Friday, November 28, 2008

आम जनता को नहीं मिला चुनावी तोहफा


नीरज नैयर
चुनावी समर में वादे, घोषणाएं और सौगातों की बरसात न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. सत्तासीन सरकार की दरयादिली चुनाव के वक्त ही नजर आती है. किसानों के कर्ज माफी, वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी और अभी हाल ही में सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतन में भारी-भरकम वृद्धि केंद्र सरकार की पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और आने वाले लोकसभा चुनाव में हित साधने की कवायद का ही हिस्सा है. लेकिन इस कवायद में आम जनता की अनदेखी का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है.

महंगाई के आंकड़े खुद ब खुद राजनीति के शिकार होने की दास्तां बयां कर रहे हैं. जो मुद्रास्फीति चांद के पार जाने को आमादा थी वो चुनाव आते ही यकायक पाताल की तरफ कैसे जाने लगी यह सोचने का विषय है. वैसे सोचने का विषय न भी होता अगर बढ़े हुए दाम भी महंगाई दर के साथ नीचे आ जाते, पर अफसोस की ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में लगी आग और कंपनियों को हो रहे वित्तीय घाटे का हवाला देते हुए केंद्र सरकार कई बार पेट्रोल-डीजल के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि कर चुकी है. लेकिन अब जब कच्चा तेल 45 डॉलर प्रति बैरल पर सिमट गया है तब भी सरकार मूल्यों में कमी करके जनता के भार को हल्का करने की जहमत नहीं उठा रही. जब सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह स्वयं कह चुके हैं कि दाम नहीं घटेंगे तो फिर आम जनता को अपने चुनावी तोहफे की बांट जोहना छोड़ देना चाहिए. इसी साल 11 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमत 147.27 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी, इसके बाद सरकार ने मजबूरी प्रकट करते हुए पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी का ऐलान किया था. सरकार ने तर्क दिया गया था कि घाटा इतना बढ़ गया है कि कीमतें थाम पाना असंभव है. सरकार की योजना तो मार्च 2009 तक हर महीने पेट्रोल की कीमत में प्रति लीटर ढाई रुपये और डीजल में 2010 तक 75 पैसे वृध्दि की थी मगर वो उसमें सफल नहीं हो पाई.

बीच में भी जब तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 65 डॉलर प्रति बैरल के नीचे पहुंच गई तब भी दाम घटाने की खबरों का सरकार ने खंडन किया था. तब कहा गया कि अभी पुराना घाटा ही पूरा किया जा सका है. यह भी कहा गया था कि तेल कंपनियां वास्तविक लाभ की स्थिति में तब आएंगी, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत 60 डॉलर पर पहुंच जाएगी, लेकिन अब तो कच्चा तेल सरकार द्वारा बताई गई कीमत से काफी नीचे आ गया है लेकिन केंद्र को अब भी परेशानी हो रही है. सरकार को डर है कि तेल की कीमत में फिर उछाल आ सकता है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में माना जा रहा है कि आने वाले दिनों मे कीमतें और नीचे जाएंगी. दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी से पूर्व यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं. लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. अमेरिका और यूरोपीय बाजारों में आर्थिक मंदी के चलते तेल की मांग घटने से ही कीमतों में गिरावट का रुख है और तेल उत्पाद देश पहले ही उत्पादन बढ़ा चुके हैं. दुनिया भर के तमाम विशेषज्ञ भी कह चुके हैं कि हाल-फिलहाल मंदी के महमानव से छुटकारा नहीं मिलने वाला ऐसे में तेल की कीमतों में इजाफा होने की बात बेमानी है.

