Tuesday, July 28, 2009
सिर्फ मुस्लिमों के साथ ही नहीं होती zयादती
बटला हाउस मुठभेड़ का सच सामने आने के बाद भी इस पर उंगली उठाने वालों की आवाज मंद नहीं पड़ी है, उन्हें लगता है कि सरकार और उसका सिस्टम हकीकत पर पर्दा डालने की कोशिश में लगा है. पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं और शायद आगे भी उठते रहेंगे क्योंकि उत्तराखंड फर्जी एनकाउंटर जैसी वारदातें उसकी व्यवस्था का अंग बन गई हैं. ऐसे मामलों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है जिसमें पुलिसवालों ने पदोन्नती या आर्थिक स्वार्थों की पूर्ती के लिए बेगुनाह लोगों को अपराधी बताकर मौत की नींद सुला दिया. मगर इसका मतलब ये कतई नहीं निकाला जाना चाहिए उसकी हर कार्रवाई झूठ पर आधारित होती है. हमारे देश में खासकर मुस्लिम समुदाय को हमेशा से ही शिकायत रही है कि पुलिस उनका उत्पीड़न कर रही है, उसके लोगों को बेवजह आतंकवादी साबित करने में लगी है.
बटला हाउस मुठभेड़ पर हुए बवाल का कारण भी सिर्फ यही है कि वहां मारे गये आतंकी समुदाय विशेष से जुड़े थे, अगर मुठभेड़ में कोई किशोर, घनश्याम या सुधीर नाम वाले लोग मारे जाते तो शायद जांच के बाद भी जांच की मांग नहीं होती. भले ही देश में हिंदुओं की तादाद यादा है मगर मुस्लिम भी कम नहीं. राजनीति से लेकर हर बड़े तबके में उनक प्रतिनिधित्व करने वाले भरे पड़े हैं. इस देश का राष्ट्रपति एक मुस्लिम रह चुका है, उपराष्ट्रपति भी एक मुस्लिम ही हैं. फिर न जाने क्यों ये समुदाय वक्त दर वक्त नाइंसाफी और भेदभाव जैसे शब्द उछालता रहता है, अगर मुस्लिमों के साथ हिंदुस्तान में सौतेला व्यवहार किया जाता तो क्या मुल्क के सर्वोच्च पद पर किसी मुस्लिम का पहुंचना संभव था. भेदभाव-नाइंसाफी और बेफिजुल प्रताडित करने जैसे आरोप सरासर गलत हैं सच तो ये है कि इस समुदाय ने अपने आप को दूसरों के अलग रखने की मानसिकता धारण कर रखी है और वह उससे बाहर निकलना नहीं चाहता. इसलिए उसे अपने कौम वाले के देश विरोधी गतिविधियों में संलिप्त होने के पीछे भी षड़यंत्र दिखाई पड़ता है, उसे लगता है कि उन्हेंबदनाम करने के लिए साजिश रची जा रही है. उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में रहने वाले मुस्लिम तो अपने को सर्वाधिक प्रताड़ित बताते हैं, उन्हें लगता है कि अल्पसंख्यक होने की वजह से ही पुलिस की आतंकवाद से जुड़ी हर कार्रवाई यहीं से शुरू होती है. पर वो भूल जाते हैं कि आजमगढ़ का आतंकवादियों से रिश्ता नया नहीं है, यहां का सरायमीर हमेशा चर्चा में रहा हैं. हाजी मस्तान ने अपनी दो बेटियों की शादी यहां की. दाऊद इब्राहीम के भाई की ससुराल यहीं है और मुबंई के जेल में बंद अबू सलेम का पैतृक गांव भी सरायमीर है. प्रतिबंधित इस्लामी छात्र संगठन सिमी के संस्थापक अध्यक्ष शाहिद बद्र इसी आजमगढ़ जिले के रहने वाले हैं. जामियानगर में पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए दोनों संदिग्ध मुस्लिम चरमपंथी सरायमीर के पास ही संजरपुर गांव के रहने वाले थे.
इस मुठभेड़ के बाद पकड़े गए कई और संदिग्ध चरमपंथी भी यहीं आसपास से ताल्लुक रहते हैं. अहमदाबाद और जयपुर बम धमाकों के मास्टर माइंड होने के आरोप में पिछले साल गिरफ्तार मुफ्ती अबुल बशर सरायमीर के करीब बीनापार का रहने वाला है. आजमगढ़ की कुल आबादी 32 लाख के करीब है जिसमें मुसलमानों की हिस्सेदारी सबसे यादा है. आजमगढ़ और इसके आस-पास के इलाके सिमी की कार्यस्थली और शरणस्थली रहे हैं, इस प्रतिबंधित संगठन के कार्यकर्ताओं को पनाह देने वालों की आज भी यहां कोई कमी नहीं है. आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी माना जाने लगा है, ऐसे में अगर पुलिस का शक और कार्रवाई यहीं पर केंद्रित होती है तो उसमें गलत क्या है. आमतौर पर भी हम उसी को शक के घेरे में लेकर आते हैं जिसका पिछला रिकॉर्ड सही नहीं रहा, मसलन अगर कोई बच्चा दो बार हमारे घर का शीशा तोड़ चुका है तो तीसरी बार भी हमारा शक उसी पर जाएगा फिर चाहे वह निर्दोष ही क्यों न हो. बटला हाउस मुठभेड़ की जांच में मानवाधिकार आयोग ने यह साफ कर दिया है कि फायरिंग की शुरूआत कमरे के भीतर से हुई और पुलिस दल को आत्मरक्षा में गोलियां चलानी पड़ीं. बटला हाउस के उस कमरे में आतंकी थे या नहीं, और मारे गए लोगों का दिल्ली में हुए बम विस्फोटों में कोई हाथ था या नहीं, इन सवालों पर आयोग ने कोई टिप्पणी नहीं की, उसने अपनी जांच का दायरा सिर्फ यहीं तक सीमित रखा कि पुलिस ने सीधे दरवाजा खुलवाकर बेकसूर लोगों को मार डाला या दोनों तरफ की गोलीबारी में दो युवक मारे गए. इस मुठभेड में दिल्ली पुलिस के इंस्पैक्टर शर्मा भी शहीद हुए थे. जिन लोगों को आयोग की जांच और उसकी विश्वसनीयता पर संदेह हैं उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि वो मानवाधिकार आयोग ही था जिसने गुजरात दंगों की रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों के साथ हुई यादतियों को सामने रखा था.
अगर तब उन्हें आयोग, उसकी जांच सही लग रहे थे तो अब वो आयोग पर उंगली कैसे उठा सकते हैं. इसका मतलब तो यही हुआ कि यदि जांच उनकी सोच से इतर है तो उन्हें उसमें खामिया हीं नजर आएंगी. उत्पीड़न जैसे शब्द पुलिस के शब्दकोष में जरूर हैं मगर उनका इस्तेमाल किसी जाति-धर्म विशेष के आधार पर नहीं किया जाता, अमूमन हर समुदाय के लोग कभी न कभी पुलिस की यादतियों से दो-चार होते रहते हैं, देहरादून में फर्जी में मुठभेड़ में मारा गया युवक रणवीर शायद इसका जीता-जागता सुबूत है.
