नीरज नैयर
जार्ज डब्लू बुश ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में उन्हें यूं जलालत झेलनी पड़ेगी. इराक में जो कुछ भी हुआ उसने न सिर्फ बुश को बल्कि पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है. इराकी प्रधानमंत्री मलिकी की मौजूदगी में एक पत्रकार उठता है, बुश को गालियां देता है, अपना जूता निकालकर अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ फेंकता और पल भर में ही इतना प्रसिद्ध बन जाता है कि उसकी रिहाई के लिए सड़कों पर प्रदर्शन होने लगते हैं. इस घटना ने भले ही बुश विरोधियों को ताउम्र हंसने का मौका दे दिया हो मगर इसने इराकियों के उस दर्द और बेबसी को भी बयां किया है जो वो बरसों से झेलते आ रहे हैं. यह घटना इस बात का सुबूत है कि सद्दाम की मौत के इतने समय बाद भी बुश और अमेरिका के प्रति इराकियों के दिल में णनफरत कायम है. कहने को तो इराक में चुनी हुई सरकार है, लोगों को अपने हक की आवाज उठाने का अधिकार है मगर इसे सिर्फ कहने तक ही कहा जाए तो अच्छा बेहतर होगा. इराक में अब भी करीब 149,000 अमेरिकी और ब्रितानी सैनिक जमे हुए हैं, खून-खराबा वहां आम बात हो गई है.
कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है. हर इराकी को दुश्मन के नजरीए से देखा जाता है. पैदा होने से पहले ही बच्चा गोलियों की इतनी आवाज सुन लेता है कि दुनिया में आने के बाद उसे ये सब खेल लगने लगता है. ऐसे मुल्क में रहने वालों से जूता फेंकने की नहीं तो और क्या उम्मीद की जा सकती है. सद्दाम के तनाशाही शासन के खात्मे के वक्त इराक में थोड़ा गुस्सा जरूर था मगर लोगों को इस बात की आस भी कि शायद अब उन्हें बेहतर जिंदगी नसीब होगी, उन्हें दूसरे मुल्कों के आवाम की तरह खुला माहौल मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा उनकी जिंदगी बद से बदतर हो गई है. मानवीय हालात वहां हर रोज बिगड़ते जा रहे हैं. इराकियों की रोजमर्रा की जरूरतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा. उन्हें न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही पानी. हालात ये हो चले हैं कि लोगों को अपनी कमाई का एक तिहाई यानी करीब 150 डॉलर महज पानी खरीदने के लिए ही खर्च करना पड़ रहा हैं. स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी बिगड़ती जा रही है. जो सेवाएं उपलब्ध हैं वो इतनी मंहगी है कि आम आदमी की पहुंच में नहीं आती. सरकारी अस्पतालों में सिर्फ 30 हजार बिस्तर हैं जो 80 हजार की जरूरतों के आधे से भी कम हैं. लोगों का आर्थिक स्तर इतना गिर गया है कि कई-कई दिन घर में चूल्हा नहीं जल पाता. अमेरिका ने पहले कहा था कि लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद वो इराक से पूरी तरह हट जाएगा लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. हालात को काबू करने के नाम पर उसने सेना को वहीं बसा दिया. ब्रिटेन ने भी उसका भरपूर सहयोग दिया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी खामोशी साधे रहा.
इराक पर अमेरिका के हमले की शुरूआती दिनों में जमकर तारीफ हुई थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी अमानवीय तस्वीरों के सामने आने के बाद अधिकतर लोगों की सोच बदल गई. अबू गरेब जेल में यातनाओं के फुटेज ने पूरी दुनिया को अमेरिकी सेना का खौफनाक चेहरा दिखाया. कहा जाता है कि बसरा के नजदीक बक्का में अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में अब भी 20 हजार इराकी हैं, जिनमें सबसे ज्यादा तादाद पुरुषों की है. अतंरराष्ट्रीय संस्था रेडक्रास भी इराक के हालात पर ंचिंता जता चुकी है. उसका कहना है कि इराक के बदतर मानवीय हालात केवल तभी ठीक किए जा सकते हैं जब इराकी नागरिकों को रोजमर्रा की जरूरतों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाए. इराक में सद्दाम हुसैन के वक्त जो हालात थे उन्हें मौजूदा हालातों से बेहतर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा. संयुक्त राष्ट्र डवलपमेंट प्रोग्राम की रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही बयां करती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध के बाद इराकियों का जीवन स्तर खतरनाक तरीके से गिरता जा रहा है. पानी-भोजन, बिजली और सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतें भी वहां गंभीर समस्या बन गई हैं. इराक में 39 प्रतिशत आबादी 15 साल से कम उम्र के लोगों की है, जिनकी स्थिति सर्वाधिक दयानीय है. छह महने से पांच साल तक के अधिकतर बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं. साक्षारता का ग्राफ भी ऊपर चढ़ने के बजाए पिछले कुछ सालों में बहुत तेजी से नीचे आया है. इराक में जो एक और समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है वह है बेरोजगारी. करीब 37 फीसदी पढ़े-लिखे लोग नौकरी की तलाश में हताशा के शिकार बन बैठे हैं. और हर साल इन आंकड़ों में इजाफा हो रहा है. इसके साथ-साथ भ्रष्टाचार भी वहां तेजी से पैर पसार चुका है. कुछ महीनों में ही इसने तीन गुने से ज्यादा की रफ्तार पकड़ ली है.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इराक बर्बादी के ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां से बेहतरी की कोई उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आती. ऊपर से अमेरिका भी अब अपने वादों से मुकरने लगा है. इराकी नेतृत्व खुद यह आरोप लगा चुका है कि वाशिंगटन की तरफ से जिस तरह का आश्वासन दिया गया था वैसी मदद नहीं मिल पा रही है. अमेरिका ने इराक की स्थिति सुधारने के लिए सात प्रोजेक्ट चलाए थे जिनमें से अधिकतर बंद किए जा चुके हैं. इराक की णआर्थिक जरूरतों से भी अमेरिका ने पीछा छुड़ा लिया है. जबकि जापान आदि देशों से इराक के पुर्नउद्धार के लिए सहायता मिल रही है. दरअसल इराक अब अमेरिका के गले की हड्डी बन गया है. दिन ब दिन वहां खराब होते हालात से उसकी स्थिति भी बिगड़ती जा रही है. इराक को फिर से पैरों पर खड़ा करने का खर्चा उठाने में अब वो कानाकानी दिखा रहा है. हालांकि ये बात अलग है कि इराक में बने रहने के लिए अब तक वो बेशुमार पैसा बहा चुका है. इराक में जहां अमेरिका और ब्रिटेन की सेना डेरा डाले हुए हैं वहां आमजन की सुरक्षा व्यवस्था के सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में उबरकर आना अपने आप में यह साबित करता है कि अमेरिका की इराकी जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं उसे केवल वहां जमें रहने से मतलब है. कुछ वक्त पहले किए गये एक सर्वेक्षण में करीब 80 प्रतिशत लोगों का मानना था कि सुरक्षा व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि घर में भी लोग खुद को महफूज नहीं समझते.
भले ही अमेरिका और उसके सहयोगी अपनी इराक नीति कोआज भी वाजिब ठहरा रहे हो मगर वहां की जनता उन्हें इसके लिए कभी माफ नहीं करने वाली. दाने-दाने को मोहताज लोग, बिलखते बच्चे, अपनों की शवों पर मातम करती महिलाएं इराक की पहचान बन कर रह गई है. ऐसे में इराकी जनता की बुश के प्रति नारजागी का जो मुजाएरा बुश-मलिकी की प्रेस कांफ्रेंस में देखने को मिला उसे कतई गलत नहीं ठहराया जा सकता.
नीरज नैयर
9893121591
Thursday, December 25, 2008
Wednesday, December 3, 2008
किस बिल में छिपे थे राज ठाकरे
नीरज नैयर
मुंबई में आतंकवाद की धुंध छटने के baad हर किसी की जुबान पर बस एक ही नाम है राज ठाकरे. हर कोई बस यही जानना चाहता है कि मराठी हितों की दुहाई देने वाला यह मराठी मानुस आखिर तीन दिनों तक किस बिल में छिपा रहा. जब आतंकवादी मराठियों के खून से होली खेल रहे थे तब राज और उसकी बहादुर सेना मर्दानगी त्यागकर हाथों में चूड़ियां पहने क्यों बैठी रही. अगर राज और उसके गुंडे मराठियों के सच्चे पैरोकार थे तो उन्हें सड़कों पर गोलियां बरसा रहे आतंकियों से लोहा लेना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जब जान पर बन आई तो सारी मराठीगिरी पल भर में ही काफूर हो गई.
जिस मुंबई में हमेशा कभी दक्षिण भारतीयों के नाम पर तो कभी उत्तर भारतीयों के नाम पर नफरत का जहर घोला जाता रहा है उसी मुंबई को बचाने के लिए सेना और एनएसजी के कमांडो ने बिना कुछ सोच-विचारे जान की बाजी लगा दी क्यों? क्योंकि वह जानते हैं कि मुंबई भी उसी देश का हिस्सा है जिसमें यूपी और बिहार आते हैं. लेकिन राज ठाकरे जैसी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के दिमाग में यह बात आसानी से नहीं आएगी. राज ठाकरे ने यह ऐलान किया था कि वो किसी भी उत्तर भारतीय को महाराष्ट्र में नहीं घुसने देंगे तो फिर उन्होंने कमांडो से उनकी जात-पात जाने बगैर मुंबई में कैसे उतरने दिया. राज को चाहिए था कि वो पहले उत्तर भारतीय कमांडो की पहचान करते, फिर उनके साथ भी वैसा ही सुलूक करते जैसा वो आमजन के साथ करते आए हैं. लेकिन राज ने ऐसा कुछ नहीं किया. दरअसल राज जैसे लोग कुछ करने के काबिल भी नहीं हैं. वैमनस्य फैलाते-फैलाते वह खुद ऐसी गंदी दीवार में परिवर्तित हो गये हैं जिस पर थूकना भी कोई पसंद नहीं करता. मुंबई भले ही आज आतंकी हमले को लेकर चर्चा में है, पूरा देश मारे गये लोगों के गम में सिसकियां भर रहा है लेकिन कुछ वक्त पहले तक मुंबई अपनी नपुंसकता छिपाने के लिए मर्दानगी का भौंडा प्रदर्शन करने वाले राज ठाकरे की ज्यादतियों को लेकर सुर्खियों में थी. राज के पालतू , लोगों को बीच सड़क पर मार रहे थे, सरकारी संपत्ति को स्वाहा कर रहे थे और सरकार कह रही थी कि बच्चा बस थोड़ा सा बिगड़ गया है.
राज डंके की चोट पर चुन-चुनकर निर्दोष उत्तर भारतीयों पर हमले कर रहे थे लेकिन राज्य सरकार खामोश थी और केंद्र सरकार को इस ओर देखना भी मंजूर नहीं था. राजनीतिक अकर्मण्यता और खुद को बचाने की राजनीति के चलते ही राज जैसे लोगों का हौसला आज बुलंदी पर है. वरना क्या मजाल की एक अदना सा बौराया हुआ युवक 100-200 निठल्लों को लेकर पूरी सरकारी मिशनरी को जाम करने की हिम्मत दिखा सके. आज हालात यह हो गये हैं कि मुंबई में बसने वाला जो गैरमराठी कभी अपनेपन के साथ समुद्र के किनारे, सड़कों पर बेखौफ होकर टहला करता था वो आज घर से बाहर निकलने में भी घबराने लगा है. सबसे अजीब बात तो यह है कि राज के इस असभ्य तौर-तरीके पर राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ सभ्य समाज भी मौन धारण किए हुए है. शायद सभी राज के लिए इस कहावत को चरितार्थ करते हैं कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता.
वैसे ऐसा नहीं है कि केवल राज ठाकरे ही क्षेत्रवाद और जात-पात के नाम पर घिनौना खेल खेलने में लगे हैं या मुंबई ही अकेली इस आग में जल रही है. असम भी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है और तमिलनाडु भी ऐसी लपटों से झुलस चुका है. मुंबई में करीब 40 साल पहले बाल ठाकरे ने भी मराठी माणुस का पत्ता खेलकर नफरत की सियासत से अपना घर सींचने की कोशिश की थी. उनकी बनाई शिवसेना ने हर वो काम किया था जो देश की एकता और अखंडता पर चोट करने वाला था. बस फर्क सिर्फ इतना था कि उस वक्त उनके निशाने पर दक्षिण भारतीय थे और आज उनके भतीजे के निशाने पर उत्तर भारतीय. 2006 में राज ने जब चाचा का दामन छोड़ा था तो बाल ठाकरे ने उन्हें बिना पतवार की नाव करार दिया था लेकिन आज राज उनसे आगे निकलने की होड़ में लगे और काफी हद तक निकल भी गये हैं. राज को मराठियों का काफी हद तक समर्थन मिल रहा है. पढ़े-लिखे लोग हालांकि राज के हिंसात्मक रवैये की निंदा जरूर कर रहे हैं मगर सिध्दांतत: वो राज से सहमत हैं. वो कहीं न कहीं समझते हैं कि बाहरी लोगों के आने से उनके अधिकारों में कटौती हुई है जबकि यह तर्कसंगत नहीं है. महाराष्ट्र में अब भी सबसे ज्यादा नौकरियां मराठियों के पास हैं.
हाल ही में सार्वजनिक हुई एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है. लेकिन राज को ऐसी रिपोर्टों से कोई मतलब नहीं उन्हें मतलब है तो केवल इस बात से कि कैसे चुनाव से पहले मराठी वोट बैंक को अपने पक्ष में किया जाए, कैसे बाल ठाकरे को नीचा दिखाया जाए और कैसे मराठियों का देवता बना जाए. राज जो भी कर रहे हैं उसका गुस्सा कई बार देश के अन्य राज्यों में दिखलाई पड़ चुका है. गैर-मराठी मराठियों से नफरत करने लगे हैं, उन्हें अपना दुश्मन समझने लगे हैं. बिहार में जब मराठी पर्यटकों को पुलिस सुरक्षा में सीमा से बाहर तक छोड़ा गया, उनसे हिंदी में बात करने को कहा गया, पारंपरिक वेशभूषा न पहनने की हिदायत दी गई तो समझ आ जाना चाहिए कि नफरत अब महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रही. लोग राज से ज्यादा राज्य सरकार से खफा हैं. उन्हें लग रहा है कि सरकार खुद गैरमराठियों को बाहर करवाना चाहती है, इसलिए राज के खिलाफ कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. उन पर केवल मामूली धाराएं लगाई जा रही हैं, ताकि आसानी से उन्हें बेल मिल जाए.
राज जब गिरफ्तार किए जाते हैं तो किसी अपराधी की तरह नहीं बल्कि किसी महाराजा की तरह जिनके साथ सैकड़ों सैनिक चल रहे होते हैं. अदालत से बाहर निकलने पर उनका बर्ताव किसी राजा से कम नहीं होता, पुलिस अधिकारी खुद उनकी कार का दरवाजा खोलते हैं, उन्हें सुलूट मारते हैं. यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें कोई असुविधा न हो. पूरा सरकारी तंत्र राज के इर्द-गिर्द दिखाई पड़ता है ऐसे में उत्तर भारतीयों की आवाज किस को सुनाई दे सकती है. मुंबई हमले के तुरंत बाद एक हिंदीभाषी पत्रकार को इतना मारना कि उसकी टांग टूट जाए, रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आ जाएं, खून रोकने के लिए कई टांके लगाने पड़ें तो राज के मानसिक दिवालिएपन का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकात है. राज भले ही तीन दिनों तक चूहा बने किसी बलि में छिपे रहे मगर अब फिर वो पागल कुत्ते की तरह गैरमराठियों को काटेंगे, सरकारी बाशिंदे फिर उन्हें पुचकारेंगे और फिर मुंबई नफरत की हिंसा में सुर्खियों बटोरती रहेगी.
नीरज नैयर
9893121591
मुंबई में आतंकवाद की धुंध छटने के baad हर किसी की जुबान पर बस एक ही नाम है राज ठाकरे. हर कोई बस यही जानना चाहता है कि मराठी हितों की दुहाई देने वाला यह मराठी मानुस आखिर तीन दिनों तक किस बिल में छिपा रहा. जब आतंकवादी मराठियों के खून से होली खेल रहे थे तब राज और उसकी बहादुर सेना मर्दानगी त्यागकर हाथों में चूड़ियां पहने क्यों बैठी रही. अगर राज और उसके गुंडे मराठियों के सच्चे पैरोकार थे तो उन्हें सड़कों पर गोलियां बरसा रहे आतंकियों से लोहा लेना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जब जान पर बन आई तो सारी मराठीगिरी पल भर में ही काफूर हो गई.
जिस मुंबई में हमेशा कभी दक्षिण भारतीयों के नाम पर तो कभी उत्तर भारतीयों के नाम पर नफरत का जहर घोला जाता रहा है उसी मुंबई को बचाने के लिए सेना और एनएसजी के कमांडो ने बिना कुछ सोच-विचारे जान की बाजी लगा दी क्यों? क्योंकि वह जानते हैं कि मुंबई भी उसी देश का हिस्सा है जिसमें यूपी और बिहार आते हैं. लेकिन राज ठाकरे जैसी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के दिमाग में यह बात आसानी से नहीं आएगी. राज ठाकरे ने यह ऐलान किया था कि वो किसी भी उत्तर भारतीय को महाराष्ट्र में नहीं घुसने देंगे तो फिर उन्होंने कमांडो से उनकी जात-पात जाने बगैर मुंबई में कैसे उतरने दिया. राज को चाहिए था कि वो पहले उत्तर भारतीय कमांडो की पहचान करते, फिर उनके साथ भी वैसा ही सुलूक करते जैसा वो आमजन के साथ करते आए हैं. लेकिन राज ने ऐसा कुछ नहीं किया. दरअसल राज जैसे लोग कुछ करने के काबिल भी नहीं हैं. वैमनस्य फैलाते-फैलाते वह खुद ऐसी गंदी दीवार में परिवर्तित हो गये हैं जिस पर थूकना भी कोई पसंद नहीं करता. मुंबई भले ही आज आतंकी हमले को लेकर चर्चा में है, पूरा देश मारे गये लोगों के गम में सिसकियां भर रहा है लेकिन कुछ वक्त पहले तक मुंबई अपनी नपुंसकता छिपाने के लिए मर्दानगी का भौंडा प्रदर्शन करने वाले राज ठाकरे की ज्यादतियों को लेकर सुर्खियों में थी. राज के पालतू , लोगों को बीच सड़क पर मार रहे थे, सरकारी संपत्ति को स्वाहा कर रहे थे और सरकार कह रही थी कि बच्चा बस थोड़ा सा बिगड़ गया है.
राज डंके की चोट पर चुन-चुनकर निर्दोष उत्तर भारतीयों पर हमले कर रहे थे लेकिन राज्य सरकार खामोश थी और केंद्र सरकार को इस ओर देखना भी मंजूर नहीं था. राजनीतिक अकर्मण्यता और खुद को बचाने की राजनीति के चलते ही राज जैसे लोगों का हौसला आज बुलंदी पर है. वरना क्या मजाल की एक अदना सा बौराया हुआ युवक 100-200 निठल्लों को लेकर पूरी सरकारी मिशनरी को जाम करने की हिम्मत दिखा सके. आज हालात यह हो गये हैं कि मुंबई में बसने वाला जो गैरमराठी कभी अपनेपन के साथ समुद्र के किनारे, सड़कों पर बेखौफ होकर टहला करता था वो आज घर से बाहर निकलने में भी घबराने लगा है. सबसे अजीब बात तो यह है कि राज के इस असभ्य तौर-तरीके पर राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ सभ्य समाज भी मौन धारण किए हुए है. शायद सभी राज के लिए इस कहावत को चरितार्थ करते हैं कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता.
वैसे ऐसा नहीं है कि केवल राज ठाकरे ही क्षेत्रवाद और जात-पात के नाम पर घिनौना खेल खेलने में लगे हैं या मुंबई ही अकेली इस आग में जल रही है. असम भी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है और तमिलनाडु भी ऐसी लपटों से झुलस चुका है. मुंबई में करीब 40 साल पहले बाल ठाकरे ने भी मराठी माणुस का पत्ता खेलकर नफरत की सियासत से अपना घर सींचने की कोशिश की थी. उनकी बनाई शिवसेना ने हर वो काम किया था जो देश की एकता और अखंडता पर चोट करने वाला था. बस फर्क सिर्फ इतना था कि उस वक्त उनके निशाने पर दक्षिण भारतीय थे और आज उनके भतीजे के निशाने पर उत्तर भारतीय. 2006 में राज ने जब चाचा का दामन छोड़ा था तो बाल ठाकरे ने उन्हें बिना पतवार की नाव करार दिया था लेकिन आज राज उनसे आगे निकलने की होड़ में लगे और काफी हद तक निकल भी गये हैं. राज को मराठियों का काफी हद तक समर्थन मिल रहा है. पढ़े-लिखे लोग हालांकि राज के हिंसात्मक रवैये की निंदा जरूर कर रहे हैं मगर सिध्दांतत: वो राज से सहमत हैं. वो कहीं न कहीं समझते हैं कि बाहरी लोगों के आने से उनके अधिकारों में कटौती हुई है जबकि यह तर्कसंगत नहीं है. महाराष्ट्र में अब भी सबसे ज्यादा नौकरियां मराठियों के पास हैं.
हाल ही में सार्वजनिक हुई एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है. लेकिन राज को ऐसी रिपोर्टों से कोई मतलब नहीं उन्हें मतलब है तो केवल इस बात से कि कैसे चुनाव से पहले मराठी वोट बैंक को अपने पक्ष में किया जाए, कैसे बाल ठाकरे को नीचा दिखाया जाए और कैसे मराठियों का देवता बना जाए. राज जो भी कर रहे हैं उसका गुस्सा कई बार देश के अन्य राज्यों में दिखलाई पड़ चुका है. गैर-मराठी मराठियों से नफरत करने लगे हैं, उन्हें अपना दुश्मन समझने लगे हैं. बिहार में जब मराठी पर्यटकों को पुलिस सुरक्षा में सीमा से बाहर तक छोड़ा गया, उनसे हिंदी में बात करने को कहा गया, पारंपरिक वेशभूषा न पहनने की हिदायत दी गई तो समझ आ जाना चाहिए कि नफरत अब महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रही. लोग राज से ज्यादा राज्य सरकार से खफा हैं. उन्हें लग रहा है कि सरकार खुद गैरमराठियों को बाहर करवाना चाहती है, इसलिए राज के खिलाफ कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. उन पर केवल मामूली धाराएं लगाई जा रही हैं, ताकि आसानी से उन्हें बेल मिल जाए.
राज जब गिरफ्तार किए जाते हैं तो किसी अपराधी की तरह नहीं बल्कि किसी महाराजा की तरह जिनके साथ सैकड़ों सैनिक चल रहे होते हैं. अदालत से बाहर निकलने पर उनका बर्ताव किसी राजा से कम नहीं होता, पुलिस अधिकारी खुद उनकी कार का दरवाजा खोलते हैं, उन्हें सुलूट मारते हैं. यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें कोई असुविधा न हो. पूरा सरकारी तंत्र राज के इर्द-गिर्द दिखाई पड़ता है ऐसे में उत्तर भारतीयों की आवाज किस को सुनाई दे सकती है. मुंबई हमले के तुरंत बाद एक हिंदीभाषी पत्रकार को इतना मारना कि उसकी टांग टूट जाए, रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आ जाएं, खून रोकने के लिए कई टांके लगाने पड़ें तो राज के मानसिक दिवालिएपन का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकात है. राज भले ही तीन दिनों तक चूहा बने किसी बलि में छिपे रहे मगर अब फिर वो पागल कुत्ते की तरह गैरमराठियों को काटेंगे, सरकारी बाशिंदे फिर उन्हें पुचकारेंगे और फिर मुंबई नफरत की हिंसा में सुर्खियों बटोरती रहेगी.
नीरज नैयर
9893121591
हमने अमेरिका से कुछ क्यों नहीं सीखा
नीरज नैयर
मुंबई में जो कुछ भी हुआ उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. आतंकवादी समुद्र के रास्ते प्रवेश करते हैं, सड़कों पर अंधाधुंध गोलियां चलाते हैं, धमाके करते हैं. स्टेशन पर, अस्पताल में कहर बरपाते हैं और आसानी से ताज-ओबरॉय और नरीमन हाउस पर कब्जा कर लेते हैं और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती. कहते हैं मुंबई कभी थमती नहीं, लेकिन गुरुवार 27 नवंबर को मुंबई थमी-थमी नजर आई. स्कूल-कॉलेज पूरी तरह बंद रहे, सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा. लोग अपनों की खैरियत की दुआएं करते रहे. तीन दिन तक आतंकवादी खूनी खेल खेलते रहे और सरकार शब्दों की आड़ में अपनी नपुंसकता छुपाने की कोशिश करती रही.
दिल्ली धमाकों के बाद से ही ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि आतंकी मुंबई को निशाना बना सकते हैं बावजूद इसके लापरवाही बरती गई. गृहमंत्री कपड़ों की चमकार में उलझे रहे और खुफिया एजेंसियां खामोशी की चादर ताने सोती रहीं. इस वीभत्स हमले ने मुंबई पुलिस और स्थानीय खुफिया तंत्र की मर्दानगी की हकीकत भी सामने ला दी है. कहा जा रहा है कि आतंकवादी करीब दो महीने तक नरीमन हाउस इलाके में रहकर अपनी तैयारियों को अंजाम देते रहे मगर तेज तर्रार कही जाने वाले एटीएस और हमेशा सजग रहने का दावा करने वाली पुलिस को पता ही नहीं चला. और तो और पुलिस को कोलाबा-कफरोड़ के मच्छी नगर समुद्र तट पर अंजान लोगों की मौजूदगी की खबर भी दी गई, लेकिन नाकारान यहां भी हावी रहा. अगर पुलिस उस खबर को गंभीरता से लेती तो शायद तस्वीर इतनी खौफनाक नहीं होती. मुंबई पर हमला देश पर सबसे बड़ा हमला है. आतंकियों ने गुपचुप बम धमाके करके कायरता नहीं दिखाई बल्कि सामने आकर फिल्मी अंदाज में नापाक इरादों को अंजाम दिया. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकी इतने बड़े हमले की साजिश के लिए साजो-सामान कैसे जुटाते रहे, इसे स्थानीय तंत्र की विफलता के साथ-साथ कहीं न कहीं इससे उसकी संलिप्तता के तौर पर भी देखा जाना चाहिए.
सरकार को अब यह स्वाकीर कर लेना चाहिए कि न तो उनका गृहमंत्री किसी काम का है और न ही इतना लंबा-चौड़ा खुफिया तंत्र. सितंबर में दिल्ली के हुए बम धमाकों के बाद कैबिनेट की विशेष बैठक में पाटिल ने खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए एक विशेष योजना पेश की थी पर शायद उस पर काम करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा. पिछले तीन सालों में विभिन्न आतंकी घटनाओं में तीन हजार निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और करीब 1185 सुरक्षा जवान शहीद हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ऐसी रणनीति नहीं बनाई गई जो आतंक फैलाने वालों को माकूल जवाब दे सके. भारत में दुनिया भर के मुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली सबसे ज्यादा एजेंसियां मौजूद हैं इसके बाद भी आतंकी अपनी मनमर्जी के मुताबिक मासूमों की बलि चढ़ा रहे हैं. जयपुर, बेंगलुरू, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, असम और अब मुंबई में जेहादी आतंकवाद का जो खौफजदा मंजर देखने को मिला है, उसके बाद देश को चलाने और आतंकवाद पर सियासत करने वालों के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए. अमेरिका से परमाणु करार पर जश् मनाने वालों को इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि आखिर अमेरिका में 911 के बाद कोई आतंकी हमला क्यों नहीं हुआ. जबकि इस्लामी कट्टरपंथ में भारत से ज्यादा अमेरिका के दुश्मन शुमार हैं. अमेरिका ओसामा बिन लादेन के निशाने पर है बावजूद इसके वहां के बाशिंदे इस इत्मिनान के साथ सोते हैं कि 911 की पुनरावृत्ति नहीं होगी. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां पर आतंकवाद के नाम पर सियासत के बजाय आतंकवादियों को सिसकियां भरने पर मजबूर करने की रणनीति पर काम किया जाता है. वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को धर्म और संप्रदाय, समुदाय के नजरिये से नहीं देखा जाता. 911 के बाद आतंकवाद से लड़ाई के लिए अमेरिका ने खास रणनीति बनाई थी, जिसमें फौजी हमले के साथ-साथ आतंकवादियों के धन स्त्रोत को सुखाना प्रमुख था. हालांकि फौज कार्रवाई को लेकर उसे आलोचना का सामना करना पड़ा था.
