नीरज नैयर
मिस्टर 10 पसर्ेंट से राष्ट्रपति के ओहदे तक पहुंचे आसिफ अली जरदारी भारत के साथ रिश्तों की गर्माहट को और बढ़ाना चाहते हैं. बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा में जरदारी ने गर्मजोशी से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस्तकबाल करके यह जताने का प्रयास किया कि वो दहशतगर्दी के खेल से हटकर कुछ करने की सोच रहे हैं. बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाक हुकूमत के अंदरूनी मामलों में उलझे रहने के चलते भारत-पाक बातचीत सर्द खाने में पड़ी थी जिसे पाकिस्तानी राष्ट्रपति फिर से माकूल माहौल में लाने की जद्दोजहद करते दिखाई पड़ रहे हैं. दोनों देशों ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने, संयुक्त आतंकवाद निरोधक नीति पर काम करने एवं द्विपक्षीय व्यापार के लिए सीमा की बंदिशें खोलने पर सहमति जताई है.
जिसे निहायत ही अच्छा कदम समझा जा सकता है. वैसे इस बात में कोई शक-शुबहा नहीं कि जरदारी जब से सत्ता में आए हैं भारत-पाक के बीच उपजी कटुता को मिटाने की बातें करते रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के तख्तोताज पर काबिज हुक्मरानों की ऐसी भारत पसंदगी ने वक्त दर वक्त जो निशानात रिश्तों की तस्वीर पर छोड़े हैं उससे जरदारी की बातों को सहज ही स्वीकारा नहीं जा सकता. पाकिस्तान की विदेश नीति में कश्मीर हमेशा सबसे ऊपर रहा है. वहां की अवाम भी शायद उसी नेता के सिर पर सेहरा बांधना पसंद करती है जो कश्मीर की चिंगारी को सुलगाता रहे. ऐसे में जरदारी इससे कैसे अछूते रह सकते हैं. राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही आवाम को संबोधित करते हुए जरदारी ने ऐलान किया था कि मुल्क कश्मीर के मामले में बहुत जल्दी खुशखबरी सुनेगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा में मनमोहन सिंह से संबंधों को नए आयाम देने के वादे के बाद जरदारी ने पाकिस्तानी खबरनवीसों से जो कुछ कहा वह उनके दिल और जुबां के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. जरदारी ने कहा कि असल मुद्दा कश्मीर है और अगर द्विपक्षीय वार्ता से नतीजा नहीं निकलता तो हम संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाने से भी एतराज नहीं करेंगे. अभी हाल ही में जब जरदारी ने कश्मीर में हिंसक संघर्ष करने वालों को आतंकवादी करार दिया तो उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी, भारत सरकार ने दिल खोलकर पाकिस्तानी सदर के बयान का स्वागत किया लेकिन महज चंद घंटों के अंतराल में ही यह साफ हो गया कि पाक सिपहसलारों के जहन में कश्मीर के अलावा कुछ और ठहर ही नहीं सकता. पर यहां जरदारी की मंशा पर पूरी तरह सवालात उठाना भी जायज नहीं होगा.
जरदारी ने जिस तरह हिम्मत के साथ कश्मीर मसले पर इतनी ज्वलंत टिप्पणी करने का साहस दिखाया उतना शायद ही पाक का कोई शासक कर सका हो. पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ तो इन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा करते थे. वैसे यह अनायास ही नहीं है, जरदारी के इस बयान के पीछे कई कारण छिपे हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी कई चीजें हुई हैं, जो पाकिस्तान के खिलाफ जाती हैं. एक तो उसके सीमांत इलाके में अमेरिका की सैन्य कार्रवाई बदस्तूर जारी है जिसे लेकर पाक में आक्रोश है. दूसरे, अमेरिका और फ्रांस के साथ हुए भारत के परमाणु समझौते ने इस्लामाबाद को चिंतित और कुंठित कर दिया है. ऐसे में भारत को पहले की तरह अपना दुश्मन बताकर पाकिस्तान यूरोप या अमेरिका से कुछ हासिल नहीं कर सकता. लिहाजा सीमा पार से दोस्ती की पींगे बढ़ाने की बातें कही जा रही हैं. रह-रहकर संघर्ष विराम का उल्लंघन और पाक प्रधानमंत्री गिलानी की चीन से परमाणु करार की रट पड़ोसी मुल्क की कुंठा का ही परिणाम है. बीते कुछ दिनों में ही पाकिस्तानी फौज द्वारा सीमा पार से अकारण ही गोलीबारी की अनगिनत खबरें सामने आ चुकी हैं. घुसपैठ का आलम यह है कि अगर हमारी सेना सतर्क नहीं होती तो कारगिल की पुनरावृत्ति हो चुकी होती. कश्मीर में अलगाववादियों को आईएसआई और पाक सेना का पूरा समर्थन मिल रहा है. देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों की संलिप्तता किसी से छिपी नहीं है. यही कारण है कि पाकिस्तान की नई सरकार भारत परस्त नजरिए अपनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी छवि सुधारना चाहती है. करार के बाद भारत न केवल अमेरिका के नजदीक आ गया है बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में टांग फैलाकर बैठने का हक भी हासिल हो गया है. फ्रांस आदि देशों से भारत की बढ़ती नजदीकी पाक की परेशानी को और बढ़ा रही है. दरअसल अमेरिका से पाक के रिश्ते अब उतने मधुर नहीं रहे हैं जितने पहले थे. अपनी सीमा में अमेरिकी सैनिकों की कार्रवाई से बौखलाकर पाक पीएम गिलानी ने जिस लहजे में अमेरिका को चेताया था उससे साफ है कि बुश-मुश द्वारा तैयार की गई रिश्तों की गांठ ढीली पड़ गई है.
