बीते दिनों मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में अब तक की सबसे बड़ी अतिक्रमण हटाओ मुहिम चलाई गई। इसे सबसे बड़ी इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि ये कार्रवाई रसूखदार लोगों के खिलाफ की गई। सीएम हाउस से इस अभियान की रूपरेखा तैयार की गई और सीएम के शहर से जाते ही उसे अंजाम दे दिया गया। यह पूरी कवायद इतनी गुपचुप रही कि सुबह जब लोगों ने पुलिस फोर्स और बुल्डोजर देखे तो उन्हें माजरा समझ ही नहीं आया, लेकिन सूरज चढ़ते-चढ़ते स्थिति पूरी तरह साफ हो गई। एक रिहाइशी कालोनी में करोड़ों की लागत से बने मॉल को डायनामाइट के सहारे जमींदोज किया गया। दुकानदारों को सामान बटोरने के लिए महज आधे धंटे का वक्त मिला, सालों की मेहनत से तिनका-तिनका जोड़कर उन्होंने जो सपने संजोए थे वो पलक झपकते ही धूल में मिल गए। ये खबर राष्ट्रीय स्तर पर छाई रही, हर खबरीया चैनल ने इसे प्रमुखता से दिखाया। मॉल तोड़ने के अलावा कुछ मकानों को भी अवैध करार दिया गया, हालांकि उन्हें तोड़ने के बजाए प्रशासन ने बीच का रास्ता अपनाया। लेकिन इस बीच के रास्ते से भी लोगों के दिलों की धड़कनें और आशियाना बिखरने का खौफ खत्म नहीं हुआ है। कार्रवाई के पीछे प्रशासन का तर्क है कि मॉल और उसके आसपास का कुछ हिस्सा सरकारी जमीन पर है, इसलिए इसे ध्वस्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं। निश्चित तौर पर प्रशासन का तर्क दस्तावेजों पर आधारित होगा, इतनी बड़ी कार्रवाई बिना पर्याप्त आधार के नहीं हो सकती, लेकिन इन पर्याप्त आधारों का अहसास उसे 10 साल बाद क्यों हुआ ये अपने आप में सोचने वाली बात है।
जिस जगह कार्रवाई की गई, वो कोई नई बसावट नहीं है, सालों से लोग वहां रह रहे हैं। इस कॉलोनी को आईएसओ प्रमाण पत्र भी मिला है, तमाम बैंकों के एटीएम भी मौजूद हैं। मॉल के जिस हिस्से को तोड़ा गया वहां भी कुछ एटीएम लगे थे। इसके अलावा सबसे बड़ी बात जिन लोगों के घरों को अवैध करार दिया गया उनमें से कई ने लोन लेकर इसे खरीदा था। आमतौर पर बैंक लोन देने से पहले गहरी जांच पड़ताल करती हैं, तो फिर उसने ऐसे मकानों के लिए कर्ज कैसे दे दिया जो सरकारी जमीन कब्जा कर बने थे। बैंक की बातों को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो सबसे बड़ा सवाल सरकारी उदासीनता और लापरवाही का है। आखिर कैसे प्रशासन सालों तक अवैध निर्माण होते देखता रहा। थोड़े-मोटे अतिक्रमण का मामला होता तो फिर भी समझा जा सकता था,
लेकिन यह 140 एकड़ भूमि का मामला है। अगर सरकारी दावे सही हैं तो इस मामले में जितना बिल्डर दोषी है उससे कहीं यादा प्रशासन। अमूमन ऐसे मामलों में गलती चाहे किसी की भी हो उसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। जिन लोगों के रोजी-रोटी का साधन मॉल के अवैध हिस्से के साथ जमींदोज हो गया, उनका इसमें क्या कसूर था। कहने को ये बात जरूर कही जा सकती है कि संपत्ति क्रय-विक्रय से पहले पूरी पड़ताल कर लेनी चाहिए, लेकिन जहां बैंक कर्ज देने को तैयार हों वहां शंकी की गुंजाइश ही क्या रह जाती है। हैरानी की बात है कि अदालतें भी ऐसे मामलों में तोड़फोड़ की कार्रवाई पर यकीन रखती हैं। जबकि तोड़फोड़ से