नीरज नैयर
हमारे देश में हर अच्छे काम के विरोध की परंपरा सी बन गई है. यहां तक की देश हित के मुद्दे भी इससे अछूते नहीं हैं. आजकल परमाणु करार को लेकर मुल्क में बवाल मचा हुआ है. संसद से लेकर सड़क तक हर कोई यही साबित करने पर तुला है कि करार किया तो देश के लिए अच्छा नहीं होगा. पर क्यों अच्छा नहीं होगा इसका जवाब किसी के पास नहीं. इक्का-दुक्का बड़े नेताओं को छोड़कर अधिकतर तो ये भी नहीं जानते कि परमाणु करार की मुखालफत के पीछे क्या कारण हैं. ऊपर वाले हल्ला मचा रहे हैं इसलिए नीचे वालों का हल्ला मचाना स्वभाविक है.
अभी हाल ही में जब एक खबरिया चैनल ने विरोध करने वाले सांसदों का विरोध ज्ञान जानने की कोशिश की तो अधिकतर को उतने ही नंबर मिले जितने शायद स्कूल के दौरान उन्हें सामान्य ज्ञान का पेपर देते वक्त मिले होंगे. 123 क्या है के जवाब में ज्यादातर बस यही कहते रहे कि हमें सब पता है, हम इसका जवाब संसद में देंगे. एक भी सांसद सीधे तौर पर यह नहीं बता सका कि उनके विरोध का आधार क्या है. कुछ ऐसा ही नजारा उस वक्त देखने को मिला था जब एक चैनल ने राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को लेकर सांसदों से सवालात किए थे. तब भी सीधे-सीधे जवाब देने के बजाय सांसद साहेबान बगले झांकने में लगे थे. दरअसल वामदल और अन्य विपक्षी पार्टियों को आपत्ति इस बात को लेकर है कि करार हाइड एक्ट के दायरे में आता है. हाइड एक्ट अमेरिका का घरेलू कानून है जिसे दिसंबर 2006 में पारित किया गया था. करार विरोधियों का कहना है कि अमेरिका इसके कुछ प्रावधानों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है. जैसे अगर भविष्य में भारत परमाणु परीक्षण करता है तो अमेरिका को परमाणु ईंधन की आपूर्ति रोकने का अधिकार होगा. इसके साथ ही समझौता रद्द होने की दशा में अमेरिका भारत को दिए गये उपकरणों को वापस मंगा सकता है.
यह एक्ट तकनीक के हस्तांतरण और दोहरे प्रयोग पर भी रोक लगता है. इस प्रकार भारत का संपूर्ण नाभकीय ईंधन चक्र कार्यक्रम खतरे में पड़ जाएगा. विरोध का एक पहलू यह भी है कि अगर भारत ईरान मसले पर अमेरिका के हितों के खिलाफ कोई भी कदम उठाता है तो संधि रद्द कर दी जाएगी. करार विरोधियों की यह चिंताए ठीक हैं मगर इस पर इतना बखेड़ा खड़ा करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि भारत संधि में यह बात शामिल करवाने में कामयाब रहा है कि दोनों देशों में किसी प्रकार का विरोध होने पर अंतरराष्ट्रीय कानून के जरिए इसका समाधान निकाला जाएगा. विएना कन्वेशन के अनुच्छेद-27 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी अंतरराष्ट्रीय संधि आंतरिक कानूनों से मुक्त होगी. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भी चाहे तो कोई आंतरिक कानून पारित कर सकता है जिसके तहत आयातित की गई कोई भी वस्तु को लौटाना संभव न हो. ऐसे स्थिति में अगर विवाद होगा तो इसका निपटारा अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर ही होगा. सरकार भी अभी हाल ही में इस तरह का कानून अमल में लाने के संकेत दे चुकी है. जहां तक परमाणु परीक्षण की सवाल है तो मसौदे में इस बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा गया है. इसकी जगह अनपेक्षित परिस्थिति शब्द का इस्तेमाल किया गया है. मसौदे के तहत इन अनपेक्षित परिस्थितियों में भारत परमाणु परीक्षण कर सकता है लेकिन उसे पहले अमेरिका को सूचित करना होगा. रक्षा विशेषज्ञ सी.उदय भास्कर के मुताबिक इस समझौते से जुड़े 123 एग्रीमेंट की धारा 6 और 14 में यह भी प्रावधान है कि यदि भारत अपनी सुरक्षा जरूरतों को ध्यान में रखकर परीक्षण करता है तो अमेरिका सकारात्मक रुख अपना सकता है.
करार को लेकर हमारे देश में आमतौर पर यही धारणा बन गई है कि चूंकि करार अमेरिका के साथ है इसलिए सबकुछ अमेरिका तक ही सीमित है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. डील के अमल में आने के बाद न केवल परमाणु आपूर्तिकर्ता समूहदेशों का नजरीया बदलेगा बल्कि भारत परमाणु संपन्न देशों की जमात में भी शामिल हो जाएगा. करार के बाद भारत को विकसित देशों से नवीनतम परमाणु तकनीक भी हासिल हो जाएगी. अब तक भारत को यह तकनीक देने से विकसित देश साफ इंकार करते रहे हैं. शायद उन्हें इस बात का डर था कि भारत इसका इस्तेमाल सैन्य उदद्श्यों के लिए कर सकता है. डील के अमल में आने से हमें अपने परमाणु रिएक्टरों के लिए यूरेनियम हासिल हो सकेगा. देश में यूरेनियम का उत्पादन रिएक्टरों की संख्या में वृद्धि के अनुरूप नहीं बढ़ा है. इसलिए देसी रिएक्टर आजकल यूरेनियम की जबरदस्त किल्लत से जूझ रहे हैं. बिजली की समस्या जो पहले से ही विकराल रूप धारण किए हुए है आने वाले वक्त में और विकराल हो जाएगी. ऐसे में करार का देश हित में अमल में आना बहुत जरूरी है.
क्या है डील
परमाणु ऊर्जा के नागरिक इस्तेमाल के लिए भारत और अमेरिका के बीच हुए समझौते के बाद परमाणु टेक्नोलॉजी के मामले में किए जा रहे भेदभाव से भारत को आजादी मिलेगी और भारत परमाणु तकनीक की मुख्सधारा में शामिल हो जाएगा. इस डील के कुछ महत्वूर्ण प्रावधान निम्नलिखित हैं:
-अमेरिका भारत को परमाणु ईंधन की आपूर्ति करेगा और अन्य आपूर्तिकर्ता देशों से इसकी पूर्ति करने को कहेगा.
-भारत के 22 रिएक्टरों में से 14 आईएईए की निगरानी में होंगे शेष 8 रिएक्टर निगरानी मुक्त होंगे जिसका भारत सामरिक उद्देश्यों के प्रयोग के लिए इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र होगा.
नीरज नैयर
Sunday, July 27, 2008
Monday, July 21, 2008
जी-8 सम्मेलन: करोड़ों खर्च नतीजा सिफर
नीरज नैयर
बीते दिनों जापान में खाद्यान्न समस्या, जलवायु परिवहन, और आसमान छूती तेल की कीमतों पर लगाम लगाने का रास्ता खोजने के उद्देश्य से आपोजिट जी-8 सम्मेलन में दुनिया ने सबसे धनी आठ देशों के साथ तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-5 आउटीच समूह ने भी शिरकत की. तीन दिनों तक चले विचार मंथन में
60 अरब येन यानी करीब 283 मिलियन पाउंड और रुपए में करीबन 2400 करोड़ खर्च किए गये मगर नतीजा वही निकला जिसकी आशंका जताई जा रही थी. ग्लोबल वार्मिंग जैसे अहम मसले पर बात वहीं आकर अटक गई, जहां से शुरू हुई थी. विकासशील देशों ने विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन संबंधी फार्मूले को मानने से इंकार कर दिया और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी के लिए कोई भी रूपरेखा तैयार करने से बच निकले. हालांकि सम्मेलन के अंत में 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करने पर सभी देशों ने सहमति जरूर जताई मगर यह साफ नहीं किया गया है कि पहल कौन करेगा. क्या भारत और चीन अपने विकसित होने के सपने को अधूरा छोड़ेंगे या फिर अमेरिका और ब्रिटेन आगे बढ़कर कोई उदाहरण पेश करेंगे. ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती. महज चर्चा के लिए जितनी भारी भरकम राशि खर्च की गई अगर इतनी राशि गरीबी और भुखमरी की मार झेल रहे अफ्रीका के किसी इलाके में खर्च की जाती तो शायद वहां के लोगों का कुछ भला होता. जी-8 सम्मेलन हर बार किसी पिकनिक की तरह ही रहा है.
जहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता मिल बैठकर कुछ देर चर्चा करते हैं, लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं, ऐशो आराम के बीच तीन दिन गुजारते हैं और फिर वापस अपने-अपने देश लौट जाते हैं. पिछली बार भी जर्मनी में आयोजित जी-8 सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर कोई खास कारगर रणनीति नहीं बन पाई थी. हालांकि सदस्य देशों ने 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों में 50 फीसदी कटौती के लक्ष्य पर गंभीरता दिखाई थी लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के इस अड़ियल रवैये ने की जब तक चीन और भारत जैसे विकासशील देश इस पर सहमत नहीं होते वह रजामंद नहीं होंगे ने सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया था. एशिया कार्बन व्यापार के निदेशक के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लिए जी-8 नेताओं की ओर से स्वच्छ ऊर्जा के जोरदार समर्थन की आशा कर रहे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है. जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही इंडोनेशिया के बाली में हुए सम्मेलन में भी अमेरिका आदि विकसित देशों की वजह से क्योटो संधि पर बात नहीं बन पाई थी. अमेरिका आदि देश शुरू से ही ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के लिए तेजी से विकास कर रहे भारत और चीन को ही दोषी करार देते आए हैं. वह इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी के लिए वो भी बराबर के जिम्मेदार हैं. ग्रीन हाउस गैसे पिछले आठ लाख साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है.
वैज्ञानिक कई बार आगह कर चुके हैं कि अगर अब भी इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे. जलवायु परिवर्तन के साथ ही भुखमरी जैसे विषय पर भी सम्मेलन में कुछ खास नहीं हो पाया. महज एक साल में हालात बद से बदतर हो गए हैं. जून 2007 में कच्चा तेल 70 डॉलर प्रति बैरल था. इस समय ये 150 के आसपास मंडरा रहा है. दस करोड़ में अधिक लोगों पर भुखमरी का खतरा है. कई देशों में तो रोटी के लिए दंगे तक हो रहे हैं. खुद भारत में ही हालात खस्ता हुए पड़े हैैं. पिछले साल यहां मुद्रास्फीति की दर इन दिनों 4.33 थी, जबकि अब यह आंकड़ा 12 पार करने को बेताब है. पिछले चार जी-8 शिखर सम्मेलन आर्थिक मुद्दों के साथ आतंकवाद या पंसद-नापसंद के विषयों पर ही भटकते रहे. इस बार भी महज सहमति बनने के अलावा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं हो पाया.अगर हर बार भारी-भरकम खर्च के बाद बात महज सहमति तक ही सिमट के रह जाए तो ऐसे सम्मेलनों का क्या फायदा.
क्या है जी-8-दुनिया के सबसे अमीर एवं औद्योगिक देशों का अनौपचारिक संगठन है. ये आठ देश हर साल आम आदमी से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए बैठक करते हैं.
1998 में जुड़ा रूस-इसके सदस्यों में अमेरिका,ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,जापान,इटली और कनाडा हैं. जबकि रूस को 1998 में आठवें सदस्य के रूप में संगठन में शामिल किया गया.
जी-5 आउटरीच समूह-दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं भारत, ब्राजील,चीन, मेक्सिको एवं दक्षिण अफ्रीका के प्रमुखों को भी इस सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता है. इस समूह को जी-5 आउटरीच स्टेट्स कहा जाता है.
क्या है ग्लोबल वामिर्ंग: कारण और उपाय-वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियां ही ग्लोबल वामिर्ंग के लिए दोषी हैं. ग्लोबल वामिर्ंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है. विज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा. इसका असर दिखने भी लगा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं. कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है.वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है. जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.
तो क्या कारण हैं ?-वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण है, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्रोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और फ्रिज, एयरकंडीशनर का बढ़ता प्रयोग भी है.
क्या होगा असर?-इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है. एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जाएंगे.
रोकने के उपाय- ग्लोबल वामिर्ंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं. औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुंआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है. इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.
नीरज नैयर
बीते दिनों जापान में खाद्यान्न समस्या, जलवायु परिवहन, और आसमान छूती तेल की कीमतों पर लगाम लगाने का रास्ता खोजने के उद्देश्य से आपोजिट जी-8 सम्मेलन में दुनिया ने सबसे धनी आठ देशों के साथ तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-5 आउटीच समूह ने भी शिरकत की. तीन दिनों तक चले विचार मंथन में
60 अरब येन यानी करीब 283 मिलियन पाउंड और रुपए में करीबन 2400 करोड़ खर्च किए गये मगर नतीजा वही निकला जिसकी आशंका जताई जा रही थी. ग्लोबल वार्मिंग जैसे अहम मसले पर बात वहीं आकर अटक गई, जहां से शुरू हुई थी. विकासशील देशों ने विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन संबंधी फार्मूले को मानने से इंकार कर दिया और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी के लिए कोई भी रूपरेखा तैयार करने से बच निकले. हालांकि सम्मेलन के अंत में 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करने पर सभी देशों ने सहमति जरूर जताई मगर यह साफ नहीं किया गया है कि पहल कौन करेगा. क्या भारत और चीन अपने विकसित होने के सपने को अधूरा छोड़ेंगे या फिर अमेरिका और ब्रिटेन आगे बढ़कर कोई उदाहरण पेश करेंगे. ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती. महज चर्चा के लिए जितनी भारी भरकम राशि खर्च की गई अगर इतनी राशि गरीबी और भुखमरी की मार झेल रहे अफ्रीका के किसी इलाके में खर्च की जाती तो शायद वहां के लोगों का कुछ भला होता. जी-8 सम्मेलन हर बार किसी पिकनिक की तरह ही रहा है.
जहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता मिल बैठकर कुछ देर चर्चा करते हैं, लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं, ऐशो आराम के बीच तीन दिन गुजारते हैं और फिर वापस अपने-अपने देश लौट जाते हैं. पिछली बार भी जर्मनी में आयोजित जी-8 सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर कोई खास कारगर रणनीति नहीं बन पाई थी. हालांकि सदस्य देशों ने 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों में 50 फीसदी कटौती के लक्ष्य पर गंभीरता दिखाई थी लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के इस अड़ियल रवैये ने की जब तक चीन और भारत जैसे विकासशील देश इस पर सहमत नहीं होते वह रजामंद नहीं होंगे ने सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया था. एशिया कार्बन व्यापार के निदेशक के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लिए जी-8 नेताओं की ओर से स्वच्छ ऊर्जा के जोरदार समर्थन की आशा कर रहे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है. जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही इंडोनेशिया के बाली में हुए सम्मेलन में भी अमेरिका आदि विकसित देशों की वजह से क्योटो संधि पर बात नहीं बन पाई थी. अमेरिका आदि देश शुरू से ही ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के लिए तेजी से विकास कर रहे भारत और चीन को ही दोषी करार देते आए हैं. वह इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी के लिए वो भी बराबर के जिम्मेदार हैं. ग्रीन हाउस गैसे पिछले आठ लाख साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है.
वैज्ञानिक कई बार आगह कर चुके हैं कि अगर अब भी इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे. जलवायु परिवर्तन के साथ ही भुखमरी जैसे विषय पर भी सम्मेलन में कुछ खास नहीं हो पाया. महज एक साल में हालात बद से बदतर हो गए हैं. जून 2007 में कच्चा तेल 70 डॉलर प्रति बैरल था. इस समय ये 150 के आसपास मंडरा रहा है. दस करोड़ में अधिक लोगों पर भुखमरी का खतरा है. कई देशों में तो रोटी के लिए दंगे तक हो रहे हैं. खुद भारत में ही हालात खस्ता हुए पड़े हैैं. पिछले साल यहां मुद्रास्फीति की दर इन दिनों 4.33 थी, जबकि अब यह आंकड़ा 12 पार करने को बेताब है. पिछले चार जी-8 शिखर सम्मेलन आर्थिक मुद्दों के साथ आतंकवाद या पंसद-नापसंद के विषयों पर ही भटकते रहे. इस बार भी महज सहमति बनने के अलावा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं हो पाया.अगर हर बार भारी-भरकम खर्च के बाद बात महज सहमति तक ही सिमट के रह जाए तो ऐसे सम्मेलनों का क्या फायदा.
क्या है जी-8-दुनिया के सबसे अमीर एवं औद्योगिक देशों का अनौपचारिक संगठन है. ये आठ देश हर साल आम आदमी से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए बैठक करते हैं.
1998 में जुड़ा रूस-इसके सदस्यों में अमेरिका,ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,जापान,इटली और कनाडा हैं. जबकि रूस को 1998 में आठवें सदस्य के रूप में संगठन में शामिल किया गया.
जी-5 आउटरीच समूह-दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं भारत, ब्राजील,चीन, मेक्सिको एवं दक्षिण अफ्रीका के प्रमुखों को भी इस सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता है. इस समूह को जी-5 आउटरीच स्टेट्स कहा जाता है.
