नीरज नैयर
परमाणु करार के बाद फेडरल एजेंसी को लेकर देश की सियासत गर्माई हुई है. यूपीए सरकार के प्रस्ताव पर अधिकतर राज्य नाक-मुंह सिकोड़े हुए हैं. उनका मानना है कि केंद्र सरकार फेडरल एजेंसी के नाम पर उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप की योजना बना रही है. जबकि असलियत में ऐसा कुछ भी नहीं है. बीते कुछ समय में जिस तरह से आतंकवादी वारदातों में इजाफा हुआ है, उसने राज्य सरकारों की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है. बेंगलुरु धमाकों के वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से आतंकवादियों को ललकार रहे थे अहमदाबाद धामाकों के बाद उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही है. हालात यह हो चले हैं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में हर तीसरे माह सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं, जिनकी जांच पड़ताल तो दूर की बात है इनमें शामिल आतंकी संगठनों के सुराग तक राज्यों की पुलिस नहीं लगा पाई है. पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों ने साल 2001 से अब तक विभिन्न वारदातों में करीब 69 बड़े धामाके किए, इनमें से ज्यादातर को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है. जांच एजेंसियों ने अधिकतर मामलों में जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदी, हूजी और सिमी आदि संगठनों पर ऊंगली उठाई है मगर ऐसे किसी व्यक्ति को पकड़ने में उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है, जो इन मामलों का मास्टरमांइड हो. बावजूद इसके फेडरल एजेंसी की मुखालफत समझ से परे है. रक्षा विशेषज्ञ भी मौजूदा वक्त में एक ऐसी एजेंसी की जरूरत दर्शा चुके हैं जो सीमाओं के फेर में न उलझे. सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह और सी. उदय भास्कर का मानना है कि तमाम इंतजामों के होते हुए आतंकवादी वारदातें समन्वय की कमी को दर्शाती हैं. दो राज्यों की पुलिस में कोई तालमेल नहीं होता, लिहाजा केंद्रीय जांच एजेंसी का होना जरूरी है. ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे देश में आतंकवाद पर भी राजनीति होती है. भाजपा हर धमाके के बाद पोटा का रोना रोने लगी है जबकि इससे इतर भी कुछ सोचा जा सकता है. अमेरिका आदि देशों में भी तो सियासत का रंग यहां से जुदा नहीं है मगर वहां आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एक दूसरे की टांग खींचने के बजाए मिलकर काम किया जाता है. अमेरिका ने अलकायदा का नामों निशान मिटाने के लिए इराके के साथ जो किया क्या वो हमारे देश में मुमकिन है? शायद नहीं. राज्य सरकारों अपनी सुरक्षा व्यवस्था की चाहें लाख पीठ थपथपाएं मगर सच यही है कि उनका पुलिस तंत्र अब इस काबिल नहीं रहा कि आतंकवादियों से मुकाबला कर सके. इसमें सुधार अत्यंत आवश्यक है पर राज्य इसके प्रति भी गंभीर नहीं दिखाई देते. केंद्र सरकार से हर साल पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर मिलने वाली भारी- भरकम रकम का सदुपयोग भी राज्ये नहीं कर पा रहे हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुए में से डेढ़ हजार करोड़ बिना खर्च के पड़े हुए हैं. इस योजना के तहत देश के सभी 13 हजार थानों को सूचना प्रौघोगिकी से लैस करना, पुलिस को अत्याधुनिक हथियार मुहैया करवाना और स्थानीय खुफिया तंत्र मजबूत करना है. लेकि न कुछ सालों से थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद हो रहे धमाके पुलिस आधुनिकीकरण की असलीयत सामने लाने के लिए काफी हैं. केंद्रीय गृहमंत्रालय 2005 से ही इस योजना के तहत जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों का सारा भार खुद ही वहन करता है जबकि अन्य राज्यों को 75 प्रतिशत सहायता देते है, लेकिन राज्यों से अपने हिस्से का 25 जुटाना भी भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि हर साल करोड़ों रुपए खर्च नहीं हो पाते. मौजूदा वक्त में आतंकवाद का स्वरूप जितनी तेजी से बदला है उतनी तेजी से राज्य अपने आप को तैयार नहीं कर पाए हैं. पहले आतंकवाद का स्वरूप क्षेत्रिय था पर अब अखिल भारतीय हो गया है. आतंकवादी सुरक्षा व्यवस्था की खामियों की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य घूमते रहते हैं ताकि उन खामियों का फायदा उठाया जा सके. ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए तरीका भी अखिल भारतीय होना चाहिए. राज्य अकेले इस खतरे से अपने बलबूत नहीं निपट सकते. केंद्र सरकार काफी लंबे समय से फेडरल एजेंसी की वकालत कर रही है. जयपुर धामाकों के बाद भूटान यात्रा से लौटते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इसके गठन के संकेत भी दिए थे लेकिन राज्यों की उदासीनता और डर के चलते कुछ नहीं हो सका. केंद्र की तरफ से इस बाबत राज्यों से राय मांगी गई, जिसमें से कुछ ने तो साफ इंकार कर दिया और कुछ अब तक जवाब देने की जहमत नहीं उठा पाए हैं. अमेरिका,रूस,चीन और जर्मनी आदि देशों में आतंकवाद के मुकाबले के लिए फेडरल एजेंसी मौजूद है. शायद तभी आतंकवादी वहां कदम रखने से खौफ खाते हैं. अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अब तक कोई बड़ी आतंकी वारदात सुनने में नहीं आई. जबकि अमेरिका अलकायदा आदि इस्लामिक आतंकवादी संगठनो के निशाने पर है. लेकिन इस दौरान भारत में न जाने कितने बम फूट चुके हैं. यूपीए की जगह केंद्र में अगर कोई दूसरी सरकार भी होती तो वो भी पोटा को ये ही हश्र करती. क्योंकि अस्तित्व में आने के बाद से ही पोटा के दुरुपयोग की खबरें सामने आना शुरू हो गई थीं. देश में आतंकवाद रोकने के लिए जो कानून हैं वो काफी हैं, जरूरत है तो बस इनको प्रभावी बनाने की. आतंरिक सुरक्षा का जिम्मा राज्यों का मामला होता है, ऐसे में केंद्र चाहकर भी दहशतगर्दो के खिलाफ अभियान नहीं छेड़ सकता. हर वारदात के बाद राज्य सरकारें सारा दोष केंद्र पर मढ़कर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश में लग जाती हैं. बेंगलुरु और अहमदाबाद धमाकों के बाद भी यही हो रहा है. मोदी और येदीयुरप्पा को सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने की सीख देने के बजाए आडवाणी साहब केंद्र की यूपीए सरकार पर दोषारोपण कर रहे हैं. भाजपा आदि दलों को समझना होगा कि ये वक्त आपसी खुंदक निकालने का नहीं बल्कि मिल बैठकर कारगर रणनीति बनाने का है ताकि फिर कोई आतंकी देश की खुशियों के साथ खिलवाड़ न कर सके.
