Tuesday, July 13, 2010

बाघ तभी बचेंगे, जब सरकार बचाना चाहेगी

नीरज नैयर
कहते हैं कोई मुद्दा अगर मीडिया में आ जाए तो उसे अंजाम तक पहुंचते देर नहीं लगती। लेकिन बाघ सरंक्षण का मुद्दा सुर्खियां बटोरने के बाद भी वहीं का वहीं है। अब तो इस बारे में कोई खबर भी सुनने को नहीं मिलती। सरकार के पास कश्मीर, महंगाई जैसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर विचार करना शायद उसे बाघ बचाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। बाघों का क्या है, बचे तो ठीक नहीं तो एकाध बाघ स्मारक बनाकर काम चला लिया जाएगा। राजस्थान के सरिस्का से बाघों के गायब होने की खबर के बाद से अब तक एक कदम भी ऐसा नहीं बढ़ाया गया जिसके सार्थक परिणाम निकलते दिखाई दे रहे हों। सरकारी मशीनरी की चाल-ढाल देखकर तो यही कहा जा सकता है कि शायद उसने महंगाई की तरह बाघों को बचाने का जिम्मा भी भगवान पर छोड़ दिया है। गनीमत बस इतनी भर है कि जयराम रमेश कृषिमंत्री की तरह बयान नहीं दे रहे हैं।

शरद पवार ने तो महंगाई के लिए सीधे तौर पर मानसून को दोषी ठहराया था, यदि जयराम भी ऐसा कुछ कह देते तो तूफान में टिमटिमाते दीए माफिक जो उम्मीद बची है वो भी खत्म हो गई होती। बाघ सरंक्षण पर सरकार को अपनी कार्ययोजना पर फिर से विचार करना होगा, मौजूदा हालात में बर्षों पुरानी सोच के आधार पर कोई कारगर तरीका नहीं खोजा जा सकता। सरकार और इस मुद्दे से जुड़ी तमाम संस्थाएं इस बात पर जोर देती रही हैं कि टाइगर रिजर्व के आसपास स्थित गांववालों को इस मुहिम में शामिल किया जाए। उन्हें लगता है कि स्थानीय लोगों के समर्थन के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है। जबकि हकीकत शायद उतनी हसीन नहीं है, बाघ और मानव के बीच की दूरी जितनी कम होगी खतरा उतना ही अधिक रहेगा। बाघ या दूसरे वन्यजीवों के शिकार में सबसे बड़ा खेल पैसे का है, शिकारी एक शिकार से हजारों कमाते हैं और उनके ऊपर की एजेंसियां लाखों। एक अनुमान के मुताबिक चीन में बाघ की खाल की कीमत तकरीबन 12500 डॉलर है। भारतीय मुद्रा के हिसाब से संख्या पांच लाख से ज्यादा रुपए बैठती है। ऐसे में शिकारी बाघ तक पहुंच को आसान बनाने के लिए कुछ रुपए थमाकर क्या उन गांव वालों का साथ नहीं खरीद सकते जिन्हें सेव टाइगर मिशन से जोड़ा जा रहा है। अब तक ऐसा ही होता आया है, शिकारी स्थानीय निवासियों या वन्य विभाग के मुलाजिमों से बाघ की खोज खबर लेते हैं और उसके ऐवज उनकी जेब भारी की जाती है। सरिस्का के वक्त भी ये बात सामने आई थी कि बाघों के सफाए में उन लोगों का भी योगदान था जिन्हें इस खूबसूरत प्राणी की हिफाजत के लिए तैनात किया गया था। सबसे ज्यादा जरूरी बात ये जानना है कि अभ्यारणयों या जंगलों के आस-पास रहने वाले कितने लोग बाघ या दूसरे वन्यजीवों को बचाने के प्रति संजीदा हैं। ऐसे लोगों के लिए वन्यप्राणी मतलब खतरा होता है, और उनके लिए सबसे ज्यादा चिंता का विषय उनके पालतू जानवर होते हैं। यदि कोई जंगली जानवर उनके पालतू पशुओं को नुकसान पहुंचाता है तो क्या वो उसके सरंक्षण के विचार पैदा कर सकेंगे। बाघों को बचाने के लिए सबसे पहला कदम सरंक्षित क्षेत्रों से आबादी का विस्थापन होना चाहिए। इसके अलावा वन विभाग के अमले को भी चुस्त-दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है। इस विभाग में आधे से ज्यादा लोग महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं।

