नीरज नैयर
ये एक विचारणीय प्रश् है कि आखिर हमारे क्रिकेटरों की जेब से पैसा क्यों नहीं निकलता. ऐसे वक्त में जब पूरा देश बाढ़ पीड़ित बिहारवासियों की मदद को बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है. हमारे क्रिकेटर खामोश बैठे हैं. बॉलीवुड से लेकर उद्योगपतियों तक, राजनीतिज्ञों से लेकर आम आदमी तक हर कोई अपनी-आपनी सामर्थ्य के मुताबिक प्रकृति का कहर झेल रहे लोगों के आंसू पोछने की कोशिश में लगा है. बिहार में कोसी ने जो तबाही मचाई है उसकी भरपाई तो शायद ही हो पाए मगर थोड़ी-थोड़ी मदद दाने-दाने मोहताज लोगों को कुछ सहारा जरूर दे सकती है. बिहार में विकरालता और बेबसी का आलम ये हो चला है किखाने के लिए खून बहाया जा रहा है. लोग खाद्य सामग्री के लिए एक-दूसरे को कुचलने पर आमादा है. पर हमारे क्रिकेटरों के कानों तक शायद उन लोगों की करुण पुकार अब तक नहीं पहुंच पाई है. हमारे देश में क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभलरहा है.
सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. धोनी एक फीता काटने के 50 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से ही कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्य प्राप्ति में प्रेरक होता है. बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है.
बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. बात चाहे गुजरात और जम्मू-कश्मीर में भूकंप की हो या सूनामी जैसी आपदाओं की बॉलीवुड कलाकार हमेशा दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल उठते रहे हैं. कोई इसे पब्लिसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें. यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी, अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है.
नीरज नैयर
(9893121591)
Monday, September 22, 2008
Wednesday, September 17, 2008
गुस्ताव की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन
नीरज नैयर
कैरोबियाई देशों में तबाही मचाने के बाद अब समुद्री तूफान गुस्ताव अमेरिका के लिए दहशत बना हुआ है. गुस्ताव को तूफानों का बाप कहा जा रहा है. मौसम विज्ञानी भी इसकी भयावहता से हैरान हैं. वैसेयह कोई पहला मौका नहीं है जब समुद्र से तबाही की खौफनाक तस्वीर सामने आई हो. बीते दिनों म्यांमार में कहर ढ़ाने वाला नर्गिस और अमेरिका को रुलाने वाला कैटरीना भी आमतौर पर शांत रहने वाले समुद्र का रौद्र रूप था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर गुस्ताव जैसे समुद्री तूफानों की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन है. या इन्हें महज प्राकृतिक आपदा कहकर हम अपना पल्ला झाड़ सकते हैं. शायद नहीं. गुस्ताव, नर्गिस और कैटरीना जैसे तूफान महज प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि मानव की कारगुजारियों का ही नतीजा है. ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी सच्चाई है जिसे जानकार भी हम अंजान बने बैठे हैं.
प्रकृति से छेड़छाड़ के अनगिनत खौफनाक चेहरे हमारे सामने आ चुके हैं बावजूद इसके विकास की अंधी दौड़ में हम पर्यावरण संतुलन की बातों को हम हवा में उडाए जा रहे हैं. अफसोस की बात तो यह है कि इस अहम् मसले पर ठोस समाधान निकालने के बजाए विकसित और विकासशील देश आपसी लड़ाई में उलझे हैं. अमेरिका कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत और चीन आदि देशों को दोषी ठहरा रहा है, तो भारत अमेरिका को. अमेरिका का तर्क है कि विकसित बनने की होड़ में विकासशील देश पर्यावरण को अंधाधुंध तरीके से नुकसान पहुंचा रहे हैं. जबकि विकसाशील देशों का कहना है कि अमेरिका आदि देश अपने गिरेबां में झांके बिना दूसरों पर दोषारोपण कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए दिसंबर 2007 में बाली में हुआ सम्मेलन भी इसी नोंक-झोंक की भेंट चढ़ गया था. पिछली एक सदी में आबादी में इजाफे, बढ़ते औद्योगिकीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के चलते पारिस्थितिकीय संतुलन खत्म होने लगा है. जिसके चलते गंभीर खतरे उत्पन्न हो रहे हैं
ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि विनाश को जन्म दे रही है. इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में साफ संकेत दिया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते तूफानों की विकरालता में वृद्धि होगी और ऐसा बाकायदा हो रहा है. 1970 के बाद उत्तरी अटलांटिक में ट्रोपिकल तूफानों में बढ़ोतरी हुई है तथा समुद्र के जलस्तर और सतह के तापमान में भी वृद्धि हो रही है. लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीट पर ही तापमान पहले ही अपेक्षा कहीं अधिक गर्म हो गया है.