दरअसल सरकार का सारा ध्यान इस बात लोक-लुभावन घोषणाएं करके अपने पक्ष में माहौल बनाने पर है. इसलिए उसने विधानसभा चुनावों से ऐन पहले सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतनमानों में 300 फीसदी तक की बढाेतरी की है. तेल की राजनीति हमारे देश में शुरू से ही होती रही है. एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी कीमतों के घोड़े खूब दौड़ाए गये थे लेकिन गनीमत यह रहती थी कि सरकार ने रोलबैक का प्रावधान भी खोल रखा था. ममता बनर्जी के तीखे विरोध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को एक बार कदम कुछ वापस खींचने पड़े थे. सरकारें हमेशा तेल पर नुकसान का रोना रोती रहती हैं जबकि कहा जा रहा है कि एक लीटर पेट्रोल में उसे दस रुपये से ज्यादा का मुनाफा होता है. टैक्स की मार भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है जिसके चलते तेल उत्पादों की कीमतें अन्य देशों के मुकाबले ऊंची रहती हैं. मौजूदा हालात में जहां चीन ने पेट्रोल-डीजल कीमतों में कुछ कमी कर दी हमारी सरकार अत्याधिक मुनाफा कमाकर अपने चुनावी हित साधने में लगी है.
नीरज नैयर
9893121591

