Sunday, November 22, 2009

कश्मीर पर यह नासमझी क्यों

नीरज नैयर
अमेरिकी नेतृत्व की पाक पसंदगी का पैमाना इस कदर भर गया है कि उसके राजनेता-अधिकारी अब हमारे पड़ोसी मुल्क के नुमाइंदों की तरह यादा पेश आने लगे हैं, अमेरिकी विदेश उप मंत्री विलियम बर्न्स और हिलेरी क्लिंटन के भारत यात्रा के वक्त दिए गये बयानों से तो यही प्रतीत होता है. बर्न्स ने अपनी भारत यात्रा के दौरानबहुत कुछ ऐसा कहा था जिसकी उम्मीद नई दिल्ली ने भी नहीं की होगी. अमेरिकी मंत्री ने भारत को पाक के साथ बिना शर्त बातचीत की समझाइश तो दी ही साथ ही कश्मीर पर यह कहते हुए नया शिगूफा छोड़ दिया कि समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों की इच्छा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. ऐसे ही हिलेरी ने भी कश्मीर मुद्दे को सुलझाने पर जोर दिया था.

कश्मीर भले ही भारत-पाक का आपसी मसला हो मगर उसमें अमेरिका की दखलंदाजी हमेशा से ही रही है, इसका एक कारणदोनों देशों का बार-बार अमेरिका पर निर्भरता जाहिर करना भी है. पाकिस्तान शुरू से अमेरिका के सहारे कश्मीर फतेह की नापाक कोशिशों को अंजाम देता रहा है और भारत महज जुबानजमाखर्ची के वाशिंगटन को अब तक कोई सख्त संदेश देने में नाकाम रहा है. बर्न्स और हिलेरी के बयान पर भी भारतीय नेतृत्व ने कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दी जिससे अमेरिका को भविष्य के लिए सबक मिल सके. बराक हुसैन ओबामा के सत्ता संभालने से पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि कश्मीर पर उनका रुख पाक के पक्ष में ही जाएगा, ओबामा ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कश्मीर के समाधान के लिए एक विशेष दूत नियुक्त करने की बात कही थी और वो अब इसी दिशा में बढ़ते दिखाई दे रहे हैं.

कश्मीर को लेकर पाक की पैंतरेबाजी को ऐसे कथित बुध्दिजीवियों के कथनों से भी बल मिला है जो घाटी को आजाद रूप में देखने की हसरत रखते हैं. प्रख्यात लेखिका अरुन्धति राय भी ऐसे ही बुध्दिजीवियों की जमात में शामिल हैं. कुछ वक्त पूर्व जब कश्मीर में आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहे थे उस वक्त आउटलुक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कश्मीर को स्वतंत्र करने पर बल दिया था. उनका मानना था कि घाटी में जो आक्रोश व्याप्त है वो केवल अलगाववादियों की ही देन नहीं बल्कि आम कश्मीरियों का वो गुस्सा है जो कई वर्षों से भारतीय प्रशासन के खिलाफ पनप रहा है. उनके मुताबिक कश्मीरियों में अब यह धारणा घर कर चुकी है कि उनका हित भारत से अलग होने में ही है. अरुन्धति राय ने महज बुजुर्गों-नौजवानों और महिलाओं की भीड़ से निकलकर आ रहे भारत विरोधी नारों से यह अंदाजा लगा लिया कि घाटी का आवाम 1947 की तरह ही स्वतंत्रता के लिए आंदोलित है. पर वो शायद भूल गईं कि भीड़ में शामिल होने वाले हर शख्स का उद्देश्य उसकी अगुवाई करने वाले से मेल खाए ऐसा जरूरी नहीं होता. राम मंदिर आंदोलन के वक्त सैंकड़ों लोग भीड़ का हिस्सा बने पर क्या सभी मस्जिद तोड़ना चाहते थे, अगर ऐसा होता तो शायद एक भी मस्जिद आज सुरक्षित नहीं बचती. राजनेताओं की रैलियों में हजारों लोग बढ़-चढ़कर सम्मलित होते हैं तो यह मान लिया जाए कि सब एक ही विचारधारा से हैं, अगर ऐसा होता तो भीड़ ही जीत का आधार मानी जाती. भीड़ का हिस्सा बनना महज क्षणिक भर का जोश मात्र भी हो सकता है, जिसका नशा पलभर में ही काफुर हो जाता है.

