नीरज नैयर
टीवी पर आजकल एक चाय कंपनी लोगों को वोट देने के लिए प्रेरित करने में लगी है. कंपनी कहती है, अगर आप वोट नहीं देते तो आप सो रहे हो. काफी हद तक ये सही भी है. देश का भविष्य चुनाव और उसमें चुनकर आने वाले प्रतिनिधियों पर निर्भर करता है. अगर इस प्रक्रिया का हिस्सा होते हुए भी हम इसमें भागीदार नहीं बनते तो फिर हम सो ही रहे हैं. लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर वोट दें तो किसे? यहीं आकर लोगों की सोच बंट जाती है.
अभी हाल ही में मैंने एक वरिष्ठ पत्रकार का लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने एक छोटी सी कहानी के जरिए बहुत कुछ बताने का प्रयास किया. कहानी कुछ यूं है, राजा का दरबार खचाखच भरा हुआ था क्योंकि एक अपराधी को सजा सुनाई जाने वाली थी. राजा ने कार्रवाई आरंभ करते हुए अपराधी से कहा, हम तुम पर रहम करते हैं आज हमारी बेटी का जन्मदिन है. लेकिन चूंकि तुमने अपराध किया है तो इसकी सजा तो तुम्हें मिलनी ही है पर हम तुम्हें अपनी सजा खुद चुनने का मौका देते हैं. ये जो तीन तख्तियां तुम्हारे सामने रखी हैं. इनमें तुम्हारे लिए सजाएं लिखी हैं. जो चाहे चुन लो. अपराधी को लगा कि राजा जब इतनी दरियादिली दिखा रहे हैं तो सजा भी मामूली सी होगी, ये सोचकर उसने झट से एक तख्ती उठाई पर उसपर लिखा था मौत. झुंझलाकर उसने दूसरी तख्ती देखी तो उसपर भी लिखा था मौत, तीसरी देखी तो उसपर भी मौत ही लिखा था. राजा ने जोर का ठहाका लगाया. यानी कहने को तो अपराधी के पास तीन विकल्प मौजूद थे लेकिन नतीजा सबका एक ही था. ऐसे ही जनता के पास भी कहने को तो बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों के ढेर सारे प्रत्याशी चुनावी मैदान में खम ठोंक रहे हैं मगर सबका लक्ष्य, सबका उद्देश्य एक ही है.
चुनाव से पूर्व लोकलुभावन वादे करो, हाथ-पांव जोड़ो और स?ाा में आने के बाद सबकुछ भूलकर दोनों हाथों से जेबें भरने में लग जाओ. शायद यही कारण है कि आज शिक्षित वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा वोट देने नहीं जाता. मतदान वाले दिन को लोग गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस की तरह महज राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाते हैं. पर क्या केवल इसलिए कि अधिकतर राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञों का नजरीया और आदत एक जैसी होती है, हम वोट देने की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ सकते हैं. मेरी समझ से तो शायद नहीं. हममें से ही कुछ लोग ऐसे हैं जो पहले तो वोट नहीं देते फिर बाद में स?ाा में आई पार्टी और प्रतिनिधियों पर अफसोस जताने लगते हैं. मुझे अब भी याद है उ?ार प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा-बसपा गठजोड़ की सरकार बनी थी तो शिक्षित वर्ग के एक खास तबके ने इस बात पर बहुत अफसोस जाहिर किया था कि बसपा को भी स?ाा में भागीदारी मिल गई. उस वक्त इस तबके के अधिकतर लोगों ने यह कहकर वोट डालने से मना कर दिया था कि इतनी धूप में इतनी दूर कौन जाए, और वैसे भी स?ाा में कोई भी आए हमें क्या फर्क पड़ने वाला है.