नीरज नैयर
Thursday, August 28, 2008
Tuesday, August 19, 2008
तारीफों के शोर में दबी कराह
Dedicated to someone very close to my heart
नीजर नैयर
मुमताज और शाहजहां की बेपनाह मोहब्बत की निशानी ताजमहल आज भी जहन में प्यार की उस मीठी सुगंध को संजोए हुए है. वर्षों से यह इमारत प्यार करने वालों की इबादतगाह रही है. वक्त के थपेड़ों ने भले ही इसके चेहरे की चमक को कुछ फीका कर दिया हो मगर इसके लब आज भी वो तराना गुनगुना रहे हैं. इसकी हंसी इस बात का सुबूत है कि पाक मोहब्बत आज भी जिंदा है. हमारे दिलों-दिमाग पर ताज की यह तस्वीर हमेशा कायम रहेगी मगर अफसोस कि सच इतना हसीन नहीं है. सच तो यह है कि ताजमहल अब बूढा हो चुका है. उसके चेहरे पर थकान झलकने लगी है. वक्त के थपेड़ों में उसकी मुस्कान कहीं खो गई है. आंखों के नीचे पड़ चुके काले धब्बे उसकी उम्र बयां कर रहे हैं. ताज कराह रहा है मगर उसके कराहने का दर्द तारीफों के शोर में दबकर रह गया है.
मुमताज महल की मौत के बाद उसकी यादों को जिंदा रखने का ख्याल जब शाहजहां के जहन में आया तब ताजमहल का जन्म हुआ. तत्कालिन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने फारसी ग्रंथ में लिखा था कि मुमताज महल की मृत्यु के बाद उनके मकबरे के लिए आगरा शहर के बाहर यमुना नदी के किनारे एक उपयुक्त स्थान चुना गया. ताजमहल की नीवें जलस्तर तक खोदी गईं और फिर चूने-पत्थरों के गारे से उन्हें भरा गया. यह नीव एक प्रकार के कुओं पर बनाई गई. कुओं की नींव पर बनी इस इमारत की लंबाई 997 फीट, चौड़ाई 373 फीट और ऊंचाई 285 फीट रखी गई. ताजमहल के अकेले गुंबद का वजन ही 12000 टन है. ताजमहल को यमुना के किनारे ही क्यों बनाया गया इसके पीछे भी एक महत्वूर्ण तथ्य है. ताजमहल को यमुना के किनारे ऐसे मोड़ पर निर्मित किया गया जहां शुद्ध जल पूरे साल मौजूद रहता था.
इसके चारों ओर घना जंगल था. परिणामस्वरूप यहां वातावरण निरन्तर नम रहता था और यह नमी, धूल व वायु के किसी भी अन्य प्रदूषण को सोख लेती थी. अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो ताजमहल नमी की एक चादर सी ओढ़े रहता था जो इसे प्राकृतिक दुष्प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करती थी. वास्तव में ताजमहल का आंतरिक ढांचा ईंटों की चिनाई से बना है. श्वेत संगमरमर तो केवल इसमें बाहर की ओर लगा है. ताज के निर्माण के लिये विशेष प्रकार की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था. ताजमहल का ढांचा आज भी उतना ही मजबूत है जितना कि पहले था. वायु प्रदूषण से ताजमहल के आंतरिक ढांचे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. प्रदूषण केवल बाहर के संगमरमर को धूमिल कर रहा है. संगमरमर का क्षेय होना भी अच्छा लक्षण नहीं है. वर्तमान स्थिति की अपेक्षा यमुना पहले बारहों महीने भरी रहती थी. यमुना का पानी एकदम स्वच्छ था और पानी ताजमहल से टकराकर उसका संतुलन बनाए रखता था. इस भरी हुई नदी में ताजमहल का प्रतिबिंब साफ नजर आता था. मानो मुस्करा रहा हो. वर्तमान समय में यमुना का जल स्तर पहले की भांति नहीं रहा है और तो और पानी बहुत ही प्रदूषित हो चला है. रासायनिक कूड़े से युक्त शहर के गंदे नाले यमुना को और प्रदूषित कर रहे हैं. ताजगंज स्थित शमशान घाट के पास से बहने वाले नाले का गंदा पानी यमुना में जहां मिलता है वह स्थान ताजमहल के बहुत करीब है. उस जगह को देखकर यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यमुना को जल प्रदूषण से बचाने के लिए क्या कार्य किये जा रहे हैं. ताजमहल के दशहरा घाट पर यमुना किनारे कूड़े का ढेर सा लगा रहता है, जिसमें पॉलीथिन प्रचुर मात्रा में है. दिन-ब-दिन यमुना का पानी प्रदूषित होता जा रहा है.