इसके साथ ही खुफिया संस्थाओं सीआईए और एफबीआई को ज्यादा अधिकार दिए गये. आंतरिक और सीमा सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का एक पद निर्मित किया गया, जिसका काम सभी खुफिया एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष से राष्ट्रपति को अवगत कराना है. नेशनल काउंटर-टेररिम सेंटर नाम की एक राष्ट्रीय संस्था खड़ी की गई, जिसका काम सभी खुफिया सूचनाओं की लगातार स्कैनिंग करके काम की सूचनाओं को क्रमबध्द रूप देना है. डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी नाम से बाकायदा आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय खड़ा किया गया, जिसका काम सभी रायों की पुलिस और कोस्टल गार्ड के बीच तालमेल बिठाना है. अमेरिका में भी यह काम आसान नहीं था लेकिन वहां की सरकार ने आतंकवाद को कुचलने की प्रतिबध्ता पर किसी को हावी नहीं होने दिया. हमारे यहां सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों पर है, केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सरकार होने की वजह से आतंकवाद पर भी सियासत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. ऊपर से खुफिया एजेंसियां भी एक दूसरे को तवाो देने की आदत अब तक नहीं सीख पाई हैं. रॉ की सूचना को आईबी तवाो नहीं देती और आईबी की सूचना को राज्य के खुफिया तंत्र हवा में उड़ा देते हैं.
आतंकवादियों के वित्तीय स्त्रोतों को सुखाने की दिशा में भी कोई खास काम नहीं किया गया है. कुछ वक्त पहले ही खबर आई थी कि शेयर बाजार में आतंकवादियों का पैसा लगा है. बावजूद इसके सरकार ना-नुकुर करती रही मगर पर्याप्त कदम नहीं उठाए गये और अब आतंकवाद का मुंह-तोड़ जवाब देने की बातें कही जा रही हैं. कहा जा रहा है कि आतंकवादी भारत के हौसले को नहीं डिगा पाएंगे. ऑपरेशन पूरा होने पर जय-जयकार के नारे लगाए जा रहे हैं. खुशियां मनाई जा रही हैं लेकिन इस बात का भरोसा नहीं दिलाया जा रहा है कि अब ऐसे हमले नहीं होंगे. साफ है कि सरकार महज कुछ दिनों की जुबानी कसरत की अपनी आदत को दोहरा रही है.
नीरज नैयर
9893121591
मुंबई में जो कुछ भी हुआ उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. आतंकवादी समुद्र के रास्ते प्रवेश करते हैं, सड़कों पर अंधाधुंध गोलियां चलाते हैं, धमाके करते हैं. स्टेशन पर, अस्पताल में कहर बरपाते हैं और आसानी से ताज-ओबरॉय और नरीमन हाउस पर कब्जा कर लेते हैं और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती. कहते हैं मुंबई कभी थमती नहीं, लेकिन गुरुवार 27 नवंबर को मुंबई थमी-थमी नजर आई. स्कूल-कॉलेज पूरी तरह बंद रहे, सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा. लोग अपनों की खैरियत की दुआएं करते रहे. तीन दिन तक आतंकवादी खूनी खेल खेलते रहे और सरकार शब्दों की आड़ में अपनी नपुंसकता छुपाने की कोशिश करती रही.
दिल्ली धमाकों के बाद से ही ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि आतंकी मुंबई को निशाना बना सकते हैं बावजूद इसके लापरवाही बरती गई. गृहमंत्री कपड़ों की चमकार में उलझे रहे और खुफिया एजेंसियां खामोशी की चादर ताने सोती रहीं. इस वीभत्स हमले ने मुंबई पुलिस और स्थानीय खुफिया तंत्र की मर्दानगी की हकीकत भी सामने ला दी है. कहा जा रहा है कि आतंकवादी करीब दो महीने तक नरीमन हाउस इलाके में रहकर अपनी तैयारियों को अंजाम देते रहे मगर तेज तर्रार कही जाने वाले एटीएस और हमेशा सजग रहने का दावा करने वाली पुलिस को पता ही नहीं चला. और तो और पुलिस को कोलाबा-कफरोड़ के मच्छी नगर समुद्र तट पर अंजान लोगों की मौजूदगी की खबर भी दी गई, लेकिन नाकारान यहां भी हावी रहा. अगर पुलिस उस खबर को गंभीरता से लेती तो शायद तस्वीर इतनी खौफनाक नहीं होती. मुंबई पर हमला देश पर सबसे बड़ा हमला है. आतंकियों ने गुपचुप बम धमाके करके कायरता नहीं दिखाई बल्कि सामने आकर फिल्मी अंदाज में नापाक इरादों को अंजाम दिया. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकी इतने बड़े हमले की साजिश के लिए साजो-सामान कैसे जुटाते रहे, इसे स्थानीय तंत्र की विफलता के साथ-साथ कहीं न कहीं इससे उसकी संलिप्तता के तौर पर भी देखा जाना चाहिए.
सरकार को अब यह स्वाकीर कर लेना चाहिए कि न तो उनका गृहमंत्री किसी काम का है और न ही इतना लंबा-चौड़ा खुफिया तंत्र. सितंबर में दिल्ली के हुए बम धमाकों के बाद कैबिनेट की विशेष बैठक में पाटिल ने खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए एक विशेष योजना पेश की थी पर शायद उस पर काम करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा. पिछले तीन सालों में विभिन्न आतंकी घटनाओं में तीन हजार निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और करीब 1185 सुरक्षा जवान शहीद हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ऐसी रणनीति नहीं बनाई गई जो आतंक फैलाने वालों को माकूल जवाब दे सके. भारत में दुनिया भर के मुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली सबसे ज्यादा एजेंसियां मौजूद हैं इसके बाद भी आतंकी अपनी मनमर्जी के मुताबिक मासूमों की बलि चढ़ा रहे हैं. जयपुर, बेंगलुरू, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, असम और अब मुंबई में जेहादी आतंकवाद का जो खौफजदा मंजर देखने को मिला है, उसके बाद देश को चलाने और आतंकवाद पर सियासत करने वालों के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए. अमेरिका से परमाणु करार पर जश् मनाने वालों को इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि आखिर अमेरिका में 911 के बाद कोई आतंकी हमला क्यों नहीं हुआ. जबकि इस्लामी कट्टरपंथ में भारत से ज्यादा अमेरिका के दुश्मन शुमार हैं. अमेरिका ओसामा बिन लादेन के निशाने पर है बावजूद इसके वहां के बाशिंदे इस इत्मिनान के साथ सोते हैं कि 911 की पुनरावृत्ति नहीं होगी. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां पर आतंकवाद के नाम पर सियासत के बजाय आतंकवादियों को सिसकियां भरने पर मजबूर करने की रणनीति पर काम किया जाता है. वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को धर्म और संप्रदाय, समुदाय के नजरिये से नहीं देखा जाता. 911 के बाद आतंकवाद से लड़ाई के लिए अमेरिका ने खास रणनीति बनाई थी, जिसमें फौजी हमले के साथ-साथ आतंकवादियों के धन स्त्रोत को सुखाना प्रमुख था. हालांकि फौज कार्रवाई को लेकर उसे आलोचना का सामना करना पड़ा था.
इसके साथ ही खुफिया संस्थाओं सीआईए और एफबीआई को ज्यादा अधिकार दिए गये. आंतरिक और सीमा सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का एक पद निर्मित किया गया, जिसका काम सभी खुफिया एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष से राष्ट्रपति को अवगत कराना है. नेशनल काउंटर-टेररिम सेंटर नाम की एक राष्ट्रीय संस्था खड़ी की गई, जिसका काम सभी खुफिया सूचनाओं की लगातार स्कैनिंग करके काम की सूचनाओं को क्रमबध्द रूप देना है. डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी नाम से बाकायदा आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय खड़ा किया गया, जिसका काम सभी रायों की पुलिस और कोस्टल गार्ड के बीच तालमेल बिठाना है. अमेरिका में भी यह काम आसान नहीं था लेकिन वहां की सरकार ने आतंकवाद को कुचलने की प्रतिबध्ता पर किसी को हावी नहीं होने दिया. हमारे यहां सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों पर है, केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सरकार होने की वजह से आतंकवाद पर भी सियासत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. ऊपर से खुफिया एजेंसियां भी एक दूसरे को तवाो देने की आदत अब तक नहीं सीख पाई हैं. रॉ की सूचना को आईबी तवाो नहीं देती और आईबी की सूचना को राज्य के खुफिया तंत्र हवा में उड़ा देते हैं.
आतंकवादियों के वित्तीय स्त्रोतों को सुखाने की दिशा में भी कोई खास काम नहीं किया गया है. कुछ वक्त पहले ही खबर आई थी कि शेयर बाजार में आतंकवादियों का पैसा लगा है. बावजूद इसके सरकार ना-नुकुर करती रही मगर पर्याप्त कदम नहीं उठाए गये और अब आतंकवाद का मुंह-तोड़ जवाब देने की बातें कही जा रही हैं. कहा जा रहा है कि आतंकवादी भारत के हौसले को नहीं डिगा पाएंगे. ऑपरेशन पूरा होने पर जय-जयकार के नारे लगाए जा रहे हैं. खुशियां मनाई जा रही हैं लेकिन इस बात का भरोसा नहीं दिलाया जा रहा है कि अब ऐसे हमले नहीं होंगे. साफ है कि सरकार महज कुछ दिनों की जुबानी कसरत की अपनी आदत को दोहरा रही है.
नीरज नैयर
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Friday, November 28, 2008
आम जनता को नहीं मिला चुनावी तोहफा
नीरज नैयर
चुनावी समर में वादे, घोषणाएं और सौगातों की बरसात न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. सत्तासीन सरकार की दरयादिली चुनाव के वक्त ही नजर आती है. किसानों के कर्ज माफी, वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी और अभी हाल ही में सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतन में भारी-भरकम वृद्धि केंद्र सरकार की पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और आने वाले लोकसभा चुनाव में हित साधने की कवायद का ही हिस्सा है. लेकिन इस कवायद में आम जनता की अनदेखी का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है.
महंगाई के आंकड़े खुद ब खुद राजनीति के शिकार होने की दास्तां बयां कर रहे हैं. जो मुद्रास्फीति चांद के पार जाने को आमादा थी वो चुनाव आते ही यकायक पाताल की तरफ कैसे जाने लगी यह सोचने का विषय है. वैसे सोचने का विषय न भी होता अगर बढ़े हुए दाम भी महंगाई दर के साथ नीचे आ जाते, पर अफसोस की ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में लगी आग और कंपनियों को हो रहे वित्तीय घाटे का हवाला देते हुए केंद्र सरकार कई बार पेट्रोल-डीजल के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि कर चुकी है. लेकिन अब जब कच्चा तेल 45 डॉलर प्रति बैरल पर सिमट गया है तब भी सरकार मूल्यों में कमी करके जनता के भार को हल्का करने की जहमत नहीं उठा रही. जब सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह स्वयं कह चुके हैं कि दाम नहीं घटेंगे तो फिर आम जनता को अपने चुनावी तोहफे की बांट जोहना छोड़ देना चाहिए. इसी साल 11 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमत 147.27 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी, इसके बाद सरकार ने मजबूरी प्रकट करते हुए पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी का ऐलान किया था. सरकार ने तर्क दिया गया था कि घाटा इतना बढ़ गया है कि कीमतें थाम पाना असंभव है. सरकार की योजना तो मार्च 2009 तक हर महीने पेट्रोल की कीमत में प्रति लीटर ढाई रुपये और डीजल में 2010 तक 75 पैसे वृध्दि की थी मगर वो उसमें सफल नहीं हो पाई.
बीच में भी जब तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 65 डॉलर प्रति बैरल के नीचे पहुंच गई तब भी दाम घटाने की खबरों का सरकार ने खंडन किया था. तब कहा गया कि अभी पुराना घाटा ही पूरा किया जा सका है. यह भी कहा गया था कि तेल कंपनियां वास्तविक लाभ की स्थिति में तब आएंगी, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत 60 डॉलर पर पहुंच जाएगी, लेकिन अब तो कच्चा तेल सरकार द्वारा बताई गई कीमत से काफी नीचे आ गया है लेकिन केंद्र को अब भी परेशानी हो रही है. सरकार को डर है कि तेल की कीमत में फिर उछाल आ सकता है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में माना जा रहा है कि आने वाले दिनों मे कीमतें और नीचे जाएंगी. दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी से पूर्व यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं. लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. अमेरिका और यूरोपीय बाजारों में आर्थिक मंदी के चलते तेल की मांग घटने से ही कीमतों में गिरावट का रुख है और तेल उत्पाद देश पहले ही उत्पादन बढ़ा चुके हैं. दुनिया भर के तमाम विशेषज्ञ भी कह चुके हैं कि हाल-फिलहाल मंदी के महमानव से छुटकारा नहीं मिलने वाला ऐसे में तेल की कीमतों में इजाफा होने की बात बेमानी है.
दरअसल सरकार का सारा ध्यान इस बात लोक-लुभावन घोषणाएं करके अपने पक्ष में माहौल बनाने पर है. इसलिए उसने विधानसभा चुनावों से ऐन पहले सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतनमानों में 300 फीसदी तक की बढाेतरी की है. तेल की राजनीति हमारे देश में शुरू से ही होती रही है. एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी कीमतों के घोड़े खूब दौड़ाए गये थे लेकिन गनीमत यह रहती थी कि सरकार ने रोलबैक का प्रावधान भी खोल रखा था. ममता बनर्जी के तीखे विरोध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को एक बार कदम कुछ वापस खींचने पड़े थे. सरकारें हमेशा तेल पर नुकसान का रोना रोती रहती हैं जबकि कहा जा रहा है कि एक लीटर पेट्रोल में उसे दस रुपये से ज्यादा का मुनाफा होता है. टैक्स की मार भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है जिसके चलते तेल उत्पादों की कीमतें अन्य देशों के मुकाबले ऊंची रहती हैं. मौजूदा हालात में जहां चीन ने पेट्रोल-डीजल कीमतों में कुछ कमी कर दी हमारी सरकार अत्याधिक मुनाफा कमाकर अपने चुनावी हित साधने में लगी है.
नीरज नैयर
9893121591
Monday, November 24, 2008
श्रीलंका पर भारत की सोच सही
नीरज नैयर
श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ चल रहे अभियान का व्यापक असर देखने को मिल रहा है. लिट्टे अपने ही गढ़ में घिरते जा रहे हैं और श्रीलंकाई सेना उन्हें ढूढ़-ढूढ़कर मौत के घाट रही है. काफी वक्त के बाद किसी लंकाई राष्ट्रपति ने इस हद तक जाने की चेष्टा दिखाई है. महिंद्र राजपक्षे के कार्यकाल में लिट्टे के खिलाफ छेड़ा गया यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है. राजपक्षे लिट्टे के सफाए को दृढं संकल्पित नजर आ रहे हैं जो अमूमन अशांत रहने वाले श्रीलंका के लिए शुभ संकेत है. भारत सरकार भी लिट्टे के खात्मे को सही मान रही है इसलिए अपने सहयोगी दलों के हो-हल्ले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महेंद्र राजपक्षे से महज इतना भर कहा कि तमिलों की सुरक्षा का ख्याल रखा जाए. उन्होंने संघंर्ष वीराम जैसी कोई शर्त श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की. इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि लिट्टे भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा है और उसने ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. ऐसे में दम तोड़ रहे लिट्टे के खिलाफ किसी तरह की नरमी सरकार की छवि को प्रभावित कर सकती थी. लेकिन मनमोहन सिंह ने बड़ी सूझबूझ के साथ काम लिया.
एक तरफ वो द्रमुक आदि दलों की मांग को श्रीलंका सरकार के सामने रखकर उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हम भी आप की चिंता से चिंतित हैं वहीं दूसरी तरफ लंकाई सेना के अभियान पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उन्होंने यह भी जता दिया कि भारत श्रीलंका के साथ है. तमिलनाडु के राजनीतिक दल शुरू से ही यह समझते रहे हैं कि लिट्टे से जुड़े तमिल उनके भाई बंधू हैं, इसलिए लिट्टे के पक्ष में वहां से तरह-तरह की खबरें सामने आती रहती हैं. अभी हाल ही में लिट्टे के समर्थन को लेकर प्रमुख राजनीतिक दल के नेता को हिरासत में भी लिया गया था. कुछ राजनीतिक पार्टियां जैसे पीएमके, टीएनएम, दलित पैंथर्स आफ इंडिया ने भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पृथक तमिल राष्ट्र बनाने में मदद करने का अनुरोध भी किया था. इन सियासी दलों का यह मानना है कि श्रीलंकाई सेना निर्दोष तमिलों को मार रही है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. हां इतना जरूर है कि तमिल बहुसंख्य वाले इलाकों में चल रहे युद्व के कारण लाखों तमिल शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं. लेकिन इसे गलत नजरीए से नहीं देखा जा सकता. पंजाब में आतंकवाद का सफाया करने के लिए सुपरकॉप केपीएस गिल ने जिस तरह की रणनीति अपर्नाई थी उसे लेकर भी काफी आलोचना हुई थी मगर अंजाम आज सबके सामने है. लिट्टे श्रीलंका के लिए ऐसी समस्या बन गये हैं जिसने वर्षों तक देश को आगे नहीं बढ़ने दिया.
गृहयुद्व की स्थिति के चलते न तो आर्थिक मोर्चे पर श्रीलंका को कोई खास सफलता हासिल हुई और न ही विश्व मंच पर वो अपनी दमदार पहचान बना पाया. उल्टा उसे कई बार वैश्विक समुदाय के दबाब का सामना जरूर करना पड़ा. हर रोज चलने वाले युद्व की वजह से वहां हालात यह हो गये हैं कि मुद्रास्फीति की दर 25 फीसदी की रफ्तार कायम किए हुए है. कुछ वक्त पहले श्रीलंका क्रिकेट र्बोर्ड ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड से आर्थिक सहायता की मांग भी की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. लंकाई सरकार को हर साल लिट्टे से संघर्ष के लिए एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ रही है. जिसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है. 2002 में लिट्टे और सरकार के बीच हुए संघर्ष वीराम के बाद काफी हद तक स्थिति संभलती नजर आ रही थी लेकिन जल्द ही सबकुछ हवा हो गया. श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र बनाने की मांग और विवाद का सिलसिला काफी पुराना है. श्रीलंका की आजादी से पूर्व जब अंग्रेजों ने चाय और कॉफी की खेते के लिए तमिलों को यह बसाना शुरू किया तो सिंहलों के मन यह डर घर करने लगा कि कहीं उन्हें अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बना दिया जाए. श्रीलंका में सिंहल आबादी तमिलों की अपेक्षाकृत अधिक है. इसलिए उनका विरोध भी प्रभावशाली रहा. 1948 में श्रीलंका की आजादी के बाद सत्ता सिंहला समुदाय के हाथ आई और उसने सिंहला हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. सिंहला भाषा को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाया गया, नौकरियों में सबसे अच्छे पद सिंहला आबादी के लिए आरक्षित किए गये. 1972 में श्रीलंका में बौद्व धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित करने के साथ ही विश्वविद्यायलों में तमिलों के लिए सीटें घटा दी गई.
अपने खिलाफ हो रहे सौतेले बर्ताव से तमिलों को धैर्य जवाब देने लगा और उन्होंने देश के उत्तर एवं पूर्वी हिस्सों में स्वायत्तता की मांग करनी शुरू कर दी. इसके बाद दोनों तरफ से खूनी संघर्ष का दौर शुरू हुआ. जिसने 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) को जन्म दिया. 1977 में सत्ता में आए जूनियस रिचर्ड जयवर्धने ने मामले को संभालने की काफी कोशिश की. उन्होंने तमिल क्षेत्रों में तमिल भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया, स्थानीय सरकारों में तमिलों को ज्यादा अधिकार दिए लेकिन सारे प्रयास नाकाफी साबित हुए. बात उस वक्त और बिगड़ गई जब 1983 में लिट्टे ने सेना के एक गश्ती दल पर हमला कर 13 सैनिकों को मार डाला. इसके बाद सिंहला उग्र हो गये और उन्होंने अगले दो दिनों तक जमकर हमले किए जिसमें हजारों तमिलों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद जब हालात हद से ज्यादा बेकाबू हो गये तो 1987 में श्रीलंका ने भारत के साथ समझौता किया जिसके तहत उत्तरी इलाकों में भारतीय शांति सेना कानून व्यवस्था पर नजर रखेगी. भारतीय सेना की मौजूदगी में लिट्टे संघर्ष वीराम के लिए तैयार हो गये थे लेकिन उसके एक गुट स्वतंत्र राष्ट्र की मांग दोबारा उठाकर मामले को फिर भड़का दिया. 1990 में शांति सेना वापस लौटी और 1991 में लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या करके भारतीय हस्तक्षेप का बदला निकाल लिया. इसके बाद 1993 में लिट्टे के अलगाववादियों ने श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा की भी हत्या कर डाली. चंद्रिका कुमारतुंगे के शासनकाल में भी इस समस्या के निपटारे के लिए बहुतरे प्रयत्न किए गये मगर कोई सार्थक परिणाम निकलकर सामने नहीं आए.
1995 में लिट्टे के संघर्ष वीराम का उल्लंधन करने के बाद सेना ने उसके खिलाफ कार्रवाई और तेज कर दी और मामला बढ़ता गया. इतने सालों तक खून की होली खेलने वाले लिट्टे के सफाए के लिए श्रीलंका सरकार अभियान चला रही है तो द्रमुक जैसी पार्टियों के पेट में दर्द हो रहा है, उन्हें लग रहा है कि भारत इस मामले में वैसा विरोध क्यों नहीं दर्ज करा रहा जैसा उसने बांग्लादेश और मालदीप में कि या था. लिट्टे कहते हैं कि उन्हें तमिलों का समर्थन प्राप्त है अगर ऐसा है तो उन्हें बंदूक छोड़कर चुनावी मैदान में उतरना चाहिए. अगर उन्हें अपनी जीत का भरोसा है तो फिर वो ऐसा करने से डर क्यों रहे हैं. यह बात सही है कि यह विवाद भी भेदभाव और पक्षपातपूर्ण सोच के कारण ही उबरा मगर आज इसने विकृत रूप अख्तियार कर लिया है, इसलिए सहानभूति, नरमी और तरस जैसे शब्दों के साथ इसे नहीं तोला जा सकता. समस्या के निपटारे के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा जो रणनीति अपनाई जा रही है वो उसका आंतरिक मामला है और उसमें किसी भी तरह की दखलंदाजी की गुंदाइश नहीं है.
नीरज नैयर
9893121591
श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ चल रहे अभियान का व्यापक असर देखने को मिल रहा है. लिट्टे अपने ही गढ़ में घिरते जा रहे हैं और श्रीलंकाई सेना उन्हें ढूढ़-ढूढ़कर मौत के घाट रही है. काफी वक्त के बाद किसी लंकाई राष्ट्रपति ने इस हद तक जाने की चेष्टा दिखाई है. महिंद्र राजपक्षे के कार्यकाल में लिट्टे के खिलाफ छेड़ा गया यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है. राजपक्षे लिट्टे के सफाए को दृढं संकल्पित नजर आ रहे हैं जो अमूमन अशांत रहने वाले श्रीलंका के लिए शुभ संकेत है. भारत सरकार भी लिट्टे के खात्मे को सही मान रही है इसलिए अपने सहयोगी दलों के हो-हल्ले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महेंद्र राजपक्षे से महज इतना भर कहा कि तमिलों की सुरक्षा का ख्याल रखा जाए. उन्होंने संघंर्ष वीराम जैसी कोई शर्त श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की. इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि लिट्टे भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा है और उसने ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. ऐसे में दम तोड़ रहे लिट्टे के खिलाफ किसी तरह की नरमी सरकार की छवि को प्रभावित कर सकती थी. लेकिन मनमोहन सिंह ने बड़ी सूझबूझ के साथ काम लिया.
एक तरफ वो द्रमुक आदि दलों की मांग को श्रीलंका सरकार के सामने रखकर उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हम भी आप की चिंता से चिंतित हैं वहीं दूसरी तरफ लंकाई सेना के अभियान पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उन्होंने यह भी जता दिया कि भारत श्रीलंका के साथ है. तमिलनाडु के राजनीतिक दल शुरू से ही यह समझते रहे हैं कि लिट्टे से जुड़े तमिल उनके भाई बंधू हैं, इसलिए लिट्टे के पक्ष में वहां से तरह-तरह की खबरें सामने आती रहती हैं. अभी हाल ही में लिट्टे के समर्थन को लेकर प्रमुख राजनीतिक दल के नेता को हिरासत में भी लिया गया था. कुछ राजनीतिक पार्टियां जैसे पीएमके, टीएनएम, दलित पैंथर्स आफ इंडिया ने भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पृथक तमिल राष्ट्र बनाने में मदद करने का अनुरोध भी किया था. इन सियासी दलों का यह मानना है कि श्रीलंकाई सेना निर्दोष तमिलों को मार रही है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. हां इतना जरूर है कि तमिल बहुसंख्य वाले इलाकों में चल रहे युद्व के कारण लाखों तमिल शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं. लेकिन इसे गलत नजरीए से नहीं देखा जा सकता. पंजाब में आतंकवाद का सफाया करने के लिए सुपरकॉप केपीएस गिल ने जिस तरह की रणनीति अपर्नाई थी उसे लेकर भी काफी आलोचना हुई थी मगर अंजाम आज सबके सामने है. लिट्टे श्रीलंका के लिए ऐसी समस्या बन गये हैं जिसने वर्षों तक देश को आगे नहीं बढ़ने दिया.
गृहयुद्व की स्थिति के चलते न तो आर्थिक मोर्चे पर श्रीलंका को कोई खास सफलता हासिल हुई और न ही विश्व मंच पर वो अपनी दमदार पहचान बना पाया. उल्टा उसे कई बार वैश्विक समुदाय के दबाब का सामना जरूर करना पड़ा. हर रोज चलने वाले युद्व की वजह से वहां हालात यह हो गये हैं कि मुद्रास्फीति की दर 25 फीसदी की रफ्तार कायम किए हुए है. कुछ वक्त पहले श्रीलंका क्रिकेट र्बोर्ड ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड से आर्थिक सहायता की मांग भी की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. लंकाई सरकार को हर साल लिट्टे से संघर्ष के लिए एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ रही है. जिसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है. 2002 में लिट्टे और सरकार के बीच हुए संघर्ष वीराम के बाद काफी हद तक स्थिति संभलती नजर आ रही थी लेकिन जल्द ही सबकुछ हवा हो गया. श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र बनाने की मांग और विवाद का सिलसिला काफी पुराना है. श्रीलंका की आजादी से पूर्व जब अंग्रेजों ने चाय और कॉफी की खेते के लिए तमिलों को यह बसाना शुरू किया तो सिंहलों के मन यह डर घर करने लगा कि कहीं उन्हें अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बना दिया जाए. श्रीलंका में सिंहल आबादी तमिलों की अपेक्षाकृत अधिक है. इसलिए उनका विरोध भी प्रभावशाली रहा. 1948 में श्रीलंका की आजादी के बाद सत्ता सिंहला समुदाय के हाथ आई और उसने सिंहला हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. सिंहला भाषा को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाया गया, नौकरियों में सबसे अच्छे पद सिंहला आबादी के लिए आरक्षित किए गये. 1972 में श्रीलंका में बौद्व धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित करने के साथ ही विश्वविद्यायलों में तमिलों के लिए सीटें घटा दी गई.
अपने खिलाफ हो रहे सौतेले बर्ताव से तमिलों को धैर्य जवाब देने लगा और उन्होंने देश के उत्तर एवं पूर्वी हिस्सों में स्वायत्तता की मांग करनी शुरू कर दी. इसके बाद दोनों तरफ से खूनी संघर्ष का दौर शुरू हुआ. जिसने 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) को जन्म दिया. 1977 में सत्ता में आए जूनियस रिचर्ड जयवर्धने ने मामले को संभालने की काफी कोशिश की. उन्होंने तमिल क्षेत्रों में तमिल भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया, स्थानीय सरकारों में तमिलों को ज्यादा अधिकार दिए लेकिन सारे प्रयास नाकाफी साबित हुए. बात उस वक्त और बिगड़ गई जब 1983 में लिट्टे ने सेना के एक गश्ती दल पर हमला कर 13 सैनिकों को मार डाला. इसके बाद सिंहला उग्र हो गये और उन्होंने अगले दो दिनों तक जमकर हमले किए जिसमें हजारों तमिलों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद जब हालात हद से ज्यादा बेकाबू हो गये तो 1987 में श्रीलंका ने भारत के साथ समझौता किया जिसके तहत उत्तरी इलाकों में भारतीय शांति सेना कानून व्यवस्था पर नजर रखेगी. भारतीय सेना की मौजूदगी में लिट्टे संघर्ष वीराम के लिए तैयार हो गये थे लेकिन उसके एक गुट स्वतंत्र राष्ट्र की मांग दोबारा उठाकर मामले को फिर भड़का दिया. 1990 में शांति सेना वापस लौटी और 1991 में लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या करके भारतीय हस्तक्षेप का बदला निकाल लिया. इसके बाद 1993 में लिट्टे के अलगाववादियों ने श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा की भी हत्या कर डाली. चंद्रिका कुमारतुंगे के शासनकाल में भी इस समस्या के निपटारे के लिए बहुतरे प्रयत्न किए गये मगर कोई सार्थक परिणाम निकलकर सामने नहीं आए.
