घपले-घोटालों की चर्चां के बीच आजकल एक और खबर सुर्खियों में है, वो है बाबा रामदेव और कांग्रेस की जुबानी जंग। इस जंग की सही मायनों में शुरूआत हुई कांग्रेस सांसद निनोंग एरिंग णके बयान से। अरुणाचल के सांसद साहब बाबा की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से इस कदर आहत हुए कि उन्होंने अपशब्द तक कह डाले। बाबा की मानें तो एरिंग ने एंग्री यंगमैन की भूमिका उन्हें ब्लडी इंडियन और न जाने क्या-क्या कहा। सांसद महोदय ने बाबा को धमकी भी दी कि अगर उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान बंद नहीं किया तो गंभीर नतीजे भुगतने होंगे। गंभीर नतीजों से उनका इशारा किस तरफ था ये तो वही बता सकते हैं, लेकिन इस तरह की भाषा एक सांसद के मुंह से अच्छी नहीं लगती। जिम्मेदार पद पर काबिज होने के बाद अपनी जिम्मेदारी समझना हमारे नेता पता नहीं कब सीखेंगे। वैसे देखा जाए तो राजनीति में सफलता के लिए बदजुबानी और दबंगई आजकल मूलमंत्र बन गए हैं। जो जितना बड़ा दबंग, वो उतना ही बड़ा नेता। यही वजह है कि संसद तक पहुंचने वाले माननीयों में आपराधिक छवि वालों की भी अच्छी-खासी तादाद होती है। खैर ये एक अगल मामला है, हम अपने मूल मुद्दे पर लौटते हैं। एरिंग द्वारा शुरू की गई जुबानी जंग को और तीखा बनाया शब्दबाणों के लिए मशहूर हो चुके दिग्विजय सिंह ने। दिग्गी राजा ने रामदेव को संपत्ति के खुलासे की चुनौती दी, इसके जवाब में बाबा ने भी गांधी-नेहरू परिवार को निशाना बनाया।
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की दूसरों पर कटाक्ष करना आदत सी बन चुकी है। कुछ दिनों पहले तक वो भगवा आतंकवाद के नाम पर भाजपा और संघ को घेरे हुए थे, और अब योगगुरु को उनका नया टारगेट हैं। ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस ने उन्हें इसी काम के लिए रखा हुआ है कि जब भी कोई सरकार की तरफ ढ़ेढी निगाह करे बस बरस पड़ो। रामदेव कुछ समय से कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। उन्होंने तो संकेत दिए हैं कि उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव से वो अपनी राजनीतिक पारी शुरू कर सकते हैं। संभव है कि इसी के चलते वो दिग्गी की आंखों की किरकिरी बने हुए हों। दिग्गी राजा का सवाल है कि आखिर बाबा के पास इतने दौलत आई कहां से? भले ही कांग्रेस महासचिव की ये सवाल विशुध्द राजनीति से प्रेरित हों, पर सवाल तो हैं। बाबा के बारे में कहा जाता है कि वो एक जमाने में साइकिल से चलते थे और ये जमाना यादा पुराना भी नहीं है। अखाड़ा परिषद के बाबा हठ योगी ने हाल ही में कहा था कि रामदेव के पास साइकिल का पंचर बनवाने के पैसे नहीं थे। पर योगगुरु आज हेलीकॉप्टर से सफर करते हैं। उनका खुद का आइलैंड भी है, जिसकी कीमत 20 लाख स्टर्लिंग पाउंड है। बाबा के आश्रमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हरिद्वार से लेकर अरावली की पहाड़ियों और स्कॉटलैंड तक में बाबा के आश्रम हैं। उनका ट्रस्ट दुनिया भर में अपने उत्पाद बेचता है। णखबरों की अगर मानें तो करीब तीन साल पहले रामकिशन यादव उर्फ बाबा रामदेव ने खुद स्वीकारा था कि उनका सालाना करोबार एक लाख करोड़ का होने वाला है। कहा तो ये भी जाता है कि पंताजलि योग की शाखाएं ब्रिटेन, अमेरिका, थाइलैंड, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका और दुबई तक में खुल गई हैं। आठ सौ बीघा में बने पंतजलि योग ग्राम में फाइव स्टार संस्कृति वाला पंचकर्म सेंटर है। इसके साथ ही पंतजलि में गोशाला की स्थापना की गई है, बाबा के पास करीब 500 गाये हैं, जिनमें विदेशी नस्लों की तादाद सबसे यादा है। बाबा ने 2009 में हरिद्वार में 125 एकड़ खेती की जमीन पर एक कंपनी की शुरूआत की थी।
