Thursday, June 17, 2010

क्यों न निजी कंपनियों को सौंपी जाए जंगल की सुरक्षा

नीरज नैयर
एक लंबी खामोशी के बाद आखिरकार केंद्रीय नेतृत्व को अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बाघो के बारे में सोचने का वक्त मिल ही गया। राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में प्रधानमंत्री ने बाघ बचाओ मुहिम में रायों की कमजोर भागीदारी पर चिंता जाहिर की, उन्होंने इस संबंध में राय सरकारों को पत्र लिखने की भी बात कही। बैठक में अभयारण्योंके आस-पास बसे लोगों के पुर्नवास के लिए अधिक धन उपलब्ध कराने का फैसला लिया गया। पर्यावरण मंत्री की मानें तो पुर्नवास के लिए अगले सात सालों में 77 हजार परिवारों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ की जरूरत पड़ेगी। सोचने वाली बात ये है कि क्या अगले सात सालों तक बाघ बचे रहे पाएंगे। जिस रफ्तार से उनकी संख्या घटती जा रही है, उससे तो इस बात की संभावना कम ही दिखाई देती है।

बैठक में वन्य जीव सरंक्षण के प्रयासों को नए सिरे से संगठित करने के लिए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय में वन और वन्यजीव मामलों के लिए अलग विभाग बनाने पर मुहर लगी। यानी इतने लंबे अंतराल और दर्जनों बाघों की मौत के बाद अब जाकर सरकार को लग रहा है कि मंत्रालय को बांटने से बाघों की मौत पर अंकुश लगाया जा सकता है। यदि बाघों को बचाने का यही एक तरीका है, जैसा की सरकार सोच रही है तो इस पर पहले काम क्यों नहीं किया गया। वर्तमान में देश में बाघों की संख्या 1000-1100 से यादा नहीं होगी, साल की शुरूआत के तीन महीनों में ही करीब 13 बाघ की मौत के मामले सामने आ चुके हैं। वन्यजीवों को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा तो बोर्ड की बैठक के डेढ़ साल बाद होने से लगाया जा सकता है। बाघों की सुरक्षा का मुद्दा, अन्य मामलों की तरह अगर प्राथमिकताओं की सूची में रखा गया होता तो डेढ़ साल में कई बैठकें हो चुकी होती और कई कदम उठाए जा चुके होते। इस राष्ट्रीय प्राणी को बचाने के लिए सरकार महज जब जागो, तब सवेरा वाली कहावत पर अमल करने की कोशिश करती आई है। उसकी इसी कोशिश में बाघों की संख्या आधे से भी कम होकर रह गई है। कुंभकरणी नींद से बीच में उठकर कुछ कदम बढ़ाने और वापस फिर सो जाने से स्थितियां नहीं बदला करतीं, लेकिन सरकार मुंगेरीलाल की तरह सपने पर सपने देखे जा रही है।

बाघों के सरंक्षण को केंद्र और रायों के बीच की फुटबॉल न बनाकर एक ऐसी नीति बनाए जाने की जरूरत है जो सीमाओं के बंधन से अछूती रहे। अब तक होता यही आ रहा है कि केंद्र फंड जारी करता है और राय सरकारें उसका उपयोग। मगर यह उपयोग उन मदो पर नहीं होता जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है। राय सरकारें फंड की चाहत में कागजों पर सबकुछ ठीक बताती रहती हैं, और अंत में सरिस्का और पन्ना जैसे खुलासे स्तब्ध कर देते हैं। पन्ना पूरी तरह बाघ विहीन हो चुका है। मध्यप्रदेश का एक और अभयारण्य पेंच भी पन्ना के पदचिन्हों पर है। पेंच में पिछले छह माह में तकरीबन छह बाघ दम तोड़ चके हैं। राजस्थान के सरिस्का से पूरी तरह बाघों के सफाए की खबर के बाद भी यदि सार्थक परिणामों के लिए काम किया जाता तो बाघों की संख्या में गिरावट का क्रम बरकरार नहीं रहता। सही मायने में देखा जाए तो इस मुद्दे पर अब तक सिर्फ प्रयोग ही किए जा रहे हैं। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय का बंटवारा भी प्रयोग का ही हिस्सा है।