Monday, November 24, 2008

श्रीलंका पर भारत की सोच सही

नीरज नैयर
श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ चल रहे अभियान का व्यापक असर देखने को मिल रहा है. लिट्टे अपने ही गढ़ में घिरते जा रहे हैं और श्रीलंकाई सेना उन्हें ढूढ़-ढूढ़कर मौत के घाट रही है. काफी वक्त के बाद किसी लंकाई राष्ट्रपति ने इस हद तक जाने की चेष्टा दिखाई है. महिंद्र राजपक्षे के कार्यकाल में लिट्टे के खिलाफ छेड़ा गया यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है. राजपक्षे लिट्टे के सफाए को दृढं संकल्पित नजर आ रहे हैं जो अमूमन अशांत रहने वाले श्रीलंका के लिए शुभ संकेत है. भारत सरकार भी लिट्टे के खात्मे को सही मान रही है इसलिए अपने सहयोगी दलों के हो-हल्ले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महेंद्र राजपक्षे से महज इतना भर कहा कि तमिलों की सुरक्षा का ख्याल रखा जाए. उन्होंने संघंर्ष वीराम जैसी कोई शर्त श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की. इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि लिट्टे भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा है और उसने ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. ऐसे में दम तोड़ रहे लिट्टे के खिलाफ किसी तरह की नरमी सरकार की छवि को प्रभावित कर सकती थी. लेकिन मनमोहन सिंह ने बड़ी सूझबूझ के साथ काम लिया.
एक तरफ वो द्रमुक आदि दलों की मांग को श्रीलंका सरकार के सामने रखकर उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हम भी आप की चिंता से चिंतित हैं वहीं दूसरी तरफ लंकाई सेना के अभियान पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उन्होंने यह भी जता दिया कि भारत श्रीलंका के साथ है. तमिलनाडु के राजनीतिक दल शुरू से ही यह समझते रहे हैं कि लिट्टे से जुड़े तमिल उनके भाई बंधू हैं, इसलिए लिट्टे के पक्ष में वहां से तरह-तरह की खबरें सामने आती रहती हैं. अभी हाल ही में लिट्टे के समर्थन को लेकर प्रमुख राजनीतिक दल के नेता को हिरासत में भी लिया गया था. कुछ राजनीतिक पार्टियां जैसे पीएमके, टीएनएम, दलित पैंथर्स आफ इंडिया ने भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पृथक तमिल राष्ट्र बनाने में मदद करने का अनुरोध भी किया था. इन सियासी दलों का यह मानना है कि श्रीलंकाई सेना निर्दोष तमिलों को मार रही है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. हां इतना जरूर है कि तमिल बहुसंख्य वाले इलाकों में चल रहे युद्व के कारण लाखों तमिल शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं. लेकिन इसे गलत नजरीए से नहीं देखा जा सकता. पंजाब में आतंकवाद का सफाया करने के लिए सुपरकॉप केपीएस गिल ने जिस तरह की रणनीति अपर्नाई थी उसे लेकर भी काफी आलोचना हुई थी मगर अंजाम आज सबके सामने है. लिट्टे श्रीलंका के लिए ऐसी समस्या बन गये हैं जिसने वर्षों तक देश को आगे नहीं बढ़ने दिया.
गृहयुद्व की स्थिति के चलते न तो आर्थिक मोर्चे पर श्रीलंका को कोई खास सफलता हासिल हुई और न ही विश्व मंच पर वो अपनी दमदार पहचान बना पाया. उल्टा उसे कई बार वैश्विक समुदाय के दबाब का सामना जरूर करना पड़ा. हर रोज चलने वाले युद्व की वजह से वहां हालात यह हो गये हैं कि मुद्रास्फीति की दर 25 फीसदी की रफ्तार कायम किए हुए है. कुछ वक्त पहले श्रीलंका क्रिकेट र्बोर्ड ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड से आर्थिक सहायता की मांग भी की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. लंकाई सरकार को हर साल लिट्टे से संघर्ष के लिए एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ रही है. जिसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है. 2002 में लिट्टे और सरकार के बीच हुए संघर्ष वीराम के बाद काफी हद तक स्थिति संभलती नजर आ रही थी लेकिन जल्द ही सबकुछ हवा हो गया. श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र बनाने की मांग और विवाद का सिलसिला काफी पुराना है. श्रीलंका की आजादी से पूर्व जब अंग्रेजों ने चाय और कॉफी की खेते के लिए तमिलों को यह बसाना शुरू किया तो सिंहलों के मन यह डर घर करने लगा कि कहीं उन्हें अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बना दिया जाए. श्रीलंका में सिंहल आबादी तमिलों की अपेक्षाकृत अधिक है. इसलिए उनका विरोध भी प्रभावशाली रहा. 1948 में श्रीलंका की आजादी के बाद सत्ता सिंहला समुदाय के हाथ आई और उसने सिंहला हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. सिंहला भाषा को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाया गया, नौकरियों में सबसे अच्छे पद सिंहला आबादी के लिए आरक्षित किए गये. 1972 में श्रीलंका में बौद्व धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित करने के साथ ही विश्वविद्यायलों में तमिलों के लिए सीटें घटा दी गई.
अपने खिलाफ हो रहे सौतेले बर्ताव से तमिलों को धैर्य जवाब देने लगा और उन्होंने देश के उत्तर एवं पूर्वी हिस्सों में स्वायत्तता की मांग करनी शुरू कर दी. इसके बाद दोनों तरफ से खूनी संघर्ष का दौर शुरू हुआ. जिसने 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) को जन्म दिया. 1977 में सत्ता में आए जूनियस रिचर्ड जयवर्धने ने मामले को संभालने की काफी कोशिश की. उन्होंने तमिल क्षेत्रों में तमिल भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया, स्थानीय सरकारों में तमिलों को ज्यादा अधिकार दिए लेकिन सारे प्रयास नाकाफी साबित हुए. बात उस वक्त और बिगड़ गई जब 1983 में लिट्टे ने सेना के एक गश्ती दल पर हमला कर 13 सैनिकों को मार डाला. इसके बाद सिंहला उग्र हो गये और उन्होंने अगले दो दिनों तक जमकर हमले किए जिसमें हजारों तमिलों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद जब हालात हद से ज्यादा बेकाबू हो गये तो 1987 में श्रीलंका ने भारत के साथ समझौता किया जिसके तहत उत्तरी इलाकों में भारतीय शांति सेना कानून व्यवस्था पर नजर रखेगी. भारतीय सेना की मौजूदगी में लिट्टे संघर्ष वीराम के लिए तैयार हो गये थे लेकिन उसके एक गुट स्वतंत्र राष्ट्र की मांग दोबारा उठाकर मामले को फिर भड़का दिया. 1990 में शांति सेना वापस लौटी और 1991 में लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या करके भारतीय हस्तक्षेप का बदला निकाल लिया. इसके बाद 1993 में लिट्टे के अलगाववादियों ने श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा की भी हत्या कर डाली. चंद्रिका कुमारतुंगे के शासनकाल में भी इस समस्या के निपटारे के लिए बहुतरे प्रयत्न किए गये मगर कोई सार्थक परिणाम निकलकर सामने नहीं आए.
1995 में लिट्टे के संघर्ष वीराम का उल्लंधन करने के बाद सेना ने उसके खिलाफ कार्रवाई और तेज कर दी और मामला बढ़ता गया. इतने सालों तक खून की होली खेलने वाले लिट्टे के सफाए के लिए श्रीलंका सरकार अभियान चला रही है तो द्रमुक जैसी पार्टियों के पेट में दर्द हो रहा है, उन्हें लग रहा है कि भारत इस मामले में वैसा विरोध क्यों नहीं दर्ज करा रहा जैसा उसने बांग्लादेश और मालदीप में कि या था. लिट्टे कहते हैं कि उन्हें तमिलों का समर्थन प्राप्त है अगर ऐसा है तो उन्हें बंदूक छोड़कर चुनावी मैदान में उतरना चाहिए. अगर उन्हें अपनी जीत का भरोसा है तो फिर वो ऐसा करने से डर क्यों रहे हैं. यह बात सही है कि यह विवाद भी भेदभाव और पक्षपातपूर्ण सोच के कारण ही उबरा मगर आज इसने विकृत रूप अख्तियार कर लिया है, इसलिए सहानभूति, नरमी और तरस जैसे शब्दों के साथ इसे नहीं तोला जा सकता. समस्या के निपटारे के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा जो रणनीति अपनाई जा रही है वो उसका आंतरिक मामला है और उसमें किसी भी तरह की दखलंदाजी की गुंदाइश नहीं है.
नीरज नैयर
9893121591