सबसे यादा नुकसान उसी आम आदमी का होना है जो इस पूरे मामले से अंजान था। अदालतों को सबसे पहले संबंधित सरकारी तंत्र से सवाल करना चाहिए कि इतने सालों तक वो क्यों सोता रहा। तोड़फोड़ की कार्रवाई तो काफी हद तक वैसी है जैसे पहले खून होते देखा जाए और जब खून हो जाए तो आरोपी को जाकर पकड़ लिया जाए। वैस ये व्यथा अकेले भोपाल की नहीं है, देशभर में ऐसा ही होता है। आदर्श का उदाहरण हमारे सामने है। दोनों ही मामलों में पहले आंखें मूंद ली गईं और जब विवाद बढ़ा तो कार्रवाई की याद आई। आदर्श को ढहाने तक का फरमान सुनाया गया है,
इस फरामन का आधार कई कारणों को बनाया गया, मसलन, आदर्श सोसाइटी ने महाराष्ट्र सरकार से सीजारजेड अधिसूचना के तहत जरूरी मंजूरी हासिल नहीं की। इमारत के लिए मूल रूप से छह मंजिलों का निर्माण होना था, लेकिन बगैर मंजूरी 31 मंजिलें बना दी गईं। अगर सरकार कह रही है तो हो सकता है इस इमारत को खड़ा करने में कानून को ताक पर रखा गया हो, लेकिन बात फिर वही आ जाती है कि आखिर पर्यावरण मंत्रालय की नींद इतनी देर बाद क्यों खुली। मुंबई कोई गांव तो है नहीं कि इतनी बड़ी इमारत के बनने की खबर शहर से बाहर तक नहीं निकल पाई। 31 मंजिलों का पर्यावरण क्लीयरेंस के बगैर खड़ा होना पर्यावरण मंत्रालय की भूमिका पर भी सवालात खड़े करता है। पर्यावरण मंत्रालय के साथ-साथ रक्षा मंत्रालय की भूमिका भी शक के घेरे में होनी चाहिए। इमारत के तैयार होने के बाद अब उसे अहसास हो रहा है कि यह महत्वपूर्ण रक्षा ठिकाने की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है। इस अवैध इमारत के निर्माण में उन लोगों को सजा क्यों दी जाए जिन्होंने वैध तरीके से अपना आशियाना बनाने का ख्वाब पाला। यदि इमारत ढहाई जाती है तो क्या यह ऐसे लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं कहलाएगी। यह वेदांता मामले का उल्लेख करना भी जरूरी है, हालांकि वो तोड़फोड़ से संबंधित नहीं है लेकिन देर से जागने की आदत को बखूबी बयां करता है। वेदांता मामले में भी तब कदम उठाया गया जब काम काफी आगे बढ़ गया था। पूर्व में वेदांता को नियामगिरी से बॉक्साइट निकालने की इजाजत देने के बाद अचानक पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण को नुकसान का आभास हुआ। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने भी परियोजना की गहरी छानबीन के बाद वेदांता को आगे बढ़ने की अनुमति दी थी। इसके बाद कंपनी ने अरबों रुपए का निवेश कर डाला। वेदांता की भारतीय सहायक वेदांता एल्युमीनियम लिमिटेड ने तो लांजीगंज में करीब एक अरब डॉलर की पूंजी लगाकर एक बड़ा एल्युमीनियम शोधन संयंत्र तक खड़ा कर डाला, यह स्थान नियामगिरी की तराई में करीब छह वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में स्थित है। यदि वेदांता का प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए वास्तव में घातक था तो शुरूआत में ही उसपर रोक क्यों नहीं लगा दी गई। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वेदांता ने क्लीयरेंस मिलने के बाद प्रोजेक्ट में ऐसे बड़े बदलाव कर दिए जिससे पर्यावरण को सौ गुना खतरा बढ़ गया। ऐसे मामले जहां सरकारी तंत्र के नाकारेपन का खामियाजा दूसराें को उठाना पड़ता हैं, वहां अदालतों को यादा सक्रीय होने की जरूरत है। खासकर सालों पुरानी बसावटों पर बुल्डोजर चलाने जैसी कार्रवाई की इजाजत तो मिलनी ही नही चाहिए। अगर अदालत एक-दो मामलों में ऐसी नजीर पेश कर दे तो शायद कुंभकरणी नींद में सोने वाले सरकारी तंत्र को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो सके।