रामदेव के इस मेगा फूड पार्क की कुल लागत 500 करोड़ रुपए आने का अनुमान है। पहले चरण में 250 करोड़ रुपए की लागत आई जबकि दूसरे चरण ढाई सौ करोड़ की लागत का अनुमान है। बाबा आज के वक्त में किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं, देश से लेकर विदेशों तक में उनके सैकड़ों भक्त हैं। इस बात में कोई दोराय नहीं कि उन्होंने फिर से योग को जीवित किया है, लेकिन सिर्फ योग के सहारे इतनी तेजी से संपत्ति अर्जित करना संदेह तो पैदा करता ही है। बाबा की संपत्ति को लेकर सवाल सिर्फ दिग्विजय सिंह ने ही नहीं किया है कुछ दूसरे संगठन भी इसका खुलासा चाहते हैं। दरअसल बाबा राजनीतिज्ञों के साथ-साथ कई संगठनों के निशाने पर हैं, इसकी मूल वजह है उनका योग के अलावा दूसरे क्षेत्रों में हस्तक्षेप। एक जमाने में लालू प्रसाद यादव रामदेव के मुरीद थे, मगर आज वो उनकी मुखालफत करने से पीछे नहीं हटते। कुछ वक्त पहले लालू ने कहा था, रामदेव खुद को अच्छा साबित करने के लिए देश के हर नेता की आलोचना करते हैं, वो बौरा गए हैं। राजद प्रमुख तो यहां तक कह गए थे कि अगर हमने बाबा को नहीं बचाया होता तो वो बहुत पिटे होते। लालू जैसी खीज दूसरे नेताओं की भी है। पूर्व स्वास्थ्यमंत्री अंबूमणि रामदेव से लेकर सीपीएम नेता वृंदा करात तक बाबा से खार खाए बैठे हैं। वृंदा करात ने आरोप लगाया था कि रामदेव आयुर्वेद दवाओं में हड्डियों का प्रयोग करते हैं। योग से कैंसर मिटाने के दावे को लेकर बाबा का अंबूमणि से विवाद खूब चर्चा में रहा था। हाल ही में समलैंगिकता के मुद्दे पर उनका बॉलिवुड अभिनेत्री सेलीना जेटली से टकराव हुआ, ये बात सही है कि दूसरे नागरिकों की तरह बाबा को भी अपना मत रखने का हक है। लेकिन उन्हें संवेदनशील मुद्दों को छेड़ते वक्त थोड़ा सावधानी से काम लेना चाहिए। वैसे ये सोचने वाली बात है कि एक जमाने में कांग्रेस के करीबी कहे जाने वाले बाबा अचानक से कांग्रेस विरोधी कैसे हो गए। 2009 में जब बाबा ने अपना फूड पार्क बनाया था तो उसके लिए सरकार से ही सहायता मिली थी।
खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय ने बाबा को 50 करोड़ रुपए का अनुदान दिया था। और तो और केंद्रीय रायमंत्री सुबोधकांत सहाय के गृहक्षेत्र रांची में भी एक फूड पार्क की आधारशिला रखी गई थी, जिसमें बाबा सरकार के सहयोगी थे। उस दौरान बाबा की संघ और विहिप से दूरी भी साफ तौर पर देखी जा सकती थी। रामदेव ने संघ समर्थित बैठकों तक में जाना बंद कर दिया था। बहरहाल अब दोनों एक दूसरे पर तीर ताने खड़े हैं, बाबा की संपत्ति को लेकर जो संशय है उसका समाधान होना चाहिए। लेकिन इसके पीछे राजनीति उचित नहीं। जिस तरह से कांग्रेस सांसद बाबा के खिलाफ लामबंद हैं, उसमें साफ तौर पर सियासत नजर आ रही है। रामदेव यदि कालेधन का मुद्दा उठा रहे हैं तो उससे कांग्रेसियों को मिर्ची नहीं लगनी चाहिए। जिस तरह का रवैया दिग्विजय सिंह और निनोंग एरिंग ने अपनाया है उससे उनका खुद का और कांग्रेस का ही नुकसान है।
Monday, February 28, 2011
Wednesday, February 2, 2011
इच्छामृत्यु क्यों न हो कानूनी
नीरज नैयर