1995 में लिट्टे के संघर्ष वीराम का उल्लंधन करने के बाद सेना ने उसके खिलाफ कार्रवाई और तेज कर दी और मामला बढ़ता गया. इतने सालों तक खून की होली खेलने वाले लिट्टे के सफाए के लिए श्रीलंका सरकार अभियान चला रही है तो द्रमुक जैसी पार्टियों के पेट में दर्द हो रहा है, उन्हें लग रहा है कि भारत इस मामले में वैसा विरोध क्यों नहीं दर्ज करा रहा जैसा उसने बांग्लादेश और मालदीप में कि या था. लिट्टे कहते हैं कि उन्हें तमिलों का समर्थन प्राप्त है अगर ऐसा है तो उन्हें बंदूक छोड़कर चुनावी मैदान में उतरना चाहिए. अगर उन्हें अपनी जीत का भरोसा है तो फिर वो ऐसा करने से डर क्यों रहे हैं. यह बात सही है कि यह विवाद भी भेदभाव और पक्षपातपूर्ण सोच के कारण ही उबरा मगर आज इसने विकृत रूप अख्तियार कर लिया है, इसलिए सहानभूति, नरमी और तरस जैसे शब्दों के साथ इसे नहीं तोला जा सकता. समस्या के निपटारे के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा जो रणनीति अपनाई जा रही है वो उसका आंतरिक मामला है और उसमें किसी भी तरह की दखलंदाजी की गुंदाइश नहीं है.
नीरज नैयर
9893121591
Monday, November 17, 2008
भारत की परेशानी बढ़ाएंगे ओबामा!
जार्ज डब्लू बुश के उत्तराधिकारी के रूप में बराक हुसैन ओबामा की ताजपोशी के बाद अब अमेरिका से भावी संबंधों को लेकर आकलन शुरू हो गया है. पिछले कुछ सालों में भारत-अमेरिका एक दूसरे के काफी करीब आए हैं. खासकर परमाणु करार ने दोनों देशों के बीच की दूरी पाटने में अहम किरदार निभाया है जिस तरह से बुश प्रसाान ने पाकिस्तान को एकतरफा मदद देने की आदत को छोड़कर भारत से द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का प्रयास किया ठीक वैसी ही आशा ओबामा से की जा रही है. महात्मा गांधी के प्रशंसक और हनुमान भक्त की अपनी छवि के चलते ओबामा न केवल भारतीय अमेरिकी बल्कि भारत में रहने वाले लोगों के दिल में भी रच-बस गये हैं. भारतीय मीडिया ने भी उन्हें सिर-आंखों पर बैठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें हमेशा मैक्केन के मुकाबले तवाो दी गई. उनके कथनों को प्रमुखता से प्रकशित किया गया. कुछ वक्त के लिए तो ऐसा लगा जैसे या तो हम अमेरिकी हो गये हैं या फिा ओबामा भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं. डेमोक्रेट से उम्मीदवारी तय होने से लेकर व्हाइट हाउस के सफर तक उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया गया. लिहाजा अब उनसे अपेक्षाएं भी बड़ी-बड़ी की जा रही हैं.
भारतीय यह मानकर चल रहे हैं कि संबंधों में मधुरता की दिशा में जो थोड़ी बहुत कसर बुश के कार्यकाल में रह गई थी उसे ओबामा पूरा कर देंगे. लेकिन अंकल सैम की विदाई को लेकर दिल्ली में जो मायूसी दिखाई दे रही है उससे साफ है कि ओबामा के साथ बेहतर भविष्य को लेकर भारतीय नेतृत्व भी कहीं न कहीं आशंकित है. भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर जिस तरह का रुख ओबामा ने अपनाया था उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ओबामा ने खुलकर भारत को छूट देने की मुखालफत की थी. इसलिए अब यह देखने वाली बात होगी कि वो करार पर नये सिरे से क्या रुख अख्तियार करते हैं. वैसे ऐसी भी आशंका जताई जा रही है कि ओबामा भारत को न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीट्री पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर सकते हैं. उस स्थिति में करार पर प्रश्चिन्ह लग जाएगा और भारत को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा. इसके साथ ही कश्मीर पर ओबामा ने पूर्व में जो संकेत दिए थे अगर वो उस पर कायम रहते हैं तो निश्चित ही भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. बराक ओबामा ने मतदान से कुछ दिन पूर्व कहा था कि हमें कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में कोशिश करनी चाहिए, इससे पाकिस्तान की चिंता भारत की तरफ से हट जाएगी और वह आतंकवादियों पर ध्यान केंद्रित कर सकेगा. जुलाई 2007 में विदेश नीति पर लिखे अपने लेख में ओबामा ने कहा था कि हम कश्मीर इश्यू को सुलझाने में भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता को प्रोत्साहित करेंगे. ओबामा ने यह भी कहा था कि वो पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को कश्मीर विवाद के निपटारे के लिए विशेष दूत बनाकर भेजेंगे. भारत शुरू से ही कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा बताता रहा है. उसे न तो किसी का दखलंदाजी वाला रवैया पसंद है और न ही वो पसंद करने वाला है. बुश के कार्यकाल में भी जब जनमत संग्रह जैसी बातें उठी थी तो भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. लिहाजा दोनों देशों के रिश्तों में काफी कुछ इसबात पर निर्भर करेगा कि ओबामा कश्मीर को कितनी तवाो देते हैं.
वैसे ओबामा के एजेंडे में इस वक्त ईरान, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मुख्य रूप से शामिल हैं. ओबामा ईरान से चल रही तनातनी को जल्द खत्म करना चाहेंगे. बुश के साथ ईरान के संबंध किस कदर बिगड़ गये थे यह किसी से छिपा नहीं है. बात युद्ध तक पहुंच गई थी और अगर गर्माहट थोड़ी भी बढ़ जाती तो ईरान को भी इराक बनते देर नहीं लगती. ओबामा इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों की दशा पर पहले ही चिंता जता चुके हैं. ऐसे में उनकी कोशिश होगी कि इराक को वहां के हुक्मरानों के हवाले करके सेना को उस नरकीय जिंदगी से बाहर निकाला जाए. इसके बाद ओबामा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से रिश्ते दुरुस्त करने की तरफ आगे बढ़ेंगे. पाकिस्तान से भी अमेरिका के रिश्ते पिछले कुछ वक्त से ठीक नहीं चल रहे हैं. आतंकवादियों पर पाक सीमा में घुसकर हमले संबंधी खुलासे के बाद जिस लहजे में पाक प्रधानमंत्री गिलानी ने बयानबाजी की थी उससे दोनों के रिश्तों में और तल्खी आ गई थी. भारत से परमाणु करार से पहले तक पाकिस्तान अमेरिका का विश्वस्त मित्र और सैनिक साजो-सामान का बहुत बड़ा खरीददार रहा है. पाकिस्तानी सेना की करीब 90 प्रतिशत खुराक अमेरिका की पूरी करता रहा है. ऐसे में ओबामा पाक पर पहले जैसी मेहरबानी दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. हालांकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा ने यह कहकर कि पाक आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता है, यह संकेत दिए थे कि वो पाक के साथ बेवजह नरमी नहीं बरतने वाले लेकिन इसे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर वोट खींचने की कवायद के रूप में देखना गलत नहीं होगा. ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन के साथ उम्मीदवारी पाने के द्वंद्व में यह भी कहा था कि वो आउटसोर्सिंग को अमेरिकी कामगारों के खिलाफ हिंसा मानते हैं क्योंकि इसके जरिए इन लोगों के रोजगार दूसरे देशों को भेजे जा रहे हैं.
गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आउटसोर्सिंग के चलते कई कंपनियां यहां फली फूलीं. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध हुए हैं. इनमें इफॉम्रमेशन टैक्नोलाजी का सबसे बड़ा हिस्सा है. अब चूंकि ओबामा व्हाइट हाउस की गद्दी पर काबिज हो गये हैं इसलिए हो सकता है कि वो इस बारे में भी कुछ ऐसे कदम उठाएं जो भारत के लिहाज से अच्छे न हों. ओबामा का चुना जाना निश्चित ही अमेरिका के इतिहास में बहुत ही ऐतिहासिक क्षण हैं लेकिन भारत के लिए यह बदलाव खुशियों की बयार लेके आएगा ऐसी उम्मीदें पालना भी बेमानी होगा.
नीरज नैयर
9893121591
भारतीय यह मानकर चल रहे हैं कि संबंधों में मधुरता की दिशा में जो थोड़ी बहुत कसर बुश के कार्यकाल में रह गई थी उसे ओबामा पूरा कर देंगे. लेकिन अंकल सैम की विदाई को लेकर दिल्ली में जो मायूसी दिखाई दे रही है उससे साफ है कि ओबामा के साथ बेहतर भविष्य को लेकर भारतीय नेतृत्व भी कहीं न कहीं आशंकित है. भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर जिस तरह का रुख ओबामा ने अपनाया था उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ओबामा ने खुलकर भारत को छूट देने की मुखालफत की थी. इसलिए अब यह देखने वाली बात होगी कि वो करार पर नये सिरे से क्या रुख अख्तियार करते हैं. वैसे ऐसी भी आशंका जताई जा रही है कि ओबामा भारत को न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीट्री पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर सकते हैं. उस स्थिति में करार पर प्रश्चिन्ह लग जाएगा और भारत को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा. इसके साथ ही कश्मीर पर ओबामा ने पूर्व में जो संकेत दिए थे अगर वो उस पर कायम रहते हैं तो निश्चित ही भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. बराक ओबामा ने मतदान से कुछ दिन पूर्व कहा था कि हमें कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में कोशिश करनी चाहिए, इससे पाकिस्तान की चिंता भारत की तरफ से हट जाएगी और वह आतंकवादियों पर ध्यान केंद्रित कर सकेगा. जुलाई 2007 में विदेश नीति पर लिखे अपने लेख में ओबामा ने कहा था कि हम कश्मीर इश्यू को सुलझाने में भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता को प्रोत्साहित करेंगे. ओबामा ने यह भी कहा था कि वो पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को कश्मीर विवाद के निपटारे के लिए विशेष दूत बनाकर भेजेंगे. भारत शुरू से ही कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा बताता रहा है. उसे न तो किसी का दखलंदाजी वाला रवैया पसंद है और न ही वो पसंद करने वाला है. बुश के कार्यकाल में भी जब जनमत संग्रह जैसी बातें उठी थी तो भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. लिहाजा दोनों देशों के रिश्तों में काफी कुछ इसबात पर निर्भर करेगा कि ओबामा कश्मीर को कितनी तवाो देते हैं.
वैसे ओबामा के एजेंडे में इस वक्त ईरान, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मुख्य रूप से शामिल हैं. ओबामा ईरान से चल रही तनातनी को जल्द खत्म करना चाहेंगे. बुश के साथ ईरान के संबंध किस कदर बिगड़ गये थे यह किसी से छिपा नहीं है. बात युद्ध तक पहुंच गई थी और अगर गर्माहट थोड़ी भी बढ़ जाती तो ईरान को भी इराक बनते देर नहीं लगती. ओबामा इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों की दशा पर पहले ही चिंता जता चुके हैं. ऐसे में उनकी कोशिश होगी कि इराक को वहां के हुक्मरानों के हवाले करके सेना को उस नरकीय जिंदगी से बाहर निकाला जाए. इसके बाद ओबामा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से रिश्ते दुरुस्त करने की तरफ आगे बढ़ेंगे. पाकिस्तान से भी अमेरिका के रिश्ते पिछले कुछ वक्त से ठीक नहीं चल रहे हैं. आतंकवादियों पर पाक सीमा में घुसकर हमले संबंधी खुलासे के बाद जिस लहजे में पाक प्रधानमंत्री गिलानी ने बयानबाजी की थी उससे दोनों के रिश्तों में और तल्खी आ गई थी. भारत से परमाणु करार से पहले तक पाकिस्तान अमेरिका का विश्वस्त मित्र और सैनिक साजो-सामान का बहुत बड़ा खरीददार रहा है. पाकिस्तानी सेना की करीब 90 प्रतिशत खुराक अमेरिका की पूरी करता रहा है. ऐसे में ओबामा पाक पर पहले जैसी मेहरबानी दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. हालांकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा ने यह कहकर कि पाक आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता है, यह संकेत दिए थे कि वो पाक के साथ बेवजह नरमी नहीं बरतने वाले लेकिन इसे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर वोट खींचने की कवायद के रूप में देखना गलत नहीं होगा. ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन के साथ उम्मीदवारी पाने के द्वंद्व में यह भी कहा था कि वो आउटसोर्सिंग को अमेरिकी कामगारों के खिलाफ हिंसा मानते हैं क्योंकि इसके जरिए इन लोगों के रोजगार दूसरे देशों को भेजे जा रहे हैं.
गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आउटसोर्सिंग के चलते कई कंपनियां यहां फली फूलीं. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध हुए हैं. इनमें इफॉम्रमेशन टैक्नोलाजी का सबसे बड़ा हिस्सा है. अब चूंकि ओबामा व्हाइट हाउस की गद्दी पर काबिज हो गये हैं इसलिए हो सकता है कि वो इस बारे में भी कुछ ऐसे कदम उठाएं जो भारत के लिहाज से अच्छे न हों. ओबामा का चुना जाना निश्चित ही अमेरिका के इतिहास में बहुत ही ऐतिहासिक क्षण हैं लेकिन भारत के लिए यह बदलाव खुशियों की बयार लेके आएगा ऐसी उम्मीदें पालना भी बेमानी होगा.
नीरज नैयर
9893121591
Sunday, November 9, 2008
कठघरे में न्यायपालिका
नीरज नैयर
हमें अक्सर खाकी वर्दी की आड़ में रिश्वत लेते हाथ तो नजर आते हैं मगर काले कोट की कालिख कभी नहीं दिखाई देती. अब तक हमें लगता था कि भ्रष्टाचार केवल कुछ सरकारी महकमों और पुलिस तक ही सीमित है लेकिन अब यह अभास होने लगा है कि इसकी पहुंच न्यायपालिक तक भी हो गई है. उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित पीएफ घोटाले में जिस तरह से 36 जजों के नाम सामने आए हैं उससे न्यायाधीशों की न्यायिक जवाबदेही तय करने की जरूरत फिर से महसूस होने लगी है.इस मामले में जिन जजों का नाम लिया जा रहा है उनमें इलाहाबाद हाईकोर्ट, उत्तरांचल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल हैं. इनमें एक जज उच्चतम न्यायालय, दो उच्च न्यायालयों के 11 जज (जिनमें कुछ सेवा में हैं और कुछ सेवानिवृत हो चुके हैं)और जिला एवं अतिरिक्त जिला जज स्तर के 24 अन्य न्यायाधीश लिप्त बताए जा रहे हैं. इसे देश की न्यायपालिका के इतिहास में भ्रष्टाचार और धोखाधडी क़ा सबसे बड़ा मामला कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी.
एक साथ इतने सारे जजों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता का मामला शायद ही कभी सुनने में आया हो. लंबे समय तक चले इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के मामले में कर्मचारी भविष्य निधि यानी पीएफ फंड से फर्जी नामों के सहारे बडी धनराशि निकाली गई और उनके लिए फर्जी खाते भी खुलवाए गये. जहां चैकों का भुगतान किया गया. यह धनराशि गाजियाबाद जिला अदालत के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने बड़े-बड़े जजों को महंगे उपहार और उनके बिलों के भुगतान के लिए निकलवाई थी. वैसे यह कोई अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसने न्यायपालिका को खुद कठघरे में खड़ा कर दिया हो, ऐसे मामलों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त है. उत्तर प्रदेश के साथ ही कोलकाता, हरियाण एवं पंजाब के कुछ जजों ने जिस तरह से न्याय के मंदिर से नाटों का कारोबार किया उसने न सिर्फ न्यायपालिका की छवि को तार-तार किया है बल्कि न्याय की खातिर अदालत की चौखट तक पहुंचने वालों के मन में डर और संशय कायम करने में भी अहम भूमिका निभाई है. कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर जहां महाभियोग चलाने की तैयारी हो रही है वहीं पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की जज निर्मला यादव को न्यायिक कार्यों के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है. सेन पर 1993 में कोर्ट के रिसीवर के रूप में भारत इस्पात प्राधिकरण्र और भारत जहाजरानी निगम के बीच फायरब्रिक्स से जुड़े मामले के मुकदमें में 32 लाख रुपए की रिश्वत का आरोप है. ऐसे ही निर्मला यादव भी 15 लाख की रिश्वत के केस में उलझी हुई हैं.
भले ही दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए हों मगर न्यायपालिका में इस कदर बढ़ते भ्रष्टाचार ने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या जजों को कानूनी संरक्षण देना जायज है. न्यायाधीश अपने द्वारा बनाई गई चार दीवारी के भीतर भ्रष्टाचार का हिस्सा बनने का साहस इसलिए जुटा पाते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि तमाम कानूनी झंझावत और अवमानना की ढाल के सहारे वो बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत सकते हैं. पीफए घोटाले में गाजियाबाद कोर्ट के नजीर आशुतोष अस्थाना के 36 जजों के नाम गिनाए जाने के बाद भी आला पुलिस अधिकारी जजों से पूछताछ को लेकर बगले झांकते रहे. दरअसल किसी भी जज के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति लेने संबंधी कानून के चलते पुलिस भी ऐसे मामलों में हाथ डालने से बचती है जिससे किसी न्यायाधीश का नाम जुड़ा हो. खुद पुलिस अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं. वैसे जजों को प्राप्त कानूनी संरक्षण को लेकर स्थिति पूरी तरह साफ नहीं है. कुछ जानकारों का मानना है कि जजों को सिर्फ ऐसे दीवानी और आपराधिक मामलों में कानूनी संरक्षण हासिल है जो उनके डयूटी पर रहते हुए या कोई कानूनी कर्तव्य निभाते हुए होते हैं. वहीं कुछ विशेषज्ञों कुछ अनुसार अगर कोई जज रिश्वत लेते या गैर कानूनी रूप से तोहफा स्वीकारता है तो यह उनकी कोई सरकारी डयूटी नहीं है और ऐसे मामलों में कानून पुलिस को जांच-पड़ताल से नहीं रोक सकता, कानून महज मुकदमा चलाने से रोक सकता है. निचली अदालतों में पैसा देकर अपने पक्ष में फैसला सुनाने के तमाम मामले सामने आ चुके हैं पर अफसोस कि आरोपी को दोषी सिद्ध करने और उसे समुचित दंड देने की बातें सामने नहीं आती. न्यायपालिका से जुड़ चंद लोगों ने भारतीय न्याय व्यवस्था को किस कदर नीलाम कर रखा है इसका अंदाजा राजस्थान के उस चर्चित मामले से लगाया जा सकता है जिसमें एक जज ने पक्ष में फैसला सुनाने के के लिए सेक्स की मांग की थी. वहीं अहमदाबाद के मैट्रोपोलिटियन मजिस्टे्रट ने 40,000 के एवज में बिना सोच-समझे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था. न्याय व्यवस्था का आशय है दोषी को सजा मिले, याची को सही समय पर न्याय मिले, निर्दोष को लंबे समय तक बेवजह जेल की दीवारों से सिर न टकराना पड़े लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाली न्यायपालिका खुद भ्रष्टाचार के भंवर में फंसती जा रही है. कुछ वक्त पहले तक इस तरह की घटनाएं शायद नहीं होती थी मगर अब आए दिन ऐसे मामले सुनने में आते रहते हैं. ऐसी घटनाओं से यह लगने है कि न्यायाधीश बनने के बाद कुछ लोग अनुशासनहीन, भ्रष्टाचारी बन गये हैं उनका आचरण और कार्य पद की मर्यादा तथा उसकी गरिमा के खिलाफ होने लगा है. न्यायपालिका में बढ़ती इस प्रवति पर रोक के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने का सही वक्त अब आ गया है अगर अब भी इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो जो थोड़ा बहुत विश्वास न्यायपालिका में कायम है वो भी काफुर हो जाएगा.
लगते रहे दाग
-भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार महाभियोग प्रस्ताव 1993 में वी. रामास्वामी के खिलाफ लाया गया था. पंजाब और हरियाणा के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए पद के दुरुपयोग के दोषी पाए गये थे. हालांकि कांग्रेस सदस्यों की गैरहाजिरी के चलते उनका कुछ नहीं बिगड़ पाया था. -देश के पूर्व चीफ जस्टिस वाई.के. सब्बरवाल पर दिल्ली में सीलिंग के दौरान प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के उलट आदेश जारी करने का आरोप लगा था. इसके साथ ही उनपर अपने परिवार के व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने का भी आरोप लगा.
-सुप्रीम कोर्ट के जज एम.एम. पंछी पर न्यायिक उत्तरदायित्व समिति ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. महाभियोग के लिए सांसदों के समर्थन मिलने से पहले वो भारत के मुख्य न्यायाधीश बन गए थे.
-गाजियाबाद कोर्ट के पूर्व केंद्रीय कोषागार अधिकारी आशुतोष अस्थाना ने आठ सालों तक न्यायिक अधिकारियों ये साठगांठ कर जजों को उपहार देने के लिए ट्रेजरी फंड से सात करोड़ रुपए की हेराफेरी की.
-पंजाब और हरियाणा की जस्टिस निर्मल यादव को 15 लाख की रिश्वत के आरोप में न्यायिक दायित्वों से मुक्त कर दिया गया है. इस मामले का खुलासा तब हुआ जब निर्मल को मिलने वाली रकम गलती से दूसरी जज के घर पहुंच गई और उन्होंने पुलिस को बुलाकर रिश्वत देने वाले को पकड़वा दिया.
-न्यायाधीश ए.एस आनंद पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ कोई आरोप साबित नहीं हो पाया.
-वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को न्याय में बाधा डालने का दोषी करार देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने चार महीने के लिए उनकी वकालत पर रोक लगाने के साथ-साथ दो हजार का जुर्माना भी लगाया था. दोनों पर बीएमडब्लू मामले में एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर प्रमुख गवाह को रिश्वत देकर बयान बदलने के लिए दबाव डालने का दोषी पाया गया था.
महाभियोग की कठिन डगर
कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर भले ही महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी हो रही हो मगर इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है. कानून कवच के चलते सेन भी रामस्वामी की तरह साफ बचके निकल सकते हैं. उन्हें पद से हटाए जाने का प्रस्ताव तभी पेश किया जा सकेगा जब लोकसभा के 100 सांसदों और राज्यसभा के 50 सांसदों का इसे समर्थन मिले. हालांकि यूपीए सरकार के लिए इसे जुटाना कोई टेढ़ी खीर नहीं होगी मगर इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है वो शायद कांग्रेस में नही है. कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना उतना आसान नहीं है जितना दिखाई देता है. 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामस्वामी के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली. महालेखाकार ने उनके आवास की फर्निशिंग के काम में भारी विसंगतियां पाईं थीं. रामस्वामी पर यह भी आरोप था कि परिवार द्वारा किए गये फोन कॉल्सों की धनरााशि प्राप्त करने के लिए उन्होंने गलत तरीके से दावा किया था. लेकिन रामस्वामी के खिलाफ प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हो पाया. सेन के मामले में भी सियासी खींचतान के चलते महाभियोग प्रक्रिया बाधित हो सकती है. हो सकता है लोकसभा पहले ही भंग कर दी जाए और महाभियोग प्रक्रिया अधर में लटक जाए. यह प्रक्रिया दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों पर भी निर्भर है लेकिन इस मुद्दे पर उनके दृष्टिकोण अभी तक स्पष्ट नहीं हैं.
उम्मीद की किरण
न्यायापालिका के दामन पर लगते भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण जजों की जवाबदेही तय नहीं होना है. लेकिन जजों के खिलाफ जांच के लिए न्यायिक परिषद के गठन का जो फैसला केंद्र सरकार ने लिया है उसे उम्मीद की एक किरण जरूर कहा जा सकता है. न्यायिक परिषद की स्थापना का उद्देश्य न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाना तथा उसकी साख बढाना है. न्यायाधीश जांच संशोधन विधेयक 2008 संसद में 2006 में पेश किए गए इसी नाम के विधेयक के स्थान पर लाया जाएगा. नए विधेयक में पिछले विधेयक के बारे में संसद की स्थाई समिति की सिफारिशों को शामिल किया गया है.
हमें अक्सर खाकी वर्दी की आड़ में रिश्वत लेते हाथ तो नजर आते हैं मगर काले कोट की कालिख कभी नहीं दिखाई देती. अब तक हमें लगता था कि भ्रष्टाचार केवल कुछ सरकारी महकमों और पुलिस तक ही सीमित है लेकिन अब यह अभास होने लगा है कि इसकी पहुंच न्यायपालिक तक भी हो गई है. उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित पीएफ घोटाले में जिस तरह से 36 जजों के नाम सामने आए हैं उससे न्यायाधीशों की न्यायिक जवाबदेही तय करने की जरूरत फिर से महसूस होने लगी है.इस मामले में जिन जजों का नाम लिया जा रहा है उनमें इलाहाबाद हाईकोर्ट, उत्तरांचल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल हैं. इनमें एक जज उच्चतम न्यायालय, दो उच्च न्यायालयों के 11 जज (जिनमें कुछ सेवा में हैं और कुछ सेवानिवृत हो चुके हैं)और जिला एवं अतिरिक्त जिला जज स्तर के 24 अन्य न्यायाधीश लिप्त बताए जा रहे हैं. इसे देश की न्यायपालिका के इतिहास में भ्रष्टाचार और धोखाधडी क़ा सबसे बड़ा मामला कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी.
एक साथ इतने सारे जजों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता का मामला शायद ही कभी सुनने में आया हो. लंबे समय तक चले इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के मामले में कर्मचारी भविष्य निधि यानी पीएफ फंड से फर्जी नामों के सहारे बडी धनराशि निकाली गई और उनके लिए फर्जी खाते भी खुलवाए गये. जहां चैकों का भुगतान किया गया. यह धनराशि गाजियाबाद जिला अदालत के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने बड़े-बड़े जजों को महंगे उपहार और उनके बिलों के भुगतान के लिए निकलवाई थी. वैसे यह कोई अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसने न्यायपालिका को खुद कठघरे में खड़ा कर दिया हो, ऐसे मामलों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त है. उत्तर प्रदेश के साथ ही कोलकाता, हरियाण एवं पंजाब के कुछ जजों ने जिस तरह से न्याय के मंदिर से नाटों का कारोबार किया उसने न सिर्फ न्यायपालिका की छवि को तार-तार किया है बल्कि न्याय की खातिर अदालत की चौखट तक पहुंचने वालों के मन में डर और संशय कायम करने में भी अहम भूमिका निभाई है. कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर जहां महाभियोग चलाने की तैयारी हो रही है वहीं पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की जज निर्मला यादव को न्यायिक कार्यों के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है. सेन पर 1993 में कोर्ट के रिसीवर के रूप में भारत इस्पात प्राधिकरण्र और भारत जहाजरानी निगम के बीच फायरब्रिक्स से जुड़े मामले के मुकदमें में 32 लाख रुपए की रिश्वत का आरोप है. ऐसे ही निर्मला यादव भी 15 लाख की रिश्वत के केस में उलझी हुई हैं.