Sunday, July 26, 2009
जांच पर हंगामा कितना उचित
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को सुरक्षा जांच से क्या गुजरना पड़ा पूरे मुल्क में बवाल हो गया, धड़ाधड प्रतिक्रियाएं आनें लगी, अमेरिकी एयरलाइंस को दोषी करार दिया जाने लगा. संसद में तो तो कुछ माननीय सांसदों ने एयरलाइंस का लाइंसेंस रद्द करने और तलाशी लेने वाले अमेरिकी को देश से निकालने तक की मांग कर डाली. जबकि जिसकी तलाशी ली गई यानी कलाम साहब की वो पूरी तरह खामोश हैं, उन्होंने न तो जांच के वक्त वीवीआई होने का कोई रुबाव झाड़ा और न ही अब कुछ बोल रहे हैं. वो इस बात से सहमत हैं कि सुरक्षा से समझैता नहीं किया जाना चाहिए.कांटिनेंटल एयरलाइंस को अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी डिमार्टमेंट के ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन यानी टीएस की तरफ से स्पष्ट निर्देश दिए गये हैं कि विमान में सवार होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जांच की जाए. उन्होंने अति विशिष्ट, विशिष्ट लोगों के लिए के लिए अलग से कोई दिशा निर्देश नहीं बनाए हैं. ऐसे में जांच करने वाले अधिकारी महज अपनी नौकरी कर रहे थे, उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कलाम साहब किस श्रेणी में आते हैं. रुतबे-रुबाब के आगे नियम-कायदे ताक पर रखने की परंपरा सिर्फ हमारे देश में है, दुबई जैसी खाड़ी मुल्क में भी अति विशिष्ट, विशिष्ट माननीयों को हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ता है, बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि उन्हें आम लोगों की तरह लाइन में नहीं लगना होता.
उनके लिए अलग से व्यवस्था की जाती है. यह बात सही है कि पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते अब्दुल कलाम को जांच से छूट मिली है और उनकी जांच नागरिक उड्डयन ब्यूरों के सर्कुलर का सरासर उल्लघंन है. लेकिन कांटिनेंटल एयरलाइंस जिस मुल्क से ताल्लुक रखती है उसके भी अपने कुछ नियम हैं, कहने वाले बिल्कुल ये कह सकते हैं कि भारत में आने के बाद वह यहां के नियम-कानून मानने के लिए बाध्य है. पर जनाब गौर करने वाली बात ये है कि एयरलाइंस सुरक्षा के अपने मानकों के ऊपर किसी भी देश के नियमों को हावी नहीं होने देती. इतना सब हो जाने के बाद भी कांटिनेंटल की तरफ से हेद जताया गया है, उसने ये कतई नहीं कहा कि फिर ऐसा नहीं होगा, मतलब सुरक्षा सर्वोपरि है. 11 सितंबर 2001 के बाद अमेरिका ने सुरक्षा संबंधि बहुत से कदम उठाए हैं और इसतरह की जांच उसी का एक हिस्सा मात्र हैं, लिहाजा इस पर बेफिजुल का हो-हल्ला करना तर्कहीन ही लगता है. हमारे देश में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रायपाल, पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व उपराष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस, लोकसभा अध्यक्ष समेत 32 श्रेणियों में आने वाले अतिविशिष्ट लोगों को एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच में छूट मिली हुई है. छूट के दायरे में लोकसभा के स्पीकर, केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, रायों के मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, लोकसभा व रायसभा में विपक्ष के नेता, भारत रत्न से सम्मानित हस्तियां, सुप्रीम कोर्ट के जज, मुख्य निर्वाचन आयुक्चत और धर्मगुरु दलाई लामा भी आते हैं. कुछ वक्त पहले तीनों सेनाओं के प्रमुखों को भी इस श्रेणी में शामिल किया गया था, यानी उन्हें भी सुरक्षा जांच के लिए नहीं रोका जा सकता, सरकार ने ये फैसला उस वक्त लिया था जब प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वॉड्रा थलसेना अध्यक्ष के ऊपर रखने पर हंगामा मचा था. रॉबर्ट किसी संवैधानिक पद पर न होते हुए भी अति विशिष्टजनों को मिलने वाली छूट का लाभ इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि वो कांग्रेसाध्यक्ष के दामाद हैं.
वीवीआईपी, वीआईपी तो दूर की बात हैं, हमारे देश में तो थोड़ी सी ऊंचाई पाने वाला हर व्यक्ति अपने आप को राजा समझने लगता है, मसलन प्रेस का तमगा लगने के बाद पत्रकार पुलिस वालों को कुछ नहीं समझते. सामान्य चेकिंग के दौरान अपने आप को रोका जाना उनकी शान में गुस्ताखी करने जैसा होता है. वो अपने आप को आमजन से ऊपर समझते हैं और चाहते हैं कि उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए. जो लोग वैश्ो देवी अक्सर जाते रहते हैं उन्होंने गौर किया होगा कि वहां आने वाले आर्मी के जवान सुरक्षा जांच चौकियों पर तैनात पुलिसकर्मियों से अमूमन उलझते रहते हैं, उन्हें यह गंवारा नहीं होता कि कोई पुलिसवाला उनकी तलाशी ले. पुलिसवाले खुद नियम-कायदों की धाियां उड़ाने से पीछे नहीं रहते, उन्हें लगता है कि उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है. महज कुछ लोग नहीं बल्कि पूरे मुल्क की मानसिकता ही ऐसी हो गई है कि हम हमेशा अपने आप को निर्धारित नियमों से ऊपर रखना चाहते हैं. अब्दुल कलाम ने जांच में सहयोग करके और बेवजह मामले को तूल न देकर एक उदाहरण पेश किया है, उन्होंने इस संबंध में कोई शिकायत तक नहीं की. वह विदेश यात्रा के दौरान सुरक्षा घेरों का हमेशा पालन करते हैं, दरअसल इस मामले को इतना ऊछालने वाले इस बात को लेकर आशंकित हैं कि कहीं कल उनके साथ ऐसा कुछ हो गया तो सारा रुबाब घरा का घरा रह जाएगा, इसलिए वो चाहते हैं कि अमेरिकी एयरलाइंस को सुरक्षा से समझौता न करने का सबक सिखाए जाए. एयरलाइंस के खिलाफ जांच के आदेश दे दिए गये हैउसे ये सिखाने की पूरी कोशिश की जाएगी कि भारत में वीवीआईपी देश उसकी सुरक्षा और हर लिहाज से सबसे ऊपर होते हैं, इसलिए अगर उसे भारत में काम करना है तो अपनी प्राथमिकताओं की सूची में सुरक्षा को दूसरा स्थान देना होगा क्योंकि पहले स्थान पर सिर्फ और सिर्फ वीवीआईपी ही आ सकते हैं.
Wednesday, July 22, 2009
हिलेरी के दौरे से हमें क्या मिला
भारत की छवि विश्व में किस तरह की है यह ओबामा प्रशासन को बताने की जरूरत नहीं, अनाधिकृत और अनुचित जैसे शब्दों का प्रयोग करते वक्त हिलेरी शायद भूल गई कि वो इस्लामाबाद में नहीं नई दिल्ली में खड़ी हैं. हिलेरी क्लिंटन ने इस मुद्दे पर भारत की सलाह मांगकर उसे और उलझाने की कोशिश की है, विदेशमंत्री एमएम कृष्णा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एनपीटी व सीटीबीटी पर राजी न होने पर हिलेरी ने यह पत्ता फेंका. उन्हें पता है कि भारत की तरफ से दी जाने वाली कोई भी सलाह अमेरिकी प्रशासन के दिमाग में चढ़ने वाली नहीं है, और ये बात भारत भी बखूबी जानता है. अमेरिकी विदेश मंत्री के ताजा बयान से यह तय है कि आने वाले दिनों में अमेरिका इस बाबत दबाव बनाएगा कि या तो भारत परमाणु ऊर्जा के दुरुपयोग को रोकने के बारे में कोई सार्थक उपाए सुझाए या फिर उसके कहे रास्ते पर आगे बढ़े. हाल ही में जी-8 देशों के गैरएनपीटी मुल्कों को संवेदनशील तकनीक ईएनआर मुहैया नहीं करवाने के फैसले के पीछे अमेरिका का बहुत बड़ा हाथ है. ओबामा ये कतई नहीं चाहते कि भारत इन संधियों पर हस्ताक्षर किए बिना मिलने वाली छूट कालाभ उठाए. हिलेरी की भारत यात्रा में जिन समझौतों पर बात बनी उसमें रक्षा,परमाणु सहयोग और अंतरिक्ष कार्यक्रम शामिल हैं. एंड यूजर समझौते पर सहमति बनने के बाद अब अमेरिकी कंपनियां संवेदनशील सैन्य साजो सामान और तकनीक भारत को बेच सकेंगी, इस एग्रीमेंट में पहले जो पेंच फंसा था वो इस बात को लेकर था कि अमेरिकी खेमा सालाना निरीक्षण की जिद पर अड़ा था और भारत इसका विरोध कर रहा था. इस समझौत के अमल में आने के बाद अमेरिकी प्रतिरक्षा कंपनियों के लिए करोड़ों के कारोबार के दरवाजे खुल गए हैं. जाहिर है जिस काम में अमेरिका को दोनों हाथों से पैसे बटोरने का मौका मिला उसकी राह में आने वाली बाधाएं वो सबसे पहले हटाएगा. क्या इन चंद समझौतों को कामयाबी या ऐतिहासिक करार दिया जाता है.