अगर प्रयोग करना ही है तो फिर बड़े स्तर पर क्यों न किए जाएं, उसमें समाधान की संभावना भी कम से कम बड़ी तो रहेगी। पूर्व में लिखे अपने लेखों में मैं जंगलों की हिफाजत को निजी हाथों में सौंपे जाने की वकालत करता रहा हूं। इस संबंध में मुझे ढेरों प्रतिक्रियां भी मिलीं, जिनमें से अधिकतर आलोचना स्वरूप की गईं थी, मगर कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने इसके पीछे के तर्कों को गहराई से समझा। मध्यप्रदेश के एक आईएफएस अधिकारी ने ऐसे ही मेरे लेख पर चर्चा करते हुए बाघ सरंक्षण में प्रदेश के योगदान की बड़ी-बड़ी बातें कहीं, उन्होंने ये समझाने का प्रयास किया कि पूरे मुल्क में मध्यप्रदेश जैसा काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, जिस विभाग से वो जुड़े हैं उसकी बुराई वो नहीं सुन सकते, लेकिन यदि वास्तव में मध्यप्रदेश ने इतना कुछ किया होता तो यहां के अभयारण्य बाघ वहीन नहीं हो रहे होते।

बाघों को बचाने के मुद्दे पर हम पूरी तरह से बैकफुट पर हैं। या कह सकते हैं कि हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं। जितनी तेजी से बाघों का सफाया हो रहा है, उससे यह तय है कि जल्द ही बाघ किस्से-कहानियों की बात बनकर रह जाएंगे। यानी जो करना है, अभी करना है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर सरकारी अमला स्थिति को नियंत्रित करने में सफल होता तो करोड़ों-अरबों बहाए जाने के बाद बाघ यूं एक-एक करके दम नहीं तोड़ रहे होते। कोई स्वीकार करे या न करे, मगर हकीकत यही है कि बाघ सरंक्षण में लगे 90 प्रतिशत सरकारी मुलाजिम सिर्फ और सिर्फ नौकरी बचाने के लिए काम करते हैं। उच्च पदों पर बैठे अफसर सच पर पर्दा डालने और शेखी बखारने में व्यस्त रहते हैं और निचले तबके के कर्मचारी आराम तलबी में। ये सही है कि बाघों की सुरक्षा में लगे अफसर-कर्मचारी अत्याधुनिक सुविधाओं से वंचित हैं मगर ये भी सही है कि जिन अफसरों और कर्मचारियों पर वन्यप्राणियाें के सरंक्षण का जिम्मा है वो ही उनके संहार की वजह बन रहे हैं। सरिस्का कांड की जांच में यह बात सामने आई थी कि वन विभाग के मुलाजिम भी बाघों की हत्या में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी निभा रहे थे। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मंत्रालय का विभाजन करने, कमेटियां गठित करने और दर्जनों बैठकें आयोजित करने के बाद बाघों का कत्ल नहीं होगा। बाघों का कत्ल जरूर होगा क्योंकि सुधार की जरूरत नीचे से लेकर ऊपर तक है और इतने शॉर्ट नोटिस पर इसे सुधार पाना लगभग नामुमकिन है।

इसलिए किसी ऐसे विकल्प पर गौर किया जाना चाहिए जिससे वक्त और पैसे दोनों का सदुपयोग किया जा सके। मेरी समझ से जंगलों की हिफाजत का जिम्मा निजी हाथों में सौंपना बेहतर विकल्प हो सकता है। निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र की अपेक्षा यादा रिजल्ट ओरियंटिड है, इस बात पर शायद ही किसी को शक-शुबहा हो। हम निजी बैंकों का उदाहरण ले सकते हैं, काम जल्दी होने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों में बात करने का जो सलीखा है वो सरकारी बैंकों के मुलाजिमों में नहीं। है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि जंगलों की हिफाजत का जो काम वन विभाग नहीं कर पा रहा है उसे निजी सुरक्षा कंपनियां यादा कारगर तरीके से अंजाम दे पाएंगी। सरकार को इसके लिए निविदाओं के माध्यम से संगठन का चुनाव करना चाहिए। विदेशियों के लिए भी इस प्रक्रिया में शामिल होने के रास्ते खुले रखे जाएं तो बेहतर होगा। विदेशों में ऐसे बहुत से संगठन हैं जो इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं।

