नीरज नैयर
कुछ दिनों के शोर के बाद भोपाल में खामोशी है। गैस त्रासदी पर अदालत के फैसले से उठा तूफान मुआवजे के मरहम के बाद अब थम गया है। मंत्री समूह (जीओएम) ने पीड़ितों के लिए 1332 करोड़ रुपए राहत की सिफारिश की है। इनमें मृतकों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाकर दस लाख की गई है, इसका भुगतान पूर्व में दिए जा चुके दो लाख साठ हजार रुपए काट कर किया जाएगा। साथ ही स्थाई रूप से विकलांगों के लिए पांच लाख, आंशिक विकलांगों के लिए एक लाख और कैंसर आदि गंभीर बीमारियों से पीड़ितों के लिए दो लाख मुआवजे का प्रस्ताव रखा गया है।
जीओएम द्वारा प्रधानमंत्री को सौंपी गई रिपोर्ट में कुछ और भी सिफारिशें की गई हैं लेकिन हर किसी का ध्यान केवल मुआवजे पर है। इंसाफ की लड़ाई का दंभ करने वाले मुआवजे को ही इंसाफ मानकर चल रहे हैं। स्थानीय अखबारात धन्यवाद संदेश प्रकाशित कर इसे अपनी जीत बताने में लगे हैं। हर कोई खुश है, 25 साल पहले मिले जख्मों की शिकन तक किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं देती। कोई घर खरीदने के सपने बुन रहा है तो कोई चमचमाती गाड़ी का शौक पाले हुए है। महंगाई के इस दौर में मुआवजे की घोषणा उन लोगों के लिए संजीवनी साबित हुई है जिनका नाम हताहतों की सूची में शामिल है। लेकिन जो लोग छूट गए हैं उनके चेहरे पर मायूसी साफ देखी जा सकती है। उन्हें इस बात का मलाल है कि वो गैस पीड़ित क्यों नहीं हैं।
2-3 दिसंबर 1984 की रात जो कुछ भी हुआ उसका हिस्सा कोई नहीं बनना चाहेगा, ये बात बिल्कुल सही है मगर उसके नाम पर जो कुछ लोगों को मिला है वो दूसरों के लिए मलाल की वजह जरूर बन रहा है। पीड़ितों की आड़ में उन लोगों की भी जेबें भरी गईं जिनका गैस त्रासदी से दूर-दूर का नाता नही रहा। क्या नेता, क्या अफसर और क्या आंदोलनकारी हर किसी ने विश्व की इस भीषणम घटना से पैसा बनाया। शहर के लोग भी इस बात को मानते हैं कि राहत की खुराक से उन लोगों तक के पेट भरे गए जो कभी प्रभावित हुए ही नहीं। उस दौर के एक वकील जो अब पेशे से पत्रकार हैं, बताते हैं कि 3-3 हजार में एफीडेविट बनवाकर फर्जी लोगों को पीड़ित बनवाने का गोरखधंधा खूब फला-फूला। वकीलों ने भी दोनों हाथों से बटोरा और नेताओं एवं अफसरों ने भी। वो कहते हैं कि मेरे पास भी कई ऐसे लोग आए जो खुद को पीड़ितों की सूची में शामिल करवाने के ऐवज में मुआवजे की आधी रकम तक देने को तैयार थे। नए भोपाल में नाई का काम करने वाले शकील भी बखूबी बयां करते हैं कि कैसे उनके आस-पड़ोसियों ने खुद को गैस पीड़ित बनाया। ऐसे तमाम मामले होंगे जिनमें शर्तों के आधार पर मुआवजे की बंदरबांट हुई हो। सही मायनों में देखा जाए तो इस पूरे मामले में लड़ाई केवल मुआवजे को लेकर ही चली आ रही है। पीड़ितों के हितैषी मानेजाने वाले संगठन सालों से मुआवजे का रोना रोते रहे हैं।
गैस त्रासदी की बरसी पर हर साल दिल्ली में होने वाले प्रदर्शन सरकार को ये याद दिलाने के लिए किए जाते रहे कि यूनियन कार्बाइड द्वारा तय किए गए मुआवजे की रकम अभी बाकी है। अगर सच में गुनाहगारों को सजा देना यादा अहम होता तो महज मुआवजे की राशि बढ़ाए जाने पर यूं खुशी भरी खामोशी नहीं छाई होती। 25 साल कोई छोटी अवधि नहीं होती, इतने लंबे वक्त में यादे तक धुंधली पड़ जाती हैं लेकिन गैस पीड़ितों के जख्म अब तक नहीं भरे हैं और शायद कभी भरने वाले भी नहीं हैं। इस मुआवजे की रकम के खत्म होते ही इंसाफ की लड़ाई के नारे फिर बुलंद हो जाएंगे। ये लड़ाई कुछ लोगों के लिए कमाई का जरिया बन गई है, इसलिए वो कभी इसे खत्म नहीं होने देंगे। सबको पता है कि न एंडरसन कभी भारत आ पाएगा और न ही दोषियों को सजा सुनाई जा सकेगी।
अगर अदालत भारतीय आरोपियों को 2-2 की जगह 10-10 साल की सजा भी सुनाती तो भी आंदोलन होना तय था। 1996 में ही ये बात साफ हो गई थी कि जिन धाराओं में आरोप तय किए गए हैं उनके मुताबिक मामूली सजा ही होगी। तो फिर इतना हो-हल्ला क्याें मचाया गया। दरअसल इस फैसले ने मुआवजे की चाह रखने वालों के लिए आंदोलन की एक नई जमीन तैयार की, सहानभूति की ऐसी लहर चली कि देशभर में पीड़ितों के हक में आवाजें उठने लगीं। कहीं कैंडल मार्च हुए तो कहीं हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। मीडिया ने भी प्रदर्शनकारियों का पूरा साथ दिया। घंटों-घंटों तक स्पेशल एपीसोड दिखाए गए, पुरानी कतरनों को फिर से प्रकाशित किया गया। और अंत में सबकुछ मुआवजे पर जाकर खत्म हो गया। लेकिन किसी ने भी तस्वीर का दूसरा पहलू प्रस्तुत करने की जहमत नहीं उठाई। अगर भोपालवासियों का दिल ही टटोला जाता तो बंदरबांट के कई किस्से सामने आ गए होते।
ये हकीकत है कि जो वास्तव में गैस का शिकार बने वो सरकारी निकम्मेपन के चलते तिल-तिलकर मरते रहे, न तो उन्हें आर्थिक सहायता मिली और न ही उचित इलाज। जिस भोपाल मैमोरियल अस्पताल को गैस पीड़ितों के लिए खड़ा किया गया वहां उन्हें चूहे-बिल्लियों की तरह इस्तेमाल किया गया। तत्कालीन राय और केंद्र सरकारें अमेरिकी रुतबे के आगे एंडरसन के गुनाह को कम करती रहीं। जिसे जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए थे, उसे इात के साथ सरकारी उड़न खटोले में देश से विदा किया गया। लेकिन इतने सालों के बाद गड़े मुर्दे उखाड़कर इंसाफ-इंसाफ चिल्लाने को क्या सही कहा जा सकता है। जो राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और मीडिया आज पीड़ितों की आवाज बनने का दावा कर रहे हैं वो कल तक चुपचाप सबकुछ क्यों देखते रहे। जायज सी बात उनके लिए स्वयं के हित यादा मायने रखते हैं, कल तक ये मुद्दा निर्जीव था मगर आज सबको इसमें फायदा ही फायदा नजर आ रहा है।
इसलिए हर कोई पीड़ितों को इंसाफ दिलाना चाहता है। मैं निजी तौर पर पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने के विरोध में बिल्कुल नहीं हू, जिन लोगों ने उस भयानक त्रासदी को करीब से देखा है, उसकी भयावहता को महसूस किया है उन्हें सहायता मिलनी ही चाहिए। लेकिन केवल उन्हीं को जो वास्तव में इसके हकदार हैं। ऐसी त्रासदी को कुछ लोगों के लिए धन उगाही का माध्यम बनने देना उस वक्त बरती गईं लापरवाहियों जितना बड़ा ही अपराध है। मौजूदा वक्त में जरूरत है एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की जहां भोपाल गैस कांड की पुनर्रावृत्ति रोकने के तमाम उपाए मौजूद हों, अगर ऐसा हो सका तो शायद फिर किसी को इस बात का मलाल नहीं होगा कि वो पीड़ित क्यों नहीं है। है।
