नीरज नैयर
नितिन गडकरी के आने के बाद भाजपा में कुछ बदलाव महसूस किए जा रहे हैं, मसलन पार्टी अब संघवादी विचारधारा की तरफ पूरी तरह लौटने पर विचार कर रही है। उसे पर्यावरण की चिंता भी सताने लगी है, इंदौर में पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में यह चिंता साफ तौर पर देखी जा सकती है। अधिवेशन के दौरान 90 एकड़ में निर्मित कुशाभाऊ ठाकरे ग्राम में पेट्रोल-डीजल के वाहनों के इस्तेमाल पर रोक लगाई गई है। कुल मिलाकर इस अधिवेशन को इको फ्रेंडली अधिवेशन कहा जा सकता है, पार्टिजन के रुकने की व्यवस्था टेटों में की गई है,
हालांकि आम टेट से ये काफी अलग होंगे। इनमें अत्याधुनिक सुविधाओं की कोई कमी नहीं होगी। इस तरह के बदलाव से पार्टी अपनी बदलती छवि का संदेश जन-जन तक पहुंचाना चाहती है। देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी अगर पर्यावरण को लेकर जागरुकता का परिचय दे रही है तो ये बहुत ही अच्छी बात है। अब तक इस मुद्दे पर सिर्फ बातें ही होती रही हैं। मंत्रालयों में बैठकर बड़े-बड़े संदेश देने वाले नेताओं ने कभी इस दिशा में खुद को एक उदाहरण के तौर पर पेश करने की कोशिश नहीं की। उन्हें बस आम आदमी से सुख-सुविधाओं में कटौती का वचन चाहिए। अगर वो खुद आगे आकर अपनी सुविधाओं में कटौती का फैसला करते तो जनता का एक हिस्सा उनका अनुसरण करने पर विचार जरूर करता। भाजपा अध्यक्ष ने इस तरह की जो पहल की हो, उसे वो आगे भी बनाए रखें तो पार्टी कुछ न कुछ अटेंशन तो जरूर हासिल करेगी। मौजूदा वक्त में भाजपा की हालत समाजवादी पार्टी जैसी हो गई है, जिसे हर मोर्चे पर विफलता का सामना करना पड़ रहा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास जीतने के तमाम कारण थे, लेकिन फिर भी उसे शिकस्त का सामना करना पड़। मुंबई हमले के बाद आवाम में जो गुस्सा था उसे भाजपा कैश नहीं करवा सकी,
इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि एक पार्टी के तौर पर उसकी खंडित छवि थी। एकजुटता पार्टी से एक-एक करके टूट चुकी है, हर कोई अपने ही हिसाब से चला जा रहा है। उमा भारती को अनुशासनहीनता के चलते पार्टी से बाहर किया गया था, अगर वैसी ही कार्रवाई दूसरों के खिलाफ की जाती तो अब तक पार्टी खाली हो गई होती। बड़े कद के नेता दो खेमों में विभाजित हैं, वो एक दूसरे को समझने और पार्टी हित के बारे में सोचने की शक्ति लगभग खो चुके हैं। राजनाथ सिहं जैसा मजबूत छवि वाला नेता भी विभाजन की दीवार को नहीं पाट पाया। अब ये दारोमदार सौम्य छवि वाले नितिन गडकरी पर है, गडकरी के लिए सबको पार्टी की छतरी के नीचे लेकर आना बहुत ही मुश्किल काम होगा। पर यदि वो ऐसा करने में कामयाब रहे तो भाजपा के दिन बहुरने में देर नहीं लगेगी। कांग्रेस चाहे लाख दावे करे मगर सच यही है कि जनता उसके शासनकाल में खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। खासकर आम आदमी तो पूरी तरह से टूट चुका है। 'कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' नारे की हवा तो यूपीए के पहले कार्यकाल में ही निकल गई थी, और रही सही कसर दोबारा सरकार बनने के बाद पूरी हो गई। महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी तक नाकाम साबित हुए। जिस सरकार में अर्थशास्त्रियों की फौज हो, उसका बढ़ते दामों पर नियंत्रण न रहना दर्शाता है कि वो इस पर संजीदा नहीं है। है। यूपीए सरकार के पिछले पांच साल और अब के कुछ महीनों में महंगाई दर बेतहाश बढ़ी है, इसका कारण सरकार की गलत नीतियां रहीं। गलत समय पर गलत कदम उठाकर कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने आम आदमी का बोझ कम करने के बजाए उसपर इतना भार लाद दिया कि वो सीेधे खड़े होने का सपना भी न देख पाए। इतने सब के बाद भी सरकार के मंत्री ऊल-जुलूल बयानबाजी से बाज नहीं आते, जो खासकर कृषिमंत्री शरद पवार तो शायद ये भूल ही चुके हैं कि उलना काम क्या है। वो हर वक्त खिसियानी बिल्ली की तरह खंबा नोंचने को तैयार रहते हैं। कुछ वक्त पहले उन्होंने चीनी के बढ़ते दामों पर खीजते हुए कहा था कि 'मैं योतिषी नहीं हूं जो बता सकूं की चीनी के दाम कब नीचे आएंगे' और अब वो इसके लिए प्रधानमंत्री तक को दोषी ठहराने में लगे हैं। यूपीए सरकार ने अब तक पेट्रोलियम पध्दार्थों के दामों में कई बार वृध्दि की,
