किसी ंजमाने में सामंतवाद के खिलाफ भड़की छोटी सी चिंगारी आज शोले का रूप अख्तियार कर चुकी है। उस वक्त जो माहौल था उसमें चिंगारी के भड़कने को जायज ठहराया जा सकता था मगर अब जो कुछ भी हो रहा है, वह कतई मर्यादित नहीं। अपने वाजिव हक के लिए छेड़ी गई लड़ाई अब दिशाहीन हो चली है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि सरकार की अनदेखी और विकास के अभाव ने ही नक्सली समस्या को उपजने में खाद का काम किया। परन्तु अब स्थिति बहुत हद तक बदल चुकी है। बेगुनाहों के खून से रंगे हाथ आज विकास की फसल नहीं बल्कि लोगों के सिर कलम करने को आमादा हैं। ऐसे में सवाल उठता है विकास किसके लिए, नक्सल समस्या को लेकर हमारा समाज दो वर्गो में विभाजित है एक तरफ ऐसे लोगो की जमात है जो समझते हैं कि विकास की राह पर चलकर ही इस समस्या का निवारण हो सकता है।वही दूसरे वर्ग ईट का जवाब पत्थर से देने
में विश्वास रखता है। यह निश्चित ही एक बहस का मुद्दा है कि दोनों में से कौन सा रास्ता ज्यादा कारगर है। अगर बीते कुछ समय में नक्सली रणनीति पर गौर फरमाया जाए तो कदम खुद-ब-खुद दूसरे रास्ते पर चलना चाहेंगे।आतंक के लाल गलियारे की जद में आज 15 राज्य हैं और कई राज्यों में इसका विस्तार हो रहा है। 60 के दशक से अब तक नक्सलियों ने न सिर्फ अपनी ताकत में इजाफा किया है, बल्कि अपने स्वरूप में भी बदलाव लाए हैं। पहले इनके निशाने पर महज सत्ता प्रतिष्ठान व पुलिस हुआ करती थी,मगर अब आम आदमी भी इनका निशाना बन रहे हैं।आज नक्सली संगठनों के पास पैसा है। आधुनिक अग्नेयास्त्र हैं। कभी पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश तक सिमटा लाल सलाम का नारा नेपाल से केरल तक बुलंद है। धीरे-धीरे महाराष्ट मे यह पैर पसारने लगा है। नेपाल बार्डर से झारखंड होते हुए केरल तक विभिन्न नदियो और बसतर से कैमूर तक जंगल और पहाड़ों के बीच नक्सलियों की आवाजाही किसी से छिपी हुई नहीं है। जंगल की जिन जमीनों के नाम पर नक्सलवाद पनपा आज उसे नक्सली संगठन खुद पट्टे पर दे रहे हैं। नक्सली महीने में करोड़ों की लेवी वसूल रहे हैं। इंडियन ईयर बुक के आंकड़ों के अनुसार अकेले झारखंड से नक्सली संगठन सालाना करीब 320 करोड़ लेवी वसूल रहे हैं। दस हंजार नक्सलियों के पास 20 हजार आधुनिक हथियार हैं। उद्योगपति खुद धन मुहैयार कराने लगे हैं। अर्थात अधिकांश प्रभावित इलाकों
में आज भी इनकी समानांतर सरकार और कानून का राज है। यही कारण है कि तीन साल पहले नौ राज्यों के 76 जिलों तक सिमटा नक्सलवाद फिलहाल देश के 15 राज्यों के 160 जिलों तक अपने पांव पसार चुका है।इस साल की ही अगर बात करें तो अब तक पूरे देश में नक्सली हिंसा में करीब 520 लोग मारे जा चुके हैं।इनमें 190 तो बेकसूर लोग शामिल हैं, जबकि सुरक्षा बलों और राज्यों की पुलिस के कुल 166 जवान भी शहीद हो चुके हैं।नक्सली समस्या को विकास के पैमाने में तौलकर देखने वालों को अगर अब भी यह लगता है कि विकास के बल पर बंदूकों को शांत किया जा सकता है तो यह ंगलत है। सच तो यह है कि नक्सलवाद की किताब के शुरूआती पन्ने फट गये हैं और उनके स्थान पर नये जोड़ दिये गये हैं। जिनमें न तो हक की लड़ाई का ही कोई ंजिक्र है और न ही विकास की बयार देखने की कोई बात। किसी ंजमाने में नक्सली लड़ाई में हिस्सा लेने वाले भी अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि यह जंग अब सही गलत से बहुत दूर निकलकर सत्ता और शोहरत के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई है।इसे विसंगति ही कहा जाएगा कि लाल गलियारे में पड़ी खून की लाली को भुलाकर आज भी लोग इसे विकास से जोड़कर देख रहे हैं। खुद सरकार भी इस सीधे कानून व्यवस्था से जोड़कर अब तक नहीं देख पाई है।नक्सली हिंसा को जनता के आंदोलन के रूप में देखने वाले अब भी इस अवधारणा से ग्रसित हैं कि नक्सलियों को जनसमर्थन
प्राप्त है। किसी ंजमाने में नक्सलियों को ंजरूर रॉबिन हुड के रूप में देखा जाता होगा, मगर वर्तमान में ऐसा नहीं है। नक्सलियों के साथ आज जो हाथ खड़े हैं उनमें अधिकतर का कारण है डर और मंजबूरी, डर बंदूक का और मंजबूरी पेट की। सरकार के साथ वह जुड़ नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करने पर नक्सलियों के कहर का उन्हें सामना करना पड़ेगा। लिहाजा हालात से समझौता करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं। वैसे देखा जाए तो नक्सली समस्या के विस्तार का रास्ता कहीं न कहीं सियासत की गलियों से होकर ही गुंजरा है। नक्सलियों की मंजबूत होती जड़ों को खाद-पानी राजनीतिक दल ही मुहैया करा रहे हैं।
नीरज नैयर
1 comment:
sir aap apna blog regular update kia kijie..
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