Thursday, July 29, 2010

हजरत ने तो नहीं कहा, मुझे कुर्बानी चाहिएU

नीरज नैयर
बीते दिनों ऐसे ही सड़क से गुजरते हुए कुछ लोग दिखाई दिए, उन्होंने अपनी बाइक के पिछले हिस्से में एक डंडा फंसाया हुआ था। जिसके दोनों तरफ मुर्गियों को बेतरतीबी से लटकाया गया था। मुर्गियां फड़फड़ा रही थीं, लटके-लटके उनकी आवाज ने भी शायद उनका साथ छोड़ दिया था। चंद पलों के लिए उनकी तड़पन दिखाई देती और फिर ऐसे खामोश हो जातीं जैसे कभी जान थी ही नहीं। थोड़ी ही देर में वो बाइक आंखों से ओझल हो गई, और एक आत्मग्लानी मन में लिए करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह मैं भी आगे बढ़ निकला। ऐसी दुर्दशा तो उस आलू-भिंडी-टमाटर की भी नहीं होती होगी जिसमें कोई जान नहीं होती। पर शायद मांस का व्यापार करने और खाने वालों की नजर में ये जीवित प्राणी निर्जीव वस्तु से भी गया गुजरा स्थान रखते हैं।

क्रूरता के कई मायने हैं और वो कई रूप में हमारे सामने आती है, लेकिन इस क्रूरता को क्या नाम दिया जाए। ये मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं। इस वाकये ने कुछ साल पहले एक अखबार में छपी उन तस्वीरों की याद ताजा कर दी है, जिसकी भयावहता आज भी मेरे बदन में सिरहन पैदा कर देती है। वो तस्वीरें ईद के बाद प्रकाशित हुईं थीं। हाथों में धारधार हथियार लिए मुस्लिम समुदाय के लोग एक ऊंट पर प्रहार कर रहे थे, ऊंट के गले से खून की धारा बह रही थी और उसकी आंखों में दर्द का सैलाब उमड़ आया था। वो चीख रहा था मगर उसकी कद्रन कर देने वाली चीख उल्लास के शोर में दब गई थी। उन तस्वीरों को देखकर मेरे मुंह से सबसे पहले बस यही निकला था, आखिर ये कैसा त्योहार। कुर्बानी और बलि के नाम पर बेजुबानों को बेमौत मारा जाता है। मारने
वालों के पास अपने बचाव की तमाम दलीलें है, कोई इसे परवरदिगार का पैगाम कहता है तो कोई देवी का संदेश। लेकिन क्या इन दलीलों की प्रमाणिकता सिध्द की जा सकती है? जो मुस्लिम समुदाय कुर्बानी की बातें करता है वो हजरत मुहम्मद के जीवन से कुछ सीख क्यों नहीं लेता। हजरत साहब ने तो कभी किसी पशु-पक्षी को कष्ट पहुंचाने तक के बारे में भी नहीं सोचा।


बात करीब पंद्रह सौ साल पहले की है, अरब के रेगिस्तान से एक काफिला गुजर रहा था। कुछ दूर चलने के बाद काफिले के सरदार ने उचित स्थान का चुनाव कर रात में पड़ाव डालने का फैसला लिया। काफिले वालों ने ऊंटों पर लदा अपना-अपना सामान उतारा। कुछ देर के आराम के बाद उन्होंने नमाज अता की और खाना पकाने के लिए चूल्हे जलाना शुरू कर दिए। काफिले के सरदार एक चूल्हे के पास पड़े पत्थर पर बैठकर जलती हुई आग को निहारने लगे। अचानक ही उनकी निगाह चूल्हे के नजदीक बने चीटियों के बिल पर गई, जो आग की तपिश से व्याकुल होकर यहां यहां-वहां भागने के लिए रास्ता तलाश रहीं थीं। चीटियों की इस व्याकुलता ने सरदार को भी व्याकुल कर दिया। वो अपनी जगह से उठे और चीखकर बोले, आग बुझाओ, आग बुझाओ। उनके साथियों ने बिना कोई सवाल-जवाब किए तुरंत आग बुझा दी। सरदार ने पानी का छिड़काव कर चूल्हे को ठंडा किया ताकि चीटिंयों को राहत मिल सके। काफिले वालों ने अपना सामान उठाया और दूसरे स्थान की ओर चल निकले। उन चीटिंयों के लिए जिन्हें शायद हमनें कभी जीवित की श्रेणी में रखा ही नहीं होगा, चूल्हे बुझवाने वाले सरदार थे हजरत मुहम्मद। हजरत साहब ने हमेशा प्रेम और शांति का पाठ पढ़ाया। उन्होंने स्वयं कहा कि तुम समस्त जीव-जंतुओं पर दया करो, परमात्मा तुम पर दया करेगा।

सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्ला को हजरत मोहम्मद का साथी माना जाता है। उन्होंने कहा है, एक बार हजरत साहब के पास से एक गधा गुजरा, जिसके चेहरे को बुरी तरह दागा गया था और उसके नथुनों से बह रहा खून उसके साथ हुई क्रूरता की कहानी बयां कर रहा था। गधे का दर्द देखकर हजरत साहब दुख और क्रोध में डूब गए, उन्होंने कहा, जिसने भी मूक जानवर को इस अवस्था में पहुंचाया है उसपर धिक्कार है। इस घटना के बाद हजरत मोहम्मद ने घोषणा की कि न तो पशुओं के चेहरे को दागा जाए और न ही उन्हें मारा जाए। याहया इब्ने ने भी हजरत मोहम्मद की करुणा और प्रेमभाव का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि एक दिन मैं मोहम्मद साहब के पास बैठा था, तभी एक ऊंट दौड़ता हुआ आया और साहब के सामने आकर बैठ गया। उसकी आंखों से अशु्रधारा बह रही थी। मोहम्मद साहब ने तुरंत मुझसे कहा, जाओ देखो ये किसका ऊंट है और इसके साथ क्या हुआ है। मैं किसी तरह ऊंट के मालिक को को खोजकर ले आया, मोहम्मद साहब ने उससे पूछा, क्या ये ऊंट तुम्हारा है? उसने इसपर अनभिग्ता जताई। उसने कहा, हम पहले इसे पानी ढोने के काम में इस्तेमाल किया करता था, पर अब ये बूढा हो चुका है और काम करने लायक नहीं है। इसलिए हमसब ने मिलकर फैसला लिया है कि इसे काटकर गोश्त बांट लेंगे।

हजरत साहब ने कहा, इसे मत काटो या तो इसे बेच दो या मुझे ऐसे ही दे दो। इसपर उस व्यक्ति ने कहा, जनाब आप इसे बगैर कीमत के ही रख लीजिए। मोहम्मद साहब ने उस ऊंट पर सरकारी निशान लगाया और उसे सरकारी जानवरों में शामिल कर लिया। हजरत ने उस व्यक्ति के लिए धिक्कार कहा है जो किसी जीव को निशाना बनाए। उन्होंने फरमाया है कि अगर कोई व्यक्ति गौंरेया को बेकार मारेगा तो कयामत के दिन वह अल्लाह को फरियाद करेगी कि इसने मुझे कत्ल किया था। हजरत मोहम्मद ने जानवरों से उनकी शक्ति से अधिक काम लेने को भी गलत बताया है। एक बार की बात है हजरत साहब ने देखा कि एक काफिला जाने की तैयारी कर रहा है। काफिले में शामिल एक ऊंट पर इतना बोझ लादा गया कि वो भार के बोझ तले दबा जा रहा था। हजरत साहब ने तुरंत उसका बोझ कम करने को कहा।

