नीरज नैयर
परमाणु करार के बाद फेडरल एजेंसी को लेकर देश की सियासत गर्माई हुई है. यूपीए सरकार के प्रस्ताव पर अधिकतर राज्य नाक-मुंह सिकोड़े हुए हैं. उनका मानना है कि केंद्र सरकार फेडरल एजेंसी के नाम पर उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप की योजना बना रही है. जबकि असलियत में ऐसा कुछ भी नहीं है. बीते कुछ समय में जिस तरह से आतंकवादी वारदातों में इजाफा हुआ है, उसने राज्य सरकारों की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है. बेंगलुरु धमाकों के वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से आतंकवादियों को ललकार रहे थे अहमदाबाद धामाकों के बाद उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही है. हालात यह हो चले हैं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में हर तीसरे माह सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं, जिनकी जांच पड़ताल तो दूर की बात है इनमें शामिल आतंकी संगठनों के सुराग तक राज्यों की पुलिस नहीं लगा पाई है. पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों ने साल 2001 से अब तक विभिन्न वारदातों में करीब 69 बड़े धामाके किए, इनमें से ज्यादातर को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है. जांच एजेंसियों ने अधिकतर मामलों में जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदी, हूजी और सिमी आदि संगठनों पर ऊंगली उठाई है मगर ऐसे किसी व्यक्ति को पकड़ने में उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है, जो इन मामलों का मास्टरमांइड हो. बावजूद इसके फेडरल एजेंसी की मुखालफत समझ से परे है. रक्षा विशेषज्ञ भी मौजूदा वक्त में एक ऐसी एजेंसी की जरूरत दर्शा चुके हैं जो सीमाओं के फेर में न उलझे. सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह और सी. उदय भास्कर का मानना है कि तमाम इंतजामों के होते हुए आतंकवादी वारदातें समन्वय की कमी को दर्शाती हैं. दो राज्यों की पुलिस में कोई तालमेल नहीं होता, लिहाजा केंद्रीय जांच एजेंसी का होना जरूरी है. ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे देश में आतंकवाद पर भी राजनीति होती है. भाजपा हर धमाके के बाद पोटा का रोना रोने लगी है जबकि इससे इतर भी कुछ सोचा जा सकता है. अमेरिका आदि देशों में भी तो सियासत का रंग यहां से जुदा नहीं है मगर वहां आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एक दूसरे की टांग खींचने के बजाए मिलकर काम किया जाता है. अमेरिका ने अलकायदा का नामों निशान मिटाने के लिए इराके के साथ जो किया क्या वो हमारे देश में मुमकिन है? शायद नहीं. राज्य सरकारों अपनी सुरक्षा व्यवस्था की चाहें लाख पीठ थपथपाएं मगर सच यही है कि उनका पुलिस तंत्र अब इस काबिल नहीं रहा कि आतंकवादियों से मुकाबला कर सके. इसमें सुधार अत्यंत आवश्यक है पर राज्य इसके प्रति भी गंभीर नहीं दिखाई देते. केंद्र सरकार से हर साल पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर मिलने वाली भारी- भरकम रकम का सदुपयोग भी राज्ये नहीं कर पा रहे हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुए में से डेढ़ हजार करोड़ बिना खर्च के पड़े हुए हैं. इस योजना के तहत देश के सभी 13 हजार थानों को सूचना प्रौघोगिकी से लैस करना, पुलिस को अत्याधुनिक हथियार मुहैया करवाना और स्थानीय खुफिया तंत्र मजबूत करना है. लेकि न कुछ सालों से थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद हो रहे धमाके पुलिस आधुनिकीकरण की असलीयत सामने लाने के लिए काफी हैं. केंद्रीय गृहमंत्रालय 2005 से ही इस योजना के तहत जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों का सारा भार खुद ही वहन करता है जबकि अन्य राज्यों को 75 प्रतिशत सहायता देते है, लेकिन राज्यों से अपने हिस्से का 25 जुटाना भी भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि हर साल करोड़ों रुपए खर्च नहीं हो पाते. मौजूदा वक्त में आतंकवाद का स्वरूप जितनी तेजी से बदला है उतनी तेजी से राज्य अपने आप को तैयार नहीं कर पाए हैं. पहले आतंकवाद का स्वरूप क्षेत्रिय था पर अब अखिल भारतीय हो गया है. आतंकवादी सुरक्षा व्यवस्था की खामियों की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य घूमते रहते हैं ताकि उन खामियों का फायदा उठाया जा सके. ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए तरीका भी अखिल भारतीय होना चाहिए. राज्य अकेले इस खतरे से अपने बलबूत नहीं निपट सकते. केंद्र सरकार काफी लंबे समय से फेडरल एजेंसी की वकालत कर रही है. जयपुर धामाकों के बाद भूटान यात्रा से लौटते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इसके गठन के संकेत भी दिए थे लेकिन राज्यों की उदासीनता और डर के चलते कुछ नहीं हो सका. केंद्र की तरफ से इस बाबत राज्यों से राय मांगी गई, जिसमें से कुछ ने तो साफ इंकार कर दिया और कुछ अब तक जवाब देने की जहमत नहीं उठा पाए हैं. अमेरिका,रूस,चीन और जर्मनी आदि देशों में आतंकवाद के मुकाबले के लिए फेडरल एजेंसी मौजूद है. शायद तभी आतंकवादी वहां कदम रखने से खौफ खाते हैं. अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अब तक कोई बड़ी आतंकी वारदात सुनने में नहीं आई. जबकि अमेरिका अलकायदा आदि इस्लामिक आतंकवादी संगठनो के निशाने पर है. लेकिन इस दौरान भारत में न जाने कितने बम फूट चुके हैं. यूपीए की जगह केंद्र में अगर कोई दूसरी सरकार भी होती तो वो भी पोटा को ये ही हश्र करती. क्योंकि अस्तित्व में आने के बाद से ही पोटा के दुरुपयोग की खबरें सामने आना शुरू हो गई थीं. देश में आतंकवाद रोकने के लिए जो कानून हैं वो काफी हैं, जरूरत है तो बस इनको प्रभावी बनाने की. आतंरिक सुरक्षा का जिम्मा राज्यों का मामला होता है, ऐसे में केंद्र चाहकर भी दहशतगर्दो के खिलाफ अभियान नहीं छेड़ सकता. हर वारदात के बाद राज्य सरकारें सारा दोष केंद्र पर मढ़कर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश में लग जाती हैं. बेंगलुरु और अहमदाबाद धमाकों के बाद भी यही हो रहा है. मोदी और येदीयुरप्पा को सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने की सीख देने के बजाए आडवाणी साहब केंद्र की यूपीए सरकार पर दोषारोपण कर रहे हैं. भाजपा आदि दलों को समझना होगा कि ये वक्त आपसी खुंदक निकालने का नहीं बल्कि मिल बैठकर कारगर रणनीति बनाने का है ताकि फिर कोई आतंकी देश की खुशियों के साथ खिलवाड़ न कर सके.
नीरज नैयर
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