कुछ वक्त पहले गुजारिश नाम की एक फिल्म आई थी। रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय अभीनीत यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इसके लंबे वक्त से चला आ रही इच्छामृत्यु या यूथनेशिया की चर्चा को एक बार फिर से गर्म कर दिया। फिल्म में रितिक ने एक जादूगर का किरदार निभाया है जो बाद में लकवे का शिकार हो जाता है। चलने-फिरने में पूरी तरह असमर्थ यह जादूगर अदालत से इच्छामृत्यु की गुहार लगाता है, जिसे बार-बार ठुकरा दिया जाता है। परिवार के अलावा कोई भी इस फैसले में उसका साथ नहीं देता। हालांकि दर्द के सैलाब के बीच ऐश्वर्या के रूप में उसे जिंदगी जीने का एक बहाना मिल जाता है, बाकी हिंदी फिल्मों की तरह काफी हद तक इस फिल्म का अंत भी खुशनुमा ही रहा। लेकिन, हकीकत में जिंदगी के सताए हुए लोगों की जिंदगी का अंत शायद इतना अच्छा नहीं होता। हाल ही में बलात्कार की शिकार एक महिला ने सुप्रीम कोर्ट से इच्छामृत्यु की गुहार लगाई है। यह महिला पिछले 36 सालों से दिमागी तौर पर मृत है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक जिंदा लाश। अरुणा नाम की इस महिला के साथ 1973 में बलात्कार किया गया। पेशे से नर्स अरुणा को अस्पताल में सफाई कर्मचारी ने क्रूरता और दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए हवस का शिकार बनाया, अरुणा के गले में जंजीर डालकर उसे पलंग से बांधा गया, उसके शरीर को भूखे भेड़िए की तरह नोचा गया। इस घटना के बाद से अरुणा की जिंदगी बिस्तर पर पड़ी पत्थर की मूर्ति की माफिक बनकर रह गई है, फर्क बस इतना है कि इस मूर्ति में जान है। अब सवाल ये उठता है कि क्या इस याचिका को भी गुजारिश के जादूगर की याचिका की तरह खारिज कर दिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका 2009 में आई थी, कोर्ट ने अब इस मुद्दे पर अटॉर्नी जनरल से राय मांगी है। साथ ही अदालत ने तीन डॉक्टरों की एक टीम भी गठित की है, जो अरुणा की दशा पर रिपोर्ट सौपेंगी। भारत में इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता नहीं है, इस लिहाज से इस बात की संभावना बेहद कम है कि सुप्रीम कोर्ट कोई नजीर पेश करेगा। एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी के तीन दशक बिस्तर पर पड़े-पड़े गुजार दिए हों, उसे जिंदा रखना क्या उसके साथ अन्याय नहीं होगा। जो पहले से ही मर चुका हो, उसे फिर से मौत देना मौत की रस्म अदायगी से यादा और क्या हो सकता है। वैसे ये कोई पहला मामला नहीं है, जिदंगी से मात खाने वाले बहुत से लोग अपनी मर्जी से दुनिया छोड़ने की मांग कर चुके हैं। दो साल पहले उत्तर प्रदेश के एक व्यक्ति ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपने बच्चों के लिए इच्छामृत्यु मांगी थी। 10 से 16 साल की उम्र के यह बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने तक में असमर्थ थे, उनके शरीर के अधिकतर अंगों (खासकर गर्दन के नीचे के) ने काम करना बंद कर दिया था। 2008 में हिमाचल प्रदेश की एक इंजीनियर ने दुनिया छोड़ने की इच्छा जाहिर की थी। सीमा नाम की इस इंजीनियर ने अपनी जिंदगी के 13 अनमोल साल एक कमरे में ही गुजार दिए। उसके शरीर के अधिकतर अंग अर्थराइटिस से ग्रस्त थे, कंधे, कोहनी और कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह निष्क्रीय बन गया था। सीमा ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट से लेकर मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई। ऐसे ही 2004 में एक मां ने अपने 24 साल के बेटे के लिए मौत मांगी थी, ताकि उसके अंगों को दान किया जा सके। शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश की जिंदगी लाइफ सपोर्ट सिस्टम के सहारे चल रही थी, डॉक्टर तक उसके ठीक होने की उम्मीद छोड़ चुके थे। इन सारे मामलों में जिंदगी मौत से भी यादा बदतर है , ये लोग यादा जीए तो ताउम्र सिर्फ जिंदगी को कोसते रहेंगे।
