नीरज नैयर
बाघों की घटती संख्या के बीच बाघ सरंक्षण की कोशिशें भी परवान चढ़ रही हैं। ऐसी कोशिशें सुखद अहसास तो कराती ही हैं साथ ही उम्मीद भी जगाती हैं कि शायद वाली पीढ़ी जंगल में विचरण करते बाघ का दीदार कर सकेगी। दुनिया भर में बाघ जितनी तेजी से गायब हुए हैं उतनी तेजी से तो शायद कुछ और गायब हो ही नहीं सकता। मौजूदा वक्त में खुले जंगल में रहने वाले बाघों की तादाद महज 3000 है, पिछले एक दशक में बाघों की संख्या में 40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। सबसे यादा बाघ भारत में है, ताजा गणना के मुताबिक हमारे यहां 1400 के आसपास बाघ हैं। हालांकि चीन में बाघों की तादाद को दुनिया भर में सर्वाधिक कहा जा सकता है, लेकिन ये बाघ जंगलों के बजाए पिंजरों में कैद हैं। चीन में बाघ के अंगों की जबरदस्त मांग है, इसी मांग को पूरा करने के लिए फार्मिंग के उद्देश्य से बाघों को दबड़ों में भेज दिया गया। वैसे चीनी सरकार ने बाघों के अंगों से बने उत्पाद पर प्रतिबंध लगा रखा है, जिस वजह से फार्मिंग का धंधा लगभग बंद सा पड़ा हुआ है। लेकिन इस लॉबी के दबरदस्त दबाव के चलते सरकार प्रतिबंध हटाने पर गंभीरता से विचार कर रही है। अगर प्रतिबंध हटता है तो जंगलों में बचे-कुचे बाघ भी दुनिया छोड़ जाएंगे। भारत में हो रहे इस खूबसूरत प्राणी के सफाए में चीन की मांग का बहुत बड़ा हाथ है। दूसरी जगहों की अपेक्षा भारत में शिकारी यादा आसानी से अपने काम को अंजाम दे सकते हैं। शिथिल कानून, कमजोर तंत्र और गैरजिम्मेदाराना सरकारी रवैये की वजह से भारत शिकारियों के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है।
स्वयं प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं, कुछ बदला है तो बस फाइलें रखने वाली अलमारियों का आकार। प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर हर साल करोड़ों-अरबों फूंके जा रहे हैं, लेकिन सरंक्षण जैसी बात कहीं नजर नहीं आती। दूसरे मुल्कों में जहां बाघ बचे हैं वहां भी कमोबश यही स्थिति है, इसी स्थिति से निपटने के लिए रूस के शहर सेंट पीटर्सबर्ग में बीते दिनों एक बैठक आयोजित की गई। 13 देशों के प्रतिनिधियों ने इस बैठक में हिस्सा लिया, बैठक में मुख्य तौर पर बाघ के प्राकृतिक आवास को बचाने, शिकार को रोकने और बचाव अभियान को आर्थिक मदद मुहैया करवाने जैसे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि विश्व के तमाम नेता एक प्रजाति को बचाने के लिए साथ आए। बाघ बचाने को लेकर इतनी सक्रीयता अच्छी बात है, लेकिन इस सक्रीयता के सार्थक परिणाम भी तो निकलने चाहिए। अमूमन बड़ी-बड़ी बैठकों में बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं पर वो धरातल पर नहीं उतर पाते। इस बैठक में चीन ने भी शिरकत की, चीन पर बाघ बचाओ अभियान में जुटे लोगों के लिए किसी खलनायक की तरह है। चीनी सरकार दावा करती है कि देश में बाघ अंगों और खाल के गैरकानूनी व्यापार पर लगी पाबंदी का पूरी तरह से पालन हो रहा है। लेकिन इस दावे की हकीकत कई बार सामने आ चुकी है। चीन में बाघ की खाल और अंग हासिल करना उतना ही आसान है, जितना भारत में ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थ। चीन इस गैरकानूनी टे्रड का हब है, और ये सबकुछ सरकार के सरंक्षण में ही फल-फूल रहा है। चीनी आर्मी खुद बाघों की खाल और अंगों से बने उत्पाद की सबसे बड़ी उपभोक्ता है। कुछ साल पहले दलाई लामा के आव्हान के बाद जरूर तिब्बत में बाघों की खाल की उसी तरह होली जलाई गई थी जैसे स्वदेशी अपनाओ नारे के बाद भारत में विदेशी कपड़ों की।