Thursday, June 24, 2010
Monday, June 21, 2010
भोपाल गैस त्रासदी: इंसाफ पर भारी राजनीति
नीरज नैयर
25 बरस के बाद भोपाल गैस त्रासदी फिर सुर्खियों में है। यूं तो हर बर्सी पर न्याय और इंसाफ के नारे सुनने में आ जाया करते थे लेकिन इस बार की गूंज ने पूरे मुल्क को हिलाकर रख दिया है। गुनाहगारों को सजा की रस्म अदायगी के बाद सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या हमारे देश में मानव जिंदगियों का कोई मोल नहीं। 20,000 मौतों और लाखों जिंदगियों में ताउम्र के लिए अंधेरा करने वाले आज भी खुली हवा में सांस लेने के लिए स्वतंत्र हैं। राजनीति पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगाकर महज अपने हितों को साधने में लगी हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर ये पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि असल कातिल वॉरेन एंडरसन के प्रति हमदर्दी दिखाने वाला चेहरा कौन सा था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की संलिप्त्तता को पर्दे की ओढ़ से छिपाने की जद्दोजहद में खुद कांग्रेस वाले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के अक्स को एंडरसन की तस्वीर से मिलाने में लगे हैं। और अर्जुन सिंह महाभारत के अर्जुन के इतर खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं।
उम्र के इस पड़ाव में अपनों की घेरेबंदी की चुभन शायद इससे पहले उन्होंने कभी महसूस नहीं की होगी। राजनीति में हमेशा से मोहरों की अपेक्षा चाल को तवाो दी जाती है, इसलिए कांग्रेस णणभी पीड़ितों के गुस्से के सैलाब में अर्जुन को बहाकर दो दशकों से दहक रहे अंगारों को शांत करना चाहती है। मुख्यमंत्री होने के नाते एंडरसन की रिहाई से लेकर भोपाल से विदाई के लिए के लिए अर्जुन सिंह को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इससे उस वक्त की राजीव गांधी सरकार को नहीं बचाया जा सकता। आखिर यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरेन एंडसरन को बा इात अमेरिका भेजने की व्यवस्था को केंद्रीय स्तर पर की गई थी। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल ये नहीं है कि एंडरसन को किसने भगाया, बल्कि सवाल ये है कि इतने लंबे वक्त तक इस मुद्दे पर खामोशी क्यों छाई रही। जो लोग आज हो-हल्ला मचा रहे हैं क्या उन्हें ये नहीं पता था कि एंडरसन कैसे भागा। क्या वो नहीं जानते थे कि जिन गुनाहगारों पर मुकदमा चल रहा है उन्हें किसी भी सूरत में सड़क हादसे में मिलने वाली सजा से यादा सजा नहीं मिल सकती। इस केस को कमजोर करने की शुरूआत तो त्रासदी के बाद से ही शुरू हो गई थी और इसके लिए केंद्र एवं राय सरकार दोनों सीधे तौर पर दोषी हैं। लेकिन 1996 में जब सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड से जुड़े लोगों पर 304 की जगह 304 ए की धाराई लगाई तभी साफ हो गया था कि यह मामला दम तोड़ चुका है।
304 गैरइदाइतन हत्या और 304ए लापरवाही के लिए लगाई जाती हैं। ये बेहद तााुब की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत को सबसे बड़ी गैस त्रासदी में महज लापरवाही दिखाई दी। जिस वक्त धाराओं का ये खेल हुआ उस वक्त केंद्र में एचडी देवगौड़ा की सरकार थी लेकिन उन्होंने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। और न ही गैर राजनीतिक दलों से लेकर उन नेताओं ने जो आज अदालत के फैसले को न्याय की हत्या करार देने में लगे हैं। इस फैसले के खिलाफ महज दो याचिकाएं दायर हुईं थी, जिन्हें बाद में खारिज कर दिया गया। क्यों भोपाल गैस कांड पर रोटियां संकेने वालों ने इस मुद्दे को उतनी बुलंदी से नहीं उठाया जितनी बुलंदी से वो मुआवजे की मांग करते हैं। ये हकीकत है कि इस गैस कांड ने मुफलिसी में दिन गुजार रहे बहुतों की जिंदगी गुलजार की है। मुआवजे के नाम पर मिलने वाली रकम ने उन्हें वो सबकुछ दिया है जिसके शायद वो हकदार नहीं थे। पीड़ितों की फेहरिस्त में एक-दो नहीं बल्कि हजारों ऐसे नाम होंगे जो सिर्फ आर्थिक फायदे के लिए इस फेहरिस्त में शामिल हुए। इसलिए उनके लिए न्याय-अन्याय जैसे शब्द कोई अहमीयत नहीं रखते। यदि 1996 में मुआवजे से जुड़ा कोई फैसला आया होता तो निश्चित तौर पर पूरा देश सिर पर उठा लिया गया होता।
हजारों-लाखों जिंदगियों को दर्द की आग में झोंकने वाली यह त्रासदी कुछ लोगों के लिए फायदा का सौदा साबित होती रही है। और आज भी इसकी आड़ में फायदे खोजे जा रहे हैं। जो वास्तव में दो-तीन दिसंबर की दरमियान यूनियन कार्बाइड से रिसी विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनट का शिकार बने थे उनके लिए इंसाफ सफेद हाथी जैसा बनकर रह गया है, मगर इंसाफ दिलाने का जिम्मा उठाने वालों के घर की रौनक बढ़ती जा रही है। गैस पीड़ित महिला मोर्चा अब पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएच अहमदी को भोपाल मेमोरियल अस्पताल के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर रहा है, उस दौर में पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी को मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधयक्ष पद से पहले ही हटा चुकी है। अहमदी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अध्यक्ष थे जिसने आरोपियों को सस्ते में छूटने का मौका दिया था। हो सकता है कि पुरी की तरह अहमदी को भी दरकिनार कर दिया जाए। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वास्तव में इस सबसे पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा के सिध्दांत को पूरा किया जा सकता है। स्वराज पुरी पर आरोप है कि उन्होंने तत्कालीन डीएम मोती सिंह के साथ एंडरसन को एयरपोर्ट छोड़ा था। एक पुलिस अधीक्षक के तौर पर पुरी चाहते भी तो एंडरसन को हिरासत में नहीं रख सकते थे, उस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया उसे आदेशों का पालन करना कहा जा सकता है।
राय सरकार ने केंद्र सरकार के आदेशों का पालन किया और स्थानीय प्रशासन ने राय सरकार के। इसलिए किसी एक को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। इतने सालों बाद गुनाहगार की पहचान करने से अच्छा होता अगर उन हालातों को बदलने की कोशिश की जाती जिसमें इस त्रासदी ने जन्म लिया। क्या एंडरसन अमेरिका या दूसरे किसी पश्चिमी मुल्क में हजारों लोगों की मौत की जवाबदेही से महज कुछ हजार डॉलर देकर बच सकते थे। क्या इंसाफ की आस में 25 बरस इंतजार के बाद भी दोषियों को छूटते देखने का दर्द अमेरकिी महसूस कर सकते हैं, निश्चित तौर पर नहीं। दुर्घटनाएं किसी से पूछकर नहीं होती, इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल में कोई दूसरा शहर भोपाल नहीं बनेगा। जो गलतियां 1984 और उसके बाद से होती आ रही हैं उनको सुधारना इस वक्त बलि के बकरा खोजने से यादा जरूरी होना चाहिए। पर अफसोस की किसी को इस बात का ख्याल नहीं।