लेकिन दाल, आटा, सब्जी जैसी खाद्यय सामग्री के मूल्यों में अनावश्यक आई तेजी को कम करने के बारे में एक बार भी नहीं सोचा। सत्ता में आते ही कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वो सब्सिडी को पूरी तरह खत्म करना चाहती है, मनमोहन सिंह ने कहा था कि सब्सिडी में खर्च की जाने वाली रकम को बच्चों की शिक्षा जैसे कामों पर लगाया जाएगा। पर शायद वो भूल गए कि अगर घर में खाने को ही नहीं होगा तो बच्चे क्या खाक तामील हासिल करेंगे। यदि भाजपा लोकसभा चुनाव के वक्त अंदरूनी कलह से नहीं गुजर रही होती तो उसकी जीत सुनिश्चित थी। हम एक ऐसे व्यक्ति को अपना नेता कैसे चुन सकते हैं जो अपने घर के झगड़ों ही नहीं सुलझा पा रहा। जनता के पास विकल्प बहुत सीमित हैं, या कहें कि उसके पास विकल्प हैं ही नहीं। गडकरी को इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार करने और इनका हल खोजने की जरूरत है। कांग्रेस में भले ही युवाओं की टीम हो मगर भाजपा को युवा सोच पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, सबसे पहले तो उसे युवाओं की भावनाओं को समझने और उसके अनुरूप काम करने की रणनीति पर विचार करना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है कि जब गडकरी किसी युवा को सलाहकार के रूप में नियुक्त करें। मेंगलौर जैसी घटनाएं और वलेंटाइन डे के विरोध का तरीका भाजपा को युवाओं से दूर ले जाने में अहम किरदार निभाता है। यदि भाजपा अध्यक्ष गडकरी पार्टी की छवि को लेकर सर्वे कराएं तो सबसे यादा शिकायत युवाओं को इसी मुद्दे पर होगी। वैसे पार्टी के इतिहास के हिसाब से देखा जाए तो अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजने वाले गडकरी अभी खुद भी युवा हैं, पर फिर भी उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो युवाओं से जुड़े मुद्दे की बारीकियों पर उनका ध्यान आकर्षित करा सके। राहुल गांधी इस वक्त सही काम कर रहे हैं, स्कूल-कॉलेजों में जाकर वो युवाओं को पार्टी का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करने में लगे हैं। उनके इस अभियान का व्यापक असर भी देखने को मिल रहा है, मगर यह असर सार्थक परिणाम में तब तक तब्दील नहीं हो सकता जब तक कांग्रेस किसी ऐसे युवा को फ्रंट लाइन में नहीं लाती जिसको राजनीति विरासत में न मिली हो। अब तक कांग्रेस में जितने भी युवा हैं पार्टी में उनका दाखिला खुद के बल बूते नहीं हुआ। भाजपा कांग्रेस की इस कमजोरी को अपनी ताकत के रूप में अपना सकती है। नितिन गडकरी को पूरा फोकस युवाओं पर करना चाहिए, साथ ही उन्हेंं खुद को पार्टी से बड़ा समझने वाले नेताओं पर भी लगाम लगाने के बारे में सोचना चाहिए। अगर गडकरी ऐसा करने में सफल रहे तो भाजपा को पुरानी लय में वापस आने से कोई नहीं रोक सकता।
1 comment:
नीरज जी
आपने कई प्रश्न एक साथ उठाए हैं। राहुल गाँधी क्या कर रहे हैं? यह विचारणीय प्रश्न है। वे अपने प्रवास से और अपनी बातों से केवल यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनका भारत कैसा हो? साथ में वे यह भी कहते हैं कि ऐसा हो नहीं रहा है। अब इसी परिपेक्ष्य में क्या नितिन गडकरी जनता को यह बता पाएंगे कि उनका भारत कैसा हो? आज भाजपा इतनी उलझ गयी है कि लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर वे चाहते क्या हैं? अब तो जनता को लगने लगा है कि भाजपा केवल सत्ता चाहती है। टेंट लगाकर बैठक करने से कुछ नहीं होगा, मीडिया इसकी भी चिन्दी उधेड़ देगा।
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