णतिब्बतियों ने अपने धर्म गुरू की भावनाओं का आदर करते हुए बाघ से जुड़े उत्पादों का उपयोग पूर्णत: बंद कर दिया था, लेकिन अब सबकुछ पहले की माफिक हो गया है। तिब्बत में सालाना होने वाले पारंपरिक आयोजन में चीनी सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में तिब्बती बाघों की खालों को तन पर लपेटे देखने को मिल सकते हैं। चीन में बाघ की एक पूर्ण खाल की कीमत तकरीबन 20 हजार डॉलर है। इस ट्रेड से जुड़े व्यापारी, ग्राहकों को उनकी मनमुताबिक जगहों पर डिलेवरी तक ही सुविधा उपलब्ध कराते हैं। चीन में बाघ की खाल को शानौ-शौकत का प्रतीक माना जाता है, इसके साथ ही धार्मिक लिहाज से भी चीनी और तिब्बती इनका उपयोग करते हैं। सबसे यादा फार्मेसी क्षेत्र में बाघ के अंगों का इस्तेमाल होता है, कामोत्तेजक दवाई के लिए बाघ की हड्डियां प्रयोग में लाई जाती हैं और चीन में इसका बहुत बड़ा बाजार है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरफ से चीनी सरकार को कई बार आईना दिखाया गया मगर उसने हालात बदलने के लिए कुछ नहीं किया। दरअसल बीजिंग के लिए भी बाघों का गैरकानूनी व्यापार कमाई का बहुत बड़ा जरिया है, इसलिए वो इस पर प्रतिबंध का दिखावा तो कर सकता है पर पूर्णत: रोक नहीं लगा सकता। जहां तक बात भारत सरकार की है तो उसके पास इच्छाशक्ति का अभाव है। हमारे यहां नए-नए प्रोजेक्टों को फाइलों से हकीकत में आने बरसों लग जाते हैं। सरिस्का में बाघों के सफाए के बाद से अब तक कई योजनाएं बनाई गईं उनमें से कुछ परवान भी चढ़ी मगर बाघों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा सका। बाघ सरंक्षण हमारे देश में एक तरह से पार्ट टाइम नौकरी के माफिक हो गया है, सरकार अपने आप को संवेदनशील साबित करने के लिए यह काम किए जा रही है और अधिकारीगण महज अपनी नौकरी बचाने के लिए। यही वजह है कि तमाम तामझाम के बाद भी बाघ बचने के बजाए तेजी से शिकारियों के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं। और जो रही सही कसर है वो जंगल में बढ़ती मानवीय गतिविधियों की वजह से पूरी हो रही है।
णमानव बाघ संघर्ष के किस्से अब आम हो चले हैं। जंगलों का सिकुड़ना लगातार जारी है, भोजन-पानी की कम उपलब्धता के चलते बाघ आदि जंगली जानवरी बाहर की ओर रुख करते हैं और मनुष्य के हाथों मारे जाते हैं। बाघ सरंक्षण के लिए सरकार कागज पर लकीरें खींचने के अलावा कुछ नहीं कर पाई है। अगर कागजी कार्रवाई के अलावा कुछ भी किया गया होता तो परिणाम अब तक नजर आने लगते। कुल मिलाकर कहा जाए तो बाघों को बचाने के लिए बड़ी-बड़ी बैठकें करने के बजाए इच्छाशक्ति विकसित करने की जरूरत है। क्या भारत या दूसरे देश इतने भी सक्षम नहीं कि एक प्राणी की जान बचा सकें, बिल्कुल हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव के चलते सक्षमता भी नगण्य हो चली है।
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