तीर्थस्थलों में शिरडी का अपना एक अलग ही महत्व है, और ये महत्व पिछले थोड़े से वक्त में ही काफी बढ़ गया है। हर रोज तकरीबन 40 से 50 हजार श्रध्दालु सांईबाबा के दर्शन को आते हैं। मुख्य मंदिर के अंदर और बाहर काफी अच्छी व्यवस्थाएं की गई हैं, श्रध्दालुओं के ठहरने के लिए भी बेहतर इंतजाम है। बाबा के दर्शन के साथ-साथ शिरडी में देखने वाला कुछ है तो वो है बोर्ड द्वारा तैयार किया गया नवीन प्रसादालय(डाइनिंग हॉल)। एशिया के इस सबसे बड़े डायनिंग हॉल में एक बार में 5500 लोग बैठकर खाना खा सकते हैं। एक दिन में यहां 100,000 लोगों को भोजन कराने की व्यवस्था है। 7.5 एकड़ में फैले प्रसादालय को 240 मिलियन रुपए की लागत से तैयार किया गया है। शिरडी बोर्ड सालाना तकरीबन 190 मिलियन खाने पर ही खर्च करता है। प्रसादालय में खाने के दो तरह के कूपन मिलते हैं पहला, साधारण जिसके लिए महज 10 रुपए चुकाने होते हैं और दूसरा, वीआईपी जो बस थोड़ा सा महंगा है। डायनिंग हॉल की एक और जो सबसे बड़ी खासियत है वो है साफ-सफाई। सफाई का आलम यहां ये है कि आपको एक मक्खी तक नजर नहीं आएगी। सेवाकार्य में लगे कर्मचारी भी साफ-सुथरे कपड़ों के साथ हाथों में दस्ताने पहनकर प्रसाद वितरित करते हैं। प्रसादालय तक जाने के लिए बोर्ड की तरफ से बस भी चलाई जाती है, लेकिन रास्ता इतनी लंबा भी नहीं है कि बस की जरूरत पड़े। श्रध्दालु अगर चाहें तो पैदल भी जा सकते हैं। थोड़ी बहुत लूट-खसोट जो दूसरे तीर्थस्थलों पर होती है वो यहां भी है, मगर यहां दूसरी जगहों की अपेक्षा व्यवस्थाएं काफी बेहतर हैं सिवाए मंदिर तक पहुंचने के। कोपरगांव स्टेशन से शिरडी तक पहुंचना अपने आप में टेढ़ी खीर है, और ये खीर और भी टेढ़ी हो जाती है अगर आप समूह में नहीं हैं। स्टेशन से शिरडी जाने के लिए मैजिक (बड़े टैम्पो) चलते हैं, जिसका किराया प्रति व्यक्ति 30 रुपए है।
कुछ वक्त पहले तक ये 20 रुपए था। इसके साथ ही प्राइवेट टैक्सियां और ऑटो भी हैं, जो वक्त और सवारी देखकर अपने किराए का मीटर भगाते रहते हैं। शिरडी आने वाले यादातर लोग मैजिक से जाना ही पसंद करते हैं, जायज है एक तो ये सस्ता पड़ता है और दूसरा हर कोई बमुश्किल 30 मिनट के रास्ते के 300-400 रुपए नहीं खर्च नहीं कर सकता। मगर इस सस्ते सफर की सबसे बड़े परेशानी ये है कि एक अकेले व्यक्ति को इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। मतलब अगर आप एक या दो हैं तो मैजिक वाले आपको कोई घास नहीं डालेंगे आपको ही उनके पीछे-पीछे भागना होगा। हो सकता है कि आपको बैठाने के बाद नीचे उतार दिया जाए। मसलन, यदि मैजिक वाले को दो सवारी की जरूरत है और उसे तीन इकट्ठी मिल गईं तो अकेले व्यक्ति को उतरना ही होगा। टांसर्पोटेशन के काम में लगे यादातर लोग