इस्लाम में एक चींटी की अकारण हत्या को भी पाप बताया गया है, बावजूद इसके कुर्बानी के नाम पर बेजुबानों को निर्दयीता से मौत के घाट उतार दिया जाता है। हजरत साहब ने कहा था, जिसके मन में दयाभाव नहीं, वह अच्छा मनुष्य नहीं हो सकता। इसलिए दया और सहानुभूति एक सच्चे मुसलमान के लिए जरूरी है। बात सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक ही सीमित नहीं है, हिंदू धर्म में भी अंधी आस्था के नाम पर देवी-देवताओं को बलि चढ़ाई जाती है। आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत बड़ा फासला होता है, लेकिन अफसोस की लोग इसे समझना नहीं चाहते। आखिर खून का बोग लगाकर उसे कैसे प्रसन्न किया जा सकता है जो खुद दूसरों को जीवन देता है। जब तक ये बात लोगों को समझ में नही आती, खौफनाक वाकये यूं ही आखों के सामने से गुजरते रहेंगे और हम यूं ही आत्मग्लानी मन में लिए आगे बढ़ते चले जाएंगे।
(प्रदीप शर्मा के aर्तिक्ले के लिए सज्ञान के मुताबिक )

Wednesday, July 21, 2010

पवार की सियासी गुगली

नीरज नैयर
क्रिकेट की रियासत के सबसे ऊंचे सिहांसन पर बैठने के बाद शरद पवार को कृषि मंत्रालय भारी महसूस होने लगा है। उन्हें लगता है कि दो इतनी बड़ी जिम्मेदारियां वो एक साथ नहीं उठा पाएंगे। ये वो ही पवार हैं जो आईसीसी अध्यक्ष बनने से पहले कामकाज के प्रभावित होने की बातों को सिरे से खारिज कर रहे थे। लेकिन कुर्सी संभालते ही अचानक उन्हें आभास हो रहा है कि वो गलत थे। ये बात बिल्कुल सही है कि दो नावों पर सवार होकर नहीं चला जा सकता, मगर ऐसे वक्त में जब देश महंगाई की आग में जल रहा है पवार का क्रिकेट को तवाो देना क्या ये नहीं दर्शाता कि उनके लिए कृषि मंत्रालय पार्ट टाइम जॉब जैसा है। पवार का काम का भार कम करने का आग्रह करना ऐसा लगता जैसे एक कर्मचारी बॉस से अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऑफिस टाइम में रियायत की मांग कर रहा हो।

पवार कृषि मंत्रालय में रहते हैं या नहीं, इससे आम जनता को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन यूपीए सरकार की छवि को इससे बट्टा जरूर लग गया है। बतौर कृषिमंत्री पवार की नाकामयाबियों को लेकर जो बातें सालों से उठती आ रही हैं, उनपर इस पूरे मामले ने एक तरह से मुहर लगाई है। वैसे पवार के इस क्रिकेट प्रेम के हिलोरे मारने के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। वो अच्छे से जानते हैं कि सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद महंगाई नीचे आने वाली नहीं है। डीजल के दामों में बढ़ोतरी ने सिंचाई का खर्च बढ़ा दिया है और खाद पर सब्सिडी घटाने का असर पहले से ही मौजूद है। साथ ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफे के बाद से ट्रांपोटर्ेशन चार्ज भी 10 प्रतिशत बढ़ चुका है, ऐसे में कोई महान आशावादी ही होगा जो महंगाई कम होने की आस लगा सकता है। शरद पवार सियासत की दुनिया के मंझे हुए खिलाड़ी हैं।