पाकिस्तान ने आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से सालों तक जो मोटी रकम वसूली थी उस पर ओबामा या मैक्केन के आने के बाद रोक लग सकी है. पाक की छवि वैसे भी विश्व पटल पर आतंकवादी देश के रूप में बनी हुई है, ऐसे में अमेरिका से लेकर यूरोप तक भारत के दोस्तों की फेहरिस्त बढ़ने से पाक की भारत विरोधी गतिविधि उसके संकटकाल को और लंबा खींच सकती है, लिहाजा सोची-समझी रणनीति के तहत ही कश्मीर पर जरदारी का बयान और आतंकवाद के सफाए के लिए मिलकर लड़ने जैसे बातें पड़ोसी मुल्क के सियासतदां की तरफ से आ रही है. पाकिस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां के शासकों ने कभी भारत का भला नहीं चाहा, बात चाहे बेनजीर की हो, शरीफ की हो या फिर मुशर्रफ की हर किसी के दिल में कुछ और जुबां पर कुछ और रहा, सबकी यही कोशिश रही कि कश्मीर छीनकर हिंदुस्तान की हरियाली को उजाड़ा जाए. भारत हमेशा ही पाकिस्तान को अपना दोस्त, अपना भाई समझता रहा है लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा दोस्ती को बहुत हल्के में लिया. अगर इस्लामाबाद असलियत में भारत से दोस्ती बढ़ाना चाहता है केवल खुशफहमी वाले बयानात से कुछ नहीं होगा उसे जमीनी स्तर पर कदम आगे बढ़ाना होगा, पर अफसोस ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ती.
नीरज नैयर
Monday, October 13, 2008
Saturday, October 4, 2008
बिल चुकाने के पैसे नहीं किस बात का राष्ट्रीय खेल
नीरज नैयरजब केपीएस गिल को आईएचएफ से बाहर का रास्ता दिखाया गया तो पूरे देश के हॉकी प्रेमियों में जश् का माहौल था. उम्मीदें लगाई जा रही थीं कि हॉकी अब फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकेगी. मैदानों में लगने वाला खिलाड़ियों का जमावड़ा इस बात की गवाही दे रहा था कि क्रिकेट के काले बादलों ने भले ही हॉकी को कुछ देर के लिए ढक लिया हो मगर उसकी चमक आज भी कायम है. पर अब लगता है कि वो जोश, वो जुनून, वो स्टिक के सहारे दुनिया जीतने का जज्बा सब बेकार है. सच तो यह है कि इस मुल्क में न तो हॉकी का उद्धार हो सकता है और न इससे ताल्लुकात रखने वालों का. अप्रैल-मई में ऑस्ट्रेलिया में जो कुछ भी हुआ उसके बाद शायद ही कोई हॉकी में अपना भविष्य देखना चाहेगा. पूरे देश के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि टीम के पास खाने का बिल चुकाने तक के पैसे नहीं थे. वो तो भला हो उस भारतीय मूल के व्यक्ति का जिसने बिल चुकाकर विदेशी सरजमीं पर देश की इात को तार-तार होने से बचा लिया. लेकिन अब वो बेचारा खुद अपनी 7.2 लाख की भारी-भरकम रकम वापस लेने के लिए दर-दर भटक रहा है.
