Saturday, September 24, 2011
मोंटेकजी आप कर सकते हैं 32 रुपए में गुजारा
नीरज नैयर
इंदिरा गांधी के जमाने में एक नारा दिया गया था, 'गरीबी उन्नमूलनÓ, लेकिन आज लगता है ये बदलकर 'गरीब उन्नमूलनÓ हो गया है। सरकार आज गरीबी नहीं हटाना चाहती बल्कि अपना बोझ हल्का करने के लिए गरीबों को ही कम करने पर तुली है। योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दिया है, उससे सरकार और स्वयं आयोग की नीयत पर सवाल खड़े हो गए हैं। यहां, ये कहना कि आयोग की इस राय में सरकार शरीक नहीं है, सरासर गलत होगा। योजना आयोग का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है, इस नाते मनमोहन सिंह अच्छे से जानते होंगे कि अहलूवालिया क्या गुल खिलाने वाले हैं। योजना आयोग कहता है कि शहरों में 32 रुपए और गांवों में 26 रुपए प्रति दिन खर्च करने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं आ सकता। इतना खर्च उसे संपन्नता की निशानी दिखता है। इन 32 और 26 रुपए में महज खाना ही नहीं, किराया, कपड़ा, स्वास्थ्य और शिक्षा का खर्च भी शामिल है। यानी एक आम आदमी इन रुपयों में पेट भरने से लेकर बच्चों के स्कूल की फीस और उनके इलाज तक सबकुछ कर सकता है। आयोग तो यहां तक मानता है कि अगर एक आदमी रोजाना 5.50 रुपए दाल पर, 1.02 चावल-रोटी पर, 2.33 दूध, 1.55 तेल, 1.95 सब्जी, 44 पैसे फल, 70 पैसे चीनी, 78 पैसे नमक, 1.51 पैसे अन्य खाद्यय पदार्थों पर और 3.75 ईंधन पर खर्च करने की हैसीयत रखता है तो वो स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। आराम से जीवन बिताने के मामले में आयोग कहता है कि 49.10 रुपए मासिक किराया देने वाला व्यक्ति भी इस श्रेणी में आता है। योजना आयोग के हलफनामे में और गहराई में चलें तो पता चलता है कि शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाला अच्छी तालीम पाने की हैसीयत रखता है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति चप्पल आदि पर 9.6 रुपए खर्च करता है तो वो आयोग की नजर में गरीब नहीं है। गरीबी का ये पैमाना कौनसे गणित से तैयार किया गया, इसका जवाब अहलूवालिया और स्वयं प्रधानमंत्री के अलावा कोई नहीं दे सकता। ऐसे वक्त में जब महंगाई सिर पर पैर रखकर भागे जा रही है, ये कहना कि 32 रुपए पाने वाला गरीब नहीं, गरीबों का मजाक नहीं तो और क्या है। अहलूवालिया साहब को यदि 32 रुपए संपन्नता की निशानी लगते हैं तो इस लिहाज से भारत दुनिया का सबसे संपन्न देश कहा जाना चाहिए। आयोग 99 पैसे हर रोज में बेहतर शिक्षा की बात करता है, 99 पैसे के हिसाब से महीने के हुए 29.7 रुपए। महज 29 रुपए में कौनसा स्कूल बच्चों को दाखिला देगा, सरकारी स्कूल भी इतने में कम में दूर से हाथ जोड़ देंगे।
एक बारगी मान भी लिया जाए कि 29 रुपए मासिक फीस पर कोई स्कूल तालीम दे रहा है तो भी आयोग को समझना चाहिए कि शिक्षा महज स्कूल में दाखिला लेने भर से नहीं आ जाती, कॉपी-किताब, रबड-पैंसिल पर भी खर्चा करना पड़ता है। आयोग 49.10 रुपए प्रति माह में आराम से किराए पर मकान की बात भी कहता है, मगर हकीकत ये है कि अहलूवालिया ऐड़ी-चोटी का जोर भी लगा लेंगे तो भी इतने कम में कोई उन्हें घर के सामने खड़ा तक नहीं होने देगा। आज से 10 साल पीछे भी जाएं तो भी 49 रुपए में किराए पर मकान नहीं मिल सकता। जहां तक बात पेट भरने की है तो सरकार के सरदार और उनके जूनियर यानी अहलूवालिया आम जनता के पेट को चिडिय़ा का पेट समझते हैं। उन्हें लगता है कि दो दाने उसे जिंदा रखने के लिए काफी है। दो दानों को काफी मान भी लिया जाए तो भी सवाल ये उठता है कि चंद पैसों में ये दो दाने किस दुकान से