पिछले कुछ सालों में महासागर का तापमान सामान्य स्तर से करीब 20 गुना यादा गर्म पाया गया है. भारतीय समुद्र क्षेत्र का भी जलस्तर पहले से कहीं यादा तेजी से बढ़ रहा है.अभी तक के आकलनों के अनुसार इसमें सालाना 1 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी हो रही थी लेकिन ताजा आकलन बताता है कि अब यह बढ़ोत्तरी सालाना 2.5 मिमी की दर से हो रही है. भारत का समुद्र तट 7500 किलोमीटर लंबा है और देश की 35 फीसदी आबादी समुद्र के तटों पर बसी हुई है. यानी 36-37 करोड़ लोगों के लिए भविष्य में खतरा उत्पन्न हो सकता है. जलस्तर में इजाफे के साथ-साथ समुद्र का तापमान भी बढ़ रहा है. इस सदी के म य तक यानी 2050 तक समुद्र के तापमान में 1.5-2 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो जाएगी. जबकि सदी के अंत तक यह बढ़ोतरी 2.3-3.5 डिग्री तक की होगी. ये आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं. क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीसवीं सदी के दौरान समुद्र के जलस्तर में कुल 1.7 मिमी की बढ़ोतरी हुई है. दूसरे, जलस्तर में सालाना बढ़ोतरी सिर्फ 0.5 फीसदी की रही है. 1993-2003 के दौरान समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी 0.7 मिमी सालाना रही है, जबकि ताजा आंकड़े इससे कहीं यादा भयावह हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है. हिमालय से लेकर अंटार्कटिक तक लेशियरों का पिघलना जारी है. ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारणों में से एक जहरीले रसायन डीडीटी के अंधाधुंध इस्तेमाल को भी माना जा रहा है. हालांकि अब इसका इस्तेमाल काफी कम हो गया है. लेकिन दो दशक पहले तक पूरी दुनिया में बतौर कीटनाशक इसका खूब इस्तेमाल होता था.
वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा के साथ डीडीटी के अंश ग्लेशियरों तक पहुंचते हैं और ऊंचे ग्लेशियरों की बर्फ में भंडारित होते रहते हैं जो अब बर्फ को गलाकर पानी बना रहे हैं. हाल में किए गए शोध में अंटार्कटिक में पाए जाने वाले पेंगुइन के रक्त में डीडीटी के अंश मिले हैं. इस आधार पर वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लेशियरों में अभी भी डीटीटी के कण मौजूद हैं जो इनके पिघलने का कारण बन रहे हैं. अंटार्कटिक में पिछले 30-40 सालों के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेज हुई है तथा औसत तापमान में छह डिग्री की बढ़ोतरी हुई है. हाल के वर्षों में जिस तेजी से दुनिया में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उतनी तेजी से पिछले 10 हजार वर्षों में कभी नहीं हुआ. वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन की दर को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक दुनिया का औसत तापमान दो डिग्री बढ़ जाएगा. जिससे समुद्र तल का स्तर भयंकर रफ्तार से बढ़ेगा, आंधियों और तूफान के साथ-साथ असहनीय गर्मी भी झेलनी पड़ेगी. इन आपदाओं में से कई सच्चाई बन कर हमारे सामने अब तक आ चुकी हैं.
दक्षिणी एशिया में पहले भीषण बाढ़ से लोगों का सामना बीस सालों में एक बार होता था लेकिन हाल के दशकों में पांच सालों में लोगों को भीषण बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ती है. यह दुखद है कि ग्लोबल वार्मिंग को नजरअंदाज करने का खामियाजा भुगतने के बाद भी हम इसे लेकर सचेत नहीं हो रहे हैं. जलवायु परिवर्तन को महज सरकार की जिम्मेदारी कहकर भी नहीं टाला जा सकता. हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी.