णलिहाजा प्रदर्शन करने वालों की तादाद देखकर यह समझ लेना कि पूरी की पूरी जमात ही इसमें शामिल है, सरासर ग़लत है. लालचौक से लेकर सोनमर्ग-गुलमर्ग तक पत्रकार और आम पर्यटक की तरह जब मैने लोगों के दिलों को टटोलने की कोशिश की तो मुझे कहीं से भी उनके भीतर दबे हुए उस गुस्से का अहसास नहीं हुआ जिसका जिक्र अरुन्धति राय ने किया था. जहां तक बात रही थोड़ी बहुत शिकन की तो वह मुल्क के हर नागरिक के चेहरे पर किसी न किसी बात को लेकर दिखाई पड़ ही जाती है. कश्मीर को विशेष राय का दर्जा मिला हुआ है, केंद्र में आने वाली हर सरकार के एजेंडे में कश्मीर सबसे ऊपर होता है. हर साल एक मोटी रकम घाटी के विकास के लिए स्वीकृत की जाती है. इतने सब के बाद भी अलग होने की भावना कैसे जागृत हो सकती है, दरअसल पाक की जुबान बोलने वाले हुर्रियत जैसे संगठन कश्मीरियों को लंबे वक्त से बरगलाने में लगे हैं, वह उन्हें सुनहरे सपने दिखाकर अपनी तरफ करने की कोशिश करते हैं, मगर आम कश्मीरियों को शायद इस बात का इल्म है कि अगर भारत से अलग हुए तो उनका हाल भी पाक अधिकृत कश्मीर में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं की माफिक हो जाएगा. यही वजह है कि आजादी की मांग वाले प्रदर्शन यदा-कदा ही होते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो घाटी हर रोज शोर में डूबी रहती. इस लिहाज से देखा जाए तो न तो अमेरिका और न ही कथित बुध्दजीवियों के लिए यह तर्कसंगत है कि वो कश्मीर पर भारत के रुख को कमजोर करने की कोशिश करें, खासकर अमेरिका के लिए तो बिल्कुल नहीं. ओबामा खुद को बड़ा साबित करने की चाह में उसी स्टैंड पर कायम हैं जिसपर पूर्ववर्ती अमेरिकी शासक चलते रहे हैं.

1947-48 में भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू कश्मीर मुद्दे पर पहला युध्द हुआ था जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में युध्दविराम समझौता हुआ. इसके तहत एक युध्दविराम सीमा रेखा तय हुई, जिसके मुताबिक जम्मू कश्मीर का लगभग एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास रहा जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहते हैं. और लगभग दो तिहाई हिस्सा भारत के पास है जिसमें जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख शामिल हैं. 1972 के युध्द के बाद हुए शिमला समझौते के तहत युध्दविराम रेखा को नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया. हालाकि भारत पूरे जम्मू कश्मीर को अपना हिस्सा बताता है, लेकिन कुछ पर्यवेक्षक यह भी कहते हैं कि वह कुछ बदलावों के साथ नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में है. अमेरिका और ब्रिटेन भी नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के हिमायती रहे. पर पाकिस्तान इसका विरोध करता है क्योंकि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने से मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी भी भारत के ही पास रह जाएगी. अमेरिका ने कश्मीर में पूर्णरूप से 1950 के दौरान ही दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था, और 1990 तक आते-आते उसमें पाक की हिमायती का पक्ष साफ-साफ दिखाई देने लगा. अमेरिका कहीं न कहीं ये चाहता है कि कश्मीर को स्वतंत्र घोषित कर दिया जाए ताकि वो अफगानिस्तान और इराक की तरह अपनी सेना को वहां बैठाकर एशिया में मौजूदगी दर्ज करवा सके, शायद इसी लिए उसके दिल में कश्मीरियों के प्रति दर्द उमड़ रहा है. अमेरिका के इस तरह के हिमायत भरे कदम पाकिस्तान और कश्मीर में बैठे उसके खिदमतगारों के लिए पावर बूस्टर का काम करते हैं. इसलिए भारत सरकार को अमेरिकी दबाव में आकर नासमझ व्यवहार करने की बजाए बर्न्स के बयानों की गंभीरता को भांपते हुए माकूल जवाब देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए.