मिलेंगे। मनमोहन सिंह या अहूलवालिया इसका इंतजाम कर दें तो बात अलग है। वैसे ऐसा पहली बार नहीं है जब अहलूवालिया ने गरीबों का मजाक उड़ाया हो, इससे पहले भी कई बार तो महंगाई को लेकर बेहयाई वाली बयान देते रहे हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार उनकी बेहयाई कागजों पर सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंची है। इसे जमीनी अनुभव की कमी कह सकते हैं, अहलूवालिया या दूसरे वीवीआईपी को थैला उठाकर बाजार में मोल-भाव नहीं करना पड़ता, उन्हें ये हिसाब भी नहीं लगाना पड़ता कि महंगाई में खुद को जिंदा रखने के लिए उन्हें किन-किन जरूरतों में कटौती करनी होगी। लालबत्ती में घूमने वाले अहलूवालिया जैसे लोगों को सबकुछ थाली में सजा-सजाया मिल जाता है, इसलिए इन्हें अहसास ही नहीं होता कि किस चीज के कितने दाम चुकाने होते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस की बता तो ये है कि योजना आयोग के इस तर्क को आम आदमी की बात करने वाली कांग्रेस ने भी खारिज नहीं किया है। कांग्रेस इसके ऐवज में पुराने आंकड़े याद दिलाने में लगी है।
कांग्रेस का कहना है कि 2004-2005 में गरीबी की जो रेखा खींची गई थी, उसके हिसाब से 32 रुपए काफी ज्यादा हैं। पर शायद वो ये भूल गई कि इन छ सालों में खाद्य वस्तुओं के दाम कितने ऊपर पहुंच गए हैं। जितनी रकम की बात उस वक्त की गई थी वो भी नाकाफी थी और आज जिस 32 या 26 रुपए की बात की जा रही है वो भी नाकाफी है। कांग्रेस और अहलूवालिया जैसे लोग संसाधनों का भी रोना रोते हैं, उनके मुताबिक सरकार के पास सीमित संसाधन हैं, ऐसे में वो सबसे पहले उसकी मदद करना चाहेगी जिसका पेट बिल्कुल खाली है। जरूरतमंद को सबसे पहले मदद मिले इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अगर संसाधनों की वास्तव में इतनी कमी है तो फिर कटौती का प्रतिशत सबके लिए बराबर क्यों नहीं रखा जाता। सरकार ऐसा नहीं कर सकती की आम आदमी को मिलने वाली सब्सिडी खत्म करती जाए और कॉरपोरेट सेक्टर को टैक्स छूट और प्रोत्साहन पैकेज जारी करने में जरा भी देर न लगाई जाए। एक अनुमान के तौर पर 2004 से अब तक सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को22 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट दी है। अगर सरकार समझती है कि उद्योग घरानों को खड़े रहने के लिए मदद की जरूरत है तो वो ये कैसे सोच सकती है कि आम आदमी उसके द्वारा पैदा की गई महंगाई में बिना किसी सहारे के मजबूती से खड़ा रहेगा। उद्योग घराने सरकार के आर्थिक विकास के लक्ष्य को पूरा करने में मदद करते हैं इसलिए उन्हें देते वक्त सरकार के हाथ नहीं दुखते, लेकिन जब बात उसे सत्ता में पहुंचाने वाले आम आदमी की आती है तो वो तानाशाह बन जाती है। कांग्रेस भले ही कितनी भी आम आदमी की बात करे, लेकिन ये अब साफ हो चला है कि उसकी सरकार की नजर में आम आदमी की कोई अहमियत नहीं। योजना आयोग का काम देश के संसाधनों का प्रभावी और संतुलित ढंग से उपयोग करने के लिए योजनाएं बनाना है, लेकिन यूपीए सरकार के कार्यकाल में उसका मकसद उद्योग घराने का विकास करना ज्यादा दिखाई दे रहा है। योजना आयोग का गठन 15 मार्च 1950 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया था। पहली पंचवर्षीय योजना 1951 से शुरू हुई, इसमें कृषि पर खासा जोर दिया गया। इसके बाद भी बनने वाली योजनाओं में कृषि को प्रमुखता से स्थान दिया गया।