जिस तरह अपने भार तले दूसरों को कुचलकर वो आईसीसी अध्यक्ष के पद तक जा पहुंचे, वैसे ही महंगाई के जाल में वो किसी दूसरे को उलझाकर दूर से तमाशा देखना चाहते हैं। अब तक महंगाई को लेकर उठने वाली हर उंगली उन्हीं की तरफ होती थी, मगर अब के बाद लोग उन्हें सीधे तौर पर निशाना नहीं बनाएंगे। और इस तरह धीरे-धीरे वो महंगाई के कलंक को भी धो सकेंगे। पवार के कृषि मंत्रालय संभालने के बाद से ही महंगाई अनियंत्रित भागी जा रही है, पिछले कुछ वक्त में ही मुद्रास्फीति की दर ने नए-नए आयाम स्थापित किए हैं। बीते दिनों विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए भारत बंद की सफलता इस बात को दर्शाती है कि आम जनता में सरकार और उसके मंत्रियों के प्रति खासा गुस्सा है। और इस फेहरिस्त में कहीं न कहीं शरद पवार का नाम सबसे पहले है। बतौर कृषिमंत्री आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को थामने के उपाए करना पवार साहब की जिम्मेदारी बनती थी लेकिन उस दौर में वो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई में अपने विरोधियों को निपटाने में व्यस्त रहे। आम जनता के साथ दिखने के बजाए वो स्टेडियमों में यादा देखे गए। उन्होंने महंगाई की मुश्किलों को जानते हुए भी बांगलादेश दौरे पर भेजी जाने वाली दोयम दर्जे की टीम का चुनाव किया। उनकी जुबान पर आटा-दाल, चावल के भाव से अधिक ललित मोदी जैसों के नाम अधिक रहे। णक्रिकेट से जुड़ा होने के बावजूद उन्होंने महंगाई के मुद्दे पर जनता के साथ जमकर फुटबॉल खेला। वो एक के बाद एक गोल दागते रहे और जनता असहायों की तरह खड़ी खामोशी से सबकुछ देखती रही। पवार को कृषि का एनसाइलोपीडिया कहा जाता है, उनके बारे में प्रसिध्द है कि वो आंखमूंदकर भी बीजों की पहचान बता सकते हैं।

उनकी खुद भी कई शुगर मिल्स हैं। इसलिए ये तो नहीं कहा जा सकता कि समझ के अभाव में वो गलतियों पर गलतियां करते गए। जब शरद पवार को देश के करोड़ों लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी सौंपी गई तब मानसून को लेकर स्थिति इतनी भी खराब नहीं थी कि खाद्य पदार्थों के दामों में आग लग जाए। उन्होंने यदि क्रिकेट के मुकाबले थोड़ा सा ध्यान यहां भी लगाया होता तो महंगाई के बेकाबू होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अब जब एक गेंद में 20 रन वाली स्थिति पैदा हो गई है तो वो मैदान छोड़कर भागने की फिराक में हैं। बतौर आईसीसी अध्यक्ष उन्हें शोहरत भी मिलेगी और दौलत भी, मगर कृषि मंत्रालय में केवल महजमारी और ताने ही सुनने को मिलेंगे। बकौल शरद पवार वो पिछले कई महीनों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भार कम करने का आग्रह कर रहे हैं। यानी उन्होंने प्लेटफार्म बनाने का काम बहुत पहले से ही आरंभ कर दिया था। उन्हें इसका इल्म था कि आईसीसी की कमान उनके अलावा किसी और को नहीं मिलने वाली, इसलिए वो सोच-समझकर पत्ते चलते गए और आज अपने हिसाब से वो खेल को आखिरी पड़ाव तक ले आए हैं।

उनकी गुगली ने मनमोहन सिंह को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक-दो बार सार्वजनिक मंचों से वो महंगाई के लिए शरद पवार को कुसूरवार ठहरा चुके हैं। मगर अब उनके पास अपना दामन बचाने का कोई मोहरा नहीं होगा। हां, ये हो सकता है कि वो शरद पवार की गुगली को खुद खेलने के बाद रामविलास पासवान को आगे कर दें। ऐसी स्थिति में पवार के माथे से धुला महंगाई का कलंक उनके ऊपर आने के बजाए लोकजनशक्ति पार्टी के खाते में चला जाएगा। मराठा नेता पवार ने महंगाई को अनियंत्रित स्थिति में छोड़कर भले ही जिम्मेदारी से मुहं छिपाकर भागने वाला काम किया है, लेकिन उनका ये फैसला उनके व्यक्तिगत हितों के लिए पूरी तरह अनुकूल है।