यमुना के प्रदूषित पानी से निरन्तर गैसें निकलती रहती हैं. जो ताज को क्षति पहुंचा रही है. जाने माने इतिहासकार प्रोफेसर रामनाथ के एक शोध में यह बात सामने आई थी कि ताजमहल यमुना नदी में धंस रहा है. ताज की मीनारें एक ओर झुक रही हैं. वास्तव में इसे बनाने वाले की कला ही कहा जायेगा तो इतने झुकाव के बाद भी मीनारें अभी तक खड़ी है पर ऐसा कब तक चलेगा यह कहना मुश्किल है. वर्तमान समय में ताजमहल जैसी अमूल्य कृति को ज्यादा खतरा यमुना के प्रदूषित जल से है. ताजमहल को वायु प्रदूषण से हो रही क्षति को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बहस हुई मगर इस पर विचार नहीं किया गया कि इमारत धंस रही है. गौरतलब है कि 1893 में यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन ताज के समीप ही बना था. यहां निरन्तर 60 वर्षों से इंजन धुआं भी छोड़ रहे थे. परन्तु जब 1940 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई तो नतीजों में कहीं भी धुएं से ताज को होने वाली क्षति का उल्लेख नहीं था. ऐसा इसलिए कि यमुना का शुध्द जल और आसपास की हरियाली वास्तव में ऐसी कोई क्षति होने ही नहीं देते थे. नदी का स्वच्छ जल निरन्तर इसकी रक्षा करता था.
प्रदूषण के चलते आगरे से बहुत सी फैक्ट्रियों को हटा दिया गया मगर इस अहम समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया. हां यह बात एकदम कही है कि 1940 से अब तक के सफर में वायु प्रदूषण के अस्तित्व में भी इजाफा हुआ है. इसे ताज के संगमरमर को क्षति हुई है. इसके चलते आज ताज का श्वेत रंग थोड़ा काला सा हो गया है. जो निश्चित ही इसकी खूबसूरती के लिये घातक है. इसी के चलते कई बार मथुरा रिफाइनरी पर भी सवाल उठाए गए. आगरे से व्यावसायिक इकाइयों को तो हटा दिया गया मगर प्रदूषण की समस्या जस की तस है. भारत की तरफ पर्यटकों को आकर्षित करने में ताजमहल का अपना ही एक अनोखा योगदान है. ताज की इस छवि को हमेशा के लिए बनाए रखने केलिये सही दिशा में शीघ्र ही कार्य करने की जरूरत है. यमुना है तो ताज है यमुना नहीं तो ताज नहीं. इसलिए नदी के प्रदूषित पानी को स्वच्छ करने के प्रयास करने चाहिए. वर्तमान समय में यमुना का पानी कितना शुध्द है यह बताने की शायद जरूरत नहीं है. कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि नदी का जलस्तर ज्यादा नीचे न जाए. यह समस्या कोई नई नहीं है. कई बार सामने आ चुकी है मगर अफसोस की बात है कि अब तक इसके निपटारे के सार्थक कदम नहीं उठाए गए हैं.
तो नहीं रहता ताज
आज जो ताज हम देख रहे हैं यह शायद होता ही नहीं इसका अस्तित्व कैसे बचा इसके पीछे भी एक अनोखी घटना है. बात उन दिनों की है जब आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था. अंग्रेजी हुकूमत उन दिनों जोरों पर थी. बंगाल के एक दैनिक अखबार में ताज को बेचने के संबंध में विज्ञापन प्रकाशित हुआ इसको पढ़कर मथुरा निवासी एक व्यापारी ने ताज को महज चंद हजार रु. में अपना बना लिया और सब देखते ही रह गये.
इस बीच एक अंग्रेज अफसर ने ऐसे ही उस व्यापारी से पूछा कि आप इस इमारत का क्या करोगे तो व्यापारी ने जवाब दिया कि जनाब करना क्या है. इसे तुड़वाकर संगमरमर निकाल कर बेच देंगे. जवाब सुनने के पश्चात अफसर से रहा नहीं गया कि इतनी खूबसूरत इमारत को सिर्फ इसके संगमरमर के लिए गिरा दिया जायेगा. अफसर ने वहां से उस व्यापारी को तुरन्त निकालने का आदेश दिया और आखिरकार इस भव्य इमारत का अस्तित्व बच गया. एक अंग्रेज अफसर की वजह से ताज हमारी आंखों के सामने है. मगर इसकी खूबसूरती को कायम रखने के लिए हमारे द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.