इसे हॉकी और उसके प्रेमियों के प्रति उदासीनता ही कहा जाएगा कि आईएचएफ से लेकर खेल मंत्रालय तक देश की लाज रखने वाले की सुनने को तैयार नहीं है. छह महीने गुजर जाने के बाद भी उसे रकम नहीं लौटाई गई है. ओलंपिक में क्वालीफाई न कर पाना भले ही भारतीय हॉकी के इतिहास का सबसे काला दिन हो मगर इस वाक्य के बाद अब यह उम्मीद लगाना बेमानी होगा की हॉकी का स्वर्णिम युग कभी लौट के आएगा. हॉकी अब पूरी तरह से खत्म हो गई है. इसको बचाने के लिए अब कोई आगे नहीं आने वाला. किसी जमाने में हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के दौर में इसके पास बहुत माई-बाप थे, लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी लोगों की जुंबा पर हैं मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार को लोगों ने कब का भुला दिया. आलम यह है कि हॉकी आज केवल गली-मोहल्लों का खेल बनकर ही रह गई है. हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है. इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है. हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था. यह जानकर हैरत होती है कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई के पास इतने पैसे नहीं थे. मगर अब क्रिकेटरों के लिए करोड़ों की बोली लग रही है. जो शाहरुख खान चक दे इंडिया में हॉकी के दीवाने दिखाए थे वो असल जिंदगी में क्रिकेट खरीद रहे हैं. जो मां-बाप यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा हॉकी में समय बर्बाद करे वो बिल्कुल सही हैं. क्रिकेट में पैसा है, शौहरत है, सम्मान है. पर हॉकी में क्या है. न पैसा, न शौहरत और न ही सम्मान.
टीम इंडिया जब कोई टूर्नामेंट जीतकर आती है तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते हैं मगर जब हॉकी खिलाड़ी जीतकर आते हैं तो उनके स्वागत के लिए भी कोई आना गंवारा नहीं समझता. जब सरकार खुद राष्ट्रीय खेल को दफन करने पर अमादा हो तो फिर किसी और को दोष देने से क्या फायदा. देश में अब तक सरकार स्पोट्र्स कल्चर बनाने में नाकाम रही है. नेशनल स्पोट्र्स पॉलिसी की बातें भी धूल फांक रही हैं, जिससे तहत ग्रामीण स्तर पर खेलों को पहुंचाकर प्रतिभा खोजने का लक्ष्य रखा गया था. इसके अलावा सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश में हॉकी के लिए पर्याप्त मैदान तक नहीं है. स्कूल और कॉलेज की हॉकी आज भी घास पर खेली जाती है. ऐसे में एस्ट्रो टर्फ की रफ्तार से खिलाड़ी कैसे तालमेल बिठा सकते हैं. देश भर में लगभग एक दर्जन मैदान में ही एस्ट्रो टर्फ बिछी है और रही सही कसर सरकार ने पिछले साल हॉकी को अपनी प्राथमिक सूची से हटाकर कर दी है. आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे. और मॉस्को में पॉलीग्रास पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था. सरकार शायद समझती है कि कमजोर कंधों को सहारे की जरूरत नहीं होती तभी तो दमतोड़ रही हॉकी के साथ ऐसा सौतेला बर्ताव किया जा रहा है. यह हॉकी खिलाड़ियों की बदकिस्तमी है कि राष्ट्रीय खेल से जुड़े होने के बाद भी उन्हें इस तरह की जलालत अमूमन झेलनी पड़ती है.
चाहे कोई लाख दिलासे दे मगर कड़वी सच्चाई यही है कि स्टिक के जादूगर ध्यानचंद के सपनों का अब अंत हो चुका है. अगर ध्यानचंद आज होते तो शायद इस घटना के बाद वो भी अपनी हॉकी को एक ऐसे खूंटे पर टांग देते जहां से उसे चाहकर भी उतारना मुमकिन नहीं होता. ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा और विजेंद्र के पदक जीतने के बाद अभी जरूर अन्य खेलों को प्रोत्साहन देने की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं मगर वक्त गुजरते ही यह बातें हॉकी की तरह धीरे-धीरे दम तोड़ देंगी. क्रिकेट के अलावा हमारे देश में किसी और खेल का कोई स्थान नहीं यह बात अब हमें समझ लेनी चाहिए, हमें भूल जाना चाहिए राष्ट्रीय खेल भी कुछ होता है शायद तब ऐसे वाक्यों पर न शर्म से आंखें झुकेंगी और न दिल रोएगा.