भले ही दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए हों मगर न्यायपालिका में इस कदर बढ़ते भ्रष्टाचार ने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या जजों को कानूनी संरक्षण देना जायज है. न्यायाधीश अपने द्वारा बनाई गई चार दीवारी के भीतर भ्रष्टाचार का हिस्सा बनने का साहस इसलिए जुटा पाते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि तमाम कानूनी झंझावत और अवमानना की ढाल के सहारे वो बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत सकते हैं. पीफए घोटाले में गाजियाबाद कोर्ट के नजीर आशुतोष अस्थाना के 36 जजों के नाम गिनाए जाने के बाद भी आला पुलिस अधिकारी जजों से पूछताछ को लेकर बगले झांकते रहे. दरअसल किसी भी जज के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति लेने संबंधी कानून के चलते पुलिस भी ऐसे मामलों में हाथ डालने से बचती है जिससे किसी न्यायाधीश का नाम जुड़ा हो. खुद पुलिस अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं. वैसे जजों को प्राप्त कानूनी संरक्षण को लेकर स्थिति पूरी तरह साफ नहीं है. कुछ जानकारों का मानना है कि जजों को सिर्फ ऐसे दीवानी और आपराधिक मामलों में कानूनी संरक्षण हासिल है जो उनके डयूटी पर रहते हुए या कोई कानूनी कर्तव्य निभाते हुए होते हैं. वहीं कुछ विशेषज्ञों कुछ अनुसार अगर कोई जज रिश्वत लेते या गैर कानूनी रूप से तोहफा स्वीकारता है तो यह उनकी कोई सरकारी डयूटी नहीं है और ऐसे मामलों में कानून पुलिस को जांच-पड़ताल से नहीं रोक सकता, कानून महज मुकदमा चलाने से रोक सकता है. निचली अदालतों में पैसा देकर अपने पक्ष में फैसला सुनाने के तमाम मामले सामने आ चुके हैं पर अफसोस कि आरोपी को दोषी सिद्ध करने और उसे समुचित दंड देने की बातें सामने नहीं आती. न्यायपालिका से जुड़ चंद लोगों ने भारतीय न्याय व्यवस्था को किस कदर नीलाम कर रखा है इसका अंदाजा राजस्थान के उस चर्चित मामले से लगाया जा सकता है जिसमें एक जज ने पक्ष में फैसला सुनाने के के लिए सेक्स की मांग की थी. वहीं अहमदाबाद के मैट्रोपोलिटियन मजिस्टे्रट ने 40,000 के एवज में बिना सोच-समझे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था. न्याय व्यवस्था का आशय है दोषी को सजा मिले, याची को सही समय पर न्याय मिले, निर्दोष को लंबे समय तक बेवजह जेल की दीवारों से सिर न टकराना पड़े लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाली न्यायपालिका खुद भ्रष्टाचार के भंवर में फंसती जा रही है. कुछ वक्त पहले तक इस तरह की घटनाएं शायद नहीं होती थी मगर अब आए दिन ऐसे मामले सुनने में आते रहते हैं. ऐसी घटनाओं से यह लगने है कि न्यायाधीश बनने के बाद कुछ लोग अनुशासनहीन, भ्रष्टाचारी बन गये हैं उनका आचरण और कार्य पद की मर्यादा तथा उसकी गरिमा के खिलाफ होने लगा है. न्यायपालिका में बढ़ती इस प्रवति पर रोक के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने का सही वक्त अब आ गया है अगर अब भी इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो जो थोड़ा बहुत विश्वास न्यायपालिका में कायम है वो भी काफुर हो जाएगा.
लगते रहे दाग
-भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार महाभियोग प्रस्ताव 1993 में वी. रामास्वामी के खिलाफ लाया गया था. पंजाब और हरियाणा के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए पद के दुरुपयोग के दोषी पाए गये थे. हालांकि कांग्रेस सदस्यों की गैरहाजिरी के चलते उनका कुछ नहीं बिगड़ पाया था. -देश के पूर्व चीफ जस्टिस वाई.के. सब्बरवाल पर दिल्ली में सीलिंग के दौरान प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के उलट आदेश जारी करने का आरोप लगा था. इसके साथ ही उनपर अपने परिवार के व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने का भी आरोप लगा.
-सुप्रीम कोर्ट के जज एम.एम. पंछी पर न्यायिक उत्तरदायित्व समिति ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. महाभियोग के लिए सांसदों के समर्थन मिलने से पहले वो भारत के मुख्य न्यायाधीश बन गए थे.
-गाजियाबाद कोर्ट के पूर्व केंद्रीय कोषागार अधिकारी आशुतोष अस्थाना ने आठ सालों तक न्यायिक अधिकारियों ये साठगांठ कर जजों को उपहार देने के लिए ट्रेजरी फंड से सात करोड़ रुपए की हेराफेरी की.
-पंजाब और हरियाणा की जस्टिस निर्मल यादव को 15 लाख की रिश्वत के आरोप में न्यायिक दायित्वों से मुक्त कर दिया गया है. इस मामले का खुलासा तब हुआ जब निर्मल को मिलने वाली रकम गलती से दूसरी जज के घर पहुंच गई और उन्होंने पुलिस को बुलाकर रिश्वत देने वाले को पकड़वा दिया.
-न्यायाधीश ए.एस आनंद पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ कोई आरोप साबित नहीं हो पाया.
-वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को न्याय में बाधा डालने का दोषी करार देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने चार महीने के लिए उनकी वकालत पर रोक लगाने के साथ-साथ दो हजार का जुर्माना भी लगाया था. दोनों पर बीएमडब्लू मामले में एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर प्रमुख गवाह को रिश्वत देकर बयान बदलने के लिए दबाव डालने का दोषी पाया गया था.
महाभियोग की कठिन डगर
कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर भले ही महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी हो रही हो मगर इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है. कानून कवच के चलते सेन भी रामस्वामी की तरह साफ बचके निकल सकते हैं. उन्हें पद से हटाए जाने का प्रस्ताव तभी पेश किया जा सकेगा जब लोकसभा के 100 सांसदों और राज्यसभा के 50 सांसदों का इसे समर्थन मिले. हालांकि यूपीए सरकार के लिए इसे जुटाना कोई टेढ़ी खीर नहीं होगी मगर इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है वो शायद कांग्रेस में नही है. कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना उतना आसान नहीं है जितना दिखाई देता है. 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामस्वामी के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली. महालेखाकार ने उनके आवास की फर्निशिंग के काम में भारी विसंगतियां पाईं थीं. रामस्वामी पर यह भी आरोप था कि परिवार द्वारा किए गये फोन कॉल्सों की धनरााशि प्राप्त करने के लिए उन्होंने गलत तरीके से दावा किया था. लेकिन रामस्वामी के खिलाफ प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हो पाया. सेन के मामले में भी सियासी खींचतान के चलते महाभियोग प्रक्रिया बाधित हो सकती है. हो सकता है लोकसभा पहले ही भंग कर दी जाए और महाभियोग प्रक्रिया अधर में लटक जाए. यह प्रक्रिया दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों पर भी निर्भर है लेकिन इस मुद्दे पर उनके दृष्टिकोण अभी तक स्पष्ट नहीं हैं.
उम्मीद की किरण
न्यायापालिका के दामन पर लगते भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण जजों की जवाबदेही तय नहीं होना है. लेकिन जजों के खिलाफ जांच के लिए न्यायिक परिषद के गठन का जो फैसला केंद्र सरकार ने लिया है उसे उम्मीद की एक किरण जरूर कहा जा सकता है. न्यायिक परिषद की स्थापना का उद्देश्य न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाना तथा उसकी साख बढाना है. न्यायाधीश जांच संशोधन विधेयक 2008 संसद में 2006 में पेश किए गए इसी नाम के विधेयक के स्थान पर लाया जाएगा. नए विधेयक में पिछले विधेयक के बारे में संसद की स्थाई समिति की सिफारिशों को शामिल किया गया है.
Monday, October 13, 2008
पाक: दिल में कुछ जुबां पर कुछ
नीरज नैयर
मिस्टर 10 पसर्ेंट से राष्ट्रपति के ओहदे तक पहुंचे आसिफ अली जरदारी भारत के साथ रिश्तों की गर्माहट को और बढ़ाना चाहते हैं. बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा में जरदारी ने गर्मजोशी से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस्तकबाल करके यह जताने का प्रयास किया कि वो दहशतगर्दी के खेल से हटकर कुछ करने की सोच रहे हैं. बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाक हुकूमत के अंदरूनी मामलों में उलझे रहने के चलते भारत-पाक बातचीत सर्द खाने में पड़ी थी जिसे पाकिस्तानी राष्ट्रपति फिर से माकूल माहौल में लाने की जद्दोजहद करते दिखाई पड़ रहे हैं. दोनों देशों ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने, संयुक्त आतंकवाद निरोधक नीति पर काम करने एवं द्विपक्षीय व्यापार के लिए सीमा की बंदिशें खोलने पर सहमति जताई है.
जिसे निहायत ही अच्छा कदम समझा जा सकता है. वैसे इस बात में कोई शक-शुबहा नहीं कि जरदारी जब से सत्ता में आए हैं भारत-पाक के बीच उपजी कटुता को मिटाने की बातें करते रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के तख्तोताज पर काबिज हुक्मरानों की ऐसी भारत पसंदगी ने वक्त दर वक्त जो निशानात रिश्तों की तस्वीर पर छोड़े हैं उससे जरदारी की बातों को सहज ही स्वीकारा नहीं जा सकता. पाकिस्तान की विदेश नीति में कश्मीर हमेशा सबसे ऊपर रहा है. वहां की अवाम भी शायद उसी नेता के सिर पर सेहरा बांधना पसंद करती है जो कश्मीर की चिंगारी को सुलगाता रहे. ऐसे में जरदारी इससे कैसे अछूते रह सकते हैं. राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही आवाम को संबोधित करते हुए जरदारी ने ऐलान किया था कि मुल्क कश्मीर के मामले में बहुत जल्दी खुशखबरी सुनेगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा में मनमोहन सिंह से संबंधों को नए आयाम देने के वादे के बाद जरदारी ने पाकिस्तानी खबरनवीसों से जो कुछ कहा वह उनके दिल और जुबां के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. जरदारी ने कहा कि असल मुद्दा कश्मीर है और अगर द्विपक्षीय वार्ता से नतीजा नहीं निकलता तो हम संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाने से भी एतराज नहीं करेंगे. अभी हाल ही में जब जरदारी ने कश्मीर में हिंसक संघर्ष करने वालों को आतंकवादी करार दिया तो उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी, भारत सरकार ने दिल खोलकर पाकिस्तानी सदर के बयान का स्वागत किया लेकिन महज चंद घंटों के अंतराल में ही यह साफ हो गया कि पाक सिपहसलारों के जहन में कश्मीर के अलावा कुछ और ठहर ही नहीं सकता. पर यहां जरदारी की मंशा पर पूरी तरह सवालात उठाना भी जायज नहीं होगा.
जरदारी ने जिस तरह हिम्मत के साथ कश्मीर मसले पर इतनी ज्वलंत टिप्पणी करने का साहस दिखाया उतना शायद ही पाक का कोई शासक कर सका हो. पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ तो इन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा करते थे. वैसे यह अनायास ही नहीं है, जरदारी के इस बयान के पीछे कई कारण छिपे हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी कई चीजें हुई हैं, जो पाकिस्तान के खिलाफ जाती हैं. एक तो उसके सीमांत इलाके में अमेरिका की सैन्य कार्रवाई बदस्तूर जारी है जिसे लेकर पाक में आक्रोश है. दूसरे, अमेरिका और फ्रांस के साथ हुए भारत के परमाणु समझौते ने इस्लामाबाद को चिंतित और कुंठित कर दिया है. ऐसे में भारत को पहले की तरह अपना दुश्मन बताकर पाकिस्तान यूरोप या अमेरिका से कुछ हासिल नहीं कर सकता. लिहाजा सीमा पार से दोस्ती की पींगे बढ़ाने की बातें कही जा रही हैं. रह-रहकर संघर्ष विराम का उल्लंघन और पाक प्रधानमंत्री गिलानी की चीन से परमाणु करार की रट पड़ोसी मुल्क की कुंठा का ही परिणाम है. बीते कुछ दिनों में ही पाकिस्तानी फौज द्वारा सीमा पार से अकारण ही गोलीबारी की अनगिनत खबरें सामने आ चुकी हैं. घुसपैठ का आलम यह है कि अगर हमारी सेना सतर्क नहीं होती तो कारगिल की पुनरावृत्ति हो चुकी होती. कश्मीर में अलगाववादियों को आईएसआई और पाक सेना का पूरा समर्थन मिल रहा है. देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों की संलिप्तता किसी से छिपी नहीं है. यही कारण है कि पाकिस्तान की नई सरकार भारत परस्त नजरिए अपनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी छवि सुधारना चाहती है. करार के बाद भारत न केवल अमेरिका के नजदीक आ गया है बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में टांग फैलाकर बैठने का हक भी हासिल हो गया है. फ्रांस आदि देशों से भारत की बढ़ती नजदीकी पाक की परेशानी को और बढ़ा रही है. दरअसल अमेरिका से पाक के रिश्ते अब उतने मधुर नहीं रहे हैं जितने पहले थे. अपनी सीमा में अमेरिकी सैनिकों की कार्रवाई से बौखलाकर पाक पीएम गिलानी ने जिस लहजे में अमेरिका को चेताया था उससे साफ है कि बुश-मुश द्वारा तैयार की गई रिश्तों की गांठ ढीली पड़ गई है.
पाकिस्तान ने आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से सालों तक जो मोटी रकम वसूली थी उस पर ओबामा या मैक्केन के आने के बाद रोक लग सकी है. पाक की छवि वैसे भी विश्व पटल पर आतंकवादी देश के रूप में बनी हुई है, ऐसे में अमेरिका से लेकर यूरोप तक भारत के दोस्तों की फेहरिस्त बढ़ने से पाक की भारत विरोधी गतिविधि उसके संकटकाल को और लंबा खींच सकती है, लिहाजा सोची-समझी रणनीति के तहत ही कश्मीर पर जरदारी का बयान और आतंकवाद के सफाए के लिए मिलकर लड़ने जैसे बातें पड़ोसी मुल्क के सियासतदां की तरफ से आ रही है. पाकिस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां के शासकों ने कभी भारत का भला नहीं चाहा, बात चाहे बेनजीर की हो, शरीफ की हो या फिर मुशर्रफ की हर किसी के दिल में कुछ और जुबां पर कुछ और रहा, सबकी यही कोशिश रही कि कश्मीर छीनकर हिंदुस्तान की हरियाली को उजाड़ा जाए. भारत हमेशा ही पाकिस्तान को अपना दोस्त, अपना भाई समझता रहा है लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा दोस्ती को बहुत हल्के में लिया. अगर इस्लामाबाद असलियत में भारत से दोस्ती बढ़ाना चाहता है केवल खुशफहमी वाले बयानात से कुछ नहीं होगा उसे जमीनी स्तर पर कदम आगे बढ़ाना होगा, पर अफसोस ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ती.
नीरज नैयर
मिस्टर 10 पसर्ेंट से राष्ट्रपति के ओहदे तक पहुंचे आसिफ अली जरदारी भारत के साथ रिश्तों की गर्माहट को और बढ़ाना चाहते हैं. बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा में जरदारी ने गर्मजोशी से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस्तकबाल करके यह जताने का प्रयास किया कि वो दहशतगर्दी के खेल से हटकर कुछ करने की सोच रहे हैं. बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाक हुकूमत के अंदरूनी मामलों में उलझे रहने के चलते भारत-पाक बातचीत सर्द खाने में पड़ी थी जिसे पाकिस्तानी राष्ट्रपति फिर से माकूल माहौल में लाने की जद्दोजहद करते दिखाई पड़ रहे हैं. दोनों देशों ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने, संयुक्त आतंकवाद निरोधक नीति पर काम करने एवं द्विपक्षीय व्यापार के लिए सीमा की बंदिशें खोलने पर सहमति जताई है.
जिसे निहायत ही अच्छा कदम समझा जा सकता है. वैसे इस बात में कोई शक-शुबहा नहीं कि जरदारी जब से सत्ता में आए हैं भारत-पाक के बीच उपजी कटुता को मिटाने की बातें करते रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के तख्तोताज पर काबिज हुक्मरानों की ऐसी भारत पसंदगी ने वक्त दर वक्त जो निशानात रिश्तों की तस्वीर पर छोड़े हैं उससे जरदारी की बातों को सहज ही स्वीकारा नहीं जा सकता. पाकिस्तान की विदेश नीति में कश्मीर हमेशा सबसे ऊपर रहा है. वहां की अवाम भी शायद उसी नेता के सिर पर सेहरा बांधना पसंद करती है जो कश्मीर की चिंगारी को सुलगाता रहे. ऐसे में जरदारी इससे कैसे अछूते रह सकते हैं. राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही आवाम को संबोधित करते हुए जरदारी ने ऐलान किया था कि मुल्क कश्मीर के मामले में बहुत जल्दी खुशखबरी सुनेगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा में मनमोहन सिंह से संबंधों को नए आयाम देने के वादे के बाद जरदारी ने पाकिस्तानी खबरनवीसों से जो कुछ कहा वह उनके दिल और जुबां के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. जरदारी ने कहा कि असल मुद्दा कश्मीर है और अगर द्विपक्षीय वार्ता से नतीजा नहीं निकलता तो हम संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाने से भी एतराज नहीं करेंगे. अभी हाल ही में जब जरदारी ने कश्मीर में हिंसक संघर्ष करने वालों को आतंकवादी करार दिया तो उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी, भारत सरकार ने दिल खोलकर पाकिस्तानी सदर के बयान का स्वागत किया लेकिन महज चंद घंटों के अंतराल में ही यह साफ हो गया कि पाक सिपहसलारों के जहन में कश्मीर के अलावा कुछ और ठहर ही नहीं सकता. पर यहां जरदारी की मंशा पर पूरी तरह सवालात उठाना भी जायज नहीं होगा.
जरदारी ने जिस तरह हिम्मत के साथ कश्मीर मसले पर इतनी ज्वलंत टिप्पणी करने का साहस दिखाया उतना शायद ही पाक का कोई शासक कर सका हो. पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ तो इन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा करते थे. वैसे यह अनायास ही नहीं है, जरदारी के इस बयान के पीछे कई कारण छिपे हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी कई चीजें हुई हैं, जो पाकिस्तान के खिलाफ जाती हैं. एक तो उसके सीमांत इलाके में अमेरिका की सैन्य कार्रवाई बदस्तूर जारी है जिसे लेकर पाक में आक्रोश है. दूसरे, अमेरिका और फ्रांस के साथ हुए भारत के परमाणु समझौते ने इस्लामाबाद को चिंतित और कुंठित कर दिया है. ऐसे में भारत को पहले की तरह अपना दुश्मन बताकर पाकिस्तान यूरोप या अमेरिका से कुछ हासिल नहीं कर सकता. लिहाजा सीमा पार से दोस्ती की पींगे बढ़ाने की बातें कही जा रही हैं. रह-रहकर संघर्ष विराम का उल्लंघन और पाक प्रधानमंत्री गिलानी की चीन से परमाणु करार की रट पड़ोसी मुल्क की कुंठा का ही परिणाम है. बीते कुछ दिनों में ही पाकिस्तानी फौज द्वारा सीमा पार से अकारण ही गोलीबारी की अनगिनत खबरें सामने आ चुकी हैं. घुसपैठ का आलम यह है कि अगर हमारी सेना सतर्क नहीं होती तो कारगिल की पुनरावृत्ति हो चुकी होती. कश्मीर में अलगाववादियों को आईएसआई और पाक सेना का पूरा समर्थन मिल रहा है. देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों की संलिप्तता किसी से छिपी नहीं है. यही कारण है कि पाकिस्तान की नई सरकार भारत परस्त नजरिए अपनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी छवि सुधारना चाहती है. करार के बाद भारत न केवल अमेरिका के नजदीक आ गया है बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में टांग फैलाकर बैठने का हक भी हासिल हो गया है. फ्रांस आदि देशों से भारत की बढ़ती नजदीकी पाक की परेशानी को और बढ़ा रही है. दरअसल अमेरिका से पाक के रिश्ते अब उतने मधुर नहीं रहे हैं जितने पहले थे. अपनी सीमा में अमेरिकी सैनिकों की कार्रवाई से बौखलाकर पाक पीएम गिलानी ने जिस लहजे में अमेरिका को चेताया था उससे साफ है कि बुश-मुश द्वारा तैयार की गई रिश्तों की गांठ ढीली पड़ गई है.
पाकिस्तान ने आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से सालों तक जो मोटी रकम वसूली थी उस पर ओबामा या मैक्केन के आने के बाद रोक लग सकी है. पाक की छवि वैसे भी विश्व पटल पर आतंकवादी देश के रूप में बनी हुई है, ऐसे में अमेरिका से लेकर यूरोप तक भारत के दोस्तों की फेहरिस्त बढ़ने से पाक की भारत विरोधी गतिविधि उसके संकटकाल को और लंबा खींच सकती है, लिहाजा सोची-समझी रणनीति के तहत ही कश्मीर पर जरदारी का बयान और आतंकवाद के सफाए के लिए मिलकर लड़ने जैसे बातें पड़ोसी मुल्क के सियासतदां की तरफ से आ रही है. पाकिस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां के शासकों ने कभी भारत का भला नहीं चाहा, बात चाहे बेनजीर की हो, शरीफ की हो या फिर मुशर्रफ की हर किसी के दिल में कुछ और जुबां पर कुछ और रहा, सबकी यही कोशिश रही कि कश्मीर छीनकर हिंदुस्तान की हरियाली को उजाड़ा जाए. भारत हमेशा ही पाकिस्तान को अपना दोस्त, अपना भाई समझता रहा है लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा दोस्ती को बहुत हल्के में लिया. अगर इस्लामाबाद असलियत में भारत से दोस्ती बढ़ाना चाहता है केवल खुशफहमी वाले बयानात से कुछ नहीं होगा उसे जमीनी स्तर पर कदम आगे बढ़ाना होगा, पर अफसोस ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ती.
नीरज नैयर
Saturday, October 4, 2008
बिल चुकाने के पैसे नहीं किस बात का राष्ट्रीय खेल
नीरज नैयरजब केपीएस गिल को आईएचएफ से बाहर का रास्ता दिखाया गया तो पूरे देश के हॉकी प्रेमियों में जश् का माहौल था. उम्मीदें लगाई जा रही थीं कि हॉकी अब फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकेगी. मैदानों में लगने वाला खिलाड़ियों का जमावड़ा इस बात की गवाही दे रहा था कि क्रिकेट के काले बादलों ने भले ही हॉकी को कुछ देर के लिए ढक लिया हो मगर उसकी चमक आज भी कायम है. पर अब लगता है कि वो जोश, वो जुनून, वो स्टिक के सहारे दुनिया जीतने का जज्बा सब बेकार है. सच तो यह है कि इस मुल्क में न तो हॉकी का उद्धार हो सकता है और न इससे ताल्लुकात रखने वालों का. अप्रैल-मई में ऑस्ट्रेलिया में जो कुछ भी हुआ उसके बाद शायद ही कोई हॉकी में अपना भविष्य देखना चाहेगा. पूरे देश के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि टीम के पास खाने का बिल चुकाने तक के पैसे नहीं थे. वो तो भला हो उस भारतीय मूल के व्यक्ति का जिसने बिल चुकाकर विदेशी सरजमीं पर देश की इात को तार-तार होने से बचा लिया. लेकिन अब वो बेचारा खुद अपनी 7.2 लाख की भारी-भरकम रकम वापस लेने के लिए दर-दर भटक रहा है.
इसे हॉकी और उसके प्रेमियों के प्रति उदासीनता ही कहा जाएगा कि आईएचएफ से लेकर खेल मंत्रालय तक देश की लाज रखने वाले की सुनने को तैयार नहीं है. छह महीने गुजर जाने के बाद भी उसे रकम नहीं लौटाई गई है. ओलंपिक में क्वालीफाई न कर पाना भले ही भारतीय हॉकी के इतिहास का सबसे काला दिन हो मगर इस वाक्य के बाद अब यह उम्मीद लगाना बेमानी होगा की हॉकी का स्वर्णिम युग कभी लौट के आएगा. हॉकी अब पूरी तरह से खत्म हो गई है. इसको बचाने के लिए अब कोई आगे नहीं आने वाला. किसी जमाने में हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के दौर में इसके पास बहुत माई-बाप थे, लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी लोगों की जुंबा पर हैं मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार को लोगों ने कब का भुला दिया. आलम यह है कि हॉकी आज केवल गली-मोहल्लों का खेल बनकर ही रह गई है. हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है. इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है. हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था. यह जानकर हैरत होती है कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई के पास इतने पैसे नहीं थे. मगर अब क्रिकेटरों के लिए करोड़ों की बोली लग रही है. जो शाहरुख खान चक दे इंडिया में हॉकी के दीवाने दिखाए थे वो असल जिंदगी में क्रिकेट खरीद रहे हैं. जो मां-बाप यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा हॉकी में समय बर्बाद करे वो बिल्कुल सही हैं. क्रिकेट में पैसा है, शौहरत है, सम्मान है. पर हॉकी में क्या है. न पैसा, न शौहरत और न ही सम्मान.
टीम इंडिया जब कोई टूर्नामेंट जीतकर आती है तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते हैं मगर जब हॉकी खिलाड़ी जीतकर आते हैं तो उनके स्वागत के लिए भी कोई आना गंवारा नहीं समझता. जब सरकार खुद राष्ट्रीय खेल को दफन करने पर अमादा हो तो फिर किसी और को दोष देने से क्या फायदा. देश में अब तक सरकार स्पोट्र्स कल्चर बनाने में नाकाम रही है. नेशनल स्पोट्र्स पॉलिसी की बातें भी धूल फांक रही हैं, जिससे तहत ग्रामीण स्तर पर खेलों को पहुंचाकर प्रतिभा खोजने का लक्ष्य रखा गया था. इसके अलावा सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश में हॉकी के लिए पर्याप्त मैदान तक नहीं है. स्कूल और कॉलेज की हॉकी आज भी घास पर खेली जाती है. ऐसे में एस्ट्रो टर्फ की रफ्तार से खिलाड़ी कैसे तालमेल बिठा सकते हैं. देश भर में लगभग एक दर्जन मैदान में ही एस्ट्रो टर्फ बिछी है और रही सही कसर सरकार ने पिछले साल हॉकी को अपनी प्राथमिक सूची से हटाकर कर दी है. आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे. और मॉस्को में पॉलीग्रास पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था. सरकार शायद समझती है कि कमजोर कंधों को सहारे की जरूरत नहीं होती तभी तो दमतोड़ रही हॉकी के साथ ऐसा सौतेला बर्ताव किया जा रहा है. यह हॉकी खिलाड़ियों की बदकिस्तमी है कि राष्ट्रीय खेल से जुड़े होने के बाद भी उन्हें इस तरह की जलालत अमूमन झेलनी पड़ती है.
चाहे कोई लाख दिलासे दे मगर कड़वी सच्चाई यही है कि स्टिक के जादूगर ध्यानचंद के सपनों का अब अंत हो चुका है. अगर ध्यानचंद आज होते तो शायद इस घटना के बाद वो भी अपनी हॉकी को एक ऐसे खूंटे पर टांग देते जहां से उसे चाहकर भी उतारना मुमकिन नहीं होता. ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा और विजेंद्र के पदक जीतने के बाद अभी जरूर अन्य खेलों को प्रोत्साहन देने की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं मगर वक्त गुजरते ही यह बातें हॉकी की तरह धीरे-धीरे दम तोड़ देंगी. क्रिकेट के अलावा हमारे देश में किसी और खेल का कोई स्थान नहीं यह बात अब हमें समझ लेनी चाहिए, हमें भूल जाना चाहिए राष्ट्रीय खेल भी कुछ होता है शायद तब ऐसे वाक्यों पर न शर्म से आंखें झुकेंगी और न दिल रोएगा.
नीरज नैयर9893121591
इसे हॉकी और उसके प्रेमियों के प्रति उदासीनता ही कहा जाएगा कि आईएचएफ से लेकर खेल मंत्रालय तक देश की लाज रखने वाले की सुनने को तैयार नहीं है. छह महीने गुजर जाने के बाद भी उसे रकम नहीं लौटाई गई है. ओलंपिक में क्वालीफाई न कर पाना भले ही भारतीय हॉकी के इतिहास का सबसे काला दिन हो मगर इस वाक्य के बाद अब यह उम्मीद लगाना बेमानी होगा की हॉकी का स्वर्णिम युग कभी लौट के आएगा. हॉकी अब पूरी तरह से खत्म हो गई है. इसको बचाने के लिए अब कोई आगे नहीं आने वाला. किसी जमाने में हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के दौर में इसके पास बहुत माई-बाप थे, लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी लोगों की जुंबा पर हैं मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार को लोगों ने कब का भुला दिया. आलम यह है कि हॉकी आज केवल गली-मोहल्लों का खेल बनकर ही रह गई है. हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है. इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है. हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था. यह जानकर हैरत होती है कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई के पास इतने पैसे नहीं थे. मगर अब क्रिकेटरों के लिए करोड़ों की बोली लग रही है. जो शाहरुख खान चक दे इंडिया में हॉकी के दीवाने दिखाए थे वो असल जिंदगी में क्रिकेट खरीद रहे हैं. जो मां-बाप यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा हॉकी में समय बर्बाद करे वो बिल्कुल सही हैं. क्रिकेट में पैसा है, शौहरत है, सम्मान है. पर हॉकी में क्या है. न पैसा, न शौहरत और न ही सम्मान.
