नीरज नैयर
हमें अक्सर खाकी वर्दी की आड़ में रिश्वत लेते हाथ तो नजर आते हैं मगर काले कोट की कालिख कभी नहीं दिखाई देती. अब तक हमें लगता था कि भ्रष्टाचार केवल कुछ सरकारी महकमों और पुलिस तक ही सीमित है लेकिन अब यह अभास होने लगा है कि इसकी पहुंच न्यायपालिक तक भी हो गई है. उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित पीएफ घोटाले में जिस तरह से 36 जजों के नाम सामने आए हैं उससे न्यायाधीशों की न्यायिक जवाबदेही तय करने की जरूरत फिर से महसूस होने लगी है.इस मामले में जिन जजों का नाम लिया जा रहा है उनमें इलाहाबाद हाईकोर्ट, उत्तरांचल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल हैं. इनमें एक जज उच्चतम न्यायालय, दो उच्च न्यायालयों के 11 जज (जिनमें कुछ सेवा में हैं और कुछ सेवानिवृत हो चुके हैं)और जिला एवं अतिरिक्त जिला जज स्तर के 24 अन्य न्यायाधीश लिप्त बताए जा रहे हैं. इसे देश की न्यायपालिका के इतिहास में भ्रष्टाचार और धोखाधडी क़ा सबसे बड़ा मामला कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी.
एक साथ इतने सारे जजों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता का मामला शायद ही कभी सुनने में आया हो. लंबे समय तक चले इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के मामले में कर्मचारी भविष्य निधि यानी पीएफ फंड से फर्जी नामों के सहारे बडी धनराशि निकाली गई और उनके लिए फर्जी खाते भी खुलवाए गये. जहां चैकों का भुगतान किया गया. यह धनराशि गाजियाबाद जिला अदालत के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने बड़े-बड़े जजों को महंगे उपहार और उनके बिलों के भुगतान के लिए निकलवाई थी. वैसे यह कोई अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसने न्यायपालिका को खुद कठघरे में खड़ा कर दिया हो, ऐसे मामलों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त है. उत्तर प्रदेश के साथ ही कोलकाता, हरियाण एवं पंजाब के कुछ जजों ने जिस तरह से न्याय के मंदिर से नाटों का कारोबार किया उसने न सिर्फ न्यायपालिका की छवि को तार-तार किया है बल्कि न्याय की खातिर अदालत की चौखट तक पहुंचने वालों के मन में डर और संशय कायम करने में भी अहम भूमिका निभाई है. कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर जहां महाभियोग चलाने की तैयारी हो रही है वहीं पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की जज निर्मला यादव को न्यायिक कार्यों के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है. सेन पर 1993 में कोर्ट के रिसीवर के रूप में भारत इस्पात प्राधिकरण्र और भारत जहाजरानी निगम के बीच फायरब्रिक्स से जुड़े मामले के मुकदमें में 32 लाख रुपए की रिश्वत का आरोप है. ऐसे ही निर्मला यादव भी 15 लाख की रिश्वत के केस में उलझी हुई हैं.
भले ही दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए हों मगर न्यायपालिका में इस कदर बढ़ते भ्रष्टाचार ने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या जजों को कानूनी संरक्षण देना जायज है. न्यायाधीश अपने द्वारा बनाई गई चार दीवारी के भीतर भ्रष्टाचार का हिस्सा बनने का साहस इसलिए जुटा पाते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि तमाम कानूनी झंझावत और अवमानना की ढाल के सहारे वो बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत सकते हैं. पीफए घोटाले में गाजियाबाद कोर्ट के नजीर आशुतोष अस्थाना के 36 जजों के नाम गिनाए जाने के बाद भी आला पुलिस अधिकारी जजों से पूछताछ को लेकर बगले झांकते रहे. दरअसल किसी भी जज के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति लेने संबंधी कानून के चलते पुलिस भी ऐसे मामलों में हाथ डालने से बचती है जिससे किसी न्यायाधीश का नाम जुड़ा हो. खुद पुलिस अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं. वैसे जजों को प्राप्त कानूनी संरक्षण को लेकर स्थिति पूरी तरह साफ नहीं है. कुछ जानकारों का मानना है कि जजों को सिर्फ ऐसे दीवानी और आपराधिक मामलों में कानूनी संरक्षण हासिल है जो उनके डयूटी पर रहते हुए या कोई कानूनी कर्तव्य निभाते हुए होते हैं. वहीं कुछ विशेषज्ञों कुछ अनुसार अगर कोई जज रिश्वत लेते या गैर कानूनी रूप से तोहफा स्वीकारता है तो यह उनकी कोई सरकारी डयूटी नहीं है और ऐसे मामलों में कानून पुलिस को जांच-पड़ताल से नहीं रोक सकता, कानून महज मुकदमा चलाने से रोक सकता है. निचली अदालतों में पैसा देकर अपने पक्ष में फैसला सुनाने के तमाम मामले सामने आ चुके हैं पर अफसोस कि आरोपी को दोषी सिद्ध करने और उसे समुचित दंड देने की बातें सामने नहीं आती. न्यायपालिका से जुड़ चंद लोगों ने भारतीय न्याय व्यवस्था को किस कदर नीलाम कर रखा है इसका अंदाजा राजस्थान के उस चर्चित मामले से लगाया जा सकता है जिसमें एक जज ने पक्ष में फैसला सुनाने के के लिए सेक्स की मांग की थी. वहीं अहमदाबाद के मैट्रोपोलिटियन मजिस्टे्रट ने 40,000 के एवज में बिना सोच-समझे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था. न्याय व्यवस्था का आशय है दोषी को सजा मिले, याची को सही समय पर न्याय मिले, निर्दोष को लंबे समय तक बेवजह जेल की दीवारों से सिर न टकराना पड़े लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाली न्यायपालिका खुद भ्रष्टाचार के भंवर में फंसती जा रही है. कुछ वक्त पहले तक इस तरह की घटनाएं शायद नहीं होती थी मगर अब आए दिन ऐसे मामले सुनने में आते रहते हैं. ऐसी घटनाओं से यह लगने है कि न्यायाधीश बनने के बाद कुछ लोग अनुशासनहीन, भ्रष्टाचारी बन गये हैं उनका आचरण और कार्य पद की मर्यादा तथा उसकी गरिमा के खिलाफ होने लगा है. न्यायपालिका में बढ़ती इस प्रवति पर रोक के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने का सही वक्त अब आ गया है अगर अब भी इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो जो थोड़ा बहुत विश्वास न्यायपालिका में कायम है वो भी काफुर हो जाएगा.