Saturday, May 28, 2011
Friday, May 20, 2011
सच, कमजोर ही है जनता की याददाश्त
नीरज नैयर
राजनीतिज्ञ अगर ये सोचते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। कुछ एक ही ऐसे मौके आए होंगे जब जनता ने इस सोच को गलत साबित किया हो, वरना अक्सर वो अपनी कमजोर याददाश्त का परिचय देती रहती है। हालिया संपन्न हुए पांच रायों के विधानसभा में भी उसने वही किया। कुछ दिन पहले तक बढ़ती महंगाई को लेकर यूपीए सरकार को कोसने वाली जनता उसे ही दिल खोलकर वोट दे आई। जबकि माना जा रहा था कि जिस तरह से थोड़े से वक्त में महंगाई ने आसमान छुआ उससे कांग्रेस के वोट प्रतिशत का ग्राफ जरूर नीचे आएगा। वोट देते वक्त जनता ये भी भूल गई कि इसी सरकार के मंत्री उसकी भावनाओं से खिलवाड़ करते रहे, अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराते रहे और महंगाई के लिए उसी को दोषी ठहराते रहे। क्या शरद पवार और क्या मनमोहन सिंह सबने महंगाई पर जनता के दर्द का उपहास उड़ाया। ऐसा हरगिज नहीं है कि महंगाई ने किसी दूसरी पार्टी के कार्यकाल में सिर नहीं उठाया, जरूर उठाया लेकिन यहां उसके सिर को कुचलने के नाम पर जनता को बार-बार छला गया।
कभी सरकार मानूसन का रोना रोते रही तो कभी कम उत्पादन का बहाना बनाया, जबकि सैकड़ों टन अन्न खुले में यूं ही सड़ता रहा। जनता की कमजोर याददश्त ही सरकार को बेरहम और अपने फायदे के हिसाब से नीतियां मोड़ने पर उत्साहित करती है। इधर जनता ने सबकुछ भुलाकर उसे चार रायों में जीत का तोहफा दिया तो उधर इसके बदले में सरकार ने पेट्रोल के दामों में आग लगा दी। चुनावी नतीजों के महज 24 घंटों के भीतर सरकार ने जनता को ये रिटर्न गिफ्ट दिया। दाम तो जनवरी में ही बढ़ने वाले थे, लेकिन संभावित खतरे की आशंका के चलते सरकार ने उस लगाम लगाए रखी। और जैसे ही खतरे का संकट टला जनता को उसकी कमजोर याददाश्त का ईनाम मिल गया। अगर इन चुनावों में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ता तो निश्चित तौर पर ये मूल्यवृध्दि नहीं होती। सरकार ने बड़ी चतुराई से माहौल को भांपा और जनविरोधी चाल चल दी। कहने वाले यहां कह सकते हैं कि जनता के पास विकल्प नहीं था, वो मजबूर थी। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है, उसके पास विकल्प था मगर वो अपनी बीमारी से उबर नहीं पाई। भाजपा को अगर बहुत अच्छा विकल्प नहीं माना जा सकता तो वो कोई इतना बुरा विकल्प भी नहीं है कि जिसे मौका दिया ही न जाए। जब कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार एक के बाद एक जनविरोधी फैसले ले रही है तो फिर सत्ता में रखना कहां तक जायज है।