25 बरस के बाद भोपाल गैस त्रासदी फिर सुर्खियों में है। यूं तो हर बर्सी पर न्याय और इंसाफ के नारे सुनने में आ जाया करते थे लेकिन इस बार की गूंज ने पूरे मुल्क को हिलाकर रख दिया है। गुनाहगारों को सजा की रस्म अदायगी के बाद सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या हमारे देश में मानव जिंदगियों का कोई मोल नहीं। 20,000 मौतों और लाखों जिंदगियों में ताउम्र के लिए अंधेरा करने वाले आज भी खुली हवा में सांस लेने के लिए स्वतंत्र हैं। राजनीति पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगाकर महज अपने हितों को साधने में लगी हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर ये पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि असल कातिल वॉरेन एंडरसन के प्रति हमदर्दी दिखाने वाला चेहरा कौन सा था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की संलिप्त्तता को पर्दे की ओढ़ से छिपाने की जद्दोजहद में खुद कांग्रेस वाले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के अक्स को एंडरसन की तस्वीर से मिलाने में लगे हैं। और अर्जुन सिंह महाभारत के अर्जुन के इतर खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं।
उम्र के इस पड़ाव में अपनों की घेरेबंदी की चुभन शायद इससे पहले उन्होंने कभी महसूस नहीं की होगी। राजनीति में हमेशा से मोहरों की अपेक्षा चाल को तवाो दी जाती है, इसलिए कांग्रेस णणभी पीड़ितों के गुस्से के सैलाब में अर्जुन को बहाकर दो दशकों से दहक रहे अंगारों को शांत करना चाहती है। मुख्यमंत्री होने के नाते एंडरसन की रिहाई से लेकर भोपाल से विदाई के लिए के लिए अर्जुन सिंह को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इससे उस वक्त की राजीव गांधी सरकार को नहीं बचाया जा सकता। आखिर यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरेन एंडसरन को बा इात अमेरिका भेजने की व्यवस्था को केंद्रीय स्तर पर की गई थी। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल ये नहीं है कि एंडरसन को किसने भगाया, बल्कि सवाल ये है कि इतने लंबे वक्त तक इस मुद्दे पर खामोशी क्यों छाई रही। जो लोग आज हो-हल्ला मचा रहे हैं क्या उन्हें ये नहीं पता था कि एंडरसन कैसे भागा। क्या वो नहीं जानते थे कि जिन गुनाहगारों पर मुकदमा चल रहा है उन्हें किसी भी सूरत में सड़क हादसे में मिलने वाली सजा से यादा सजा नहीं मिल सकती। इस केस को कमजोर करने की शुरूआत तो त्रासदी के बाद से ही शुरू हो गई थी और इसके लिए केंद्र एवं राय सरकार दोनों सीधे तौर पर दोषी हैं। लेकिन 1996 में जब सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड से जुड़े लोगों पर 304 की जगह 304 ए की धाराई लगाई तभी साफ हो गया था कि यह मामला दम तोड़ चुका है।
304 गैरइदाइतन हत्या और 304ए लापरवाही के लिए लगाई जाती हैं। ये बेहद तााुब की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत को सबसे बड़ी गैस त्रासदी में महज लापरवाही दिखाई दी। जिस वक्त धाराओं का ये खेल हुआ उस वक्त केंद्र में एचडी देवगौड़ा की सरकार थी लेकिन उन्होंने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। और न ही गैर राजनीतिक दलों से लेकर उन नेताओं ने जो आज अदालत के फैसले को न्याय की हत्या करार देने में लगे हैं। इस फैसले के खिलाफ महज दो याचिकाएं दायर हुईं थी, जिन्हें बाद में खारिज कर दिया गया। क्यों भोपाल गैस कांड पर रोटियां संकेने वालों ने इस मुद्दे को उतनी बुलंदी से नहीं उठाया जितनी बुलंदी से वो मुआवजे की मांग करते हैं। ये हकीकत है कि इस गैस कांड ने मुफलिसी में दिन गुजार रहे बहुतों की जिंदगी गुलजार की है। मुआवजे के नाम पर मिलने वाली रकम ने उन्हें वो सबकुछ दिया है जिसके शायद वो हकदार नहीं थे। पीड़ितों की फेहरिस्त में एक-दो नहीं बल्कि हजारों ऐसे नाम होंगे जो सिर्फ आर्थिक फायदे के लिए इस फेहरिस्त में शामिल हुए। इसलिए उनके लिए न्याय-अन्याय जैसे शब्द कोई अहमीयत नहीं रखते। यदि 1996 में मुआवजे से जुड़ा कोई फैसला आया होता तो निश्चित तौर पर पूरा देश सिर पर उठा लिया गया होता।
हजारों-लाखों जिंदगियों को दर्द की आग में झोंकने वाली यह त्रासदी कुछ लोगों के लिए फायदा का सौदा साबित होती रही है। और आज भी इसकी आड़ में फायदे खोजे जा रहे हैं। जो वास्तव में दो-तीन दिसंबर की दरमियान यूनियन कार्बाइड से रिसी विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनट का शिकार बने थे उनके लिए इंसाफ सफेद हाथी जैसा बनकर रह गया है, मगर इंसाफ दिलाने का जिम्मा उठाने वालों के घर की रौनक बढ़ती जा रही है। गैस पीड़ित महिला मोर्चा अब पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएच अहमदी को भोपाल मेमोरियल अस्पताल के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर रहा है, उस दौर में पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी को मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधयक्ष पद से पहले ही हटा चुकी है। अहमदी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अध्यक्ष थे जिसने आरोपियों को सस्ते में छूटने का मौका दिया था। हो सकता है कि पुरी की तरह अहमदी को भी दरकिनार कर दिया जाए। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वास्तव में इस सबसे पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा के सिध्दांत को पूरा किया जा सकता है। स्वराज पुरी पर आरोप है कि उन्होंने तत्कालीन डीएम मोती सिंह के साथ एंडरसन को एयरपोर्ट छोड़ा था। एक पुलिस अधीक्षक के तौर पर पुरी चाहते भी तो एंडरसन को हिरासत में नहीं रख सकते थे, उस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया उसे आदेशों का पालन करना कहा जा सकता है।
