नीरज नैयर
मुंबई बंदरगाह के पास दो विदेशी जहाजों की टक्कर और उसके बाद पैदा हुई स्थिति ने कई सवालों को जन्म दिया है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर बंदरगाह के इतने नजदीक जहाज कैसे टकरा गए। खुले समुद्र में बीचों-बीच टक्कर की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन एक व्यस्त पोर्ट के करीब भिड़त का होना लापरवाही और व्यवस्था की नाकामी को उजागर करता है। एयर टै्रफिक कंट्रोल की तरह समुद्री यातायात के भी नियम-कायदे होते हैं, पर लगता है मुंबई बंदरगाह पर उनका पालन नहीं किया जाता। इन जहाजों की टक्कर से कंपनियों को हुए नुकसान की भरपाई तो बीमा कंपनियां कर देंगी, मगर पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा है उसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा। जो एमएससी चित्रा नामक जहाज डूबने के कगार पर पहुंचा उससे भारी मात्रा में तेल रिसकर समुद्र में बह गया। इसके अलावा कई कीटनाशकों से भरे कंटेनर में पानी में मिल गए। एक मोटे अनुमान के मुताबिक जहाज पर तकरीबन 1219 कंटेनर लदे थे, जिनमें 2262 टन तेल था। और करीब 300 कंटेनर लहरों के साथ बह निकले। इस हादसे के चंद रोज बाद ही समुद्र का पानी और आस-पास के तटों पर तेल का प्रभाव देखने को मिला। कोलाबा के तट पर काफी तादाद में मछलियां मरी पाई गईं। लेकिन इसे महज शुरूआती प्रभाव ही कहा जा सकता है, पर्यावरणविद इसके दूरगामी दुष्परिणामों की तरफ इशारा कर चुके हैं। ये रिसाव समुद्री जीवों के ब्रीडिंग साइकिल को भी प्रभावित करेगा, इसलिए मुंबईवासियों को मछलियों का सेवन न करने की हिदायत दी गई है।
यह घटना सात अगस्त को हुई और यातायात बहाल करने में छह दिन का वक्त लगा। एक जहाज को खाली करने में इतना वक्त और वो भी तब उसमें लदा सामान जानहानी का सबब बन सकता है, बताता है कि हम इस तरह की चुनौतियाें से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। टक्कर के बाद शुरूआती तिकड़म एमएससी चित्रा को सीधा करने के लिए लगाई गई, जबकि उस वक्त पहली प्राथमिकता उसमें लदे खतरनाक कंटेनरों को बाहर निकालने की होनी चाहिए थी। इस राहत कार्य की रणनीति ही सही तरीके से तैयार नहीं की गई, अगर हादसा बंदरगाह से बहुत दूर होता तो देरी की बात स्वीकारी जा सकती थी। मगर बंदरगाह से दुर्घटनास्थल की दूरी मुश्किल से 10 किलोमीटर थी। क्या दूसरे बड़े जहाजों को तुरंत मौके पर नहीं पहुंचाया जाना चाहिए था, ये बात सही है कि मार्ग बाधित होने से काम आसान नहीं था मगर फिर भी कुछ न कुछ व्यवस्था तो की ही जा सकती थी। ऐसे मौकों पर अक्सर हेलीकॉप्टर का प्रयोग या तो किया ही नहीं जाता या फिर बहुत देर से उनकी याद आती है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। अगर समुद्री मार्ग बाधित था तो हवाई मार्ग के सहारे दुर्घटनास्थल पर पहुंचकर राहत कार्य को विद्युतगति देनी चाहिए थी। 1200 कंटेनरों को चित्रा से उठाकर तट तक पहुंचाने में 8-10 हेलाकॉप्टरों को यादा वक्त नहीं लगता, यदि लगता भी तो स्थिति इतनी बुरी नहीं होती जितनी आज है। रिसाव रोकने के लिए भी नीदरलैंड और सिंगापुर से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ा। समुद्र के रास्ते भारत का व्यापार लगातार बढ़ रहा है बावजूद इसके इतनी लचर व्यवस्था आपदा प्रबंधन के इंतजामों की पोल खोलती है। हालात ये हैं कि हमें बचाव कार्य के लिए भी दूसरों का मुंह ताकना पड़ रहा है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है, आमतौर पर भीषण अगि्कांड जैसे मौकों पर भी हमारी मजबूरी सामने आती है। कुछ वक्त पहले कोलकाता के एक व्यस्तम बाजार में लगी आग को बुझाने में फायर फाइटरों को काफी मशक्कतों का सामना करना पड़ा।