यदि एक राजा अपनी प्रजा के साथ निरंकुशता पर उतर आए तो फिर उसके रहने न रहने से क्या फर्क पड़ता है। जितने बुरे हालात अभी हैं इससे बुरे और क्या हो सकते हैं, सरकार अपनी विलासता में कमी नहीं करना चाहती वो सारा का सारा बोझ जनता से उठवाने वाले अड़िग है। इन पांच रायों के बाद अगला चुनाव अब सीधे अगले साल है। 2012 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं, इस बीच के वक्त में सरकार दिल खोलकर आर्थिक सुधाराें के नाम पर जनता का बैंड बजाएगी। इस बार पेट्रोल के दाम सीधे पांच रुपए बढाए गए, अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक बार में इतनी बड़ी वृध्दि की गई हो। यूं तो पेट्रोल के दाम निधार्रित करने का जिम्मा तेल कंपनियों के पास है, सरकार ने पिछले साल ही पेट्रोल को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया था। लेकिन सरकारी तेल कंपनियां सरकार की अनुमति के बगैर एक कदम भी नहीं उठा सकतीं। यदि ऐसा न होता तो जनवरी में ही कंपनियों ने दाम बढ़ा दिए होते। दाम बढ़ाने के हर दो-तीन हफ्ते बाद कंपनियों के घाटे का रोना शुरू हो जाता है, अभी भी कहा जा रहा है कि कच्चे तेल की कीमतों में आए उछाल के चलते तेल कंपनियों को तकरीन साढ़े पांच रुपए का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसका सीधा सा मतलब है कि जल्द ही जनता पर कमर पर एक और प्रहार किया जा सकता है। मौजूदा दौर में महंगाई की मार ने आम आदमी का जीना पहले से ही मुहाल किया हुआ है, ऐसे में ये बढ़ोतरी उसके लिए दोहरी मार की तरह है। जिस देश में लोगों की तनख्वाह सालों तक नहीं बढ़ती, वहां हर छोटे अंतराल में तेल के दाम बढ़ाना क्या जायज है? सरकार का जनता के प्रति भी कुछ दायित्व बनता है, मनमोहन सिंह ने कुछ वक्त पहले कहा था कि वो भार मुक्त होना चाहते हैं। उनका इशारा सब्सिडी के रूप में जनता को मिलने वाली राहत की ओर था। उनका कहना था कि सब्सिडी से बचने वाले धन का उपयोग शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए किया जाएगा। मगर उन्होंने ये नहीं सोचा कि जिन पेटों के दाना नहीं जाएगा क्या वो शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगे?
देश के विकास की असल पहचान आर्थिक मुद्दों पर आत्मनिर्भरता से यादा वहां रहने वाले लोगों के चेहरे की मुस्कान से होती है। सरकार ने महंगाई बढ़ाने के तमाम रास्ते खोले लेकिन उसे कम करने के बारे में एक बार भी नहीं सोचा। पेट्रोल के दाम नियंत्रण मुक्त करते समय कहा गया था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के रुख के आधार पर देश में तेल की कीमतों में बदलाव होगा। यानी अगर कच्चा तेल ऊपर जाता है तो पेट्रोल महंगा होगा और यदि कच्चे तेल में नरमी का रुख हुआ तो सस्ते पेट्रोल के रूप में जनता इसका लाभ उठा सकेगी। आज भले ही लीबिया संकट के चलते कच्चे तेल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऊंचाई पर हैं, मगर कुछ वक्त पहले जब ये ढलान पर थे तब भी इसका फायदा जनता को नहीं दिया गया। जबकि वो उसका वाजिब हक था। अगर तेल कंपनिया कच्चे तेल में तेजी का हवाला देकर दाम बढ़ाना जानती हैं तो उन्हें इसके उलट करने का आदी भी बनाया जाना चाहिए था। लेकिन सरकार ऐसा कुछ भी करने की जरूरत नहीं समझी। इसका सीधा सा मतलब है कि उसे जनता से कोई सरोकार नहीं, सरोकार का भाव मन में तभी जागता है जब चुनाव की दस्तक सुनाई देती है। दुनिया का हर देश समय के हिसाब से मूल्यवृध्दि करता है, मगर वहां जनता के हितों को ध्यान रखने वाली नीतियां भी बनाई जाती हैं। पिछले साल चीन में भी क्रूड आयॅल की कीमतों में तेजी के चलते तेल के दाम बढ़ाए गए, पर जैसे ही कच्चा तेल नीचे आया सरकार ने रोल बैक करने में जरा भी देर नहीं लगाई।