टीम इंडिया जब कोई टूर्नामेंट जीतकर आती है तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते हैं मगर जब हॉकी खिलाड़ी जीतकर आते हैं तो उनके स्वागत के लिए भी कोई आना गंवारा नहीं समझता. जब सरकार खुद राष्ट्रीय खेल को दफन करने पर अमादा हो तो फिर किसी और को दोष देने से क्या फायदा. देश में अब तक सरकार स्पोट्र्स कल्चर बनाने में नाकाम रही है. नेशनल स्पोट्र्स पॉलिसी की बातें भी धूल फांक रही हैं, जिससे तहत ग्रामीण स्तर पर खेलों को पहुंचाकर प्रतिभा खोजने का लक्ष्य रखा गया था. इसके अलावा सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश में हॉकी के लिए पर्याप्त मैदान तक नहीं है. स्कूल और कॉलेज की हॉकी आज भी घास पर खेली जाती है. ऐसे में एस्ट्रो टर्फ की रफ्तार से खिलाड़ी कैसे तालमेल बिठा सकते हैं. देश भर में लगभग एक दर्जन मैदान में ही एस्ट्रो टर्फ बिछी है और रही सही कसर सरकार ने पिछले साल हॉकी को अपनी प्राथमिक सूची से हटाकर कर दी है. आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे. और मॉस्को में पॉलीग्रास पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था. सरकार शायद समझती है कि कमजोर कंधों को सहारे की जरूरत नहीं होती तभी तो दमतोड़ रही हॉकी के साथ ऐसा सौतेला बर्ताव किया जा रहा है. यह हॉकी खिलाड़ियों की बदकिस्तमी है कि राष्ट्रीय खेल से जुड़े होने के बाद भी उन्हें इस तरह की जलालत अमूमन झेलनी पड़ती है.
चाहे कोई लाख दिलासे दे मगर कड़वी सच्चाई यही है कि स्टिक के जादूगर ध्यानचंद के सपनों का अब अंत हो चुका है. अगर ध्यानचंद आज होते तो शायद इस घटना के बाद वो भी अपनी हॉकी को एक ऐसे खूंटे पर टांग देते जहां से उसे चाहकर भी उतारना मुमकिन नहीं होता. ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा और विजेंद्र के पदक जीतने के बाद अभी जरूर अन्य खेलों को प्रोत्साहन देने की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं मगर वक्त गुजरते ही यह बातें हॉकी की तरह धीरे-धीरे दम तोड़ देंगी. क्रिकेट के अलावा हमारे देश में किसी और खेल का कोई स्थान नहीं यह बात अब हमें समझ लेनी चाहिए, हमें भूल जाना चाहिए राष्ट्रीय खेल भी कुछ होता है शायद तब ऐसे वाक्यों पर न शर्म से आंखें झुकेंगी और न दिल रोएगा.
नीरज नैयर9893121591
Monday, September 22, 2008
आखिर क्रिकेटरों की जेब से पैसा क्यों नहीं निकलता
नीरज नैयर
ये एक विचारणीय प्रश् है कि आखिर हमारे क्रिकेटरों की जेब से पैसा क्यों नहीं निकलता. ऐसे वक्त में जब पूरा देश बाढ़ पीड़ित बिहारवासियों की मदद को बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है. हमारे क्रिकेटर खामोश बैठे हैं. बॉलीवुड से लेकर उद्योगपतियों तक, राजनीतिज्ञों से लेकर आम आदमी तक हर कोई अपनी-आपनी सामर्थ्य के मुताबिक प्रकृति का कहर झेल रहे लोगों के आंसू पोछने की कोशिश में लगा है. बिहार में कोसी ने जो तबाही मचाई है उसकी भरपाई तो शायद ही हो पाए मगर थोड़ी-थोड़ी मदद दाने-दाने मोहताज लोगों को कुछ सहारा जरूर दे सकती है. बिहार में विकरालता और बेबसी का आलम ये हो चला है किखाने के लिए खून बहाया जा रहा है. लोग खाद्य सामग्री के लिए एक-दूसरे को कुचलने पर आमादा है. पर हमारे क्रिकेटरों के कानों तक शायद उन लोगों की करुण पुकार अब तक नहीं पहुंच पाई है. हमारे देश में क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभलरहा है.
सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. धोनी एक फीता काटने के 50 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से ही कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्य प्राप्ति में प्रेरक होता है. बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है.
बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. बात चाहे गुजरात और जम्मू-कश्मीर में भूकंप की हो या सूनामी जैसी आपदाओं की बॉलीवुड कलाकार हमेशा दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल उठते रहे हैं. कोई इसे पब्लिसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें. यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी, अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है.
नीरज नैयर
(9893121591)
ये एक विचारणीय प्रश् है कि आखिर हमारे क्रिकेटरों की जेब से पैसा क्यों नहीं निकलता. ऐसे वक्त में जब पूरा देश बाढ़ पीड़ित बिहारवासियों की मदद को बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है. हमारे क्रिकेटर खामोश बैठे हैं. बॉलीवुड से लेकर उद्योगपतियों तक, राजनीतिज्ञों से लेकर आम आदमी तक हर कोई अपनी-आपनी सामर्थ्य के मुताबिक प्रकृति का कहर झेल रहे लोगों के आंसू पोछने की कोशिश में लगा है. बिहार में कोसी ने जो तबाही मचाई है उसकी भरपाई तो शायद ही हो पाए मगर थोड़ी-थोड़ी मदद दाने-दाने मोहताज लोगों को कुछ सहारा जरूर दे सकती है. बिहार में विकरालता और बेबसी का आलम ये हो चला है किखाने के लिए खून बहाया जा रहा है. लोग खाद्य सामग्री के लिए एक-दूसरे को कुचलने पर आमादा है. पर हमारे क्रिकेटरों के कानों तक शायद उन लोगों की करुण पुकार अब तक नहीं पहुंच पाई है. हमारे देश में क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभलरहा है.
सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. धोनी एक फीता काटने के 50 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से ही कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्य प्राप्ति में प्रेरक होता है. बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है.
बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. बात चाहे गुजरात और जम्मू-कश्मीर में भूकंप की हो या सूनामी जैसी आपदाओं की बॉलीवुड कलाकार हमेशा दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल उठते रहे हैं. कोई इसे पब्लिसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें. यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी, अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है.
नीरज नैयर
(9893121591)
Wednesday, September 17, 2008
गुस्ताव की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन
नीरज नैयर
कैरोबियाई देशों में तबाही मचाने के बाद अब समुद्री तूफान गुस्ताव अमेरिका के लिए दहशत बना हुआ है. गुस्ताव को तूफानों का बाप कहा जा रहा है. मौसम विज्ञानी भी इसकी भयावहता से हैरान हैं. वैसेयह कोई पहला मौका नहीं है जब समुद्र से तबाही की खौफनाक तस्वीर सामने आई हो. बीते दिनों म्यांमार में कहर ढ़ाने वाला नर्गिस और अमेरिका को रुलाने वाला कैटरीना भी आमतौर पर शांत रहने वाले समुद्र का रौद्र रूप था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर गुस्ताव जैसे समुद्री तूफानों की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन है. या इन्हें महज प्राकृतिक आपदा कहकर हम अपना पल्ला झाड़ सकते हैं. शायद नहीं. गुस्ताव, नर्गिस और कैटरीना जैसे तूफान महज प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि मानव की कारगुजारियों का ही नतीजा है. ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी सच्चाई है जिसे जानकार भी हम अंजान बने बैठे हैं.
प्रकृति से छेड़छाड़ के अनगिनत खौफनाक चेहरे हमारे सामने आ चुके हैं बावजूद इसके विकास की अंधी दौड़ में हम पर्यावरण संतुलन की बातों को हम हवा में उडाए जा रहे हैं. अफसोस की बात तो यह है कि इस अहम् मसले पर ठोस समाधान निकालने के बजाए विकसित और विकासशील देश आपसी लड़ाई में उलझे हैं. अमेरिका कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत और चीन आदि देशों को दोषी ठहरा रहा है, तो भारत अमेरिका को. अमेरिका का तर्क है कि विकसित बनने की होड़ में विकासशील देश पर्यावरण को अंधाधुंध तरीके से नुकसान पहुंचा रहे हैं. जबकि विकसाशील देशों का कहना है कि अमेरिका आदि देश अपने गिरेबां में झांके बिना दूसरों पर दोषारोपण कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए दिसंबर 2007 में बाली में हुआ सम्मेलन भी इसी नोंक-झोंक की भेंट चढ़ गया था. पिछली एक सदी में आबादी में इजाफे, बढ़ते औद्योगिकीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के चलते पारिस्थितिकीय संतुलन खत्म होने लगा है. जिसके चलते गंभीर खतरे उत्पन्न हो रहे हैं
ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि विनाश को जन्म दे रही है. इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में साफ संकेत दिया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते तूफानों की विकरालता में वृद्धि होगी और ऐसा बाकायदा हो रहा है. 1970 के बाद उत्तरी अटलांटिक में ट्रोपिकल तूफानों में बढ़ोतरी हुई है तथा समुद्र के जलस्तर और सतह के तापमान में भी वृद्धि हो रही है. लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीट पर ही तापमान पहले ही अपेक्षा कहीं अधिक गर्म हो गया है.
पिछले कुछ सालों में महासागर का तापमान सामान्य स्तर से करीब 20 गुना यादा गर्म पाया गया है. भारतीय समुद्र क्षेत्र का भी जलस्तर पहले से कहीं यादा तेजी से बढ़ रहा है.अभी तक के आकलनों के अनुसार इसमें सालाना 1 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी हो रही थी लेकिन ताजा आकलन बताता है कि अब यह बढ़ोत्तरी सालाना 2.5 मिमी की दर से हो रही है. भारत का समुद्र तट 7500 किलोमीटर लंबा है और देश की 35 फीसदी आबादी समुद्र के तटों पर बसी हुई है. यानी 36-37 करोड़ लोगों के लिए भविष्य में खतरा उत्पन्न हो सकता है. जलस्तर में इजाफे के साथ-साथ समुद्र का तापमान भी बढ़ रहा है. इस सदी के म य तक यानी 2050 तक समुद्र के तापमान में 1.5-2 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो जाएगी. जबकि सदी के अंत तक यह बढ़ोतरी 2.3-3.5 डिग्री तक की होगी. ये आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं. क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीसवीं सदी के दौरान समुद्र के जलस्तर में कुल 1.7 मिमी की बढ़ोतरी हुई है. दूसरे, जलस्तर में सालाना बढ़ोतरी सिर्फ 0.5 फीसदी की रही है. 1993-2003 के दौरान समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी 0.7 मिमी सालाना रही है, जबकि ताजा आंकड़े इससे कहीं यादा भयावह हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है. हिमालय से लेकर अंटार्कटिक तक लेशियरों का पिघलना जारी है. ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारणों में से एक जहरीले रसायन डीडीटी के अंधाधुंध इस्तेमाल को भी माना जा रहा है. हालांकि अब इसका इस्तेमाल काफी कम हो गया है. लेकिन दो दशक पहले तक पूरी दुनिया में बतौर कीटनाशक इसका खूब इस्तेमाल होता था.
वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा के साथ डीडीटी के अंश ग्लेशियरों तक पहुंचते हैं और ऊंचे ग्लेशियरों की बर्फ में भंडारित होते रहते हैं जो अब बर्फ को गलाकर पानी बना रहे हैं. हाल में किए गए शोध में अंटार्कटिक में पाए जाने वाले पेंगुइन के रक्त में डीडीटी के अंश मिले हैं. इस आधार पर वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लेशियरों में अभी भी डीटीटी के कण मौजूद हैं जो इनके पिघलने का कारण बन रहे हैं. अंटार्कटिक में पिछले 30-40 सालों के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेज हुई है तथा औसत तापमान में छह डिग्री की बढ़ोतरी हुई है. हाल के वर्षों में जिस तेजी से दुनिया में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उतनी तेजी से पिछले 10 हजार वर्षों में कभी नहीं हुआ. वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन की दर को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक दुनिया का औसत तापमान दो डिग्री बढ़ जाएगा. जिससे समुद्र तल का स्तर भयंकर रफ्तार से बढ़ेगा, आंधियों और तूफान के साथ-साथ असहनीय गर्मी भी झेलनी पड़ेगी. इन आपदाओं में से कई सच्चाई बन कर हमारे सामने अब तक आ चुकी हैं.
दक्षिणी एशिया में पहले भीषण बाढ़ से लोगों का सामना बीस सालों में एक बार होता था लेकिन हाल के दशकों में पांच सालों में लोगों को भीषण बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ती है. यह दुखद है कि ग्लोबल वार्मिंग को नजरअंदाज करने का खामियाजा भुगतने के बाद भी हम इसे लेकर सचेत नहीं हो रहे हैं. जलवायु परिवर्तन को महज सरकार की जिम्मेदारी कहकर भी नहीं टाला जा सकता. हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी.
नीरज नैयर
9893121591
कैरोबियाई देशों में तबाही मचाने के बाद अब समुद्री तूफान गुस्ताव अमेरिका के लिए दहशत बना हुआ है. गुस्ताव को तूफानों का बाप कहा जा रहा है. मौसम विज्ञानी भी इसकी भयावहता से हैरान हैं. वैसेयह कोई पहला मौका नहीं है जब समुद्र से तबाही की खौफनाक तस्वीर सामने आई हो. बीते दिनों म्यांमार में कहर ढ़ाने वाला नर्गिस और अमेरिका को रुलाने वाला कैटरीना भी आमतौर पर शांत रहने वाले समुद्र का रौद्र रूप था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर गुस्ताव जैसे समुद्री तूफानों की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन है. या इन्हें महज प्राकृतिक आपदा कहकर हम अपना पल्ला झाड़ सकते हैं. शायद नहीं. गुस्ताव, नर्गिस और कैटरीना जैसे तूफान महज प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि मानव की कारगुजारियों का ही नतीजा है. ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी सच्चाई है जिसे जानकार भी हम अंजान बने बैठे हैं.
प्रकृति से छेड़छाड़ के अनगिनत खौफनाक चेहरे हमारे सामने आ चुके हैं बावजूद इसके विकास की अंधी दौड़ में हम पर्यावरण संतुलन की बातों को हम हवा में उडाए जा रहे हैं. अफसोस की बात तो यह है कि इस अहम् मसले पर ठोस समाधान निकालने के बजाए विकसित और विकासशील देश आपसी लड़ाई में उलझे हैं. अमेरिका कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत और चीन आदि देशों को दोषी ठहरा रहा है, तो भारत अमेरिका को. अमेरिका का तर्क है कि विकसित बनने की होड़ में विकासशील देश पर्यावरण को अंधाधुंध तरीके से नुकसान पहुंचा रहे हैं. जबकि विकसाशील देशों का कहना है कि अमेरिका आदि देश अपने गिरेबां में झांके बिना दूसरों पर दोषारोपण कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए दिसंबर 2007 में बाली में हुआ सम्मेलन भी इसी नोंक-झोंक की भेंट चढ़ गया था. पिछली एक सदी में आबादी में इजाफे, बढ़ते औद्योगिकीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के चलते पारिस्थितिकीय संतुलन खत्म होने लगा है. जिसके चलते गंभीर खतरे उत्पन्न हो रहे हैं
ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि विनाश को जन्म दे रही है. इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में साफ संकेत दिया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते तूफानों की विकरालता में वृद्धि होगी और ऐसा बाकायदा हो रहा है. 1970 के बाद उत्तरी अटलांटिक में ट्रोपिकल तूफानों में बढ़ोतरी हुई है तथा समुद्र के जलस्तर और सतह के तापमान में भी वृद्धि हो रही है. लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीट पर ही तापमान पहले ही अपेक्षा कहीं अधिक गर्म हो गया है.
पिछले कुछ सालों में महासागर का तापमान सामान्य स्तर से करीब 20 गुना यादा गर्म पाया गया है. भारतीय समुद्र क्षेत्र का भी जलस्तर पहले से कहीं यादा तेजी से बढ़ रहा है.अभी तक के आकलनों के अनुसार इसमें सालाना 1 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी हो रही थी लेकिन ताजा आकलन बताता है कि अब यह बढ़ोत्तरी सालाना 2.5 मिमी की दर से हो रही है. भारत का समुद्र तट 7500 किलोमीटर लंबा है और देश की 35 फीसदी आबादी समुद्र के तटों पर बसी हुई है. यानी 36-37 करोड़ लोगों के लिए भविष्य में खतरा उत्पन्न हो सकता है. जलस्तर में इजाफे के साथ-साथ समुद्र का तापमान भी बढ़ रहा है. इस सदी के म य तक यानी 2050 तक समुद्र के तापमान में 1.5-2 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो जाएगी. जबकि सदी के अंत तक यह बढ़ोतरी 2.3-3.5 डिग्री तक की होगी. ये आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं. क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीसवीं सदी के दौरान समुद्र के जलस्तर में कुल 1.7 मिमी की बढ़ोतरी हुई है. दूसरे, जलस्तर में सालाना बढ़ोतरी सिर्फ 0.5 फीसदी की रही है. 1993-2003 के दौरान समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी 0.7 मिमी सालाना रही है, जबकि ताजा आंकड़े इससे कहीं यादा भयावह हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है. हिमालय से लेकर अंटार्कटिक तक लेशियरों का पिघलना जारी है. ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारणों में से एक जहरीले रसायन डीडीटी के अंधाधुंध इस्तेमाल को भी माना जा रहा है. हालांकि अब इसका इस्तेमाल काफी कम हो गया है. लेकिन दो दशक पहले तक पूरी दुनिया में बतौर कीटनाशक इसका खूब इस्तेमाल होता था.
वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा के साथ डीडीटी के अंश ग्लेशियरों तक पहुंचते हैं और ऊंचे ग्लेशियरों की बर्फ में भंडारित होते रहते हैं जो अब बर्फ को गलाकर पानी बना रहे हैं. हाल में किए गए शोध में अंटार्कटिक में पाए जाने वाले पेंगुइन के रक्त में डीडीटी के अंश मिले हैं. इस आधार पर वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लेशियरों में अभी भी डीटीटी के कण मौजूद हैं जो इनके पिघलने का कारण बन रहे हैं. अंटार्कटिक में पिछले 30-40 सालों के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेज हुई है तथा औसत तापमान में छह डिग्री की बढ़ोतरी हुई है. हाल के वर्षों में जिस तेजी से दुनिया में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उतनी तेजी से पिछले 10 हजार वर्षों में कभी नहीं हुआ. वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन की दर को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक दुनिया का औसत तापमान दो डिग्री बढ़ जाएगा. जिससे समुद्र तल का स्तर भयंकर रफ्तार से बढ़ेगा, आंधियों और तूफान के साथ-साथ असहनीय गर्मी भी झेलनी पड़ेगी. इन आपदाओं में से कई सच्चाई बन कर हमारे सामने अब तक आ चुकी हैं.
दक्षिणी एशिया में पहले भीषण बाढ़ से लोगों का सामना बीस सालों में एक बार होता था लेकिन हाल के दशकों में पांच सालों में लोगों को भीषण बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ती है. यह दुखद है कि ग्लोबल वार्मिंग को नजरअंदाज करने का खामियाजा भुगतने के बाद भी हम इसे लेकर सचेत नहीं हो रहे हैं. जलवायु परिवर्तन को महज सरकार की जिम्मेदारी कहकर भी नहीं टाला जा सकता. हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी.
नीरज नैयर
9893121591
Tuesday, September 9, 2008
मुशर्रफ का जाना भारत पर भारी !
नीरज नैयर
जैसे-तैसे जम्हूरियत के रास्ते पर आया पाकिस्तान फिर अस्थिरता के अंधेरे में डूबता दिखाई दे रहा है. नवाज और जरदारी के बेमेल गठबंधन के बेमेल फैसले ने इस विचारणीय प्रश को जन्म दिया है कि क्या मुशर्रफ को हटाने से पाक में राजनीतिक स्थायित्व कामय रह पाएगा? जनरल के जाने के चंद घंटे बाद ही जिस तरह की राजनीति उथल-पुथल और अराजकता पाक में उत्पन्न हुई है उससे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि पाक का भविष्य्य कितना उज्वल होगा. जरदारी के मुशर्रफ का चोला पहनने की जल्दबाजी और बर्खास्त जजों की बहाली के मसले पर आनाकानी के चलते शरीफ ने गठबंधन की गांठ खोल दी हैं. शरीफ जजों की बहाली के मसले पर अड़े हुए थे जबकि जरदारी ऐसा कुछ नहीं करना चाहते. जरदारी को लगता है कि अगर पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी को बहाल किया गया तो वह खुद भी शिकार बन सकते हैं. ज्यादा उम्मीद इस बात की है कि मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी बहाल होकर आसिफ अलीजरदारी को मुशर्रफ के बनाए अधिनियम के तहत मिलने वाली छूट खत्म कर दें. जिसके बाद उनका बचना मुश्किल होगा. उन पर भष्टाचार के ढ़ेरों मामले थे जिन्हें समझौते के तहत जनरल ने खत्म कर दिए थे. ऐसे में सरकार भले ही न गिरे मगर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों छोरों पर अस्थिरता का संकट हमेशा बरकरार रहेगा, जो खुद पाकिस्तान और उसके पड़ोसी मुल्क यानी भारत के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं है।
इतिहास गवाह है कि जब भी पड़ोस में सियासी हलचल उठी है उसका सीधा असर हिंदुस्तान की हरियाली पर पड़ा है. मुशर्रफ के त्यागपत्र से पाकिस्तान में आईएसआई और कट्टरपंथियों का वहां की राजनीति में सीधा हस्तक्षेप होने की आशंका काफी हद तक बढ़ गई है. हो सकता है कि मुल्क के सियासी मामलों में फौज का दखल भी दोबारा शुरू हो जाए. जैसे कि जनरल जिया उल हक की विमान हादसे में मौत के बाद हुआ था. जिससे भीरत के साथ उसके रिश्तों में फिर से तल्खी लौट सकती है. कश्मीर मुद्दे और भारत के साथ रिश्तों को लेकर पाक की सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में रहती है, लिहाजा कश्मीर पर पाकिस्तान कोई नई फुलझड़ी छोड़ सकता है. वैसे उसने इसकी पहल भी कर दी है. पाक संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह करने की बात कही गई है. इसके साथ ही पाक एक समिति भी बनाने जा रहा है जिसका काम घाटी में मानवाधिकार उल्लंघन के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पेश करना होगा. मतलब यह साफ है कि पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर को बर्निंग इश्यू बनाने जा रहा है. वो जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर चल रहे महासंग्राम में गुपचुप तौर पर अपने हिस्सेदारी बढ़ाकर यह दिखाना चाहता है कि भारत सरकार के साथ कश्मीरियों का हित सुरक्षित नहीं है. अब तक कश्मीर पर गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी मगर पाक के इस कदम के चलते उसका पटरी से उतरना तय है. कश्मीर मसले को जितना उछाला जाएगा, भारत पर उतना ही दबाव पड़ेगा. पाकिस्तान इस बात को बखूबी जानता है, इसलिए उसने मुशर्रफ की विदाई के तुरंत बाद अपना घर संभालने के बजाए कश्मीर पर टांग अड़ाना ज्यादा बेहतर समझा. मुशर्रफ ने भले ही कारगिल के जरिए भारत में सेंध लगाने की कोशिश की हो मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में ही दोनों देश एक-दूसरे के करीब आने को बेकरार दिखे।
यह काबिले गौर है कि जनरल के शासन में 2004 के संघर्षविराम का एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. जबकि लोकतांत्रिक सरकार बनने के बाद पाकिस्तानी फौज सीमा पर गोलीबारी करने को आतुर नजर आ रही है. पाकिस्तान हुक्मरानों की भारत के प्रति दिलचस्पी शुरू से ही रही है. 1971 की लड़ाई में मुंह की खाने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि बांग्लादेश हमारा आंतरिक मामला था और भारत ने इसमें हस्तक्षेप कर हमारी टांग काटी है. हम भारत का सिर काट कर ही दम लेंगे. तब से पाकिस्तान कश्मीर को भारत से छीनकर हमारा सर कलम करने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. मुशर्रफ ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया. जम्हूरियत की बेटी कही जाने वाली बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद चुनी गई नवाज और जरदारी की गठबंधन सरकार को लेकर तमाम उम्मीदें पाली गईं थीं. कहा जा रहा था पाकिस्तान कश्मीर के समाधान की दिशा में कोई सार्थक पहल कर सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उल्टा पाकिस्तान की नई सरकार ने भारत सिरदर्दी जरूर बढ़ा दी।
जयपुर धमाके, काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमला आदि कुछ ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने अहसास दिलाया कि आईएसआई अब पहले से ज्यादा स्वतंत्र होकर काम कर रही है. भारत ने इस बात को बार-बार दोहराया कि काबुल धमाके में आईएसआई का हाथ है मगर पाक प्रधानमंत्री गिलानी से नवाज और जरदारी तक कोई इसे पचाने को तैयार नहीं है.ण मुशर्रफ ने जरूर आतंकवाद से लड़ाई को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो पर अमेरिका के दबाव के चलते उन्होंने कुछ हद तक अपने पाले हुए दहशतगर्दो को नियंत्रित करने का प्रयास किया. तमाम विरोध के बावजूद लाल मस्जिद पर हमला इसी का एक हिस्सा था. उन्होंने कुछ आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाया, लेकिन उनके जाने के बाद प्रतिबंधित गुट फिर से सक्रीय होने लगे हैं. लश्कर-ए-तोयबा के गैरकानूनी घोषित होने के बाद इसका नाम जमात उद दावा कर दिया गया. कराची में इसका दफ्तर भी बंद कर दिया गया. लेकिन अब उसे फिर से खोल दिया गया है. ऐसे ही जैश-ए-मोहम्मद भी फिर से हरकत में आ गया है. पाकिस्तान में महज कुछ दिनों में ही जो हालात उभर कर सामने आए हैं उसे देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि मुशर्रफ के जाने का भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. ऐसे वक्त में जब दोनों देश रिश्ते सुधारने की तरफ आगे बढ़ रहे थे जनरल का जाना भारत की परेशानियों में भी इजाफा कर सकता है
जैसे-तैसे जम्हूरियत के रास्ते पर आया पाकिस्तान फिर अस्थिरता के अंधेरे में डूबता दिखाई दे रहा है. नवाज और जरदारी के बेमेल गठबंधन के बेमेल फैसले ने इस विचारणीय प्रश को जन्म दिया है कि क्या मुशर्रफ को हटाने से पाक में राजनीतिक स्थायित्व कामय रह पाएगा? जनरल के जाने के चंद घंटे बाद ही जिस तरह की राजनीति उथल-पुथल और अराजकता पाक में उत्पन्न हुई है उससे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि पाक का भविष्य्य कितना उज्वल होगा. जरदारी के मुशर्रफ का चोला पहनने की जल्दबाजी और बर्खास्त जजों की बहाली के मसले पर आनाकानी के चलते शरीफ ने गठबंधन की गांठ खोल दी हैं. शरीफ जजों की बहाली के मसले पर अड़े हुए थे जबकि जरदारी ऐसा कुछ नहीं करना चाहते. जरदारी को लगता है कि अगर पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी को बहाल किया गया तो वह खुद भी शिकार बन सकते हैं. ज्यादा उम्मीद इस बात की है कि मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी बहाल होकर आसिफ अलीजरदारी को मुशर्रफ के बनाए अधिनियम के तहत मिलने वाली छूट खत्म कर दें. जिसके बाद उनका बचना मुश्किल होगा. उन पर भष्टाचार के ढ़ेरों मामले थे जिन्हें समझौते के तहत जनरल ने खत्म कर दिए थे. ऐसे में सरकार भले ही न गिरे मगर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों छोरों पर अस्थिरता का संकट हमेशा बरकरार रहेगा, जो खुद पाकिस्तान और उसके पड़ोसी मुल्क यानी भारत के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं है।
