नीरज नैयर
श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ चल रहे अभियान का व्यापक असर देखने को मिल रहा है. लिट्टे अपने ही गढ़ में घिरते जा रहे हैं और श्रीलंकाई सेना उन्हें ढूढ़-ढूढ़कर मौत के घाट रही है. काफी वक्त के बाद किसी लंकाई राष्ट्रपति ने इस हद तक जाने की चेष्टा दिखाई है. महिंद्र राजपक्षे के कार्यकाल में लिट्टे के खिलाफ छेड़ा गया यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है. राजपक्षे लिट्टे के सफाए को दृढं संकल्पित नजर आ रहे हैं जो अमूमन अशांत रहने वाले श्रीलंका के लिए शुभ संकेत है. भारत सरकार भी लिट्टे के खात्मे को सही मान रही है इसलिए अपने सहयोगी दलों के हो-हल्ले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महेंद्र राजपक्षे से महज इतना भर कहा कि तमिलों की सुरक्षा का ख्याल रखा जाए. उन्होंने संघंर्ष वीराम जैसी कोई शर्त श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की. इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि लिट्टे भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा है और उसने ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. ऐसे में दम तोड़ रहे लिट्टे के खिलाफ किसी तरह की नरमी सरकार की छवि को प्रभावित कर सकती थी. लेकिन मनमोहन सिंह ने बड़ी सूझबूझ के साथ काम लिया.
एक तरफ वो द्रमुक आदि दलों की मांग को श्रीलंका सरकार के सामने रखकर उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हम भी आप की चिंता से चिंतित हैं वहीं दूसरी तरफ लंकाई सेना के अभियान पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उन्होंने यह भी जता दिया कि भारत श्रीलंका के साथ है. तमिलनाडु के राजनीतिक दल शुरू से ही यह समझते रहे हैं कि लिट्टे से जुड़े तमिल उनके भाई बंधू हैं, इसलिए लिट्टे के पक्ष में वहां से तरह-तरह की खबरें सामने आती रहती हैं. अभी हाल ही में लिट्टे के समर्थन को लेकर प्रमुख राजनीतिक दल के नेता को हिरासत में भी लिया गया था. कुछ राजनीतिक पार्टियां जैसे पीएमके, टीएनएम, दलित पैंथर्स आफ इंडिया ने भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पृथक तमिल राष्ट्र बनाने में मदद करने का अनुरोध भी किया था. इन सियासी दलों का यह मानना है कि श्रीलंकाई सेना निर्दोष तमिलों को मार रही है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. हां इतना जरूर है कि तमिल बहुसंख्य वाले इलाकों में चल रहे युद्व के कारण लाखों तमिल शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं. लेकिन इसे गलत नजरीए से नहीं देखा जा सकता. पंजाब में आतंकवाद का सफाया करने के लिए सुपरकॉप केपीएस गिल ने जिस तरह की रणनीति अपर्नाई थी उसे लेकर भी काफी आलोचना हुई थी मगर अंजाम आज सबके सामने है. लिट्टे श्रीलंका के लिए ऐसी समस्या बन गये हैं जिसने वर्षों तक देश को आगे नहीं बढ़ने दिया.
गृहयुद्व की स्थिति के चलते न तो आर्थिक मोर्चे पर श्रीलंका को कोई खास सफलता हासिल हुई और न ही विश्व मंच पर वो अपनी दमदार पहचान बना पाया. उल्टा उसे कई बार वैश्विक समुदाय के दबाब का सामना जरूर करना पड़ा. हर रोज चलने वाले युद्व की वजह से वहां हालात यह हो गये हैं कि मुद्रास्फीति की दर 25 फीसदी की रफ्तार कायम किए हुए है. कुछ वक्त पहले श्रीलंका क्रिकेट र्बोर्ड ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड से आर्थिक सहायता की मांग भी की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. लंकाई सरकार को हर साल लिट्टे से संघर्ष के लिए एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ रही है. जिसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है. 2002 में लिट्टे और सरकार के बीच हुए संघर्ष वीराम के बाद काफी हद तक स्थिति संभलती नजर आ रही थी लेकिन जल्द ही सबकुछ हवा हो गया. श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र बनाने की मांग और विवाद का सिलसिला काफी पुराना है. श्रीलंका की आजादी से पूर्व जब अंग्रेजों ने चाय और कॉफी की खेते के लिए तमिलों को यह बसाना शुरू किया तो सिंहलों के मन यह डर घर करने लगा कि कहीं उन्हें अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बना दिया जाए. श्रीलंका में सिंहल आबादी तमिलों की अपेक्षाकृत अधिक है. इसलिए उनका विरोध भी प्रभावशाली रहा. 1948 में श्रीलंका की आजादी के बाद सत्ता सिंहला समुदाय के हाथ आई और उसने सिंहला हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. सिंहला भाषा को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाया गया, नौकरियों में सबसे अच्छे पद सिंहला आबादी के लिए आरक्षित किए गये. 1972 में श्रीलंका में बौद्व धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित करने के साथ ही विश्वविद्यायलों में तमिलों के लिए सीटें घटा दी गई.