मौत का इंतजार करना दुनिया में शायद सबसे कठिन काम है, और ये लोग इसी इंतजार से गुजर रहे हैं। ऐसे में इन्हें जिंदगी से मुक्ति क्यों नहीं मिलनी चाहिए। निश्चित तौर पर कोर्ट के साथ-साथ ऐसे बहुत से लोग होंगे जो कभी भी यूथनेशिया के लिए तैयार नहीं होंगे। इसके पीछे कई कारण हैं, सबसे पहला तो यही कि अगर इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता मिल गई तो इसके दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहेगी। इसके अलावा हर वो व्यक्ति जो नाकामयाबी और नकरात्मकता के दौर से गुजर रहा है, इच्छामृत्यु उसके लिए छुटकारे का आसान साधन बन जाएगी। दुनिया के कुछ मुल्कों में यूथनेशिया को कानूनी मान्यता प्रदान की गई है, जिनमें नीदरलैंड, नोर्वे, स्वीडन, फिनलैंड, बेल्जियम, लैक्समबर्ग, अल्बानिया, हॉलैंड, स्वीट्जलैंड, थाईलैंड और अमेरिका के उत्तरप्रश्चिम में स्थित ओरेजन शामिल हैं। इनमें हॉलैंड का रिकॉर्ड सबसे यादा खराब है। आंकड़ों पर यदि विश्वास किया जाए तो 1990 में यहां इच्छामृत्यु के नाम पर करीब 1030 मरीजों को बिना उनकी सहमति के मौत की नींद सुला दिया गया। वहीं, तकरीबन 22,500 मरीजों की मौत लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने से हुईं। ये आंकड़े इच्छामृत्यु की वकालत करने वाले कदमों को पीछे खींचने की ताकत रखते हैं, मगर इसके बावजूद यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसके बारे में विचार किए जाने की जरूरत है। सिर्फ इसलिए कि यूथनेशिया को कानूनी जामा पहनाने पर उसके दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाएगी, उन लोगों को जिंदा रखकर तड़पने नहीं दिया जा सकता जिनकी पूरी जिंदगी दूसरों पर बोझ बन जाए। इच्छामृत्यु को लेकर हमारे देश में लंबे समय से बहस चली आ रही है, लेकिन इस बहस का अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है। समय के साथ बदलाव जरूरी हो जाते हैं, इसलिए इस मुद्दे पर बदलाव की दिशा में भी कदम आगे बढ़ाए जाने चाहिए।
इसके साथ-साथ हमारे कानूनी ढंाचे में बहुत कुछ ऐसा है जिसमें बदलाव की जरूरत है, हमारे यहां खुदकुशी की कोशिश करने वाले पर मुकदमा चलाया जाता है। यानी जो बेचारा जिंदगी से आजिज आकर मौत को आलिंगन करने में असफल रहा हो उसे कानून पचड़ों में उलझाकर जीते-जी मारने का पूरा बंदोबस्त किया गया है। क्या वास्तव में इसकी कोई जरूरत है। कानून के जानकर इसके समर्थन में बहुत से कारण गिना सकते हैं, पर मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसा लगता है कि जब हमें जिंदगी की दूसरे फैसले लेने का अधिकार है तो फिर हम कब दुनिया को अलविदा कहेंगें यह भी हमें ही तय करने दिया जाए। वैसे भी खुदकुशी जैसा कदम उठाना या मौत की मांग कोई ऐसा ही व्यक्ति कर सकता है जिसके लिए जिंदगी के कोई मायने नहीं बचे हों, तो फिर उसे जबरदस्ती जिंदा रहने को मजबूर करना कहां तक जायज है। इस बारे में न केवल गौर करने की बल्कि इससे आगे बढ़ने की भी जरूरत है।