Tuesday, July 13, 2010

बाघ तभी बचेंगे, जब सरकार बचाना चाहेगी

नीरज नैयर
कहते हैं कोई मुद्दा अगर मीडिया में आ जाए तो उसे अंजाम तक पहुंचते देर नहीं लगती। लेकिन बाघ सरंक्षण का मुद्दा सुर्खियां बटोरने के बाद भी वहीं का वहीं है। अब तो इस बारे में कोई खबर भी सुनने को नहीं मिलती। सरकार के पास कश्मीर, महंगाई जैसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर विचार करना शायद उसे बाघ बचाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। बाघों का क्या है, बचे तो ठीक नहीं तो एकाध बाघ स्मारक बनाकर काम चला लिया जाएगा। राजस्थान के सरिस्का से बाघों के गायब होने की खबर के बाद से अब तक एक कदम भी ऐसा नहीं बढ़ाया गया जिसके सार्थक परिणाम निकलते दिखाई दे रहे हों। सरकारी मशीनरी की चाल-ढाल देखकर तो यही कहा जा सकता है कि शायद उसने महंगाई की तरह बाघों को बचाने का जिम्मा भी भगवान पर छोड़ दिया है। गनीमत बस इतनी भर है कि जयराम रमेश कृषिमंत्री की तरह बयान नहीं दे रहे हैं।

शरद पवार ने तो महंगाई के लिए सीधे तौर पर मानसून को दोषी ठहराया था, यदि जयराम भी ऐसा कुछ कह देते तो तूफान में टिमटिमाते दीए माफिक जो उम्मीद बची है वो भी खत्म हो गई होती। बाघ सरंक्षण पर सरकार को अपनी कार्ययोजना पर फिर से विचार करना होगा, मौजूदा हालात में बर्षों पुरानी सोच के आधार पर कोई कारगर तरीका नहीं खोजा जा सकता। सरकार और इस मुद्दे से जुड़ी तमाम संस्थाएं इस बात पर जोर देती रही हैं कि टाइगर रिजर्व के आसपास स्थित गांववालों को इस मुहिम में शामिल किया जाए। उन्हें लगता है कि स्थानीय लोगों के समर्थन के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है। जबकि हकीकत शायद उतनी हसीन नहीं है, बाघ और मानव के बीच की दूरी जितनी कम होगी खतरा उतना ही अधिक रहेगा। बाघ या दूसरे वन्यजीवों के शिकार में सबसे बड़ा खेल पैसे का है, शिकारी एक शिकार से हजारों कमाते हैं और उनके ऊपर की एजेंसियां लाखों। एक अनुमान के मुताबिक चीन में बाघ की खाल की कीमत तकरीबन 12500 डॉलर है। भारतीय मुद्रा के हिसाब से संख्या पांच लाख से ज्यादा रुपए बैठती है। ऐसे में शिकारी बाघ तक पहुंच को आसान बनाने के लिए कुछ रुपए थमाकर क्या उन गांव वालों का साथ नहीं खरीद सकते जिन्हें सेव टाइगर मिशन से जोड़ा जा रहा है। अब तक ऐसा ही होता आया है, शिकारी स्थानीय निवासियों या वन्य विभाग के मुलाजिमों से बाघ की खोज खबर लेते हैं और उसके ऐवज उनकी जेब भारी की जाती है। सरिस्का के वक्त भी ये बात सामने आई थी कि बाघों के सफाए में उन लोगों का भी योगदान था जिन्हें इस खूबसूरत प्राणी की हिफाजत के लिए तैनात किया गया था। सबसे ज्यादा जरूरी बात ये जानना है कि अभ्यारणयों या जंगलों के आस-पास रहने वाले कितने लोग बाघ या दूसरे वन्यजीवों को बचाने के प्रति संजीदा हैं। ऐसे लोगों के लिए वन्यप्राणी मतलब खतरा होता है, और उनके लिए सबसे ज्यादा चिंता का विषय उनके पालतू जानवर होते हैं। यदि कोई जंगली जानवर उनके पालतू पशुओं को नुकसान पहुंचाता है तो क्या वो उसके सरंक्षण के विचार पैदा कर सकेंगे। बाघों को बचाने के लिए सबसे पहला कदम सरंक्षित क्षेत्रों से आबादी का विस्थापन होना चाहिए। इसके अलावा वन विभाग के अमले को भी चुस्त-दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है। इस विभाग में आधे से ज्यादा लोग महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं।