Friday, November 20, 2009

गौरेया नहीं बनाती मर्द

नीरज नैयर
मनुष्य हमेशा से ही अपने फायदे के लिए दूसरों को कुर्बान करता रहा है. यहां तक कि अपने सगे-संबंधियों को भी. प्रकृति को संतुलित करने वाले मूक जानवर-पक्षी हमेशा से उसका शिकार बनते आए हैं. यह मनुष्य की लालसा का ही नतीजा है कि कभी भारत में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले बाघ अब विलुप्ती के कगार पर पहुंच गये हैं. ताजा गणनाके अनुसार देश में मात्र 1411 बाघ ही बचे हैं जबकि 2001 में करीब 3500 बाघ होने का दावा किया जा रहा था. हालांकि पश्चिम बंगाल के सुंदरवन और झारखंड में बाघों की गिनती को अंजाम नहीं दिया जा सका था.

सुंदरवन में कुछ समय पहले तक 250 बाघ थे लेकिन अब वहां केवल 60-70 ही बचे हैं. इसी तरह झारखंड में बाघों की संख्या 60-70 से घटकर 1-2 होने का अनुमान है. ऐसे में अगर इन दोनों क्षेत्रों के अनुमानित आंकड़ों को मिला भी लिया जाए तो बाघों की कुल संख्या 1500 से कम ही रहने वाली है. बीते चंद दिनों में ही जिस तरह से शिकार की घटनाएं सामने आई हैं उसके बाद 1400 का आंकड़ा छूना भी मुश्किल ही नजर आ रहा है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खालों की तस्करी में लगे हुए हैं. इसके साथ ही बाघों के सफाए का एक सबसे बड़ा कारण अंधविश्वास भी है. यह भावना प्रचुर मात्रा में जनमानस के मस्तिष्क में बैठ ही दी गई है कि बाघ के अंग विशेष से निर्मित दवाईयां यौन शक्ति बढ़ाने में कारगर हैं. बाघ, मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉल ब्लेडर के साथ-साथ अब एक नया नाम इस कड़ी में और जुड़ गया है वो है गौरेया. पेड़ों पर चहकती मिल जाने वाली गौरेया भी अब ओझल होती जा रही है. उन्हें पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जा रहा है. देशभर में पशु-पक्षियों का अवैध व्यापार बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है, मुंबई का क्रॉफर्ड बाजार इसका सबसे बड़ा केंद्र है. सबकुछ जानते हुए भी पुलिस इन मामले में कोई कार्रवाई नहीं करती क्योंकि उसे ऐसी जगहों से खामोश बैठने के लिए पर्याप्त रकम मिल जाया करती है. मुंबई का कोई भी पशु कल्याण संगठन उस बाजार में छापा मारने का साहस नहीं करता.

क्रॉफर्ड बाजार में हर दिन औसतन करीब 50,000 पक्षी खरीदे-बेचे जाते हैं. कामोत्तेजना बढ़ाने की दवा का व्यापार करने वालों के लिए गौरेया सबसे सरल टारगेट रही है. गौरेया को पकड़ने के लिए उन्हें जंगलों में डेरे नहीं डालने पड़ते, शहरों में घूम-घूमकर आसानी से उन्हें पकड़ा जाता है. जानकारों के अनुसार, इस पक्षी की मांग में हाल में काफी वृध्दि हुई है. दरअसल, कुछ हकीम समय-समय पर यह दावा करते रहते हैं कि उन्होंने गौरेया के मांस से एक ऐसी दवा तैयार की है, जो कामोत्तेजक का काम करती है, इसलिए इसकी मांग अप्रत्याशित तौर से बढ़ी है. ऐसा नहीं है कि नीम-हकीमों के इस अंधविश्चास का केवल अनपढ़ लोग ही हिस्सा बनते हैं काफी तादाद में अमीर उद्योगपति तथा फिल्मी सितारे भी ऐसी दवाओं के इस्तेमाल में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. इन पक्षियों को नाइलॉन के जाल के जरिये पकड़ा जाता है. चूंकि गौरैया छोटी होती है, इसलिए कामोत्तेजक दवा की एक खुराक बनाने के लिए कई गौरैयाओं की कुर्बानी दी जाती है. अन्य पशु-पक्षियों की तरह गेंडे और हाथियों को भी उसके सींगों के लिए लगातार मारा जा रहा है, गेंड़ों की तदाद तो पहले से ही कम थी अब हाथियों की संख्या में भी तेजी से कमी आ रही है. अभी सरकारी अमले से लेकर हर किसी का ध्यान इस वक्त बाघों पर केंद्रित है इसलिए हाथियों की संख्या के बारे में सोच-विचार नहीं किया जा रहा है. लेकिन हकीकत ये है कि अगर जल्द ही इस दिशा में नहीं सोचा गया तो इनकी हालत भी बाघ जैसी हो जाएगी.

