नीरज नैयर
बॉलीवुड स्टार इमरान हाशमी आजकल सुर्खियों में हैं, वैसे तो अपनी सीरियल किसर की छवि के चलते वो हमेशा ही छाए रहते हैं लेकिन इस बार मामला थोड़ा पेचीदा है. जनाब आशियाना ढूंढ रहे हैं और जिस घर पर उनका दिल अटक गया है वो उन्हें मिल नहीं रहा. ऐसा तो अक्सर आम लोगों के साथ भी होता रहता पर इमरान का आरोप है कि चूंकि वो मुस्लिम हैं, इसलिए उन्हें वो घर नहीं दिया जा रहा है. हाशमी साहब राय के अल्पसंख्यक आयोग में भी शिकायत कर चुके हैं और उन्होंने सोसाइटी के पदाधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है.
हालांकि उनका ये आरोप शायद ही किसी के गले उतरे, इतना बड़ा स्टार, जिसे लाखों लोग पहचानते हों, उसके साथ फोटो खिंचवाना चाहते हों, हाथ मिलाना चाहते हों वो अगर किसी सोसाइटी में रहने की इच्छा जताता है तो ये मुश्किल ही है कोई इस पर आपत्ति करे. और गर कोई आपत्ति करता भी है तो इसके पीछे घर लेने वाले की व्यक्तिगत छवि उसका चालचलन आदि जैसी सामान्य वजह हो सकती हैं. अमूमन अच्छी सोसाइटी में किसी को घर देने से पहले ये सब देखा जाता है. और वैसे भी घर देना न देना सोसाइटी का अपना निजी फैसला है, अगर उन्हें नहीं लगता कि किसी बड़े स्टार का यहां रहना उनके लिए सुविधाजनक होगा तो उन्हें मना करने का पूरा अधिकार है. जिस तरह की भाषा इमरान हाशमी बोल रहे हैं वह अल्पसंख्यक समुदाय के आम लोगों के मुंह से अक्सर सुनते रहते हैं लेकिन बॉलीवुड अभिनेता के मुंह ये सब सुनना थोड़ा अजीब लगता है.
इमरान की तरह कुछ और स्टार भी हैं जो इस तरह के आरोप लगाते रहे हैं, सैफ अली खान ने भी कुछ वक्त पहले कहा था कि मुस्लिम होने की वजह से घर नहीं मिलता, इसीलिए किसी दिक्कत से बचने के लिए मैं सीधा एक मुस्लिम बिल्डर के पास चला गया. सैफ ये भी मानते हैं कि मुंबई में सांप्रदायिक अलगाव एक हकीकत है, और यह समस्या सिर्फ बिल्डिंग सोसायटीज तक ही सीमित नहीं है बल्कि यहां के पूरे समाज में है. यह सभी को पता है कि मुंबई के जुहू और बांद्रा के इलाकों में जमीन और मकान मुसलमानों को नहीं बेचे जाते. मुझे देखकर आश्चर्य होता है कि कुछ लोगों के लिए धर्म कितना मायने रखता है और धर्म को लेकर लोग कितने कट्टर हैं. सच्चाई यह है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है और यही बात इस्लाम पर लागू होती है. सिने अदाकारा एवं समाज सेविका शबाना आजमी ने भी ऐसे ही आरोप लगाए थे, इसके अलावा कई अन्य स्टार भी हैं जो खुद को मुस्लिम होने की वजह से प्रताड़ित महसूस करते हैं. ये बात सही है कि मुंबई के अंधेरी और बांद्रा इलाकों में मुस्लिम कलाकारों को घर खरीदने में हमेशा से दिक्कतें आती रही हैं, कहा जाता है कि सोफी चौधरी को तो मकान खोजने में दो साल लग गए थे, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ था कि डील तकरीबन फाइनल हो चुकी थी लेकिन डीलर को जैसे ही पता चला कि सोफी मुस्लिम हैं डील कैंसल हो गई. अरबाज अली खान को बांद्रा के पेरी क्रॉस रोड पर मकान देने से मना कर दिया गया था, इसी तरह से जीनत अमान को जुहू में मकान खरीदने के लिए तकरीबन तीन महीने तक जूझना पड़ा. लेकिन ये भी सही है कि शाहरुख, सलमान जैसे अल्पसंख्य समुदाय से जुड़े कई स्टार बड़े आराम से बिना किसी दिक्कत के साथ मुंबई में रह रहे हैं.
बात थोड़ी चुबने वाली जरूर है पर सच है कि मुस्लिम समुदाय खुद को अपने से अलग समझने की मानसिकता से ग्रस्त है. अगर उनके साथ कुछ गलत होता भी है तो उन्हें यही लगता है कि जाति-धर्म के आधार पर उनके साथ ऐसा हो रहा है, जबकि ऐसा नहीं है. जहां तक घर देने या न देने की बात है तो इस परेशानी से सबको एक न एक दिन दो चार होना पड़ता है, मैं यहां अपनी ही आपबीती का जिक्र करना चाहता हूं, भोपाल जब मैं नौकरी के सिलसिले में गया तो एक अदद कमरा ढूंढने में ही दिन में तारे नजर आ गए. अकेले लड़के को घर देने से यादातर ने साफ मना कर दिया. एक-दो जगह बात बनी भी तो मेरा प्रोफेशन आड़े आ गया. पत्रकारिता से ताल्लुक होने के चलते सबकुछ तय होने के बाद भी गोल-मटोल जवाब देकर चलता कर दिया गया. एक महाश्य से जब मैने फोन पर उनके फ्लैट के संबंध में बात की तो उन्होंने किराया वगैराह सब बता दिया पर जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूं तो घर की कटी बिजली, टूट-फूट की दुहाई देकर कुछ महीने बाद के लिए मामला लटका दिया. बहरहाल किसी न किसी तरह बाद में घर मिल ही गया, पर सोचने वाली बात है कि मैं मुसलमान तो नहीं था फिर मेरे साथ भी ऐसा क्यों हुआ. जायज सी बात है ये एक आम समस्या है, सबकुछ मकान मालिक पर निर्भर करता है, यदि उसे लगता है कि फिल्म स्टार, पत्रकार आदि के साथ वो तालमेल बिठा लेगा तो कोई दिक्कत नहीं, यहां मुस्लिम होने या ना होने की बात कहां से आ गई. हाशमी साहब और उनके जैसे कलाकारों से मेरा यही निवेदन है कि हर इक बात को जाति-धर्म के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. और भी लोग हैं, जिन्हें परेशानी होती है पर वो तो कभी इस आधार पर रोना नहीं रोया करते.
2 comments:
अल्पसंख्यक और खासकर मुसलमान दोनों हाथों से लड्डू खाने के आदी हो चुके हैं. वह बराबरी भी चाहते हैं और विशेष दर्जा भी. जब उन्हें सफलता, नाम - शोहरत, पैसा मिलता रहता है तब वे इसे अपनी काबिलियत और हुनर और अल्लाह का करम मानते हैं लेकिन जैसे ही वे कहीं फँस जाते हैं या उनके मन की नहीं हो पाती फ़ौरन सर पर जालीदार टोपी पहनकर वे अल्पसंख्यक के भेस में आ जातें हैं और भेदभाव का रोना रोने लगते हैं.
अर्थात अगर आपको चोट लगी हो और आप कहते हो कि भाई मुझे चोट लगी है और उसकी शिकायत भी ना करे आदमी.... मुसलमान को अगर कुछ हो जाये तो वह चुपचाप बैठ जाये अगर बोला तो तुम सब बोलोगे कि देखो बोला.... क्यूँ बोला मुसलमान क्यूँ बोला
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