जंगलों में घूमने वालों से लेकर एसी केबिनों में बैठने वालों तक पूरा ढंाचा बदले जाने की जरूरत है। ये कोशिश की जानी चाहिए कि वन्यजीवों की सुरक्षा का जिम्मा युवा हाथों में दिया, इसके लिए सालों से रिक्त पड़े फॉरेस्ट गार्ड और रेंजरों के पदों को भरना होगा। इस मामले में सरकार बहुत सुस्त चाल से आगे चल रही है, जबकि ये सबसे बड़ी जरूरत है। इसके अतिरिक्त निचले स्तर पर तनख्वाह बढ़ाने पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। रणनीति बनाने वालों के साथ-साथ मोर्चा लेने वालों को भी तवज्जो दिया जाना चाहिए। जंगलों की खाक छानने वाले एक गार्ड को जितना वेतन मिलता है, उतने में आज के समय में घर चलाना बिल्कुल भी आसान नहीं। किसी भी इंसान का ईमान उसकी आर्थिक स्थिति और जरूरतों के बीच के फासले को देखकर ही ढोलता है। अगर इस फासले को कम किया जा सके तो शायद ईमान को कायम रखने में मदद मिल सकती है। फॉरेस्ट गार्ड-रेंजरों और दूसरे स्टाफ को उचित तनख्वाह मिले, उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण के साथ अत्याधुनिक तकनीकि मुहैया करवाई जाए तो बद से बदतर होती स्थिति को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन इतने सबके लिए सबसे पहले सरकार को बाघ सरंक्षण को पार्ट टाइम जॉब के रूप में लेना छोडऩा होगा।

दूसरे मुद्दों की तरह इस मुद्दे को भी प्राथमिताओं की सूची में शुमार किए बगैर बाघों के साथ न्याय नहीं हो सकता। कुछ वक्त पहले भारत सरकार ने 13 चिन्हित बाघ संरक्षित क्षेत्रों में विशेष बाघ सुरक्षा बल (एसटीपीएफ) तैनात करने का फैसला लिया था। लेकिन उनकी तैनाती कोई खास असर डाल पाएगी कहना मुश्किल है, क्योंकि साल 2008 के बजट भाषण में एसटीपीएफ के लिए 50 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की गई थी मगर अब तक इस बारे में सिर्फ बातें ही हो रही हैं। चंद महीनों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बाघों के संबंध में राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की इच्छा जाहिर की थी, पर शायद उस इच्छा को भी अमल में नहीं उतारा गया। कुछ एक मीडिया समूह इस मुद्दे को जरूर लगातार उठाए हुए हैं, लेकिन इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ छिपे हैं। जनता के बीच खुद को संवेदनशील और सामाजिक सरोकार से मतलब रखने वाले की छवि बनाने के लिए सेव टाइगर जैसे कैंपेन चलाए जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक प्रतिष्ठित चैनल ने तो आमजन से बाघ बचाने के सुझाव सुझाने की अपील कर रहा है, लेकिन उसकी संजीदगी का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मेरे द्वारा उनकी वेबसाइट/ब्लॉग पर तमाम संदेश छोडऩे के बाद भी आज तक उनका कोई जवाब नहीं आया। जबकि दूसरे मुद्दों पर वहीं हर रोज गर्मागर्म बहस चलती है। ये सच है कि इस तरह के कैंपेन थोड़ी बहुत जागरुकता फैलाने में मददगार साबित हो सकते हैं, मगर इन तरीकों से बाघों को नहीं बचाया जा सकता। बाघ केवल तब ही बचेंगे जब सरकार बचाना चाहेगी। और इसके लिए मनमोहन सिंह जैसे नेताओं का जागना बेहद जरूरी है।

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