कुछ वक्त पहले पूर्व केंद्रियमंत्री एवं जानी-मानी पशुप्रेमिका मेनका गांधी का एक लेख प्रकाशित हुआ था उसमें उन्होंने इन भ्रांतियों पर से पर्दा उठाने की सार्थक कोशिश की थी. उसमें कहा गया था कि कोई भी पशु किसी को मर्द नहीं बना सकता. वह केवल कैल्शियम अथवा प्रोटीन देता है, जिन्हें आप पौष्टिक भोजन में कहीं ज्यादा मात्रा में पा सकते हैं. वियाग्रा क्या करती है? यह केवल नाइट्रिक ऑक्साइड छोड़ती है, जो रक्त वेसल्स को खोल देता है और अधिक रक्त का प्रवाह होने लगता है. रक्त के संचालन से कोई भी छेड़छाड़ डिस्फंक्शन में परिणत होती है. जाहिर है, यदि आप अपनी उंगली में रक्त-प्रवाह रोक लें, तो वह भी हिल नहीं पाएगी. शरीर रक्त द्वारा चलाई जाने वाली एक मशीन है. अधिक कार्बोहाइड्रेट तथा गलत प्रकार के वसा वाले भोजन आर्टरियों को अवरुध्द कर देते हैं. यदि रक्त वेसल्स उचित रूप से रक्तऑक्सीजन को नहीं ले जा पाती, क्योंकि वे संकरी तथा वसा से भरी हुई है, तो शरीर टूटने लगता है. और जिस प्रकार हृदय को ले जाने वाली आर्टरियों में ब्लॉकेज होने से हृदयाघात हो सकता है और मस्तिष्क में जाने वाली आर्टरियों में रक्त के रुकने से दौरा पड़ सकता है, उसी प्रकार जब जननांगों को जाने वाली आर्टरिया बंद होती हैं, तो स्वाभाविक रूप से शरीर का वह भाग भी काम करना बंद कर देगा.

इसलिए यदि आप मर्द बनना चाहते हैं, तो गौरैया या कोई और पशु-पक्षी आपको मर्द नहीं बना पाएगा. ऐसा भोजन तथा जीवन-शैली में परिवर्तन से हो सकता है. कम वसा वाला शाकाहारी भोजन, हलका व्यायाम, तनाव को रोना और धूम्रपान न करने का संयोजन आपकी आर्टरियों को खुद-ब-खुद साफ कर देगा. लिहाजा महज अंधविश्वास या अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति तंत्र को नुकसान पहुंचाने से अब हमें बाज आना चाहिए, अन्यथा हमें इसके दूरगामी परिणाम भुगतने होंगे.