1997 से नौवीं पंचवर्षीय योजना से उद्योगों के आधुनिकीकरण की शुरूआत हुई, लेकिन फिर भी उसमें मानवीय विकास पर जोर दिया गया। मगर यूपीए के सत्ता संभालने के बाद इस पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य महज आर्थिक विकास पर ही केंद्रित हो गया। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) में 8.2 फीसदी आर्थिक वृद्धि अनुमान लगाया गया, इसके अलावा हाल में 12वीं (2012-2017) पंचवर्षीय योजना के जिस दृष्टिकोण पत्र को सरकार ने मंजूरी दी है, उसमें भी 9 फीसदी विकास दर का लक्ष्य रखा गया है। यानी सरकार के एजेंडें से कृषि पूरी तरह बाहर हो चुकी है। जबकि यही सरकार कम उत्पादकता का रोना रोती रहती है। आर्थिक विकास जितनी जरूरी है उतनी ही जरूरत कृषि में सुधार की भी है। ये बात केवल वही समझ सकता है जो जिसने कभी एसी कमरों से बाहर निकलकर हकीकत जानने का प्रयास किया हो, अहलूवालिया जैसे लोग अर्थ का अनर्थ ही कर सकते हैं इससे ज्यादा कुछ नहीं। अहलूवालिया के इस मजाक के लिए एक महीने उन्हें उसी गणित के हिसाब से तनख्वाह दी जाए जिसके इस्तेमाल से उन्होंने आम आदमी को करोड़पति बना दिया है। इन 30 दिनों में सरकार के सरदार के इस जूनियर को आटे-दाल के भाव अच्छे से पता चल जाएंगे, तब शायद उनकी गणित की समझ में कुछ वृद्धि हो सके।
Thursday, September 8, 2011
यूं ही मरते रहेंगे हम
नीरज नैयर
दिल्ली में आतंकी हमले के बाद फिर वही पुराने सवाल सामने आ गए हैं। ये सवाल हर हमले के बाद उठते हैं, शोर मचाते हैं और थोड़े वक्त बाद फिर गुमनामी में चले जाते हैं। विपक्ष को नया मुद्दा मिल जाता है, सरकार नाकामी छिपाने का नया बहाना ढूंढ लेती है और जनता दो जून की रोटी की जुगाड़ में लग जाती है। ये हमला भी चंद आंसू बहाने के बाद कुछ रोज में भुला दिया जाएगा। भुला दिया जाएगा कि कुछ घरों के चिराग बुझ गए, कुछ महिलाओं के माथे का सिंदूर उजड़ गया, कुछ बच्चे हमेशा के लिए अनाथ हो गए। सड़क पर चलते वक्त गिरने का खतरा हमेशा रहता है, लेकिन जब हम बार-बार गिरने लगे तो हमें अपनी कमजोरियों का आभास हो जाना चाहिए। अफसोस कि हमारी सरकार अब तक अपनी कमजोरी को पहचान नहीं पाई है, या कह सकते हैं कि पहचानना ही नहीं चाहती। मुंबई हमले के बाद जरूरत व्यवस्था बदलने की थी मगर चेहरे बदले गए, शिवराज पाटिल को गृहमंत्री की कुर्सी से हटाकर चिदंबरम को बैठाया गया। साबित करने की कोशिश की गई कि सफेदी की चमकार में डूबे रहने वाले पाटिल से धोती पहनने वाले चिदंबरम ज्यादा सख्त होंगे। लेकिन ये सख्ती आतंकियों के दिल में खौफ पैदा करने में नाकम रही। गंभीर चेहरे देखाकर खून की होली खेलने वालों को अगर रोका जा सकता तो आतंक का ये दौर कब का खत्म हो गया होता। पाटिल के कार्यकाल में अगर आतंकी बेखौफ थे तो चिदंबरम के कार्यकाल में उनके हौसले और भी ज्यादा बुलंद हो गए हैं। इस बुलंदी की जिम्मेदार कोई और नहीं सरकार है, मुंबई के दहलने के बाद यदि सख्त कदम उठाए गए होते तो दिल्ली के दहलने की नौबत ही नहीं आती। ऐसा लगता है जैसे ये देश बहुत सहनशील हो गया है, और इसकी सरकार की सहनशीलता कर्ण को भी मात देने लगी है। कर्ण ने तो फिर भी बिच्छु के डंक की पीड़ा को एक बार सहन किया था, लेकिन सरकार बार-बार मिलने वाले जख्मों को अपनी नियती मान बैठी है।
दुस्साहस की ताकत प्रतिक्रियाओं के अभाव में पनपती है। आतंकी भी इस बात को जान गए हैं कि भारत की सहनशीलता बहुत गहरी है। चाहे देश के दिल को दहलाओ या उसकी आर्थिक नब्ज दबाओ कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, गर होगी भी तो महज बयान मात्र की। बीते दिनों मुंबई में सीरीयल धमाकों के बाद गृहमंत्रालय लेकर प्रधानमंत्री तक ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा था कि अब ऐसी घटनाएं नहीं होंगी, वो अब फिर इसी दृढ़ता के साथ कह रहे हैं कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। पीएम कहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई एक युद्ध है और हम इसमें जरूर जीतेंगे। लेकिन कब जीतेंगे ये शायद वो खुद नहीं जानते। 