नीरज नैयर
9893121591
कैरोबियाई देशों में तबाही मचाने के बाद अब समुद्री तूफान गुस्ताव अमेरिका के लिए दहशत बना हुआ है. गुस्ताव को तूफानों का बाप कहा जा रहा है. मौसम विज्ञानी भी इसकी भयावहता से हैरान हैं. वैसेयह कोई पहला मौका नहीं है जब समुद्र से तबाही की खौफनाक तस्वीर सामने आई हो. बीते दिनों म्यांमार में कहर ढ़ाने वाला नर्गिस और अमेरिका को रुलाने वाला कैटरीना भी आमतौर पर शांत रहने वाले समुद्र का रौद्र रूप था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर गुस्ताव जैसे समुद्री तूफानों की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन है. या इन्हें महज प्राकृतिक आपदा कहकर हम अपना पल्ला झाड़ सकते हैं. शायद नहीं. गुस्ताव, नर्गिस और कैटरीना जैसे तूफान महज प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि मानव की कारगुजारियों का ही नतीजा है. ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी सच्चाई है जिसे जानकार भी हम अंजान बने बैठे हैं.
प्रकृति से छेड़छाड़ के अनगिनत खौफनाक चेहरे हमारे सामने आ चुके हैं बावजूद इसके विकास की अंधी दौड़ में हम पर्यावरण संतुलन की बातों को हम हवा में उडाए जा रहे हैं. अफसोस की बात तो यह है कि इस अहम् मसले पर ठोस समाधान निकालने के बजाए विकसित और विकासशील देश आपसी लड़ाई में उलझे हैं. अमेरिका कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत और चीन आदि देशों को दोषी ठहरा रहा है, तो भारत अमेरिका को. अमेरिका का तर्क है कि विकसित बनने की होड़ में विकासशील देश पर्यावरण को अंधाधुंध तरीके से नुकसान पहुंचा रहे हैं. जबकि विकसाशील देशों का कहना है कि अमेरिका आदि देश अपने गिरेबां में झांके बिना दूसरों पर दोषारोपण कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए दिसंबर 2007 में बाली में हुआ सम्मेलन भी इसी नोंक-झोंक की भेंट चढ़ गया था. पिछली एक सदी में आबादी में इजाफे, बढ़ते औद्योगिकीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के चलते पारिस्थितिकीय संतुलन खत्म होने लगा है. जिसके चलते गंभीर खतरे उत्पन्न हो रहे हैं
ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि विनाश को जन्म दे रही है. इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में साफ संकेत दिया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते तूफानों की विकरालता में वृद्धि होगी और ऐसा बाकायदा हो रहा है. 1970 के बाद उत्तरी अटलांटिक में ट्रोपिकल तूफानों में बढ़ोतरी हुई है तथा समुद्र के जलस्तर और सतह के तापमान में भी वृद्धि हो रही है. लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीट पर ही तापमान पहले ही अपेक्षा कहीं अधिक गर्म हो गया है.
पिछले कुछ सालों में महासागर का तापमान सामान्य स्तर से करीब 20 गुना यादा गर्म पाया गया है. भारतीय समुद्र क्षेत्र का भी जलस्तर पहले से कहीं यादा तेजी से बढ़ रहा है.अभी तक के आकलनों के अनुसार इसमें सालाना 1 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी हो रही थी लेकिन ताजा आकलन बताता है कि अब यह बढ़ोत्तरी सालाना 2.5 मिमी की दर से हो रही है. भारत का समुद्र तट 7500 किलोमीटर लंबा है और देश की 35 फीसदी आबादी समुद्र के तटों पर बसी हुई है. यानी 36-37 करोड़ लोगों के लिए भविष्य में खतरा उत्पन्न हो सकता है. जलस्तर में इजाफे के साथ-साथ समुद्र का तापमान भी बढ़ रहा है. इस सदी के म य तक यानी 2050 तक समुद्र के तापमान में 1.5-2 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो जाएगी. जबकि सदी के अंत तक यह बढ़ोतरी 2.3-3.5 डिग्री तक की होगी. ये आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं. क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीसवीं सदी के दौरान समुद्र के जलस्तर में कुल 1.7 मिमी की बढ़ोतरी हुई है. दूसरे, जलस्तर में सालाना बढ़ोतरी सिर्फ 0.5 फीसदी की रही है. 1993-2003 के दौरान समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी 0.7 मिमी सालाना रही है, जबकि ताजा आंकड़े इससे कहीं यादा भयावह हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है. हिमालय से लेकर अंटार्कटिक तक लेशियरों का पिघलना जारी है. ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारणों में से एक जहरीले रसायन डीडीटी के अंधाधुंध इस्तेमाल को भी माना जा रहा है. हालांकि अब इसका इस्तेमाल काफी कम हो गया है. लेकिन दो दशक पहले तक पूरी दुनिया में बतौर कीटनाशक इसका खूब इस्तेमाल होता था.
वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा के साथ डीडीटी के अंश ग्लेशियरों तक पहुंचते हैं और ऊंचे ग्लेशियरों की बर्फ में भंडारित होते रहते हैं जो अब बर्फ को गलाकर पानी बना रहे हैं. हाल में किए गए शोध में अंटार्कटिक में पाए जाने वाले पेंगुइन के रक्त में डीडीटी के अंश मिले हैं. इस आधार पर वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लेशियरों में अभी भी डीटीटी के कण मौजूद हैं जो इनके पिघलने का कारण बन रहे हैं. अंटार्कटिक में पिछले 30-40 सालों के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेज हुई है तथा औसत तापमान में छह डिग्री की बढ़ोतरी हुई है. हाल के वर्षों में जिस तेजी से दुनिया में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उतनी तेजी से पिछले 10 हजार वर्षों में कभी नहीं हुआ. वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन की दर को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक दुनिया का औसत तापमान दो डिग्री बढ़ जाएगा. जिससे समुद्र तल का स्तर भयंकर रफ्तार से बढ़ेगा, आंधियों और तूफान के साथ-साथ असहनीय गर्मी भी झेलनी पड़ेगी. इन आपदाओं में से कई सच्चाई बन कर हमारे सामने अब तक आ चुकी हैं.
दक्षिणी एशिया में पहले भीषण बाढ़ से लोगों का सामना बीस सालों में एक बार होता था लेकिन हाल के दशकों में पांच सालों में लोगों को भीषण बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ती है. यह दुखद है कि ग्लोबल वार्मिंग को नजरअंदाज करने का खामियाजा भुगतने के बाद भी हम इसे लेकर सचेत नहीं हो रहे हैं. जलवायु परिवर्तन को महज सरकार की जिम्मेदारी कहकर भी नहीं टाला जा सकता. हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी.
नीरज नैयर
9893121591
Tuesday, September 9, 2008
मुशर्रफ का जाना भारत पर भारी !
नीरज नैयर
जैसे-तैसे जम्हूरियत के रास्ते पर आया पाकिस्तान फिर अस्थिरता के अंधेरे में डूबता दिखाई दे रहा है. नवाज और जरदारी के बेमेल गठबंधन के बेमेल फैसले ने इस विचारणीय प्रश को जन्म दिया है कि क्या मुशर्रफ को हटाने से पाक में राजनीतिक स्थायित्व कामय रह पाएगा? जनरल के जाने के चंद घंटे बाद ही जिस तरह की राजनीति उथल-पुथल और अराजकता पाक में उत्पन्न हुई है उससे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि पाक का भविष्य्य कितना उज्वल होगा. जरदारी के मुशर्रफ का चोला पहनने की जल्दबाजी और बर्खास्त जजों की बहाली के मसले पर आनाकानी के चलते शरीफ ने गठबंधन की गांठ खोल दी हैं. शरीफ जजों की बहाली के मसले पर अड़े हुए थे जबकि जरदारी ऐसा कुछ नहीं करना चाहते. जरदारी को लगता है कि अगर पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी को बहाल किया गया तो वह खुद भी शिकार बन सकते हैं. ज्यादा उम्मीद इस बात की है कि मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी बहाल होकर आसिफ अलीजरदारी को मुशर्रफ के बनाए अधिनियम के तहत मिलने वाली छूट खत्म कर दें. जिसके बाद उनका बचना मुश्किल होगा. उन पर भष्टाचार के ढ़ेरों मामले थे जिन्हें समझौते के तहत जनरल ने खत्म कर दिए थे. ऐसे में सरकार भले ही न गिरे मगर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों छोरों पर अस्थिरता का संकट हमेशा बरकरार रहेगा, जो खुद पाकिस्तान और उसके पड़ोसी मुल्क यानी भारत के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं है।