जिस परमाणु समझौते की बात की जा रही है उसपर अमेरिका उस पर अमेरिका की तिरछी नजरें हमेशा कायम रहेंगी. परमाणु ऊर्जा सहयोग संधि के दुरुपयोग की बात करके वो कभी अपने हाथ खींच सकता है. रक्षा समझौता उसके फायदे के लिए है, अगर हिलेरी न भी आतीं तो भी उसपर सहमति बन ही जाती. आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ ठोस रुख अख्तियार करने के बजाए हिलेरी ने गोल-मोल बयान देकर महज हमसे हमदर्दी जताने का ही प्रयास किया. भारत आने से पहले ही वो पाक को आश्वस्त कर आई थीं कि उसे चिंतित होने की जरूरत नहीं है. अमेरिका मौजूदा दौर में भारत के लिए अपने महत्वत्ता को भली-भांति समझता है, उसे पता है कि अगर भारत पर थोड़ा सा दबाव बनाए जाए तो वो उसके बताए मार्ग पर ही चलेगा. पाकिस्तान से वार्ता शुरू करने के मसले को इसके परिणाम के रूप में देखा जा सकता है. रूस में मनमोहन जरदारी मुलाकात भी अमेरिका के कहने पर ही हुई थी और शर्म अल शेख में मनमोहन सिंह और गिलानी का संयुक्त वक्तव्य भी वाशिंगटन की दखल का नतीजा था. जिसे प्रधानमंत्री को देश में बवाल मचने के बाद सुधारना पड़ा. अब भी भारत की तरफ से रह-रहकर पाकिस्तान से दोस्ती जैसे बयानात आते रहते हैं. बराक हुसैन ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन को जिस उद्देश्य से भेजा था उसमें वो पूरी तरह सफल हुई हैं, भारत पर दबाव बनाने की दिशा में उन्होंने महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया है जिसे साल के अंत तक मनमोहन सिंह के अमेरिकी दौरे में अंतिम चरण में पहुंचा दिया जाएगा. लिहाजा हिलेरी की यात्रा और अमेरिका के साथ हुए समझौतों पर मुस्कुराने के बजाए बेहतर ये होगा कि इस बात आकलन किया जाए कि इस दौरे से हमें क्या हासिल हुआ.
Sunday, July 19, 2009
उन सवालों के जवाब आज भी मिलना बाकी हैं
ऐसे ही अखबार पढ़ते-पढ़ते एक बहुत पुराना किस्सा याद आ गया. जो दर्दनाक तो था ही, अपने पीछे कुछ ऐसे सवालातक भी छोड़ गया था जिनके जवाब मिलना अभी बाकी हैं. बात सर्दियों के दिनों की है, हाड़कंपा देने वाली ठंड में जब कोहरे की चादर शाम से ही छाने लगती थी तो लोग जल्द ही अपने घरों में कैद हो जाया करते थे, उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ, हमारे घर से तीन-चार घर छोड़कर एक परिवार रहा करता था, जिसमें तीन बच्चे भी थे, वो बच्चे कभी-कभीर हमारे साथ क्रिकेट खेलने आ जाया करते थे. हमारे देश में क्रिकेट और शराब दो ही ऐसी चीज हैं जो अंजानों को भी दोस्त बना देती हैं. इस संबंध में तो हरिवंश राय बच्चन ने लिखा भी है कि मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला.
कुछ दिनों से वो बच्चे न तो हमारे साथ खेलने आए और न ही दिखाई दिए, हमने सोचा कि शायद कहीं बाहर गये होंगे. उनके घर वालों से इतनी अच्छी जान पहचान थी नहीं सो जाकर पता करना मुनासिब नहीं समझा. इन दिनों कई बार उनके घर कुछ हट्टे-कट्टे लोगों को आते और उनके पिताजी को गिड़गिड़ाते देखा, एक-आद बार तो उनके आस-पड़ोसी भी बीच-बचाव करते दिखाई दिए. मामला पूरी तरह तो समझ में नहीं आया लेकिन इतना जरूर पता चल गया कि कुछ गड़बड़ तो जरूर है. कुछ दिन ऐसे ही निकल गये, पढ़ाई को लेकर घरवालों की डांट के चक्कर में क्रिकेट से भी थोड़े दिनों तक नाता तोड़ना पड़ा, उस वक्त हमें लगता था कि ऐसा हमारे साथ ही क्यों होता है, बाद में पता चला कि अमूमन हर बच्चे की यही कहानी है. पढ़ने-लिखने में शुरू से ही कुछ खास मन नहीं लगता था, हां इतना अवश्य पढ़ लिया करते थे कि फेल होने की नौबत न आए. फर्स्ट क्लास या टॉप मारने के सपने हमारे घर वालों ने भले ही देखें हो मगर हमने कभी उस ओर गौर भी नहीं किया. क्रिकेट खेलते-खेलते सुबह जल्दी उठने की आदत लग चुकी थी इसलिए घरवालों ने वो समय पढ़ाई के लिए निर्धारित कर दिया. उनका मानना था कि सुबह-सुबह का याद किया दिमाग से नहीं निकला. कुछ हद तक शायद वो सही भी थे, सुबह-सुबह जितना क्रिकेट खेला वो दिमाग में इस कदर रच-बस गया था कि पढ़ते-पढ़ते भी स्ट्रोक खेलने की प्रैक्टिस कर लिया करते थे. शाम को दोस्तों की चौपाल हुआ करती थी जिसमें सभी अपना-अपना दुखड़ा रोया करते थे, दरअसल सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने का जो मजा था वो किसी और वक्त नहीं मिल सकता था, घूप खिलने के बाद रजाईयों में दुबके बैठे लोग पार्क में धूप सेंकने को आ जाया करते थे, जिनमें अधिकतर बुजुर्ग होते थे और उन्हें समझाना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात होती है.