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नीजर नैयर
मुमताज और शाहजहां की बेपनाह मोहब्बत की निशानी ताजमहल आज भी जहन में प्यार की उस मीठी सुगंध को संजोए हुए है. वर्षों से यह इमारत प्यार करने वालों की इबादतगाह रही है. वक्त के थपेड़ों ने भले ही इसके चेहरे की चमक को कुछ फीका कर दिया हो मगर इसके लब आज भी वो तराना गुनगुना रहे हैं. इसकी हंसी इस बात का सुबूत है कि पाक मोहब्बत आज भी जिंदा है. हमारे दिलों-दिमाग पर ताज की यह तस्वीर हमेशा कायम रहेगी मगर अफसोस कि सच इतना हसीन नहीं है. सच तो यह है कि ताजमहल अब बूढा हो चुका है. उसके चेहरे पर थकान झलकने लगी है. वक्त के थपेड़ों में उसकी मुस्कान कहीं खो गई है. आंखों के नीचे पड़ चुके काले धब्बे उसकी उम्र बयां कर रहे हैं. ताज कराह रहा है मगर उसके कराहने का दर्द तारीफों के शोर में दबकर रह गया है.
मुमताज महल की मौत के बाद उसकी यादों को जिंदा रखने का ख्याल जब शाहजहां के जहन में आया तब ताजमहल का जन्म हुआ. तत्कालिन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने फारसी ग्रंथ में लिखा था कि मुमताज महल की मृत्यु के बाद उनके मकबरे के लिए आगरा शहर के बाहर यमुना नदी के किनारे एक उपयुक्त स्थान चुना गया. ताजमहल की नीवें जलस्तर तक खोदी गईं और फिर चूने-पत्थरों के गारे से उन्हें भरा गया. यह नीव एक प्रकार के कुओं पर बनाई गई. कुओं की नींव पर बनी इस इमारत की लंबाई 997 फीट, चौड़ाई 373 फीट और ऊंचाई 285 फीट रखी गई. ताजमहल के अकेले गुंबद का वजन ही 12000 टन है. ताजमहल को यमुना के किनारे ही क्यों बनाया गया इसके पीछे भी एक महत्वूर्ण तथ्य है. ताजमहल को यमुना के किनारे ऐसे मोड़ पर निर्मित किया गया जहां शुद्ध जल पूरे साल मौजूद रहता था.
इसके चारों ओर घना जंगल था. परिणामस्वरूप यहां वातावरण निरन्तर नम रहता था और यह नमी, धूल व वायु के किसी भी अन्य प्रदूषण को सोख लेती थी. अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो ताजमहल नमी की एक चादर सी ओढ़े रहता था जो इसे प्राकृतिक दुष्प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करती थी. वास्तव में ताजमहल का आंतरिक ढांचा ईंटों की चिनाई से बना है. श्वेत संगमरमर तो केवल इसमें बाहर की ओर लगा है. ताज के निर्माण के लिये विशेष प्रकार की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था. ताजमहल का ढांचा आज भी उतना ही मजबूत है जितना कि पहले था. वायु प्रदूषण से ताजमहल के आंतरिक ढांचे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. प्रदूषण केवल बाहर के संगमरमर को धूमिल कर रहा है. संगमरमर का क्षेय होना भी अच्छा लक्षण नहीं है. वर्तमान स्थिति की अपेक्षा यमुना पहले बारहों महीने भरी रहती थी. यमुना का पानी एकदम स्वच्छ था और पानी ताजमहल से टकराकर उसका संतुलन बनाए रखता था. इस भरी हुई नदी में ताजमहल का प्रतिबिंब साफ नजर आता था. मानो मुस्करा रहा हो. वर्तमान समय में यमुना का जल स्तर पहले की भांति नहीं रहा है और तो और पानी बहुत ही प्रदूषित हो चला है. रासायनिक कूड़े से युक्त शहर के गंदे नाले यमुना को और प्रदूषित कर रहे हैं. ताजगंज स्थित शमशान घाट के पास से बहने वाले नाले का गंदा पानी यमुना में जहां मिलता है वह स्थान ताजमहल के बहुत करीब है. उस जगह को देखकर यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यमुना को जल प्रदूषण से बचाने के लिए क्या कार्य किये जा रहे हैं. ताजमहल के दशहरा घाट पर यमुना किनारे कूड़े का ढेर सा लगा रहता है, जिसमें पॉलीथिन प्रचुर मात्रा में है. दिन-ब-दिन यमुना का पानी प्रदूषित होता जा रहा है.
यमुना के प्रदूषित पानी से निरन्तर गैसें निकलती रहती हैं. जो ताज को क्षति पहुंचा रही है. जाने माने इतिहासकार प्रोफेसर रामनाथ के एक शोध में यह बात सामने आई थी कि ताजमहल यमुना नदी में धंस रहा है. ताज की मीनारें एक ओर झुक रही हैं. वास्तव में इसे बनाने वाले की कला ही कहा जायेगा तो इतने झुकाव के बाद भी मीनारें अभी तक खड़ी है पर ऐसा कब तक चलेगा यह कहना मुश्किल है. वर्तमान समय में ताजमहल जैसी अमूल्य कृति को ज्यादा खतरा यमुना के प्रदूषित जल से है. ताजमहल को वायु प्रदूषण से हो रही क्षति को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बहस हुई मगर इस पर विचार नहीं किया गया कि इमारत धंस रही है. गौरतलब है कि 1893 में यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन ताज के समीप ही बना था. यहां निरन्तर 60 वर्षों से इंजन धुआं भी छोड़ रहे थे. परन्तु जब 1940 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई तो नतीजों में कहीं भी धुएं से ताज को होने वाली क्षति का उल्लेख नहीं था. ऐसा इसलिए कि यमुना का शुध्द जल और आसपास की हरियाली वास्तव में ऐसी कोई क्षति होने ही नहीं देते थे. नदी का स्वच्छ जल निरन्तर इसकी रक्षा करता था.