इतिहास गवाह है कि जब भी पड़ोस में सियासी हलचल उठी है उसका सीधा असर हिंदुस्तान की हरियाली पर पड़ा है. मुशर्रफ के त्यागपत्र से पाकिस्तान में आईएसआई और कट्टरपंथियों का वहां की राजनीति में सीधा हस्तक्षेप होने की आशंका काफी हद तक बढ़ गई है. हो सकता है कि मुल्क के सियासी मामलों में फौज का दखल भी दोबारा शुरू हो जाए. जैसे कि जनरल जिया उल हक की विमान हादसे में मौत के बाद हुआ था. जिससे भीरत के साथ उसके रिश्तों में फिर से तल्खी लौट सकती है. कश्मीर मुद्दे और भारत के साथ रिश्तों को लेकर पाक की सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में रहती है, लिहाजा कश्मीर पर पाकिस्तान कोई नई फुलझड़ी छोड़ सकता है. वैसे उसने इसकी पहल भी कर दी है. पाक संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह करने की बात कही गई है. इसके साथ ही पाक एक समिति भी बनाने जा रहा है जिसका काम घाटी में मानवाधिकार उल्लंघन के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पेश करना होगा. मतलब यह साफ है कि पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर को बर्निंग इश्यू बनाने जा रहा है. वो जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर चल रहे महासंग्राम में गुपचुप तौर पर अपने हिस्सेदारी बढ़ाकर यह दिखाना चाहता है कि भारत सरकार के साथ कश्मीरियों का हित सुरक्षित नहीं है. अब तक कश्मीर पर गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी मगर पाक के इस कदम के चलते उसका पटरी से उतरना तय है. कश्मीर मसले को जितना उछाला जाएगा, भारत पर उतना ही दबाव पड़ेगा. पाकिस्तान इस बात को बखूबी जानता है, इसलिए उसने मुशर्रफ की विदाई के तुरंत बाद अपना घर संभालने के बजाए कश्मीर पर टांग अड़ाना ज्यादा बेहतर समझा. मुशर्रफ ने भले ही कारगिल के जरिए भारत में सेंध लगाने की कोशिश की हो मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में ही दोनों देश एक-दूसरे के करीब आने को बेकरार दिखे।
यह काबिले गौर है कि जनरल के शासन में 2004 के संघर्षविराम का एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. जबकि लोकतांत्रिक सरकार बनने के बाद पाकिस्तानी फौज सीमा पर गोलीबारी करने को आतुर नजर आ रही है. पाकिस्तान हुक्मरानों की भारत के प्रति दिलचस्पी शुरू से ही रही है. 1971 की लड़ाई में मुंह की खाने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि बांग्लादेश हमारा आंतरिक मामला था और भारत ने इसमें हस्तक्षेप कर हमारी टांग काटी है. हम भारत का सिर काट कर ही दम लेंगे. तब से पाकिस्तान कश्मीर को भारत से छीनकर हमारा सर कलम करने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. मुशर्रफ ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया. जम्हूरियत की बेटी कही जाने वाली बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद चुनी गई नवाज और जरदारी की गठबंधन सरकार को लेकर तमाम उम्मीदें पाली गईं थीं. कहा जा रहा था पाकिस्तान कश्मीर के समाधान की दिशा में कोई सार्थक पहल कर सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उल्टा पाकिस्तान की नई सरकार ने भारत सिरदर्दी जरूर बढ़ा दी।
जयपुर धमाके, काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमला आदि कुछ ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने अहसास दिलाया कि आईएसआई अब पहले से ज्यादा स्वतंत्र होकर काम कर रही है. भारत ने इस बात को बार-बार दोहराया कि काबुल धमाके में आईएसआई का हाथ है मगर पाक प्रधानमंत्री गिलानी से नवाज और जरदारी तक कोई इसे पचाने को तैयार नहीं है.