जंगलों में घूमने वालों से लेकर एसी केबिनों में बैठने वालों तक पूरा ढंाचा बदले जाने की जरूरत है। ये कोशिश की जानी चाहिए कि वन्यजीवों की सुरक्षा का जिम्मा युवा हाथों में दिया, इसके लिए सालों से रिक्त पड़े फॉरेस्ट गार्ड और रेंजरों के पदों को भरना होगा। इस मामले में सरकार बहुत सुस्त चाल से आगे चल रही है, जबकि ये सबसे बड़ी जरूरत है। इसके अतिरिक्त निचले स्तर पर तनख्वाह बढ़ाने पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। रणनीति बनाने वालों के साथ-साथ मोर्चा लेने वालों को भी तवज्जो दिया जाना चाहिए। जंगलों की खाक छानने वाले एक गार्ड को जितना वेतन मिलता है, उतने में आज के समय में घर चलाना बिल्कुल भी आसान नहीं। किसी भी इंसान का ईमान उसकी आर्थिक स्थिति और जरूरतों के बीच के फासले को देखकर ही ढोलता है। अगर इस फासले को कम किया जा सके तो शायद ईमान को कायम रखने में मदद मिल सकती है। फॉरेस्ट गार्ड-रेंजरों और दूसरे स्टाफ को उचित तनख्वाह मिले, उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण के साथ अत्याधुनिक तकनीकि मुहैया करवाई जाए तो बद से बदतर होती स्थिति को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन इतने सबके लिए सबसे पहले सरकार को बाघ सरंक्षण को पार्ट टाइम जॉब के रूप में लेना छोडऩा होगा।

दूसरे मुद्दों की तरह इस मुद्दे को भी प्राथमिताओं की सूची में शुमार किए बगैर बाघों के साथ न्याय नहीं हो सकता। कुछ वक्त पहले भारत सरकार ने 13 चिन्हित बाघ संरक्षित क्षेत्रों में विशेष बाघ सुरक्षा बल (एसटीपीएफ) तैनात करने का फैसला लिया था। लेकिन उनकी तैनाती कोई खास असर डाल पाएगी कहना मुश्किल है, क्योंकि साल 2008 के बजट भाषण में एसटीपीएफ के लिए 50 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की गई थी मगर अब तक इस बारे में सिर्फ बातें ही हो रही हैं। चंद महीनों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बाघों के संबंध में राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की इच्छा जाहिर की थी, पर शायद उस इच्छा को भी अमल में नहीं उतारा गया। कुछ एक मीडिया समूह इस मुद्दे को जरूर लगातार उठाए हुए हैं, लेकिन इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ छिपे हैं। जनता के बीच खुद को संवेदनशील और सामाजिक सरोकार से मतलब रखने वाले की छवि बनाने के लिए सेव टाइगर जैसे कैंपेन चलाए जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक प्रतिष्ठित चैनल ने तो आमजन से बाघ बचाने के सुझाव सुझाने की अपील कर रहा है, लेकिन उसकी संजीदगी का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मेरे द्वारा उनकी वेबसाइट/ब्लॉग पर तमाम संदेश छोडऩे के बाद भी आज तक उनका कोई जवाब नहीं आया। जबकि दूसरे मुद्दों पर वहीं हर रोज गर्मागर्म बहस चलती है। ये सच है कि इस तरह के कैंपेन थोड़ी बहुत जागरुकता फैलाने में मददगार साबित हो सकते हैं, मगर इन तरीकों से बाघों को नहीं बचाया जा सकता। बाघ केवल तब ही बचेंगे जब सरकार बचाना चाहेगी। और इसके लिए मनमोहन सिंह जैसे नेताओं का जागना बेहद जरूरी है।