इतिहास गवाह है कि जब भी पड़ोस में सियासी हलचल उठी है उसका सीधा असर हिंदुस्तान की हरियाली पर पड़ा है. मुशर्रफ के त्यागपत्र से पाकिस्तान में आईएसआई और कट्टरपंथियों का वहां की राजनीति में सीधा हस्तक्षेप होने की आशंका काफी हद तक बढ़ गई है. हो सकता है कि मुल्क के सियासी मामलों में फौज का दखल भी दोबारा शुरू हो जाए. जैसे कि जनरल जिया उल हक की विमान हादसे में मौत के बाद हुआ था. जिससे भीरत के साथ उसके रिश्तों में फिर से तल्खी लौट सकती है. कश्मीर मुद्दे और भारत के साथ रिश्तों को लेकर पाक की सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में रहती है, लिहाजा कश्मीर पर पाकिस्तान कोई नई फुलझड़ी छोड़ सकता है. वैसे उसने इसकी पहल भी कर दी है. पाक संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह करने की बात कही गई है. इसके साथ ही पाक एक समिति भी बनाने जा रहा है जिसका काम घाटी में मानवाधिकार उल्लंघन के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पेश करना होगा. मतलब यह साफ है कि पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर को बर्निंग इश्यू बनाने जा रहा है. वो जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर चल रहे महासंग्राम में गुपचुप तौर पर अपने हिस्सेदारी बढ़ाकर यह दिखाना चाहता है कि भारत सरकार के साथ कश्मीरियों का हित सुरक्षित नहीं है. अब तक कश्मीर पर गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी मगर पाक के इस कदम के चलते उसका पटरी से उतरना तय है. कश्मीर मसले को जितना उछाला जाएगा, भारत पर उतना ही दबाव पड़ेगा. पाकिस्तान इस बात को बखूबी जानता है, इसलिए उसने मुशर्रफ की विदाई के तुरंत बाद अपना घर संभालने के बजाए कश्मीर पर टांग अड़ाना ज्यादा बेहतर समझा. मुशर्रफ ने भले ही कारगिल के जरिए भारत में सेंध लगाने की कोशिश की हो मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में ही दोनों देश एक-दूसरे के करीब आने को बेकरार दिखे।
यह काबिले गौर है कि जनरल के शासन में 2004 के संघर्षविराम का एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. जबकि लोकतांत्रिक सरकार बनने के बाद पाकिस्तानी फौज सीमा पर गोलीबारी करने को आतुर नजर आ रही है. पाकिस्तान हुक्मरानों की भारत के प्रति दिलचस्पी शुरू से ही रही है. 1971 की लड़ाई में मुंह की खाने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि बांग्लादेश हमारा आंतरिक मामला था और भारत ने इसमें हस्तक्षेप कर हमारी टांग काटी है. हम भारत का सिर काट कर ही दम लेंगे. तब से पाकिस्तान कश्मीर को भारत से छीनकर हमारा सर कलम करने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. मुशर्रफ ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया. जम्हूरियत की बेटी कही जाने वाली बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद चुनी गई नवाज और जरदारी की गठबंधन सरकार को लेकर तमाम उम्मीदें पाली गईं थीं. कहा जा रहा था पाकिस्तान कश्मीर के समाधान की दिशा में कोई सार्थक पहल कर सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उल्टा पाकिस्तान की नई सरकार ने भारत सिरदर्दी जरूर बढ़ा दी।
जयपुर धमाके, काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमला आदि कुछ ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने अहसास दिलाया कि आईएसआई अब पहले से ज्यादा स्वतंत्र होकर काम कर रही है. भारत ने इस बात को बार-बार दोहराया कि काबुल धमाके में आईएसआई का हाथ है मगर पाक प्रधानमंत्री गिलानी से नवाज और जरदारी तक कोई इसे पचाने को तैयार नहीं है.ण मुशर्रफ ने जरूर आतंकवाद से लड़ाई को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो पर अमेरिका के दबाव के चलते उन्होंने कुछ हद तक अपने पाले हुए दहशतगर्दो को नियंत्रित करने का प्रयास किया. तमाम विरोध के बावजूद लाल मस्जिद पर हमला इसी का एक हिस्सा था. उन्होंने कुछ आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाया, लेकिन उनके जाने के बाद प्रतिबंधित गुट फिर से सक्रीय होने लगे हैं. लश्कर-ए-तोयबा के गैरकानूनी घोषित होने के बाद इसका नाम जमात उद दावा कर दिया गया. कराची में इसका दफ्तर भी बंद कर दिया गया. लेकिन अब उसे फिर से खोल दिया गया है. ऐसे ही जैश-ए-मोहम्मद भी फिर से हरकत में आ गया है. पाकिस्तान में महज कुछ दिनों में ही जो हालात उभर कर सामने आए हैं उसे देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि मुशर्रफ के जाने का भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. ऐसे वक्त में जब दोनों देश रिश्ते सुधारने की तरफ आगे बढ़ रहे थे जनरल का जाना भारत की परेशानियों में भी इजाफा कर सकता है
Thursday, August 28, 2008
फेडरल एजेंसी पर सियासत बेमानी
नीरज नैयर
परमाणु करार के बाद फेडरल एजेंसी को लेकर देश की सियासत गर्माई हुई है. यूपीए सरकार के प्रस्ताव पर अधिकतर राज्य नाक-मुंह सिकोड़े हुए हैं. उनका मानना है कि केंद्र सरकार फेडरल एजेंसी के नाम पर उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप की योजना बना रही है. जबकि असलियत में ऐसा कुछ भी नहीं है. बीते कुछ समय में जिस तरह से आतंकवादी वारदातों में इजाफा हुआ है, उसने राज्य सरकारों की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है. बेंगलुरु धमाकों के वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से आतंकवादियों को ललकार रहे थे अहमदाबाद धामाकों के बाद उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही है. हालात यह हो चले हैं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में हर तीसरे माह सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं, जिनकी जांच पड़ताल तो दूर की बात है इनमें शामिल आतंकी संगठनों के सुराग तक राज्यों की पुलिस नहीं लगा पाई है. पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों ने साल 2001 से अब तक विभिन्न वारदातों में करीब 69 बड़े धामाके किए, इनमें से ज्यादातर को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है. जांच एजेंसियों ने अधिकतर मामलों में जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदी, हूजी और सिमी आदि संगठनों पर ऊंगली उठाई है मगर ऐसे किसी व्यक्ति को पकड़ने में उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है, जो इन मामलों का मास्टरमांइड हो. बावजूद इसके फेडरल एजेंसी की मुखालफत समझ से परे है. रक्षा विशेषज्ञ भी मौजूदा वक्त में एक ऐसी एजेंसी की जरूरत दर्शा चुके हैं जो सीमाओं के फेर में न उलझे. सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह और सी. उदय भास्कर का मानना है कि तमाम इंतजामों के होते हुए आतंकवादी वारदातें समन्वय की कमी को दर्शाती हैं. दो राज्यों की पुलिस में कोई तालमेल नहीं होता, लिहाजा केंद्रीय जांच एजेंसी का होना जरूरी है. ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे देश में आतंकवाद पर भी राजनीति होती है. भाजपा हर धमाके के बाद पोटा का रोना रोने लगी है जबकि इससे इतर भी कुछ सोचा जा सकता है. अमेरिका आदि देशों में भी तो सियासत का रंग यहां से जुदा नहीं है मगर वहां आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एक दूसरे की टांग खींचने के बजाए मिलकर काम किया जाता है. अमेरिका ने अलकायदा का नामों निशान मिटाने के लिए इराके के साथ जो किया क्या वो हमारे देश में मुमकिन है? शायद नहीं. राज्य सरकारों अपनी सुरक्षा व्यवस्था की चाहें लाख पीठ थपथपाएं मगर सच यही है कि उनका पुलिस तंत्र अब इस काबिल नहीं रहा कि आतंकवादियों से मुकाबला कर सके. इसमें सुधार अत्यंत आवश्यक है पर राज्य इसके प्रति भी गंभीर नहीं दिखाई देते. केंद्र सरकार से हर साल पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर मिलने वाली भारी- भरकम रकम का सदुपयोग भी राज्ये नहीं कर पा रहे हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुए में से डेढ़ हजार करोड़ बिना खर्च के पड़े हुए हैं. इस योजना के तहत देश के सभी 13 हजार थानों को सूचना प्रौघोगिकी से लैस करना, पुलिस को अत्याधुनिक हथियार मुहैया करवाना और स्थानीय खुफिया तंत्र मजबूत करना है. लेकि न कुछ सालों से थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद हो रहे धमाके पुलिस आधुनिकीकरण की असलीयत सामने लाने के लिए काफी हैं. केंद्रीय गृहमंत्रालय 2005 से ही इस योजना के तहत जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों का सारा भार खुद ही वहन करता है जबकि अन्य राज्यों को 75 प्रतिशत सहायता देते है, लेकिन राज्यों से अपने हिस्से का 25 जुटाना भी भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि हर साल करोड़ों रुपए खर्च नहीं हो पाते. मौजूदा वक्त में आतंकवाद का स्वरूप जितनी तेजी से बदला है उतनी तेजी से राज्य अपने आप को तैयार नहीं कर पाए हैं. पहले आतंकवाद का स्वरूप क्षेत्रिय था पर अब अखिल भारतीय हो गया है. आतंकवादी सुरक्षा व्यवस्था की खामियों की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य घूमते रहते हैं ताकि उन खामियों का फायदा उठाया जा सके. ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए तरीका भी अखिल भारतीय होना चाहिए. राज्य अकेले इस खतरे से अपने बलबूत नहीं निपट सकते. केंद्र सरकार काफी लंबे समय से फेडरल एजेंसी की वकालत कर रही है. जयपुर धामाकों के बाद भूटान यात्रा से लौटते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इसके गठन के संकेत भी दिए थे लेकिन राज्यों की उदासीनता और डर के चलते कुछ नहीं हो सका. केंद्र की तरफ से इस बाबत राज्यों से राय मांगी गई, जिसमें से कुछ ने तो साफ इंकार कर दिया और कुछ अब तक जवाब देने की जहमत नहीं उठा पाए हैं. अमेरिका,रूस,चीन और जर्मनी आदि देशों में आतंकवाद के मुकाबले के लिए फेडरल एजेंसी मौजूद है. शायद तभी आतंकवादी वहां कदम रखने से खौफ खाते हैं. अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अब तक कोई बड़ी आतंकी वारदात सुनने में नहीं आई. जबकि अमेरिका अलकायदा आदि इस्लामिक आतंकवादी संगठनो के निशाने पर है. लेकिन इस दौरान भारत में न जाने कितने बम फूट चुके हैं. यूपीए की जगह केंद्र में अगर कोई दूसरी सरकार भी होती तो वो भी पोटा को ये ही हश्र करती. क्योंकि अस्तित्व में आने के बाद से ही पोटा के दुरुपयोग की खबरें सामने आना शुरू हो गई थीं. देश में आतंकवाद रोकने के लिए जो कानून हैं वो काफी हैं, जरूरत है तो बस इनको प्रभावी बनाने की. आतंरिक सुरक्षा का जिम्मा राज्यों का मामला होता है, ऐसे में केंद्र चाहकर भी दहशतगर्दो के खिलाफ अभियान नहीं छेड़ सकता. हर वारदात के बाद राज्य सरकारें सारा दोष केंद्र पर मढ़कर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश में लग जाती हैं. बेंगलुरु और अहमदाबाद धमाकों के बाद भी यही हो रहा है. मोदी और येदीयुरप्पा को सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने की सीख देने के बजाए आडवाणी साहब केंद्र की यूपीए सरकार पर दोषारोपण कर रहे हैं. भाजपा आदि दलों को समझना होगा कि ये वक्त आपसी खुंदक निकालने का नहीं बल्कि मिल बैठकर कारगर रणनीति बनाने का है ताकि फिर कोई आतंकी देश की खुशियों के साथ खिलवाड़ न कर सके.
नीरज नैयर
परमाणु करार के बाद फेडरल एजेंसी को लेकर देश की सियासत गर्माई हुई है. यूपीए सरकार के प्रस्ताव पर अधिकतर राज्य नाक-मुंह सिकोड़े हुए हैं. उनका मानना है कि केंद्र सरकार फेडरल एजेंसी के नाम पर उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप की योजना बना रही है. जबकि असलियत में ऐसा कुछ भी नहीं है. बीते कुछ समय में जिस तरह से आतंकवादी वारदातों में इजाफा हुआ है, उसने राज्य सरकारों की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है. बेंगलुरु धमाकों के वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से आतंकवादियों को ललकार रहे थे अहमदाबाद धामाकों के बाद उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही है. हालात यह हो चले हैं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में हर तीसरे माह सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं, जिनकी जांच पड़ताल तो दूर की बात है इनमें शामिल आतंकी संगठनों के सुराग तक राज्यों की पुलिस नहीं लगा पाई है. पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों ने साल 2001 से अब तक विभिन्न वारदातों में करीब 69 बड़े धामाके किए, इनमें से ज्यादातर को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है. जांच एजेंसियों ने अधिकतर मामलों में जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदी, हूजी और सिमी आदि संगठनों पर ऊंगली उठाई है मगर ऐसे किसी व्यक्ति को पकड़ने में उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है, जो इन मामलों का मास्टरमांइड हो. बावजूद इसके फेडरल एजेंसी की मुखालफत समझ से परे है. रक्षा विशेषज्ञ भी मौजूदा वक्त में एक ऐसी एजेंसी की जरूरत दर्शा चुके हैं जो सीमाओं के फेर में न उलझे. सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह और सी. उदय भास्कर का मानना है कि तमाम इंतजामों के होते हुए आतंकवादी वारदातें समन्वय की कमी को दर्शाती हैं. दो राज्यों की पुलिस में कोई तालमेल नहीं होता, लिहाजा केंद्रीय जांच एजेंसी का होना जरूरी है. ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे देश में आतंकवाद पर भी राजनीति होती है. भाजपा हर धमाके के बाद पोटा का रोना रोने लगी है जबकि इससे इतर भी कुछ सोचा जा सकता है. अमेरिका आदि देशों में भी तो सियासत का रंग यहां से जुदा नहीं है मगर वहां आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एक दूसरे की टांग खींचने के बजाए मिलकर काम किया जाता है. अमेरिका ने अलकायदा का नामों निशान मिटाने के लिए इराके के साथ जो किया क्या वो हमारे देश में मुमकिन है? शायद नहीं. राज्य सरकारों अपनी सुरक्षा व्यवस्था की चाहें लाख पीठ थपथपाएं मगर सच यही है कि उनका पुलिस तंत्र अब इस काबिल नहीं रहा कि आतंकवादियों से मुकाबला कर सके. इसमें सुधार अत्यंत आवश्यक है पर राज्य इसके प्रति भी गंभीर नहीं दिखाई देते. केंद्र सरकार से हर साल पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर मिलने वाली भारी- भरकम रकम का सदुपयोग भी राज्ये नहीं कर पा रहे हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुए में से डेढ़ हजार करोड़ बिना खर्च के पड़े हुए हैं. इस योजना के तहत देश के सभी 13 हजार थानों को सूचना प्रौघोगिकी से लैस करना, पुलिस को अत्याधुनिक हथियार मुहैया करवाना और स्थानीय खुफिया तंत्र मजबूत करना है. लेकि न कुछ सालों से थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद हो रहे धमाके पुलिस आधुनिकीकरण की असलीयत सामने लाने के लिए काफी हैं. केंद्रीय गृहमंत्रालय 2005 से ही इस योजना के तहत जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों का सारा भार खुद ही वहन करता है जबकि अन्य राज्यों को 75 प्रतिशत सहायता देते है, लेकिन राज्यों से अपने हिस्से का 25 जुटाना भी भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि हर साल करोड़ों रुपए खर्च नहीं हो पाते. मौजूदा वक्त में आतंकवाद का स्वरूप जितनी तेजी से बदला है उतनी तेजी से राज्य अपने आप को तैयार नहीं कर पाए हैं. पहले आतंकवाद का स्वरूप क्षेत्रिय था पर अब अखिल भारतीय हो गया है. आतंकवादी सुरक्षा व्यवस्था की खामियों की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य घूमते रहते हैं ताकि उन खामियों का फायदा उठाया जा सके. ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए तरीका भी अखिल भारतीय होना चाहिए. राज्य अकेले इस खतरे से अपने बलबूत नहीं निपट सकते. केंद्र सरकार काफी लंबे समय से फेडरल एजेंसी की वकालत कर रही है. जयपुर धामाकों के बाद भूटान यात्रा से लौटते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इसके गठन के संकेत भी दिए थे लेकिन राज्यों की उदासीनता और डर के चलते कुछ नहीं हो सका. केंद्र की तरफ से इस बाबत राज्यों से राय मांगी गई, जिसमें से कुछ ने तो साफ इंकार कर दिया और कुछ अब तक जवाब देने की जहमत नहीं उठा पाए हैं. अमेरिका,रूस,चीन और जर्मनी आदि देशों में आतंकवाद के मुकाबले के लिए फेडरल एजेंसी मौजूद है. शायद तभी आतंकवादी वहां कदम रखने से खौफ खाते हैं. अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अब तक कोई बड़ी आतंकी वारदात सुनने में नहीं आई. जबकि अमेरिका अलकायदा आदि इस्लामिक आतंकवादी संगठनो के निशाने पर है. लेकिन इस दौरान भारत में न जाने कितने बम फूट चुके हैं. यूपीए की जगह केंद्र में अगर कोई दूसरी सरकार भी होती तो वो भी पोटा को ये ही हश्र करती. क्योंकि अस्तित्व में आने के बाद से ही पोटा के दुरुपयोग की खबरें सामने आना शुरू हो गई थीं. देश में आतंकवाद रोकने के लिए जो कानून हैं वो काफी हैं, जरूरत है तो बस इनको प्रभावी बनाने की. आतंरिक सुरक्षा का जिम्मा राज्यों का मामला होता है, ऐसे में केंद्र चाहकर भी दहशतगर्दो के खिलाफ अभियान नहीं छेड़ सकता. हर वारदात के बाद राज्य सरकारें सारा दोष केंद्र पर मढ़कर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश में लग जाती हैं. बेंगलुरु और अहमदाबाद धमाकों के बाद भी यही हो रहा है. मोदी और येदीयुरप्पा को सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने की सीख देने के बजाए आडवाणी साहब केंद्र की यूपीए सरकार पर दोषारोपण कर रहे हैं. भाजपा आदि दलों को समझना होगा कि ये वक्त आपसी खुंदक निकालने का नहीं बल्कि मिल बैठकर कारगर रणनीति बनाने का है ताकि फिर कोई आतंकी देश की खुशियों के साथ खिलवाड़ न कर सके.
नीरज नैयर
Tuesday, August 19, 2008
तारीफों के शोर में दबी कराह
Dedicated to someone very close to my heart
नीजर नैयर
मुमताज और शाहजहां की बेपनाह मोहब्बत की निशानी ताजमहल आज भी जहन में प्यार की उस मीठी सुगंध को संजोए हुए है. वर्षों से यह इमारत प्यार करने वालों की इबादतगाह रही है. वक्त के थपेड़ों ने भले ही इसके चेहरे की चमक को कुछ फीका कर दिया हो मगर इसके लब आज भी वो तराना गुनगुना रहे हैं. इसकी हंसी इस बात का सुबूत है कि पाक मोहब्बत आज भी जिंदा है. हमारे दिलों-दिमाग पर ताज की यह तस्वीर हमेशा कायम रहेगी मगर अफसोस कि सच इतना हसीन नहीं है. सच तो यह है कि ताजमहल अब बूढा हो चुका है. उसके चेहरे पर थकान झलकने लगी है. वक्त के थपेड़ों में उसकी मुस्कान कहीं खो गई है. आंखों के नीचे पड़ चुके काले धब्बे उसकी उम्र बयां कर रहे हैं. ताज कराह रहा है मगर उसके कराहने का दर्द तारीफों के शोर में दबकर रह गया है.
मुमताज महल की मौत के बाद उसकी यादों को जिंदा रखने का ख्याल जब शाहजहां के जहन में आया तब ताजमहल का जन्म हुआ. तत्कालिन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने फारसी ग्रंथ में लिखा था कि मुमताज महल की मृत्यु के बाद उनके मकबरे के लिए आगरा शहर के बाहर यमुना नदी के किनारे एक उपयुक्त स्थान चुना गया. ताजमहल की नीवें जलस्तर तक खोदी गईं और फिर चूने-पत्थरों के गारे से उन्हें भरा गया. यह नीव एक प्रकार के कुओं पर बनाई गई. कुओं की नींव पर बनी इस इमारत की लंबाई 997 फीट, चौड़ाई 373 फीट और ऊंचाई 285 फीट रखी गई. ताजमहल के अकेले गुंबद का वजन ही 12000 टन है. ताजमहल को यमुना के किनारे ही क्यों बनाया गया इसके पीछे भी एक महत्वूर्ण तथ्य है. ताजमहल को यमुना के किनारे ऐसे मोड़ पर निर्मित किया गया जहां शुद्ध जल पूरे साल मौजूद रहता था.
इसके चारों ओर घना जंगल था. परिणामस्वरूप यहां वातावरण निरन्तर नम रहता था और यह नमी, धूल व वायु के किसी भी अन्य प्रदूषण को सोख लेती थी. अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो ताजमहल नमी की एक चादर सी ओढ़े रहता था जो इसे प्राकृतिक दुष्प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करती थी. वास्तव में ताजमहल का आंतरिक ढांचा ईंटों की चिनाई से बना है. श्वेत संगमरमर तो केवल इसमें बाहर की ओर लगा है. ताज के निर्माण के लिये विशेष प्रकार की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था. ताजमहल का ढांचा आज भी उतना ही मजबूत है जितना कि पहले था. वायु प्रदूषण से ताजमहल के आंतरिक ढांचे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. प्रदूषण केवल बाहर के संगमरमर को धूमिल कर रहा है. संगमरमर का क्षेय होना भी अच्छा लक्षण नहीं है. वर्तमान स्थिति की अपेक्षा यमुना पहले बारहों महीने भरी रहती थी. यमुना का पानी एकदम स्वच्छ था और पानी ताजमहल से टकराकर उसका संतुलन बनाए रखता था. इस भरी हुई नदी में ताजमहल का प्रतिबिंब साफ नजर आता था. मानो मुस्करा रहा हो. वर्तमान समय में यमुना का जल स्तर पहले की भांति नहीं रहा है और तो और पानी बहुत ही प्रदूषित हो चला है. रासायनिक कूड़े से युक्त शहर के गंदे नाले यमुना को और प्रदूषित कर रहे हैं. ताजगंज स्थित शमशान घाट के पास से बहने वाले नाले का गंदा पानी यमुना में जहां मिलता है वह स्थान ताजमहल के बहुत करीब है. उस जगह को देखकर यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यमुना को जल प्रदूषण से बचाने के लिए क्या कार्य किये जा रहे हैं. ताजमहल के दशहरा घाट पर यमुना किनारे कूड़े का ढेर सा लगा रहता है, जिसमें पॉलीथिन प्रचुर मात्रा में है. दिन-ब-दिन यमुना का पानी प्रदूषित होता जा रहा है.
यमुना के प्रदूषित पानी से निरन्तर गैसें निकलती रहती हैं. जो ताज को क्षति पहुंचा रही है. जाने माने इतिहासकार प्रोफेसर रामनाथ के एक शोध में यह बात सामने आई थी कि ताजमहल यमुना नदी में धंस रहा है. ताज की मीनारें एक ओर झुक रही हैं. वास्तव में इसे बनाने वाले की कला ही कहा जायेगा तो इतने झुकाव के बाद भी मीनारें अभी तक खड़ी है पर ऐसा कब तक चलेगा यह कहना मुश्किल है. वर्तमान समय में ताजमहल जैसी अमूल्य कृति को ज्यादा खतरा यमुना के प्रदूषित जल से है. ताजमहल को वायु प्रदूषण से हो रही क्षति को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बहस हुई मगर इस पर विचार नहीं किया गया कि इमारत धंस रही है. गौरतलब है कि 1893 में यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन ताज के समीप ही बना था. यहां निरन्तर 60 वर्षों से इंजन धुआं भी छोड़ रहे थे. परन्तु जब 1940 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई तो नतीजों में कहीं भी धुएं से ताज को होने वाली क्षति का उल्लेख नहीं था. ऐसा इसलिए कि यमुना का शुध्द जल और आसपास की हरियाली वास्तव में ऐसी कोई क्षति होने ही नहीं देते थे. नदी का स्वच्छ जल निरन्तर इसकी रक्षा करता था.
प्रदूषण के चलते आगरे से बहुत सी फैक्ट्रियों को हटा दिया गया मगर इस अहम समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया. हां यह बात एकदम कही है कि 1940 से अब तक के सफर में वायु प्रदूषण के अस्तित्व में भी इजाफा हुआ है. इसे ताज के संगमरमर को क्षति हुई है. इसके चलते आज ताज का श्वेत रंग थोड़ा काला सा हो गया है. जो निश्चित ही इसकी खूबसूरती के लिये घातक है. इसी के चलते कई बार मथुरा रिफाइनरी पर भी सवाल उठाए गए. आगरे से व्यावसायिक इकाइयों को तो हटा दिया गया मगर प्रदूषण की समस्या जस की तस है. भारत की तरफ पर्यटकों को आकर्षित करने में ताजमहल का अपना ही एक अनोखा योगदान है. ताज की इस छवि को हमेशा के लिए बनाए रखने केलिये सही दिशा में शीघ्र ही कार्य करने की जरूरत है. यमुना है तो ताज है यमुना नहीं तो ताज नहीं. इसलिए नदी के प्रदूषित पानी को स्वच्छ करने के प्रयास करने चाहिए. वर्तमान समय में यमुना का पानी कितना शुध्द है यह बताने की शायद जरूरत नहीं है. कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि नदी का जलस्तर ज्यादा नीचे न जाए. यह समस्या कोई नई नहीं है. कई बार सामने आ चुकी है मगर अफसोस की बात है कि अब तक इसके निपटारे के सार्थक कदम नहीं उठाए गए हैं.
तो नहीं रहता ताज
आज जो ताज हम देख रहे हैं यह शायद होता ही नहीं इसका अस्तित्व कैसे बचा इसके पीछे भी एक अनोखी घटना है. बात उन दिनों की है जब आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था. अंग्रेजी हुकूमत उन दिनों जोरों पर थी. बंगाल के एक दैनिक अखबार में ताज को बेचने के संबंध में विज्ञापन प्रकाशित हुआ इसको पढ़कर मथुरा निवासी एक व्यापारी ने ताज को महज चंद हजार रु. में अपना बना लिया और सब देखते ही रह गये.
इस बीच एक अंग्रेज अफसर ने ऐसे ही उस व्यापारी से पूछा कि आप इस इमारत का क्या करोगे तो व्यापारी ने जवाब दिया कि जनाब करना क्या है. इसे तुड़वाकर संगमरमर निकाल कर बेच देंगे. जवाब सुनने के पश्चात अफसर से रहा नहीं गया कि इतनी खूबसूरत इमारत को सिर्फ इसके संगमरमर के लिए गिरा दिया जायेगा. अफसर ने वहां से उस व्यापारी को तुरन्त निकालने का आदेश दिया और आखिरकार इस भव्य इमारत का अस्तित्व बच गया. एक अंग्रेज अफसर की वजह से ताज हमारी आंखों के सामने है. मगर इसकी खूबसूरती को कायम रखने के लिए हमारे द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.
नीजर नैयर
मुमताज और शाहजहां की बेपनाह मोहब्बत की निशानी ताजमहल आज भी जहन में प्यार की उस मीठी सुगंध को संजोए हुए है. वर्षों से यह इमारत प्यार करने वालों की इबादतगाह रही है. वक्त के थपेड़ों ने भले ही इसके चेहरे की चमक को कुछ फीका कर दिया हो मगर इसके लब आज भी वो तराना गुनगुना रहे हैं. इसकी हंसी इस बात का सुबूत है कि पाक मोहब्बत आज भी जिंदा है. हमारे दिलों-दिमाग पर ताज की यह तस्वीर हमेशा कायम रहेगी मगर अफसोस कि सच इतना हसीन नहीं है. सच तो यह है कि ताजमहल अब बूढा हो चुका है. उसके चेहरे पर थकान झलकने लगी है. वक्त के थपेड़ों में उसकी मुस्कान कहीं खो गई है. आंखों के नीचे पड़ चुके काले धब्बे उसकी उम्र बयां कर रहे हैं. ताज कराह रहा है मगर उसके कराहने का दर्द तारीफों के शोर में दबकर रह गया है.
मुमताज महल की मौत के बाद उसकी यादों को जिंदा रखने का ख्याल जब शाहजहां के जहन में आया तब ताजमहल का जन्म हुआ. तत्कालिन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने फारसी ग्रंथ में लिखा था कि मुमताज महल की मृत्यु के बाद उनके मकबरे के लिए आगरा शहर के बाहर यमुना नदी के किनारे एक उपयुक्त स्थान चुना गया. ताजमहल की नीवें जलस्तर तक खोदी गईं और फिर चूने-पत्थरों के गारे से उन्हें भरा गया. यह नीव एक प्रकार के कुओं पर बनाई गई. कुओं की नींव पर बनी इस इमारत की लंबाई 997 फीट, चौड़ाई 373 फीट और ऊंचाई 285 फीट रखी गई. ताजमहल के अकेले गुंबद का वजन ही 12000 टन है. ताजमहल को यमुना के किनारे ही क्यों बनाया गया इसके पीछे भी एक महत्वूर्ण तथ्य है. ताजमहल को यमुना के किनारे ऐसे मोड़ पर निर्मित किया गया जहां शुद्ध जल पूरे साल मौजूद रहता था.