राय सरकार ने केंद्र सरकार के आदेशों का पालन किया और स्थानीय प्रशासन ने राय सरकार के। इसलिए किसी एक को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। इतने सालों बाद गुनाहगार की पहचान करने से अच्छा होता अगर उन हालातों को बदलने की कोशिश की जाती जिसमें इस त्रासदी ने जन्म लिया। क्या एंडरसन अमेरिका या दूसरे किसी पश्चिमी मुल्क में हजारों लोगों की मौत की जवाबदेही से महज कुछ हजार डॉलर देकर बच सकते थे। क्या इंसाफ की आस में 25 बरस इंतजार के बाद भी दोषियों को छूटते देखने का दर्द अमेरकिी महसूस कर सकते हैं, निश्चित तौर पर नहीं। दुर्घटनाएं किसी से पूछकर नहीं होती, इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल में कोई दूसरा शहर भोपाल नहीं बनेगा। जो गलतियां 1984 और उसके बाद से होती आ रही हैं उनको सुधारना इस वक्त बलि के बकरा खोजने से यादा जरूरी होना चाहिए। पर अफसोस की किसी को इस बात का ख्याल नहीं।
Thursday, June 17, 2010
क्यों न निजी कंपनियों को सौंपी जाए जंगल की सुरक्षा
नीरज नैयर
एक लंबी खामोशी के बाद आखिरकार केंद्रीय नेतृत्व को अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बाघो के बारे में सोचने का वक्त मिल ही गया। राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में प्रधानमंत्री ने बाघ बचाओ मुहिम में रायों की कमजोर भागीदारी पर चिंता जाहिर की, उन्होंने इस संबंध में राय सरकारों को पत्र लिखने की भी बात कही। बैठक में अभयारण्योंके आस-पास बसे लोगों के पुर्नवास के लिए अधिक धन उपलब्ध कराने का फैसला लिया गया। पर्यावरण मंत्री की मानें तो पुर्नवास के लिए अगले सात सालों में 77 हजार परिवारों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ की जरूरत पड़ेगी। सोचने वाली बात ये है कि क्या अगले सात सालों तक बाघ बचे रहे पाएंगे। जिस रफ्तार से उनकी संख्या घटती जा रही है, उससे तो इस बात की संभावना कम ही दिखाई देती है।
बैठक में वन्य जीव सरंक्षण के प्रयासों को नए सिरे से संगठित करने के लिए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय में वन और वन्यजीव मामलों के लिए अलग विभाग बनाने पर मुहर लगी। यानी इतने लंबे अंतराल और दर्जनों बाघों की मौत के बाद अब जाकर सरकार को लग रहा है कि मंत्रालय को बांटने से बाघों की मौत पर अंकुश लगाया जा सकता है। यदि बाघों को बचाने का यही एक तरीका है, जैसा की सरकार सोच रही है तो इस पर पहले काम क्यों नहीं किया गया। वर्तमान में देश में बाघों की संख्या 1000-1100 से यादा नहीं होगी, साल की शुरूआत के तीन महीनों में ही करीब 13 बाघ की मौत के मामले सामने आ चुके हैं। वन्यजीवों को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा तो बोर्ड की बैठक के डेढ़ साल बाद होने से लगाया जा सकता है। बाघों की सुरक्षा का मुद्दा, अन्य मामलों की तरह अगर प्राथमिकताओं की सूची में रखा गया होता तो डेढ़ साल में कई बैठकें हो चुकी होती और कई कदम उठाए जा चुके होते। इस राष्ट्रीय प्राणी को बचाने के लिए सरकार महज जब जागो, तब सवेरा वाली कहावत पर अमल करने की कोशिश करती आई है। उसकी इसी कोशिश में बाघों की संख्या आधे से भी कम होकर रह गई है। कुंभकरणी नींद से बीच में उठकर कुछ कदम बढ़ाने और वापस फिर सो जाने से स्थितियां नहीं बदला करतीं, लेकिन सरकार मुंगेरीलाल की तरह सपने पर सपने देखे जा रही है।
बाघों के सरंक्षण को केंद्र और रायों के बीच की फुटबॉल न बनाकर एक ऐसी नीति बनाए जाने की जरूरत है जो सीमाओं के बंधन से अछूती रहे। अब तक होता यही आ रहा है कि केंद्र फंड जारी करता है और राय सरकारें उसका उपयोग। मगर यह उपयोग उन मदो पर नहीं होता जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है। राय सरकारें फंड की चाहत में कागजों पर सबकुछ ठीक बताती रहती हैं, और अंत में सरिस्का और पन्ना जैसे खुलासे स्तब्ध कर देते हैं। पन्ना पूरी तरह बाघ विहीन हो चुका है। मध्यप्रदेश का एक और अभयारण्य पेंच भी पन्ना के पदचिन्हों पर है। पेंच में पिछले छह माह में तकरीबन छह बाघ दम तोड़ चके हैं। राजस्थान के सरिस्का से पूरी तरह बाघों के सफाए की खबर के बाद भी यदि सार्थक परिणामों के लिए काम किया जाता तो बाघों की संख्या में गिरावट का क्रम बरकरार नहीं रहता। सही मायने में देखा जाए तो इस मुद्दे पर अब तक सिर्फ प्रयोग ही किए जा रहे हैं। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय का बंटवारा भी प्रयोग का ही हिस्सा है।
अगर प्रयोग करना ही है तो फिर बड़े स्तर पर क्यों न किए जाएं, उसमें समाधान की संभावना भी कम से कम बड़ी तो रहेगी। पूर्व में लिखे अपने लेखों में मैं जंगलों की हिफाजत को निजी हाथों में सौंपे जाने की वकालत करता रहा हूं। इस संबंध में मुझे ढेरों प्रतिक्रियां भी मिलीं, जिनमें से अधिकतर आलोचना स्वरूप की गईं थी, मगर कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने इसके पीछे के तर्कों को गहराई से समझा। मध्यप्रदेश के एक आईएफएस अधिकारी ने ऐसे ही मेरे लेख पर चर्चा करते हुए बाघ सरंक्षण में प्रदेश के योगदान की बड़ी-बड़ी बातें कहीं, उन्होंने ये समझाने का प्रयास किया कि पूरे मुल्क में मध्यप्रदेश जैसा काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, जिस विभाग से वो जुड़े हैं उसकी बुराई वो नहीं सुन सकते, लेकिन यदि वास्तव में मध्यप्रदेश ने इतना कुछ किया होता तो यहां के अभयारण्य बाघ वहीन नहीं हो रहे होते।
बाघों को बचाने के मुद्दे पर हम पूरी तरह से बैकफुट पर हैं। या कह सकते हैं कि हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं। जितनी तेजी से बाघों का सफाया हो रहा है, उससे यह तय है कि जल्द ही बाघ किस्से-कहानियों की बात बनकर रह जाएंगे। यानी जो करना है, अभी करना है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर सरकारी अमला स्थिति को नियंत्रित करने में सफल होता तो करोड़ों-अरबों बहाए जाने के बाद बाघ यूं एक-एक करके दम नहीं तोड़ रहे होते। कोई स्वीकार करे या न करे, मगर हकीकत यही है कि बाघ सरंक्षण में लगे 90 प्रतिशत सरकारी मुलाजिम सिर्फ और सिर्फ नौकरी बचाने के लिए काम करते हैं। उच्च पदों पर बैठे अफसर सच पर पर्दा डालने और शेखी बखारने में व्यस्त रहते हैं और निचले तबके के कर्मचारी आराम तलबी में। ये सही है कि बाघों की सुरक्षा में लगे अफसर-कर्मचारी अत्याधुनिक सुविधाओं से वंचित हैं मगर ये भी सही है कि जिन अफसरों और कर्मचारियों पर वन्यप्राणियाें के सरंक्षण का जिम्मा है वो ही उनके संहार की वजह बन रहे हैं। सरिस्का कांड की जांच में यह बात सामने आई थी कि वन विभाग के मुलाजिम भी बाघों की हत्या में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी निभा रहे थे। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मंत्रालय का विभाजन करने, कमेटियां गठित करने और दर्जनों बैठकें आयोजित करने के बाद बाघों का कत्ल नहीं होगा। बाघों का कत्ल जरूर होगा क्योंकि सुधार की जरूरत नीचे से लेकर ऊपर तक है और इतने शॉर्ट नोटिस पर इसे सुधार पाना लगभग नामुमकिन है।