12 मार्च 1993 को मुंबई में 13 श्रृखलांबद्ध धमाके हुए थे, उस वक्त को 18 साल गुजर चुके हैं, 18 साल में एक बच्चा बालिग हो जाता है। अपना बुरा-भला, दोस्त दुश्मन की पहचान करने लगता है। इतना ताकतवर भी हो जाता है कि दुश्मन का मुकाबला कर सके। लेकिन इन 18 सालों में हमारा देश कहां है, ये बताने की जरूरत नहीं। उस वक्त हम जिस स्थिति में आज भी वहीं हैं, फर्क बस इतना है कि तब जख्मों पर आंसू बहाने वाले हम अकेले थे और अब अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क का हमें कंधा मिल गया है। लेकिन इससे ज्यादा नाकारापन और क्या हो सकता है कि अमेरिका के कंधे पर टिकने के बाद भी हम उससे दृढ़ता और इच्छाशक्ति का पाठ नहीं सीख पाए हैं। अमेरिका में आखिरी आतंकवादी हमला 2009 में हुआ था, इसके बाद आतंकी उसकी तरफ नजर उठाकर देखने का साहस भी नहीं जुटा पाए। अमेरिका छोटे-छोटे राज्यों का देश है, बावजूद इसके वहां आतंकवाद के मुद्दों पर राजनीति नहीं होती। वहां, सद्दाम या लादेन को बचाने के लिए विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित नहीं होते। लादेन तो फिर भी एक मिशन में मारा गया, लेकिन सद्दाम को बाकायदा फांसी पर चढ़ाया गया था। 9/11 के बाद लादेन की तलाश में इराक से पाकिस्तान तक सैन्य कार्रवाई के बुश के फैसले जैसा अगर कुछ भारत में होता पूरे देश को सिर पर उठा लिया गया होता।
राजनीति का इससे विकृत रूप कहीं और देखने को नहीं मिल सकता, अफजल गुरु ने देश की संसद पर हमला किया लेकिन वो आज भी जिंदा है। पूर्व प्रधानमंत्री को मारने वाले जेल में आराम फरमा रहे हैं, कांग्रेस नेता पर हमला करने वाला भुल्लर दया की आस पाले बैठा है। अफजल मुस्लिम है, उसे फांसी मिली तो अल्पसंख्यक वोट बिदक जाएंगे, राजीव के हत्यारे तमिल हैं, उन्हें सजा हुई तो तमिल भड़क जाएंगे, भुल्लर पंजाबी है उसकी मौत से सिख समुदाय आहत होगा, आतंकवादियों को इस रूप में केवल भारत में ही देखा जा सकता है। कसाब का गुनाह हजारों लोगों ने देखा, इसके बाद भी उसके खिलाफ सुबूत जुटाए, अदालत में दोषी को दोषी साबित करने की प्रक्रिया अपनाई गई। आज भी ये साफ नहीं है कि वो कभी फांसी के फंदे पर लटकेगा भी या नहीं, हो सकता है कल कसाब पर भी सियासत शुरू हो जाए। मुस्लिम वोट बैंक बताकर उसे अफजल की तरह जिंदा रखा जाए। वोट बैंक के नाम पर आतंकवादियों से सहानभूति रखने वाले सियासतदा शायद ये भूल जाते हैं कि बंदूक से निकली गोली और बारूद से निकले शोले जाति-धर्म देखकर तबाही नहीं मचाते। आतंकी हमलों में हिंदू भी मरते हैं और मुस्लिम भी, सिख भी मरते हैं और ईसाई भी तो क्या इन लोगों के दिल में अपनों के हत्यारों के प्रति कोई लगाव हो सकता है? ये कुछ और नहीं सिर्फ डर है, जब आपको अपनी काबलियत पर भरोसा न हो तो आप हर चीज से डरने लगते हैं। पांच साल तक जनता के पैसों पर रोटिया तोडऩे वाले, सिर्फ और सिर्फ अपना भले सोचने वाले नेताओं के दिल में यही खौफ घर कर गया है। इसलिए उन्हें आतंकियों में भी मजहबी वोट बैंक नजर आने लगता है। जो नेता और सरकार महंगाई की रफ्तार को नियंत्रित नहीं पाए हों उनसे भला आतंकवादियों पर काबू पाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आतंकवादियों के पास विनाश के हथियार होते हैं, लेकिन महंगाई निहत्थे। बावजूद इसके महंगाई सरकार को परास्त करे हुई है।