प्रदूषण के चलते आगरे से बहुत सी फैक्ट्रियों को हटा दिया गया मगर इस अहम समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया. हां यह बात एकदम कही है कि 1940 से अब तक के सफर में वायु प्रदूषण के अस्तित्व में भी इजाफा हुआ है. इसे ताज के संगमरमर को क्षति हुई है. इसके चलते आज ताज का श्वेत रंग थोड़ा काला सा हो गया है. जो निश्चित ही इसकी खूबसूरती के लिये घातक है. इसी के चलते कई बार मथुरा रिफाइनरी पर भी सवाल उठाए गए. आगरे से व्यावसायिक इकाइयों को तो हटा दिया गया मगर प्रदूषण की समस्या जस की तस है. भारत की तरफ पर्यटकों को आकर्षित करने में ताजमहल का अपना ही एक अनोखा योगदान है. ताज की इस छवि को हमेशा के लिए बनाए रखने केलिये सही दिशा में शीघ्र ही कार्य करने की जरूरत है. यमुना है तो ताज है यमुना नहीं तो ताज नहीं. इसलिए नदी के प्रदूषित पानी को स्वच्छ करने के प्रयास करने चाहिए. वर्तमान समय में यमुना का पानी कितना शुध्द है यह बताने की शायद जरूरत नहीं है. कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि नदी का जलस्तर ज्यादा नीचे न जाए. यह समस्या कोई नई नहीं है. कई बार सामने आ चुकी है मगर अफसोस की बात है कि अब तक इसके निपटारे के सार्थक कदम नहीं उठाए गए हैं.
तो नहीं रहता ताज
आज जो ताज हम देख रहे हैं यह शायद होता ही नहीं इसका अस्तित्व कैसे बचा इसके पीछे भी एक अनोखी घटना है. बात उन दिनों की है जब आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था. अंग्रेजी हुकूमत उन दिनों जोरों पर थी. बंगाल के एक दैनिक अखबार में ताज को बेचने के संबंध में विज्ञापन प्रकाशित हुआ इसको पढ़कर मथुरा निवासी एक व्यापारी ने ताज को महज चंद हजार रु. में अपना बना लिया और सब देखते ही रह गये.
इस बीच एक अंग्रेज अफसर ने ऐसे ही उस व्यापारी से पूछा कि आप इस इमारत का क्या करोगे तो व्यापारी ने जवाब दिया कि जनाब करना क्या है. इसे तुड़वाकर संगमरमर निकाल कर बेच देंगे. जवाब सुनने के पश्चात अफसर से रहा नहीं गया कि इतनी खूबसूरत इमारत को सिर्फ इसके संगमरमर के लिए गिरा दिया जायेगा. अफसर ने वहां से उस व्यापारी को तुरन्त निकालने का आदेश दिया और आखिरकार इस भव्य इमारत का अस्तित्व बच गया. एक अंग्रेज अफसर की वजह से ताज हमारी आंखों के सामने है. मगर इसकी खूबसूरती को कायम रखने के लिए हमारे द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.
Monday, August 4, 2008
िक स क ाम क ा खुफिया तंत्र
बेंगलुरु और अहमदाबाद धमा क ों से उठे विश्वसनीयता पर सवाल
नीरज नैयर
बेंगलुरु और अहमदाबाद में हुए श्रंखलाबद्ध धमाकों के बाद पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. सियासी दल जहां आतंकवाद की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं वहीं खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता पर भी उंगलिया उठने लगी हैं.महज दो दिन में 29 धमाकों के बाद इस सवाल का जवाब ढूढ़ना आवश्यक हो गया है कि आखिर हमारा खुफिया तंत्र कर क्या रहा है. अन्य देशों केमुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली एजेंसियां भारत में सबसे ज्यादा हैं. जिन पर अरबों रुपए पानी की तरह बहाया जाता है, बावजूद इसके खुफिया तंत्र इतना जर्जर बना हुआ है किआंतकी बड़ी आसानी से अपना काम कर जाते हैं और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होती. खुफिया एजेंसियों की नाकामियों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त देखकर तो यही लगता है जैसे नौसिखियों के कंधों पर देश की सुरक्षा का जिम्मा हो. खुफिया एजेंसियों द्वारा समय-समय पर जारी की जाने वाली चेतावनी मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की तरह ही हो गई है, जिसको न तो संबंधित अधिकारी ही गंभीरता से लेते हैं और न आम आदमी. एजेंसियां बिना किसी सटीक जानकारी के आतंकी हमलों की सूचना वक्त दर वक्त इसलिए उछालती रहती हैं ताकि अनहोनी होने पर वो यह कहकर अपना पल्ला झाड़ सकें कि हमने तो पहले ही आगाह किया था. यूपी, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और अब गुजरात में हुए धमाके इस बात का सुबूत हैं कि हमारा खुफिया तंत्र कितनी सक्रीयता से काम कर रहा हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आई बी भारत की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसी है. 1933 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई आईबी की कमान आजादी के बाद संजीवनी पिल्लई ने पहले भारतीय निदेशक के रूप में संभाली. तब से अब तक आईबी देश की सुरक्षा से जुड़ी आंतरिक सूचनाओं को जुटाने का काम कर रही है. आईबी में भारतीय पुलिस सेवा और आर्मी के तेज-तर्रार अफसरों को शामिल किया जाता है. बावजूद इसके सटीक सूचनाओं के मामले में इसका दामन खाली ही रहा है.