Monday, November 17, 2008

भारत की परेशानी बढ़ाएंगे ओबामा!

जार्ज डब्लू बुश के उत्तराधिकारी के रूप में बराक हुसैन ओबामा की ताजपोशी के बाद अब अमेरिका से भावी संबंधों को लेकर आकलन शुरू हो गया है. पिछले कुछ सालों में भारत-अमेरिका एक दूसरे के काफी करीब आए हैं. खासकर परमाणु करार ने दोनों देशों के बीच की दूरी पाटने में अहम किरदार निभाया है जिस तरह से बुश प्रसाान ने पाकिस्तान को एकतरफा मदद देने की आदत को छोड़कर भारत से द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का प्रयास किया ठीक वैसी ही आशा ओबामा से की जा रही है. महात्मा गांधी के प्रशंसक और हनुमान भक्त की अपनी छवि के चलते ओबामा न केवल भारतीय अमेरिकी बल्कि भारत में रहने वाले लोगों के दिल में भी रच-बस गये हैं. भारतीय मीडिया ने भी उन्हें सिर-आंखों पर बैठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें हमेशा मैक्केन के मुकाबले तवाो दी गई. उनके कथनों को प्रमुखता से प्रकशित किया गया. कुछ वक्त के लिए तो ऐसा लगा जैसे या तो हम अमेरिकी हो गये हैं या फिा ओबामा भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं. डेमोक्रेट से उम्मीदवारी तय होने से लेकर व्हाइट हाउस के सफर तक उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया गया. लिहाजा अब उनसे अपेक्षाएं भी बड़ी-बड़ी की जा रही हैं.