Wednesday, November 18, 2009

गैरी क्रिस्टन के सुझाव में बुराई क्या है भाई

नीरज नैयर
ुकुछ वक्त पहले भारतीय क्रिकेट टीम के कोच गेरी क्रिस्टन ने एक सुझाव दिया था जिसे लेकर देश में काफी बवाल मचा, कुछ भूतपूर्व खिलाड़ियों ने तो उनके निष्कासन तक की मांग कर डाली. चारों तरफ से प्रखर हो रहे विरोध के स्वर को देखते हुए गैरी को अंतत: वही रास्ता अपनाना पड़ा जो हमारे नेता वर्षों से अपनाते आए हैं, यानी मेरी बातों का गलत अर्थ निकाला गया. तब कहीं जाकर मामला रफा-दफा हो सका. गैरी क्रिस्टन मूलत दक्षिण अफ्रीका से हैं, इसलिए उनके ख्यालात और भारतीयों के ख्यालात एक जैसे नहीं हो सकते. लेकिन उनके सुझाव एक कोच के तौर पर थे और वैसे देखा जाए तो उसमें कुछ गलत भी नहीं था. गैरी के सुझावों की बारिकियों और उनमें छिपे वैज्ञानिक तथ्यों को जाने-समझे बिना ही इतना बड़ा बवंडर खड़ा कर दिया गया. भारतीय कोच ने सेक्स को जीत का मंत्र बताते हुए खिलाड़ियों को इसकी सलाह दी थी.

उनका तर्क था कि यौन संबंध से टेस्टोस्टेरोन नामक हार्मोन का स्तर बढ़ता है, जिससे अक्रामकता, और प्रतिस्पध्र्दा की भावना जार्गत होती है. मैदान पर खिलाड़ियों का प्रदर्शन सुधारने के लिए बेहद जरूरी है कि वो लंबे समय तक सेक्स से दूर हरगिज न रहें, ऐसी स्थिति में आक्रामकता के स्तर में गिरावट आने की संभावना यादा रहती है. गैरी ने यहां तक कहा था कि अगर खिलाड़ियों के पास संभोग के लिए साथी नहीं है तो वो उसका स्मरण करके हस्तमैथुन का सहारा ले सकते हैं.

भारतीय परिवेश में रहकर सोचा जाए तो खुलेआम सेक्स की सलाह देना अटपटा लग सकता है लेकिन तमाम रिसर्च गैरी के सुझावों पर मुहर लगाते हैं. हाल ही में लंदन की क्वीन्स यूनिवर्सिटी द्वारा किए गये एक शोध के नतीजे कुछ ऐसी ही सलाह देते हैं, शोध के मुताबिक हफ्ते में तीन बार सुबह के वक्त किया गया संभोग सेहत के लिए बेहद लाभकारी है. इससे रक्त संचार तो बेहतर होता ही है, हार्ट अटैक और उच्च रक्तचाप का खतरा भी कम हो जाता है. साथ ही जोड़ों का दर्द, माइग्रेन और डायबिटीज जैसी बीमारियों से भी छुटकारा पाया जा सकता है. सुबह-सुबह के सेक्स से शरीर में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का निर्माण काफी तेजी से होता है, यह हार्मोन हड्डियों एवं मांसपेशियों को मजबूत बनाने में सहायक की भूमिका निभाता है.

इसी तरह स्कॉटलैंड में किए गये एक शोध के अनुसार नियमित संभोग से तनाव में कमी आती है और चित्त शांत बना रहता है. कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि सेक्स से इम्यूनोग्लॉबिन नामक प्रतिरक्षी में बढाेतरी होती है, जो सर्दी-जुकाम जैसे इन्फेक्शन को रोकने में मददगार है. नियमित संभोग का एक और सबसे बड़ा फायदा है कि यह बदन की चर्बी को घटाने का भी काम करता है, जिसकी जरूरत टीम इंडिया के कुछ खिलाड़ियों को है. लगभग आधे घंटे के सेक्स से 85 के आसपास कैलोरी जलाई जा सकता है. भले ही 85 का आंकड़ा कम दिखाई दे रहा हो मगर असल में इतना करने में ही पेच ढीले हो जाते हैं. सेक्स को एक तरह से ऐसी कसरत कहा जा सकता है जो सेहत के साथ-साथ सुख भी प्रदान करती है.