कुछ वक्त पहले गुजारिश नाम की एक फिल्म आई थी। रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय अभीनीत यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इसके लंबे वक्त से चला आ रही इच्छामृत्यु या यूथनेशिया की चर्चा को एक बार फिर से गर्म कर दिया। फिल्म में रितिक ने एक जादूगर का किरदार निभाया है जो बाद में लकवे का शिकार हो जाता है। चलने-फिरने में पूरी तरह असमर्थ यह जादूगर अदालत से इच्छामृत्यु की गुहार लगाता है, जिसे बार-बार ठुकरा दिया जाता है। परिवार के अलावा कोई भी इस फैसले में उसका साथ नहीं देता। हालांकि दर्द के सैलाब के बीच ऐश्वर्या के रूप में उसे जिंदगी जीने का एक बहाना मिल जाता है, बाकी हिंदी फिल्मों की तरह काफी हद तक इस फिल्म का अंत भी खुशनुमा ही रहा। लेकिन, हकीकत में जिंदगी के सताए हुए लोगों की जिंदगी का अंत शायद इतना अच्छा नहीं होता। हाल ही में बलात्कार की शिकार एक महिला ने सुप्रीम कोर्ट से इच्छामृत्यु की गुहार लगाई है। यह महिला पिछले 36 सालों से दिमागी तौर पर मृत है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक जिंदा लाश। अरुणा नाम की इस महिला के साथ 1973 में बलात्कार किया गया। पेशे से नर्स अरुणा को अस्पताल में सफाई कर्मचारी ने क्रूरता और दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए हवस का शिकार बनाया, अरुणा के गले में जंजीर डालकर उसे पलंग से बांधा गया, उसके शरीर को भूखे भेड़िए की तरह नोचा गया। इस घटना के बाद से अरुणा की जिंदगी बिस्तर पर पड़ी पत्थर की मूर्ति की माफिक बनकर रह गई है, फर्क बस इतना है कि इस मूर्ति में जान है। अब सवाल ये उठता है कि क्या इस याचिका को भी गुजारिश के जादूगर की याचिका की तरह खारिज कर दिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका 2009 में आई थी, कोर्ट ने अब इस मुद्दे पर अटॉर्नी जनरल से राय मांगी है। साथ ही अदालत ने तीन डॉक्टरों की एक टीम भी गठित की है, जो अरुणा की दशा पर रिपोर्ट सौपेंगी। भारत में इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता नहीं है, इस लिहाज से इस बात की संभावना बेहद कम है कि सुप्रीम कोर्ट कोई नजीर पेश करेगा। एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी के तीन दशक बिस्तर पर पड़े-पड़े गुजार दिए हों, उसे जिंदा रखना क्या उसके साथ अन्याय नहीं होगा। जो पहले से ही मर चुका हो, उसे फिर से मौत देना मौत की रस्म अदायगी से यादा और क्या हो सकता है। वैसे ये कोई पहला मामला नहीं है, जिदंगी से मात खाने वाले बहुत से लोग अपनी मर्जी से दुनिया छोड़ने की मांग कर चुके हैं। दो साल पहले उत्तर प्रदेश के एक व्यक्ति ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपने बच्चों के लिए इच्छामृत्यु मांगी थी। 10 से 16 साल की उम्र के यह बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने तक में असमर्थ थे, उनके शरीर के अधिकतर अंगों (खासकर गर्दन के नीचे के) ने काम करना बंद कर दिया था। 2008 में हिमाचल प्रदेश की एक इंजीनियर ने दुनिया छोड़ने की इच्छा जाहिर की थी। सीमा नाम की इस इंजीनियर ने अपनी जिंदगी के 13 अनमोल साल एक कमरे में ही गुजार दिए। उसके शरीर के अधिकतर अंग अर्थराइटिस से ग्रस्त थे, कंधे, कोहनी और कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह निष्क्रीय बन गया था। सीमा ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट से लेकर मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई। ऐसे ही 2004 में एक मां ने अपने 24 साल के बेटे के लिए मौत मांगी थी, ताकि उसके अंगों को दान किया जा सके। शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश की जिंदगी लाइफ सपोर्ट सिस्टम के सहारे चल रही थी, डॉक्टर तक उसके ठीक होने की उम्मीद छोड़ चुके थे। इन सारे मामलों में जिंदगी मौत से भी यादा बदतर है , ये लोग यादा जीए तो ताउम्र सिर्फ जिंदगी को कोसते रहेंगे।