वहां की सरकार यदि जनता पर बोझ बढ़ाना जानती है तो उसे कम करना भी उसकी प्राथमिकता में शुमार है। सरकार तेल कंपनियाें के कथित घाटे की भरपाई का थोड़ा बोझ खुद वहन लेती तो उसका खजाना खत्म नहीं हो जाता। एक लीटर पेट्रोल पर 14.35 रुपए एक्साइट डयूटी, 2.65 रुपए कस्टम, 7.05 रुपए वैट, 1 रुपए एजुकेशन सेस और करीब 3.08 रुपए अन्य कर लगाती है, इस तरह एक लीटर पेट्रोल पर तकरीबन 28.13 रुपए टैक्स के होते हैं। क्या करों का फंदा ढीला करके आम जनता को राहत पहुंचाने के बारे में नहीं सोचा जा सकता था? होने को तो बहुत कुछ हो सकता था, लेकिन सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती। मगर इसमें गलती सरकार की नहीं, जनता की है जो अपने ऊपर जुल्म करने वालों को बार-बार ऐसा करने की ताकत देती है। मौजूदा मूल्यवृध्दि पर जितना गुस्सा और आक्रोश है वो थोड़े वक्त बाद काफुर हो जाएगा। कुछ देर बाद जनता बढ़ी कीमतों में खुद को ढाल लेगी और सरकार को एक बार फिर मार करने का अवसर मिल जाएगा। अब बस दुआ ही की जा सकती है कि जनता की याददाश्ता इस बार दुरुस्त रहे, अगर ऐसा हुआ तो जनता के साथ छल करने वालों को उनकी असल जगह पहुंचने में देर नहीं लगेगी। अन्यथा जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहेगा।
राजनीतिज्ञ अगर ये सोचते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। कुछ एक ही ऐसे मौके आए होंगे जब जनता ने इस सोच को गलत साबित किया हो, वरना अक्सर वो अपनी कमजोर याददाश्त का परिचय देती रहती है। हालिया संपन्न हुए पांच रायों के विधानसभा में भी उसने वही किया। कुछ दिन पहले तक बढ़ती महंगाई को लेकर यूपीए सरकार को कोसने वाली जनता उसे ही दिल खोलकर वोट दे आई। जबकि माना जा रहा था कि जिस तरह से थोड़े से वक्त में महंगाई ने आसमान छुआ उससे कांग्रेस के वोट प्रतिशत का ग्राफ जरूर नीचे आएगा। वोट देते वक्त जनता ये भी भूल गई कि इसी सरकार के मंत्री उसकी भावनाओं से खिलवाड़ करते रहे, अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराते रहे और महंगाई के लिए उसी को दोषी ठहराते रहे। क्या शरद पवार और क्या मनमोहन सिंह सबने महंगाई पर जनता के दर्द का उपहास उड़ाया। ऐसा हरगिज नहीं है कि महंगाई ने किसी दूसरी पार्टी के कार्यकाल में सिर नहीं उठाया, जरूर उठाया लेकिन यहां उसके सिर को कुचलने के नाम पर जनता को बार-बार छला गया।