इसके चारों ओर घना जंगल था. परिणामस्वरूप यहां वातावरण निरन्तर नम रहता था और यह नमी, धूल व वायु के किसी भी अन्य प्रदूषण को सोख लेती थी. अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो ताजमहल नमी की एक चादर सी ओढ़े रहता था जो इसे प्राकृतिक दुष्प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करती थी. वास्तव में ताजमहल का आंतरिक ढांचा ईंटों की चिनाई से बना है. श्वेत संगमरमर तो केवल इसमें बाहर की ओर लगा है. ताज के निर्माण के लिये विशेष प्रकार की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था. ताजमहल का ढांचा आज भी उतना ही मजबूत है जितना कि पहले था. वायु प्रदूषण से ताजमहल के आंतरिक ढांचे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. प्रदूषण केवल बाहर के संगमरमर को धूमिल कर रहा है. संगमरमर का क्षेय होना भी अच्छा लक्षण नहीं है. वर्तमान स्थिति की अपेक्षा यमुना पहले बारहों महीने भरी रहती थी. यमुना का पानी एकदम स्वच्छ था और पानी ताजमहल से टकराकर उसका संतुलन बनाए रखता था. इस भरी हुई नदी में ताजमहल का प्रतिबिंब साफ नजर आता था. मानो मुस्करा रहा हो. वर्तमान समय में यमुना का जल स्तर पहले की भांति नहीं रहा है और तो और पानी बहुत ही प्रदूषित हो चला है. रासायनिक कूड़े से युक्त शहर के गंदे नाले यमुना को और प्रदूषित कर रहे हैं. ताजगंज स्थित शमशान घाट के पास से बहने वाले नाले का गंदा पानी यमुना में जहां मिलता है वह स्थान ताजमहल के बहुत करीब है. उस जगह को देखकर यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यमुना को जल प्रदूषण से बचाने के लिए क्या कार्य किये जा रहे हैं. ताजमहल के दशहरा घाट पर यमुना किनारे कूड़े का ढेर सा लगा रहता है, जिसमें पॉलीथिन प्रचुर मात्रा में है. दिन-ब-दिन यमुना का पानी प्रदूषित होता जा रहा है.
यमुना के प्रदूषित पानी से निरन्तर गैसें निकलती रहती हैं. जो ताज को क्षति पहुंचा रही है. जाने माने इतिहासकार प्रोफेसर रामनाथ के एक शोध में यह बात सामने आई थी कि ताजमहल यमुना नदी में धंस रहा है. ताज की मीनारें एक ओर झुक रही हैं. वास्तव में इसे बनाने वाले की कला ही कहा जायेगा तो इतने झुकाव के बाद भी मीनारें अभी तक खड़ी है पर ऐसा कब तक चलेगा यह कहना मुश्किल है. वर्तमान समय में ताजमहल जैसी अमूल्य कृति को ज्यादा खतरा यमुना के प्रदूषित जल से है. ताजमहल को वायु प्रदूषण से हो रही क्षति को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बहस हुई मगर इस पर विचार नहीं किया गया कि इमारत धंस रही है. गौरतलब है कि 1893 में यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन ताज के समीप ही बना था. यहां निरन्तर 60 वर्षों से इंजन धुआं भी छोड़ रहे थे. परन्तु जब 1940 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई तो नतीजों में कहीं भी धुएं से ताज को होने वाली क्षति का उल्लेख नहीं था. ऐसा इसलिए कि यमुना का शुध्द जल और आसपास की हरियाली वास्तव में ऐसी कोई क्षति होने ही नहीं देते थे. नदी का स्वच्छ जल निरन्तर इसकी रक्षा करता था.
प्रदूषण के चलते आगरे से बहुत सी फैक्ट्रियों को हटा दिया गया मगर इस अहम समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया. हां यह बात एकदम कही है कि 1940 से अब तक के सफर में वायु प्रदूषण के अस्तित्व में भी इजाफा हुआ है. इसे ताज के संगमरमर को क्षति हुई है. इसके चलते आज ताज का श्वेत रंग थोड़ा काला सा हो गया है. जो निश्चित ही इसकी खूबसूरती के लिये घातक है. इसी के चलते कई बार मथुरा रिफाइनरी पर भी सवाल उठाए गए. आगरे से व्यावसायिक इकाइयों को तो हटा दिया गया मगर प्रदूषण की समस्या जस की तस है. भारत की तरफ पर्यटकों को आकर्षित करने में ताजमहल का अपना ही एक अनोखा योगदान है. ताज की इस छवि को हमेशा के लिए बनाए रखने केलिये सही दिशा में शीघ्र ही कार्य करने की जरूरत है. यमुना है तो ताज है यमुना नहीं तो ताज नहीं. इसलिए नदी के प्रदूषित पानी को स्वच्छ करने के प्रयास करने चाहिए. वर्तमान समय में यमुना का पानी कितना शुध्द है यह बताने की शायद जरूरत नहीं है. कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि नदी का जलस्तर ज्यादा नीचे न जाए. यह समस्या कोई नई नहीं है. कई बार सामने आ चुकी है मगर अफसोस की बात है कि अब तक इसके निपटारे के सार्थक कदम नहीं उठाए गए हैं.
तो नहीं रहता ताज
आज जो ताज हम देख रहे हैं यह शायद होता ही नहीं इसका अस्तित्व कैसे बचा इसके पीछे भी एक अनोखी घटना है. बात उन दिनों की है जब आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था. अंग्रेजी हुकूमत उन दिनों जोरों पर थी. बंगाल के एक दैनिक अखबार में ताज को बेचने के संबंध में विज्ञापन प्रकाशित हुआ इसको पढ़कर मथुरा निवासी एक व्यापारी ने ताज को महज चंद हजार रु. में अपना बना लिया और सब देखते ही रह गये.
इस बीच एक अंग्रेज अफसर ने ऐसे ही उस व्यापारी से पूछा कि आप इस इमारत का क्या करोगे तो व्यापारी ने जवाब दिया कि जनाब करना क्या है. इसे तुड़वाकर संगमरमर निकाल कर बेच देंगे. जवाब सुनने के पश्चात अफसर से रहा नहीं गया कि इतनी खूबसूरत इमारत को सिर्फ इसके संगमरमर के लिए गिरा दिया जायेगा. अफसर ने वहां से उस व्यापारी को तुरन्त निकालने का आदेश दिया और आखिरकार इस भव्य इमारत का अस्तित्व बच गया. एक अंग्रेज अफसर की वजह से ताज हमारी आंखों के सामने है. मगर इसकी खूबसूरती को कायम रखने के लिए हमारे द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.
Monday, August 4, 2008
िक स क ाम क ा खुफिया तंत्र
बेंगलुरु और अहमदाबाद धमा क ों से उठे विश्वसनीयता पर सवाल
नीरज नैयर
बेंगलुरु और अहमदाबाद में हुए श्रंखलाबद्ध धमाकों के बाद पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. सियासी दल जहां आतंकवाद की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं वहीं खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता पर भी उंगलिया उठने लगी हैं.महज दो दिन में 29 धमाकों के बाद इस सवाल का जवाब ढूढ़ना आवश्यक हो गया है कि आखिर हमारा खुफिया तंत्र कर क्या रहा है. अन्य देशों केमुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली एजेंसियां भारत में सबसे ज्यादा हैं. जिन पर अरबों रुपए पानी की तरह बहाया जाता है, बावजूद इसके खुफिया तंत्र इतना जर्जर बना हुआ है किआंतकी बड़ी आसानी से अपना काम कर जाते हैं और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होती. खुफिया एजेंसियों की नाकामियों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त देखकर तो यही लगता है जैसे नौसिखियों के कंधों पर देश की सुरक्षा का जिम्मा हो. खुफिया एजेंसियों द्वारा समय-समय पर जारी की जाने वाली चेतावनी मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की तरह ही हो गई है, जिसको न तो संबंधित अधिकारी ही गंभीरता से लेते हैं और न आम आदमी. एजेंसियां बिना किसी सटीक जानकारी के आतंकी हमलों की सूचना वक्त दर वक्त इसलिए उछालती रहती हैं ताकि अनहोनी होने पर वो यह कहकर अपना पल्ला झाड़ सकें कि हमने तो पहले ही आगाह किया था. यूपी, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और अब गुजरात में हुए धमाके इस बात का सुबूत हैं कि हमारा खुफिया तंत्र कितनी सक्रीयता से काम कर रहा हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आई बी भारत की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसी है. 1933 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई आईबी की कमान आजादी के बाद संजीवनी पिल्लई ने पहले भारतीय निदेशक के रूप में संभाली. तब से अब तक आईबी देश की सुरक्षा से जुड़ी आंतरिक सूचनाओं को जुटाने का काम कर रही है. आईबी में भारतीय पुलिस सेवा और आर्मी के तेज-तर्रार अफसरों को शामिल किया जाता है. बावजूद इसके सटीक सूचनाओं के मामले में इसका दामन खाली ही रहा है.
कुछ ऐसा ही हाल देश की पहली विदेशी खुफिया एजेंसी रिसर्च एनालिसिस विंग यानी रॉ और अन्य एजेंसियों का है. अंतरराष्ट्रीय जासूसी के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 में रॉ का गठन किया. जाने-माने खुफिया अधिकारी आर.एन.कॉव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई. कॉव के जामने में रॉ ने कई उल्लेखनीय काम किए. दुनिया में इसकी तुलना केजीबी, सीआईए और मोसाद जैसे खुफिया संगठनों में की जाने लगी. लेकिन 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रॉ को लगभग ठप कर दिया. विदेशों में इसके दफ्तर बंद कर दिए गये, बजट भी बहुत कम कर दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि देसाई रॉ को इंदिरा गांधी का वफादार संगठन मानते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में भी रॉ को खासी तवाो दी गई.लेकिन बाद की सरकारों ने इसे अपनी प्राथमिकता से निकाल दिया. रॉ की विफलता का दूसरा प्रमुख कारण अधिकारियों का काम के प्रति घटता रुझान भी है. रॉ से जुड़े कुछ अधिकारी स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि अधिकतर अफसर विदेशों में महज मौज-मस्ती के लिए ही तैनाती करवाते हैं. हाल ही के दिनों में रॉ अधिकारियों की विदेशों में हुस्न के जाल में फंसकर सूचनाएं लीक करने की ढेरों खबरें सामने आई हैं. नेपाल चुनाव के संबंध में भी जांच एजेंसी की नाकामी उजागर हो चुकी है. जयपुर बम धमाकों के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम.के. नारायण ने भी यह स्वीकारोति की थी कि पूरा खुफिया तंत्र विफल हो गया है. नारायण के बयान को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था. खुफिया तंत्र को मजबूत करने की बातें भी हुर्इं थी मगर हकीकत सबके सामने है. खुफिया एजेंसियों की विफलता की कहानी कोई नई नहीं है, आजादी के बाद से ही ये सिलसिला चला आ रहा है. महात्मा गांधी की हत्या को भी खुफिया एजेंसियों के उन एजेंटों की नाकामी के रूप में देखा गया जो कट्टर हिंदूवादियों पर नजर रख रहे थे. इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश तो दिल्ली में ही बनती रही लेकिन खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी. राजीव गांधी की हत्या की आशंका की सूचना इस्त्राइली सूत्रों के जरिए फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात ने खुद पत्र लिखकर दी थी, तब भी एजेंसियों ने सरकार को नहीं चेताया. इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में खुफिया एजेंसियोंकी सबसे बड़ी नाकामी मानी जाती है. ऐसे ही कारगिल घुसपैठ, कंधार विमान अपहरण कांड और संसद पर हमला पूरे खुफिया तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी है. इसके साथ ही आतंकवादियों के बेखौफ वारदातों को अंजाम देने की एकऔर प्रमुख वजह घटिया पुलिस तंत्र भी है. राज्य सरकारें पुलिस को दुरुस्त करने के नाम पर महज खानापूर्ती के अलावा कुछ नहीं करतीं. पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर सालाना एक हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं बावजूद इसके आतंकी घटनाओं पर लगाम लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है. राज्य सरकारें आधुनिकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने की बजाए केंद्र से मिले पैसे का भी पूरा सदुपयोग नहीं कर पा रही ह्रै.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुपये में से डेढ़ हजार करोड़ रुपये बिना खर्च के पड़े हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय वर्ष 2005 से आधुनिकीकरण के लिए जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों पूरा धन देता है. जबकि बाकी राज्यों को 75 फीसदी धन ही देता है. लेकिन राज्यों को अपने हिस्से का यह 25 फीसदी पैसा जुटाना भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि लगभग हर साल इस योजना का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाता है. पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए केन्द्र वैसे तो वर्ष 1960 से राज्यों को पैसा देता रहा है. तब केंद्र और राज्य 50:50 फीसदी खर्च वहन करते थे. लेकिन वर्ष 2005 में इसमें संशोधन करके केन्द्र ने अपना हिस्सा 75 फीसदी कर दिया. इस पर भी ज्यादातर राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं. केन्द्र लगातार कहता रहा है कि राज्यों को अपने यहां 500 लोगों पर एक पुलिस जवान का औसत बनाने के लिए पुलिस की संख्या बढ़ानी चाहिए. अभी यह औसत 699 लोगों पर एक पुलिस जवान ही है. केन्द्र ने वर्ष 2001-02 से 2007-08 तक राज्यों को इस योजना के तहत 6385.23 करोड़ रुपये दिये. लेकिन लगभग सभी राज्य सरकारें अपने हिस्से का पूरा पैसे का उपयोग नहीं कर पाईं. वर्ष 2001 में 191.7 करोड़, 2002 में 277.38 करोड़, वर्ष 2003 में 140.09 करोड़ और वर्ष 2005 में 258.83 करोड़ तथा वर्ष 2006-07 में 335 करोड़ रुपये खर्च नहीं हो पाए. ऐसे में यह कैसे अपेक्षा कि जा सकती है कि आतंकवादी वारदातों पर लगाम लग पाएगी.
भारत क ा खुफिया तंत्र-रिसर्च एवं एनालिसिस विंग यानी रॉ
-इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी
-ऑल इंडिया रेडियो मॉनिटरिंग सर्विस
-ज्वाइंट साइबर ब्यूरो
-सिग्नल्स इंटेलिजेंस निदेशालय
-एविएशन रिसर्च सेंटर
-डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी
-डायरेक्ट्रेट ऑफ मिलिट्री इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ नेवेल इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ एअर इंटेलिजेंस
अन्य एजेंसियां-डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस
-एन्फोरर्समेंट डायरेक्ट्रेट
-केंद्रीय ब्यूरो अन्वेक्षण यानी सीबीआई
-नारकोटिक्स ब्रांच
-राज्यों की पुलिस की गुप्तचर शाखाएं.
एिअर इंटेलिजेंस
असफलता क ी प्रमुख घटननाएं-3 जनवरी, 1948, दिल्ली की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी की हत्या.
-31 अक्टूबर, 1984, प्रधानमंत्री निवास के सुरक्षाकर्मियों में सेंध लगाकर इंदिरा गांधी की हत्या.
-दिल्ली में सांसद ललित माकन और महानगर पार्षद अर्जुन दास की खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दिन दहाड़े हत्या.
-पंजाब में अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोंवाला की हत्या.
-तमिलनाडू के श्रीपेरुबुदूर में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या.
-छह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस.
-पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की बम विस्फोट में हत्या.
-कारगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ.
-दिल्ली में संसद और लाल किले पर हमला.
-जम्मू-कश्मीर विधानसभा और रघुनाथ मंदिर पर हमला.
-कंधार विमान अपहरण कांड.
-अहमदाबाद में अक्षरधाम मंदिर पर हमला.
-अयोध्या में आतंकवादी हमला.
-मुंबई में लोकल टे्रनों में सिलसिलेवार धमाके.
-दिल्ली में दीवाली से ठीक पहले बम धमाके.
-हैदराबाद और मालेगांव की मस्जिदों के पास धमाके.
-वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट.
-जयपुर में सिलसिलेवार बम विस्फोट.
नीरज नैयर
नीरज नैयर
बेंगलुरु और अहमदाबाद में हुए श्रंखलाबद्ध धमाकों के बाद पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. सियासी दल जहां आतंकवाद की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं वहीं खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता पर भी उंगलिया उठने लगी हैं.महज दो दिन में 29 धमाकों के बाद इस सवाल का जवाब ढूढ़ना आवश्यक हो गया है कि आखिर हमारा खुफिया तंत्र कर क्या रहा है. अन्य देशों केमुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली एजेंसियां भारत में सबसे ज्यादा हैं. जिन पर अरबों रुपए पानी की तरह बहाया जाता है, बावजूद इसके खुफिया तंत्र इतना जर्जर बना हुआ है किआंतकी बड़ी आसानी से अपना काम कर जाते हैं और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होती. खुफिया एजेंसियों की नाकामियों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त देखकर तो यही लगता है जैसे नौसिखियों के कंधों पर देश की सुरक्षा का जिम्मा हो. खुफिया एजेंसियों द्वारा समय-समय पर जारी की जाने वाली चेतावनी मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की तरह ही हो गई है, जिसको न तो संबंधित अधिकारी ही गंभीरता से लेते हैं और न आम आदमी. एजेंसियां बिना किसी सटीक जानकारी के आतंकी हमलों की सूचना वक्त दर वक्त इसलिए उछालती रहती हैं ताकि अनहोनी होने पर वो यह कहकर अपना पल्ला झाड़ सकें कि हमने तो पहले ही आगाह किया था. यूपी, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और अब गुजरात में हुए धमाके इस बात का सुबूत हैं कि हमारा खुफिया तंत्र कितनी सक्रीयता से काम कर रहा हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आई बी भारत की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसी है. 1933 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई आईबी की कमान आजादी के बाद संजीवनी पिल्लई ने पहले भारतीय निदेशक के रूप में संभाली. तब से अब तक आईबी देश की सुरक्षा से जुड़ी आंतरिक सूचनाओं को जुटाने का काम कर रही है. आईबी में भारतीय पुलिस सेवा और आर्मी के तेज-तर्रार अफसरों को शामिल किया जाता है. बावजूद इसके सटीक सूचनाओं के मामले में इसका दामन खाली ही रहा है.
कुछ ऐसा ही हाल देश की पहली विदेशी खुफिया एजेंसी रिसर्च एनालिसिस विंग यानी रॉ और अन्य एजेंसियों का है. अंतरराष्ट्रीय जासूसी के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 में रॉ का गठन किया. जाने-माने खुफिया अधिकारी आर.एन.कॉव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई. कॉव के जामने में रॉ ने कई उल्लेखनीय काम किए. दुनिया में इसकी तुलना केजीबी, सीआईए और मोसाद जैसे खुफिया संगठनों में की जाने लगी. लेकिन 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रॉ को लगभग ठप कर दिया. विदेशों में इसके दफ्तर बंद कर दिए गये, बजट भी बहुत कम कर दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि देसाई रॉ को इंदिरा गांधी का वफादार संगठन मानते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में भी रॉ को खासी तवाो दी गई.लेकिन बाद की सरकारों ने इसे अपनी प्राथमिकता से निकाल दिया. रॉ की विफलता का दूसरा प्रमुख कारण अधिकारियों का काम के प्रति घटता रुझान भी है. रॉ से जुड़े कुछ अधिकारी स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि अधिकतर अफसर विदेशों में महज मौज-मस्ती के लिए ही तैनाती करवाते हैं. हाल ही के दिनों में रॉ अधिकारियों की विदेशों में हुस्न के जाल में फंसकर सूचनाएं लीक करने की ढेरों खबरें सामने आई हैं. नेपाल चुनाव के संबंध में भी जांच एजेंसी की नाकामी उजागर हो चुकी है. जयपुर बम धमाकों के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम.के. नारायण ने भी यह स्वीकारोति की थी कि पूरा खुफिया तंत्र विफल हो गया है. नारायण के बयान को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था. खुफिया तंत्र को मजबूत करने की बातें भी हुर्इं थी मगर हकीकत सबके सामने है. खुफिया एजेंसियों की विफलता की कहानी कोई नई नहीं है, आजादी के बाद से ही ये सिलसिला चला आ रहा है. महात्मा गांधी की हत्या को भी खुफिया एजेंसियों के उन एजेंटों की नाकामी के रूप में देखा गया जो कट्टर हिंदूवादियों पर नजर रख रहे थे. इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश तो दिल्ली में ही बनती रही लेकिन खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी. राजीव गांधी की हत्या की आशंका की सूचना इस्त्राइली सूत्रों के जरिए फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात ने खुद पत्र लिखकर दी थी, तब भी एजेंसियों ने सरकार को नहीं चेताया. इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में खुफिया एजेंसियोंकी सबसे बड़ी नाकामी मानी जाती है. ऐसे ही कारगिल घुसपैठ, कंधार विमान अपहरण कांड और संसद पर हमला पूरे खुफिया तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी है. इसके साथ ही आतंकवादियों के बेखौफ वारदातों को अंजाम देने की एकऔर प्रमुख वजह घटिया पुलिस तंत्र भी है. राज्य सरकारें पुलिस को दुरुस्त करने के नाम पर महज खानापूर्ती के अलावा कुछ नहीं करतीं. पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर सालाना एक हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं बावजूद इसके आतंकी घटनाओं पर लगाम लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है. राज्य सरकारें आधुनिकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने की बजाए केंद्र से मिले पैसे का भी पूरा सदुपयोग नहीं कर पा रही ह्रै.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुपये में से डेढ़ हजार करोड़ रुपये बिना खर्च के पड़े हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय वर्ष 2005 से आधुनिकीकरण के लिए जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों पूरा धन देता है. जबकि बाकी राज्यों को 75 फीसदी धन ही देता है. लेकिन राज्यों को अपने हिस्से का यह 25 फीसदी पैसा जुटाना भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि लगभग हर साल इस योजना का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाता है. पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए केन्द्र वैसे तो वर्ष 1960 से राज्यों को पैसा देता रहा है. तब केंद्र और राज्य 50:50 फीसदी खर्च वहन करते थे. लेकिन वर्ष 2005 में इसमें संशोधन करके केन्द्र ने अपना हिस्सा 75 फीसदी कर दिया. इस पर भी ज्यादातर राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं. केन्द्र लगातार कहता रहा है कि राज्यों को अपने यहां 500 लोगों पर एक पुलिस जवान का औसत बनाने के लिए पुलिस की संख्या बढ़ानी चाहिए. अभी यह औसत 699 लोगों पर एक पुलिस जवान ही है. केन्द्र ने वर्ष 2001-02 से 2007-08 तक राज्यों को इस योजना के तहत 6385.23 करोड़ रुपये दिये. लेकिन लगभग सभी राज्य सरकारें अपने हिस्से का पूरा पैसे का उपयोग नहीं कर पाईं. वर्ष 2001 में 191.7 करोड़, 2002 में 277.38 करोड़, वर्ष 2003 में 140.09 करोड़ और वर्ष 2005 में 258.83 करोड़ तथा वर्ष 2006-07 में 335 करोड़ रुपये खर्च नहीं हो पाए. ऐसे में यह कैसे अपेक्षा कि जा सकती है कि आतंकवादी वारदातों पर लगाम लग पाएगी.
भारत क ा खुफिया तंत्र-रिसर्च एवं एनालिसिस विंग यानी रॉ
-इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी
-ऑल इंडिया रेडियो मॉनिटरिंग सर्विस
-ज्वाइंट साइबर ब्यूरो
-सिग्नल्स इंटेलिजेंस निदेशालय
-एविएशन रिसर्च सेंटर
-डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी
-डायरेक्ट्रेट ऑफ मिलिट्री इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ नेवेल इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ एअर इंटेलिजेंस
अन्य एजेंसियां-डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस
-एन्फोरर्समेंट डायरेक्ट्रेट
-केंद्रीय ब्यूरो अन्वेक्षण यानी सीबीआई
-नारकोटिक्स ब्रांच
-राज्यों की पुलिस की गुप्तचर शाखाएं.
एिअर इंटेलिजेंस
असफलता क ी प्रमुख घटननाएं-3 जनवरी, 1948, दिल्ली की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी की हत्या.
-31 अक्टूबर, 1984, प्रधानमंत्री निवास के सुरक्षाकर्मियों में सेंध लगाकर इंदिरा गांधी की हत्या.
-दिल्ली में सांसद ललित माकन और महानगर पार्षद अर्जुन दास की खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दिन दहाड़े हत्या.
-पंजाब में अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोंवाला की हत्या.
-तमिलनाडू के श्रीपेरुबुदूर में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या.
-छह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस.
-पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की बम विस्फोट में हत्या.
-कारगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ.
-दिल्ली में संसद और लाल किले पर हमला.
-जम्मू-कश्मीर विधानसभा और रघुनाथ मंदिर पर हमला.
-कंधार विमान अपहरण कांड.
-अहमदाबाद में अक्षरधाम मंदिर पर हमला.
-अयोध्या में आतंकवादी हमला.
-मुंबई में लोकल टे्रनों में सिलसिलेवार धमाके.
-दिल्ली में दीवाली से ठीक पहले बम धमाके.
-हैदराबाद और मालेगांव की मस्जिदों के पास धमाके.
-वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट.
-जयपुर में सिलसिलेवार बम विस्फोट.
नीरज नैयर
Sunday, July 27, 2008
क रार पर रार, पता नहीं आधार
नीरज नैयर
हमारे देश में हर अच्छे काम के विरोध की परंपरा सी बन गई है. यहां तक की देश हित के मुद्दे भी इससे अछूते नहीं हैं. आजकल परमाणु करार को लेकर मुल्क में बवाल मचा हुआ है. संसद से लेकर सड़क तक हर कोई यही साबित करने पर तुला है कि करार किया तो देश के लिए अच्छा नहीं होगा. पर क्यों अच्छा नहीं होगा इसका जवाब किसी के पास नहीं. इक्का-दुक्का बड़े नेताओं को छोड़कर अधिकतर तो ये भी नहीं जानते कि परमाणु करार की मुखालफत के पीछे क्या कारण हैं. ऊपर वाले हल्ला मचा रहे हैं इसलिए नीचे वालों का हल्ला मचाना स्वभाविक है.
अभी हाल ही में जब एक खबरिया चैनल ने विरोध करने वाले सांसदों का विरोध ज्ञान जानने की कोशिश की तो अधिकतर को उतने ही नंबर मिले जितने शायद स्कूल के दौरान उन्हें सामान्य ज्ञान का पेपर देते वक्त मिले होंगे. 123 क्या है के जवाब में ज्यादातर बस यही कहते रहे कि हमें सब पता है, हम इसका जवाब संसद में देंगे. एक भी सांसद सीधे तौर पर यह नहीं बता सका कि उनके विरोध का आधार क्या है. कुछ ऐसा ही नजारा उस वक्त देखने को मिला था जब एक चैनल ने राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को लेकर सांसदों से सवालात किए थे. तब भी सीधे-सीधे जवाब देने के बजाय सांसद साहेबान बगले झांकने में लगे थे. दरअसल वामदल और अन्य विपक्षी पार्टियों को आपत्ति इस बात को लेकर है कि करार हाइड एक्ट के दायरे में आता है. हाइड एक्ट अमेरिका का घरेलू कानून है जिसे दिसंबर 2006 में पारित किया गया था. करार विरोधियों का कहना है कि अमेरिका इसके कुछ प्रावधानों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है. जैसे अगर भविष्य में भारत परमाणु परीक्षण करता है तो अमेरिका को परमाणु ईंधन की आपूर्ति रोकने का अधिकार होगा. इसके साथ ही समझौता रद्द होने की दशा में अमेरिका भारत को दिए गये उपकरणों को वापस मंगा सकता है.
यह एक्ट तकनीक के हस्तांतरण और दोहरे प्रयोग पर भी रोक लगता है. इस प्रकार भारत का संपूर्ण नाभकीय ईंधन चक्र कार्यक्रम खतरे में पड़ जाएगा. विरोध का एक पहलू यह भी है कि अगर भारत ईरान मसले पर अमेरिका के हितों के खिलाफ कोई भी कदम उठाता है तो संधि रद्द कर दी जाएगी. करार विरोधियों की यह चिंताए ठीक हैं मगर इस पर इतना बखेड़ा खड़ा करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि भारत संधि में यह बात शामिल करवाने में कामयाब रहा है कि दोनों देशों में किसी प्रकार का विरोध होने पर अंतरराष्ट्रीय कानून के जरिए इसका समाधान निकाला जाएगा. विएना कन्वेशन के अनुच्छेद-27 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी अंतरराष्ट्रीय संधि आंतरिक कानूनों से मुक्त होगी. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भी चाहे तो कोई आंतरिक कानून पारित कर सकता है जिसके तहत आयातित की गई कोई भी वस्तु को लौटाना संभव न हो. ऐसे स्थिति में अगर विवाद होगा तो इसका निपटारा अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर ही होगा. सरकार भी अभी हाल ही में इस तरह का कानून अमल में लाने के संकेत दे चुकी है. जहां तक परमाणु परीक्षण की सवाल है तो मसौदे में इस बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा गया है. इसकी जगह अनपेक्षित परिस्थिति शब्द का इस्तेमाल किया गया है. मसौदे के तहत इन अनपेक्षित परिस्थितियों में भारत परमाणु परीक्षण कर सकता है लेकिन उसे पहले अमेरिका को सूचित करना होगा. रक्षा विशेषज्ञ सी.उदय भास्कर के मुताबिक इस समझौते से जुड़े 123 एग्रीमेंट की धारा 6 और 14 में यह भी प्रावधान है कि यदि भारत अपनी सुरक्षा जरूरतों को ध्यान में रखकर परीक्षण करता है तो अमेरिका सकारात्मक रुख अपना सकता है.