ब्रिटिश जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक सेक्स से पुरुषों में प्रॉस्टेट कैंसर का खतरा कम होता है. साथ ही इससे आत्मसम्मान में वृध्दि होती है. संभोग के बाद अलग सी खुशी महसूस होती है इसलिए काफी लोग अच्छा महसूस करने के लिए भी सेक्स संबंध बनाते हैं. सेक्स का खूबसूरती से भी गहरा नाता है, इससे एस्ट्रोजन नाम का फीमेल हार्मोन अधिक मात्रा में बनता है जिसकी वजह से बाल और चेहरे पर चमक आती है. कुछ जानकार तो हैप्पी मैरिड लाइफ के लिए हफ्ते में 3 से चार पर हमबिस्तर होने की सलाह देते हैं, उनके मुताबिक सेक्स से ऑक्सटॉसिन हार्मोंस स्तर बढ़ता है, जिससे आपसी संबंधों में मजबूती आती है और एक दूसरे के प्रति उदारता की भावना बढ़ती है. अब इतने सारे फायदे सेक्स के अलावा और कहां मिल सकते हैं, इसलिए गैरी क्रिस्टन ने काफी सोच-समझकर यह सुझाव दिया होगा. लेकिन उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि भारत में इसका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है.

दरअसल पूर्व भारतीय खिलाड़ियों का एक तबका विदेशी कोच की परंपरा के हमेशा से ही खिलाफ रहा है. ग्रेग चैपल प्रकरण के बाद माना जा रहा था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई देशी कोच को ही तवाो देगा मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं. ऐसे में इसकी खीज गैरी के बयान जमकर निकली, गैरी क्रिस्टन को जब कोच बनाने की बात चल रही थी तब कहा जा रहा था कि एक ऐसा खिलाड़ी जो भारत के नाम से भी नफरत करता है, वह टीम को भला क्या संभालेगा. लेकिन क्रिस्टन धीरे-धीरे ही सही मगर इसका जवाब दे रहे हैं. वैसे भी हमारे देश में बिना कुछ जाने-ताने हर चीज के विरोध की एक परंपरा सी बन गई है. कुछ वक्त पहले अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर काफी विरोध प्रदर्शन हुए थे. लेकिन विरोध करने वालों में से आधा से यादा को विरोध के कारण का अता-पता नहीं था. कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति यदि सुझाव देता है तो पहले उसकी गहराई में जाकर पड़ताल करना जरूरी है.

टीम इंडिया के खिलाड़ियों में आक्रामकता, एकाग्रता और प्रतिस्पर्धा की कमी हमेशा से ही रही है, अक्सर देखा जाता है कि निर्णायक वक्त में हमारे खिलाडी धैर्य हो देते हैं. जबकि ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका आदि टीमें इस मामले में कहीं आगे हैं. मैच जीतने के लिए जिस आक्रामता की जरूरत होती है वह पूरी तरह से अब भी खिलाड़ियों में विकसित नहीं हो पाई हॅै. कुल मिलाकर कहा जाए तो टीम इंडिया में ढेरों खामिया हैं, जिसे दूर करने की जिम्मेदारी गैरी के कंधों पर है और वो बखूबी जानते हैं कि उसे कैसे निभाना है.

गैरी के सुझावों में नयापन कुछ भी नहीं है, ये बात सब जानते हैं, विरोध करने वाले भी. बस फर्क केवल इतना है कि पहली बार किसी ने खुलेतौर पर इसे सामने रखा. मोरल ऑफ द स्टोरी यही है कि सेक्स से जब वो सबकुछ मिल सकता है जो घंटों जिम में पसीना बहाने के बाद भी आसानी से हासिल नहीं किया जा सकता तो फिर इस सुझाव में बुराई क्या है.
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Tuesday, November 3, 2009

स्त्री-पुरुष और घरेलू हिंसा

नीरज नैयर
हिंसा की कोई शक्ल नहीं होती, लेकिन हिंसा करने वाले की सूरत को कागज पर जरूर उकेरा जा सकता है. आदिकाल में जब मनुष्य भोजन की तलाश में जंगलों की खाक छाना करता था हिंसा तब भी मौजूद थी. उन निरीह जानवरों के लिए जो किसी का पेट भरने की खातिर मारे जाते थे मनुष्य हिंसा फैलाने वाले दानव की तरह था. वो दानव जो करुण पुकार और दया के भाव से कोसों दूर था. इतना लंबा समय गुजरने के बाद भी करुणा और दया जैसे शब्द मनुष्य के शब्दकोष में ढूंढे से आज भी नहीं मिलते, हिंसा का अस्तित्व अब भी कायम है. फर्क केवल इतना है कि उसका स्वरूप वृह्द हो चला है. मनुष्य जो शुरू से ही क्रूर था आज क्रूरतम बन गया है. पहले उसकी क्रूरता केवल स्वयं और अपनों को बचाने तक ही सीमित थी मगर आज वह उन्हीं अपनों के साथ क्रूरता से पेश आता है. रिश्तेनाते उसके लिए कोई मायने नहीं रखते.