कभी सरकार मानूसन का रोना रोते रही तो कभी कम उत्पादन का बहाना बनाया, जबकि सैकड़ों टन अन्न खुले में यूं ही सड़ता रहा। जनता की कमजोर याददश्त ही सरकार को बेरहम और अपने फायदे के हिसाब से नीतियां मोड़ने पर उत्साहित करती है। इधर जनता ने सबकुछ भुलाकर उसे चार रायों में जीत का तोहफा दिया तो उधर इसके बदले में सरकार ने पेट्रोल के दामों में आग लगा दी। चुनावी नतीजों के महज 24 घंटों के भीतर सरकार ने जनता को ये रिटर्न गिफ्ट दिया। दाम तो जनवरी में ही बढ़ने वाले थे, लेकिन संभावित खतरे की आशंका के चलते सरकार ने उस लगाम लगाए रखी। और जैसे ही खतरे का संकट टला जनता को उसकी कमजोर याददाश्त का ईनाम मिल गया। अगर इन चुनावों में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ता तो निश्चित तौर पर ये मूल्यवृध्दि नहीं होती। सरकार ने बड़ी चतुराई से माहौल को भांपा और जनविरोधी चाल चल दी। कहने वाले यहां कह सकते हैं कि जनता के पास विकल्प नहीं था, वो मजबूर थी। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है, उसके पास विकल्प था मगर वो अपनी बीमारी से उबर नहीं पाई। भाजपा को अगर बहुत अच्छा विकल्प नहीं माना जा सकता तो वो कोई इतना बुरा विकल्प भी नहीं है कि जिसे मौका दिया ही न जाए। जब कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार एक के बाद एक जनविरोधी फैसले ले रही है तो फिर सत्ता में रखना कहां तक जायज है।
यदि एक राजा अपनी प्रजा के साथ निरंकुशता पर उतर आए तो फिर उसके रहने न रहने से क्या फर्क पड़ता है। जितने बुरे हालात अभी हैं इससे बुरे और क्या हो सकते हैं, सरकार अपनी विलासता में कमी नहीं करना चाहती वो सारा का सारा बोझ जनता से उठवाने वाले अड़िग है। इन पांच रायों के बाद अगला चुनाव अब सीधे अगले साल है। 2012 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं, इस बीच के वक्त में सरकार दिल खोलकर आर्थिक सुधाराें के नाम पर जनता का बैंड बजाएगी। इस बार पेट्रोल के दाम सीधे पांच रुपए बढाए गए, अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक बार में इतनी बड़ी वृध्दि की गई हो। यूं तो पेट्रोल के दाम निधार्रित करने का जिम्मा तेल कंपनियों के पास है, सरकार ने पिछले साल ही पेट्रोल को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया था। लेकिन सरकारी तेल कंपनियां सरकार की अनुमति के बगैर एक कदम भी नहीं उठा सकतीं। यदि ऐसा न होता तो जनवरी में ही कंपनियों ने दाम बढ़ा दिए होते। दाम बढ़ाने के हर दो-तीन हफ्ते बाद कंपनियों के घाटे का रोना शुरू हो जाता है, अभी भी कहा जा रहा है कि कच्चे तेल की कीमतों में आए उछाल के चलते तेल कंपनियों को तकरीन साढ़े पांच रुपए का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसका सीधा सा मतलब है कि जल्द ही जनता पर कमर पर एक और प्रहार किया जा सकता है। मौजूदा दौर में महंगाई की मार ने आम आदमी का जीना पहले से ही मुहाल किया हुआ है, ऐसे में ये बढ़ोतरी उसके लिए दोहरी मार की तरह है। जिस देश में लोगों की तनख्वाह सालों तक नहीं बढ़ती, वहां हर छोटे अंतराल में तेल के दाम बढ़ाना क्या जायज है? सरकार का जनता के प्रति भी कुछ दायित्व बनता है, मनमोहन सिंह ने कुछ वक्त पहले कहा था कि वो भार मुक्त होना चाहते हैं। उनका इशारा सब्सिडी के रूप में जनता को मिलने वाली राहत की ओर था। उनका कहना था कि सब्सिडी से बचने वाले धन का उपयोग शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए किया जाएगा। मगर उन्होंने ये नहीं सोचा कि जिन पेटों के दाना नहीं जाएगा क्या वो शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगे?