मराठी हैं। और इस मराठी लॉबी में काफी एकता है, इसलिए बहसबाजी या बात बढ़ाने से अच्छा उतरना ही होता है। वैसे अकेले सवारी ढूंढने में वक्त बर्बाद करने से भला होगा कि कुछ दूसरे लोगों को जो अकेले हों साथ लेकर चार-पांच सदस्यों का एक ग्रुप बनाया जाए, इसके बाद शायद आपको उतना परेशान न होना पड़े। अहम सवाल बस यहीं से शुरू होता है। शिरडी बोर्ड कमाई के मामले में तिरुपति बालाजी की राह पर है। बोर्ड की सालाना कमाई तकरीबन 200 करोड़ के आसपास है। बीते दिनों बोर्ड ने एयरपोर्ट निर्माण के लिए राय सरकार को 100 करोड़ रुपए की मदद की। बोर्ड के इस फैसले का चौतरफा विरोध भी हुआ, बोर्ड के ट्रस्टी और रायपरिवहन मंत्री के इस कदम पर खुद उनके पिता और भूतपूर्व सांसद बालासाहब ने एतराज जताया। श्रध्दलुओं के एक तबके ने भी इसकी आलोचना की, उनका कहना था कि एयरपोर्ट के लिए 100 करोड़ देने के बजाए बोर्ड इस रकम को गरीबों के उत्थान के लिए खर्च करे। हालांकि बोर्ड का तर्क है कि एयरपोर्ट बनने से शिरडी तक का आवागमन काफी आसान हो जाएगा। ये बात बिल्कुल सही भी है, लेकिन इसका सबसे यादा फायदा किसे मिलेगा इस पर भी गौर करने की जरूरत है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हवाई जहाज से चलने की हैसीयत नहीं रखता, और शिरड़ी पहुंचाने वाले यादातर लोग इसी हिस्से से ताल्लुकात रखते हैं।
एयरपोर्ट बनने से केवल एलीट क्लास को सहूलियत होगी, बोर्ड को अगर आवागमन सुगम बनाना ही था तो पहले उसे कोपरगांव से शिरड़ी तक के लोकल ट्रांसर्पोटेशन को दुरुस्त करने के लिए कुछ कदम उठाने चाहिए थे। इसके लिए जैन समुदाय के तीर्थस्थल महावीरजी का उदाहरण लिया जा सकता है। स्टेशन से मुख्यमंदिर तक के लिए बोर्ड ने बसें संचालित कर रखी हैं। इसके लिए श्रध्दलुओं से कोई किराया भी नहीं लिया जाता, श्रध्दा स्वरूप अगर कोई कुछ दान देना चाहे तो बात अलग है। वैश्ो देवी की ही बात करें तो वहां हेलीकॉप्टर सेवा शुरू होने से पहले दूसरे जरूरी इंतजामों पर ध्यान दिया गया। ये बात अलग है कि आज वहां व्यवसायिककरण कुछ यादा ही हो गया है। 100 करोड एयरपोर्ट के लिए देने के बजाए अगर बोर्ड कुछ बसें चलवा देता तो शायद उसे आलोचनाओं के बजाए तारीफें मिल रही होतीं। शिरडी बोर्ड को सबसे पहले आम श्रध्दलुओं के बारे में सोचना चाहिए था, वो अगर चाहता तो कुछ किराया भी निर्धारित कर सकता था। इससे बसों के संचालन में उसे थोड़ी बहुत मदद भी मिल जाती, इसके बाद यदि हवाई अड्डे के लिए आर्थिक मदद दी जाती तो शायद इतना हल्ला भी नहीं होता। वैसे भी एयरपोर्ट बनवाने का काम राय सरकार है और वो काम कर भी रही थी, बोर्ड यदि 100 करोड नहीं देता तो भी हवाई अड्डा बनता ही।
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