कुछ ऐसा ही हाल देश की पहली विदेशी खुफिया एजेंसी रिसर्च एनालिसिस विंग यानी रॉ और अन्य एजेंसियों का है. अंतरराष्ट्रीय जासूसी के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 में रॉ का गठन किया. जाने-माने खुफिया अधिकारी आर.एन.कॉव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई. कॉव के जामने में रॉ ने कई उल्लेखनीय काम किए. दुनिया में इसकी तुलना केजीबी, सीआईए और मोसाद जैसे खुफिया संगठनों में की जाने लगी. लेकिन 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रॉ को लगभग ठप कर दिया. विदेशों में इसके दफ्तर बंद कर दिए गये, बजट भी बहुत कम कर दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि देसाई रॉ को इंदिरा गांधी का वफादार संगठन मानते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में भी रॉ को खासी तवाो दी गई.लेकिन बाद की सरकारों ने इसे अपनी प्राथमिकता से निकाल दिया. रॉ की विफलता का दूसरा प्रमुख कारण अधिकारियों का काम के प्रति घटता रुझान भी है. रॉ से जुड़े कुछ अधिकारी स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि अधिकतर अफसर विदेशों में महज मौज-मस्ती के लिए ही तैनाती करवाते हैं. हाल ही के दिनों में रॉ अधिकारियों की विदेशों में हुस्न के जाल में फंसकर सूचनाएं लीक करने की ढेरों खबरें सामने आई हैं. नेपाल चुनाव के संबंध में भी जांच एजेंसी की नाकामी उजागर हो चुकी है. जयपुर बम धमाकों के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम.के. नारायण ने भी यह स्वीकारोति की थी कि पूरा खुफिया तंत्र विफल हो गया है. नारायण के बयान को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था. खुफिया तंत्र को मजबूत करने की बातें भी हुर्इं थी मगर हकीकत सबके सामने है. खुफिया एजेंसियों की विफलता की कहानी कोई नई नहीं है, आजादी के बाद से ही ये सिलसिला चला आ रहा है. महात्मा गांधी की हत्या को भी खुफिया एजेंसियों के उन एजेंटों की नाकामी के रूप में देखा गया जो कट्टर हिंदूवादियों पर नजर रख रहे थे. इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश तो दिल्ली में ही बनती रही लेकिन खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी. राजीव गांधी की हत्या की आशंका की सूचना इस्त्राइली सूत्रों के जरिए फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात ने खुद पत्र लिखकर दी थी, तब भी एजेंसियों ने सरकार को नहीं चेताया. इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में खुफिया एजेंसियोंकी सबसे बड़ी नाकामी मानी जाती है. ऐसे ही कारगिल घुसपैठ, कंधार विमान अपहरण कांड और संसद पर हमला पूरे खुफिया तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी है. इसके साथ ही आतंकवादियों के बेखौफ वारदातों को अंजाम देने की एकऔर प्रमुख वजह घटिया पुलिस तंत्र भी है. राज्य सरकारें पुलिस को दुरुस्त करने के नाम पर महज खानापूर्ती के अलावा कुछ नहीं करतीं. पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर सालाना एक हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं बावजूद इसके आतंकी घटनाओं पर लगाम लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है. राज्य सरकारें आधुनिकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने की बजाए केंद्र से मिले पैसे का भी पूरा सदुपयोग नहीं कर पा रही ह्रै.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुपये में से डेढ़ हजार करोड़ रुपये बिना खर्च के पड़े हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय वर्ष 2005 से आधुनिकीकरण के लिए जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों पूरा धन देता है. जबकि बाकी राज्यों को 75 फीसदी धन ही देता है. लेकिन राज्यों को अपने हिस्से का यह 25 फीसदी पैसा जुटाना भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि लगभग हर साल इस योजना का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाता है. पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए केन्द्र वैसे तो वर्ष 1960 से राज्यों को पैसा देता रहा है. तब केंद्र और राज्य 50:50 फीसदी खर्च वहन करते थे. लेकिन वर्ष 2005 में इसमें संशोधन करके केन्द्र ने अपना हिस्सा 75 फीसदी कर दिया. इस पर भी ज्यादातर राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं. केन्द्र लगातार कहता रहा है कि राज्यों को अपने यहां 500 लोगों पर एक पुलिस जवान का औसत बनाने के लिए पुलिस की संख्या बढ़ानी चाहिए. अभी यह औसत 699 लोगों पर एक पुलिस जवान ही है. केन्द्र ने वर्ष 2001-02 से 2007-08 तक राज्यों को इस योजना के तहत 6385.23 करोड़ रुपये दिये. लेकिन लगभग सभी राज्य सरकारें अपने हिस्से का पूरा पैसे का उपयोग नहीं कर पाईं. वर्ष 2001 में 191.7 करोड़, 2002 में 277.38 करोड़, वर्ष 2003 में 140.09 करोड़ और वर्ष 2005 में 258.83 करोड़ तथा वर्ष 2006-07 में 335 करोड़ रुपये खर्च नहीं हो पाए. ऐसे में यह कैसे अपेक्षा कि जा सकती है कि आतंकवादी वारदातों पर लगाम लग पाएगी.
भारत क ा खुफिया तंत्र-रिसर्च एवं एनालिसिस विंग यानी रॉ
-इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी
-ऑल इंडिया रेडियो मॉनिटरिंग सर्विस
-ज्वाइंट साइबर ब्यूरो
-सिग्नल्स इंटेलिजेंस निदेशालय
-एविएशन रिसर्च सेंटर
-डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी
-डायरेक्ट्रेट ऑफ मिलिट्री इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ नेवेल इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ एअर इंटेलिजेंस
अन्य एजेंसियां-डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस
-एन्फोरर्समेंट डायरेक्ट्रेट
-केंद्रीय ब्यूरो अन्वेक्षण यानी सीबीआई
-नारकोटिक्स ब्रांच
-राज्यों की पुलिस की गुप्तचर शाखाएं.
