नीरज नैयर
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एक जमाना था जब बाघ भारत की शान हुआ करते थे. उनकी गिनती के लिए गिनतियां ही पड़ जाया करती थीं. कभी अठखेलियां तो कभी शिकार करते बाघ अक्सर जंगलों में दिख जाया करते थे. पर वक्त अब बदल गया है. अभयारण्यों और चिड़ियाघरों में भी वे इक्का-दुक्का नजर आते हैं. दादी-नानी के कहानियों से भी वे धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं. मनुष्य और बाघों के बीच अस्तित्व की लड़ाई अब कहीं सुनाई नहीं देती. बाघ दम तोड़ रहे हैं, उनकी दहाड़ कराह में तब्दील हो रही है. यह सुंदर प्राणी अपने जीवन की आखिरी लड़ाई लड़ रहा है. मनुष्य की लालसा और विकास की आंधी ने बाघों को विलुप्ती के कगार पर ला खड़ा किया है. इनकी संख्या में लगातार गिरावट हो रही है. जिस रफ्तार से बाघ घटते जा रहे हैं उससे यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में बाघ भी डायनासोर की तरह किताबों और कल्पनाओं में ही जीवित रह जाएंगे. करीब 36 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदरा गांधी ने जिम कार्बेट से बाघ संरक्षण परियोजना की शुरूआत की थी मगर तब से अब तक भारत में बाघों की संख्या को बढ़ाया नहीं जा सका है. उल्टा इनकी इनकी संख्या दिन ब दिन घटती जा रही है.
ताजा गणना के अनुसार देश में मात्र 1411 बाघ ही बचे हैं जबकि 2001 में करीब 3500 बाघ होने का दावा किया जा रहा था. हालांकि पश्चिम बंगाल के सुंदरवन और झारखंड में बाघों की गिनती को अंजाम नहीं दिया जा सका है. सुंदरवन में कुछ समय पहले तक 250 बाघ थे लेकिन अब वहां केवल 60-70 ही बचे हैं. इसी तरह झारखंड में बाघों की संख्या 60-70 से घटकर 1-2 होने का अनुमान है. ऐसे में अगर इन दोनों क्षेत्रों के अनुमानित आंकड़ों को मिला भी लिया जाए तो बाघों की कुल संख्या 1500 से कम ही रहने वाली है. मौजूदा आंकड़े यह दर्शाने के लिए काफी हैं कि हमारे देश में बाघ संरक्षण पर कितने गंभीर कदम उठाए गये हैं. पिछले 36 सालों से बाघों की सुरक्षा पर करीब 2607 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं मगर नतीजे हमारे सामने हैं. 2005 में राजस्थान के अभयारण्यों में बड़ी तादाद में बाघों के लापता होने की खबरों के बाद नींद से जागी सरकार ने सुनीता नारायण के नेतृत्व में एक विशेष कार्यबल का गठन किया था. जिसने अपनी रिपोर्ट में तीन बातों पर जोर दिया था. पहली, बाघों के संरक्षण के लिए जंगलों मेें सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम. दूसरी, वन्य जीव अपराध ब्यूरो का गठन और तीसरी, बाघों के संरक्षण्ा में स्थानिय लोगों की भागीदारी. इनमें से अगर पहली बात पर ही गंभीरता से काम किया गया होता तो शायद स्थिति इतनी भयावह नहीं होती. बाघ संरक्षण के प्रति सरकार कितनी गंभीर है इसका अंदाजा तो इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी फॉरेस्ट गार्ड के हजारों पद खाली पड़े हैं. सच तो यह है कि वन एंव पर्यावरण विभाग इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है. कर्मचारियों को न तो पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है और न ही पर्याप्त सुविधाएं. हालात ये हो चले हैं कि अधिकतर अधिकारी महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं. उनमें न तो वन्यजीवों के प्रति कोई संवेदना है और न ही काम के प्रति कोई लगाव. यही कारण है कि रोक के बावजूद बाघों का शिकार बदस्तूर जारी है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खालों की तस्करी में लगे हुए हैं. इसके लिए वह जंगलों में रहने वाले चरवाहों और कहीं-कहीं वन विभाग के लोगों से मदद लेते हैं, क्योंकि इन्हें जानवरों के बारे में काफी जानकारी होती है. बाघों को जाल बिछाकर फंसाया जाता है. सिर्फ आधे घंटे में ही बाघ की खाल निकालकर अपराधी फरार हो जाते हैं. बाघों की खाल और अंगों का सबसे बड़ा बाजार चीन है. बाघ की एक खाल के लिए यहां पांच लाख रुपए तक मिल जाते हैं. चीन में अमीर लोग बाघों की खाल से घर सजाना अपनी शान समझते हैं. चीन में बढ़ती डिमांड के चलते भारत से बाघों का सफाया किया जा रहा है. वैसे बाघों की घटती संख्या के लिए राज्य सरकारें भी कम कसूरवार नहीं हैं. करीब 2 साल पहले राज्यों से बाघों की सुरक्षा के लिए निगरानी समिति बनाने का कहा गया था मगर अब तक अधिकतर राज्यों ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है. 2006 में संशोधित वन्यजीव सुरक्षा कानून 1972 के तहत निगरानी समिति का गठन जरूरी है. राज्यों को इस बाबत कई बार स्मरण पत्र भी भेजे जा चुके हैं मगर कोई भी अपनी जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं. नक्सल प्रभावित राज्यों का हाल तो और भी बुरा है. वहां आने वाले टाइगर रिजर्व महज नाम मात्र के लिए रह गये हैं. इन रिजर्वो में बाघों की संख्या तेजी से घटती जा रही है.