गेंद अगर पास से निकल भी जाए तो हंगामा खड़ा कर दिया करते हैं. और घर के बाहर यानी सड़क पर अंटियों का जमघट, स्वेटर बुनते-बुनते दूसरों की बुराई करना और हमें धमकाते रहना कि गेंद इधर आई तो खैर नहीं. इन सब के बीच क्रिकेट खेला भी जाता तो कैसे, हमारे ठीक पड़ोस में एक अम्मी जी रहा करती थीं जिनकी आदतों से उनके घर के बच्चे भी आजिज आ चुके थे, शायद इसीलिए बच्चा पार्टी ने उनका नाम छिपकली रखा था. उन्हें हमारा अपने ही घर में खेलना भी पसंद नहीं था, उनके विरोध को दरकिनार करके अगर हम खेलने की कोशिश भी करते तो उनकी रनिंग कमेंट्री शुरू हो जाया करती थी. हमारी बॉल के दिवार फंलागने का उन्हें बेसर्बी से इंतजार रहता था ताकिबॉल रखकर वो हमारा खेल बंद करवां सकतीं. उन दिनों जैसे-तैसे पैसे मिलाकर बॉल खरीदकर लाया करते थे और अम्मीजी थी उन्हें दबाकर हमें आर्थिक रूप से कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. इतने सालों बाद आज भी वो बिल्कुल वैसी ही तंदरुस्त रखी हैं, उनकी जुबान की धार अब भी कायम है, हां ये बात अलग है कि अब उन्हें इतना चीखने और बॉल हथियाने का मौका नहीं मिलता क्योंकि बच्चे आजकल टीवी या इंटरनेट से ही चिपके रहते हैं. खैर हमारी चौपाल में यह फैसला हुआ कि सब अपने-अपने घरवालों को पढ़ाई का समय थोड़ा खिसकाने को कहेंगे और अगर बात नहीं बनी तो, अपने गुस्से का थोड़ा-थोड़ा इजहार करेंगे. अब पता नहीं हमारे फैसले की खबर घरवालों तक पहुंच गई या उन्हें हमारे हाल पर तरस आ गया कि उन्होंने हमें सुबह क्रिकेट खेलने की इजाजत दे दी. जिन एक-दो दोस्तों के घरवाले नहीं माने थे उन्हें हमने हाथ-पैर जोड़कर मना ही लिया.
हम अपने बच्चों को यूं दर-दर की ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते इसलिए उन्हें भी साथ ले जा रहे हैं. उस वक्त हमें लगा कि अगर हम कल थोड़ी हिम्मत दिखा देते तो शायद ये नौबत ही नहीं आती. उस दिन के बाद कुछ दिनों तक हमने क्रिकेट नहीं खेला, शायद हम सदमे में थे. फिर पता चला कि उन बच्चों के पिताजी जो जिंदा बच गये थे को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. उन पर मुकदमा चलाया जाएगा और हो सकता है कि उन्हें जेल भी जाना पड़ा. सुनकर बहुत ही अजीत लगा, जो व्यक्ति पहले से ही इतना दुखी हो उसको और दुख देना कहां का कानून है. उन्होंने जिस स्थिति में वो कदम उठाया वो सब जानते हैं, उन्होंने खुद भी जहर खाया था पर वो बच गये, उन्हें अपने आप में कैसे महसूस हो रहा होगा ये शायद कोई और नहीं समझ सकता.
मन में कई तरह के सवाल और गुस्सा लिए हम घर के सामने ही रहने वाले एक अंकल के पास गये, वो पहले पुलिस में ही थे. उन्होंने हमारे गुस्से को शांत करने की बहुत कोशिश की. उन्होंने बताया कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान है. कानून में ऐसा करने वाले व्यक्ति को गुनाहगार माना जाता है, उसे अधिकतम एक साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है और जुर्माना भी हो सकता है. हम उनके जवाबों से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे या कहें कि हम जानते-बूझते भी संतुष्ट होना नहीं चाहते थे क्योंकि हम ये स्वीकार नहीं पा रहे थे कि आखिर मौत की दहलीज पर जाकर लौटने वाले को हमारे देश का कानून सबकुछ जानते हुए भी कैसे सजा सुना सकता है. वो सवाल तो बचपन में उठे थे वो आज भी वैसे ही सामने खड़े हैं. आत्महत्या जैसा फैसला कोई भी इंसान अपनी खुशी से नहीं उठता, वो इस स्थिति तक तब पहुंचता है जब बाकी सारे दरवाजे उसके लिए बंद हो चुके होते हैं. वो इतना टूट चुका होता है कि जिंदा रहना उसके लिए मौत से भी बदतर बन जाता है. जीवन से पराजित ऐसे अभागे व्यक्ति को सहानुभूति सलाह मशविरे और उचित उपचार की जरूरत है या जेल की. कम से कम अब तो इस सवाल का जवाब खोजा जाना चाहिए. जो व्यक्ति आत्महत्या का प्रयासकरने के कारण पीड़ा और अपमान झेल चुका है उसे कानून के जरिए दंड़ित करना क्रूरता से यादा कुछ नहीं.
Monday, July 13, 2009
ऐसा गलत क्या कहा जयराम ने
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध के खिलाफ बयान देकर मधुमक्खी के छत्थे में हाथ डाल दिया है, उनके खिलाफ पर्यावरणविदों ने तो मोर्चा खोला ही है दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी आवाज बुलंद कर दी है. जयराम रमेश की दलील है कि अगर निर्धारित मानदंडों और तरीकों से प्लास्टिक की रीसाइक्लिंग की जाए तो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचेगा. लेकिन अगर उसकी जगह कागज की थैलियों के प्रचलन ने जोर पकड़ा तो इसके लिए बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाएंगे जो पर्यावरण के लिए कहीं यादा घातक होगा, उनका यह भी तर्क है कि पूरी दुनिया में केवल भारत और बांग्लादेश में ही इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा हुआ है. जबकि उनका विरोध करने वालों की अपनी दलीलें हैं, उनका कहना है कि प्लास्टिक में मौजूद पीवीसी भारी नुकसानदेह होता है, देश में ऐसी उन्नत प्रणाली भी नहीं है जो बेकार प्लास्टिक थैलियों को नियंत्रित कर सके. बेकार थैलियों ने शहरी जीवन को कई स्तरों पर प्रभावित किया है. यही नहीं, इसी के कारण यमुना का बुरा हाल हो गया है. रीसाइक्लिंग के लिए भी जरूरी संसाधन की कमी है एवं पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारी भी नहीं हैं, आदि, आदि.
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि प्लास्टिक के दुष्प्रभाव गंभीर रूप में सामने आ रहे हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं, गंगा-यमुना की हालात हमारे सामने है, यमुना ने तो तकरीबन दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं. हर साल न जाने कितने जानवर पॉलिथिन खाने से मारे जाते हैं. लेकिन सवाल से उठता है कि क्या हर समस्या का समाधान महज प्रतिबंध लगाना ही है. गौर करने वाली बात ये है कि अगर तमाम कोशिशों के बाद भी इस पर पूर्ण रूप से रोक नहीं लगाई जा सकी है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि इसका संबंध लोगों की सुविधा से है और शायद वो अपनी सुविधाओं मे कटौती नहीं करना चाहते. बिना सोचे-विचारे किसी समस्या को यह कहकर की उसे खत्म नहीं किया जा सकता उसके कारक को ही खत्म कर देना कहां की बुध्दिमानी है. प्लास्टिक के अगर दुष्प्रभाव हैं तो उसके फायदे भी हैं, जिनको इसकी मुखालफत करने वाले भी झुठला नहीं सकते. सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. अगर पर्यावरणमंत्री का तर्क लोगों को समझ नहीं आ रहा है तो यह तर्क कहां से समझने लायक है कि संसाधनों की कमी है इसलिए प्रतिबंध लगा दो. अगर संसाधन की कमी है तो उसे दूर करने के प्रयासों के बारे में आवाज बुलंद करने की जरूरत है ना कि प्लास्टिक पर रोक की.
कुछ साल पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सके. मतलब समिति का भी यही मत था कि रीसाइक्लिंग पर जोर दिया जाए. रीसाइक्लिंग से समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है इसमें कोई दोराए नहीं. प्लास्टिक का विरोध भले ही चरम पर क्यों न पहुंच गया हो मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिज् पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिज् पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिकका ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं. प्लास्टिक के फायदों को नजरअंदाज कर इसके दुष्प्रभावों को सामने रखने वालों के लिए यहां इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध का उल्लेख करना बेहद जरूरी है, बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलोें के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिकपर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिकके बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिकका महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिकके बोरों के उपयोग से 12000 करोड़ रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता पर आंखें मूंदकर यह कहना कि यह कहना की यह जीवन के लिए घातक है तो, समझदारी नहीं नासमझी ही कहा जाएगा.
वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है, पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं केलिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रीसाइक्लिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एकरिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाइकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रीसाइक्लिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिकको अगर अधिक से अधिक रीसाइक्लिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. लिहाजा जयराम रमेश ने जो कहा है उस पर हो-हल्ला करने के बजाए उसकी गहराई को समझने का प्रयास करना चाहिए.
Wednesday, July 8, 2009
फ्लॉप शो साबित हुआ आम बजट
इस आम बजट को आमजन की अपेक्षाओं के अनुरूप तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सरकार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के इसमे सारे गुण मौजूद हैं. वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भविष्य में राजनीतिक लाभ से संबंधित योजनाओं को अत्याधिक प्रमुखता दी है. बजट में टैक्सों की हेराफेरी और थोड़ी बहुत छूट प्रदान करके लोकलुभावन बनाने की कोशिश की है लेकिन वो भी कारगर होती नजर नहीं आती. बजट में आयकर छूट सीमा जो पहले 1,50,000 तक थी उसे अब 1,60,000 कर दिया गया है, ऐसे ही महिलाओं के लिए इसे 1,80,000 से बढ़ाकर 1,90,000 किया गया है, हालांकि वरिष्ठ नागरिक इस मामले कुछ यादा फायदे में रहे हैं उनके लिए छूट सीमा पहले के 2,25,000 से बढ़ाकर 2,40,000 कर दी गई है. यानी वरिष्ठ नागरिकों को छोडक़र अधिकतम रियायत दी गई महज 10,000. बजट में जीवन रक्षक दवाएं, बड़ी कारें, एलसीडी, मोबाइल फोन, सीएफएल,वाटर प्यूरीफायर, खेल का सामान आदि सस्ता किया गया है. जबकि डॉक्टर-वकील की सलाह, सोना-चांदी, कपड़े आदि के लिए अब यादा दाम चुकाने होंगे.
नफे -नुकसान के गुणा-भाग में उतरने से पहले बजट के बाकी हिस्सा पर भी प्रकाश डालाना बेहतर रहेगा, प्रणव मुखर्जी ने किसानों का खास ख्याल रखने की बात कही है, उन्हें अब सस्ते दर से कर्ज दिया जाएगा. खाद सब्सिडी अब उनके हाथ तक पहुंचाई जाएगी. 2014-15 तक गरीबी उन्नमूलन की दिशा में उल्लेखनीय काम करने का प्रावधान बजट में है, इसके अलावा अल्पसंख्यकों पर दरियादिली की बरसात की गई है, एससी-एसटी और ओबीसी में आने वाले बच्चों की शिक्षा पर अत्याधिक ध्यान केंद्रित किया गया है. अब बात शुरू करते हैं आयकर छूट से जिसको सरकार की तरफ से बहुत बड़ा कदम बताया जा रहा है, अगर दो हफ्ते पहले ये बजट आता और ये प्रावधान किया गया होता तो कुछ हद तक इसे बड़ा कदम करार दिया जा सकता था लेकिन मौजूदा वक्त में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं. बजट से ठीक पहले सरकार पेट्रोल पर चार और डीजल पर दो रुपए बढ़ा चुकी, उस लिहाज से इस छूट को ऊंट के मुंह में जीरा समान कहा जा सकता है. छूट की सच्चाई को विस्तार से समझने के लिए हम इसको ऐसे देख सकते हैं, अगर आपकी सालाना कमाई 500,000 से 9,90,000 के आसपास है तो आपकी सालाना बचत हुई करीब 1030, अगर 10,00,000 है तो 21530, 20,00,000 पर 51530, और 50,00,000 पर तकरीबन 1,41,530 के आसपास. पहले वाली श्रेणी यानी 500,000 से 9,90,000 को लेकर आगे चलते हैं, इतनी कमाई पर बचत का आंकड़ा सालाना हजार रुपए से थोड़ा सा यादा है और महीने की बात की जाए तो यह पहुंचता है करीब 85.83 के इर्द-गिर्द. अब जरा सोचें की मेट्रो सीटी में रहने वाला एक व्यक्ति जो प्रति माह 100 लीटर के आस-पास पेट्रोल खर्च करता है, उसे तेल की कीमत में मौजूदा वृध्दि के बाद चार रुपए यादा चुकाने होंगे यानी पहले अगर वो 42 रुपए देता था तो अब उसे 46 देने पड़ेंगे. इस हिसाब से 100 गुणा चार मतलब कुल भार बढ़ा 400 और बचत हुई महज 85.83. यानी अगर सही मायनों में देखा जाए तो सरकार ने जितना दिया नहीं उससे यादा वसूल कर लिया. छूट के रूप में सरकार ने केवल एक झुनझुना पकड़ाया है जिसे देखकर बच्चा तो मुस्कुरा सकता है लेकिन पेशेवर व्यक्ति नहीं. अब यह तो केवल प्रणव मुखर्जी और मनमोहन सिंह की आर्थिक विशेषज्ञों की टीम ही बता सकती है कि इस बजट में उदारता जैसे शब्द कहां हैं. बजट में राष्ट्रीय ग्रामीण जैसी योजनाओं पर पैसे की बरसात की गई है जबकि यह कई बार उजागर हो चुका है कि यह योजना भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है.
कहीं-कहीं तो काम करने के बाद भी मजदूरों को उनका मेहनताना नहीं मिलता. ऐसे में यादा जरूरत इस तरह की योजनाओं के व्यापक क्रियान्वयन की थी ताकि जिनके लिए योजनाएं बनाई गई हैं उन तक लाभ पहुंच सके. जहां तक बात अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों को लुभाने की है तो ये पूरा वोट बैंक को रिझाने वाला स्टंट है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत का इजाफा किया गया है. इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, बैंक आदि की व्यवस्था पर भी सरकार ने नजरें इनायत की हैं. यह धनराशि खास तौर से नौ योजनाओं पर खर्च की जाएगी. यादा ध्यान 20 प्रतिशत से अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों में मल्टी सेक्टोरल योजना के कार्यों पर दिया जाएगा. अल्पसंख्यक छात्रों की तालीम के मद्देनजर पूर्व मैट्रिक छात्रवृत्ति, मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति के साथ ही उच्च स्तर पर व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों के लिए योग्यता सह-युक्ति छात्रवृत्ति को भी प्राथमिकता में शामिल किया गया है. इसके साथ ही पश्चिम बंगाल व केरल में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैंपस खोले जाने के लिए 25-25 करोड़ की योजना अलग से है. बजट में अनुसूचित जाति के छात्रों को मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति के मद में ही करीब 750 करोड़ खर्च करने का एलान किया गया है, इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति एवं पिछड़े वर्ग को विशेष केंद्रिय सहायता में 450 करोड़ अगल रखें गये हैं. पिछड़े वर्ग के छात्रों की मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति योजना के लिए 135 करोड़ा का प्रावधान है, जबकि इस
समुदाय के मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति के लिए 30 करोड़ और रखे गये हैं. सरकार का मानना है कि इससे करीब 11 लाख पिछड़े विधार्थियों का भला होगा. ठीक ही है, इतनी रकम से किसी का भी भला हो सकता है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि सामान्य वर्ग की झोली में क्या डाला गया. क्या सामान्य जाति के बच्चों को छात्रवृत्ति की खास जरूरत नहीं पड़ती, क्या गंदगी और अव्यवस्थाओं का आलम केवल अल्पसंख्यक बहुल जिलों में ही होता है.
बजट में सामान्य वर्ग की जरूरतों पर कोई ध्यान केंद्रित नहीं किया गया. माना जा रहा था कि सरकार बजट में महंगाई से राहत दिलाने के लिए कुछ कदम उठा सकती है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा तेल मूल्यों के लिए एक टास्क फोर्स यानी स्टडी ग्रुप बनाने की बात कही गई है. पिछले एक साल में देश में 65 फीसदी परिवारों का जीवन स्तर पहले के मुकाबले खराब हुआ है. इसकी वजह खाद्य और अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ना है. हालांकि यह बात अलग है कि मुद्रास्फीति की दर दिसंबर 2008 से ही 3 फीसदी से नीचे बनी हुई है. कुल मिलाकर कहा जाए तो यह आम बजट पूरी तरह फ्लॉप शो साबित हुआ है और इससे ये संकेत मिलते हैं कि आने वाले दिनों में आयकर में दी गई नाममात्र छूट के एवज में सरकार और कुछ और भार बढ़ा सकती है.