Friday, July 2, 2010

कश्मीर विवाद:जवानों को नहीं आवाम को संयम बरतना होगा

नीरज नैयर
कल्पना कीजिए की कुछ लोग आपको मार रहे हैं और अपने बचाव में यदि आप उनपर हाथ उठाते हैं तो आपकी भर्त्सना की जाती है, आपको दंडित किया जाता है। कश्मीर में तैनात केंद्रीय अर्ध सैनिक बल आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहे हैं। सीआरपीएफ पर 11 नागरिकों को मारने का आरोप है, घाटी में फोर्स के खिलाफ जबरदस्त माहौल है। हर रोज प्रदर्शन हो रहे हैं, लाठी-डंड़ों से लैस प्रदर्शनकारी हालात काबू करने में लगे जवानों पर हमला बोल रहे हैं। सोपोर, बारामूला, श्रीनगर और अनंतनाग जैसे कुछ इलाकों की सड़कें ईंट-पत्थरों से पटी पड़ी हैं, कहीं टायर जल रहे हैं तो कहीं गाड़ियां। ये सारा फसाद कुछ दिनों पहले सीआरपीएफ की फायरिंग में एक युवक की मौत से शुरू हुआ। इस तरह के हालात घाटी में पहले भी बनते रहे हैं, लेकिन एक लंबी खामोशी के बाद अचानक इतना सब हो जाना किसी बड़ी साजिश की तरफ इशारा कर रहा है। बिल्कुल ऐसी ही स्थिति दो साल पहले इसी मौसम में बनी थी, जब अमरनाथ यात्रियों के लिए अस्थाई टैंट के नाम पर 25 एकड ज़मीन आवंटित की गई थी। इस बार भी अमरनाथ यात्रा के वक्त घाटी सुलग रही है।

दरअसल अलगाववादियों को अमरनाथ यात्रा के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने और पाकिस्तान के पक्ष में माहौल बनाने का सुनहरा मौका मिल जाता है। पाकिस्तान सेना भी इस मौके की तलाश में रहती है ताकि दहशत फैलाने वालों को सीमा पार करवाई जा सके। पिछले साल अगर अमरनाथ यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से हो गई तो इसके पीछे मुंबई हमला है। मुंबई हमले के बाद दोनों देशों के बीच पैदा हुए तनाव ने पाक हुक्मरानों को कश्मीर के बारे में सोचने का मौका ही नहीं दिया। अलगाववादी ताकतें भी समर्थन के अभाव में खामोश बैठी रहीं। लेकिन अब मुंबई हमले का मामला पूरी तरह से ठंडे बस्ते में जा चुका है। पाक पर अब न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का दबाव है और न ही भारत सरकार उसके प्रति कड़े रुख पर अडिग है। दोनों मुल्कों के बीच विश्वास बहाली के नाम पर लंबे समय से रुकी बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हो चुका है। ऐसे में सीमा पार से कश्मीर में बैठे अलगाववादियों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने में पाकिस्तान को कोई नुकसान नहीं। पाक इस बात को अच्छे से समझता है कि कश्मीर जितना सुर्खियों में रहेगा, उतना ही भारत पर दबाव पड़ेगा। पिछले बीस-पच्चीस दिनों से जारी हिंसा की खबरें भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ विदेशी मीडिया में भी प्रमुखता से आ रही हैं। सरकार सेना की सहायता लेने पर विचार कर रही है और संभव है कि एक-दो दिनों पर इस पर अमल भी कर दिया जाए। कश्मीर जैसी घाटी में जहां अशांति आग की तरह फैलती है, सेना दूसरे केंद्रीय बलों और राय पुलिस की अपेक्षा स्थिति से बेहतर तरीके से निपट सकती है। इसलिए यहां ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने घाटी से सेना को हटाकर अशांति के प्रवेश के लिए खुद ही दरवाजे खोले थे। राय के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला यूपीए सरकार के सहयोगी हैं और राय में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। संभवत: इस करके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सेना हटाने के उमर के प्रस्तावों पर सहमत होते गए। मौजूदा वक्त में भी उमर अबदुल्ला के सीआरपीएफ को बेकाबू बल कहने का केंद्र सरकार समर्थन कर रही है।