जंगलों में नक्सलवादियों की बढ़ती घुसपैठ बाघों की संख्या में कमी का प्रमुख कारण है. नक्सलवादी बड़ी आसानी से बाघों का शिकार कर रहे हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. ऐसा नहीं है कि सबकुछ गुपचुप हो रहा है. वन अधिकारी इस बात को भली भांति जानते हैं मगर नक्सलवादियों का खौफ इस कदर है कि वो जंगल में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. इंद्रावती, पलामू, सांरदा, वाल्मीकि और सिमिलीपाल जैसे घने जंगलों वाले टाइगर रिजर्व में वनरक्षक जाने की जुर्रत नहीं करते, उन्हें पता है नक्सलियों से लोहा लेना उनके बस की बात नहीं. करीब 34000 वर्ग किलोमीटर में फैले छत्तीसगढ़ के इंद्रावती टाइगर रिजर्व को कभी बाघों के संरक्षण के लिए उपयुक्त माना जाता था मगर अब यहां नक्सलवादियों का कब्जा है. हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि यहां शायद ही कोई बाघा बचा हो, जबकि 2001 की गणना के अनुसार यहां करीब 29 बाघ थे. उडीसा के सिमिलीपाल और बिहार-नेपाल सीमा से लगे वाल्मीकि टाइगर रिजर्वो का हाल भी कुछ अच्छी नहीं है. सिमिलीपाल में 2001 में 99 बाघों की गणना कि गई थी पर अब केवल 20 बाघों के होने का ही अनुमान है. ऐसे ही वाल्मीकि में 2001 में 53 के मुकाबले अब सिर्फ 10 बाघ ही बचे हैं. नक्सली गतिविधियों के चलते इन रिजर्वो में संरक्षण अब नामुमकिन सा हो गया है. 1488 वर्ग किलोमीटर में फैले झारखंड की पलामू में 2001 की गणना के मुताबिक 32 बाघ पाए गये थे लेकिन मौजूदा गणना के प्रथम चरण में वहां एक भी बाघ की मौजूदगी दर्ज नहीं की जा सकी. बाघों के रिहाइश वाले इलाकों में वन्यजीवों की घटती आबादी भी चिंता का विषय है.
जंगल में पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण बाघ अक्सर शिकार की तलाश में खुले क्षेत्रों में निकल आते हैं और खुद शिकार बन जाते हैं. सरकार भले ही इस बात को स्वीकार न करे मगर सच यही है कि जितनी तेजी से बाघों के घर सुरक्षित रखने की योजनाएं परवान चढ़ी, जंगलों को टाइगर रिजर्व घोषित किया गया, उतनी ही तेजी से बाघ तस्करों के लालच और सरकार की सुस्ती का शिकार होते गये. सरकार को यह समझना होगा कि महज वन क्षेत्र बढ़ा देने या नये अभयारण्यों की घोषणा कर देने से बाघ नहीं बचने वाले. बाघों को बचाने के लिए दृढ इच्छा शक्ति के साथ युद्धस्तर पर कार्य करने की जरूरत है. उनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने का सही वक्त आ गया है अगर अभी कुछ नहीं किया गया तो आगे कुछ करने की जरूरत ही नहीं बचेगी.
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