Tuesday, July 7, 2009
बेनजीर के कातिल कहीं जरदारी तो नहीं
बेनजीर भुट्टो की हत्या से जुड़े कुछ सवालात आज भी अनसुलझे हैं. जैसे उनकी हत्या की साजिश के पीछे कौन था, क्या उन्हें गोली मारी गई थी, क्या उनकी सुरक्षा में जानबूझकर लापरवाही बरती गई, आदि, आदि. इतना लंबा अर्सा गुजर जाने के बाद भी पाक सरकार इन सवालातों के उत्तर नहीं खोज पाई है जबकि भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी मुल्क की सर्वोच्च कुर्सी पर विराजमान है. सरकार बैत्तुल्लाह महसूद को कातिल करार दे चुकी है, पर महसूद इससे इंकार करता रहा है. इन सब के बीच संयुक्त राष्ट्र से भी जांच कराने की बातें कही जाती रहीं लेकिन दिसंबर 2007 से अब जाकर यूएन काम शुरू करने जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र में चिली के राजदूत हेराल्डो मुनोज के नेतृत्व में इंडोनेशिया के एक पूर्व एटॉर्नी जनरल और आयरलैंड के एक पूर्व पुलिस अधिकारी को जांच का जिम्मा सौंपा गया है. यह जांच छह महीने चलेगी और ये पता लगाने की कोशिश की जाएगी की भुट्टो की हत्या के मामले में तथ्य क्या है और किन परिस्थितियों में उनकी हत्या हुई. यहां ये काबिले गौर है कि अगर तालिबानी लीडर बैतुल्ला महसूद बेनजीर की हत्या में शामिल था, जैसा की सरकार कहती रही है तो फिर उसे पकड़ने की वाजिब कोशिशें क्यों नहीं की गईं. जरदारी साहब अगर चाहते तो सबकुछ मुमकिन था, वह बेनजीर के पति और राष्ट्रपति होने के नाते उनके कातिलों को बेनकाब करने के लिए कई उच्च स्तरीय जांच कमेटियां गठित कर सकते थे, हालांकि उन्होंने यूएन से 30 मिलियन डॉलर की
महंगी जांच कराने का फैसला ारूर लिया मगर इन सब में इतना वक्त निकल गया कि अब शायद अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसी भी कुछ खास हासिल न कर पाए. जरदारी साहब भुट्टो के सुरक्षा प्रमुख और एकमात्र चश्मदीद गवाह खालिद को भी नहीं बचा सके, कुछ अज्ञात हमलावरों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर डाली.
खालिद को संयुक्त राष्ट्र की जांच टीम के सामने भी गवाही देने थी, जिसे काफी अहम माना जा रहा था. मुंबई हमले के बाद चौतरफा दबाव के बीच जिस तरह से पाक सरकार ने चंद हफ्तो में ही व्यापक कार्रवाई को अंजाम दिया उसे लेकर मुल्क में यह बातें कही जाने लगी कि जब इस मामले में गजब की तत्परता बरती जा सकती है तो बेनजीर हत्या कांड में सुस्त रवैया क्यों अपनाया जा रहा है. मतलब पाक का आवाम भी यह स्वीकार करता है कि सरकार भुट्टो प्रकरण में ईमानदारी नहीं बरत रही है. अब यह सवाल उठना जायज है कि आखिर ऐसा क्यों, अगर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) सत्ता से बेदखल होती या जरदारी दरकिनार कर दिए होते तो ऐसी स्थिति स्वीकारयोग्य हो सकती थी मगर पीपीपी के सत्ता में और जरदारी के राष्ट्रपति होने के बावजूद भुट्टो हत्या कांड को गंभीरता से न लेना उनकी मंशा पर शक जाहिर करता है. बेनजीर की हत्या के बाद पहले उनकी वसीयत को लेकर और बाद में उनके खासमखास से तकरार को लेकर भी जरदारी की भूमिका को संदेह घेरे में आ चुकी है. हस्तलिखित वसीयत में भुट्टो ने कहा था, मैं चाहूंगी कि मेरे पति आसिफ अली जरदारी तब तक अंतरिम तौर पर आपका नेतृत्व करें जब तक कि आप और वे तय नहीं कर लेते कि पार्टी के लिए सबसे अच्छा क्या है. मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि वे एक साहसी और आदरणीय आदमी हैं. उन्होंने साढ़े ग्यारह साल जेल में बिताए लेकिन तमाम यातनाओं के बावजूद झुके नहीं. उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा है कि वे पार्टी को एकजुट रख सकें. एक पन्ने की इस वसीयत पर 16 अक्टूबर की तारीख दर्ज थी. बेनजीर उसके दो दिन बाद ही आठ साल के निर्वासन के बाद पाकिस्तान लौटी थीं. यानी उनके पाक जाने से पहले ही ये साफ हो गया था कि अगर उन्हें कुछ होता है सारी विरासत कौन संभालेगा. भुट्टो की मौत को लेकर पीपीपी ने उस वक्त राष्ट्रपति रहे मुशर्रफ को भी दोषी ठहराया, इसका आधार उन पत्रों को बनाया गया जिसमें भुट्टो ने पर्याप्त सुरक्षा न मिलने की बातें कहीं. दरअसल मुशर्रफ को बेनजीर से शिकस्त का खौफ था इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन ऐसे वक्त में जब सब उनके खिलाफ जा रहा हो वो भुट्टो को मरवाकर सहानभूति की लहर पीपीपी के पक्ष में मोड़ने की भूल शायद नहीं करते.
बेनजीर की हत्या से उन्हें सिर्फ और सिर्फ नुकसान की उठाना पड़ा और उन्होंने उठाया भी. जहां तक बात रही अलकायदा या तालिबान की तो वो किसी महिला पर इस तरह के हमले से इंकार करते हैं और उनका रिकॉर्ड भी इसकी गवाही देता है. यानी कोई ऐसा शक्स जिसे भुट्टो के जाने का सबसे यादा फायदा होता वो इस हत्याकांड को अंजाम देने के बारे में सोच सकता था, यहां से अगर सोचें तो जरदारी के अलावा ऐसा कोई दूर-दूर तक नजर नहीं आता. जरदारी का जिस तरह का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है उस पर गौर फरमाया जाए तो इस बात से इंकार करना थोड़ा और मुश्किल हो जाएगा. जरदारी साहब रईस घराने से रहे हैं, शादी से पहले उनकी अख्याशियों के किस्से किसी से छिपे नहीं है. बेनजीर के साथ उनकी शादी घरवालों की रजामंदी से हुई थी, शादी के बाद उनके आशियाना शौक में भले ही थोड़ी कमी आई हो मगर अपराधिक प्रवृत्ति की रफ्तार तेजी होती चली
गई. उन पर एक ब्रिटिश डेवलेपर की हत्या की कोशिश का इल्जाम लगा, जिसे जरदारी और उनके साथियों ने मौत की दहलीज तक पहुंचा दिया था, उन पर भुट्टो के भाई की हत्या का भी आरोप लगा, हालांकि वो इससे इंकार करते रहे. जब बेनजीर भुट्टो सत्ता में आई तो उनके लिए नए पद का सजृन किया गया, उन्हें इनवेस्टमेंट मिनिस्टर बनाया गया. जरदारी साहब ने इस पद पर रहते हुए खूब धन बटोरा, उन्हें पाकिस्तान में मिस्टर 10 पसर्ेंट के नाम से जाना जाने लगा.
