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अनिवार्य वोटिंग पर एक बार फिर से बहस छिड़ गई है, इस बार बहस की शुरूआत की है वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने। मतदाता दिवस के मौके पर आडवाणी ने गिरते वोटिंग प्रतिशत का हवाला देकर वोटिंग को अनिवार्य बनाने की बात कही। इस तरह की बहस पहली बार कई बार छिड़ चुकी हैं मगर सबका नतीजा एक ही रहा, ये बहस भी ज्यादा देर तलक नहीं चल पाएगी। लेकिन फिर भी सवाल तो है कि क्या वोटिंग को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए?
अगर पिछले कुछ सालों के आंकड़े निकाले जाएं तो इस सवाल का जवाब हां में देने की जरूरत खुद ब खुद महसूस होगी। वार्ड स्तर पर होने वाले चुनाव ही नहीं, देश और राज्यों की दिशा तय करने वाले महाचुनावों में भी जनता की भागीदारी नाम मात्र की है। वोटिंग का प्रतिशत 40-50 के आसपास ही सिमटकर रह गया है। इसके पीछे कई कारण हैं, सबसे पहला तो यही कि हमारे देश के नेताओं से लोगों का विश्वास उठ गया है। उन्हें लगता है कि पूरी की पूरी सियासी जमात एक जैसी है, चाहे किसी को भी वोट दो तस्वीर बदलने वाली नहीं है। इसलिए वो लोकतंत्र का हिस्सा बनने के बजाए घर की चारदीवारी के भीतर रहना ज्यादा पसंद करता है। ज्यादातर राजनीतिज्ञों का खुद का चरित्र इस काबिल नहीं है कि जनता को वोट डालने के लिए प्रेरित कर सकें। आलम ये है कि विधानसभाओं से लेकर संसद तक में अपराधिक छवि वाले नेताओं का बोलबाला है। अफसोस की बात कि घटने के बजाए ये प्रतिशत दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में जारी सियासी द्वंद्व का ही उदाहरण लें, यहां हर पार्टी को दागियों से प्यार है। भ्रष्टाचार और साफ-सुथरी राजनीति की बात करने वाली पार्टियां भी दागियों को टिकट थमाए बैठी हैं। कांग्रेस के खाते में 26 दागी हैं, इतने ही भाजपा के साथ हैं। वहीं सपा ने महज दो कम यानी 24 दागियों को टिकट दिया है। भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्रियों को सत्ता से बेदखल करने वाली मायावती की पार्टी बसपा भी इस मामले में दूसरों से पीछे नहीं है। दरअसल, सियासी दलों के लिए महज जीत मायने रखती है और इसके लिए वो किसी को भी उम्मीदरवार बना सकते हैं। बड़े-बड़े दावे करने वाले दल सिस्टम के हिसाब से अपनी नीतियों में बदलाव कर लेते हैं। यानी यूपी जैसे राज्य जहां जाति और दबंगई के गणित के आधार पर वोट पड़ते हैं वहां, व्यक्तिगत योगयता भी जाति और दबंगई होती है। ऐसे में वोटिंग का प्रतिशत बढ़े भी तो कैसे? दागियों को सियासत में आने से रोकने के लिए अब तक कुछ खास नहीं किया गया है। मौजूदा नियमों के मुताबिक अपराध सिद्ध होने पर ही किसी को चुनाव लडऩे से रोका जा सकता है। हमारी न्याय व्यवस्था की रफ्तार से सब वाकिफ हैं। मामूली मामलों के निपटारे में ही सालों लग जाते हैं। जब तक किसी नेता के खिलाफ फैसला आने का आधार तय हो, तब तक वो इस स्थिति में आ जाता है कि फैसले को प्रभावित कर सके। गंभीर आरोपों का सामना कर रहे ऐसे इतने नेता हैं जिन्हें सजा हुई। राजा, कलमाड़ी जैसे मामले बिरले ही सुनने में आते हैं। इन दोनों को भी तिहाड़ की यात्रा कोर्ट की सख्ती की वजह से करनी पड़ी, वरना मामला कब का रफा-दफा हो गया होता। राजा और कलमाड़ी ने सीधे देश के खजाने और उसकी छवि को नुकसान पहुंचाया था, इसलिए कॉमनवेल्थ और स्पेक्ट्रम घोटाले की गूंज सुनाई देती रही। अगर बलात्कार, हत्या जैसे खलिस अपराधी मामले होते तो न इतना शोर होता और न इतनी बड़ी कार्रवाई।