क्या है ग्लोबल वामिर्ंग: कारण और उपाय-वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियां ही ग्लोबल वामिर्ंग के लिए दोषी हैं. ग्लोबल वामिर्ंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है. विज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा. इसका असर दिखने भी लगा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं. कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है.वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है. जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.
तो क्या कारण हैं ?-वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण है, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्रोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और फ्रिज, एयरकंडीशनर का बढ़ता प्रयोग भी है.
क्या होगा असर?-इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है. एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जाएंगे.
रोकने के उपाय- ग्लोबल वामिर्ंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं. औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुंआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है. इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.
नीरज नैयर
Thursday, July 17, 2008
से यस टू प्लास्टिक
नीरज नैयर
ऐसे वक्त में जब प्लास्टिक के दुष्प्रभाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है यह कहना से यस टू प्लास्टिक किसी के गले नहीं उतरने वाला. और वैसे गले उतरने वाली बात भी नहीं है, प्लास्टिक के खतरों से हम सब अच्छी तरह वाखिफ हैं. आज प्लास्टिक की प्रलय से दुनिया का कोई भी कोना अछूता नहीं है. एक वर्ग किलोमीटर समुद्र में प्लास्टिक के औसतन 46000 टुकड़े तैरते रहते हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां भी पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं. लंदन की टेम्स नदी ही जब भारतीयों द्वारा आस्था के नाम पर फेंके जा रहे प्लास्टिक बैग्स से त्रस्त है तो फिर देश की नदियों के बारे में क्या कहना. यमुना ने तो दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं.
बावजूद इसके ठीक उसी तरह जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं प्लास्टिक का दूसरा रूप भी है. पर्यावरणविद भले ही लंबे समय से प्लास्टिक को खतरा मानकर प्रयोग न करने के लिए जागरुकता अभियान चल रहे हाें मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिक पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिक पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं है.
प्लास्टिक को लेकर उठे विवाद के बीच इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध ने इसकी मुखालफत करने वालों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिक पर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिक का महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिक के बोरों के उपयोग से 12000 करोड रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता को नजर अंदाज करके यह कहना कि इससे जीवन दुश्वार हो गया है, कोई समझदारी की बात नहीं.
सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. यह बात सही है कि प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से इसके कचरे में वृद्धि हुई है. और इसे जलाकर ही नष्ट किया जला सकता है पर अगर ऐसा किया जाता है तो यह पर्यावरण के लिए घातक साबित होगा. ऐसे में इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाईकिलिंग. कुछ समय पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाईकिलिंग किया जा सके. वैसे भी भारत में सालाना प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उपयोग 0.3 किलो है, जो विश्व औसत 19 किलो से खासा कम है. इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं. वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाईकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाईकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाईकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाईकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. इसके साथ-साथ प्लास्टिक के बेजा उपयोग को लेकर नियम और कायदों को भी सख्त बनाने की जरूरत है. हमारे देश में पर्यटन स्थलों पर आने वाले सैलानी अपनी मनमर्जी के मुताबिक प्लास्टिक बैग्स को यहां-वहां फैंक जाते हैं. इससे न केवल उस क्षेत्र की खूबसूरती खराब होती है बल्कि उसका खामियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है. वर्ष 2003 में हिमाचल सरकार ने भारत के पहले राज्य के रूप में इस दिशा में अनूठी पहल की थी. राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया था जिसके तहत पॉलिथिन बैग का प्रयोग करते पाए जाने पर सात साल की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान था. ठीक ऐसे ही दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर दस साल की सजा और आयरलैंड सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर टैक्स लगाकर इसके प्रयोग को काबू में किया था. प्लास्टिक में भले ही कितनी खामियां क्यों न हो मगर इसकी उपयोगिता से आंखे नहीं मूंदी जा सकती. लिहाजा सरकार को इस पर प्रतिबंध की बात सोचने के बजाए मौजूद अन्य विकल्पों पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है.
नीरज नैयर
ऐसे वक्त में जब प्लास्टिक के दुष्प्रभाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है यह कहना से यस टू प्लास्टिक किसी के गले नहीं उतरने वाला. और वैसे गले उतरने वाली बात भी नहीं है, प्लास्टिक के खतरों से हम सब अच्छी तरह वाखिफ हैं. आज प्लास्टिक की प्रलय से दुनिया का कोई भी कोना अछूता नहीं है. एक वर्ग किलोमीटर समुद्र में प्लास्टिक के औसतन 46000 टुकड़े तैरते रहते हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां भी पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं. लंदन की टेम्स नदी ही जब भारतीयों द्वारा आस्था के नाम पर फेंके जा रहे प्लास्टिक बैग्स से त्रस्त है तो फिर देश की नदियों के बारे में क्या कहना. यमुना ने तो दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं.
बावजूद इसके ठीक उसी तरह जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं प्लास्टिक का दूसरा रूप भी है. पर्यावरणविद भले ही लंबे समय से प्लास्टिक को खतरा मानकर प्रयोग न करने के लिए जागरुकता अभियान चल रहे हाें मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिक पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिक पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं है.
प्लास्टिक को लेकर उठे विवाद के बीच इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध ने इसकी मुखालफत करने वालों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिक पर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिक का महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिक के बोरों के उपयोग से 12000 करोड रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता को नजर अंदाज करके यह कहना कि इससे जीवन दुश्वार हो गया है, कोई समझदारी की बात नहीं.
सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. यह बात सही है कि प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से इसके कचरे में वृद्धि हुई है. और इसे जलाकर ही नष्ट किया जला सकता है पर अगर ऐसा किया जाता है तो यह पर्यावरण के लिए घातक साबित होगा. ऐसे में इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाईकिलिंग. कुछ समय पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाईकिलिंग किया जा सके. वैसे भी भारत में सालाना प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उपयोग 0.3 किलो है, जो विश्व औसत 19 किलो से खासा कम है. इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं. वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाईकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाईकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाईकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाईकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. इसके साथ-साथ प्लास्टिक के बेजा उपयोग को लेकर नियम और कायदों को भी सख्त बनाने की जरूरत है. हमारे देश में पर्यटन स्थलों पर आने वाले सैलानी अपनी मनमर्जी के मुताबिक प्लास्टिक बैग्स को यहां-वहां फैंक जाते हैं. इससे न केवल उस क्षेत्र की खूबसूरती खराब होती है बल्कि उसका खामियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है. वर्ष 2003 में हिमाचल सरकार ने भारत के पहले राज्य के रूप में इस दिशा में अनूठी पहल की थी. राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया था जिसके तहत पॉलिथिन बैग का प्रयोग करते पाए जाने पर सात साल की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान था. ठीक ऐसे ही दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर दस साल की सजा और आयरलैंड सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर टैक्स लगाकर इसके प्रयोग को काबू में किया था. प्लास्टिक में भले ही कितनी खामियां क्यों न हो मगर इसकी उपयोगिता से आंखे नहीं मूंदी जा सकती. लिहाजा सरकार को इस पर प्रतिबंध की बात सोचने के बजाए मौजूद अन्य विकल्पों पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है.
नीरज नैयर
Wednesday, July 16, 2008
PUPPY LOVE
By: Swati Sudha
Remember the days you are at home all by yourself with no one to talk to, and then you start fidgeting and becoming restless. You don’t get anything worth watching on T.V, cant concentrate on your work ,have had enough of sleep. You don’t know what to do next. Are these the symptoms you show? If yes, then my friend you suffer from a little bit of loneliness .But don’t worry I have just the right cure for you. I suggest indulge yourself in some ‘PUPPY LOVE’. Hey! don’t get me wrong. I have a simpler definition of this term. I just mean bring home a pet. A puppy may be.
Being an animal lover I strongly advocate adopting a pet, because this will not only cure your loneliness but also give an innocent animal a family.
Staying home alone for the major part of the day with no one to talk to,I rely on my dog to give me company. If you are someone with ‘the gift of gab’ like I am, then there’s no better audience than a pet. The reason being simple-you can keep talking and the pets just listen. They never interrupt or answer back. They believe all that you say and never question. And if you are a girl you can be assured because pets never disclose your secret. For those readers who are finding me crazy for talking to my pet I will just say you have to see it to believe it .This kind of puppy love is really good.
The best part about having a pet as your friend is that you can tell them about all your achievements and they never ask for a treat (something very useful for a penniless person like me).Also pets never quarrel, never yell at you, never expect too much and never make stupid demands like humans. They just ‘give’, their unconditional love and loyalty. Even if you leave them alone at home and return very late, they never get annoyed, never nag. They are always happy to see you more than anyone else. And when you are too sad to speak to anyone they sit by your side to comfort you. No matter how many times you scold them they come to you with their tails wagging behind them.