वे कई बार गबन, भ्रष्टाचार के मामलों में अंदर-बाहर होते रहे. मुल्क के साथ-साथ पार्टी में भी उनकी पहचान महज बेनजीर के पति तक ही सीमित हो गई. जरदारी को इस बात का निश्चित ही इल्म होगा कि अगर लंबे अर्से के बाद पाक लौट रहीं बेनजीर को कुछ हो जाता है तो उसका सीधा फायदा उन्हें ही मिलेगा, सहानभूति की लहर उनकी पुरानी पहचान मिटा देगी और उन्हें महज बेनजीर के पति ही हैसीयत से आगे निकलने का मौका मिल जाएगा. इस बात से खुद जरदारी भी इंकार नहीं कर सकते कि अगर बेनजीर जिंदा रहती तो उन्हें कभी इतने ऊपर आने का मौका नहीं मिलता क्योंकि पार्टी में ही उन्हें नापसंद करने वालों की अच्छी खासी तादाद है. सत्ता में आने से पहले तक भुट्टो हत्याकांड की जांच को जोर-शोर से उठाने वाले जरदारी की सत्ता पर काबिज होने के बाद खामोशी उनके खिलाफ पैदा धारणा को और बलवती बनाती है.
Sunday, July 5, 2009
पोर्नोग्राफी का फैलता कारोबार
इंटरनेट पर अशीलता परोसने वाली सैंकड़ों वेबसाइटों मौजूद हैं और इन वेबसाइट्स का ट्रैफिक दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है. सरकार ने सविताभाभी नामक वेबसाइट को बैन करके इस चेन में से एक कड़ी को कम करने की कोशिश की है. मार्च 2008 में लांच की गई इस वेबसाइट को ढेरों शिकायतें मिलने के बाद साइबर कानून के तहत बैन किया गया है सविता भाभी दरअसल अपनी सेक्स लाइफ से हताश एक महिला का कार्टून कैरक्टर है. साइट पर इसे कॉमिक के तौर पर अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं में परोसा जा रहा था. महज आठ महीनों में इस साइट पर 30 हजार से अधिक लोग रजिस्टर कर चुके हैं. एलेक्सा.कॉम के मुताबिक यह वेबसाइट दुनिया की 82वीं सबसे यादा देखी जानेवाली वेवसाइट बन गई है. हालांकि यह कवायद समुंदर के पानी से एक बूंद चुराने जैसी है लेकिन फिर भी इस तरह के कदम सामाजिक वातावरण की स्वच्छता बनाए रखने के लिए नितांत जरूरी हैं.
बीते कुछ वर्षों में ही इस तरह की वेबसाइटों में खासी बढ़ोत्तरी हुई है, एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 4.2 मिलियन साइट पोनोग्राफी को बढ़ावा दे रही हैं. प्रति सेकेंड करीब 28,258 लोग ऐसी वेबाइट्स को देखकर अपनी काम जिज्ञासाओं को शांत करने की कोशिश करते हैं, हर सेकेंड 3,075.64 अमेरिकी डॉलर पार्न साइटों पर खर्च किए जाते हैं. प्रति सेकेंड इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों में से 372 यूजर्स मौजूद विभिन्न सर्च इंजन्स में अडल्ट सर्च करते हैं, और हर दिन करीब 68 मिलियन यानी कुल सर्चिंग का 25 प्रतिशत.अमेरिका में 39 मिनट में एक नया वीडियो क्लिप बनकर तैयार हो जाता है. अशीलता के कारोबार में हमेशा से बहुत पैसा रहा है चाहे फिर कैसेट, सीडी क़े माध्यम से हो या फिर किसी और से. लेकिन इंटरनेट के चलन में तेजी आने के बाद ऑनलाइन सेक्स कारोबार ने सबको पछाड़ दिया है. आलम ये है कि आज पोर्नोग्राफी उद्योग को होने वाली आय के सामने गूगल, माइक्रोसाफ्ट, याहू, ईबे, एप्पल, एमाजोन जैसी नामी-गिरामी कंपनियों की सालाना आय कहीं नहीं ठहरती. इंटरनेट पर इस तरह की वेबसाइट तक पहुंचने के ढ़ेरों तरीके मौजूद हैं, गूगल जैसे सर्च इंजन के आने से ये काम और भी आसान हो गया है. बस संबंधित शब्द लिखकर सर्च करने भर से पोर्नवेबसाइट्स का पूरी दुनिया चंद सेकेंड़ में मॉनीटर स्क्रीन पर आ जाती है. कुछ वेबसाइट इसके लिए बाकायदा फीस वसूलती हैं जबकि कुछ फ्री में पोर्न साहित्य और तस्वीरे उपलब्ध कराती हैं. भारत, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, इजिप्ट, ईरान,वियतनाम, तुक्री आदि देशों में इस तरह की साइट ढूंढने वाले यादातर सेक्स शब्द का प्रयोग करते हैं. जबकि दक्षिण अफ्रीका, आइरलैंड, न्यूजीलैंड, यूनाइटिड़ किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, नॉरवे और कनाड़ा आदि में पोर्न. पोर्नोग्राफी का सबसे अधिक कारोबार अमेरिका, ब्राजील, नीदरलैंड, स्पेन, रूस, जापान, जर्मनी, यूके, कनाड़ा, ऑस्ट्रेलिया में है. अमेरिकी प्रत्रिका प्लेबॉय तो विश्वभर में जाना पहचाना नाम है, अमेरिका के लॉस एंजिल्स, लॉस वेगास, मियामी, पोटलैंड, शिकागो, सेनफ्रांसिस्को आदि शहर इस तरह के कामों के लिए काफी प्रचलित है.
इंटरनेट पर अमेरिका के करीब 244,661,990, जर्मनी के 10,030,200, यूके के करीब 8,506,800, ऑस्ट्रेलिया के 5,655,800, जापान के 2,700,800, रूस के 1,080,600, पोलैंड के 1,049,600 और स्पेन के तकरीबन 852,800 पन्ने पोर्नोग्राफी परोस रहे हैं. अमेरिका की कुल आय में इस उद्योग की हिस्सेदारी लगातार बढ़ती जा रही है, इसकी बिक्री 1992 में 1.60 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2006 में 3.62 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है. भारत में भी यह बाजार चोरी-छिपे पैर पसारता जा रहा है, इस तरह की वेबसाइटों के माध्यम से वेश्यावृत्ति को भी बढ़ावा दिया जाता है. बहुत सी वेबसाइट्स पर डेटिंग के नाम पर बाकायदा मेटिंग करवाई जाती है. सविता भाभी जैसी वेबसाइट को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत ये आती है कि ऐसी साइटों का कोई असल माई-बाप सामने नहीं आता, वो पर्दे के पीछे से बैठकर सारा खेल खेलता रहता है. इसलिए उन तक पहुंच पाना असंभव हो जाता है. सविता भाभी को देशमुख के छद्म नाम से चलाया जा रहा है और इसकी मालिक इंडियन पॉर्न स्टार एम्पायर नाम की कंपनी है. इस वेबसाइट का प्रभाव किस कदर बढ़ गया था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बेंगलुरु में पांचवीं में पढ़ने वाले एक बच्चे ने तो इस पात्र को देखकर अपनी टीचर का अश्लील एमएमएस तक कर डाला. बच्चे की उम्र महज 11 साल होने के कारण पुलिस उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकी.
इस तरह की साइट न केवल विकृत मानसिकता को बढ़ावा देती हैं बल्कि बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए काफी घातक सिध्द होती हैं. यूटियूब जैसी बहुचिर्चित वेबसाइट पर भी कुछ वक्त पहते तक ऐसी सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थी पर अब शायद उसे थोड़ा बहुत नियंत्रित किया गया है, मगर मेटाकैफे अब उसकी जगह भरने के लिए मौजूद है. कहने का मतलब है कि एक के बाद एक साइट अस्तित्व में आती जा रही हैं और इंटरनेट पर अपने को स्थापित करने के लिए वो सब उपलब्ध करा रही हैं जो शायद आज यादातर लोग देखना चाहते हैं. अगर इस कड़ी में नवभारत डॉट कॉम को भी जोड़ा जाए तो कोई गलत नहीं होगा.