नीरज नैयर9893121591
इसे हॉकी और उसके प्रेमियों के प्रति उदासीनता ही कहा जाएगा कि आईएचएफ से लेकर खेल मंत्रालय तक देश की लाज रखने वाले की सुनने को तैयार नहीं है. छह महीने गुजर जाने के बाद भी उसे रकम नहीं लौटाई गई है. ओलंपिक में क्वालीफाई न कर पाना भले ही भारतीय हॉकी के इतिहास का सबसे काला दिन हो मगर इस वाक्य के बाद अब यह उम्मीद लगाना बेमानी होगा की हॉकी का स्वर्णिम युग कभी लौट के आएगा. हॉकी अब पूरी तरह से खत्म हो गई है. इसको बचाने के लिए अब कोई आगे नहीं आने वाला. किसी जमाने में हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के दौर में इसके पास बहुत माई-बाप थे, लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी लोगों की जुंबा पर हैं मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार को लोगों ने कब का भुला दिया. आलम यह है कि हॉकी आज केवल गली-मोहल्लों का खेल बनकर ही रह गई है. हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है. इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है. हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था. यह जानकर हैरत होती है कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई के पास इतने पैसे नहीं थे. मगर अब क्रिकेटरों के लिए करोड़ों की बोली लग रही है. जो शाहरुख खान चक दे इंडिया में हॉकी के दीवाने दिखाए थे वो असल जिंदगी में क्रिकेट खरीद रहे हैं. जो मां-बाप यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा हॉकी में समय बर्बाद करे वो बिल्कुल सही हैं. क्रिकेट में पैसा है, शौहरत है, सम्मान है. पर हॉकी में क्या है. न पैसा, न शौहरत और न ही सम्मान.
टीम इंडिया जब कोई टूर्नामेंट जीतकर आती है तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते हैं मगर जब हॉकी खिलाड़ी जीतकर आते हैं तो उनके स्वागत के लिए भी कोई आना गंवारा नहीं समझता. जब सरकार खुद राष्ट्रीय खेल को दफन करने पर अमादा हो तो फिर किसी और को दोष देने से क्या फायदा. देश में अब तक सरकार स्पोट्र्स कल्चर बनाने में नाकाम रही है. नेशनल स्पोट्र्स पॉलिसी की बातें भी धूल फांक रही हैं, जिससे तहत ग्रामीण स्तर पर खेलों को पहुंचाकर प्रतिभा खोजने का लक्ष्य रखा गया था. इसके अलावा सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश में हॉकी के लिए पर्याप्त मैदान तक नहीं है. स्कूल और कॉलेज की हॉकी आज भी घास पर खेली जाती है. ऐसे में एस्ट्रो टर्फ की रफ्तार से खिलाड़ी कैसे तालमेल बिठा सकते हैं. देश भर में लगभग एक दर्जन मैदान में ही एस्ट्रो टर्फ बिछी है और रही सही कसर सरकार ने पिछले साल हॉकी को अपनी प्राथमिक सूची से हटाकर कर दी है. आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे. और मॉस्को में पॉलीग्रास पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था. सरकार शायद समझती है कि कमजोर कंधों को सहारे की जरूरत नहीं होती तभी तो दमतोड़ रही हॉकी के साथ ऐसा सौतेला बर्ताव किया जा रहा है. यह हॉकी खिलाड़ियों की बदकिस्तमी है कि राष्ट्रीय खेल से जुड़े होने के बाद भी उन्हें इस तरह की जलालत अमूमन झेलनी पड़ती है.
चाहे कोई लाख दिलासे दे मगर कड़वी सच्चाई यही है कि स्टिक के जादूगर ध्यानचंद के सपनों का अब अंत हो चुका है. अगर ध्यानचंद आज होते तो शायद इस घटना के बाद वो भी अपनी हॉकी को एक ऐसे खूंटे पर टांग देते जहां से उसे चाहकर भी उतारना मुमकिन नहीं होता. ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा और विजेंद्र के पदक जीतने के बाद अभी जरूर अन्य खेलों को प्रोत्साहन देने की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं मगर वक्त गुजरते ही यह बातें हॉकी की तरह धीरे-धीरे दम तोड़ देंगी. क्रिकेट के अलावा हमारे देश में किसी और खेल का कोई स्थान नहीं यह बात अब हमें समझ लेनी चाहिए, हमें भूल जाना चाहिए राष्ट्रीय खेल भी कुछ होता है शायद तब ऐसे वाक्यों पर न शर्म से आंखें झुकेंगी और न दिल रोएगा.
नीरज नैयर9893121591
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