इसलिए किसी ऐसे विकल्प पर गौर किया जाना चाहिए जिससे वक्त और पैसे दोनों का सदुपयोग किया जा सके। मेरी समझ से जंगलों की हिफाजत का जिम्मा निजी हाथों में सौंपना बेहतर विकल्प हो सकता है। निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र की अपेक्षा यादा रिजल्ट ओरियंटिड है, इस बात पर शायद ही किसी को शक-शुबहा हो। हम निजी बैंकों का उदाहरण ले सकते हैं, काम जल्दी होने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों में बात करने का जो सलीखा है वो सरकारी बैंकों के मुलाजिमों में नहीं। है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि जंगलों की हिफाजत का जो काम वन विभाग नहीं कर पा रहा है उसे निजी सुरक्षा कंपनियां यादा कारगर तरीके से अंजाम दे पाएंगी। सरकार को इसके लिए निविदाओं के माध्यम से संगठन का चुनाव करना चाहिए। विदेशियों के लिए भी इस प्रक्रिया में शामिल होने के रास्ते खुले रखे जाएं तो बेहतर होगा। विदेशों में ऐसे बहुत से संगठन हैं जो इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं।
इस मामले को केंद्र और राय सरकारों की दखलंदाजी से पूर्णता मुक्त रखा जाए, जिस कपंनी को ठेका दिया जाए उसे अपने तरीके से काम करने की आजादी भी मिले। सरकार यदि चाहे तो इसे शुरूआत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर किसी एक टाइगर रिजर्व में शुरू किया जा सकता है। कांट्रेक्ट में कुछ सख्त शर्ते जोड़ी जानी चाहिए जिसके पूरा न होने की दशा में सुरक्षा एजेंसी को आर्थिक नुकसान का सामना तो करना ही पड़े, उसपर काम से बेदखल होने का खतरा भी मंडराता रहे। बेशक इस तरह के प्रस्ताव और उसपर अमल का रास्ता भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए देश के लिए शर्मिंदगी करार देगा और अन्य विरोधी पार्टियां हर गली-चौराहे पर सियापा करती नजर आएंगी। लेकिन जब सरकार परमाणु करार, महिला आरक्षण जैसे मुद्दे पर किसी की परवाह किए बगैर आगे बढ़ सकती है तो फिर बाघ सरंक्षण के लिए भी कड़ा फैसला लिया जा सकता है। जरूरत है तो बस सही समझ और दृढ संकल्प की। उन सभी पाठकों से जो मेरे इस विचार पर सहमति जताते हैं, विनम्र निवेदन है कि इस आश्य का एक पोस्टकार्ड प्रधानमंत्री को जरूर लिखें। आप जरूर सोचेंगे कि उससे कुछ नहीं होना, मैं भी ये अच्छी तरह जानता हूं मगर फिर भी पहल तो हम में से किसी एक को करनी ही पड़ेगी अगर हम अपनी आने वाली पीढियों को बाघ तस्वीरों के बजाए हकीकत में दिखाना चाहते हैं तो।
एक लंबी खामोशी के बाद आखिरकार केंद्रीय नेतृत्व को अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बाघो के बारे में सोचने का वक्त मिल ही गया। राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में प्रधानमंत्री ने बाघ बचाओ मुहिम में रायों की कमजोर भागीदारी पर चिंता जाहिर की, उन्होंने इस संबंध में राय सरकारों को पत्र लिखने की भी बात कही। बैठक में अभयारण्योंके आस-पास बसे लोगों के पुर्नवास के लिए अधिक धन उपलब्ध कराने का फैसला लिया गया। पर्यावरण मंत्री की मानें तो पुर्नवास के लिए अगले सात सालों में 77 हजार परिवारों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ की जरूरत पड़ेगी। सोचने वाली बात ये है कि क्या अगले सात सालों तक बाघ बचे रहे पाएंगे। जिस रफ्तार से उनकी संख्या घटती जा रही है, उससे तो इस बात की संभावना कम ही दिखाई देती है।
बैठक में वन्य जीव सरंक्षण के प्रयासों को नए सिरे से संगठित करने के लिए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय में वन और वन्यजीव मामलों के लिए अलग विभाग बनाने पर मुहर लगी। यानी इतने लंबे अंतराल और दर्जनों बाघों की मौत के बाद अब जाकर सरकार को लग रहा है कि मंत्रालय को बांटने से बाघों की मौत पर अंकुश लगाया जा सकता है। यदि बाघों को बचाने का यही एक तरीका है, जैसा की सरकार सोच रही है तो इस पर पहले काम क्यों नहीं किया गया। वर्तमान में देश में बाघों की संख्या 1000-1100 से यादा नहीं होगी, साल की शुरूआत के तीन महीनों में ही करीब 13 बाघ की मौत के मामले सामने आ चुके हैं। वन्यजीवों को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा तो बोर्ड की बैठक के डेढ़ साल बाद होने से लगाया जा सकता है। बाघों की सुरक्षा का मुद्दा, अन्य मामलों की तरह अगर प्राथमिकताओं की सूची में रखा गया होता तो डेढ़ साल में कई बैठकें हो चुकी होती और कई कदम उठाए जा चुके होते। इस राष्ट्रीय प्राणी को बचाने के लिए सरकार महज जब जागो, तब सवेरा वाली कहावत पर अमल करने की कोशिश करती आई है। उसकी इसी कोशिश में बाघों की संख्या आधे से भी कम होकर रह गई है। कुंभकरणी नींद से बीच में उठकर कुछ कदम बढ़ाने और वापस फिर सो जाने से स्थितियां नहीं बदला करतीं, लेकिन सरकार मुंगेरीलाल की तरह सपने पर सपने देखे जा रही है।
बाघों के सरंक्षण को केंद्र और रायों के बीच की फुटबॉल न बनाकर एक ऐसी नीति बनाए जाने की जरूरत है जो सीमाओं के बंधन से अछूती रहे। अब तक होता यही आ रहा है कि केंद्र फंड जारी करता है और राय सरकारें उसका उपयोग। मगर यह उपयोग उन मदो पर नहीं होता जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है। राय सरकारें फंड की चाहत में कागजों पर सबकुछ ठीक बताती रहती हैं, और अंत में सरिस्का और पन्ना जैसे खुलासे स्तब्ध कर देते हैं। पन्ना पूरी तरह बाघ विहीन हो चुका है। मध्यप्रदेश का एक और अभयारण्य पेंच भी पन्ना के पदचिन्हों पर है। पेंच में पिछले छह माह में तकरीबन छह बाघ दम तोड़ चके हैं। राजस्थान के सरिस्का से पूरी तरह बाघों के सफाए की खबर के बाद भी यदि सार्थक परिणामों के लिए काम किया जाता तो बाघों की संख्या में गिरावट का क्रम बरकरार नहीं रहता। सही मायने में देखा जाए तो इस मुद्दे पर अब तक सिर्फ प्रयोग ही किए जा रहे हैं। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय का बंटवारा भी प्रयोग का ही हिस्सा है।