इस मामले को केंद्र और राय सरकारों की दखलंदाजी से पूर्णता मुक्त रखा जाए, जिस कपंनी को ठेका दिया जाए उसे अपने तरीके से काम करने की आजादी भी मिले। सरकार यदि चाहे तो इसे शुरूआत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर किसी एक टाइगर रिजर्व में शुरू किया जा सकता है। कांट्रेक्ट में कुछ सख्त शर्ते जोड़ी जानी चाहिए जिसके पूरा न होने की दशा में सुरक्षा एजेंसी को आर्थिक नुकसान का सामना तो करना ही पड़े, उसपर काम से बेदखल होने का खतरा भी मंडराता रहे। बेशक इस तरह के प्रस्ताव और उसपर अमल का रास्ता भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए देश के लिए शर्मिंदगी करार देगा और अन्य विरोधी पार्टियां हर गली-चौराहे पर सियापा करती नजर आएंगी। लेकिन जब सरकार परमाणु करार, महिला आरक्षण जैसे मुद्दे पर किसी की परवाह किए बगैर आगे बढ़ सकती है तो फिर बाघ सरंक्षण के लिए भी कड़ा फैसला लिया जा सकता है। जरूरत है तो बस सही समझ और दृढ संकल्प की। उन सभी पाठकों से जो मेरे इस विचार पर सहमति जताते हैं, विनम्र निवेदन है कि इस आश्य का एक पोस्टकार्ड प्रधानमंत्री को जरूर लिखें। आप जरूर सोचेंगे कि उससे कुछ नहीं होना, मैं भी ये अच्छी तरह जानता हूं मगर फिर भी पहल तो हम में से किसी एक को करनी ही पड़ेगी अगर हम अपनी आने वाली पीढियों को बाघ तस्वीरों के बजाए हकीकत में दिखाना चाहते हैं तो।

9 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस क्षेत्र में निजि कंपनियो को मुनाफा कहाँ मिलेगा? वे इस चक्कर में सारे जंगल को बरबाद कर देंगे।

माधव( Madhav) said...

no, a disagree with you

Anonymous said...

कहाँ ब्लॉग्गिंग कर रहे है आप लोग, उस देश में जहाँ सत्य का गला घोंट दिया जाता है ? धिक्कारे भी किसे जब पूरा देश ही झूठ की बुनियाद पर खड़ा है ?
Blog has been removed
Sorry, the blog at sureshchiplunkar.blogspot.com has been removed. This address is not available for new blogs.

Did you expect to see your blog here? See: 'I can't find my blog on the Web, where is it?'

Unknown said...

Times not long ago only Rajas could hunt. Few tigers were killed ,rest were safe.Jungles were green dense and cover for both beasts and their prey.We have replaced them with concrete jungles(urbanization).Nor in those days horny Arabs or Chinese were searching tiger aphrodisiacs on internet.Today tiger skin has become a status symbol for corrupt and neorich around the world.So much money a killed tiger is bringing for smugglers as well as their protectors ( corrupt officials and politicians)that almost risk less kill is tempting even villagers around. That is also a truth that most of Govt.guards are above 50yrs of age without modern facilities.Govt makes no new and sufficient requirements, provides no sophisticated instruments ,training and real awareness programmes except except in papers and weeps crocodiles tears.So be prepared to see this royal beast in pictures within few years.

resume said...

निजी कंपनियां जंगले बेचकर अपने घर भर लेंगी और आपको सबको कह देंगी जंगले की सुरक्षा के लिहाज से उसके छोटे छोटे टुकड़े कर के हमने सुरक्षा के लिहाज से अपने घर में संभल के रखा है :)

बन्‍धुवा मजदूर सविंदा कार्मिक said...

देश ही जब प्राइवेट निजी पार्टीयो के हाथ में है तो फिर जगंल किस के हाथ में गया क्‍या फरक पडता है


नये किस्‍म के बन्‍धुवा मजदूरो पर एक ब्‍लाग

http://contract-labour.blogspot.com

Latest Bollywood News said...

Very Nice Blogs thanks for sharing

Pravin Dubey said...

हमें काम होने से मतलब है जो अच्छा कर दे

Anonymous said...

लगता है आप निजी छेत्र के काम करने के ढंग से परिचित नहीं हैं ...या उनके पेशकर है