हर राजनीतिक पार्टी इस नियम की कमजोरी का फायदा उठाकर दागियों को जनता के प्रतिनिधि की कुर्सी तक पहुंचाती है। कायदे में होना तो ये चाहिए कि दागियों को चुनाव लडऩे की इजाजत ही न मिले। और यदि ऐसा नहीं हो पाता तो राजनीतिज्ञों से संबंधित मामलों के निपटारे की समय सीमा निधार्रित की जानी चाहिए। महज छह महीने के भीतर ऐसे मामले निपटाए जाएं। जनता को पोलिंग बूथ तक खींचने के लिए ये सबसे पहला कदम है। अनिवार्य वोटिंग की मांग केवल भारत में ही नहीं उठी है, कई देशों में इसे लेकर बहस चल रही है और कई देश इसपर अमल भी कर चुके हैं। गुजरात में ही निचले स्तर के चुनावों में वोटग को अनिवार्य किया गया है। निश्चित तौर पर वोटिंग को अनिवार्य बनाने से मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा, लोग कार्रवाई के डर से पोलिंग बूथ तक पहुंचेंगे ही। मैं व्यक्तिगत तौर पर वोटिंग को अनिवार्य बनाए जाने का पक्षधर हूं, लेकिन इससे पहले व्यवस्था में सुधार बेहद जरूरी है। बगैर सुधार के ये फैसला भी बोझ बन जाएगा। मजबूरी में किया गया काम, परिणाम के लिहाज से अच्छा नहीं होता। लोग वोट देने इसलिए नहीं जाएंगे कि उन्हें देश का भविष्य निधार्रित करने में भागीदारी निभानी है, बल्कि इसलिए जाएंगे कि जुर्माना न भरना पड़े। सुधार के साथ-साथ वोटिंग प्रक्रिया को आसान बनाने की भी जरूरत है। आज के वक्त में जब हर काम ऑनलाइन होता है तो वोटिंग क्यों नहीं? अमूमन नौकरीपेशा लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते रहते हैं, ऐसे में उनके पास मताधिकार का प्रयोग न करने के अलावा कोई और चारा नहीं रह जाता। अगर ऑनलाइन वोटिंग की सुविधा हो तो ऐसे लोगों को भी मताधिकार का प्रयोग करने का अवसर मिल जाएगा। आजकल का युवा जागरुक है, इसमें कोई दोराय नहीं लेकिन जागरुक होने के साथ-साथ वो अत्याधिक टेक-सेवी भी है। उसे हर काम एक क्लिक पर करने की आदत है, जब रेलवे से लेकर सड़क परिवहन तक तकनीक के हिसाब से अपने को परिवर्तित कर रहे हैं तो चुनाव आयोग को भी आगे आना चाहिए। चुनाव के दौरान अव्यवस्था का आलम, लंबी कतारें, निजी, सार्वजनिक परिवहन पर पाबंदी जैसी बातें वोटरों को पोलिंग बूथ से दूर रहने के लिए मजबूतर करती हैं। ऑनलाइन वोटिंग की सुविधा होगी तो वो घर से बैठे-बैठे ही अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकेगा। ये सिर्फ कहने की बातें हैं कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में इतना बड़ा बदलाव आसान नहीं होगा। बदलाव कभी भी आसान नहीं होता, पुरानी व्यवस्था को बदलने में परेशानियों का सामना करना ही पड़ता है, लेकिन क्या परेशानियों से डरकर आगे बढऩा छोड़ देना चाहिए? जिस तरह से ऑनलाइन टिकट बुक कराई जा सकती है, पासपोर्ट के लिए आवेदन किया जा सकता है वैसे वोट क्यों नहीं डाला जा सकता? चुनाव आयोग को इस बारे में भी ध्यान देने की जरूरत है कि वोटर बनाने की प्रक्रिया आसान होने के साथ व्यवस्थित भी हो। कहने को तो घर-घर जाकर वोटर बनाए जाते हैं, लेकिन इसकी पेचीदगियों से जिसका सामना होता है वही समझ सकता है कि आसान दिखने वाली इस प्रक्रिया में कितने पेंच हैं। मैं अपनी ही बात करूं तो, 30 साल के जीवन में मुझे सिर्फ वो बार वोटिंग का सौभागय प्राप्त हुआ है। वो भी विधानसभा चुनावों में। कई वोटर लिस्ट में नाम लिखवाने के बाद भी पोलिंग बूथ पर नाम नदारद मिला। जब मतदाता फोटो परिचय पत्र बने तो फोटो भी खिंचवाई लेकिन अगले चुनाव में फिर नाम नदारद मिला। राज्य बदलने के बाद भी हालात नहीं बदले, यहां भी अनुभव पुराने जैसा रहा। मध्यप्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग की आधिकारिक वेबसाइट पर काफी वक्त पहले ऑनलाइन आवेदन भी किया लेकिन आज तक कोई हलचल नहीं हुई। निर्वाचन अधिकारी को व्यक्तिगत तौर पर समस्या से अवगत कराया लेकिन इस कवायद का भी कोई परिणाम नहीं आया।
ऐसी लचर प्रक्रिया से लोगों को वोटिंग के प्रति प्रोत्साहित कैसे किया जा सकता है। व्यवस्था में सुधार सबसे जरूरी है, अगर इसके बाद भी वोटिंग का प्रतिशत नहीं बढ़ता तब वोटिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
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