And if you are thinking that with a pet comes responsibility, then I’ll say you are right. Taking care of a pet is like taking care of a baby, but once they get older they start taking care of you. All they need is a little bit of attention and a whole lot of affection. But believe me these cute animals are far better than human companions in every way for they are ‘selfless’. So next time when someone swears at you calking you a dog or for that matter an animal, take it as a compliment. And if loving a human doesn’t always work for you try Puppy Love.
Swati Sudha
IN THE NEWS
Swati Sudha
Is it not strange that every time there’s something weird or depressing happening around us the news channels always have it on tape? Yes, something when exposed to media have positive repercussions, but, there is always another side to the coin. Remember that news when down in south a bride was mercilessly beaten up by her father because she didn’t want to marry. I mean showing all this on T.V was good as it brought into light the violence against women but why didn’t the media stop the man from thrashing his daughter instead of recording it all? It was because they wanted NEWS. If they would have just ‘said’ that a bride was beaten up then the real effect would be missing. Visual stimuli are more effective in catching attention than audio stimuli and audio visual still better. During a natural calamity the T.V will find an old man trapped beneath the debris and instead of pulling him out they’ll roll the camera so that they have NEWS.
A few days back a young girl was found dead in a car ‘bare bodied’. Well was that news to be telecast nation wide? The media stressed on the word ‘naked’ every time one heard the news. As it is the family was shattered by the death of their daughter and to add to their misery the media was busy embarrassing them by telling the entire nation that the girl was naked. Would they do the same if it was their daughter? Was this very personal issue a topic for national news? And also when a dalit woman was being beaten up in public, they had it on tape. I mean even when someone is being murdered then instead of saving that person they want to save their own skin and make news. What kind a world do we live in? Even when somebody is preparing to burn himself up the T.V people won’t stop him from killing himself. And why would they, after all this gives them NEWS to keep the audience glued to the T.V for one whole day or more. This is the plight of our nation. The media people cannot be blamed alone. The rule is that whatever is demanded that will be supplied the public itself is not satisfied by the distressing news they hear. They want pictures and videos to top it all up. So every time you turn on your T.V you will find all the irrelevant issues being shown as ‘the news’ which has no importance for the nation as a whole. But whatever is spicy enough to make the audience lick their fingers it’s got to be IN THE NEWS.
Swati Sudha
Is it not strange that every time there’s something weird or depressing happening around us the news channels always have it on tape? Yes, something when exposed to media have positive repercussions, but, there is always another side to the coin. Remember that news when down in south a bride was mercilessly beaten up by her father because she didn’t want to marry. I mean showing all this on T.V was good as it brought into light the violence against women but why didn’t the media stop the man from thrashing his daughter instead of recording it all? It was because they wanted NEWS. If they would have just ‘said’ that a bride was beaten up then the real effect would be missing. Visual stimuli are more effective in catching attention than audio stimuli and audio visual still better. During a natural calamity the T.V will find an old man trapped beneath the debris and instead of pulling him out they’ll roll the camera so that they have NEWS.
A few days back a young girl was found dead in a car ‘bare bodied’. Well was that news to be telecast nation wide? The media stressed on the word ‘naked’ every time one heard the news. As it is the family was shattered by the death of their daughter and to add to their misery the media was busy embarrassing them by telling the entire nation that the girl was naked. Would they do the same if it was their daughter? Was this very personal issue a topic for national news? And also when a dalit woman was being beaten up in public, they had it on tape. I mean even when someone is being murdered then instead of saving that person they want to save their own skin and make news. What kind a world do we live in? Even when somebody is preparing to burn himself up the T.V people won’t stop him from killing himself. And why would they, after all this gives them NEWS to keep the audience glued to the T.V for one whole day or more. This is the plight of our nation. The media people cannot be blamed alone. The rule is that whatever is demanded that will be supplied the public itself is not satisfied by the distressing news they hear. They want pictures and videos to top it all up. So every time you turn on your T.V you will find all the irrelevant issues being shown as ‘the news’ which has no importance for the nation as a whole. But whatever is spicy enough to make the audience lick their fingers it’s got to be IN THE NEWS.
Swati Sudha
नहीं थमेगी पगार पर तकरार?
नीरज नैयर
वेतन आयोग की रिपोर्ट पर मचे बवाल के बाद सरकार मंथन में जुटी है पर इस बात की उम्मीद कम ही नजर आती है कि बीच का कोई रास्ता निकाल लिया जाएगा. जानकारों के अनुसार सरकार इस मामले को बस कुछ समय के लिए टाले रखना चाहती है क्योंकि महंगाई और करार को लेकर पहले से ही हा-हाकार मचा हुआ है.
वेतन आयोग की रिपोर्ट आने के कुछ समय बाद ही इसको लेकर विवाद खड़ा हो गया था. आयोग ने अपनी सिफारिशों में मुख्य रूप से क्रीमी लेयर को ही प्रभावित करने की कोशिश की है. मौजूदा आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक न्यूनतम और अधिकतम वेतन अनुपात 1:12 से अधिक है, जो कि पिछले वेतन आयोग की सिफारिशों से कहीं ज्यादा है. आयोग की सिफारिशों में जहां अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतनमान में भारी असमानता व विसंगतियां हैं, वहीं भत्तों के आवंटन में भी भेदभाव किया गया है. सबसे हैरत की बात तो यह है कि आयोग ने जहां एक ओर उच्च श्रेणी के अधिकारियों के वेतन में 100 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि की है, वहीं निम्न श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन और भत्तावृद्धि 23 से 50 प्रतिशत के आस-पास ही रखी है. आयोग ने शीर्षस्थ कैबिनेट सचिव के वेतन में करीब 35500 रुपए की वृद्धि की बात कही है, जबकि निम्न श्रेणी के क्लर्क के वेतनमान में मामूली बढ़ोत्तरी की सिफारिश की गई है. निम्न स्तर के मुकाबले उच्च श्रेणी में 24 गुना वृद्धि समता के सिद्धांत पर कहीं से भी खरी नहीं उतरती. पूर्ववर्ती वेतन आयोगों ने अपनी सिफारिशों में प्रचलित वेतन, भत्ता, महंगाई भत्ता और अंतरिम राहत में बढ़ोत्तरी में सभी श्रेणियों के लिये 20-40 प्रतिशत एक सरीखी वृध्दि देने को कहा था पर छठे वेतन आयोग ने इससे उलट ही काम किया है.
मौजूदा आयोग की सिफारिश में जैसे-जैसे श्रेणश्नियां और वेतन भत्ते बढ़ते हैं, वैसे-वैसे वेतन भत्तों आदि में बढ़ोत्तरी होती है. पांचवे वेतन आयोग में श्रेणी-1 के दायरे में आने वाले वरिष्ठ स्तर के अधिकारियों को बेसिक वेतनमान 14300 से 26000 निर्धारित था जिसे बढ़ाकर अब 48200 से 67000 करने की सिफारिश की गई है. यानी करीब 34000-41000 का भारी भरकम इजाफा वेतनमान में किया गया है. वहीं श्रेणी-1 के मध्य स्तर के अधिकारियों का वेतनमान 8000-20900 के बजाए 21000-39100 करने की बात कही गई है. मतलब 13000-18200 का इजाफा जबकि श्रेणी-॥ व ॥। में करीब 8000-21000 और श्रेणी ढ्ढङ्क में मामूली बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव है. इसके साथ ही आयोग ने करीब 12 लाख ग्रुप डी कर्मचारियों के पदों को खत्म करने की सिफारिश की है. इनमें से एक लाख पद तो फिलहाल रिक्त पड़े हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रुप डी पदों पर जो कर्मचारी अभी कार्यरत् हैं, उनमें से न्यूनतम हाईस्कूल योग्यता रखने वाले कर्मचारियों को ग्रुप सी में प्रमोट कर दिया जाए और बाकी ग्रुप डी के पदों पर नई भर्तियां न की जाए.