देश के विकास की असल पहचान आर्थिक मुद्दों पर आत्मनिर्भरता से यादा वहां रहने वाले लोगों के चेहरे की मुस्कान से होती है। सरकार ने महंगाई बढ़ाने के तमाम रास्ते खोले लेकिन उसे कम करने के बारे में एक बार भी नहीं सोचा। पेट्रोल के दाम नियंत्रण मुक्त करते समय कहा गया था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के रुख के आधार पर देश में तेल की कीमतों में बदलाव होगा। यानी अगर कच्चा तेल ऊपर जाता है तो पेट्रोल महंगा होगा और यदि कच्चे तेल में नरमी का रुख हुआ तो सस्ते पेट्रोल के रूप में जनता इसका लाभ उठा सकेगी। आज भले ही लीबिया संकट के चलते कच्चे तेल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऊंचाई पर हैं, मगर कुछ वक्त पहले जब ये ढलान पर थे तब भी इसका फायदा जनता को नहीं दिया गया। जबकि वो उसका वाजिब हक था। अगर तेल कंपनिया कच्चे तेल में तेजी का हवाला देकर दाम बढ़ाना जानती हैं तो उन्हें इसके उलट करने का आदी भी बनाया जाना चाहिए था। लेकिन सरकार ऐसा कुछ भी करने की जरूरत नहीं समझी। इसका सीधा सा मतलब है कि उसे जनता से कोई सरोकार नहीं, सरोकार का भाव मन में तभी जागता है जब चुनाव की दस्तक सुनाई देती है। दुनिया का हर देश समय के हिसाब से मूल्यवृध्दि करता है, मगर वहां जनता के हितों को ध्यान रखने वाली नीतियां भी बनाई जाती हैं। पिछले साल चीन में भी क्रूड आयॅल की कीमतों में तेजी के चलते तेल के दाम बढ़ाए गए, पर जैसे ही कच्चा तेल नीचे आया सरकार ने रोल बैक करने में जरा भी देर नहीं लगाई।
वहां की सरकार यदि जनता पर बोझ बढ़ाना जानती है तो उसे कम करना भी उसकी प्राथमिकता में शुमार है। सरकार तेल कंपनियाें के कथित घाटे की भरपाई का थोड़ा बोझ खुद वहन लेती तो उसका खजाना खत्म नहीं हो जाता। एक लीटर पेट्रोल पर 14.35 रुपए एक्साइट डयूटी, 2.65 रुपए कस्टम, 7.05 रुपए वैट, 1 रुपए एजुकेशन सेस और करीब 3.08 रुपए अन्य कर लगाती है, इस तरह एक लीटर पेट्रोल पर तकरीबन 28.13 रुपए टैक्स के होते हैं। क्या करों का फंदा ढीला करके आम जनता को राहत पहुंचाने के बारे में नहीं सोचा जा सकता था? होने को तो बहुत कुछ हो सकता था, लेकिन सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती। मगर इसमें गलती सरकार की नहीं, जनता की है जो अपने ऊपर जुल्म करने वालों को बार-बार ऐसा करने की ताकत देती है। मौजूदा मूल्यवृध्दि पर जितना गुस्सा और आक्रोश है वो थोड़े वक्त बाद काफुर हो जाएगा। कुछ देर बाद जनता बढ़ी कीमतों में खुद को ढाल लेगी और सरकार को एक बार फिर मार करने का अवसर मिल जाएगा। अब बस दुआ ही की जा सकती है कि जनता की याददाश्ता इस बार दुरुस्त रहे, अगर ऐसा हुआ तो जनता के साथ छल करने वालों को उनकी असल जगह पहुंचने में देर नहीं लगेगी। अन्यथा जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहेगा।
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