मनुष्य का प्रत्येक रूप फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष हिंसा बोध से ग्रस्त है. पुरुष को इस मामले में थोड़ा आगे रखा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. हिंसा के मायने उसके लिए बिल्कुल अलग हैं.घर की चारदीवारी के भीतर स्त्री पर उठने वाले हाथ को वह हिंसा नहीं मानता, उसके लिए तो यह मर्दानगी का सुबूत है. पुरुष की इस मर्दानगी के किस्से आए दिन खबरों के माध्यम से सुनने में आते रहते हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरों के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ अपराध के सालाना 1.5 लाख मामले दर्ज किए जाते हैं, जिनमें से लगभग 50 हजार घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं. मौटे तौर पर कहा जाए तो लगभग पांच मिलियन महिलाएं घर के भीतर हिंसा का शिकार होती हैं, लेकिन महज 0.1 फीसदी ही इसके खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस जुटा पाती हैं. दरअसल हमारे देश में शुरूआत से लड़कियों को यह बात सिखाई जाती है कि उन्हें हरहाल में अपने पति के साथ रहना है. ऐसे में रिश्तों में कड़वाहट की दशा में भी वो ससुराल की दहलीज से बाहर पैर निकलाने का फैसला लेने से कतराती हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका यह फैसला परिवार के लिए बदनामी का कारण बन सकता है.

एनसीआरबी की 2007-08 की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि तमाम दलीलों और प्रयासों के बावजूद महिलाओं के प्रति क्रूरता में कोई कमी नहीं आई है. रिपोर्ट में आधी आबादी पर अत्याचार के मामले में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बाद आंध्र प्रदेश को दूसरे स्थान पर रहा गया, राय में घरेलू हिंसा के 11,335, दहेज हत्या के 613, बलात्कार के 1079, और अपहरण के 1564 मामले दर्ज किए गये. ऐसे ही उत्तर प्रदेश में दहेज हत्या के 2066, बलात्कार के 1532 और अपहरण के 3819 केस सामने आए. ऐसा तब है जब राय में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक महिला विराजमान है. दिल्ली से सटे हरियाणा में तो स्थिति और भी यादा खराब है, भले ही दूसरे रायों की तुलना में यहां कम मामले दर्ज किए गये हों मगर महिलाओं से क्रूरता की खौफनाक तस्वीर यहां आय दिन देखने को मिलती रहती है. बिहार की बात करें तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी महिलाओं की दशा में कोई सुधार देखने को नहीं मिला. 2007-08 के दौरान यहां करीब 59 प्रतिशत विवाहिताएं घरेलू हिंसा की भेंट चढ़ी, जबकि दहेज हत्या के 1172 और बलात्कार के 1555 मामले दर्ज किए गये. इसी तरह मध्यप्रदेश, कर्नाटका और केरल आदि रायों में भी हिंसा का ग्राफ बाकी रायों की तरह ही रहा.