यदि उमर के इस कथन को मान भी लिया जाए तो फोर्स के बेकाबू होने का जिम्मेदार कोई और नहीं कश्मीर का आवाम है। कर्फ्यू तोड़कर कानून का उल्लंघन करने वाले, सुरक्षाबलों पर पथराव करने वाले क्या निर्दोषों की श्रेणी में आ सकते हैं। 25 जून से 30 जून तक सीआरपीएफ के दर्जनों जवान घायल हुए, क्या इसे जनता का बेकाबूपन नहीं कहा जाएगा। एक रोज पहले एक एजेंसी द्वारा जारी की गई तस्वीर में साफ नजर आ रहा था कि हिंसक और बेकाबू कौन हैं। कुछ लोग मिलकर लाठी-डंड़ों से एक जवान को पीटते हैं, अखबारों में प्रमुखता से उस दर्शय को प्रकाशित किया जाता है लेकिन राय के मुख्यमंत्री को कुछ नजर नहीं आता। उमर अबदुल्ला महज वोट बैंक को बचाने की खातिर आंख पर पट्टी बांधे बैठें और वो ही बोल रहे हैं जो अलगवावादी उनसे बुलवाना चाहते हैं। पीडीपी इस मुद्दे को उमर सरकार की असफलता के तौर पर भुनाने की कोशिश में लगी है और उमर इस प्रयास से भटकने वाले वोटों को सुरक्षाबलों के खिलाफ बयान देकर पुन: अपने करीब लाने की सोच रहे हैं। जो लोग गोलीबारी में मारे गए हैं उनमें छह साल का एक बच्चा भी शामिल है। अलगाववादी इस बात को भी मुद्दा बना रहे हैं कि सुरक्षा बल बच्चों तक को नहीं छोड़ रहे। मौत चाहे बच्चे की हो या बड़े की किसी का भी जाना मातम और रोष लेकर आता है। लेकिन सवाल यहां ये है कि आखिर एक छह साल का बच्चे को उस भीड़ का हिस्सा किसने बनने दिया। बच्चे के मां-बाप को भी इस बात का इल्म होगा कि कर्फ्यू तोड़कर आगे बढ़ने वाली भीड़ का सुरक्षाबल फूलों से स्वागत नहीं करेंगे बावजूद इसके जाने दिया गया। कहा जाता है कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती, तो फिर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसे नियंत्रित करने वाले चेहरा और उम्र देख-देखकर कार्रवाई करेंगे। अलगाववादी और आतंकवादी अपने हितों की पूर्ति के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं और अगर उनके मां-बाप इसको जायज मानते हैं तो फिर विलाप किस बात का। केंद्र सरकार को सीआरपीएफ को संयम बरतने के निर्देश देने से पहले जरा हालातों पर बारीकी से गौर करना चाहिए। हजारों की संख्या में मरने-मारने पर उतारू लोगों को महज लाठी के बल पर काबू में नहीं लाया जा सकता। अपने ऊपर हमला होने के बाद भी सामने वाले को जिंदा जाने देने से बड़ा संयम और क्या हो सकता है। यदि जवानों ने संयम नहीं बरता होता तो मरने वालो ंकी तादाद कई गुना यादा पहुंच गई होती। संयम बरतने की जरूरत सीआरपीएफ को नहीं बल्कि उन कश्मीरियों को है जो अलगाववाद की धारा में बेफिजूल बहे जा रहे हैं।