नई भर्तियों के बजाए मौजूदा पदों को ही समाप्त करने की सिफारिश से पता चलता है कि आयोग ने रोजगार बढ़ाने के बजाए बेरोजगार बढ़ाने वाली नीतियों पर जोर दिया है. आयोग की रिपोर्ट आने से पहले यह मानकर चला जा रहा था कि छठे वेतन आयोग में खासतौर से सेना और आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा संभाल रहे सुरक्षा बलों का खास ध्यान रखा जायेगा. मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. अधिकारियों की कमी से जूझ रही सेना ने वेतनमान में 100-200 प्रतिशत वृध्दि की मांग की थी. ताकि निजी क्षेत्र की चकाचौंध अफसरों को प्रभावित न कर पाए, मगर आयोग ने सभी मांगों को दरकिनार करते हुए सेना के हाथ में मामूली बढ़ोत्तरी का लॉलीपॉप थमा दिया है. सेना के जवान महसूस कर रहे हैं कि नागरिक सेवाओं के मुकाबले उनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया है. जवानों के वेतन में महज 1000 रुपए की मामूली बढ़ोत्तरी की गई है, वहीं लेफ्टिनेंट कर्नल और कर्नल के वेतनमान में भी मुश्किल से चार-पांच हजार का इजाफा किया गया है. जबकि नागरिक सेवा में उच्च श्रेणियों के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कई गुना वृध्दि की सिफारिश की गई है. ऐसे ही आयोग की सिफारिशों ने आखिल भारतीय सेवाओं में भी असमानता उत्पन्न कर दी है. आयोग ने यहां भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों (आईएएस) को खुश करने के लिये दोनों हाथ से लुटाने का प्रयास किया है. वहीं भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा(आईएफएस) को नजरअंदाज कर दिया है. छठे वेतन आयोग द्वारा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के लिए सीनियर स्केल, जूनियर स्केल और सिलेक्शन ग्रेड वेतनमान 6100, 6600 और 7600 रुपए रखा गया है. जबकि भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के लिये क्रमश: 6500, 7500 तथा 8300 की सिफारिश की गई है. इसके पीछे आयोग का तर्क है कि आईएएस अफसरों की प्रारंभिक तैनाती सामान्यता छोटी जगहों पर होती है. उन्हें बार-बार स्थानांतरण का सामना करना पड़ता है और सेवा के शुरुआती दिनों में जिस दबाव का सामना करना पड़ता है, वह औरों से कहीं ज्यादा है. यहां यह साफ करना जरूरी है कि सेवा के प्रारंभ काल से लेकर अंत तक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी आईएएस अफसरों की अपेक्षा कहीं अधिक तनावपूर्ण, जोखिमपूर्ण और दबावपूर्ण परिस्थितियों में काम करते हैं. इस बात को खुद सुप्रीम कोर्ट और सोली सोराबजी समिति स्वीकार कर चुकीहै.
ऐसे में आयोग का यह तर्क हास्यास्पद ही लगता है. इसके साथ ही राजस्व सेवा एवं कस्टम व केंद्रीय उत्पाद शुल्क के अधिकारियों के लिये 80000 रुपए वेतनमान तय किया गया है, वहीं प्रदेशों की कानून व्यवस्था की कमान संभाल रहे पुलिस महानिदेशकों के वेतन में असमानता रखी गई है. वेतन आयोग ने सीमा सुरक्षा बल, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, भारत तिब्बत सीमा बल, औद्योगिक सुरक्षा बल और सशक्त सीमा बल के पुलिस महानिदेशकों का वेतन रु. 80000 निर्धारित किया है जबकि प्रदेश स्तर पर इसमें विभिन्नता रखी गई है जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है. राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशक के वेतन में असमानता की खाई भी छठे वेतन आयोग ने और चौड़ी कर दी है. आयोग की सिफारिश में कास्टेबल स्तर के पुलिस कर्मी के वेतनमान में महज 100-500 रुपये तक की वृध्दि का अनुमान है. जबकि यह सभी जानते हैं कि पुलिस महकमे में निचले स्तर के पुलिस कर्मियों का जनता से सीधा संवाद होता है. ऐसे में मामूली तनख्वाह के भरोसे परिवार की जिम्मेदारियों के साथ वह कब तक कर्तव्यनिष्ठता की राह पर चल पाएगा. आयोग को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि ऊपर से लेकर नीचे तक वेतनमान में वृध्दि का तालमेल इस तरह से बैठाया जाए कि किसी को यह न लगे कि हमारे साथ अन्याय हुआ है. पुलिस महकमे मे सुधार की बातें हमेशा से उठती आई हैं, मगर जब तक पुलिस कर्मियों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते, ऐसी बातें बेमानी हैं. केंद्रीय कर्मचारियों में (रेलवे छोड़कर) पुलिस का हिस्सा करीब 41 प्रतिशत है जबकि इस पर महज 36 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है. हर साल करीब 1000 जवान डयूटी के दौरान शहीद हो जाते हैं, उनका घर परिवार हर वक्त दहशत के साए में जीता रहता है. बावजूद इसके आयोग ने इनका कोई ध्यान नहीं रखा है. ऐसे ही भारतीय वन सेवा के अधिकारी भी वेतन आयोग की विसंगतियों का सामना कर रहे हैं. उनका आरोप है कि आयोग ने उनका पे स्केल घटा दिया है. अब तक आईएएस और आईएफएस के वेतनमान में सिर्फ 2-3 हजार रु. का अंतर था लेकिन नये पे स्केल लागू होने के बाद यह 15-18 हजार हो जाएगा. दरअसल तकरीबन 18-20 साल की सेवा पूरी करने के बाद एक आईएएस अफसर वन संरक्षक बनता है. इस पद का सुपर टाइम स्केल अभी 16400 से शुरू होता है लेकिन आयोग ने इस स्केल को घटाकर 15600 करने की अनुशंसा की है. जबकि 14 साल की सर्विस पूरी करने के बाद एक आईएएफ अधिकारी का सुपर टाइम स्केल अभी 18400 है जिसे बढ़ाकर 39200 करने की सिफारिश की गई है. यानी दोनों सेवाओं के अफसरों के वेतनमान में दोगुने का अंतर किया गया है. इसी तरह चीफ कंजर्वेटर ऑफ फारेस्ट (पीसीसीएफ) का मौजूदा स्केल 24040-26000 है.
इस पद पर आईएफएस अफसर अपने कार्यकाल के अंतिम 4-5 सालों में पहुंच पाते हैं. 2-3 साल की सेवा के बाद अफसर 26000 रुपये के स्केल तक पहुंच जाते हैं जो अभी भारत सरकार के सचिव के बराबर हैं. लेकिन नई सिफारिशों में इसे बढ़ाकर 39200-67000 रखा गया है. तथा 13000 के पे ग्रेड का प्रावधान किया गया है. परन्तु 13000 के पे ग्रेड को पाने में अफसरों को कम से कम 12 साल इस पद पर कार्य करना होगा. जबकि जो अफसर इस पद पर पहुंच पाते है उनका कार्यकाल महज 4-5 साल का ही बचता है. इसका परिणाम यह होगा कि इस सेवा के अफसर सचिवों की भांति 80000 वेतनमान अब नहीं पा पाएंगे. कुल मिलाकर कहा जाए तो छठा वेतन आयोग हर पक्ष को संतुष्ट करने में नाकाम रहा है|
इतिहास
आजादी के बाद से अब तक कुल 6 वेतन आयोग गठित किए गये हैं.
आयोग गठन वर्ष रिपोर्ट सौंपी गई वित्तीय भार
पहला मई 1946 मई 1947 उपलब्ध नहीं
दूसरा अगस्त 1957 अगस्त 1959 39.62
तीसरा अप्रैल 1970 मई 1973 144.60
चौथा जून 1983 मई 1987 1282
पांचवां अप्रैल 1994 जनवरी 1994 17000
छठा जुलाई 2006 मार्च 2008 20,000
(करोड़ )
क्या होता है वेतन आयोग
भारत सरकार हर 10 साल बाद एक वेतन आयोग का गठन करती है. जिसका काम केंद्रीय कर्मचारियों के वेतनमान को वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से निर्धारित करना होता है. आयोग में अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य सदस्य भी होते हैं जिन्हें एक समयावधि में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी होती है. उसके बाद सरकार को अंतिम निर्णय लेना होता है कि किन सिफारिशों को लागू किया जाए और किसे नहीं|
छठा वेतन आयोग
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 2006 में जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में छठे वेतन आयोग का गठन किया था, जिसने 24 मार्च 2008 को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस आयोग में जस्टिस श्रीकृष्ण के अलावा रविंद्र ढोलकिया, जे.एस. माथुर और सुषमा नाथ शामिल थीं.
वेतन आयोग की रिपोर्ट पर मचे बवाल के बाद सरकार मंथन में जुटी है पर इस बात की उम्मीद कम ही नजर आती है कि बीच का कोई रास्ता निकाल लिया जाएगा. जानकारों के अनुसार सरकार इस मामले को बस कुछ समय के लिए टाले रखना चाहती है क्योंकि महंगाई और करार को लेकर पहले से ही हा-हाकार मचा हुआ है.