भारतीय यह मानकर चल रहे हैं कि संबंधों में मधुरता की दिशा में जो थोड़ी बहुत कसर बुश के कार्यकाल में रह गई थी उसे ओबामा पूरा कर देंगे. लेकिन अंकल सैम की विदाई को लेकर दिल्ली में जो मायूसी दिखाई दे रही है उससे साफ है कि ओबामा के साथ बेहतर भविष्य को लेकर भारतीय नेतृत्व भी कहीं न कहीं आशंकित है. भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर जिस तरह का रुख ओबामा ने अपनाया था उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ओबामा ने खुलकर भारत को छूट देने की मुखालफत की थी. इसलिए अब यह देखने वाली बात होगी कि वो करार पर नये सिरे से क्या रुख अख्तियार करते हैं. वैसे ऐसी भी आशंका जताई जा रही है कि ओबामा भारत को न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीट्री पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर सकते हैं. उस स्थिति में करार पर प्रश्चिन्ह लग जाएगा और भारत को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा. इसके साथ ही कश्मीर पर ओबामा ने पूर्व में जो संकेत दिए थे अगर वो उस पर कायम रहते हैं तो निश्चित ही भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. बराक ओबामा ने मतदान से कुछ दिन पूर्व कहा था कि हमें कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में कोशिश करनी चाहिए, इससे पाकिस्तान की चिंता भारत की तरफ से हट जाएगी और वह आतंकवादियों पर ध्यान केंद्रित कर सकेगा. जुलाई 2007 में विदेश नीति पर लिखे अपने लेख में ओबामा ने कहा था कि हम कश्मीर इश्यू को सुलझाने में भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता को प्रोत्साहित करेंगे. ओबामा ने यह भी कहा था कि वो पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को कश्मीर विवाद के निपटारे के लिए विशेष दूत बनाकर भेजेंगे. भारत शुरू से ही कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा बताता रहा है. उसे न तो किसी का दखलंदाजी वाला रवैया पसंद है और न ही वो पसंद करने वाला है. बुश के कार्यकाल में भी जब जनमत संग्रह जैसी बातें उठी थी तो भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. लिहाजा दोनों देशों के रिश्तों में काफी कुछ इसबात पर निर्भर करेगा कि ओबामा कश्मीर को कितनी तवाो देते हैं.

वैसे ओबामा के एजेंडे में इस वक्त ईरान, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मुख्य रूप से शामिल हैं. ओबामा ईरान से चल रही तनातनी को जल्द खत्म करना चाहेंगे. बुश के साथ ईरान के संबंध किस कदर बिगड़ गये थे यह किसी से छिपा नहीं है. बात युद्ध तक पहुंच गई थी और अगर गर्माहट थोड़ी भी बढ़ जाती तो ईरान को भी इराक बनते देर नहीं लगती. ओबामा इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों की दशा पर पहले ही चिंता जता चुके हैं. ऐसे में उनकी कोशिश होगी कि इराक को वहां के हुक्मरानों के हवाले करके सेना को उस नरकीय जिंदगी से बाहर निकाला जाए. इसके बाद ओबामा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से रिश्ते दुरुस्त करने की तरफ आगे बढ़ेंगे. पाकिस्तान से भी अमेरिका के रिश्ते पिछले कुछ वक्त से ठीक नहीं चल रहे हैं. आतंकवादियों पर पाक सीमा में घुसकर हमले संबंधी खुलासे के बाद जिस लहजे में पाक प्रधानमंत्री गिलानी ने बयानबाजी की थी उससे दोनों के रिश्तों में और तल्खी आ गई थी. भारत से परमाणु करार से पहले तक पाकिस्तान अमेरिका का विश्वस्त मित्र और सैनिक साजो-सामान का बहुत बड़ा खरीददार रहा है. पाकिस्तानी सेना की करीब 90 प्रतिशत खुराक अमेरिका की पूरी करता रहा है. ऐसे में ओबामा पाक पर पहले जैसी मेहरबानी दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. हालांकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा ने यह कहकर कि पाक आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता है, यह संकेत दिए थे कि वो पाक के साथ बेवजह नरमी नहीं बरतने वाले लेकिन इसे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर वोट खींचने की कवायद के रूप में देखना गलत नहीं होगा. ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन के साथ उम्मीदवारी पाने के द्वंद्व में यह भी कहा था कि वो आउटसोर्सिंग को अमेरिकी कामगारों के खिलाफ हिंसा मानते हैं क्योंकि इसके जरिए इन लोगों के रोजगार दूसरे देशों को भेजे जा रहे हैं.

गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आउटसोर्सिंग के चलते कई कंपनियां यहां फली फूलीं. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध हुए हैं. इनमें इफॉम्रमेशन टैक्नोलाजी का सबसे बड़ा हिस्सा है. अब चूंकि ओबामा व्हाइट हाउस की गद्दी पर काबिज हो गये हैं इसलिए हो सकता है कि वो इस बारे में भी कुछ ऐसे कदम उठाएं जो भारत के लिहाज से अच्छे न हों. ओबामा का चुना जाना निश्चित ही अमेरिका के इतिहास में बहुत ही ऐतिहासिक क्षण हैं लेकिन भारत के लिए यह बदलाव खुशियों की बयार लेके आएगा ऐसी उम्मीदें पालना भी बेमानी होगा.
नीरज नैयर
9893121591

Sunday, November 9, 2008

कठघरे में न्यायपालिका

नीरज नैयर
हमें अक्सर खाकी वर्दी की आड़ में रिश्वत लेते हाथ तो नजर आते हैं मगर काले कोट की कालिख कभी नहीं दिखाई देती. अब तक हमें लगता था कि भ्रष्टाचार केवल कुछ सरकारी महकमों और पुलिस तक ही सीमित है लेकिन अब यह अभास होने लगा है कि इसकी पहुंच न्यायपालिक तक भी हो गई है. उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित पीएफ घोटाले में जिस तरह से 36 जजों के नाम सामने आए हैं उससे न्यायाधीशों की न्यायिक जवाबदेही तय करने की जरूरत फिर से महसूस होने लगी है.इस मामले में जिन जजों का नाम लिया जा रहा है उनमें इलाहाबाद हाईकोर्ट, उत्तरांचल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल हैं. इनमें एक जज उच्चतम न्यायालय, दो उच्च न्यायालयों के 11 जज (जिनमें कुछ सेवा में हैं और कुछ सेवानिवृत हो चुके हैं)और जिला एवं अतिरिक्त जिला जज स्तर के 24 अन्य न्यायाधीश लिप्त बताए जा रहे हैं. इसे देश की न्यायपालिका के इतिहास में भ्रष्टाचार और धोखाधडी क़ा सबसे बड़ा मामला कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी.

एक साथ इतने सारे जजों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता का मामला शायद ही कभी सुनने में आया हो. लंबे समय तक चले इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के मामले में कर्मचारी भविष्य निधि यानी पीएफ फंड से फर्जी नामों के सहारे बडी धनराशि निकाली गई और उनके लिए फर्जी खाते भी खुलवाए गये. जहां चैकों का भुगतान किया गया. यह धनराशि गाजियाबाद जिला अदालत के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने बड़े-बड़े जजों को महंगे उपहार और उनके बिलों के भुगतान के लिए निकलवाई थी. वैसे यह कोई अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसने न्यायपालिका को खुद कठघरे में खड़ा कर दिया हो, ऐसे मामलों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त है. उत्तर प्रदेश के साथ ही कोलकाता, हरियाण एवं पंजाब के कुछ जजों ने जिस तरह से न्याय के मंदिर से नाटों का कारोबार किया उसने न सिर्फ न्यायपालिका की छवि को तार-तार किया है बल्कि न्याय की खातिर अदालत की चौखट तक पहुंचने वालों के मन में डर और संशय कायम करने में भी अहम भूमिका निभाई है. कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर जहां महाभियोग चलाने की तैयारी हो रही है वहीं पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की जज निर्मला यादव को न्यायिक कार्यों के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है. सेन पर 1993 में कोर्ट के रिसीवर के रूप में भारत इस्पात प्राधिकरण्र और भारत जहाजरानी निगम के बीच फायरब्रिक्स से जुड़े मामले के मुकदमें में 32 लाख रुपए की रिश्वत का आरोप है. ऐसे ही निर्मला यादव भी 15 लाख की रिश्वत के केस में उलझी हुई हैं.