देश में होने वाली हर छोटी-बड़ी आतंकवादी घटनाओं के लिए पाकिस्तान को कुसूरवार ठहराया जाता है, ढेरों सुबूत जुटाए जाते हैं, और अंत में उसी पाकिस्तान के साथ रिश्तों की मजबूती का हवाला देकर सारे जख्म भुला दिए जाते हैं। अगर पाकिस्तान कुसूरवार है तो फिर उससे रिश्ते कैसे? देश की जनता आज तक ये समझ नहीं पाई है कि आखिर आतंकवाद के जनक पाकिस्तान के आगे भारत सरकार इतनी बेबस क्यों हो जाती है। एक अदना का जानवर भी अपनों की जान बचाने के लिए जान की बाजी लगा देता है, वो ये नहीं देखता उसका दुश्मन कितना ताकतवर है, मगर इस देश की सरकार अपने दुश्मन से कई गुना ज्यादा ताकतवर होने के बाद भी खामोशी ओढ़े बैठी है, ये कायरपन नहीं तो और क्या है? जब तक इस कायरपन से बाहर आने के प्रयास नहीं होते हम भारतीय हूं ही मरते रहेंगे, यूं ही सुबोध कांत जैसे लोग हमारे दर्द पर अट्टहास लगाते रहेंगे और यूं ही सरकार आश्वासन देती रहेगी। अगले धमाके के बाद यही सब सवाल एक बार फिर सामने आ जाएंगे।
Sunday, September 4, 2011
टीम अन्ना पर कार्रवाई के मायने
चीन के बारे में कहा जाता है कि वो दुश्मन को कमजोर करने के लिए कभी सीधे तौर पर हमला नहीं करता, वो ऐसे रास्तों से वार करता है जहां से चोट भी पहुंचे और उसे नुकसान भी न हो। यही वजह है कि चीन की पहचान एक कुटिल मुल्क के रूप में बन गई है। 1963 में भारत-चीन की लड़ाई के बाद उसने तमाम मतभेदों के बावजूद कभी इतिहास दोहराने का प्रयास नहीं किया। लेकिन खामोशी से शनै: शनै: अपने भारत विरोधी अभियान को आगे बढ़ाता रहा। कुछ यही तरीका आजकल सरकार अपना रही है। अपने विरोधियों पर सीधे हमला करने के बजाए सरकार दूसरे रास्तों से उनपर घेरा कसने में लगी है। बाबा रामदेव ने कालेधन को लेकर सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तो बदले में उन्हें जांच एजेंसियों के फेर में उलझा दिया गया। उनके सहयोगी बालकृष्ण की नागरिकता पर सवाल उठाए गए। उनके पासपोर्ट को फर्जी बताया गया और बाद में उनके प्रमाणपत्रों को अवैध बताकर उन्हें पुलिस थाने के दर्जनों चक्कर लगवाए गए। अन्ना के आंदोलन के माध्यम से बाबा ने जब फिर आवाज बुलंद करने की कोशिश की तो उन्हें प्रवर्तन निदेशालय का डर दिखाया गया। विदेशों के लेन-देन के नाम पर उनके खिलाफ मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा ये भी बताया गया कि निदेशालय बाबा की विदेशों में संचित संपत्ति की खोज-खबर में जुट गया है। अब इसी तरीके से अन्ना के सदस्यों से निपटा जा रहा है। पहले किरण बेदी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस भेजा गया, फिर प्रशांत भूषण और इसके बाद अरविंद केजरीवाल को।
केजरीवाल को इस नोटिस के अलावा आयकर विभाग से भी नोटिस थमाए गए। सबसे अजीब रहा कुमार विश्वास को नाटिस भेजना। विश्वास से एडवांस में टैक्स डिक्लियर करने को कहा गया है। इससे पहले कभी उन्हें इस तरह का नोटिस नहीं मिला। जो इंसान समय पर टैक्स का भुगतान करता हो, अचानक से उसे एडवांस में टैक्स डिक्लियर करने को कहना क्या सामान्य प्रक्रिया कही जा सकती है? एकबारगी टीम अन्ना के प्रमुख सदस्यों की बात छोड़ दें तो भी विश्वास को नोटिस गले उतरने वाली बात नहीं है। इससे साफ होता है कि सरकार हर उस शख्स को सबक सिखाना चाहती है, जिसने अन्ना का साथ देने का साहस दिखाया। जाहिर है, ऐसे में अभी कई और लोग निशाना बन सकते हैं। अन्ना के अनशन को जितना जनसमर्थन मिला, उसकी उम्मीद सरकार ने नहीं की थी। सरकार और उसके रणनीतिकार मान बैठे थे कि थोड़ी बहुत सख्ती से आंदोलन को कुचल दिया जाएगा। पहले सरकार अन्ना के सदस्यों को अनशन की इजाजत के लिए यहां-वहां दौड़ाती रही, और जब इजाजत दी तो