वेतन आयोग की रिपोर्ट आने के कुछ समय बाद ही इसको लेकर विवाद खड़ा हो गया था. आयोग ने अपनी सिफारिशों में मुख्य रूप से क्रीमी लेयर को ही प्रभावित करने की कोशिश की है. मौजूदा आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक न्यूनतम और अधिकतम वेतन अनुपात 1:12 से अधिक है, जो कि पिछले वेतन आयोग की सिफारिशों से कहीं ज्यादा है. आयोग की सिफारिशों में जहां अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतनमान में भारी असमानता व विसंगतियां हैं, वहीं भत्तों के आवंटन में भी भेदभाव किया गया है. सबसे हैरत की बात तो यह है कि आयोग ने जहां एक ओर उच्च श्रेणी के अधिकारियों के वेतन में 100 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि की है, वहीं निम्न श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन और भत्तावृद्धि 23 से 50 प्रतिशत के आस-पास ही रखी है. आयोग ने शीर्षस्थ कैबिनेट सचिव के वेतन में करीब 35500 रुपए की वृद्धि की बात कही है, जबकि निम्न श्रेणी के क्लर्क के वेतनमान में मामूली बढ़ोत्तरी की सिफारिश की गई है. निम्न स्तर के मुकाबले उच्च श्रेणी में 24 गुना वृद्धि समता के सिद्धांत पर कहीं से भी खरी नहीं उतरती. पूर्ववर्ती वेतन आयोगों ने अपनी सिफारिशों में प्रचलित वेतन, भत्ता, महंगाई भत्ता और अंतरिम राहत में बढ़ोत्तरी में सभी श्रेणियों के लिये 20-40 प्रतिशत एक सरीखी वृध्दि देने को कहा था पर छठे वेतन आयोग ने इससे उलट ही काम किया है.
मौजूदा आयोग की सिफारिश में जैसे-जैसे श्रेणश्नियां और वेतन भत्ते बढ़ते हैं, वैसे-वैसे वेतन भत्तों आदि में बढ़ोत्तरी होती है. पांचवे वेतन आयोग में श्रेणी-1 के दायरे में आने वाले वरिष्ठ स्तर के अधिकारियों को बेसिक वेतनमान 14300 से 26000 निर्धारित था जिसे बढ़ाकर अब 48200 से 67000 करने की सिफारिश की गई है. यानी करीब 34000-41000 का भारी भरकम इजाफा वेतनमान में किया गया है. वहीं श्रेणी-1 के मध्य स्तर के अधिकारियों का वेतनमान 8000-20900 के बजाए 21000-39100 करने की बात कही गई है. मतलब 13000-18200 का इजाफा जबकि श्रेणी-॥ व ॥। में करीब 8000-21000 और श्रेणी ढ्ढङ्क में मामूली बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव है. इसके साथ ही आयोग ने करीब 12 लाख ग्रुप डी कर्मचारियों के पदों को खत्म करने की सिफारिश की है. इनमें से एक लाख पद तो फिलहाल रिक्त पड़े हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रुप डी पदों पर जो कर्मचारी अभी कार्यरत् हैं, उनमें से न्यूनतम हाईस्कूल योग्यता रखने वाले कर्मचारियों को ग्रुप सी में प्रमोट कर दिया जाए और बाकी ग्रुप डी के पदों पर नई भर्तियां न की जाए.
नई भर्तियों के बजाए मौजूदा पदों को ही समाप्त करने की सिफारिश से पता चलता है कि आयोग ने रोजगार बढ़ाने के बजाए बेरोजगार बढ़ाने वाली नीतियों पर जोर दिया है. आयोग की रिपोर्ट आने से पहले यह मानकर चला जा रहा था कि छठे वेतन आयोग में खासतौर से सेना और आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा संभाल रहे सुरक्षा बलों का खास ध्यान रखा जायेगा. मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. अधिकारियों की कमी से जूझ रही सेना ने वेतनमान में 100-200 प्रतिशत वृध्दि की मांग की थी. ताकि निजी क्षेत्र की चकाचौंध अफसरों को प्रभावित न कर पाए, मगर आयोग ने सभी मांगों को दरकिनार करते हुए सेना के हाथ में मामूली बढ़ोत्तरी का लॉलीपॉप थमा दिया है. सेना के जवान महसूस कर रहे हैं कि नागरिक सेवाओं के मुकाबले उनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया है. जवानों के वेतन में महज 1000 रुपए की मामूली बढ़ोत्तरी की गई है, वहीं लेफ्टिनेंट कर्नल और कर्नल के वेतनमान में भी मुश्किल से चार-पांच हजार का इजाफा किया गया है. जबकि नागरिक सेवा में उच्च श्रेणियों के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कई गुना वृध्दि की सिफारिश की गई है. ऐसे ही आयोग की सिफारिशों ने आखिल भारतीय सेवाओं में भी असमानता उत्पन्न कर दी है. आयोग ने यहां भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों (आईएएस) को खुश करने के लिये दोनों हाथ से लुटाने का प्रयास किया है. वहीं भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा(आईएफएस) को नजरअंदाज कर दिया है. छठे वेतन आयोग द्वारा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के लिए सीनियर स्केल, जूनियर स्केल और सिलेक्शन ग्रेड वेतनमान 6100, 6600 और 7600 रुपए रखा गया है. जबकि भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के लिये क्रमश: 6500, 7500 तथा 8300 की सिफारिश की गई है. इसके पीछे आयोग का तर्क है कि आईएएस अफसरों की प्रारंभिक तैनाती सामान्यता छोटी जगहों पर होती है. उन्हें बार-बार स्थानांतरण का सामना करना पड़ता है और सेवा के शुरुआती दिनों में जिस दबाव का सामना करना पड़ता है, वह औरों से कहीं ज्यादा है. यहां यह साफ करना जरूरी है कि सेवा के प्रारंभ काल से लेकर अंत तक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी आईएएस अफसरों की अपेक्षा कहीं अधिक तनावपूर्ण, जोखिमपूर्ण और दबावपूर्ण परिस्थितियों में काम करते हैं. इस बात को खुद सुप्रीम कोर्ट और सोली सोराबजी समिति स्वीकार कर चुकीहै.
ऐसे में आयोग का यह तर्क हास्यास्पद ही लगता है. इसके साथ ही राजस्व सेवा एवं कस्टम व केंद्रीय उत्पाद शुल्क के अधिकारियों के लिये 80000 रुपए वेतनमान तय किया गया है, वहीं प्रदेशों की कानून व्यवस्था की कमान संभाल रहे पुलिस महानिदेशकों के वेतन में असमानता रखी गई है. वेतन आयोग ने सीमा सुरक्षा बल, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, भारत तिब्बत सीमा बल, औद्योगिक सुरक्षा बल और सशक्त सीमा बल के पुलिस महानिदेशकों का वेतन रु. 80000 निर्धारित किया है जबकि प्रदेश स्तर पर इसमें विभिन्नता रखी गई है जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है. राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशक के वेतन में असमानता की खाई भी छठे वेतन आयोग ने और चौड़ी कर दी है. आयोग की सिफारिश में कास्टेबल स्तर के पुलिस कर्मी के वेतनमान में महज 100-500 रुपये तक की वृध्दि का अनुमान है. जबकि यह सभी जानते हैं कि पुलिस महकमे में निचले स्तर के पुलिस कर्मियों का जनता से सीधा संवाद होता है. ऐसे में मामूली तनख्वाह के भरोसे परिवार की जिम्मेदारियों के साथ वह कब तक कर्तव्यनिष्ठता की राह पर चल पाएगा. आयोग को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि ऊपर से लेकर नीचे तक वेतनमान में वृध्दि का तालमेल इस तरह से बैठाया जाए कि किसी को यह न लगे कि हमारे साथ अन्याय हुआ है. पुलिस महकमे मे सुधार की बातें हमेशा से उठती आई हैं, मगर जब तक पुलिस कर्मियों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते, ऐसी बातें बेमानी हैं. केंद्रीय कर्मचारियों में (रेलवे छोड़कर) पुलिस का हिस्सा करीब 41 प्रतिशत है जबकि इस पर महज 36 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है. हर साल करीब 1000 जवान डयूटी के दौरान शहीद हो जाते हैं, उनका घर परिवार हर वक्त दहशत के साए में जीता रहता है. बावजूद इसके आयोग ने इनका कोई ध्यान नहीं रखा है. ऐसे ही भारतीय वन सेवा के अधिकारी भी वेतन आयोग की विसंगतियों का सामना कर रहे हैं. उनका आरोप है कि आयोग ने उनका पे स्केल घटा दिया है. अब तक आईएएस और आईएफएस के वेतनमान में सिर्फ 2-3 हजार रु. का अंतर था लेकिन नये पे स्केल लागू होने के बाद यह 15-18 हजार हो जाएगा. दरअसल तकरीबन 18-20 साल की सेवा पूरी करने के बाद एक आईएएस अफसर वन संरक्षक बनता है. इस पद का सुपर टाइम स्केल अभी 16400 से शुरू होता है लेकिन आयोग ने इस स्केल को घटाकर 15600 करने की अनुशंसा की है. जबकि 14 साल की सर्विस पूरी करने के बाद एक आईएएफ अधिकारी का सुपर टाइम स्केल अभी 18400 है जिसे बढ़ाकर 39200 करने की सिफारिश की गई है. यानी दोनों सेवाओं के अफसरों के वेतनमान में दोगुने का अंतर किया गया है. इसी तरह चीफ कंजर्वेटर ऑफ फारेस्ट (पीसीसीएफ) का मौजूदा स्केल 24040-26000 है.