भले ही दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए हों मगर न्यायपालिका में इस कदर बढ़ते भ्रष्टाचार ने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या जजों को कानूनी संरक्षण देना जायज है. न्यायाधीश अपने द्वारा बनाई गई चार दीवारी के भीतर भ्रष्टाचार का हिस्सा बनने का साहस इसलिए जुटा पाते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि तमाम कानूनी झंझावत और अवमानना की ढाल के सहारे वो बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत सकते हैं. पीफए घोटाले में गाजियाबाद कोर्ट के नजीर आशुतोष अस्थाना के 36 जजों के नाम गिनाए जाने के बाद भी आला पुलिस अधिकारी जजों से पूछताछ को लेकर बगले झांकते रहे. दरअसल किसी भी जज के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति लेने संबंधी कानून के चलते पुलिस भी ऐसे मामलों में हाथ डालने से बचती है जिससे किसी न्यायाधीश का नाम जुड़ा हो. खुद पुलिस अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं. वैसे जजों को प्राप्त कानूनी संरक्षण को लेकर स्थिति पूरी तरह साफ नहीं है. कुछ जानकारों का मानना है कि जजों को सिर्फ ऐसे दीवानी और आपराधिक मामलों में कानूनी संरक्षण हासिल है जो उनके डयूटी पर रहते हुए या कोई कानूनी कर्तव्य निभाते हुए होते हैं. वहीं कुछ विशेषज्ञों कुछ अनुसार अगर कोई जज रिश्वत लेते या गैर कानूनी रूप से तोहफा स्वीकारता है तो यह उनकी कोई सरकारी डयूटी नहीं है और ऐसे मामलों में कानून पुलिस को जांच-पड़ताल से नहीं रोक सकता, कानून महज मुकदमा चलाने से रोक सकता है. निचली अदालतों में पैसा देकर अपने पक्ष में फैसला सुनाने के तमाम मामले सामने आ चुके हैं पर अफसोस कि आरोपी को दोषी सिद्ध करने और उसे समुचित दंड देने की बातें सामने नहीं आती. न्यायपालिका से जुड़ चंद लोगों ने भारतीय न्याय व्यवस्था को किस कदर नीलाम कर रखा है इसका अंदाजा राजस्थान के उस चर्चित मामले से लगाया जा सकता है जिसमें एक जज ने पक्ष में फैसला सुनाने के के लिए सेक्स की मांग की थी. वहीं अहमदाबाद के मैट्रोपोलिटियन मजिस्टे्रट ने 40,000 के एवज में बिना सोच-समझे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था. न्याय व्यवस्था का आशय है दोषी को सजा मिले, याची को सही समय पर न्याय मिले, निर्दोष को लंबे समय तक बेवजह जेल की दीवारों से सिर न टकराना पड़े लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाली न्यायपालिका खुद भ्रष्टाचार के भंवर में फंसती जा रही है. कुछ वक्त पहले तक इस तरह की घटनाएं शायद नहीं होती थी मगर अब आए दिन ऐसे मामले सुनने में आते रहते हैं. ऐसी घटनाओं से यह लगने है कि न्यायाधीश बनने के बाद कुछ लोग अनुशासनहीन, भ्रष्टाचारी बन गये हैं उनका आचरण और कार्य पद की मर्यादा तथा उसकी गरिमा के खिलाफ होने लगा है. न्यायपालिका में बढ़ती इस प्रवति पर रोक के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने का सही वक्त अब आ गया है अगर अब भी इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो जो थोड़ा बहुत विश्वास न्यायपालिका में कायम है वो भी काफुर हो जाएगा.