तंग रास्ते और पुरानी बसावट के चलते आग ने चंद मिनटों में ही विकराल रूप अख्तियार कर लिया था। जब आग कई मंजिला ऊंची इमारत पर लगी हो तो फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियों का पानी भी कम पड़ जाता है। ऐसे वक्त में कोई दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की जाती। अधिकतर बड़े देशों में ऐसी स्थिति से निपटने के लिए फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ-साथ हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल भी किया जाता है। हेलीकॉप्टर से एक बार में ही काफी मात्रा में पानी निकल सकता है जो दहकती आग को शांत करने में यादा कारगर होता है। निश्चित तौर पर राहत और बचाव कार्य का ये तरीका यादा खर्चीला है मगर ये यादा कारगर भी है। शायद खर्चे के चलते ही इस बारे में अब तक कोई विचार नहीं किया गया। दो-तीन साल पहले राजस्थान में नदी के तेज बहाव में फंसे लोग पर्याप्त मदद के अभाव में एक-एक करके मौत के आगोश में समा गए थे। मीडिया ने इस घटना की लाइव फुटेज घंटों चलाई मगर सरकारी मदद वक्त पर नहीं पहुंची। प्रशासन के लिए एक हेलिकॉप्टर का इंतजाम करना कितना बड़ा काम है ये इस घटना के बाद मालूम चला। अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल में र्हुई दो ट्रेन दुर्घटनाओं में राहत और बचाव कार्य हादसे के काफी देर के बाद शुरू हो सका। यदि सही वक्त पर लोगों को बचाने का काम शुरू कर दिया जाता तो बहुत सी जिंगदियों को बचाया जा सकता था। ट्रेन या सड़क हादसों के वक्त यादातर बचाव दल देर से ही पहुंच पाता है, इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन कारणों को दूर करने के बारे में हम आखिर कब सोचना शुरू करेंगे? शुक्र है हमारे यहां मैक्सिको की खाड़ी जैसा कुछ नहीं हुआ, अगर बीपी की तरह कोई भारतीय कंपनी ऐसा कुछ कर देती तो शायद रिसाव कभी बंद ही नहीं हो पाता। भले ही अब चित्रा और खलीसिया की टक्कर के लिए उनके कप्तानों को दोषी ठहराने की कवायदों को परवान चढ़ाया जा रहा हो मगर केवल ऐसा करने से ही भविष्य की घटनाओं पर विराम नहीं लगाया जा सकता। दोषियों को दंड मिले ये जरूरी भी है लेकिन मौजूदा व्यवस्था की खामियों को दुरुस्त करना भी उतना ही जरूरी है।
आज डिजास्टर मैनेजमेंट की डिक्शनरी में कुछ नए शब्द जोड़ने की जरूरत है। भले ही देश की अर्थव्यवस्था मजबूती के नए-नए आयाम स्थापित कर रही हो मगर जब तक इन बुनियादी मुद्दों पर हमारी पकड़ मजबूत नहीं होती तब तक सबकुछ बेकार है। जरा सोचके देखिए अगर कल सूनामी जैसी आपदा से हमारा सामना हो जाए तो क्या हम इतने सक्षम हैं कि अपने आप को खड़ा रख सकेंगे, निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में ही होगा। सरकार को आपदा प्रबंधन जैसे गंभीर मुद्दे पर गंभीरता के साथ रणनीति बनाने की जरूरत है और संसाधनों के अभाव को दूर करने की भी ताकि कुछ सौ कंटेनरों को निकालने या आग बुझाने में हमें उतना वक्त ना लगे जितना बर्बादी के लिए काफी होता है।