इस पद पर आईएफएस अफसर अपने कार्यकाल के अंतिम 4-5 सालों में पहुंच पाते हैं. 2-3 साल की सेवा के बाद अफसर 26000 रुपये के स्केल तक पहुंच जाते हैं जो अभी भारत सरकार के सचिव के बराबर हैं. लेकिन नई सिफारिशों में इसे बढ़ाकर 39200-67000 रखा गया है. तथा 13000 के पे ग्रेड का प्रावधान किया गया है. परन्तु 13000 के पे ग्रेड को पाने में अफसरों को कम से कम 12 साल इस पद पर कार्य करना होगा. जबकि जो अफसर इस पद पर पहुंच पाते है उनका कार्यकाल महज 4-5 साल का ही बचता है. इसका परिणाम यह होगा कि इस सेवा के अफसर सचिवों की भांति 80000 वेतनमान अब नहीं पा पाएंगे. कुल मिलाकर कहा जाए तो छठा वेतन आयोग हर पक्ष को संतुष्ट करने में नाकाम रहा है|
इतिहास
आजादी के बाद से अब तक कुल 6 वेतन आयोग गठित किए गये हैं.
आयोग गठन वर्ष रिपोर्ट सौंपी गई वित्तीय भार
पहला मई 1946 मई 1947 उपलब्ध नहीं
दूसरा अगस्त 1957 अगस्त 1959 39.62
तीसरा अप्रैल 1970 मई 1973 144.60
चौथा जून 1983 मई 1987 1282
पांचवां अप्रैल 1994 जनवरी 1994 17000
छठा जुलाई 2006 मार्च 2008 20,000
(करोड़ )
क्या होता है वेतन आयोग
भारत सरकार हर 10 साल बाद एक वेतन आयोग का गठन करती है. जिसका काम केंद्रीय कर्मचारियों के वेतनमान को वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से निर्धारित करना होता है. आयोग में अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य सदस्य भी होते हैं जिन्हें एक समयावधि में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी होती है. उसके बाद सरकार को अंतिम निर्णय लेना होता है कि किन सिफारिशों को लागू किया जाए और किसे नहीं|
छठा वेतन आयोग
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 2006 में जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में छठे वेतन आयोग का गठन किया था, जिसने 24 मार्च 2008 को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस आयोग में जस्टिस श्रीकृष्ण के अलावा रविंद्र ढोलकिया, जे.एस. माथुर और सुषमा नाथ शामिल थीं.
Saturday, July 5, 2008
ऐसे न सताओ निरीह को
गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सिपुर्र्द-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया. कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं. दलीलें तो यहां तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है. अत: उन्हें सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए. पर ऐसी सजा की दरयाफ्त करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है. भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं. पास आओ तो भाग खड़े होते हैं. वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं. फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे. जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है.
कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं. वो बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अंजान बना रहता है. बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखट पर हैं जहां उन्हें कभी आसरा मिला था. मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर क्रूर और निर्दयी बन बैठा हो मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं. प्यार के बदले प्यार कैसे किया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझा सकता है. मनुष्य हमेशा से ही अपनी जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है. जिन उंगलियों के सहारे वह चलना सीखता है वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता. जिन कंधों पर बैठकर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता. मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है. बचपन में सच्चा बनने का और जवानी में अच्छा बनने का, लेकिन बेजुबान, वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है. उन्हें आता है तो बस प्यार करना. लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे जैसा हमेशा करते रहे हैं.
रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी. यह काम तो मनुष्य का है. कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं. गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आंखों में खटकने लगे हैं. अभी कुछ वक्त पहले बेंगलुरु और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है. गले में रस्सी बांधकर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वो कोई कूड़े की गठरी हों. बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई. इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे.
मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे ये हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं. सृष्टि की रचना के वक्त ईश्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूं, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए. वो खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे. बद्किस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है मगर कुत्तों के लिए बचाता बिल्कुल नहीं. खाने की हर दुकान के सामने बेचारे टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं. टिन के पिचके हुए डब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आंखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं. कुछ रुखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जज्बे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते. ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद सुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?
नीरज नैयर
ऐसे क्रि के टर किस काम के
नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक खबरिया चैनल के टॉक शो में इस बात पर बहस चल रही थी कि क्या सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए. जाहिर है क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को देवता समझने वालों केमुंह से न कैसे निकल सकता है. सो अधिकतर लोगों के हाथ हां में ही खड़े हुए. खेल जगत में अगर सचिन की उपलब्धियों को सहेज कर देखा जाए तो उनके कद के आगे हर पुरस्कार छोटा है.
अपने चौकों-छक्कों से क्रिकेट की किताब में भारत की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी है वह अतुल्य है. खेल की दुनिया केबड़े से बड़े सम्मान पर बेशक सिर्फ और सिर्फ उनका ही नाम हो सकता है लेकिन जहां तक भारत रत्न का सवाल है कोई क्रिकेटर इसका हकदार नहीं दिखाई देता. भारत रत्न किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जिसने हर पहलू में देश के लिए अनुकरणीय योगदान दिया हो. सचिन ने खेल दुनिया में बहुत कुछ किया पर समाज के लिए उनके या किसी भी अन्य क्रिकेटर ने कभी कुछ किया हो ऐसा याद नहीं आता. क्रिकेट अन्य देशों के लिए भले ही एक खेल से ज्यादा कुछ न हो मगर भारत में यह किसी धर्म से कम नहीं. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट अगर यहां धर्म है तो क्रिकेटर भी किसी अवतार से कम नहीं. उन्हें यहां भगवान की तरह पूजा जाता है, उनकी मंगलकामना के लिए व्रत रखे जाते हैं, हवन किए जाते हैं. हां, उनके खिलाफ कभी-कभार नाराजगी जरूर झलक पड़ती है मगर वो भी क्षणिक भर से ज्यादा नहीं. ठीक वैसे ही जैसे कोई भक्त मनोकामना पूरी न होने पर थोड़ी देर के लिए तो मुंह फुला सकता है मगर हमेशा के लिए अपने भगवान से रूठे नहीं रह सकता. विश्वकप जैसे अहम् मुकाबलों में हारने के बाद भले ही उनके घरों पर पत्थर फेंके जाते हों मगर बांग्लादेश जैसी दोयम दर्जे की टीम को हराने के बाद कंधें पर भी उन्हें ही बिठाया जाता है. सही मायनों में कहें तो क्रिकेट शहर से लेकर गांव तक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक देश को धर्म की भांति एक सूत्र में पिरोने का काम करता है. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है.
पिछली भारत-पाक सीरीज के वक्त पाकिस्तानी खिलाडी यह गुजारिश करते फिर रहे थे कि किसी भारतीय कंपनी के साथ करार करवा दो. उनकी कमाई का अंदाजा तो इससे ही लगाया जा सकता है कि साक्षात्कार चाहने वाले पत्रकारों से वह 100-200 डॉलर मांगने में भी गुरेज नहीं करते. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभलरहा है. सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. कॉरपोरेट जगत के तकरीबन 60 फीसदी विज्ञापनों पर क्रिकेटरों का कब्जा है, इसके अलावा बोर्ड द्वारा दी जाने वाली रिटेनरशिप फीस से लाखों के वारे-न्यारे अलग हो जाते हैं.
धोनी एक फीता काटने के 20 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रेरक होता है.
बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है. बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. सूनामी जैसी आपदाओं के वक्त भी क्रिकेटरों के हाथ भले ही न खुले हाें मगर बॉलीवुड कलाकार दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे हैं. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल भी उठते रहे हैं. कोई इसे पर्सिनलसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें.
यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो बहुत दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है, और अगर नहीं है तो फिर ऐसा क्रिकेट और क्रिकेटर किस काम के.