ण मुशर्रफ ने जरूर आतंकवाद से लड़ाई को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो पर अमेरिका के दबाव के चलते उन्होंने कुछ हद तक अपने पाले हुए दहशतगर्दो को नियंत्रित करने का प्रयास किया. तमाम विरोध के बावजूद लाल मस्जिद पर हमला इसी का एक हिस्सा था. उन्होंने कुछ आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाया, लेकिन उनके जाने के बाद प्रतिबंधित गुट फिर से सक्रीय होने लगे हैं. लश्कर-ए-तोयबा के गैरकानूनी घोषित होने के बाद इसका नाम जमात उद दावा कर दिया गया. कराची में इसका दफ्तर भी बंद कर दिया गया. लेकिन अब उसे फिर से खोल दिया गया है. ऐसे ही जैश-ए-मोहम्मद भी फिर से हरकत में आ गया है. पाकिस्तान में महज कुछ दिनों में ही जो हालात उभर कर सामने आए हैं उसे देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि मुशर्रफ के जाने का भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. ऐसे वक्त में जब दोनों देश रिश्ते सुधारने की तरफ आगे बढ़ रहे थे जनरल का जाना भारत की परेशानियों में भी इजाफा कर सकता है
जैसे-तैसे जम्हूरियत के रास्ते पर आया पाकिस्तान फिर अस्थिरता के अंधेरे में डूबता दिखाई दे रहा है. नवाज और जरदारी के बेमेल गठबंधन के बेमेल फैसले ने इस विचारणीय प्रश को जन्म दिया है कि क्या मुशर्रफ को हटाने से पाक में राजनीतिक स्थायित्व कामय रह पाएगा? जनरल के जाने के चंद घंटे बाद ही जिस तरह की राजनीति उथल-पुथल और अराजकता पाक में उत्पन्न हुई है उससे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि पाक का भविष्य्य कितना उज्वल होगा. जरदारी के मुशर्रफ का चोला पहनने की जल्दबाजी और बर्खास्त जजों की बहाली के मसले पर आनाकानी के चलते शरीफ ने गठबंधन की गांठ खोल दी हैं. शरीफ जजों की बहाली के मसले पर अड़े हुए थे जबकि जरदारी ऐसा कुछ नहीं करना चाहते. जरदारी को लगता है कि अगर पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी को बहाल किया गया तो वह खुद भी शिकार बन सकते हैं. ज्यादा उम्मीद इस बात की है कि मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी बहाल होकर आसिफ अलीजरदारी को मुशर्रफ के बनाए अधिनियम के तहत मिलने वाली छूट खत्म कर दें. जिसके बाद उनका बचना मुश्किल होगा. उन पर भष्टाचार के ढ़ेरों मामले थे जिन्हें समझौते के तहत जनरल ने खत्म कर दिए थे. ऐसे में सरकार भले ही न गिरे मगर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों छोरों पर अस्थिरता का संकट हमेशा बरकरार रहेगा, जो खुद पाकिस्तान और उसके पड़ोसी मुल्क यानी भारत के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं है।
इतिहास गवाह है कि जब भी पड़ोस में सियासी हलचल उठी है उसका सीधा असर हिंदुस्तान की हरियाली पर पड़ा है. मुशर्रफ के त्यागपत्र से पाकिस्तान में आईएसआई और कट्टरपंथियों का वहां की राजनीति में सीधा हस्तक्षेप होने की आशंका काफी हद तक बढ़ गई है. हो सकता है कि मुल्क के सियासी मामलों में फौज का दखल भी दोबारा शुरू हो जाए. जैसे कि जनरल जिया उल हक की विमान हादसे में मौत के बाद हुआ था. जिससे भीरत के साथ उसके रिश्तों में फिर से तल्खी लौट सकती है. कश्मीर मुद्दे और भारत के साथ रिश्तों को लेकर पाक की सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में रहती है, लिहाजा कश्मीर पर पाकिस्तान कोई नई फुलझड़ी छोड़ सकता है. वैसे उसने इसकी पहल भी कर दी है. पाक संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह करने की बात कही गई है. इसके साथ ही पाक एक समिति भी बनाने जा रहा है जिसका काम घाटी में मानवाधिकार उल्लंघन के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पेश करना होगा. मतलब यह साफ है कि पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर को बर्निंग इश्यू बनाने जा