मौत का इंतजार करना दुनिया में शायद सबसे कठिन काम है, और ये लोग इसी इंतजार से गुजर रहे हैं। ऐसे में इन्हें जिंदगी से मुक्ति क्यों नहीं मिलनी चाहिए। निश्चित तौर पर कोर्ट के साथ-साथ ऐसे बहुत से लोग होंगे जो कभी भी यूथनेशिया के लिए तैयार नहीं होंगे। इसके पीछे कई कारण हैं, सबसे पहला तो यही कि अगर इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता मिल गई तो इसके दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहेगी। इसके अलावा हर वो व्यक्ति जो नाकामयाबी और नकरात्मकता के दौर से गुजर रहा है, इच्छामृत्यु उसके लिए छुटकारे का आसान साधन बन जाएगी। दुनिया के कुछ मुल्कों में यूथनेशिया को कानूनी मान्यता प्रदान की गई है, जिनमें नीदरलैंड, नोर्वे, स्वीडन, फिनलैंड, बेल्जियम, लैक्समबर्ग, अल्बानिया, हॉलैंड, स्वीट्जलैंड, थाईलैंड और अमेरिका के उत्तरप्रश्चिम में स्थित ओरेजन शामिल हैं। इनमें हॉलैंड का रिकॉर्ड सबसे यादा खराब है। आंकड़ों पर यदि विश्वास किया जाए तो 1990 में यहां इच्छामृत्यु के नाम पर करीब 1030 मरीजों को बिना उनकी सहमति के मौत की नींद सुला दिया गया। वहीं, तकरीबन 22,500 मरीजों की मौत लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने से हुईं। ये आंकड़े इच्छामृत्यु की वकालत करने वाले कदमों को पीछे खींचने की ताकत रखते हैं, मगर इसके बावजूद यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसके बारे में विचार किए जाने की जरूरत है। सिर्फ इसलिए कि यूथनेशिया को कानूनी जामा पहनाने पर उसके दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाएगी, उन लोगों को जिंदा रखकर तड़पने नहीं दिया जा सकता जिनकी पूरी जिंदगी दूसरों पर बोझ बन जाए। इच्छामृत्यु को लेकर हमारे देश में लंबे समय से बहस चली आ रही है, लेकिन इस बहस का अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है। समय के साथ बदलाव जरूरी हो जाते हैं, इसलिए इस मुद्दे पर बदलाव की दिशा में भी कदम आगे बढ़ाए जाने चाहिए।
इसके साथ-साथ हमारे कानूनी ढंाचे में बहुत कुछ ऐसा है जिसमें बदलाव की जरूरत है, हमारे यहां खुदकुशी की कोशिश करने वाले पर मुकदमा चलाया जाता है। यानी जो बेचारा जिंदगी से आजिज आकर मौत को आलिंगन करने में असफल रहा हो उसे कानून पचड़ों में उलझाकर जीते-जी मारने का पूरा बंदोबस्त किया गया है। क्या वास्तव में इसकी कोई जरूरत है। कानून के जानकर इसके समर्थन में बहुत से कारण गिना सकते हैं, पर मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसा लगता है कि जब हमें जिंदगी की दूसरे फैसले लेने का अधिकार है तो फिर हम कब दुनिया को अलविदा कहेंगें यह भी हमें ही तय करने दिया जाए। वैसे भी खुदकुशी जैसा कदम उठाना या मौत की मांग कोई ऐसा ही व्यक्ति कर सकता है जिसके लिए जिंदगी के कोई मायने नहीं बचे हों, तो फिर उसे जबरदस्ती जिंदा रहने को मजबूर करना कहां तक जायज है। इस बारे में न केवल गौर करने की बल्कि इससे आगे बढ़ने की भी जरूरत है।
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