लगते रहे दाग
-भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार महाभियोग प्रस्ताव 1993 में वी. रामास्वामी के खिलाफ लाया गया था. पंजाब और हरियाणा के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए पद के दुरुपयोग के दोषी पाए गये थे. हालांकि कांग्रेस सदस्यों की गैरहाजिरी के चलते उनका कुछ नहीं बिगड़ पाया था. -देश के पूर्व चीफ जस्टिस वाई.के. सब्बरवाल पर दिल्ली में सीलिंग के दौरान प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के उलट आदेश जारी करने का आरोप लगा था. इसके साथ ही उनपर अपने परिवार के व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने का भी आरोप लगा.
-सुप्रीम कोर्ट के जज एम.एम. पंछी पर न्यायिक उत्तरदायित्व समिति ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. महाभियोग के लिए सांसदों के समर्थन मिलने से पहले वो भारत के मुख्य न्यायाधीश बन गए थे.
-गाजियाबाद कोर्ट के पूर्व केंद्रीय कोषागार अधिकारी आशुतोष अस्थाना ने आठ सालों तक न्यायिक अधिकारियों ये साठगांठ कर जजों को उपहार देने के लिए ट्रेजरी फंड से सात करोड़ रुपए की हेराफेरी की.
-पंजाब और हरियाणा की जस्टिस निर्मल यादव को 15 लाख की रिश्वत के आरोप में न्यायिक दायित्वों से मुक्त कर दिया गया है. इस मामले का खुलासा तब हुआ जब निर्मल को मिलने वाली रकम गलती से दूसरी जज के घर पहुंच गई और उन्होंने पुलिस को बुलाकर रिश्वत देने वाले को पकड़वा दिया.
-न्यायाधीश ए.एस आनंद पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ कोई आरोप साबित नहीं हो पाया.
-वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को न्याय में बाधा डालने का दोषी करार देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने चार महीने के लिए उनकी वकालत पर रोक लगाने के साथ-साथ दो हजार का जुर्माना भी लगाया था. दोनों पर बीएमडब्लू मामले में एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर प्रमुख गवाह को रिश्वत देकर बयान बदलने के लिए दबाव डालने का दोषी पाया गया था.

महाभियोग की कठिन डगर
कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन पर भले ही महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी हो रही हो मगर इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है. कानून कवच के चलते सेन भी रामस्वामी की तरह साफ बचके निकल सकते हैं. उन्हें पद से हटाए जाने का प्रस्ताव तभी पेश किया जा सकेगा जब लोकसभा के 100 सांसदों और राज्यसभा के 50 सांसदों का इसे समर्थन मिले. हालांकि यूपीए सरकार के लिए इसे जुटाना कोई टेढ़ी खीर नहीं होगी मगर इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है वो शायद कांग्रेस में नही है. कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना उतना आसान नहीं है जितना दिखाई देता है. 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामस्वामी के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली. महालेखाकार ने उनके आवास की फर्निशिंग के काम में भारी विसंगतियां पाईं थीं. रामस्वामी पर यह भी आरोप था कि परिवार द्वारा किए गये फोन कॉल्सों की धनरााशि प्राप्त करने के लिए उन्होंने गलत तरीके से दावा किया था. लेकिन रामस्वामी के खिलाफ प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हो पाया. सेन के मामले में भी सियासी खींचतान के चलते महाभियोग प्रक्रिया बाधित हो सकती है. हो सकता है लोकसभा पहले ही भंग कर दी जाए और महाभियोग प्रक्रिया अधर में लटक जाए. यह प्रक्रिया दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों पर भी निर्भर है लेकिन इस मुद्दे पर उनके दृष्टिकोण अभी तक स्पष्ट नहीं हैं.

उम्मीद की किरण
न्यायापालिका के दामन पर लगते भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण जजों की जवाबदेही तय नहीं होना है. लेकिन जजों के खिलाफ जांच के लिए न्यायिक परिषद के गठन का जो फैसला केंद्र सरकार ने लिया है उसे उम्मीद की एक किरण जरूर कहा जा सकता है. न्यायिक परिषद की स्थापना का उद्देश्य न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाना तथा उसकी साख बढाना है. न्यायाधीश जांच संशोधन विधेयक 2008 संसद में 2006 में पेश किए गए इसी नाम के विधेयक के स्थान पर लाया जाएगा. नए विधेयक में पिछले विधेयक के बारे में संसद की स्थाई समिति की सिफारिशों को शामिल किया गया है.