रहा है. वो जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर चल रहे महासंग्राम में गुपचुप तौर पर अपने हिस्सेदारी बढ़ाकर यह दिखाना चाहता है कि भारत सरकार के साथ कश्मीरियों का हित सुरक्षित नहीं है. अब तक कश्मीर पर गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी मगर पाक के इस कदम के चलते उसका पटरी से उतरना तय है. कश्मीर मसले को जितना उछाला जाएगा, भारत पर उतना ही दबाव पड़ेगा. पाकिस्तान इस बात को बखूबी जानता है, इसलिए उसने मुशर्रफ की विदाई के तुरंत बाद अपना घर संभालने के बजाए कश्मीर पर टांग अड़ाना ज्यादा बेहतर समझा. मुशर्रफ ने भले ही कारगिल के जरिए भारत में सेंध लगाने की कोशिश की हो मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में ही दोनों देश एक-दूसरे के करीब आने को बेकरार दिखे।
यह काबिले गौर है कि जनरल के शासन में 2004 के संघर्षविराम का एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. जबकि लोकतांत्रिक सरकार बनने के बाद पाकिस्तानी फौज सीमा पर गोलीबारी करने को आतुर नजर आ रही है. पाकिस्तान हुक्मरानों की भारत के प्रति दिलचस्पी शुरू से ही रही है. 1971 की लड़ाई में मुंह की खाने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि बांग्लादेश हमारा आंतरिक मामला था और भारत ने इसमें हस्तक्षेप कर हमारी टांग काटी है. हम भारत का सिर काट कर ही दम लेंगे. तब से पाकिस्तान कश्मीर को भारत से छीनकर हमारा सर कलम करने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. मुशर्रफ ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया. जम्हूरियत की बेटी कही जाने वाली बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद चुनी गई नवाज और जरदारी की गठबंधन सरकार को लेकर तमाम उम्मीदें पाली गईं थीं. कहा जा रहा था पाकिस्तान कश्मीर के समाधान की दिशा में कोई सार्थक पहल कर सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उल्टा पाकिस्तान की नई सरकार ने भारत सिरदर्दी जरूर बढ़ा दी।
जयपुर धमाके, काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमला आदि कुछ ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने अहसास दिलाया कि आईएसआई अब पहले से ज्यादा स्वतंत्र होकर काम कर रही है. भारत ने इस बात को बार-बार दोहराया कि काबुल धमाके में आईएसआई का हाथ है मगर पाक प्रधानमंत्री गिलानी से नवाज और जरदारी तक कोई इसे पचाने को तैयार नहीं है.ण मुशर्रफ ने जरूर आतंकवाद से लड़ाई को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो पर अमेरिका के दबाव के चलते उन्होंने कुछ हद तक अपने पाले हुए दहशतगर्दो को नियंत्रित करने का प्रयास किया. तमाम विरोध के बावजूद लाल मस्जिद पर हमला इसी का एक हिस्सा था. उन्होंने कुछ आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाया, लेकिन उनके जाने के बाद प्रतिबंधित गुट फिर से सक्रीय होने लगे हैं. लश्कर-ए-तोयबा के गैरकानूनी घोषित होने के बाद इसका नाम जमात उद दावा कर दिया गया. कराची में इसका दफ्तर भी बंद कर दिया गया. लेकिन अब उसे फिर से खोल दिया गया है. ऐसे ही जैश-ए-मोहम्मद भी फिर से हरकत में आ गया है. पाकिस्तान में महज कुछ दिनों में ही जो हालात उभर कर सामने आए हैं उसे देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि मुशर्रफ के जाने का भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. ऐसे वक्त में जब दोनों देश रिश्ते सुधारने की तरफ आगे बढ़ रहे थे जनरल का जाना भारत की परेशानियों में भी इजाफा कर सकता है
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