तमाम शर्तें लगा दी गईं। जब इससे भी बात नहीं बनी तो अनशन वाले दिन अन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी और इसके बाद रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ उससे सरकार का खीजना लाजमी था। सिंहासन पर बैठने वाले को कभी वो चेहरे नहीं सुहाते जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर उसके उपहास में शामिल हों। अन्ना के मंच से स्वयं अन्ना और उनके सहयोगियों ने सरकार पर कई बार हमले बोले, शब्दबाणों के इन हमलों में कई शब्द तीखे भी थे। लेकिन इनके तीखे होने की वजह खुद सरकार ने पैदा की थी। वैसे शब्दों के तीखेपन का अहसास संसद में बैठने वालों को बिल्कुल भी नहीं होता अगर ये हजारों लोगों की मौजूदगी में नहीं बोले गए होते।
अरविंद, किरन, प्रशांत और ओमपुरी को भेजे गए विशेषाधिकार हनन के नोटिस के बाद ये बात भी विचारणीय हो गई है कि क्या विशेषाधिकार सिर्फ माननीयों के होते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता और सांसद मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उसे क्या कहा जाए। हाल ही में जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के बारे में जो कुछ कहा, क्या उसे लेकर उन्हें नोटिस नहीं भेजा जाना चाहिए। इसका मतलब तो ये हुआ कि माननीय एक दूसरे पर चाहे जितनी कीचड़ ऊछालें, जितने चाहे अपशब्द कहें, किसी को कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन अगर सांसदों-नेताओं के आचरण से त्रस्त जनता कुछ बोल दे तो वो उनकी शान के खिलाफ हो जाता है। टीम अन्ना ने नेताओं के खिलाफ जो कुछ भी कहा, आम जनता को उससे कोई ऐतराज नहीं होगा, ऐसा इसलिए नहीं कि लोगों को माननीयों का उपहास उड़ाने की आदत है बल्कि इसलिए कि उनका आचरण उपहास उड़ाने लायक बन गया है। सरकार अब भले ही कितनी भी सफाई दे मगर टीम अन्ना और बाबा के खिलाफ उठाए गए कमद बदले की कार्रवाई ही माने जाएंगे। इन दोनों मामलों में ये बात काबिले गौर है कि जिन बातों को कार्रवाई का आधार बनाया गया, उसके तहत पहले भी कार्रवाई की जा सकती थी। मसलन, बाबा पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि उनकी कंपनियों में वित्तीय अनियमित्तांए, हैं, उन्होंने गुपचुप तरीके से विदेशों में संपत्ति जुटा रखी है आदि. आदि। बाबा रामदेव सालों से देश को योग का पाठ पढ़ा रहे हैं, देश के बाहर भी उनके अनुयायियों की लंबी-चौड़ी तादाद है। बाबा की कई कंपनियां आयुर्वेद उत्पादों को लोगों को बीच पहुंचा रही हैं। यानी सरकारी जुबान में अगर बाबा कुछ गलत कर रहे हैं तो ये सिलसिला काफी पहले से चल रहा होगा।
ऐसा तो हो नहीं सकता कि कालेधन पर सत्याग्रह पर बैठने के तुरंत बाद उनकी कंपनियां गोरखधंधों में लिप्त हो गईं। इसी तरह अरविंद केजरीवाल को नौकरी का हवाला जिस मामले में उलझाया जा रहा है, वो भी काफी पुराना है। अरविंद ने 2006 में ज्वाइंट इनकम टैक्स कमिश्रर का पद छोड़ा था। लेकिन सरकार को अब याद आ रहा है कि उन्होंने सेवा शर्तों का उल्लंघन किया। उनपर 9 लाख की देनदारी भी निकाली जा रही है। यदि सरकार की मंशा बदले की नहीं होती तो इन कार्रवाईयों को गलती सामने आने के बाद ही अंजाम दिया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इसका क्या मतलब निकाला जाए। निश्चित तौर पर यही कि सरकार अपने खिलाफ उठती आवाजों को बर्दाश्त नहीं कर पाई। बेहतर होता अगर सरकार इन आवाजों के साथ गूंज रहे जनता के स्वरों को भी पहचान लेती। पिछले कुछ दिनों में सरकार की छवि पर जितना बट्टा लगा है, उसमें इन कार्रवाईयों ने थोड़ा और इजाफा करने का काम किया है। गनीमत है कि हाल-फिलहाल चुनाव नहीं हैं, अन्यथा अहंकार चूर होते देर नहीं लगती। वैसे भी अहंकार का पेड़ कितना भी ऊंचा क्यों न हो जाए ज्यादा देर मजबूती के साथ खड़ा नहीं रह सकता। एक न एक दिन उसे जमीन पर आना ही पड़ता है। सरकार ये अहंकार कितने दिनों तक टिकता ये देखने वाली बात होगी।