हमें क्या फर्क पड़ने वाला है ये जुमला वोट न देने वालों की जुबान पर अक्सर सुनने को मिल जाया करता है. ढेरो तर्क वितर्क के साथ वो इस बात को साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि वोट देना महज समय की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं. इससे तो बेतहर है घर में आराम से सुकून के कुछ पल बिताए जाएं. अगर हम बीते कुछ वर्षों के आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो खुद ब खुद ये सच्चाई सामने आ जाएगी कि पढ़े-लिखे लोग वोट देने से कतराने लगे हैं. ये वोट न देने का ही नतीजा है कि आज आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग बेखौफ होकर न सिर्फ चुनावी मैदान में उतरते हैं बल्कि जीतकर संसद और विधानसभाओं की रौनक भी बढ़ाते हैं. वो इस बात को भली भांति जनते हैं कि जो वर्ग उनकी उम्मीदवारी का सबसे ज्यादा विरोध कर सकता है उसे वोटिंग के वक्त सोने से फुर्सत नहीं. जितनी तेजी से लोगों की वोट डालने की आदत छूटती जा रही है उतनी तेजी से राजनीति में दागियों की संख्या बढ़ती जा रही है. शांतप्रिय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश की ही अगर बात करें तो 2003 के विधानसभा चुनाव में 36 ऐसे उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे जिनपर आपराधिक मामले लंबित थे. ये दागी विधायक जीते हुए विधायकों का 16 फीसदी थे. ऐसे ही 2004 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में करीब 30 प्रतिशत दागी उम्मीदवारों ने जीत का स्वाद चखा. गलियों में दादागिरी करने वालों को संसद-विधानसभा भेजने के मामले में बिहार का कोई सानी नहीं है.
फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में कुल जीते 243 उम्मीदवारों में से 102 पर आपराधिक मामले दर्ज थे और छह माह बाद यानी नवंबर में पुन: हुए चुनाव में यह आंकड़ा 119 तक पहुंच गया. दिल्ली की स?ाा की चाबी अपने पास रखने वाले उ?ार प्र्रदेश का भी इस मामले में बिहार से चोली-दामन का साथ हैं. 2007 के विधानसभा चुनाव में जीतकर आए 403 उम्मीदवारों में से 160 के ऊपर आपराधिक मामले दर्ज थे. यानी कुल विधायकों में से 40 फीसदी दागदार. इस मामले में उ?ार पूर्व के राज्यों की जनता की पसंद वाकई काबिले तारीफ है. 2008 में हुए नागालैंड विधानसभा चुनाव में महज दो दागी उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे और मजे की बात ये रही कि उन्हें भी जीत नसीब नहीं हुई. ऐसे ही मेघालय के विधानसभा चुनाव में एक भी ही उम्मीदवार ऐसा नहीं था जिसके दामन पर दाग हो. ये तो बात हुई विधानसभा चुनावों की पिछले लोकसभा चुनाव की अगर बात की जाए तो वहां भी दागियों की भरमार रही. देश के सबसे बड़ी चुनावी महापर्व में बहुतरे दागियों ने हिस्सा लिया और जीतकर संसद को भी अखाड़ा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 14वीं लोकसभा में 120 सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि से है. अब ऐसे में देश की बागडोर कितने सुरक्षित हाथों में है इसका अंदाजा खुद ब खुद लगाया जा सकता है. मगर इसके लिए किसी और को दोष नहीं दिया जा सकता हम खुद ही दोषी है.
3 comments:
आपकी बातें सही हैं। हमने राजनीति के प्रति जो रुख अपनाया आज हम उसकी कीमत चुका रहे हैं। हमने अपने आप को इससे ऊँचा रखने का जो दंभ भरा उसकी कीमत इतनी अधिक होगी इसका हमने अनुमान नहीं लगाया था। विकल्प कम ही हैं किन्तु जब हम मतदान करने निकलने लगेंगे तो विकल्पों को भी हमारे मतों पर विश्वास हो जाएगा Oर शायद वे भी समने आने लगें।
घुघूती बासूती
मौत वाली कहानी मजेदार है
और जब तक लोग जागते नहीं, देश ऐसे ही रोता रहेगा।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
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