नीरज नैयर
हमेशा चर्चा में रहने वाले चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन एक बार फिर चर्चा में हैं। लेकिन इस बार चर्चा का मुद्दा थोड़ा अलग है। मकबूल साहब ने भारतीय का चोला उतारकर अब कतर की नागरिकता हासिल कर ली है। वो पिछले काफी समय से निर्वासित सा जीवन बिता रहे थे। भारत सरकार ने उन्हें सुरक्षा की गारंटी भी दी मगर हुसैन वापसी की हिम्मत नहीं जुटा पाए। देश के तमाम बुध्दिजीवी और चित्रकार हुसैन के इस कदम पर आहत और आक्रोशित हैं। आहत इसलिए की एक महान चित्रकार का साथ उनसे छूट गया और आक्रोशित इसलिए कि चंद हिंदुवादी संगठनों के अमानवीय कृत्यों ने मकबूल साहब को इतना बड़ा फैसला लेने के लिए मजबूर कर दिया। हुसैन के समर्थकों का मानना है कि वो रंगों और रेखाचित्रों के चित्रकार हैं। उनके यहां नख-शिख चित्रण नहीं होता, आमतौर पर वह चेहरा भी नहीं बनाते। जिस चित्र को लेकर इतना विवाद उठा वो भी एक रेखाचित्र था। साफ है कि नगनता हुसैन में नहीं बल्कि उसका विरोध करने वालों की आंखों में है। वो ये तर्क भी देते हैं कि जब मंदिरों की दीवारों पर मिथुन चित्रकारी मिलती हैं,
शिव-पार्वती के प्रेम संबंधों का बखान किया जाता है, श्रीकृष्ण की रास लीलाओं पर आनंदित हुआ जाता है तो फिर एक चित्रकार की भावनाओं पर इतना हंगामा क्यो मचाया गया। यह बात सही है कि हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वत्रंता है, लेकिन जब यह स्वतंत्रा किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कारण बन जाए तो बवाल मचना लाजमी है। हुसैन का समर्थन करने वालों को जरा चित्रकारी का चश्मा उतारकर उनके द्वारा बनाई गईं कला-कतिृयों पर भी गौर फरमाना चाहिए। मकबूल फिदा हुसैन के निशाने पर हिंदू धर्म के अराध्य ही रहे, उन्होंने देवी-देवताओं के तमाम नगन चित्र बनाएं। भारतीयता की बात करने वाले हुसैन ने तो भारत माता को भी नहीं बख्शा, उनका भी बेहद आपत्तिजन चित्रण कर डाला। हुसैन साहब खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, यदि वास्तव में ऐसा होता तो उनकी कूंची कभी इस्लाम या ईसायत के खिलाफ क्यों नहीं चली। सच यही है कि हुसैन ने अपनी चित्रकारी से लाखों-करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को आहत किया। उन्होंने अपने फूहड़ चित्रों को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने का जरिया बनाया। लिहाजा हुसैन के कदम के लिए हिंदुवादी संगठनों को दोषी हरगिज नहीं ठहराया जा सकता। केवल भारत ही नहीं, जहां कहीं भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई, वहां दंगे भड़के,
विरोध-प्रदर्शन हुए। डेनमार्क में छपे हजरत मुहम्मद साहब के कार्टूनों को भला कौन भूल सकता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर छापे गए इन काटूनों ने समूचे विश्व में मुस्लिम समुदाय को उद्देलित कर दिया। कार्टून बनाने वाले के खिलाफ फतवा जारी किया गया, उसके सिर पर ईनाम रखा गया। अभी हाल ही में जूता बनाने वाली कंपनी प्यूमा पर धार्मिक भावानाओं से खिलवाड़ का आरोप लगाते हुए मुस्लिम समुदाय ने उसके खिलाफ भी मोर्चा खोला। जब इस सब को जायज ठहराया जा सकता है तो, हुसैन के विरोध पर आपत्ति क्यों। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने तो यहां तक कहा कि उनका संगठन हुसैन के वापसी के खिलाफ नहीं, बस उन्हें लोगों की भावनाएं आहत करने के लिए माफी मांगनी होगी। हुसैन ने कतर की नागरिकता ग्रहण करने के बाद जो बयान दिया उसका जिक्र करना यहां जरूरी है। उन्होंने कहा,