अगर प्रयोग करना ही है तो फिर बड़े स्तर पर क्यों न किए जाएं, उसमें समाधान की संभावना भी कम से कम बड़ी तो रहेगी। पूर्व में लिखे अपने लेखों में मैं जंगलों की हिफाजत को निजी हाथों में सौंपे जाने की वकालत करता रहा हूं। इस संबंध में मुझे ढेरों प्रतिक्रियां भी मिलीं, जिनमें से अधिकतर आलोचना स्वरूप की गईं थी, मगर कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने इसके पीछे के तर्कों को गहराई से समझा। मध्यप्रदेश के एक आईएफएस अधिकारी ने ऐसे ही मेरे लेख पर चर्चा करते हुए बाघ सरंक्षण में प्रदेश के योगदान की बड़ी-बड़ी बातें कहीं, उन्होंने ये समझाने का प्रयास किया कि पूरे मुल्क में मध्यप्रदेश जैसा काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, जिस विभाग से वो जुड़े हैं उसकी बुराई वो नहीं सुन सकते, लेकिन यदि वास्तव में मध्यप्रदेश ने इतना कुछ किया होता तो यहां के अभयारण्य बाघ वहीन नहीं हो रहे होते।
बाघों को बचाने के मुद्दे पर हम पूरी तरह से बैकफुट पर हैं। या कह सकते हैं कि हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं। जितनी तेजी से बाघों का सफाया हो रहा है, उससे यह तय है कि जल्द ही बाघ किस्से-कहानियों की बात बनकर रह जाएंगे। यानी जो करना है, अभी करना है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर सरकारी अमला स्थिति को नियंत्रित करने में सफल होता तो करोड़ों-अरबों बहाए जाने के बाद बाघ यूं एक-एक करके दम नहीं तोड़ रहे होते। कोई स्वीकार करे या न करे, मगर हकीकत यही है कि बाघ सरंक्षण में लगे 90 प्रतिशत सरकारी मुलाजिम सिर्फ और सिर्फ नौकरी बचाने के लिए काम करते हैं। उच्च पदों पर बैठे अफसर सच पर पर्दा डालने और शेखी बखारने में व्यस्त रहते हैं और निचले तबके के कर्मचारी आराम तलबी में। ये सही है कि बाघों की सुरक्षा में लगे अफसर-कर्मचारी अत्याधुनिक सुविधाओं से वंचित हैं मगर ये भी सही है कि जिन अफसरों और कर्मचारियों पर वन्यप्राणियाें के सरंक्षण का जिम्मा है वो ही उनके संहार की वजह बन रहे हैं। सरिस्का कांड की जांच में यह बात सामने आई थी कि वन विभाग के मुलाजिम भी बाघों की हत्या में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी निभा रहे थे। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मंत्रालय का विभाजन करने, कमेटियां गठित करने और दर्जनों बैठकें आयोजित करने के बाद बाघों का कत्ल नहीं होगा। बाघों का कत्ल जरूर होगा क्योंकि सुधार की जरूरत नीचे से लेकर ऊपर तक है और इतने शॉर्ट नोटिस पर इसे सुधार पाना लगभग नामुमकिन है।
इसलिए किसी ऐसे विकल्प पर गौर किया जाना चाहिए जिससे वक्त और पैसे दोनों का सदुपयोग किया जा सके। मेरी समझ से जंगलों की हिफाजत का जिम्मा निजी हाथों में सौंपना बेहतर विकल्प हो सकता है। निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र की अपेक्षा यादा रिजल्ट ओरियंटिड है, इस बात पर शायद ही किसी को शक-शुबहा हो। हम निजी बैंकों का उदाहरण ले सकते हैं, काम जल्दी होने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों में बात करने का जो सलीखा है वो सरकारी बैंकों के मुलाजिमों में नहीं। है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि जंगलों की हिफाजत का जो काम वन विभाग नहीं कर पा रहा है उसे निजी सुरक्षा कंपनियां यादा कारगर तरीके से अंजाम दे पाएंगी। सरकार को इसके लिए निविदाओं के माध्यम से संगठन का चुनाव करना चाहिए। विदेशियों के लिए भी इस प्रक्रिया में शामिल होने के रास्ते खुले रखे जाएं तो बेहतर होगा। विदेशों में ऐसे बहुत से संगठन हैं जो इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं।
इस मामले को केंद्र और राय सरकारों की दखलंदाजी से पूर्णता मुक्त रखा जाए, जिस कपंनी को ठेका दिया जाए उसे अपने तरीके से काम करने की आजादी भी मिले। सरकार यदि चाहे तो इसे शुरूआत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर किसी एक टाइगर रिजर्व में शुरू किया जा सकता है। कांट्रेक्ट में कुछ सख्त शर्ते जोड़ी जानी चाहिए जिसके पूरा न होने की दशा में सुरक्षा एजेंसी को आर्थिक नुकसान का सामना तो करना ही पड़े, उसपर काम से बेदखल होने का खतरा भी मंडराता रहे। बेशक इस तरह के प्रस्ताव और उसपर अमल का रास्ता भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए देश के लिए शर्मिंदगी करार देगा और अन्य विरोधी पार्टियां हर गली-चौराहे पर सियापा करती नजर आएंगी। लेकिन जब सरकार परमाणु करार, महिला आरक्षण जैसे मुद्दे पर किसी की परवाह किए बगैर आगे बढ़ सकती है तो फिर बाघ सरंक्षण के लिए भी कड़ा फैसला लिया जा सकता है। जरूरत है तो बस सही समझ और दृढ संकल्प की। उन सभी पाठकों से जो मेरे इस विचार पर सहमति जताते हैं, विनम्र निवेदन है कि इस आश्य का एक पोस्टकार्ड प्रधानमंत्री को जरूर लिखें। आप जरूर सोचेंगे कि उससे कुछ नहीं होना, मैं भी ये अच्छी तरह जानता हूं मगर फिर भी पहल तो हम में से किसी एक को करनी ही पड़ेगी अगर हम अपनी आने वाली पीढियों को बाघ तस्वीरों के बजाए हकीकत में दिखाना चाहते हैं तो।
Saturday, June 12, 2010
बीसीसीआई के लिए देश से बड़ा पैसा
नीरज नैयर
ओलंपिक खेलों में भारत का लचर प्रदर्शन और पदक तालिका में सबसे नीचे रहने का दुख हर भारतवासी को होगा। अभिनव बिंद्रा, विजेंद्र और सुशील कुमार ने जो पदक जीते हैं वो सालों से सूखी जमीन पर पानी की चंद बूंदों की माफिक हैं। जो जमीन को कुछ देर के लिए गीला तो कर सकती हैं मगर उसकी प्यास नहीं बुझा सकतीं। ओलंपिक में भारत आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से अपने से कई गुना छोटे देशों से भी बहुत पीछे है। घरेलू मैदान पर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले हमारे खिलाड़ी विदेशजमीं पर क्यों सहम जाते हैं, इसका जवाब हमें आजतक नहीं मिल सका है। जिन खिलाड़ियों से सबसे यादा उम्मीदें होती हैं, वही कुछ दूर चलने के बाद हाफंते नजर आते हैं। शायद यही वजह है कि इस तरह के खेलों को न तो मीडिया खास तवाो देता है और न ही लोग उनके परिणाम जानने के लिए उत्साहित दिखाई देते हैं। चंद रोज पहले अजलान शाह कप की संयुक्त विजेता बनकर लौटी भारतीय हॉकी टीम के स्वागत के लिए खुद हॉकी से जुड़े अधिकारियों का न पहुंचना इस बात का सुबूत है कि भारत में ऐसे खेल प्राथमिकता सूची में किस पायदान पर आते हैं।
णहॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, बावजूद इसके वो बदहाली के दौर से गुजर रहा है तो इसका एक बड़ा कारण खिलाड़ियों का अच्छा परफार्म न कर पाना भी है। हॉकी का विश्व कप इस बार भारत में हुआ, स्टेडियम में भीड़ जुटाने के तमाम प्रयास किए गए जो काफी हद तक कारगर भी हुए लेकिन उसका नतीजा क्या निकला। भारतीय टीम सेमी फाइनल तक में नहीं पहुंच पाई। हॉकी को फिर दिल देने के लिए हॉकी के स्तर में सुधार की जरूरत है। और जब तक ये नहीं होता, हालात बदलने वाले नहीं हैं। हॉकी के अलावा दूसरे खेलों में बेडमिंटन और टेनिस में भारत की स्थिति थोड़ी बहुत ठीक है, लेकिन इतनी भी नहीं कि ओलंपिक में मैडल दिलवा सके। इसलिए लंबे समय से ओलंपिक जैसे आयोजनों में क्रिकेट की कमी खलती आई है। लोग मानते हैं कि बुरे दौर में भी टीम इंडिया गोल्ड मैडल जीतने का माद्दा रखती है। 2020 में होने वाले ओलंपिक खेलों में यदि क्रिकेट खेला गया तो सबसे यादा भारतीय अन्य खेलों की अपेक्षा क्रिकेट पर दांव लगाना पसंद करेंगे। वैसे अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक सीमति (आईओसी) ने आईसीसी को मान्यता देकर ओलंपिक में क्रिकेट का रास्ता साफ कर दिया है। लेकिन आईसीसी के अलावा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का भी ओलंपिक में टीम भेजने के लिए राजी होना जरूरी है। जिस तरह का अड़ियल रुख बोर्ड ने एशियन गेम्स को लेकर अपना रखा है अगर वैसा ही उसने ओलंपिक के वक्त अपनाया तो क्रिकेटरों को ओलंपिक में खेलते देखने का सपना सपना बनकर ही रह जाएगा। 12 से 27 नवंबर तक चीन में होने वाले एशियाई खेलों के लिए टीम भेजने से बीसीसीआई ने दो टूक इंकार कर दिया है। इसके पीछे उसने इंटरनेशनल कमिटमेंट का हवाला दिया है। उसका तर्क है कि जिस वक्त में एशियन गेम्स होने हैं, उसी वक्त न्यूजीलैंड को भारत आना है। बोर्ड ने महिला टीम को भी नहीं भेजने का फैसला लिया है।
वैसे ये कोई पहला मौका नहीं है जब बीसीसीआई ने देश से यादा अपने व्यक्तिगत हितों को महत्व दिया हो, इससे पहले 1998 क्वालालंपुर गेम्स में भी बोर्ड ने दूसरे दर्ज की टीम भेजी थी जबकि मुख्य टीम को टोरंटों में सीरीज खेलने भेज दिया था। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजक भी ट्वेंटी-20 क्रिकेट को शामिल करना चाहते थे लेकिन बीसीसीआई ने ऐसा होने नहीं दिया। यह बेहद दुरर््भाग्यपूण हैं कि बोर्ड के लिए देश के मान-सम्मान से यादा आर्थिक सरोकार मायने रखते हैं। न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलने से यादा जरूरी था कि क्रिकेटर एशियाई खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करते। जो बीसीसीआई अति व्यस्त कार्यक्रम के बीच में भी आईपीएल का आयोजन कर सकता है, उसके लिए एशियन गेम्स के लिए महज 15 दिन जुटाना कोई बड़ी बात नहीं थी। पिछली दो बार से आईपीएल ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप से ठीक पहले हो रहा है, और इसबीच टीम इंडिया कई अन्य टूर्नामेंट भी खेल लेती है। लेकिन बोर्ड को इसमें कभी कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन टूर्नामेंटों से उसकी आर्थिक सेहत अच्छी होती है। आईपीएल से उसे करोड़ों-अरबों का मुनाफा होता है, जबकि एशियन गेम्स जैसे आयोजनों में टीम भेजकर उसे सम्मान के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। बोर्ड भले ही इंटरनेशल कमिटमेंट का बहाना बनाए मगर सच सही है कि उसे न्यूजीलैंड सीरिज से होने वाली आय नजर आ रही है। उसे पता है कि टेलीकास्ट राइट्स और प्रायोजकों के जरिए जितनी कमाई उसे न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलकर हो सकती है, उतनी एशियाई खेलों में टीम भेजकर नहीं।
णये बात सही है कि आर्थिक हितों का ध्यान हर कोई रखता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन जब बात देश की हो तो मुनाफा मायने नहीं रखना चाहिए। वैसे भी बोर्ड आजतक चैरिटेबल संस्था की आड़ में अरबों का मुनाफा कमाता आया है। दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का सामाजिक दायित्व से भी दूर-दूर का नाता नहीं है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, महज टीवी करार से ही उसने करोड़ों-अरबों की कमाई कर लेता है। अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा। मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो। सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के। अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां कुछ वक्त पहले आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया। क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं। बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे। देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी बोर्ड कुछ करने को तैयार दिखाई नहीं देता। इतना बड़ा कारोबार और चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है।
आईपीएल के अलावा बोर्ड पिछले दिनों इंरट कॉर्पोरेट टूर्नामेंट भी शुरू करने का फैसला कर चुका है, भारी इनामी राशि वाला यह टूर्नामेंट 50-50 और 20-20 दोनों फॉर्मेट में खेला जाएगा। विजेता टीम को एक करोड़, उपविजेता को 50 लाख और सेमीफाइनल में हारने वाली टीमों को 25-25 लाख रुपए इनाम स्वरूप दिए जाएंगे। इन सबके लिए बोर्ड के पास भरपूर वक्त है, लेकिन एशियन गेम्स में टीम भेजने के लिए नहीं। आईओए के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी अगर बीसीसीआई को पैसे के पीछे भागने वाला कह रहे हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं। बीसीसीआई आज पूरी तरह से कॉमर्शियल हो चुका है, और उसे जहां मुनाफा नजर आएगा वो वहीं टीम भेजेगा। यदि एशियाई खेलों से उसे मोटी कमाई हो रही होती तो इंटरनेशल कमिटमेंट के बहाने बनते ही नहीं। बोर्ड की इस बहानेबाजी से ओलंपिक में टीम इंडिया के खेलने के सपनों पर बादल मंडराने लगे हैं और उनके छटने की संभावना बहुत क्षीण नजर आ रही है।
ओलंपिक खेलों में भारत का लचर प्रदर्शन और पदक तालिका में सबसे नीचे रहने का दुख हर भारतवासी को होगा। अभिनव बिंद्रा, विजेंद्र और सुशील कुमार ने जो पदक जीते हैं वो सालों से सूखी जमीन पर पानी की चंद बूंदों की माफिक हैं। जो जमीन को कुछ देर के लिए गीला तो कर सकती हैं मगर उसकी प्यास नहीं बुझा सकतीं। ओलंपिक में भारत आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से अपने से कई गुना छोटे देशों से भी बहुत पीछे है। घरेलू मैदान पर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले हमारे खिलाड़ी विदेशजमीं पर क्यों सहम जाते हैं, इसका जवाब हमें आजतक नहीं मिल सका है। जिन खिलाड़ियों से सबसे यादा उम्मीदें होती हैं, वही कुछ दूर चलने के बाद हाफंते नजर आते हैं। शायद यही वजह है कि इस तरह के खेलों को न तो मीडिया खास तवाो देता है और न ही लोग उनके परिणाम जानने के लिए उत्साहित दिखाई देते हैं। चंद रोज पहले अजलान शाह कप की संयुक्त विजेता बनकर लौटी भारतीय हॉकी टीम के स्वागत के लिए खुद हॉकी से जुड़े अधिकारियों का न पहुंचना इस बात का सुबूत है कि भारत में ऐसे खेल प्राथमिकता सूची में किस पायदान पर आते हैं।
णहॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, बावजूद इसके वो बदहाली के दौर से गुजर रहा है तो इसका एक बड़ा कारण खिलाड़ियों का अच्छा परफार्म न कर पाना भी है। हॉकी का विश्व कप इस बार भारत में हुआ, स्टेडियम में भीड़ जुटाने के तमाम प्रयास किए गए जो काफी हद तक कारगर भी हुए लेकिन उसका नतीजा क्या निकला। भारतीय टीम सेमी फाइनल तक में नहीं पहुंच पाई। हॉकी को फिर दिल देने के लिए हॉकी के स्तर में सुधार की जरूरत है। और जब तक ये नहीं होता, हालात बदलने वाले नहीं हैं। हॉकी के अलावा दूसरे खेलों में बेडमिंटन और टेनिस में भारत की स्थिति थोड़ी बहुत ठीक है, लेकिन इतनी भी नहीं कि ओलंपिक में मैडल दिलवा सके। इसलिए लंबे समय से ओलंपिक जैसे आयोजनों में क्रिकेट की कमी खलती आई है। लोग मानते हैं कि बुरे दौर में भी टीम इंडिया गोल्ड मैडल जीतने का माद्दा रखती है। 2020 में होने वाले ओलंपिक खेलों में यदि क्रिकेट खेला गया तो सबसे यादा भारतीय अन्य खेलों की अपेक्षा क्रिकेट पर दांव लगाना पसंद करेंगे। वैसे अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक सीमति (आईओसी) ने आईसीसी को मान्यता देकर ओलंपिक में क्रिकेट का रास्ता साफ कर दिया है। लेकिन आईसीसी के अलावा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का भी ओलंपिक में टीम भेजने के लिए राजी होना जरूरी है। जिस तरह का अड़ियल रुख बोर्ड ने एशियन गेम्स को लेकर अपना रखा है अगर वैसा ही उसने ओलंपिक के वक्त अपनाया तो क्रिकेटरों को ओलंपिक में खेलते देखने का सपना सपना बनकर ही रह जाएगा। 12 से 27 नवंबर तक चीन में होने वाले एशियाई खेलों के लिए टीम भेजने से बीसीसीआई ने दो टूक इंकार कर दिया है। इसके पीछे उसने इंटरनेशनल कमिटमेंट का हवाला दिया है। उसका तर्क है कि जिस वक्त में एशियन गेम्स होने हैं, उसी वक्त न्यूजीलैंड को भारत आना है। बोर्ड ने महिला टीम को भी नहीं भेजने का फैसला लिया है।
वैसे ये कोई पहला मौका नहीं है जब बीसीसीआई ने देश से यादा अपने व्यक्तिगत हितों को महत्व दिया हो, इससे पहले 1998 क्वालालंपुर गेम्स में भी बोर्ड ने दूसरे दर्ज की टीम भेजी थी जबकि मुख्य टीम को टोरंटों में सीरीज खेलने भेज दिया था। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजक भी ट्वेंटी-20 क्रिकेट को शामिल करना चाहते थे लेकिन बीसीसीआई ने ऐसा होने नहीं दिया। यह बेहद दुरर््भाग्यपूण हैं कि बोर्ड के लिए देश के मान-सम्मान से यादा आर्थिक सरोकार मायने रखते हैं। न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलने से यादा जरूरी था कि क्रिकेटर एशियाई खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करते। जो बीसीसीआई अति व्यस्त कार्यक्रम के बीच में भी आईपीएल का आयोजन कर सकता है, उसके लिए एशियन गेम्स के लिए महज 15 दिन जुटाना कोई बड़ी बात नहीं थी। पिछली दो बार से आईपीएल ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप से ठीक पहले हो रहा है, और इसबीच टीम इंडिया कई अन्य टूर्नामेंट भी खेल लेती है। लेकिन बोर्ड को इसमें कभी कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन टूर्नामेंटों से उसकी आर्थिक सेहत अच्छी होती है। आईपीएल से उसे करोड़ों-अरबों का मुनाफा होता है, जबकि एशियन गेम्स जैसे आयोजनों में टीम भेजकर उसे सम्मान के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। बोर्ड भले ही इंटरनेशल कमिटमेंट का बहाना बनाए मगर सच सही है कि उसे न्यूजीलैंड सीरिज से होने वाली आय नजर आ रही है। उसे पता है कि टेलीकास्ट राइट्स और प्रायोजकों के जरिए जितनी कमाई उसे न्यूजीलैंड के साथ मैच खेलकर हो सकती है, उतनी एशियाई खेलों में टीम भेजकर नहीं।
णये बात सही है कि आर्थिक हितों का ध्यान हर कोई रखता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन जब बात देश की हो तो मुनाफा मायने नहीं रखना चाहिए। वैसे भी बोर्ड आजतक चैरिटेबल संस्था की आड़ में अरबों का मुनाफा कमाता आया है। दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का सामाजिक दायित्व से भी दूर-दूर का नाता नहीं है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, महज टीवी करार से ही उसने करोड़ों-अरबों की कमाई कर लेता है। अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा। मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो। सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के। अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां कुछ वक्त पहले आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया। क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं। बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे। देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी बोर्ड कुछ करने को तैयार दिखाई नहीं देता। इतना बड़ा कारोबार और चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है।
आईपीएल के अलावा बोर्ड पिछले दिनों इंरट कॉर्पोरेट टूर्नामेंट भी शुरू करने का फैसला कर चुका है, भारी इनामी राशि वाला यह टूर्नामेंट 50-50 और 20-20 दोनों फॉर्मेट में खेला जाएगा। विजेता टीम को एक करोड़, उपविजेता को 50 लाख और सेमीफाइनल में हारने वाली टीमों को 25-25 लाख रुपए इनाम स्वरूप दिए जाएंगे। इन सबके लिए बोर्ड के पास भरपूर वक्त है, लेकिन एशियन गेम्स में टीम भेजने के लिए नहीं। आईओए के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी अगर बीसीसीआई को पैसे के पीछे भागने वाला कह रहे हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं। बीसीसीआई आज पूरी तरह से कॉमर्शियल हो चुका है, और उसे जहां मुनाफा नजर आएगा वो वहीं टीम भेजेगा। यदि एशियाई खेलों से उसे मोटी कमाई हो रही होती तो इंटरनेशल कमिटमेंट के बहाने बनते ही नहीं। बोर्ड की इस बहानेबाजी से ओलंपिक में टीम इंडिया के खेलने के सपनों पर बादल मंडराने लगे हैं और उनके छटने की संभावना बहुत क्षीण नजर आ रही है।
Subscribe to:
Posts (Atom)