Thursday, September 1, 2011
कहां तक वाजिब है अन्ना और गांधी की तुलना
अन्ना के आंदोलन की अलोचना का सिलसिला अनशन खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं हुआ है। जिन लोगों के मन में इस आंदोलन की खिलाफत में थोड़ी बहुत कसर रह गई थी, उसे वो अब पूरा कर रहे हैं। इन आलोचकों में अरुंधति राय सबसे आगे हैं, वैसे तो लालू यादव जैसे राजनीतिज्ञ भी आंदोलन को गलत करार दे रहे हैं मगर ये उनकी महज खीज है। कुछ लोगों को इसमें भी आपत्ति है कि अन्ना की तुलना महात्मा गांधी से की जा रही है। उनके मुताबिक गांधी देश की आजादी के लिए लड़े थे। इसे सोच का फर्क कह सकते हैं, ऐसे लोगों के लिए शायद आजादी के मायने गैरों के चुंगल से मुक्त होना भर है। अगर अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमारे अधिकारों का हनन हो रहा है, हमारी आवाज को दबाया जा रहा है, हमारे हितों की अनदेखी की जा रही है तो हम अब भी गुलाम हैं। फर्क बस चमड़ी का है। वैसे मेरे नजरीय में भी अन्ना का आंदोलन गांधी के आंदोलन से अलग है, लेकिन मेरे मायने जुदा हैं। गांधी के आंदोलन की शुरूआत उनके साथ हुए गलत आचरण से शुरू हुई। जबकि अन्ना ने जन-जन की समस्या को मुद्दा बनाया। इस बात में कोई दोराय नहीं कि जिस पीड़ा से गांधीजी गुजरे उसी दर्द का अनुभव हजारों-लाखों भारतीय भी कर रहे थे। लेकिन यदि बापू को ट्रेन से न उतारा गया होता तो शायद वो आजादी की लड़ाई के अगुवा नहीं होते। गांधीजी उन दिनों दक्षिण अफ्रिका में थे, उन्हें फस्र्ट क्लास का टिकट होने के बाद भी थर्ड क्लास में जाने को कहा गया, जब उन्होंने ऐसा नहीं किया तो ट्रेन से बाहर कर दिया गया। ऐसे ही एक दूसरे मामले में बग्घी ड्राइवर ने गांधीजी के साथ महज इसलिए मारपीट की क्योंकि उन्होंने यूरोपियन यात्री को जगह देने से मना कर दिया। इन सबके अलावा दक्षिण अफ्रिका के कई होटलों में गांधीजी का प्रवेश प्रतिबंधित था, डरबन के मजिस्ट्रेट ने तो उन्हें पगड़ी उतारने तक का फरमान भी सुना दिया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। ये कुछ ऐसी घटनाएं थी, जिन्होंने गांधीजी को अन्याय और रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने पर मजबूर किया। यहां मजबूरी काबिले-गौर शब्द है।
गांधीजी ने देश के लिए जो किया, उसे कोई नहीं भुला सकता। आजादी में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा। विरोध का अहिंसक हथियार महात्मागाधी की ही देन है। लेकिन ये याद उस मजबूरी की भी याद दिलाती रहेगी। अब अन्ना की बात करें तो उन्हें भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनता का दर्द व्यक्तिगत अनुभव से नहीं हुआ, उन्होंने आस-पास जो होते देखा-सुना उसके खिलाफ लामबंद हो गए। फिर भी गांधी और अन्ना की तुलना को कहीं से भी जायज नहीं कहा जा सकता। तुलना करने से हम किसी को थोड़ा ऊपर, और किसी को थोड़ा नीचे कर देते हैं। जो गांधी ने किया वो अन्ना नहीं कर सकते और जो अन्ना कर रहे हैं उसे करने के लिए गांधी हमारे बीच हैं ही नहींं। इसलिए दोनों में अंतर निकालना या समानता बताना दोनों ही गलत हैं। बात केवल अन्ना के आंदोलन पर केंद्रित होनी चाहिए। अरुंधति राय मानती हैं कि अन्ना के समर्थन में सड़कों पर जनसैलाब का उमड़ाना हैरान करने वाला नहीं है, क्योंकि इससे ज्यादा भीड़ वो