'भारत ने मेरा बहिष्कार किया, मेरी कला और आत्म अभिव्यक्ति पर हमला किया गया। मुझे दुख है कि मैं भारत छोड़ रहा है, लेकिन जब संघ परिवार ने मुझ पर हमला किया तो सरकार चुप रही। ऐसे में मैं कैसे वहां रह सकता हूं। ' मकबूल साहब का यह कहना बिल्कुल सही है कि सरकार चुप रही, लेकिन हमले को लेकर नहीं बल्कि उनकी चित्रकारी को लेकर। अगर उनके आपत्तिजनक चित्रों पर सरकार की तरफ से सख्त रुख अपनाया जाता तो शायद बात इतनी बढ़ती ही नहीं। सरकार का भी फर्ज बनता है कि वो धार्मिक उन्माद फैलाने वाले कारकों को आकार न लेने दे। जहां तक बात हमले की है तो वो हुसैन साहब की कला पर नहीं वरन उनके ग़लत विचारों पर था। कलाकारों के प्रति हमारे देश में आदर और सम्मान का जो भाव है उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। मकबूल फिदा हुसैन आज जिस मुकाम पर हैं वो उन्होंने भारत में ही हासिल किया है, इसलिए ये कहना कि भारत ने उनका बहिष्कार किया, किसी के लिए भी स्वीकार्य नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हुसैन ने महज एकाध बार विवादित चित्रों का चित्रण किया, वो बार-बार वहीं सब दोहराते रहे। 1990 में पहली बार धार्मिक भवनााओं को भड़काने वाले उनके चित्र आम जनता के सामने आए, हालांकि ये बात अलग है कि उन्होंने ये चित्र 1970 में बनाए थे। इसके बाद 6 जनवरी 2006 को एक पत्रिका में भारत माता को लेकर उनकी अभद्र पेंटिंग प्रकाशित हुई। हुसैन ने बवाल के बाद माफी मांगी और चित्र वापस लेने का वादा भी किया,
मगर वादा निभाया नहीं। थोड़े वक्त बाद ही उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर यह तस्वीर चस्पा कर दी गई। इससे साफ है कि चित्रकार साहब स्वयं विवादों में घिरे रहना चाहते थे। भारत एक संस्कृति प्रधान देश हैं, हमारी कुछ मान्यताएं है, धार्मिक भावनाए हैं। उनके साथ खिलवाड़ की स्थिति में जनमानस के आक्रोश को अव्यवहारिक या अमर्यादित कतई नहीं ठहराया जा सकता। हो सकता है कि विश्व हिंदूं परिषद, आरएसएस या शिवसेना के विरोध का तरीका कुछ गलत रहा हो मगर विरोध के कारण को गलत नहीं कहा जा सकता। सिर्फ हिंदुवासी संगठन ही नहीं आम हिंदुओं में भी हुसैन के चित्रों को लेकर रोष है, बस फर्क केवल इतना है कि वो सार्वजनिक तौर पर इसका प्रदर्शन नहीं करते। मकबूल फिदा हुसैन अब कतर के नागरिक बन गए हैं, तो क्या वो अपनी भावनाओं को वैसी ही उड़ान दे पाएंगे जैसी भारत में दिया करते थे। क्या वो अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन इस्लामी नायकों के साथ करेंगे? अगर वो ऐसा करते हैं तो उनके विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं बचेगी, लेकिन ऐसा वो कर पाएंगे इस बात की संभावना दूर-दूर तक दिखलाई नहीं देती। केवल भारत ही ऐसा देश है जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इतनी स्वतंत्रता मिल सकती है। सलमाल रश्दी की सैटनिक वर्सिस और तस्लीमा नसरीन की लाा पर क्या बवाल नहीं हुआ, भले ही इन दोनों ने कितना भी सच लिखा हो मगर उससे भावनाएं तो आहत हुई ही। तस्लीमा लंबे समय से भारत में निर्वासित जीवन बिता रही हैं। अभी हाल ही में उनके एक लेख जिसमें उन्होंने मुहम्मद साहब को बुर्के के खिलाफ बताया था को लेकर कर्नाटक में मुस्लिम धर्मावलंबियों ने हिंसक प्रदर्शन किए,
स्थिति को नियंत्रित करने के लिए कर्फ्यू तक लगाना पड़ा। हालांकि तस्लीमा इस लेख को अपना मामने से इंकार कर रही हैं। तस्लीमा नसरीन ने अपने लेखों में इस्लाम की कार्यपध्दति की आलोचना की, वो एक महिला की हैसीयत से उसमें बदलाव की पक्षधर हैं। लेकिन उन्होंने कभी इस्लामिक धर्म गुरुओं का अशील व्याख्यान नहीं किया। बावजूद इसके उन्हें अपना वतन छोड़ना पड़ा। मकबूल साहब ने तो धर्म पर ही अशीलता की कूंचियां चलाई तो फिर उनके प्रति प्रेमभाव और सम्मान कैसे कायम रह सकता है। मकबूल फिदा हुसैन अपनी आदत और कृत्यों से अच्छी तरह वाकिफ हैं, उन्हें इल्म है कि वो पुन: वही सब दोहराए बिना नहीं रह पाएंगे, इसलिए उन्होंने कतर में पनाह लेना बेहतर समझा। एक चित्रकार के तौर पर हुसैन का समर्थन करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन जो कुछ उन्होेंने किया उसको सही करार देना सरासर गलत है।