करार को लेकर हमारे देश में आमतौर पर यही धारणा बन गई है कि चूंकि करार अमेरिका के साथ है इसलिए सबकुछ अमेरिका तक ही सीमित है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. डील के अमल में आने के बाद न केवल परमाणु आपूर्तिकर्ता समूहदेशों का नजरीया बदलेगा बल्कि भारत परमाणु संपन्न देशों की जमात में भी शामिल हो जाएगा. करार के बाद भारत को विकसित देशों से नवीनतम परमाणु तकनीक भी हासिल हो जाएगी. अब तक भारत को यह तकनीक देने से विकसित देश साफ इंकार करते रहे हैं. शायद उन्हें इस बात का डर था कि भारत इसका इस्तेमाल सैन्य उदद्श्यों के लिए कर सकता है. डील के अमल में आने से हमें अपने परमाणु रिएक्टरों के लिए यूरेनियम हासिल हो सकेगा. देश में यूरेनियम का उत्पादन रिएक्टरों की संख्या में वृद्धि के अनुरूप नहीं बढ़ा है. इसलिए देसी रिएक्टर आजकल यूरेनियम की जबरदस्त किल्लत से जूझ रहे हैं. बिजली की समस्या जो पहले से ही विकराल रूप धारण किए हुए है आने वाले वक्त में और विकराल हो जाएगी. ऐसे में करार का देश हित में अमल में आना बहुत जरूरी है.
क्या है डील
परमाणु ऊर्जा के नागरिक इस्तेमाल के लिए भारत और अमेरिका के बीच हुए समझौते के बाद परमाणु टेक्नोलॉजी के मामले में किए जा रहे भेदभाव से भारत को आजादी मिलेगी और भारत परमाणु तकनीक की मुख्सधारा में शामिल हो जाएगा. इस डील के कुछ महत्वूर्ण प्रावधान निम्नलिखित हैं:
-अमेरिका भारत को परमाणु ईंधन की आपूर्ति करेगा और अन्य आपूर्तिकर्ता देशों से इसकी पूर्ति करने को कहेगा.
-भारत के 22 रिएक्टरों में से 14 आईएईए की निगरानी में होंगे शेष 8 रिएक्टर निगरानी मुक्त होंगे जिसका भारत सामरिक उद्देश्यों के प्रयोग के लिए इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र होगा.
नीरज नैयर
हमारे देश में हर अच्छे काम के विरोध की परंपरा सी बन गई है. यहां तक की देश हित के मुद्दे भी इससे अछूते नहीं हैं. आजकल परमाणु करार को लेकर मुल्क में बवाल मचा हुआ है. संसद से लेकर सड़क तक हर कोई यही साबित करने पर तुला है कि करार किया तो देश के लिए अच्छा नहीं होगा. पर क्यों अच्छा नहीं होगा इसका जवाब किसी के पास नहीं. इक्का-दुक्का बड़े नेताओं को छोड़कर अधिकतर तो ये भी नहीं जानते कि परमाणु करार की मुखालफत के पीछे क्या कारण हैं. ऊपर वाले हल्ला मचा रहे हैं इसलिए नीचे वालों का हल्ला मचाना स्वभाविक है.
अभी हाल ही में जब एक खबरिया चैनल ने विरोध करने वाले सांसदों का विरोध ज्ञान जानने की कोशिश की तो अधिकतर को उतने ही नंबर मिले जितने शायद स्कूल के दौरान उन्हें सामान्य ज्ञान का पेपर देते वक्त मिले होंगे. 123 क्या है के जवाब में ज्यादातर बस यही कहते रहे कि हमें सब पता है, हम इसका जवाब संसद में देंगे. एक भी सांसद सीधे तौर पर यह नहीं बता सका कि उनके विरोध का आधार क्या है. कुछ ऐसा ही नजारा उस वक्त देखने को मिला था जब एक चैनल ने राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को लेकर सांसदों से सवालात किए थे. तब भी सीधे-सीधे जवाब देने के बजाय सांसद साहेबान बगले झांकने में लगे थे. दरअसल वामदल और अन्य विपक्षी पार्टियों को आपत्ति इस बात को लेकर है कि करार हाइड एक्ट के दायरे में आता है. हाइड एक्ट अमेरिका का घरेलू कानून है जिसे दिसंबर 2006 में पारित किया गया था. करार विरोधियों का कहना है कि अमेरिका इसके कुछ प्रावधानों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है. जैसे अगर भविष्य में भारत परमाणु परीक्षण करता है तो अमेरिका को परमाणु ईंधन की आपूर्ति रोकने का अधिकार होगा. इसके साथ ही समझौता रद्द होने की दशा में अमेरिका भारत को दिए गये उपकरणों को वापस मंगा सकता है.
यह एक्ट तकनीक के हस्तांतरण और दोहरे प्रयोग पर भी रोक लगता है. इस प्रकार भारत का संपूर्ण नाभकीय ईंधन चक्र कार्यक्रम खतरे में पड़ जाएगा. विरोध का एक पहलू यह भी है कि अगर भारत ईरान मसले पर अमेरिका के हितों के खिलाफ कोई भी कदम उठाता है तो संधि रद्द कर दी जाएगी. करार विरोधियों की यह चिंताए ठीक हैं मगर इस पर इतना बखेड़ा खड़ा करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि भारत संधि में यह बात शामिल करवाने में कामयाब रहा है कि दोनों देशों में किसी प्रकार का विरोध होने पर अंतरराष्ट्रीय कानून के जरिए इसका समाधान निकाला जाएगा. विएना कन्वेशन के अनुच्छेद-27 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी अंतरराष्ट्रीय संधि आंतरिक कानूनों से मुक्त होगी. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भी चाहे तो कोई आंतरिक कानून पारित कर सकता है जिसके तहत आयातित की गई कोई भी वस्तु को लौटाना संभव न हो. ऐसे स्थिति में अगर विवाद होगा तो इसका निपटारा अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर ही होगा. सरकार भी अभी हाल ही में इस तरह का कानून अमल में लाने के संकेत दे चुकी है. जहां तक परमाणु परीक्षण की सवाल है तो मसौदे में इस बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा गया है. इसकी जगह अनपेक्षित परिस्थिति शब्द का इस्तेमाल किया गया है. मसौदे के तहत इन अनपेक्षित परिस्थितियों में भारत परमाणु परीक्षण कर सकता है लेकिन उसे पहले अमेरिका को सूचित करना होगा. रक्षा विशेषज्ञ सी.उदय भास्कर के मुताबिक इस समझौते से जुड़े 123 एग्रीमेंट की धारा 6 और 14 में यह भी प्रावधान है कि यदि भारत अपनी सुरक्षा जरूरतों को ध्यान में रखकर परीक्षण करता है तो अमेरिका सकारात्मक रुख अपना सकता है.
करार को लेकर हमारे देश में आमतौर पर यही धारणा बन गई है कि चूंकि करार अमेरिका के साथ है इसलिए सबकुछ अमेरिका तक ही सीमित है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. डील के अमल में आने के बाद न केवल परमाणु आपूर्तिकर्ता समूहदेशों का नजरीया बदलेगा बल्कि भारत परमाणु संपन्न देशों की जमात में भी शामिल हो जाएगा. करार के बाद भारत को विकसित देशों से नवीनतम परमाणु तकनीक भी हासिल हो जाएगी. अब तक भारत को यह तकनीक देने से विकसित देश साफ इंकार करते रहे हैं. शायद उन्हें इस बात का डर था कि भारत इसका इस्तेमाल सैन्य उदद्श्यों के लिए कर सकता है. डील के अमल में आने से हमें अपने परमाणु रिएक्टरों के लिए यूरेनियम हासिल हो सकेगा. देश में यूरेनियम का उत्पादन रिएक्टरों की संख्या में वृद्धि के अनुरूप नहीं बढ़ा है. इसलिए देसी रिएक्टर आजकल यूरेनियम की जबरदस्त किल्लत से जूझ रहे हैं. बिजली की समस्या जो पहले से ही विकराल रूप धारण किए हुए है आने वाले वक्त में और विकराल हो जाएगी. ऐसे में करार का देश हित में अमल में आना बहुत जरूरी है.
क्या है डील
परमाणु ऊर्जा के नागरिक इस्तेमाल के लिए भारत और अमेरिका के बीच हुए समझौते के बाद परमाणु टेक्नोलॉजी के मामले में किए जा रहे भेदभाव से भारत को आजादी मिलेगी और भारत परमाणु तकनीक की मुख्सधारा में शामिल हो जाएगा. इस डील के कुछ महत्वूर्ण प्रावधान निम्नलिखित हैं:
-अमेरिका भारत को परमाणु ईंधन की आपूर्ति करेगा और अन्य आपूर्तिकर्ता देशों से इसकी पूर्ति करने को कहेगा.
-भारत के 22 रिएक्टरों में से 14 आईएईए की निगरानी में होंगे शेष 8 रिएक्टर निगरानी मुक्त होंगे जिसका भारत सामरिक उद्देश्यों के प्रयोग के लिए इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र होगा.
नीरज नैयर
Monday, July 21, 2008
जी-8 सम्मेलन: करोड़ों खर्च नतीजा सिफर
नीरज नैयर
बीते दिनों जापान में खाद्यान्न समस्या, जलवायु परिवहन, और आसमान छूती तेल की कीमतों पर लगाम लगाने का रास्ता खोजने के उद्देश्य से आपोजिट जी-8 सम्मेलन में दुनिया ने सबसे धनी आठ देशों के साथ तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-5 आउटीच समूह ने भी शिरकत की. तीन दिनों तक चले विचार मंथन में
60 अरब येन यानी करीब 283 मिलियन पाउंड और रुपए में करीबन 2400 करोड़ खर्च किए गये मगर नतीजा वही निकला जिसकी आशंका जताई जा रही थी. ग्लोबल वार्मिंग जैसे अहम मसले पर बात वहीं आकर अटक गई, जहां से शुरू हुई थी. विकासशील देशों ने विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन संबंधी फार्मूले को मानने से इंकार कर दिया और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी के लिए कोई भी रूपरेखा तैयार करने से बच निकले. हालांकि सम्मेलन के अंत में 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करने पर सभी देशों ने सहमति जरूर जताई मगर यह साफ नहीं किया गया है कि पहल कौन करेगा. क्या भारत और चीन अपने विकसित होने के सपने को अधूरा छोड़ेंगे या फिर अमेरिका और ब्रिटेन आगे बढ़कर कोई उदाहरण पेश करेंगे. ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती. महज चर्चा के लिए जितनी भारी भरकम राशि खर्च की गई अगर इतनी राशि गरीबी और भुखमरी की मार झेल रहे अफ्रीका के किसी इलाके में खर्च की जाती तो शायद वहां के लोगों का कुछ भला होता. जी-8 सम्मेलन हर बार किसी पिकनिक की तरह ही रहा है.
जहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता मिल बैठकर कुछ देर चर्चा करते हैं, लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं, ऐशो आराम के बीच तीन दिन गुजारते हैं और फिर वापस अपने-अपने देश लौट जाते हैं. पिछली बार भी जर्मनी में आयोजित जी-8 सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर कोई खास कारगर रणनीति नहीं बन पाई थी. हालांकि सदस्य देशों ने 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों में 50 फीसदी कटौती के लक्ष्य पर गंभीरता दिखाई थी लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के इस अड़ियल रवैये ने की जब तक चीन और भारत जैसे विकासशील देश इस पर सहमत नहीं होते वह रजामंद नहीं होंगे ने सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया था. एशिया कार्बन व्यापार के निदेशक के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लिए जी-8 नेताओं की ओर से स्वच्छ ऊर्जा के जोरदार समर्थन की आशा कर रहे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है. जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही इंडोनेशिया के बाली में हुए सम्मेलन में भी अमेरिका आदि विकसित देशों की वजह से क्योटो संधि पर बात नहीं बन पाई थी. अमेरिका आदि देश शुरू से ही ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के लिए तेजी से विकास कर रहे भारत और चीन को ही दोषी करार देते आए हैं. वह इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी के लिए वो भी बराबर के जिम्मेदार हैं. ग्रीन हाउस गैसे पिछले आठ लाख साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है.
वैज्ञानिक कई बार आगह कर चुके हैं कि अगर अब भी इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे. जलवायु परिवर्तन के साथ ही भुखमरी जैसे विषय पर भी सम्मेलन में कुछ खास नहीं हो पाया. महज एक साल में हालात बद से बदतर हो गए हैं. जून 2007 में कच्चा तेल 70 डॉलर प्रति बैरल था. इस समय ये 150 के आसपास मंडरा रहा है. दस करोड़ में अधिक लोगों पर भुखमरी का खतरा है. कई देशों में तो रोटी के लिए दंगे तक हो रहे हैं. खुद भारत में ही हालात खस्ता हुए पड़े हैैं. पिछले साल यहां मुद्रास्फीति की दर इन दिनों 4.33 थी, जबकि अब यह आंकड़ा 12 पार करने को बेताब है. पिछले चार जी-8 शिखर सम्मेलन आर्थिक मुद्दों के साथ आतंकवाद या पंसद-नापसंद के विषयों पर ही भटकते रहे. इस बार भी महज सहमति बनने के अलावा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं हो पाया.अगर हर बार भारी-भरकम खर्च के बाद बात महज सहमति तक ही सिमट के रह जाए तो ऐसे सम्मेलनों का क्या फायदा.
क्या है जी-8-दुनिया के सबसे अमीर एवं औद्योगिक देशों का अनौपचारिक संगठन है. ये आठ देश हर साल आम आदमी से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए बैठक करते हैं.
1998 में जुड़ा रूस-इसके सदस्यों में अमेरिका,ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,जापान,इटली और कनाडा हैं. जबकि रूस को 1998 में आठवें सदस्य के रूप में संगठन में शामिल किया गया.
जी-5 आउटरीच समूह-दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं भारत, ब्राजील,चीन, मेक्सिको एवं दक्षिण अफ्रीका के प्रमुखों को भी इस सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता है. इस समूह को जी-5 आउटरीच स्टेट्स कहा जाता है.
क्या है ग्लोबल वामिर्ंग: कारण और उपाय-वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियां ही ग्लोबल वामिर्ंग के लिए दोषी हैं. ग्लोबल वामिर्ंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है. विज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा. इसका असर दिखने भी लगा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं. कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है.वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है. जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.
तो क्या कारण हैं ?-वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण है, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्रोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और फ्रिज, एयरकंडीशनर का बढ़ता प्रयोग भी है.
क्या होगा असर?-इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है. एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जाएंगे.
रोकने के उपाय- ग्लोबल वामिर्ंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं. औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुंआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है. इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.
नीरज नैयर
बीते दिनों जापान में खाद्यान्न समस्या, जलवायु परिवहन, और आसमान छूती तेल की कीमतों पर लगाम लगाने का रास्ता खोजने के उद्देश्य से आपोजिट जी-8 सम्मेलन में दुनिया ने सबसे धनी आठ देशों के साथ तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-5 आउटीच समूह ने भी शिरकत की. तीन दिनों तक चले विचार मंथन में
60 अरब येन यानी करीब 283 मिलियन पाउंड और रुपए में करीबन 2400 करोड़ खर्च किए गये मगर नतीजा वही निकला जिसकी आशंका जताई जा रही थी. ग्लोबल वार्मिंग जैसे अहम मसले पर बात वहीं आकर अटक गई, जहां से शुरू हुई थी. विकासशील देशों ने विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन संबंधी फार्मूले को मानने से इंकार कर दिया और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी के लिए कोई भी रूपरेखा तैयार करने से बच निकले. हालांकि सम्मेलन के अंत में 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करने पर सभी देशों ने सहमति जरूर जताई मगर यह साफ नहीं किया गया है कि पहल कौन करेगा. क्या भारत और चीन अपने विकसित होने के सपने को अधूरा छोड़ेंगे या फिर अमेरिका और ब्रिटेन आगे बढ़कर कोई उदाहरण पेश करेंगे. ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती. महज चर्चा के लिए जितनी भारी भरकम राशि खर्च की गई अगर इतनी राशि गरीबी और भुखमरी की मार झेल रहे अफ्रीका के किसी इलाके में खर्च की जाती तो शायद वहां के लोगों का कुछ भला होता. जी-8 सम्मेलन हर बार किसी पिकनिक की तरह ही रहा है.
जहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता मिल बैठकर कुछ देर चर्चा करते हैं, लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं, ऐशो आराम के बीच तीन दिन गुजारते हैं और फिर वापस अपने-अपने देश लौट जाते हैं. पिछली बार भी जर्मनी में आयोजित जी-8 सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर कोई खास कारगर रणनीति नहीं बन पाई थी. हालांकि सदस्य देशों ने 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों में 50 फीसदी कटौती के लक्ष्य पर गंभीरता दिखाई थी लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के इस अड़ियल रवैये ने की जब तक चीन और भारत जैसे विकासशील देश इस पर सहमत नहीं होते वह रजामंद नहीं होंगे ने सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया था. एशिया कार्बन व्यापार के निदेशक के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लिए जी-8 नेताओं की ओर से स्वच्छ ऊर्जा के जोरदार समर्थन की आशा कर रहे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है. जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही इंडोनेशिया के बाली में हुए सम्मेलन में भी अमेरिका आदि विकसित देशों की वजह से क्योटो संधि पर बात नहीं बन पाई थी. अमेरिका आदि देश शुरू से ही ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के लिए तेजी से विकास कर रहे भारत और चीन को ही दोषी करार देते आए हैं. वह इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी के लिए वो भी बराबर के जिम्मेदार हैं. ग्रीन हाउस गैसे पिछले आठ लाख साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है.
वैज्ञानिक कई बार आगह कर चुके हैं कि अगर अब भी इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे. जलवायु परिवर्तन के साथ ही भुखमरी जैसे विषय पर भी सम्मेलन में कुछ खास नहीं हो पाया. महज एक साल में हालात बद से बदतर हो गए हैं. जून 2007 में कच्चा तेल 70 डॉलर प्रति बैरल था. इस समय ये 150 के आसपास मंडरा रहा है. दस करोड़ में अधिक लोगों पर भुखमरी का खतरा है. कई देशों में तो रोटी के लिए दंगे तक हो रहे हैं. खुद भारत में ही हालात खस्ता हुए पड़े हैैं. पिछले साल यहां मुद्रास्फीति की दर इन दिनों 4.33 थी, जबकि अब यह आंकड़ा 12 पार करने को बेताब है. पिछले चार जी-8 शिखर सम्मेलन आर्थिक मुद्दों के साथ आतंकवाद या पंसद-नापसंद के विषयों पर ही भटकते रहे. इस बार भी महज सहमति बनने के अलावा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं हो पाया.अगर हर बार भारी-भरकम खर्च के बाद बात महज सहमति तक ही सिमट के रह जाए तो ऐसे सम्मेलनों का क्या फायदा.
क्या है जी-8-दुनिया के सबसे अमीर एवं औद्योगिक देशों का अनौपचारिक संगठन है. ये आठ देश हर साल आम आदमी से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए बैठक करते हैं.
1998 में जुड़ा रूस-इसके सदस्यों में अमेरिका,ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,जापान,इटली और कनाडा हैं. जबकि रूस को 1998 में आठवें सदस्य के रूप में संगठन में शामिल किया गया.
जी-5 आउटरीच समूह-दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं भारत, ब्राजील,चीन, मेक्सिको एवं दक्षिण अफ्रीका के प्रमुखों को भी इस सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता है. इस समूह को जी-5 आउटरीच स्टेट्स कहा जाता है.
क्या है ग्लोबल वामिर्ंग: कारण और उपाय-वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियां ही ग्लोबल वामिर्ंग के लिए दोषी हैं. ग्लोबल वामिर्ंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है. विज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा. इसका असर दिखने भी लगा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं. कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है.वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है. जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.
तो क्या कारण हैं ?-वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण है, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्रोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और फ्रिज, एयरकंडीशनर का बढ़ता प्रयोग भी है.
क्या होगा असर?-इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है. एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जाएंगे.
रोकने के उपाय- ग्लोबल वामिर्ंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं. औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुंआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है. इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.
नीरज नैयर
Thursday, July 17, 2008
से यस टू प्लास्टिक
नीरज नैयर
ऐसे वक्त में जब प्लास्टिक के दुष्प्रभाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है यह कहना से यस टू प्लास्टिक किसी के गले नहीं उतरने वाला. और वैसे गले उतरने वाली बात भी नहीं है, प्लास्टिक के खतरों से हम सब अच्छी तरह वाखिफ हैं. आज प्लास्टिक की प्रलय से दुनिया का कोई भी कोना अछूता नहीं है. एक वर्ग किलोमीटर समुद्र में प्लास्टिक के औसतन 46000 टुकड़े तैरते रहते हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां भी पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं. लंदन की टेम्स नदी ही जब भारतीयों द्वारा आस्था के नाम पर फेंके जा रहे प्लास्टिक बैग्स से त्रस्त है तो फिर देश की नदियों के बारे में क्या कहना. यमुना ने तो दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं.
बावजूद इसके ठीक उसी तरह जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं प्लास्टिक का दूसरा रूप भी है. पर्यावरणविद भले ही लंबे समय से प्लास्टिक को खतरा मानकर प्रयोग न करने के लिए जागरुकता अभियान चल रहे हाें मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिक पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिक पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं है.
प्लास्टिक को लेकर उठे विवाद के बीच इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध ने इसकी मुखालफत करने वालों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिक पर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिक का महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिक के बोरों के उपयोग से 12000 करोड रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता को नजर अंदाज करके यह कहना कि इससे जीवन दुश्वार हो गया है, कोई समझदारी की बात नहीं.
सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. यह बात सही है कि प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से इसके कचरे में वृद्धि हुई है. और इसे जलाकर ही नष्ट किया जला सकता है पर अगर ऐसा किया जाता है तो यह पर्यावरण के लिए घातक साबित होगा. ऐसे में इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाईकिलिंग. कुछ समय पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाईकिलिंग किया जा सके. वैसे भी भारत में सालाना प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उपयोग 0.3 किलो है, जो विश्व औसत 19 किलो से खासा कम है. इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं. वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाईकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाईकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाईकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाईकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. इसके साथ-साथ प्लास्टिक के बेजा उपयोग को लेकर नियम और कायदों को भी सख्त बनाने की जरूरत है. हमारे देश में पर्यटन स्थलों पर आने वाले सैलानी अपनी मनमर्जी के मुताबिक प्लास्टिक बैग्स को यहां-वहां फैंक जाते हैं. इससे न केवल उस क्षेत्र की खूबसूरती खराब होती है बल्कि उसका खामियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है. वर्ष 2003 में हिमाचल सरकार ने भारत के पहले राज्य के रूप में इस दिशा में अनूठी पहल की थी. राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया था जिसके तहत पॉलिथिन बैग का प्रयोग करते पाए जाने पर सात साल की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान था. ठीक ऐसे ही दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर दस साल की सजा और आयरलैंड सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर टैक्स लगाकर इसके प्रयोग को काबू में किया था. प्लास्टिक में भले ही कितनी खामियां क्यों न हो मगर इसकी उपयोगिता से आंखे नहीं मूंदी जा सकती. लिहाजा सरकार को इस पर प्रतिबंध की बात सोचने के बजाए मौजूद अन्य विकल्पों पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है.
नीरज नैयर
ऐसे वक्त में जब प्लास्टिक के दुष्प्रभाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है यह कहना से यस टू प्लास्टिक किसी के गले नहीं उतरने वाला. और वैसे गले उतरने वाली बात भी नहीं है, प्लास्टिक के खतरों से हम सब अच्छी तरह वाखिफ हैं. आज प्लास्टिक की प्रलय से दुनिया का कोई भी कोना अछूता नहीं है. एक वर्ग किलोमीटर समुद्र में प्लास्टिक के औसतन 46000 टुकड़े तैरते रहते हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां भी पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं. लंदन की टेम्स नदी ही जब भारतीयों द्वारा आस्था के नाम पर फेंके जा रहे प्लास्टिक बैग्स से त्रस्त है तो फिर देश की नदियों के बारे में क्या कहना. यमुना ने तो दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं.
बावजूद इसके ठीक उसी तरह जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं प्लास्टिक का दूसरा रूप भी है. पर्यावरणविद भले ही लंबे समय से प्लास्टिक को खतरा मानकर प्रयोग न करने के लिए जागरुकता अभियान चल रहे हाें मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिक पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिक पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं है.
प्लास्टिक को लेकर उठे विवाद के बीच इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध ने इसकी मुखालफत करने वालों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिक पर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिक का महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिक के बोरों के उपयोग से 12000 करोड रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता को नजर अंदाज करके यह कहना कि इससे जीवन दुश्वार हो गया है, कोई समझदारी की बात नहीं.
सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. यह बात सही है कि प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से इसके कचरे में वृद्धि हुई है. और इसे जलाकर ही नष्ट किया जला सकता है पर अगर ऐसा किया जाता है तो यह पर्यावरण के लिए घातक साबित होगा. ऐसे में इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाईकिलिंग. कुछ समय पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाईकिलिंग किया जा सके. वैसे भी भारत में सालाना प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उपयोग 0.3 किलो है, जो विश्व औसत 19 किलो से खासा कम है. इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं. वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाईकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाईकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाईकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाईकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. इसके साथ-साथ प्लास्टिक के बेजा उपयोग को लेकर नियम और कायदों को भी सख्त बनाने की जरूरत है. हमारे देश में पर्यटन स्थलों पर आने वाले सैलानी अपनी मनमर्जी के मुताबिक प्लास्टिक बैग्स को यहां-वहां फैंक जाते हैं. इससे न केवल उस क्षेत्र की खूबसूरती खराब होती है बल्कि उसका खामियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है. वर्ष 2003 में हिमाचल सरकार ने भारत के पहले राज्य के रूप में इस दिशा में अनूठी पहल की थी. राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया था जिसके तहत पॉलिथिन बैग का प्रयोग करते पाए जाने पर सात साल की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान था. ठीक ऐसे ही दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर दस साल की सजा और आयरलैंड सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर टैक्स लगाकर इसके प्रयोग को काबू में किया था. प्लास्टिक में भले ही कितनी खामियां क्यों न हो मगर इसकी उपयोगिता से आंखे नहीं मूंदी जा सकती. लिहाजा सरकार को इस पर प्रतिबंध की बात सोचने के बजाए मौजूद अन्य विकल्पों पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है.
नीरज नैयर
Wednesday, July 16, 2008
PUPPY LOVE
By: Swati Sudha
Remember the days you are at home all by yourself with no one to talk to, and then you start fidgeting and becoming restless. You don’t get anything worth watching on T.V, cant concentrate on your work ,have had enough of sleep. You don’t know what to do next. Are these the symptoms you show? If yes, then my friend you suffer from a little bit of loneliness .But don’t worry I have just the right cure for you. I suggest indulge yourself in some ‘PUPPY LOVE’. Hey! don’t get me wrong. I have a simpler definition of this term. I just mean bring home a pet. A puppy may be.
Being an animal lover I strongly advocate adopting a pet, because this will not only cure your loneliness but also give an innocent animal a family.
Staying home alone for the major part of the day with no one to talk to,I rely on my dog to give me company. If you are someone with ‘the gift of gab’ like I am, then there’s no better audience than a pet. The reason being simple-you can keep talking and the pets just listen. They never interrupt or answer back. They believe all that you say and never question. And if you are a girl you can be assured because pets never disclose your secret. For those readers who are finding me crazy for talking to my pet I will just say you have to see it to believe it .This kind of puppy love is really good.
The best part about having a pet as your friend is that you can tell them about all your achievements and they never ask for a treat (something very useful for a penniless person like me).Also pets never quarrel, never yell at you, never expect too much and never make stupid demands like humans. They just ‘give’, their unconditional love and loyalty. Even if you leave them alone at home and return very late, they never get annoyed, never nag. They are always happy to see you more than anyone else. And when you are too sad to speak to anyone they sit by your side to comfort you. No matter how many times you scold them they come to you with their tails wagging behind them.
And if you are thinking that with a pet comes responsibility, then I’ll say you are right. Taking care of a pet is like taking care of a baby, but once they get older they start taking care of you. All they need is a little bit of attention and a whole lot of affection. But believe me these cute animals are far better than human companions in every way for they are ‘selfless’. So next time when someone swears at you calking you a dog or for that matter an animal, take it as a compliment. And if loving a human doesn’t always work for you try Puppy Love.
Swati Sudha
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