अपने खिलाफ हो रहे सौतेले बर्ताव से तमिलों को धैर्य जवाब देने लगा और उन्होंने देश के उत्तर एवं पूर्वी हिस्सों में स्वायत्तता की मांग करनी शुरू कर दी. इसके बाद दोनों तरफ से खूनी संघर्ष का दौर शुरू हुआ. जिसने 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) को जन्म दिया. 1977 में सत्ता में आए जूनियस रिचर्ड जयवर्धने ने मामले को संभालने की काफी कोशिश की. उन्होंने तमिल क्षेत्रों में तमिल भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया, स्थानीय सरकारों में तमिलों को ज्यादा अधिकार दिए लेकिन सारे प्रयास नाकाफी साबित हुए. बात उस वक्त और बिगड़ गई जब 1983 में लिट्टे ने सेना के एक गश्ती दल पर हमला कर 13 सैनिकों को मार डाला. इसके बाद सिंहला उग्र हो गये और उन्होंने अगले दो दिनों तक जमकर हमले किए जिसमें हजारों तमिलों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद जब हालात हद से ज्यादा बेकाबू हो गये तो 1987 में श्रीलंका ने भारत के साथ समझौता किया जिसके तहत उत्तरी इलाकों में भारतीय शांति सेना कानून व्यवस्था पर नजर रखेगी. भारतीय सेना की मौजूदगी में लिट्टे संघर्ष वीराम के लिए तैयार हो गये थे लेकिन उसके एक गुट स्वतंत्र राष्ट्र की मांग दोबारा उठाकर मामले को फिर भड़का दिया. 1990 में शांति सेना वापस लौटी और 1991 में लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या करके भारतीय हस्तक्षेप का बदला निकाल लिया. इसके बाद 1993 में लिट्टे के अलगाववादियों ने श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा की भी हत्या कर डाली. चंद्रिका कुमारतुंगे के शासनकाल में भी इस समस्या के निपटारे के लिए बहुतरे प्रयत्न किए गये मगर कोई सार्थक परिणाम निकलकर सामने नहीं आए.
1995 में लिट्टे के संघर्ष वीराम का उल्लंधन करने के बाद सेना ने उसके खिलाफ कार्रवाई और तेज कर दी और मामला बढ़ता गया. इतने सालों तक खून की होली खेलने वाले लिट्टे के सफाए के लिए श्रीलंका सरकार अभियान चला रही है तो द्रमुक जैसी पार्टियों के पेट में दर्द हो रहा है, उन्हें लग रहा है कि भारत इस मामले में वैसा विरोध क्यों नहीं दर्ज करा रहा जैसा उसने बांग्लादेश और मालदीप में कि या था. लिट्टे कहते हैं कि उन्हें तमिलों का समर्थन प्राप्त है अगर ऐसा है तो उन्हें बंदूक छोड़कर चुनावी मैदान में उतरना चाहिए. अगर उन्हें अपनी जीत का भरोसा है तो फिर वो ऐसा करने से डर क्यों रहे हैं. यह बात सही है कि यह विवाद भी भेदभाव और पक्षपातपूर्ण सोच के कारण ही उबरा मगर आज इसने विकृत रूप अख्तियार कर लिया है, इसलिए सहानभूति, नरमी और तरस जैसे शब्दों के साथ इसे नहीं तोला जा सकता. समस्या के निपटारे के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा जो रणनीति अपनाई जा रही है वो उसका आंतरिक मामला है और उसमें किसी भी तरह की दखलंदाजी की गुंदाइश नहीं है.
नीरज नैयर
9893121591
1 comment:
बिलकुल सही नीति है यह, खामखा क्यों किसी दूसरे के फ़टे में अपनी टांग अड़ाना? यही नीति हमें कश्मीर और उत्तर-पूर्व में अपनाना चाहिये, सख्ती से कुचले बिना आतंकवाद खत्म होने वाला नहीं है… एक बार "राज्य-सता का डण्डा" दिखाना जरूरी होता है…
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