नीरज नैयर
Wednesday, July 2, 2008
जबरदस्ती नहीं जग सकता जज्बा
नैयर
दुश्मनों को हर मोर्चे पर मात देने वाली भारतीय सेना आजकल खुद एक नये मोर्चे पर जूझ रही है. अफसरों की कमी और सशस्त्र सेनाओं की तरफ युवाओं के घटते रुझान ने उसके समक्ष कई सवाल खड़े कर दिए हैं. गौरवशाली इतिहास की गाथाएं समेटे भारतीय सेना अपने भविष्य को लेकर चिंतित है. समस्या कितनी गंभीर है इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि मौजूदा वक्त में भारतीय सेना में करीब 120,000 अधिकारियों की कमी है. पिछले डेढ साल में मेजर और कर्नल रैंक के कोई तीन हजार अधिकारी अपनी मर्जी से सेना को अलविदा कह चुके हैं और करीब 4000 इस कतार में खड़े हैं. दूसरी तरफ सेना में भर्ती की स्थिति भी कतई अच्छी नहीं है. सेना में सबसे ज्यादा कैडेट्स इंडियन मिलिट्री अकादमी के रास्ते आते हैं. अकादमी अपने 250 कैडेट्स भर्ती कर सकती है लेकिन आलम यह है कि यहां मात्र 86 प्रशिक्षु ही हैं. एनडीए का हाल भी कुछ ऐसा ही है. हर पाठयक्रम में यहां 300 कैडेट्स की जगह होती है लेकिन केवल 92 ही भर्ती हुए हैं. और इससे भी ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि बहुतों ने चयन के बाद भी सेना से किनारा कर लिया है. ऐसे में थलसेनाध्यक्ष दीपक कपूर के उस बयान पर गौर किया जा सकता है जिसमें उन्होंने सैन्य सेवा को अनिवार्य करने की बात कही थी. मगर सवाल यह उठता है कि क्या देश सेवा का जज्बा जबरदस्ती जगाया जा सकता है? क्या मातरे वतन पर जान लुटाने वालों की फौज जबरदस्ती तैयार की जा सकती है?
इस बात में कोई दो राय नहीं कि समस्या बहुत विकराल है और अगर जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो आने वाले वक्त में सेना को जवानों के लिए तरसना पड़ सकता है. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उन कंधों पर भी जबरन जिम्मेदारी डाली जाए जो इसे उठाने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है. यह जरूरी नहीं कि आईएएस और आईपीएस भी फौज के लिए फिट हो सके. सेना केवल एक नौकरी नहीं अनुशासन की शपथ और देश सेवा का संकल्प भी है. सेना की अपनी पूरी एक संस्कृति है और इसमें ढलना हर किसी के बस की बात नहीं. यहां यह कहना गलत होगा कि लोग सेना में भर्ती नहीं होना चाहते. वॉलेंटियर्स की अब भी देश में कमी नहीं है. संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से जब सैन्य अधिकारियों का विज्ञापन निकलता है तो बढ़ चढ़ कर आवेदन किए जाते हैं. लेकिन चयन प्रक्रिया से गुजारने के बाद जब आईएमए में पाठयक्रम के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाता है, तो नवयुवक आवेदन पत्र लेते ही सेना में आने से बचने लगते हैं. वे निजी संस्थानों में नौकरी के लिए चले जाते हैं. निजी क्षेत्र भी इन्हें वरीयता देता है, क्योंकि सेना के मानदंडों पर ये नौजवान खरे उतरे होते हैं. इसलिए इस बात की गारंटी होती है कि गुणवत्ता, आचरण, व्यवहार और मनोदशा के मामले में यह उत्तम है. यह प्रचलन तेजी से बढ़ा है. यही वजह है कि आएमए आदि में सीटें रिक्त रह जा रही हैं. इसलिए यह मान लेना कि सेना में जाने वाले लोगों की कमी है, ऐसी बात नहीं है. वैसे भारत अकेला नहीं है जो फौज की नौकरी के प्रति बेरुखी से दो चार हो रहा है. कई बड़े देशों को इस समस्या से जूझना पड़ा है.
पश्चिमी देशों में तो लोग सेना की नौकरी के लिए आवेदन ही नहीं करते. अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन, रूस जैसे देशों में सेना की नौकरी के लिए प्रोत्साहित करने पर हजार डॉलर की प्रोत्साहन राशि तक दी जाती है. गनीमत है कि हमारे देश में अभी यह स्थिति नहीं है. हमारी सेना में जूनियर लेवल यानि लेफ्टिनेंट, कर्नल आदि पदों पर अधिकारियों की सबसे ज्यादा कमी है, जबकि ब्रिगेडियर, फुल कर्नल लेवल पर कोई खास कमी नहीं है. एक अनुमान के मुताबिक, जूनियर लेवल पर 30 फीसदी अधिकारी कम हैं. जबकि, सेना की सबसे ज्यादा जरूरत जूनियर लेवल पर ही है, क्योंकि यही अधिकारी मेन कार्य से जुड़े होते हैं. साथ ही, पेट्रोलिंग और बॉर्डर पर पोस्टिंग इन्हीं अधिकारियों की होती है. नई पीढ़ी में सेना के प्रति बेरुखी की कई वजहें हैं. कम तनख्वाह, कठिन कार्यशैली और अनिश्चित भविष्य. आज का मध्यवर्गीय युवा मोटी तनख्वाह वाली ऐसी नौकरी चाहता है, जिसमें उसे शहर और परिवार से ज्यादा दूर न जाना पड़े. जंगलों, पर्वतों और रेगिस्तानों में जाकर नौकरी करने के बारे में तो कम ही लोग सोचते हैं. युवाओं के सामने आज कई विकल्प और अवसर मौजूद हैं, जो सुरक्षित तो हैं ही, ज्यादा आकर्षक भी हैं. इन नौकरियों में शुरुआती दौर में ही तनख्वाह पांच अंकों में मिलती है. ऐसी नौकरियों में ग्लैमर भी है, लेकिन सेना में न तो ग्लैमर है और न खास तनख्वाह. जबकि इसमें जान जोखिम में बनी रहती है. अधिकारियों की पोस्टिंग शुरुआत में जम्मू-कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट में होती है, जहां हर पल जान का खतरा बना रहता है. यही नहीं, फौज में टैलेंट के बावजूद स्लो प्रमोशन की हकीकत तेज रफ्तार युवा पीढ़ी के माफिक नहीं बैठती. ऊपर से लंबे समय तक परिवार से दूरियां भी युवाओं को इस पेशे में आने से रोक रही हैं.
इसके साथ-साथ बीते कुछ समय में खुदकुशी के बढ़ते मामलों ने भी सेना की छवि को खराब किया है. समय अब बदल रहा है, जब युवाओं को आसान नौकरी और ज्यादा धन मिल रहा है, तो उनकी प्राथामिकता भी बदल रही हैं. अनिवार्य सैन्य सेवा समस्या का महज एक विकल्प हो सकता है. लेकिन जरूरत इस बात की है कि सैनिकों को पूरा सम्मान दिलाया जाए. उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत किया जाए, ताकि वे अपने परिवार के बारे में चिंता छोड़ दें. आज एक सैन्य अधिकारी अपने साथ पढ़ने वाले सहयोगी को दूसरी नौकरी में कई तरक्कियां कर धनवान होते हुआ देखता है, तो वह अपने बच्चों को सेना में जाने के लिए भला क्यों प्रेरित करेगा? समाज सैनिक को सम्मान नहीं देता. प्रशासन उनकी गैर मौजूदगी में परिवार की देखभाल नहीं करता. सैनिक सीमा पर लड़ाई करता है, तो गांव में उसकी जमीन पर कोई और कब्जा कर लेता है. ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि लोग एशोआराम से लबरेज जिंदगी त्याग कर सेना की कठिन नौकरी में जाना पसंद करेंगे. इसलिए सेना में अनिवार्य सेवा के बजाय रचनात्मक उपायों की तरफ सोचना ज्यादा बेहतर होगा. टफ कार्यशैली के बीच वो चार्म बनाना होगा जिससे युवा अपने आप खिंचे चले आएं. अमूमन शॉट टर्म में जाने वाले युवा अपने भविष्य को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं होते, उन्हें पता नहीं होता कि सेना छोड़ने के बाद उनकों कौन सी नौकरी मिलेगी. इस बारे में भी योजना होनी चाहिए कि पांच साल बाद नौकरी छोड़ने पर अधिकारी को कौन-सी सुविधाएं दी जाएंगी. उन्हें पेंशन दिए जाने चाहिए. चाइनीज वॉर के बाद कई क्षेत्रों में रिजर्वेशन की व्यवस्था थी. लेकिन अब ऐसा नहीं है.
सैन्य अधिकारियों के समक्ष उनके भविष्य का एक स्पष्ट खाका होना चाहिए. अनिवार्यता किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती. जबरदस्ती काम तो कराया जा सकता है मगर देश सेवा का भाव नहीं जगाया जा सकता. लिहाजा मौजूदा समस्या से निपटने के लिए अनिवार्यता की नहीं जरूरत है रास्ते की बाधाओं को निकाल फेंकने की
नीरज नैयर
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