लगते रहे दाग
-भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार महाभियोग प्रस्ताव 1993 में वी. रामास्वामी के खिलाफ लाया गया था. पंजाब और हरियाणा के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए पद के दुरुपयोग के दोषी पाए गये थे. हालांकि कांग्रेस सदस्यों की गैरहाजिरी के चलते उनका कुछ नहीं बिगड़ पाया था. -देश के पूर्व चीफ जस्टिस वाई.के. सब्बरवाल पर दिल्ली में सीलिंग के दौरान प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के उलट आदेश जारी करने का आरोप लगा था. इसके साथ ही उनपर अपने परिवार के व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने का भी आरोप लगा.
-सुप्रीम कोर्ट के जज एम.एम. पंछी पर न्यायिक उत्तरदायित्व समिति ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. महाभियोग के लिए सांसदों के समर्थन मिलने से पहले वो भारत के मुख्य न्यायाधीश बन गए थे.
-गाजियाबाद कोर्ट के पूर्व केंद्रीय कोषागार अधिकारी आशुतोष अस्थाना ने आठ सालों तक न्यायिक अधिकारियों ये साठगांठ कर जजों को उपहार देने के लिए ट्रेजरी फंड से सात करोड़ रुपए की हेराफेरी की.
-पंजाब और हरियाणा की जस्टिस निर्मल यादव को 15 लाख की रिश्वत के आरोप में न्यायिक दायित्वों से मुक्त कर दिया गया है. इस मामले का खुलासा तब हुआ जब निर्मल को मिलने वाली रकम गलती से दूसरी जज के घर पहुंच गई और उन्होंने पुलिस को बुलाकर रिश्वत देने वाले को पकड़वा दिया.
-न्यायाधीश ए.एस आनंद पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ कोई आरोप साबित नहीं हो पाया.
-वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को न्याय में बाधा डालने का दोषी करार देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने चार महीने के लिए उनकी वकालत पर रोक लगाने के साथ-साथ दो हजार का जुर्माना भी लगाया था. दोनों पर बीएमडब्लू मामले में एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर प्रमुख गवाह को रिश्वत देकर बयान बदलने के लिए दबाव डालने का दोषी पाया गया था.
महाभियोग की कठिन डगर
कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर भले ही महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी हो रही हो मगर इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है. कानून कवच के चलते सेन भी रामस्वामी की तरह साफ बचके निकल सकते हैं. उन्हें पद से हटाए जाने का प्रस्ताव तभी पेश किया जा सकेगा जब लोकसभा के 100 सांसदों और राज्यसभा के 50 सांसदों का इसे समर्थन मिले. हालांकि यूपीए सरकार के लिए इसे जुटाना कोई टेढ़ी खीर नहीं होगी मगर इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है वो शायद कांग्रेस में नही है. कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना उतना आसान नहीं है जितना दिखाई देता है. 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामस्वामी के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली. महालेखाकार ने उनके आवास की फर्निशिंग के काम में भारी विसंगतियां पाईं थीं. रामस्वामी पर यह भी आरोप था कि परिवार द्वारा किए गये फोन कॉल्सों की धनरााशि प्राप्त करने के लिए उन्होंने गलत तरीके से दावा किया था. लेकिन रामस्वामी के खिलाफ प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हो पाया. सेन के मामले में भी सियासी खींचतान के चलते महाभियोग प्रक्रिया बाधित हो सकती है. हो सकता है लोकसभा पहले ही भंग कर दी जाए और महाभियोग प्रक्रिया अधर में लटक जाए. यह प्रक्रिया दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों पर भी निर्भर है लेकिन इस मुद्दे पर उनके दृष्टिकोण अभी तक स्पष्ट नहीं हैं.
उम्मीद की किरण
न्यायापालिका के दामन पर लगते भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण जजों की जवाबदेही तय नहीं होना है. लेकिन जजों के खिलाफ जांच के लिए न्यायिक परिषद के गठन का जो फैसला केंद्र सरकार ने लिया है उसे उम्मीद की एक किरण जरूर कहा जा सकता है. न्यायिक परिषद की स्थापना का उद्देश्य न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाना तथा उसकी साख बढाना है. न्यायाधीश जांच संशोधन विधेयक 2008 संसद में 2006 में पेश किए गए इसी नाम के विधेयक के स्थान पर लाया जाएगा. नए विधेयक में पिछले विधेयक के बारे में संसद की स्थाई समिति की सिफारिशों को शामिल किया गया है.
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