सबसे यादा अफसोस की बात तो ये है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले केवल निचले तबके तक ही सीमित नहीं हैं. पढ़े-लिखे और संपन्न माने जाने वाले परिवारों में भी ऐसा धड़ल्ले से होता है. 26 अक्टूबर 2006 को देश में घरेलू हिंसा रोकने के लिए नया कानून लागू किया गया, जिसके तहत पत्नी या फिर बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण या अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल की परिस्थिति में अपने साथी के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है. कानून का उल्लंघन होने की स्थिति में जेल के साथ -साथ जुर्माने का भी प्रावधान रखा गया. कानून लागू होने के महज दो दिन बाद यानी 28 अक्टूबर 2006 को इसके अंतर्गत तमिलनाडु से पहली गिरफ्तारी हुई. 47 वर्षीय जोसेफ को अपनी पत्नी से मारपीट के आरोप में हिरासत में लिया गया, इस पहली गिरफ्तारी के बाद एक आस बंधी की शायद महिलाओं के प्रति बरसों से चली आ रही सोच में परिवर्तन देखने को मिलेगा, हालांकि कुछ परिवर्तन जरूर सामने आया लेकिन उसका प्रतिशत हिंसा के मुकाबले काफी कम रहा. कुल मिलाकर कहा जाए तो बदलते जमाने के साथ साथ पुरुष ने अपने आप में अनगिनत बदलाव किए मगर स्त्री को लेकर चली आ रही घिसी-पिटी मानसिकता बदलने की कोशिश नहीं की. पुरुष का यह बहुत ही क्रूरतम चेहरा है मगर इसका मतलब ये भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि दर्शाए गये प्रत्येक चेहरे की क्रूरता में उतनी ही सच्चाई हो. महिलाएं बुरे दौर से गुजर रही हैं इसमें कोई दोराय नहीं लेकिन कहीं-कहीं पुरुषों की स्थिति उनसे यादा दयनीय है. घरेलू हिंसा का शिकार उन्हें भी होना पड़ रहा है, इसका कारण है महिलाओं की सुरक्षा को बनाए गये कठोर कानून.

यहां एक शोध का जिक्र करना बेहद जरूरी है, हालांकि उसका मौजूदा विषय से खास ताल्लुक नहीं लेकिन मासूम चेहरे के पीछे छिपी क्रूरता को कुछ हद तक उजागर करने के लिए आवश्यक है. कुछ वक्त पूर्व हुए इसशोध में यह बात सामने आई कि देश की राजधानी दिल्ली में पिछले पांच सालों में दर्ज किए गए बलात्कार के मामलों तकरीबन 20 फीसदी के आसपास फर्जी थे. अधिकतर मामलों को बदला लेने के उद्देश्य के चलते बलात्कार से जोड़ा गया. शोध में उन तमाम मामलों का भी उल्लेख किया गया जिनमें रेप की आड़ में हित साधने की कोशिश की गई. मसलन पूर्वी दिल्ली में रहने वाली एक 16 साल की लड़की ने अपने पिता पर बलात्कार का आरोप लगाया लेकिन जब सच सामने आया तो पता चला कि यह करतूत किसी और की थी और भाई के कहने पर उसने ऐसा किया. ऐसे ही द्वारका की रहने वाली 13 साल की लड़की ने जिन लड़कों पर बलात्कार का आरोप लगाया पुलिस जांच में वो फर्जी पाया गया. बाद में मालूम हुआ कि लड़की के परिवार के कुछ लोगों ने ही उसके साथ रेप किया था लेकिन पारिवारिक दबाव में आकर उसे झूठ बोलना पडा. ऐसे ही तकरीबन 10 साल तक खिंचने वाले एक मामले में अदालत ने अपने दामाद पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिला का सच उजागर किया.विकासपुरी में रहने वाली इस महिला ने दामाद पर डरा-धमकार लंबे समय से यौन शोषण करने कर आरोप लगाया लेकिन कोर्ट में वह अपने झूठ को यादा देर तक कायम नहीं रख पाई. इसी तरह एक शादीशुदा महिला ने अपने अपहरण और बलात्कार का झूठा ड्रामा रचा, उसने पुलिस को बताया कि अज्ञात लोगों ने उसे अगवा कर उसके साथ मुंह काला किया. मगर जांच में मालूम हुआ कि महिला ने अपने प्रेमी के साथ मर्जी से संबंध बनाया और खुद को बचाने के लिए यह कहानी गढ़ी. इस सब के बाद इतना तो कहा ही जा सकता है कि क्रूरता के मामलों में जितना सच्चाई नजर आती है दरअसल उतनी होती नहीं. महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं, ये सही है. लेकिन ये भी सही है कि पुरुष भी इससे अछूते नहीं. क्योंकि दोनों ही हिंसाबोध से ग्रस्त हैं.