में तांगे-रिक्शे के रूप में अच्छे-खासे विकल्प मौजूद हैं मगर स्थानीय प्रशासन और राय सरकार दोनों ही आधुनिकता का चोला ओढ़ने पर आमादा हैं। यूएन की एक स्टडी रिपोर्ट में कुछ समय पूर्व ये खुलासा किया गया था कि आने वाले 20 से 30 साल में भारत जलवायु परिवर्तन से सबसे यादा प्रभावित होने वाले देशों में शुमार होगा। यहां, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसारएशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉर्मिंग से सबसे यादा प्रभावित होंगे। ऐसे ही सांइस पत्रिका की प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और यादा गिरावट आएगी। इस लिहाज से देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के खतरे को भारत सरकार जितना कम आंकती आई है, हालात उससे यादा खराब होने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी सरकार जितनी ढुलमुल है उतनी ही सुस्त यहां की जनता भी है।
अगर सरकार की तरफ से कोई पहल की भी जाती है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोग उसका खुलेदिल से स्वागत करेंगे। अर्थ ऑवर इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। देश की आबादी का एक बड़ा तबका इसे महज चोचलेबाजी करार देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है, जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों से वो खुद भी अच्छी तरह वाकिफ है। इसलिए पर्यावरण मंत्रालय को अब अपनी आराम तलबी की आदत से बाहर निकालकर कुछ कदम उठाने चाहिए, उसे महज अर्थ ऑवर जैसी अपील करने के बजाए दिशा निर्देश तय करने होंगे जिसका पालन करने के लिए हर कोई बाध्य हो। कुछ प्रमुख ऐतिहासिक स्थल जैसे ताजमहल आदि के आस-पास एक निर्धारित परिधि में वाहनों की आवाजाही पर प्रतिबंध है, केवल बैटरी चलित वाहन ही वहां जा सकते हैं। इस व्यवस्था का शुरूआत में जमकर विरोध हुआ लेकिन आज सब इसके आदि हो चुके हैं। इसी तरह वो प्रमुख शहर जो प्रदूषण फैलाने में सबसे आगे हैं, के कुछ इलाके चिन्हित करके वहां ऐसी व्यवस्था लागू करने पर विचार-विमर्श किए जाने की जरूरत है। णहम यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर तो लगाम लगा ही सकते हैं। सड़कों पर जितने यादा तांगे-रिक्शे और बैटरी चलित वाहन दौड़ेंगे हमारे भविष्य की संभावनाएं उतनी ही अल्हादित करने वाली होंगी। अगर पारंपरिक साधनों को अपनाकर हम अपना कल खुशहाल कर सकते हैं तो फिर आधुनिकता को एक दायरे में सीमित रखने में बुराई क्या है। कम से कम इससे कुछ घरों के चूल्हे तो जलते रहेंगे।
Subscribe to:
Posts (Atom)