कश्मीर में देख चुकी हैं। कश्मीर को देश के बाकी इलाकों को जोड़कर देखना अरुंधति की सबसे पहली मूर्खता है। घाटी में जो हालात हैं, उसके लिए पाक परस्त हुर्रियत जिम्मेदार है। जहां तक बात भीड़ के उमडऩे की है तो, कश्मीरियों को इस्लाम के नाम पर आजादी का नारा बुलंद करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। धर्म के नाम पर भीड़ कैसे जुटती है, ये बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान देश देख चुका है। शरीर पर बम बांधकर अपने को उड़ा लेने और हंसते-खेलते जान निछावर करने का परिणाम भले ही मौत हो, मगर दोनों के आश्य अलग हैं। कश्मीर में जुटने वाली भीड़ बम बांधे हुए लोगों की तरह है, जो दूसरों के इशारों पर प्रतिक्रिया करती है जबकि अन्ना के समर्थन में उतरे लोग अपनी मर्जी से सड़क पर आए। अरुंधति को सबसे पहले इन दोनों के बीच का फर्क समझने की जरूरत है। आंदोलन के अहिंसक स्वरूप पर अरुंधति कहती हैं कि इसकी वजह पुलिस का डर था। यानी अगर पुलिस डरी नहीं होती तो आंदोलन को अहिंसक नहीं कहा जा सकता था।
आजादी के दौर में गांधीजी के आंदोलनों को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने कई बार जुल्म ढहाए मगर फिर भी उन आंदोलनों को अहिंसक कहा गया। इसलिए अगर पुलिस बेखौफ होती तो ये जरूरी नहीं कि लोग भी रक्तपात पर उतर आते। जनता के धैर्य और उत्तेजना को काबू रखना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन अन्ना ने इस मुश्किल को आसान कर दिखाया। कम से कम इसके लिए तो उनकी तारीफ की ही जानी चाहिए। अरुंधति अन्ना के आंदोलन को मिले मीडिया कवरेज पर भी सवाल उठा रही हैं, इस लेखिका को लगता है कि कुछ चैनलों को साधकर आंदोलन को प्रमोट किया गया। ये बात बिल्कुल सही है कि आंदोलन की सफलता में मीडिया की भूमिका काफी अहम रही, पर क्या इसका ये मतलब निकाला जाना चाहिए कि सबकुछ पेड था। मीडिया मसाले की तलाश में रहता है, और अन्ना के आंदोलन में उसे वो मसाला मिला। आम जनता सिर्फ और सिर्फ अन्ना के बारे में जानना चाहती थी। चाय की दुकान से लेकर दफ्तरों तक में अन्ना की चर्चा थी, ऐसे में मीडिया कुछ और दिखाता या पढ़ाता भी तो कैसे। इस विवादास्पद लेखिका को इस बात पर भी ऐतराज है क लोगों ने हाथ में तिरंगे लेकर वंदेमातरम के नारे क्यों लगाए। बकौल अरुंधति वंदेमातरम का सांप्रदायिक इतिहास रहा है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की मनाही है, इसी तर्क को लेकर शाही इमाम ने मुस्लिमों से आंदोलन से दूर रहने को कहा, मगर मुसलमान पहले से भी ज्यादा तादाद में अन्ना का साथ देने पहुंचे। जिन दो बच्चियों ने अन्ना का अनशन तुड़वाया वो भी मुस्लिम थीं। तो फिर इसमें सांप्रदायिकता की बात कहां से आ गई। जब मुस्लिमों को इन नारों के बीच भी खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा बनाने पर कोई ऐतराज नहीं तो फिर अरुंधति ऐतराज जताने वाली कौन होती हैं। अरुंधति और उनके जैसे दूसरे लोग आलोचना की बीमारी से ग्रस्त हैं, इन्हें माओवादियों का रक्तपात, हुर्रियत के देश विरोधी नारे तो सुहाते हैं, लेकिन किसी अन्ना जैसे आम आदमी से जुड़े आंदोलन नहीं। अच्छी बात ये है कि जनता ने भी ऐसे लोगों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। उसे समझ आ गया है कि ये लोग सुर्खियों में आने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अन्ना ने जो काम किया है, उसके आगे ये अलोचनाएं कहीं नहीं टिकतीं। वैसे भी हर अच्छी पहल को अंजाम तक पहुंचने से पहले विरोध के दरिया से गुजरना ही पड़ता है।
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