एिअर इंटेलिजेंस
असफलता क ी प्रमुख घटननाएं-3 जनवरी, 1948, दिल्ली की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी की हत्या.
-31 अक्टूबर, 1984, प्रधानमंत्री निवास के सुरक्षाकर्मियों में सेंध लगाकर इंदिरा गांधी की हत्या.
-दिल्ली में सांसद ललित माकन और महानगर पार्षद अर्जुन दास की खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दिन दहाड़े हत्या.
-पंजाब में अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोंवाला की हत्या.
-तमिलनाडू के श्रीपेरुबुदूर में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या.
-छह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस.
-पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की बम विस्फोट में हत्या.
-कारगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ.
-दिल्ली में संसद और लाल किले पर हमला.
-जम्मू-कश्मीर विधानसभा और रघुनाथ मंदिर पर हमला.
-कंधार विमान अपहरण कांड.
-अहमदाबाद में अक्षरधाम मंदिर पर हमला.
-अयोध्या में आतंकवादी हमला.
-मुंबई में लोकल टे्रनों में सिलसिलेवार धमाके.
-दिल्ली में दीवाली से ठीक पहले बम धमाके.
-हैदराबाद और मालेगांव की मस्जिदों के पास धमाके.
-वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट.
-जयपुर में सिलसिलेवार बम विस्फोट.
नीरज नैयर
नीरज नैयर
बेंगलुरु और अहमदाबाद में हुए श्रंखलाबद्ध धमाकों के बाद पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. सियासी दल जहां आतंकवाद की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं वहीं खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता पर भी उंगलिया उठने लगी हैं.महज दो दिन में 29 धमाकों के बाद इस सवाल का जवाब ढूढ़ना आवश्यक हो गया है कि आखिर हमारा खुफिया तंत्र कर क्या रहा है. अन्य देशों केमुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली एजेंसियां भारत में सबसे ज्यादा हैं. जिन पर अरबों रुपए पानी की तरह बहाया जाता है, बावजूद इसके खुफिया तंत्र इतना जर्जर बना हुआ है किआंतकी बड़ी आसानी से अपना काम कर जाते हैं और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होती. खुफिया एजेंसियों की नाकामियों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त देखकर तो यही लगता है जैसे नौसिखियों के कंधों पर देश की सुरक्षा का जिम्मा हो. खुफिया एजेंसियों द्वारा समय-समय पर जारी की जाने वाली चेतावनी मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की तरह ही हो गई है, जिसको न तो संबंधित अधिकारी ही गंभीरता से लेते हैं और न आम आदमी. एजेंसियां बिना किसी सटीक जानकारी के आतंकी हमलों की सूचना वक्त दर वक्त इसलिए उछालती रहती हैं ताकि अनहोनी होने पर वो यह कहकर अपना पल्ला झाड़ सकें कि हमने तो पहले ही आगाह किया था. यूपी, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और अब गुजरात में हुए धमाके इस बात का सुबूत हैं कि हमारा खुफिया तंत्र कितनी सक्रीयता से काम कर रहा हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आई बी भारत की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसी है. 1933 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई आईबी की कमान आजादी के बाद संजीवनी पिल्लई ने पहले भारतीय निदेशक के रूप में संभाली. तब से अब तक आईबी देश की सुरक्षा से जुड़ी आंतरिक सूचनाओं को जुटाने का काम कर रही है. आईबी में भारतीय पुलिस सेवा और आर्मी के तेज-तर्रार अफसरों को शामिल किया जाता है. बावजूद इसके सटीक सूचनाओं के मामले में इसका दामन खाली ही रहा है.
कुछ ऐसा ही हाल देश की पहली विदेशी खुफिया एजेंसी रिसर्च एनालिसिस विंग यानी रॉ और अन्य एजेंसियों का है. अंतरराष्ट्रीय जासूसी के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 में रॉ का गठन किया. जाने-माने खुफिया अधिकारी आर.एन.कॉव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई. कॉव के जामने में रॉ ने कई उल्लेखनीय काम किए. दुनिया में इसकी तुलना केजीबी, सीआईए और मोसाद जैसे खुफिया संगठनों में की जाने लगी. लेकिन 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रॉ को लगभग ठप कर दिया. विदेशों में इसके दफ्तर बंद कर दिए गये, बजट भी बहुत कम कर दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि देसाई रॉ को इंदिरा गांधी का वफादार संगठन मानते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में भी रॉ को खासी तवाो दी गई.लेकिन बाद की सरकारों ने इसे अपनी प्राथमिकता से निकाल दिया. रॉ की विफलता का दूसरा प्रमुख कारण अधिकारियों का काम के प्रति घटता रुझान भी है. रॉ से जुड़े कुछ अधिकारी स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि अधिकतर अफसर विदेशों में महज मौज-मस्ती के लिए ही तैनाती करवाते हैं. हाल ही के दिनों में रॉ अधिकारियों की विदेशों में हुस्न के जाल में फंसकर सूचनाएं लीक करने की ढेरों खबरें सामने आई हैं. नेपाल चुनाव के संबंध में भी जांच एजेंसी की नाकामी उजागर हो चुकी है. जयपुर बम धमाकों के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम.के. नारायण ने भी यह स्वीकारोति की थी कि पूरा खुफिया तंत्र विफल हो गया है. नारायण के बयान को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था. खुफिया तंत्र को मजबूत करने की बातें भी हुर्इं थी मगर हकीकत सबके सामने है. खुफिया एजेंसियों की विफलता की कहानी कोई नई नहीं है, आजादी के बाद से ही ये सिलसिला चला आ रहा है. महात्मा गांधी की हत्या को भी खुफिया एजेंसियों के उन एजेंटों की नाकामी के रूप में देखा गया जो कट्टर हिंदूवादियों पर नजर रख रहे थे. इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश तो दिल्ली में ही बनती रही लेकिन खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी. राजीव गांधी की हत्या की आशंका की सूचना इस्त्राइली सूत्रों के जरिए फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात ने खुद पत्र लिखकर दी थी, तब भी एजेंसियों ने सरकार को नहीं चेताया. इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में खुफिया एजेंसियोंकी सबसे बड़ी नाकामी मानी जाती है. ऐसे ही कारगिल घुसपैठ, कंधार विमान अपहरण कांड और संसद पर हमला पूरे खुफिया तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी है. इसके साथ ही आतंकवादियों के बेखौफ वारदातों को अंजाम देने की एकऔर प्रमुख वजह घटिया पुलिस तंत्र भी है. राज्य सरकारें पुलिस को दुरुस्त करने के नाम पर महज खानापूर्ती के अलावा कुछ नहीं करतीं. पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर सालाना एक हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं बावजूद इसके आतंकी घटनाओं पर लगाम लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है. राज्य सरकारें आधुनिकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने की बजाए केंद्र से मिले पैसे का भी पूरा सदुपयोग नहीं कर पा रही ह्रै.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुपये में से डेढ़ हजार करोड़ रुपये बिना खर्च के पड़े हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय वर्ष 2005 से आधुनिकीकरण के लिए जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों पूरा धन देता है. जबकि बाकी राज्यों को 75 फीसदी धन ही देता है. लेकिन राज्यों को अपने हिस्से का यह 25 फीसदी पैसा जुटाना भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि लगभग हर साल इस योजना का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाता है. पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए केन्द्र वैसे तो वर्ष 1960 से राज्यों को पैसा देता रहा है. तब केंद्र और राज्य 50:50 फीसदी खर्च वहन करते थे. लेकिन वर्ष 2005 में इसमें संशोधन करके केन्द्र ने अपना हिस्सा 75 फीसदी कर दिया. इस पर भी ज्यादातर राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं. केन्द्र लगातार कहता रहा है कि राज्यों को अपने यहां 500 लोगों पर एक पुलिस जवान का औसत बनाने के लिए पुलिस की संख्या बढ़ानी चाहिए. अभी यह औसत 699 लोगों पर एक पुलिस जवान ही है. केन्द्र ने वर्ष 2001-02 से 2007-08 तक राज्यों को इस योजना के तहत 6385.23 करोड़ रुपये दिये. लेकिन लगभग सभी राज्य सरकारें अपने हिस्से का पूरा पैसे का उपयोग नहीं कर पाईं. वर्ष 2001 में 191.7 करोड़, 2002 में 277.38 करोड़, वर्ष 2003 में 140.09 करोड़ और वर्ष 2005 में 258.83 करोड़ तथा वर्ष 2006-07 में 335 करोड़ रुपये खर्च नहीं हो पाए. ऐसे में यह कैसे अपेक्षा कि जा सकती है कि आतंकवादी वारदातों पर लगाम लग पाएगी.
भारत क ा खुफिया तंत्र-रिसर्च एवं एनालिसिस विंग यानी रॉ
-इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी
-ऑल इंडिया रेडियो मॉनिटरिंग सर्विस
-ज्वाइंट साइबर ब्यूरो
-सिग्नल्स इंटेलिजेंस निदेशालय
-एविएशन रिसर्च सेंटर
-डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी
-डायरेक्ट्रेट ऑफ मिलिट्री इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ नेवेल इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ एअर इंटेलिजेंस
अन्य एजेंसियां-डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस
-एन्फोरर्समेंट डायरेक्ट्रेट
-केंद्रीय ब्यूरो अन्वेक्षण यानी सीबीआई
-नारकोटिक्स ब्रांच
-राज्यों की पुलिस की गुप्तचर शाखाएं.
एिअर इंटेलिजेंस
असफलता क ी प्रमुख घटननाएं-3 जनवरी, 1948, दिल्ली की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी की हत्या.
-31 अक्टूबर, 1984, प्रधानमंत्री निवास के सुरक्षाकर्मियों में सेंध लगाकर इंदिरा गांधी की हत्या.
-दिल्ली में सांसद ललित माकन और महानगर पार्षद अर्जुन दास की खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दिन दहाड़े हत्या.
-पंजाब में अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोंवाला की हत्या.
-तमिलनाडू के श्रीपेरुबुदूर में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या.
-छह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस.
-पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की बम विस्फोट में हत्या.
-कारगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ.
-दिल्ली में संसद और लाल किले पर हमला.
-जम्मू-कश्मीर विधानसभा और रघुनाथ मंदिर पर हमला.
-कंधार विमान अपहरण कांड.
-अहमदाबाद में अक्षरधाम मंदिर पर हमला.
-अयोध्या में आतंकवादी हमला.
-मुंबई में लोकल टे्रनों में सिलसिलेवार धमाके.
-दिल्ली में दीवाली से ठीक पहले बम धमाके.
-हैदराबाद और मालेगांव की मस्जिदों के पास धमाके.
-वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट.
-जयपुर में सिलसिलेवार बम विस्फोट.
नीरज नैयर
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