Wednesday, July 1, 2009
क्योंकि प्यार में सब जायज है
प्यार का बुखार आजकल तेजी से फैल रहा है, जहां भी नजर घुमाओं लवेरिया से पीड़ित एक दो जोड़े दिखाई दे ही जाते हैं. आलम ये है कि 40-50 डिग्री टैम्परेचर में भी पार्क के किसी कोने में इनका प्यार परवान चढ़ रहा होता है. दिल्ली तो वैसे भी प्यार में डूबे पंक्षियों की शरणस्थली रहा है, यहां के पार्कों में बढ़ी ही तल्लीनता से इश्क फरमाया जाता है. हर डाली के पीछे एक दो फूल माली की परवाह किए बिना आलिंगनबध्द होकर सुखद अनुभव की प्राप्ती में लीन रहते हैं. यह नजारा आंखें सेकने वालों के लिए भी स्वर्णिम साबित होता है, क्योंकि बिना टिकट खरीदे ही वो फिल्मी सीन के साक्षात दर्शन कर लेते हैं. कुछ वक्त पहले तक खाकी वर्दी वाले भी ऐसे सीन की तलाश में पिलर टू पोस्ट करते नजर आ जाते थे ताकि प्यार पर टैक्स वसूल किया जा सके. लेकिन अदालत के फरमान के बाद बेचारे मन मारने को मजबूर हैं. खैर जो कुछ भी हो आजाद ख्यालात वाली दिल्ली में सबकुछ खुले तौर पर तो होता है, लेकिन एक दूसरी राजधानी यानी भोपाल की बात करें तो यहां सब गोलमाल है.
चेहरा ढ़कने का चलन यहां इतने जोरों पर है कि एक बारगी तो लगता है कि हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान के किसी शहर में आ पहुंचे हों. जिसे देखो वो नकाब लगाए फुर्र हुए जा रही हैं. सूरमा भोपाली की नगरी में युवतियों का नकाब प्रेम इस कदर बढ़ गया है कि शायद रात के अंधेरे में भी उन्हें चेहरा दिखाने से परहेज हो. वैसे जनाब नकाब के फायदे ही इतने हैं कि बालाएं चाहकर भी उसे नहीं उतार सकतीं. वो प्रेमी के हाथ में हाथ डालकर घूम सकती हैं, बाइक पर ऐसे चिपककर बैठ सकती हैं कि हवा भी पास न हो, किसी से नजरें चुराए बिना रेस्तरां में बैठकर डेटिंग कर सकती हैं, तो सिर्फ और सिर्फ नकाब की बदौलत. यानी आप चेहरे से तो किसी को पहचान ही नहीं सकते, हां अगर गणित में माहिर हैं तो फिगर से अंदाजा लगाने का प्रयास जरूर कर सकते हैं, वैसे ये काम भी आसान नहीं, क्योंकि फिगर भी आजकल टाईप-टाईप के हो गये हैं. यहां उनका विवरण देना सेंसर बोर्ड को कैंची चलाने का न्यौता देना होगा लिहाजा उसे पढ़ने वाले के विवक पर ही छोड़ देते हैं. वैसे अगर देखा जाए तो उन तालिबानी कमांडरों के लिए जो महिलाओं को ढ़कने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं भोपाली बालाएं एक मिसाल हो सकती हैं, वो बिना किसी फरमान के गैर मर्दों की नजर अपने चेहरे पर नहीं पड़ने देतीं.
बहरहाल जब उनके घर वालों को परेशानी नहीं तो हमें क्या, हमने कौनसा समाज सुधारक बनने का ठेका उठा रहा है. पर इस टॉपिक से साइड लेने से पहले एक दो-चार बातें मराठा नगरी यानी नागपुर की भी कर लेते हैं, वहां की बालाओं पर भी नकाब प्रेम चढ़ गया था मगर पुलिसिया सनक ने प्यार को परवान नहीं चढ़ने दिया. धकाधक इतने चालान काटे कि चेहरा ढ़कने का ख्वाब हकीकत में नहीं बदल पाया. यहां तक तो सब ठीक था पर आजकल प्यार नए-नए रूप भी सामने आने लगा है. पाकिस्तान के सिंघ जिले के बदीन में खाकी वर्दी धारी माफ कीजिएगा खाकी वर्दी तो वहां होती नहीं, नीली-पीली जो भी हो वर्दी पहने मौलवीनुमा पुलिस वालों ने प्यार के दीवाने को पिंजरे में कैद कर लिया. हालांकि उसका प्यार जमाने से थोड़ा हटकर था लेकिन प्यार तो प्यार ही होता है फिर चाहे वह खूबसूरत बला से हो किसी किन्नर से. ये महाशय अल्लाह बचायो किन्नर सरवत फकीर को अपना बनाने जा रहे थे, इसके लिए बाकायदा हाथों में महंगी लागाई गई, दावत रखी गई थी, कुछ खासमखास दोस्त भी बुलाए गये मगर काफिर पुलिस ने उसकी हसरत पूरी नहीं होने दी. इस मामले से कुछ हटकर समलैंगिक प्यार के तराने भी इन दिनो खासे सुनाई पड़ रहे हैं. एक जैसी शारीरिक बनावट वाले लोगों के दिल में एक-दूसरे के लिए प्यार का वो तूफान उमड़ रहा है कि इसकी मुखालफत करने वाले भी खुद को अकेला समझने लगे हैं. सात समुंदर पार तो ऐसे दिलों का मिलना आम बात है, लेकिन अब तो राधा-किशन की धरती यानी भारत में भी प्रेम का यह रूप दर्शन देने लगा है. बात इतनी पुरानी भी नहीं है इसलिए अब तक याद है, पश्चिम बंगाल में दो समलैंगिक युवतियों के विवाह को उनके घरवालों ने मंज़ूरी दे दी थी. हावड़ा जिले की दो युवितियों रिंकू मंडल और तनुश्री मान्ना ने घर से भाग कर शादी कर ली थी.
दुर्गापूजा की धूमधाम के बीच नवमी को दोनों जयपुर से लौटकर हावड़ा पहुंचीं और पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. दोनों के घरवालों ने उनकी इस शादी पर न सिर्फ अपनी मुहर लगा दी, बल्कि उनमें से एक युवती के घरवालों ने तो भविष्य में उनके लिए एक बच्चा गोद लेने का भी फैसला तक कर डाला, आश्चर्यजनक किंतु सत्य. खैर यादों के जहाज पर सवार होकर भारत की सीमा के पार चलें तो ऐसे भी मामले मिलेंगे जो अनोखे प्यार की कहानी बयां करते हैं. अमेरिका के टेक्सस के डैलस शहर में समलैंगिकों के लिए बना सबसे बड़ा चर्च पिछले तीस सालों से भी यादा समय से मौजूद है, यहां हर उम्र के गे, लेस्बियन जोड़े, अपने बच्चों के साथ, यादातर ऐसे बच्चे जिन्हें उन्होंने गोद लिया है या फिर जिन्होंने टेस्ट टयूब बेबी पैदा किए और उन्हें पालपोस कर बड़ा किया है, उतने ही मन से जीसस को याद करते हुए दिखेंगे जैसे दूसरे चर्चों में दिखता है. इस पूरी रामयाण की मोरल ऑफ द स्टोर ये है कि न सिर्फ प्यार की परिभाषा बदल रही है बल्कि प्यार करने के मानक भी बदल रहे हैं, वैसे कहने वाले कहते हैं कि प्यार के कोई मानक नहीं होते. प्यार कभी भी, कहीं भी, किसी से भी हो सकता है. प्यार के लिए नकाब लगाया भी जा सकता है और उठाया भी क्योंकि प्यार में सब जायज है.