नीरज नैयर
फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर चल रहे तर्क-कुर्तक से इतर यह वक्त जश् मनाने का है, क्योंकि भारत की झोली तीन ऑस्कर अवॉर्डों से गुलजार हुई है. जबकि फिल्म को आठ अवॉर्ड मिले हैं. भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म के इतनी ऊंचाईयों पर पहुंचने के बाद अब यह चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर एक साधारण सी स्टोरी को इतनी सफलता कैसे मिल गई, आखिर कैसे धारावी की झुग्गी-झोपड़ी और यहां के बच्चों का जीवन संघर्ष ऑस्कर की जूरी को इतना भाया कि फिल्म को पुरस्कारों से लाद दिया गया. शायद फिल्म का निर्देशन और प्रेजेंटेशन इतनी जबरदस्त रही कि उसने नीरस सी दिखने वाली पटकथा को भी सुपर-डुपर हिट बना डाला. निश्चित ही इस बात में कोई दो राय नहीं कि एक ऐसा विषय जिस पर न जाने कितनी बॉलीवुड फिल्में बनती रही हैं और बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ती रहीं को उठाकर भेड़-चाल से अलग दिखाना और उसमें ऐसी जान फूंकना कि वो खुद ब खुद चलने लगे कोई आसान काम नहीं था लेकिन बॉयल से उसे बखूबी कर दिया. भारतीय पृष्ठभूमि और यहां के लोगों को ध्यान में रखते हुए फिल्म के हर मोड़ को उसी अंदाज में फिल्माया गया जैसे आम हिंदी फिल्मों में होता है. फिल्म में गाने थे, एक्शन था, रोमांस था और कॉमेडी भी यानी बॉलीवुड टाइप मूवी मगर इसे फुल टू बॉलीवुड मूवी नहीं कहा जा सकता क्योंकिअगर यह फिल्म बॉलीवुड से निकलकर आई होती तो इतना दुख-दर्ददिखा दिया जाता कि टिकट खरीदकर टाइम पास करने आने वालों को बेवजह आंसू बहाने पड़ते. कुल मिलाकर फिल्म के हर एंगल में हकीकत से रू ब रू कराया गया. भारत की मुफलिसी, लाचारी का जो बखान किया गया है वो गलत नहीं है. लेकिन फिर भी फिल्म और इससे जुड़े कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर जो प्रसिद्धि मिली है वो थोड़ी अचरज करने वाली है. खासकर ऑस्कर में. ऑस्कर समारोह में नामी-गिरामी हॉलीवुड फिल्मों को पछाड़ कर आठ अवॉर्ड हथिया लेना मामूली बात नहीं. स्लमडॉग मिलेनियर के गोल्डन ग्लोब से लेकर ऑस्कर तक के शानदार सफर के पीछे दो प्रमुख कारण नजर आते हैं. एक तो यह कि भारत कि जो तस्वीर पेश की गई है वैसी तस्वीर इतने पास से विश्व मंच पर शायद पहली बार पहुंची है और दूसरा, फिल्मभारतीय होते हुए भी ब्रिटेन से ताल्लुक रखती है. फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ब्रितानी हैं. ऑस्कर में स्लमडॉग ब्रितानी फिल्म के रूप में ही नामांकित हुई थी. भारत में रहमान और पोकुट्टी से पहले जो एक मात्र ऑस्कर आया था वो फिल्म गांधी की कास्टयूम डिजाइनिंग के लिए भानू अथैया को मिला था लेकिन उसका निर्देशन भी एक विदेशी यानी हॉलीवुड के रिचर्ड एटनबरो ने किया था. 1992 में सत्यजीत रॉय को भी ऑस्कर मिला था पर लाइफ टाइम अचीवमेंट की श्रेणी में न कि किसी फिल्म के लिए. ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड फिल्मों में इतना दम नहीं होता कि ऑस्कर की दौड़ में खुद को टिकाए रख सकें. लगान, तारे जमीं पर, वॉटर आदि बहुत सी फिल्में थीं जो ऑस्कर में नामांकित तो हुईं मगर हॉलीवुड की चमक-धमकके आगे पिछड़ती चली गईं. लगान को न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी खूब प्रशंसा मिली मगर नहीं मिला तो ऑस्कर. भारतीय फिल्में अंतरराष्ट्रीय मंच पर छाप छोड़ने में हमेशा से ही सफल रही हैं. मगर उन्हें महज कोरी वाह-वाही से संतोष करना पड़ा है. ऑस्कर में बैठी जूरी भारतीय फिल्मों के मार्मिक चित्रण और पटकथा को आज तक नहीं समझ पाई है. दरअसल यह कुछ और नहीं बल्कि मेड इन इंडिया का वो लेवल है जिसे देखकर ही समझ लिया जाता है कि यहां कुछ भी उस स्तर का नहीं हो सकता जिस स्तर का हॉलीवुड वाले बनाते हैं. इसलिए जब भी कोई फिल्म बॉलीवुड से ऑस्कर में जाती है उसे पहली दौड़ में ही बाहर कर दिया जाता है. चाहे फिर वो हॉलीवुड की नासमझी वाली फिल्मों से बेहतर ही क्यों न हों. आजादी के समय में भारतीयों को जिस दोयम दर्जे की नजर से देखा जाता था वही नजरीया आज भी कायम है. हमारी काबलियत का लोहा हर कोई मान चुका है, पूरे देश में भारतीय प्रतिभा का झंडा गाड़ रहे हैं. लेकिन ऑस्कर में भेदभाव का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. स्लमडॉग निश्चित ही बेहतरीन फिल्म है पर अगर उस पर मेड इन इंडिया का लेवल लगा होता तो शायद वो इतनी कामयाबी हासिल नहीं कर पाती. अल्ला रख्खा रहमान का संगीत इस फिल्म में कमाल का रहा है लेकिन इससे कई गुना अच्छा वो भारतीय फिल्मों में दे चुके हैं. रोजा, ताल जैसी बहुत सी फिल्में हैं जिनमें रहमान ने लोगों को न चाहते हुए भी थिरकने पर मजबूर कर दिया. लेकिन उन्हें ऑस्कर स्लमडॉग ही दिलवा सकी वो भी एक नहीं दो-दो क्योंकि वो ब्रिटिश फिल्म के रूप में नामांकित हुई थी. मशहूर हॉलीवुड स्टार ब्रैड पिट की जिस फिल्म को सर्वाधिक 13 नामंकन मिले थे उसे रेस में सबसे आगे माना जा रहा था. मगर ऑस्कर का फैसला करने वालों को एक विदेशी के हाथों उकेरी गई गरीब भारत की तस्वीर ज्यादा पसंद आई. फिल्म को हर क्षेत्र के लिए पुरस्कार से नवाजा गया. संगीत, पटकथा, निर्देशन, सांउड मिक्सिग आदि..आदि. हॉलीवुड अदाकारा केट विंसलेट को उनकी फिल्म द रीडर के लिए सर्वश्रेष्ट अभिनेत्री का जो खिताब दिया गया वो महज इसलिए कि स्लमडॉग में हीरोइन के करने के लिए कुछ खास नहीं था, या कह सकते हैं कि वो कोई विदेशी नहीं थी. अगर ऐसा होता तो शायद बेस्ट एक्ट्रस का सम्मान भी स्लमडॉग की झोली में आकर गिरता. फिल्म और उससे जुड़े कलाकारों के लेकर बॉलीवुड में जो जंग छिड़ी है वो शायद प्रतिस्पर्धा के दौर में दूसरे को आगे निकलता देख मन में उठने वाली ईष्या हो सकती है, फिल्म को लेकर हुए प्रदर्शन भी महज सुर्खियां बटोरने का हिस्सा हो सकते हैं लेकिन फिल्म ने सफलता के जो आयाम छूए है उसके पीछे इसके विदेशी होने की सच्चाई कोई फसाना नहीं हकीकत है इससे इंकार नहीं किया जा सकता.
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